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सोमवार, 27 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 12

अध्याय 12     
हिम-देवता गाड़ी पर

19 से 20 अगस्त, 1928 की रात को ऐसी अभूतपूर्व बर्फबारी हुई जिसके बारे में बूढ़े लोगों ने कभी देखा या सुना भी नहीं था. बर्फ गिरने लगी और पूरे दो दिनों तक लगातार गिरती रही, तापमान को शून्य से 18 डिग्री नीचे ले गई. किंकर्तव्यविमूढ मॉस्को ने सारी खिड़कियाँ , सारे दरवाज़े बन्द कर लिए. सिर्फ तीसरे दिन के अंत में जनता समझ पाई कि इस बर्फबारी ने मॉस्को और उसके अंतर्गत उन असीम प्रदेशों को बचा लिया है, जिन पर सन् 1928 का महान संकट आया था. मोझाइस्क के निकट का घुड़सवार दस्ता, जो अपना तीन चौथाई हिस्सा खो चुका था, पूरी तरह थक चुका था, ज़हरीली गैस के हवाई दस्ते रेंगते हुए घृणित जीवों को आगे बढ़ने से न रोक सके, जो अर्धगोल बनाते हुए पश्चिम, दक्षिण –पश्चिम और दक्षिण दिशाओं से मॉस्को की ओर बढ़े चले आ रहे थे.
मगर बर्फ ने उन्हें दबा कर मार डाला. घृणित जीव दो दिनों तक -18 डिग्री तापमान बर्दाश्त न कर पाए, और अगस्त की बीस तारीख़ आते-आते जब बर्फ़ ग़ायब हो गई, सिर्फ नमी और गीलापन छोड़कर, हवा में नमी छोड़ते हुए, वृक्षों पर अप्रत्याशित ठण्ड से मर चुकी हरियाली को छोड़ते हुए, तो युद्ध जारी रखने के लिए कोई बचा ही नहीं था. दुर्भाग्य समाप्त हो गया था. जंगल, खेत, और असीम दलदल अभी तक रंगबिरंगे अण्डों से अटे पड़े थे, कभी-कभार विचित्र, विदेशी, अनदेखे चित्रों से ढँके, जिसे लापता रोक्क गन्दगी समझ बैठा था, मगर ये अण्डे अब पूरी तरह नुक्सान-रहित थे. वे मृत थे, उनके भीतर के भ्रूण ख़त्म हो चुके थे.
धरती के विस्तीर्ण प्रदेश काफ़ी समय तक सड़ते रहे मगरमच्छों और साँपों के मृत शरीरों के कारण, जिन्हें जन्म दिया था एक रहस्यमय, गेर्त्सेन स्ट्रीट पर वैज्ञानिक आँखों के नीचे उत्पन्न हुई किरण ने, मगर अब वे बिल्कुल भी ख़तरनाक नहीं थे, दुर्गन्धयुक्त, उष्णप्रदेशीय दलदल के ये ख़तरनाक जीव तीनों प्रदेशों की ज़मीन पर भयानक दुर्गन्ध और सड़ान छोड़कर दो दिनों में ही मर गए.
लम्बी महामारियाँ फैलीं, लोगों और साँपों के मृत शरीरों के कारण कई तरह की संसर्गजन्य बीमारियाँ फैलीं, और सेना काफ़ी समय तक कार्यरत रही, मगर अब ज़हरीली गैस छिड़कने के लिए नहीं, बल्कि इंजीनियरिंग उपकरणों से, कैरोसीन के कनस्तरों से और होज़ पाईप से लैस, वह ज़मीन की सफ़ाई कर रही थी. सफ़ाई कर दी गई, और सन् ’29 के बसंत तक सब ख़त्म हो गया.
