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बुधवार, 21 अगस्त 2013

The Fateful Eggs-3

अध्याय 3
पेर्सिकोव ने पकड़ लिया
   
मामला कुछ यूँ था. जब प्रोफेसर ने अपनी पैनी आँख आई-पीस से लगाई तो उसने अपने जीवन में पहली बार इस बात पर ग़ौर किया कि उस रंगबिरंगी लहर में ख़ास तौर से स्पष्ट रूप से एक विशेष रंग की काफ़ी मोटी किरण अलग से दिखाई दे रही है. ये किरण लाल-चटख़ रंग की थी और लहर में से एक छोटी सी नुकीली चीज़ की तरह बाहर निकल रही थी, जैसे कोई सुई होती है.
बस, दुर्भाग्यवश, कुछ पलों तक इस किरण ने महान वैज्ञानिक की आँख को उलझाए रखा.
इसमें, इस किरण में, प्रोफेसर ने वो देखा जो ख़ुद किरण से हज़ार गुना महत्वपूर्ण था - एक अस्पष्ट, अस्थिर जीव, जो माइक्रोस्कोप के लैन्सों और शीशों की एक असावधान हरकत के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ था. असिस्टेंट द्वारा प्रोफेसर को बुलाकर ले जाने की बदौलत, अमीबा इस किरण के प्रभाव तले डेढ़ घंटे पड़े रहे, और इस कारण ये हुआ : उस समय, जब डिश पर किरण से बाहर के क्षेत्र में दानेदार अमीबा सुस्त और असहाय अवस्था में पड़े रहे; उस जगह, जहाँ ये लाल, नुकीली तलवार पड़ रही थी, विचित्र घटनाएँ होने लगीं. लाल गोलाकार हिस्से में जीवन खदखदा रहा था. भूरे अमीबा अपने नकली पैरों को बाहर निकाले पूरी ताकत से लाल गोले की तरफ़ बढ़ रहे थे और उसमें घुसकर (जैसे कोई जादू हो गया हो) जीवित हो रहे थे. कोई ताकत उनमें ज़िन्दगी भर रही थी. वे झुण्डों में रेंग रेंग कर जा रहे थे और लाल गोले में जगह पाने के लिए एक दूसरे से लड़ रहे थे. उसमें जारी था एक बदहवास, कोई दूसरा शब्द नहीं मिल सकता, जनन चक्र. सभी नियमों को, जो पेर्सिकोव को अपनी पांच उँगलियों की भाँति ज्ञात थे, तोड़ कर और उनका उल्लंघन करते हुए वे उसकी आँखों के सामने विद्युत की गति से दुगुने होते जा रहे थे. किरण में उनका विघटन हो रहा था, और हर भाग सिर्फ 2 सेकंड के भीतर नए और ताज़े जीव में परिवर्तित हो रहा था. ये जीव कुछ ही पलों में अपने आकार-प्रकार और परिपक्वता को प्राप्त करके तुरंत ही नई पीढ़ी को उत्पन्न कर देते. लाल गोले में, और इसके बाद समूची डिस्क में जगह की काफ़ी तंगी होने लगी, और एक अवश्यंभावी संघर्ष आरंभ हो गया. नवजात अमीबा तैश में एक दूसरे पर झपटते, टुकड़े टुकड़े कर देते और निगल लेते. नवजात अमीबा के बीच में ही अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हो गए अमीबा के शव पड़े थे. सर्वोत्तम और शक्तिशाली ही जीत रहे थे. और ये ‘सर्वोत्तम’ – भयानक थे. पहली बात: अपने आकार-प्रकार में वे साधारण अमीबा से दुगुने थे; और दूसरी बात : उनमें एक ख़ास तरह का जुनून और फुर्ती थी. उनकी गतिविधियाँ केन्द्रित थीं, उनके नकली पैर आम अमीबा के पैरों से काफ़ी लंबे थे और वे उनका, बिना अतिशयोक्ति के, ऑक्टोपस के तंतुओं की तरह उपयोग कर रहे थे.             