और सन् ’29 के बसंत में मॉस्को फिर से रोशनियों से थिरकने लगा, गर्मी बिखेरने लगा, घूमने लगा, और फिर से पहले ही की तरह यांत्रिक गाड़ियों की घर-घर सुनाई देने लगी, और क्राईस्ट-चर्च के गुम्बद के ऊपर मानो धागे से लटकता, चाँद का हंसिया नज़र आने लगा, और अगस्त ’28 में पूरी तरह जल चुकी दो मंज़िला इन्स्टिट्यूट की जगह पर एक नया प्राणि-विज्ञान महल बनाया गया, और उसका डाइरेक्टर बना असिस्टेंट-प्रोफेसर इवानोव, मगर अब पेर्सिकोव नहीं था. लोगों की आँखों के सामने फिर कभी ऊँगली का मुड़ा हुआ, यक़ीन दिलाता, हुक नहीं प्रकट हुआ और फिर कभी किसी ने कर्कश टर्राहट नहीं सुनी. किरण के बारे में और सन् ’28 के विनाश के बारे में पूरी दुनिया लम्बे समय तक बहस करती रही, लिखती रही, मगर फिर प्रोफेसर व्लादीमिर इपातिच पेर्सिकोव का नाम कोहरे में ढँक गया, बुझ गया वैसे ही जैसे अप्रैल की रात में उसके द्वारा खोजी गई लाल किरण बुझ गई थी. इस किरण को फिर से प्राप्त करना संभव न हो सका, हाँलाकि कभी कभी बेहद सज्जन, और अब प्रोफेसर बन चुके प्योत्र स्तेपानोविच इवानोव ने कोशिश तो की थी. पहले चैम्बर को तो पेर्सिकोव की मौत की रात को उत्तेजित भीड़ ने नष्ट कर दिया था. तीन अन्य चैम्बर्स ज़हरीली गैस के स्क्वाड्रन की साँपों के साथ पहली लड़ाई में निकोल्स्कोए के सोव्खोज़ ‘लाल-किरण’ में जल गए थे, और उन्हें फिर से बनाना संभव नहीं हुआ. शीशों और लैन्सों की संरचना एवम् उनका संयोग चाहे कितना ही सरल क्यों न रहा हो, इवानोव की लाख कोशिशों के बावजूद उनका पुनर्निमाण नहीं कर सके. ज़ाहिर है, ज्ञान के अलावा, इसके लिए किसी विशेष चीज़ की ज़रूरत थी, जो पूरी दुनिया में सिर्फ एक व्यक्ति के पास थी – स्वर्गीय प्रोफेसर व्लादीमिर इपातिच पेर्सिकोव के पास.

                                     समाप्त

रविवार, 26 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 11


अध्याय 11
युद्ध और मृत्यु

मॉस्को में बिजली की वहशी रात दहक रही थी. सारी बत्तियाँ जल रही थीं और फ्लैट्स में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ बिना लैम्प शेड्स के लैम्प न जल रहे हों. मॉस्को के एक भी फ्लैट में, जिसकी आबादी 4 मिलियन थी, एक भी आदमी नहीं सोया था, सिवाय नासमझ बच्चों के. फ्लैट्स में, जो भी मिलता वही खा-पी रहे थे, फ्लैट्स में कोई चीख-पुकार होती, और हर पल, हर मंज़िल से भय से विकृत चेहरे आसमान में नज़रें लगाए खिड़कियों से झाँकते, जिसे सभी दिशाओं से प्रोजेक्टर्स की प्रखर रोशनी चीर रही थी. आसमान में रह रहकर सफ़ेद आग भभक उठती, जो लुप्त होने से पहले मॉस्को पर धुंधले शंकु बना देते. आकाश कम ऊँचाई पर उड़ते हुए हवाई जहाज़ों की घरघराहट से लगातार गूंज रहा था. त्वेर्स्काया-याम्स्काया मार्ग पर विशेष रूप से भय का माहौल था. अलेक्सान्द्रोव्स्की स्टेशन पर हर दस मिनट में एक रेलगाड़ी आती - मालगाड़ी, या विभिन्न दर्जों की पैसेंजर गाड़ी, और टैंक्स से लदी हुई गाड़ी भी आती, और भय से पगला गए लोग उनसे चिपक जाते, त्वेर्स्काया-याम्स्काया पर भारी भीड़ भागे जा रही थी, लोग बसों में जा रहे थे, ट्रामगाड़ियों की छतों पर जा रहे थे, एक दूसरे को धक्का दे रहे थे और पहियों के नीचे आ रहे थे. स्टेशन पर रह रहकर भीड़ के ऊपर से गोलियों की कड़कड़ाहट सुनाई पड़ जाती, ये सेना की टुकड़ियाँ थीं, जो, रेल की पटरियों पर स्मोलेन्स्क प्रांत से मॉस्को दौड़े चले आ रहे, पागल हो चुके लोगों के भय को रोकने की कोशिश कर रही थीं. स्टेशन पर बार-बार हल्की सी वहशी चीख़ के साथ खिड़कियों के शीशे उड़ रहे थे और सारे इंजिन विलाप कर रहे थे. सभी सड़कें फेंके और कुचले गए पोस्टरों से अटी पड़ी थीं, और ये ही पोस्टर्स रेफ्लेक्टर्स की तेज़ लाल रोशनी में दीवारों से झाँक रहे थे. अब वे सभी को अच्छी तरह मालूम हो चुके थे, और कोई भी उन्हें नहीं पढ़ रहा था. उनमें मॉस्को में युद्ध की स्थिति घोषित कर दी गई थी. उनमें दहशत फ़ैलाने के लिए लोगों को धमकाया गया था और यह सूचित किया गया था कि स्मोलेन्स्क प्रांत में एक के बाद एक ज़हरीली गैस से लैस लाल-फ़ौज की टुकड़ियाँ जा रही हैं. मगर ये पोस्टर्स विलाप करती रात को नहीं रोक पाए. फ्लैट्स में काँच के बर्तन और फूलदान गिरते रहे और टूटते रहे, लोग भाग-दौड़ करते रहे, चीज़ों से, ओनों-कोनों से टकराते रहे, गठरियाँ और सूटकेस खोलते-बन्द करते रहे, इस उम्मीद में कि किसी तरह जल्दी से जल्दी कालान्चेव्स्काया चौक, या यारोस्लाव्स्की, या फिर निकोलायेव्स्की स्टेशन पर पहुँच जाएँ. मगर अफ़सोस, उत्तर और पूर्व  की ओर वाले सारे स्टेशन्स के चारों ओर पैदल सेना का बड़ा भारी घेरा था, और भारी-भारी ट्रक्स, जंज़ीरों को हिलाते और खड़खड़ाते हुए, ऊपर तक बक्सों से लदे हुए, जिनके ऊपर नुकीले हेल्मेट्स पहने चारों दिशाओं में संगीनें लिए तैयार फ़ौजी सिपाही बैठे थे, वित्त-मंत्रालय के वॉल्ट्स से सोने के सिक्कों का स्टॉक और भारी-भरकम बक्से ले जा रहे थे जिन पर लिखा था :’सावधान. त्रेत्याकोव गैलरी’. पूरे मॉस्को में मोटर-गाड़ियाँ चिंघाड़ रही थीं और भाग रही थीं.
दूर आसमान में आग की रोशनी थरथरा रही थी और अगस्त के घने अंधेरे को चीरते हुए तोप के गोलों की आवाज़ें निरंतर सुनाई दे रही थी.