अगली शाम को प्रोफेसर ने , जिसका खाना न खाने के कारण रंग पीला पड़ गया था और गाल पिचक गए थे, सिर्फ ख़ुद बनाई हुई मोटी मोटी सिगरेट्स के सहारे, अमीबा की नई पीढ़ी का अध्ययन किया, और तीसरे दिन वह उद्गम स्त्रोत, अर्थात् लाल किरण की ओर बढ़ा.   
लैम्प में गैस हौले हौले फुसफुसा रही थी, रास्ते पर फिर से यातायात बढ़ गया था, और प्रोफेसर, सौंवी सिगरेट के ज़हर से बाधित, आँखें आधी मूंदे रिवॉल्विंग चेयर की पीठ से टिक गया.
 “हाँ, अब सब स्पष्ट है. उनमें जान फूंकी किरण ने. ये नई, अब तक किसी के भी द्वारा न खोजी गई, किरण है जिसका अब तक किसी के भी द्वारा अध्ययन नहीं किया गया है. पहली बात, जो स्पष्ट करनी होगी वो ये है -  क्या यह सिर्फ बिजली से प्राप्त की जाती है या  फिर इसे सूरज से भी प्राप्त किया जा सकता है,” पेर्सिकोव अपने आप से बड़बड़ा रहा था.
और एक और रात में यह भी स्पष्ट हो गया. तीन माइक्रोस्कोपों में पेर्सिकोव ने तीन किरणों को कैद किया, सूरज से उसे कुछ भी हासिल न हुआ और उसने इस तरह से स्पष्टीकरण दिया:
 “ये अनुमान लगाना होगा कि सूरज के स्पेक्ट्रम में वो नहीं है....हुम्...तो, एक लब्ज़ में, ये अनुमान लगाना होगा कि उसे केवल कृत्रिम प्रकाश से प्राप्त किया जा सकता है.” उसने ऊपर लगे मटमैले गोले की ओर प्यार से देखा, उत्साहपूर्वक कुछ सोचा और इवानोव को अपनी कैबिनेट में बुलाया. उसने उसे सब कुछ बताया और अमीबा भी दिखाए.
प्राइवेट- सहायक प्रोफेसर इवानोव भौंचक्का रह गया, पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया: इतनी मामूली सी चीज़, इस महीन तीर को अब तक किसीने कभी देखा क्यों नहीं, शैतान ले जाए! हाँ, किसी ने भी, और कम से कम उसने, इवानोव ने भी... और है तो यह बड़ी आश्चर्यजनक बात! आप ग़ौर तो कीजिए...
 “आप देखिए तो सही, व्लादीमिर इपातिच!” आँख आई-पीस से सटाए इवानोव ने ख़ौफ़ से कहा, - ये क्या हो रहा है?! वे बढ़ रहे हैं, मेरी आँखों के सामने बढ़ रहे हैं...देखिए, देखिए...”
 “मैं तीन दिनों से उन्हें देख रहा हूँ,” पेर्सिकोव ने जोश से कहा.
इसके बाद दोनों वैज्ञानिकों के बीच बातचीत हुई, जिसका सार इस प्रकार था: प्राइवेट-सहायक प्रोफेसर लैंसों और शीशों की सहायता से चैम्बर बनाएगा जिसमें इस किरण को मैग्निफाइड रूप में और माइक्रोस्कोप से बाहर प्राप्त किया जा सकेगा. इवानोव को उम्मीद है, बल्कि पूरा पूरा यक़ीन है, कि ये काफ़ी आसान काम है. व्लादीमिर इपातिच फ़िक्र न करें, किरण वह प्राप्त कर ही लेगा. यहाँ थोड़ी सी रुकावट महसूस हुई.
 “मैं, प्योत्र स्तेपानोविच, जब इस शोध को प्रकाशित करूंगा , तो इस बात का ज़रूर उल्लेख करूंगा कि चैम्बर्स को आपने सुसज्जित किया था,” पेर्सिकोव ने पुश्ती जोड़ी, ये महसूस करते हुए कि रुकावट को दूर करना चाहिए.
 “ओह, ये ज़रूरी नहीं है. ..मगर, बेशक...”
और रुकावट फ़ौरन दूर हो गई. इस पल से किरण ने इवानोव को भी पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया. जब क्षीण और थकावट से चूर पेर्सिकोव पूरा दिन और आधी रात माइक्रोस्कोप के पास बैठा रहता, इवानोव रोशनी से जगमगाती फिज़िक्स-लेबोरेटरी में व्यस्त रहता – लैंसों और शीशों के संयोजन में. मैकेनिक उसकी सहायता करता.
शिक्षा कमिश्नर के माध्यम से भेजे गए अनुरोध के बाद पेर्सिकोव को जर्मनी से तीन पार्सल प्राप्त हुए जिनमें विभिन्न प्रकार के लैंस थे – डबल कॉन्वेक्स,  डबल कॉन्केव, और कुछ पॉलिश किए हुए कॉन्वेक्सो-कॉन्केव मिरर्स. इस सबका परिणाम ये हुआ कि इवानोव ने चैम्बर पूरी तरह सुसज्जित कर लिया और उसमें वाक़ई में लाल किरण को कैद कर लिया. उसकी तारीफ़ करनी होगी कि उसने ये काम बड़ी ही क़ाबिलियत से किया : किरण काफ़ी मोटी थी, चार सेंटीमीटर मोटी, नुकीली और सशक्त.
पहली जून को इस चैम्बर को पेर्सिकोव की कैबिनेट में फिट कर दिया गया और उसने बड़ी उत्सुकता से किरण द्वारा प्रकाशित मेंढकों के अण्डसमूहों पर प्रयोग करना आरंभ कर दिया. इन प्रयोगों के परिणाम चौंकाने वाले थे. दो दिनों में इन अंडसमूहों से मेंढकों के हज़ारों डिम्ब बाहर निकले. मगर यह तो कम ही था, और चौबीस घंटों में डिम्ब असाधारण मेंढकों में परिवर्तित हो गए, जो इतने दुष्ट और लालची थे कि उनमें से आधों को तो फ़ौरन बाकी के आधे खा गए. इसके बाद, जीवित मेंढक तुरंत अंडसमूह उत्पन्न करने लगे, और दो ही दिनों में बिना किसी किरण-विरण के उन्होंने नई पीढ़ी उत्पन्न कर दी, और वह भी अपार, अनगिनत मेंढकों की. वैज्ञानिक की कैबिनेट में शैतान ही जाने क्या हो रहा था : डिम्ब कैबिनेट से निकल निकल कर पूरे इंस्टिट्यूट में, पिंजरों में, और फर्श पर भी रेंग रहे थे, सभी ओनों-कोनों में टर्राहट सुनाई दे रही थी जैसी दलदल में सुनाई देती है. पन्क्रात, जो पेर्सिकोव से ऐसे ख़ौफ़ खाता था मानो वह आग हो, अब उससे यूँ डरने लगा जैसे कोई मौत से डरता है. एक हफ़्ते बाद वैज्ञानिक ने ख़ुद भी महसूस किया कि वह पगला रहा है. इंस्टीट्यूट ईथर और पोटेशियम सायनाइड की गंध से भर गई थी, जिसका ज़हर पन्क्रात को ख़तम ही कर देता जिसने समय से पूर्व अपना मास्क निकाल दिया था. इस भयानक रूप से बढ़ती हुई दलदली आबादी को अनेक प्रकार के ज़हर से ख़तम कर दिया गया, सारी कैबिनेट्स में शुद्ध हवा प्रवाहित की गई.
पेर्सिकोव इवानोव से कह रहा था,
“ जानते हो, प्योत्र स्तेपानोविच, इस किरण की ड्यूटेरोप्लाज़्म और अण्डकोश पर प्रतिक्रिया चौंकाने वाली है.”