सुबह होते-होते पूरी तरह निद्राहीन मॉस्को में, जिसमें एक भी बत्ती बुझाई नहीं गई थी, सामने आती हर चीज़ को धकेलते हुए, जो प्रवेश द्वारों और दुकानों की शो-केसेस से चिपक गई थी, शीशों को दबाते हुए लकड़ी के फट्टों के फर्श पर अपनी टापों से खट्-खट् करते त्वेर्स्काया पर हज़ारों घुड़सवारों की फ़ौज का साँप चला जा रहा था. लाल टोपियों के लम्बे-लम्बे कान भूरी-भूरी पीठों पर झूल रहे थे, और संगीनों की नोकें आसमान को छेद रही थीं. पागलपन की, उन्माद की लहर को चीरकर आगे बढ़ी हुई फौज को देखकर भागती हुई, विलाप करती हुई भीड़ में जैसे जान आ गई. अब फुटपाथ पर खड़ी भीड़ में उत्साहवर्धक नारे लगने लगे:
”घुड़सवार फौज – ज़िन्दाबाद!” औरतों की उन्मादयुक्त चीखें सुनाई दीं.
“ ज़िन्दाबाद!” आदमियों ने जवाब दिया.
 “कुचल देंगे!!! दबा देंगे!” – कहीं से रोना सुनाई दिया.
 “मदद करो!” फुटपाथ से लोग चिल्लाए.
सिगरेटों के पैकेट्स, चाँदी के सिक्के, घड़ियाँ फुटपाथ से क़तार में फेंके जा रहे थे, कुछ औरतें भयानक ख़तरा उठाते हुए उछल कर पुल पर आ गईं और लगामों को पकड़ कर उन्हें चूमने लगीं. टापों की निरंतर हो रही खटखटाहट में कभी कभी कमाण्डरों की आवाज़ें सुनाई देतीं:
”लगाम खींचो.”
कहीं से कोई मस्तीभरा, छिछोरा गीत सुनाई दे रहा था, और इश्तेहारों की नियोन लाईट्स की थरथराती रोशनी में मुड़ी हुई टोपियों वाले चेहरे अपने घोड़ों से देख रहे थे. कभी कभी खुले चेहरे वाले घुड़सवारों की क़तार को चीरते हुए कुछ विचित्र व्यक्ति जा रहे थे, जो घोड़ों पर सवार थे, अजीब से मास्क पहने जिन पर पानी के होज़ पाईप चिपके थे और उनकी पीठ पर कोई सिलिण्डर्स पट्टियों से बंधे थे. उनके पीछे लम्बे लम्बे पाईप लगे, जैसे कि अग्नि-शामक मशीनों में लगे होते हैं, भारी-भरकम टैंक-ट्रक्स, जो पूरी तरह सीलबन्द थे, पतले-पतले छेदों से झाँकते हुए, अपने पट्टेवाले दांतेदार पहियों पर धीरे धीरे सरक रहे थे. घुड़सवारों की कतारें तोड़ कर भूरी, हथियारबन्द, पूरी तरह सीलबन्द कारें गुज़र रही थीं, उन पर भी बाहर की ओर निकलते हुए वैसे ही पाईप लगे हुए थे और दोनों ओर सफ़ेद रंग से खोपड़ियों की तस्वीरें  थीं और लिखा था ‘गैस. दोब्रोखिम.’
“मदद करो, भाईयों,” फुटपाथों से लोग चिल्ला रहे थे, “मार डालो साँपों को...मॉस्को को बचाओ!”
“माँ...माँ...” कतारों में यह शब्द फैल रहा था. सिगरेट्स के पैकेट रात की प्रकाशित हवा में उछल रहे थे, और घोड़ों से उन्मत्त भीड़ पर सफ़ेद दाँत भिंच रहे थे. कतारों में एक भारी और दिल को छू लेने वाला गीत गूँज रहा था:
 ... ना हुकुम, ना रानी, ना ही गुलाम,
   मारेंगे साँपों को बेशक हम,
   चारों दिशाओं से – करेंगे ख़तम...

‘हुर्रे’ की गूंज इस पूरे हुजूम पर लहर की तरह फैल रही थी, क्योंकि यह अफ़वाह फैल गई कि क़तार के आगे घोड़े पर, वैसी ही लाल टोपी में, जैसी कि सारे घुड़सवारों ने पहनी थी, दस वर्ष पूर्व मिसाल बन चुका, अब बूढ़ा और सफ़ेद बालों वाला, घुड़सवार फ़ौजों का कमाण्डर चल रहा है. भीड़ चिंघाड़ उठी, और आसमान में दिलों को कुछ राहत देते हुए ‘हुर्रे...हुर्रे...’ उड़ चला.