इवानोव ने, जो काफ़ी शांत और संयत स्वभाव का व्यक्ति था, असाधारण स्वर में प्रोफेसर की बात काटी:
 “ व्लादीमिर इपातिच, आप ड्यूटेरोप्लाज़्म जैसे इन छोटे छोटे विवरणों के बारे में क्या सोच रहे हैं. साफ़ साफ़ कहेंगे : आपने ऐसी चीज़ का आविष्कार किया है जिसके बारे में आज तक किसी ने सुना नहीं है.” ज़ाहिर है, काफ़ी प्रयत्नपूर्वक उसने ये शब्द कहे: - “प्रोफेसर पेर्सिकोव, आपने जीवन की किरण की खोज की है!”     
पेर्सिकोव के  बदरंग, बिना दाढ़ी किए गालों पर हल्की सी रंगत तैर गई.
 “ओह, ओह, ओह,” वह बुदबुदाया.
 “आप,” इवानोव कहता रहा, “इतना नाम कमाएँगे...मेरा तो सिर घूम रहा है. आप, समझ रहे हैं,” वह जोश में कहता रहा, “व्लादीमिर इपातिच, वेल्स के नायक तो आपके मुक़ाबले में बिल्कुल कचरा हैं...और मैं तो सोचता था कि ये सिर्फ कहानियाँ हैं...आपको उसका ‘ देवों का भोजन’ याद है?”
 “आह, ये उपन्यास है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया.
 “हाँ, ख़ैर, थैन्क्स गॉड, बहुत मशहूर है!...”
 “मैं भूल गया,” पेर्सिकोव ने कहा, “याद तो है कि पढ़ा था, मगर भूल गया.”

 “ऐसे कैसे याद नहीं है, हाँ, इसे देखिए,” इवानोव ने काँच की मेज़ से टांग पकड़ कर मरे हुए अकराल-विकराल मेंढक को उठाया जिसका पेट फूला हुआ था. उसके थोबड़े पर मरने के बाद भी दुष्ट भाव थे – “वाक़ई में, ये अजूबा है!”

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

The Fateful Eggs - 2

अध्याय 2
रंगीन लहर

तो, प्रोफेसर ने बिजली का गोला जलाया और चारों ओर नज़र डाली. प्रयोग वाली लम्बी मेज़ पर रेफ्लेक्टर जलाया, सफ़ेद एप्रन पहना, मेज़ पर पड़े किन्हीं उपकरणों को खनखनाया...
सन् ’28 में मॉस्को की सड़कों पर दौड़ रहे 30 हज़ार स्वचालित वाहनों में से अधिकांश, लकड़ी के पुलों पर खड़खड़ाते हुए, गेर्त्सेन रोड़ से ही गुज़रते थे, और शोर और कर्कशता के साथ हर मिनट गेर्त्सेन से मोखोवाया जाने वाली 16, 22, 48 या 53 नंबर के रूट वाली ट्राम गाड़ी गुज़रती. अध्ययन कक्ष के आईनों में रंगबिरंगी रोशनियों की चमक बिखेरता, दूर, ऊँचाई पर क्राईस्ट-चर्च की अंधेरी और भारी-भरकम गुम्बद की बगल में कोहरे से ढंका, बदरंग चांद का हंसिया नज़र आ रहा था.
मगर न तो वो, न ही बसंत के मॉस्को का शोरगुल प्रोफेसर पेर्सिकोव का ध्यान अपनी ओर खींच रहे थे. वह तीन टांगों वाले रिवॉल्विंग स्टूल पर बैठा था और तम्बाकू के कारण भूरी हो गईं उँगलियों से शानदार ज़ैस माईक्रोस्कोप का स्क्रू घुमा रहा था, माइक्रोस्कोप के नीचे डिस्क में ताज़े अमीबा का रंगहीन प्रिपैरटिव रखा था. उस क्षण, जब पेर्सिकोव ने मैग्नोफिकेशन को 5 से बढ़ाकर 10 हज़ार किया, दरवाज़ा थोड़ा सा खुला, नुकीली दाढ़ी और चमड़े का जैकेट दिखाई दिया , और असिस्टेंट ने पुकारा:
 “व्लादीमिर इपातिच, मैंने आन्त्रयोजनी (आंत के कुछ हिस्से और उदर की थैली के बीच की झिल्ली– अनु.) खोल दी है, देखना चाहेंगे?”
अपने स्क्रू और प्रिपैरेटिव को आधे में ही छोड़कर पेर्सिकोव फुर्ती से तिपाई से उतरा और हाथों में धीरे धीरे सिगरेट घुमाते हुए असिस्टेंट की कैबिनेट में घुसा. वहाँ काँच की मेज़ पर प्रयोग वाले तख़्ते पर एक मेंढकी तनी हुई पड़ी थी, आधा दम घुटी, दर्द और डर से अधमरी; और खून से लथपथ पेट से निकाले हुए उसके पारदर्शक, चिपचिपे आंतरिक अवयव माइक्रोस्कोप के नीचे रखे थे.
 “बहुत अच्छे,” पेर्सिकोव ने कहा और अपनी आँख माइक्रोस्कोप की आईपीस पर गड़ा दी.
ज़ाहिर है कि मेंढकी की आन्त्रयोजनी में कोई बहुत ही दिलचस्प चीज़ इतनी स्पष्ट दिखाई दे रही थी, मानो सब कुछ हथेली पर रखा हो: उसकी रक्तवाहिनियों की नदियों में खून के गोले ग़ज़ब की तेज़ी से बह रहे थे. पेर्सिकोव अपने अमीबा के बारे में भूल गया और अगले डेढ़ घंटे तक बारी बारी से अपने असिस्टेंट के साथ माइक्रोस्कोप में नज़र गड़ाता रहा. इस दौरान दोनों वैज्ञानिक बड़े जोश में अपनी वैज्ञानिक भाषा में बातें भी कर रहे थे जो हम साधारण लोगों को समझ में नहीं आएंगी.
आख़िरकार पेर्सिकोव माइक्रोस्कोप से दूर हटा और उसने घोषणा कर दी:
 “खून जम रहा है, कुछ नहीं किया जा सकता.”
मेंढकी ने मुश्किल से अपना सिर हिलाया, उसकी बुझती हुई आँखों में ये शब्द स्पष्ट थे : “पूरे सुअर हो तुम, और कोई नहीं...”
अपने सुन्न हो गए पैरों को तान कर ठीक करते हुए पेर्सिकोव उठा, अपनी कैबिनेट में आया, एक जमुहाई ली, सदा सूजी रहने वाली पलकों पर उँगलियाँ फेरीं और, तिपाई पर बैठकर, माइक्रोस्कोप में देखा, उँगलियाँ उसने स्क्रू पर रखीं और उसे घुमाने ही वाला था, मगर नहीं घुमाया. अपनी दाहिनी आँख से पेर्सिकोव ने धुंधली सफ़ेद डिस्क देखी और उसमें रखे धुंधले सफ़ेद अमीबा, मगर डिस्क के बीचोंबीच विराजमान थी एक रंगीन लहर, किसी औरत के घुंघराले बाल जैसी. इस लहर को स्वयँ पेर्सिकोव और उसके सैंकडों विद्यार्थी अनेकों बार देख चुके थे, और किसी को भी उसमें कभी कोई दिलचस्पी महसूस नहीं हुई, ज़रूरत ही नहीं थी. रंगीन लहर सिर्फ़ निरीक्षण में बाधा डालती थी और यह दर्शाती थी कि प्रेपैरटिव फोकस में नहीं है. इसलिए स्क्रू के एक घुमाव से उस हिस्से को सफ़ेद रंग के प्रकाश से आलोकित करके उसे बेदर्दी से मिटा देते थे. प्राणी-शास्त्रज्ञ की लंबी लंबी उँगलियाँ स्क्रू की नॉब पर जमी हुई थीं, मगर वे एकदम थरथराईं और नीचे गिर गईं. इसकी वजह थी पेर्सिकोव की दाहिनी आँख. वह अचानक सतर्क हो गया, विस्मित हो गया, उत्तेजना से सराबोर भी हो गया. माइक्रोस्कोप के पास ये कोई मामूली हस्ती नहीं थी, जो प्रांत को मुसीबत में