***

इन्स्टिट्यूट में मद्धिम रोशनी हो रही थी. बाहर हो रही घटनाएँ उसके भीतर अलग-अलग टुकड़ों में, अस्पष्ट और गहरी फुसफुसाहट से पहुँच रही थीं. एक बार मानेझ के पास, नियोन से आलोकित घड़ी के नीचे गोलियों की बौछार गूँज उठी, ये कुछ लुटेरों को, जिन्होंने वोल्खोन्का में एक फ्लैट लूटने की कोशिश की थी, फ़ौरन गोलियों से भून दिया गया था. गाड़ियों की आवाजाही इस स्थान पर कम थी, वे सब स्टेशनों की तरफ़ ही जा रही थीं. प्रोफेसर की कैबिनेट में, जहाँ मेज़ पर बस प्रकाश का एक धब्बा फेंकते हुए एक धुंधला लैम्प जल रहा था, पेर्सिकोव हाथों पर सिर रखे, ख़ामोश बैठा था. उसके चारों ओर धुएँ की परतें तैर रही थीं. चैम्बर में किरण बुझ चुकी थी. पिंजरों के मेंढक ख़ामोश थे, क्योंकि वे कभी के सो चुके थे. प्रोफेसर न तो काम कर रहा था, न ही पढ़ रहा था. एक ओर को, उसकी दाईं कोहनी के नीचे, एक छोटे कॉलम में टेलिग्राम्स का शाम का संस्करण पड़ा था, जिसमें यह बताया गया था कि पूरा स्मोलेन्स्क जल रहा है और तोपखाना मगरमच्छों द्वारा दिए गए अण्डों को निशाना बनाते हुए, जो कि सभी नम घाटियों में बिखरे पड़े थे, मोझाइस्क फॉरेस्ट के थोड़े-थोड़े हिस्से पर आग बरसा रहा है. यह सूचित किया गया था कि हवाई जहाज़ों के एक स्क्वैड्रन ने व्याज़्मा के निकट सफ़लतापूर्वक पूरे कस्बे पर  ज़हरीली गैस का छिड़काव कर दिया था, मगर इन हिस्सों में अनगिनत इन्सानों की जानें गईं हैं, क्योंकि जनता, कस्बों से नियंत्रित पलायन करने के बदले, दहशत के कारण, छोटे-छोटे समूहों में, अपनी मर्ज़ी से जहाँ सींग समाएँ वहीं भाग रही थी.  ये बताया गया था कि कॉकेशस के एक घुड़सवार डिविजन को, जो मोझाइस्क की ओर जा रहा था, ऑस्ट्रिचों के बहुत बड़े झुण्ड को ख़त्म करने, और उनके अण्डों के विशाल समूह को नष्ट करने में शानदार क़ामयाबी मिली है. ऐसा करते समय डिविजन को अत्यंत कम नुक्सान हुआ है. सरकार की ओर से सूचित किया गया था कि यदि साँपों को मॉस्को से 200 मील के दायरे से बाहर रोकना संभव नहीं हुआ, तो उसे पूरी तरह खाली करवाया जाएगा. कर्मचारियों और मज़दूरों से पूरी शांति बनाए रखने को कहा गया था. सरकार इस दिशा में अत्यंत कठोर कदम उठाएगी कि स्मोलेन्स्क वाले इतिहास की पुनरावृत्ति न हो, जहाँ रैटलस्नेक्स के अप्रत्याशित हमले से, जो हज़ारों की संख्या में प्रकट हो गए थे, मची भगदड़ के कारण शहर में उन सभी स्थानों पर आग लग गई थी, जहाँ लोग, व्यर्थ ही, जलती हुई भट्टियाँ छोड़-छोड़कर जान बचाने के लिए अपने घरों से भाग गए थे. ये सूचित किया गया था कि मॉस्को में छह महीने के लिए पर्याप्त खाने-पीने की सामग्री है, और कमाण्डर-इन-चीफ़ के नेतृत्व में एक कमिटी फ्लैट्स को बख़्तरबन्द करने की दिशा में आपात्-कदम उठा रही है, जिससे, यदि लाल फ़ौजों को और हवाई जहाज़ों को और तोपखानों को रेंगने वाले जंतुओं के आक्रमण को रोकने में सफ़लता न मिले, तो राजधानी की सड़कों पर साँपों से युद्ध किया जा सके.