डालती. नहीं, ये बैठा था प्रोफेसर पेर्सिकोव! उसकी पूरी ज़िन्दगी, सारे विचार दाहिनी आँख पर केन्द्रित हो गए. पाँच मिनट तक स्तब्ध ख़ामोशी में फोकस के बाहर वाले प्रेपैरेटिव पर आँख फाड़े, उसे यातना देते हुए ऊपर का बेहतरीन जीव नीचे के निकृष्ट जीवों को देखता रहा. चारों ओर की हर चीज़ ख़ामोश थी. पन्क्रात वेस्टीब्यूल के अपने कमरे में सो चुका था, और सिर्फ एक बार दूर दरवाज़े के काँचों की हल्की सी, संगीतमय आवाज़ सुनाई दी – ये इवानोव था जो जाते हुए अपनी कैबिनेट बन्द कर रहा था. उसके पीछे प्रवेश द्वार कराहा. फिर सुनाई दी प्रोफेसर की आवाज़. वह किससे पूछ रहा था – पता नहीं:
 “ये क्या माजरा है? कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ...”
देर से लौटता हुआ एक ट्रक गेर्त्सेन स्ट्रीट से गुज़रा और इंस्टीट्यूट की पुरानी दीवारों को हिला गया. मेज़ पर रखा चपटे पेंदे वाला कांच का प्याला अपने उपकरणों समेत खनखनाया. प्रोफ़ेसर का मुख पीला पड़ गया और वह माइक्रोस्कोप पर अपने हाथ ले गया, ठीक उसी तरह जैसे एक माँ अपने बच्चे के ऊपर हाथ रखती है जिस पर ख़तरा मंडरा रहा हो. अब इस बात का सवाल ही नहीं था कि प्रोफेसर स्क्रू घुमाए, ओह, नहीं, बल्कि अब वह डर रहा था कि कोई बाहरी ताक़त नज़र के दायरे से उसे हटा न दे जिसे उसने देखा था.   .                      
जब प्रोफेसर माइक्रोस्कोप के पास से हटा, और अपने सुन्न पड़ चुके पैरों पर खिड़की की ओर गया तो साफ़, सफ़ेद झक् सुबह हो चुकी थी, जो इंस्टीट्यूट की दूधिया रंग की ड्योढ़ी पर सुनहरी रोशनी का पट्टा बिखेर रही थी. उसने थरथराती उँगलियों से बटन दबाया, और काले मोटे परदों ने सुबह को ढाँक दिया, और कैबिनेट में फिर से बुद्धिमान वैज्ञानिक रात सजीव हो उठी. पीले और उत्तेजित प्रोफेसर ने अपने पैर सीधे किए और पनीली आखों को फर्श पर गड़ाते हुए बोला:
 “मगर, ये कैसे संभव है? ये तो अजूबा है!... ये अजूबा है, महाशयों,” पिंजरों में बन्द अपने टोड्स से मुख़ातिब होते हुए उसने दुहराया, मगर टोड्स सो रहे थे और उन्होंने उसे कोई जवाब नहीं दिया.
वह कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर बिजली के स्विच की ओर गया, परदे उठा दिए, सारे लाइट्स बुझा दिए और माइक्रोस्कोप में देखा. उसके चेहरे पर तनाव के लक्षण थे, उसने अपनी कंटीली पीली भौंहों को हिलाया.
 “ऊ-हू, ऊ-हू,” वह बुदबुदाया, “गायब हो गया. समझ गया. स-S-म—झ गया,” अपने सिर के ऊपर बुझ गए बिजली के गोले की ओर देखते हुए पागल की तरह और अत्यंत उत्तेजित स्वर में शब्दों को खींचते हुए वह बोला, “बड़ा आसान है.”
और उसने फिर से सनसनाते हुए परदे गिराए, और फिर से बिजली का गोला जलाया. माइक्रोस्कोप में देखा, और खुशी से और कुछ हिंस्त्र भाव से दाँत निकाल दिए.
 “मैं उसे पकड़ लूँगा,” उँगली ऊपर उठाते हुए बड़े शानदार अंदाज़ में उसने कहा, “ पकड़ लूँगा. हो सकता कि सूरज से भी पकड़ लूँ.”
परदे फिर से शोर मचाते हुए हट गए. सूरज अब सामने था. अब उसने इन्स्टिट्यूट की दीवारों को धूप में नहला दिया और गेर्त्सेन रोड के तख़्तों पर तिरछी रोशनी बिखेरने लगा. प्रोफेसर ने खिड़की में देखा, इस बात का अंदाज़ लगाते हुए कि दिन में सूरज की स्थिति क्या होगी. वह कभी खिड़की के पास आता, कभी उससे दूर हटता, अंत में वह खिड़की की सिल पर पेट के बल लेट गया.
उसने अपने महत्वपूर्ण और गुप्त कार्य का आरंभ किया. काँच के टोप से माइक्रोस्कोप को ढाँक दिया. लैम्प की नीली लौ पर मोम पिघलाई और टोप के किनारों को मेज़ से चिपका दिया, और मोम के धब्बों को अपनी बड़ी उँगली से दबा दिया. गैस बन्द कर दी, बाहर निकला और अंग्रेज़ी ताले से कैबिनेट का दरवाज़ा बन्द कर दिया.
इन्स्टीट्यूट के कॉरीडोर्स में आधी रोशनी हो रही थी. प्रोफेसर पन्क्रात के कमरे तक पहुँचा और बड़ी देर तक उसे खटखटाता रहा. आख़िरकार दरवाज़े के पीछे से ज़ंजीर से बंधे कुत्ते जैसी गुरगुराहट, खकारने की आवाज़ और बड़बड़ाहट सुनाई दी, और टखनों पर टंके धारियों वाले नाइट पजामे में रोशनी के धब्बे में पन्क्रात प्रकट हुआ. उसकी आँखें जंगलीपन से प्रोफेसर पर टिक गईं, वह अभी तक नींद में झूम रहा था.
 “पन्क्रात,” चश्मे के ऊपर से उसकी ओर देखते हुए प्रोफेसर ने कहा, “माफ़ करना कि मैंने तुम्हें उठा दिया. बात ये है, दोस्त, कि मेरी कैबिनेट में कल सुबह कोई न जाने पाए. मैंने वहाँ अपना प्रयोग अधूरा छोड़ा है, जिसे हिलाया नहीं जा सकता. समझ गए?”
 “ऊ-ऊ-ऊ, स-स-समझ गया,” कुछ भी न समझते हुए पन्क्रात ने जवाब दिया. वह लड़खड़ा रहा था और गुरगुरा रहा था.
 “नहीं, सुन, तू जाग, पन्क्रात,” प्राणी-वैज्ञानिक ने उसे मनाते हुए कहा और हौले से पन्क्रात की पसलियों को गुदगुदा दिया, जिससे उसके चेहरे पर डर की लकीर दौड़ गई और आँखों में कुछ समझदारी का भाव आ गया.. “कैबिनेट मैंने बन्द कर दी है,” पेर्सिकोव कहता रहा, “तो, मेरे आने तक उसमें सफ़ाई करने की कोई ज़रूरत नहीं है. समझ गया?”
 “सुन रहा हूँ,” पन्क्रात भर्राई आवाज़ में बोला.
 “बढ़िया, अब जाकर सो जा.”