प्रोफेसर इसमें से कुछ भी नहीं पढ़ रहा था, वह बस, पथराई आँखों से अपने सामने देखते हुए कश लगा रहा था. इन्स्टीट्यूट में उसके अलावा बस दो लोग और थे : पन्क्रात और बात-बात पर आँसू बहाती मारिया स्तेपानोव्ना, जो लगातार तीसरी रात सोई नहीं थी. यह रात वह प्रोफेसर की कैबिनेट में गुज़ार रही थी, जो किसी भी क़ीमत पर अपने इकलौते, बुझे हुए चैम्बर को छोड़ने को तैयार नहीं था. अब मारिया स्तेपानोव्ना एक कोने में, छाया में, मोमजामा जड़े दीवान पर लेटी थी, और दुख भरे ख़यालों में डूबी, देख रही थी कि कैसे प्रोफेसर के लिए रखी चाय की केटली गैस वाले बर्नर पर उबल रही है. इन्स्टीट्यूट ख़ामोश थी, और सब कुछ अचानक हो गया.
फुटपाथ से अचानक ऐसी घृणित और खनखनाती चीखें सुनाई दीं, कि मारिया स्तेपानोव्ना उछल कर चीख़ पड़ी. रास्ते पर फ्लैश लाईट्स की रोशनियाँ घूमने लगीं, और प्रवेश-हॉल में पन्क्रात की आवाज़ गूंजी. प्रोफेसर को यह शोर ठीक से समझ में नहीं आया. उसने एक पल को अपना सिर उठाया, बड़बड़ाया: “आह, कैसी गुण्डागर्दी है...अब मैं क्या करूँगा?” और वह फिर से जड़ हो गया. मगर इस जड़ता को भंग कर दिया गया. गेर्त्सेन स्ट्रीट की ओर वाले इन्स्टिट्यूट के लोहे के दरवाज़े ज़ोर-ज़ोर से भड़भड़ाने लगे, और सारी दीवारें थरथराने लगीं. इसके बाद बगल की कबिनेट में आईने टूटने लगे. प्रोफेसर की कैबिनेट में शीशे झनझनाकर बिखरने लगे, और भूरे रंग का एक पत्थर खिड़की फाँद कर आया और शीशे की मेज़ को चूर-चूर कर गया. पिंजरों में मेंढक जाग गए और एक साथ टर्राने लगे. मारिया चीखते हुए भाग-दौड़ करने लगी, लपक कर प्रोफेसर के पास आई, उसका हाथ पकडकर चीख़ी: “भाग जाईये, व्लादीमिर इपातिच, भाग जाईये.” वह रिवॉल्विंग चेयर से उठा, सीधा हो गया, और अपनी ऊँगली टेढ़ी करके बोला, अब उसकी आँखों में पल भर को पहले वाली तेज़ चमक झाँक गई, जो पहले वाले उत्साही पेर्सिकोव की याद दिला रही थी :
 “मैं कहीं नहीं जाऊँगा,” उसने कहा, “ये सरासर बेवकूफ़ी है. वे पागलों के समान भाग रहे हैं...ख़ैर, अगर पूरा का पूरा मॉस्को पागल हो गया है, तो मैं भाग कर जाऊँगा कहाँ. और, कृपया, चिल्लाना बन्द कीजिए. इस सबमें मैं कैसे हूँ. पन्क्रात!” उसने पुकारा और घण्टी बजाई.