पन्क्रात मुड़ा, दरवाज़े में गायब हो गया और फ़ौरन पलंग पर लुढ़क गया, और प्रोफेसर वेस्टिब्यूल में अपने गरम कपड़े पहनने लगा. उसने भूरा गर्मियों वाला कोट और नरम हैट पहनी, इसके बाद, माइक्रोस्कोप वाले दृश्य को याद करके, वह अपने गलोश (ऊपरी जूता – अनु.) पहनने लगा, उसने कुछ सेकंड उनकी ओर देखा, मानो उन्हें पहली बार देख रहा हो. फिर बाँई गलोश पहनी और बाँई की ऊपर ही दाईं भी पहनने लगा, मगर वह जूते पर घुसी ही नहीं.
 “कैसा अजीब इत्तेफ़ाक है कि उसने मुझे बुलाया,” वैज्ञानिक ने कहा, “ वर्ना तो मैं इस पर ग़ौर ही नहीं करता. मगर ये किस बात का इशारा है? शैतान ही जाने कि ये इशारा किस तरफ़ है!...”
प्रोफ़ेसर मुस्कुराया, उसने अपने गलोशों की तरफ़ आँखें सिकोड़ कर देखा, और बाईं निकाल दी, और दाईं पहन ली.
 “माय गॉड! इसके परिणामों के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती...” प्रोफेसर ने नफ़रत से अपनी बाईं गलोश निकाल फेंकी, जो दाएं गलोश पर चढ़ने से इनकार करके उसे गुस्सा दिला रही थी, और एक ही गलोश में बाहर के दरवाज़े की तरफ़ आया. यहाँ उसने अपना रूमाल खो दिया, और वह भारी दरवाज़े को धक्का देकर बाहर निकला. ड्योढ़ी में वह बड़ी देर तक अपनी जेबों को थपथपाकर माचिस ढूँढ़ता रहा, और उसे ढूँढ़ कर मुँह में बिना सुलगाई सिगरेट दबाए सड़क पर निकल पड़ा.
चर्च तक वैज्ञानिक को रास्ते में एक भी आदमी नहीं मिला. वहाँ प्रोफेसर ने सिर को झटका देकर, सुनहरे गुम्बद पर आँखें गड़ा दीं. सूरज बड़े प्यार से एक तरफ़ से उसे चूम रहा था.
 “मैंने उसे पहले कैसे नहीं देखा, कैसा इत्तेफ़ाक है?...फू, बेवकूफ़,” अपने अलग अलग तरह के जूतों की ओर देखते हुए प्रोफेसर झुका और सोचने लगा. “...हुँ...अब क्या करें? पन्क्रात के पास वापस लौट जाऊँ? नहीं, उसे उठाना संभव नहीं है. इस कमीनी को फेंकने में अफ़सोस हो रहा है. हाथों में ले जाना पड़ेगा.” उसने गलोश उतारी और कुछ असंतोष से उसे हाथ में ले लिया.
एक पुरानी कार में प्रेचिस्तेन्को की ओर से तीन व्यक्ति आ रहे थे. दो नशे में धुत थे, और उनके घुटनों पर बैठी थी सन् ’28 की फ़ैशन के अनुरूप सिल्क की सलवार पहनी चटकदार मेकअप में एक जवान औरत.
 “ऐख़, पापा!” वह अपनी नीची भारी आवाज़ में चिल्लाई, “क्या दूसरी गलोश बेचकर पी गए?”
 “ज़ाहिर है कि बूढ़ा ‘अल्काज़ार’ गया था,” बाईं ओर वाला शराबी चीख़ा, दाईं ओर वाले ने गाड़ी से सिर बाहर निकाला और चिल्लाया, “बाप, क्या वोल्खोन्का का नाईटक्लब खुला है? हम वहीं जा रहे हैं!”
प्रोफेसर ने चश्मे के ऊपर से उनकी ओर कड़ाई से देखा, मुँह से सिगरेट गिरा दिया और फ़ौरन उनके बारे में भूल भी गया. प्रेचिस्तेन्स्की एवेन्यू पर धूप झाँकने लगी थी, और क्राईस्ट-चर्च मानों लपटों में घिर गया हो. सूरज निकल आया था.