शायद, वह ये चाहता था कि पन्क्रात इस सारी भाग-दौड़ को बन्द करे, जो उसे कभी भी अच्छी नहीं लगती थी. मगर पन्क्रात अब कुछ नहीं कर सकता था. शोर-गुल इस तरह बन्द हुआ कि इन्स्टिट्यूट का गेट खुल गया, और दूर से गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनाई दी, और फिर पूरी पत्थर की इमारत दौड़ते हुए कदमों की आहट से, चीखों से, शीशों के टूटने की आवाज़ से गरज उठी. मारिया स्तेपानोव्ना पेर्सिकोव की आस्तीनों से लटक गई और उसे कहीं खींचने की कोशिश करने लगी, वह उससे छिटक गया, अपनी पूरी ऊँचाई में सीधा खड़ा हो गया और, वैसे ही, सफ़ॆद एप्रन में, बाहर कॉरीडोर में आया.
 “क्या है?”  दरवाज़े धड़ाम् से खुल गए, और पहली चीज़ जो दरवाज़े में प्रकट हुई, वो थी बाईं आस्तीन पर लाल, सितारा जड़े फ़ौजी गार्ड की पीठ. वह दरवाज़े की ओर पीठ किए दूर हटा, जिसे वहशी भीड़ धकेल रही थी और रिवॉल्वर से गोलियाँ चलाता रहा. फिर वह पेर्सिकोव के सामने से भागते हुए चीख़ा:
 “प्रोफेसर, अपने आपको बचाईये, अब और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा.”
उसके शब्दों का जवाब दिया मारिया स्तेपानोव्ना की चीख ने. फ़ौजी पेर्सिकोव के सामने से उछलते हुए भागा, जो किसी सफ़ेद बुत की तरह खड़ा था, और विपरीत दिशा के बल खाते कॉरीडोर्स के अंधेरे में कहीं छुप गया. लोग चिंघाड़ते हुए, दरवाज़ों से जैसे उड़ते हुए, आए:
 “मारो उसे! मार डालो...”
 “दुनिया के शैतान को!”
 “तूने साँप छोड़े हैं!”
विद्रूप चेहरे, फटे हुए कपडे कॉरीडोर्स में कूदने लगे, और किसी ने गोली चला दी. लाठियाँ चमक उठीं. पेर्सिकोव थोड़ा सा हटा, कैबिनेट का दरवाज़ा उड़का लिया, जहाँ मारिया स्तेपानोव्ना ख़ौफ़ से घुटनों के बल खड़ी थी, उसने हाथ फैलाए, जैसे सूली पर चढ़ा हो...वह भीड़ को भीतर नहीं आने देना चाहता था और तैश में आकर चिल्लाया:
 “ये सरासर पागलपन है...आप बिल्कुल जंगली जानवर हैं. आप लोगों को क्या चाहिए?” वह चिंघाड़ा, “भाग जाओ यहाँ से!” और उसने अपना वाक्य सबको परिचित तीखी चीख से ख़त्म किया:
 “पन्क्रात, इन्हें भगा यहाँ से.”
मगर पन्क्रात अब किसी को भी भगा नहीं सकता था. कुचला गया, टुकड़े-टुकड़े हो चुका पन्क्रात अपने टूटे हुए सिर को लिए प्रवेश-हॉल में पड़ा था, और उसके पास से अधिकाधिक भीड़ सड़क से हो रही मिलिट्री की फ़ायरिंग की ओर ध्यान न देते हुए बढ़ी चली आ रही थी.
एक छोटे क़द का आदमी, बन्दरों जैसी मुड़ी टाँगों वाला, एक ओर को सरक गए फटे हुए कोट और फटी हुई कमीज़ में, औरों को पीछे हटाते हुए पेर्सिकोव के निकट पहुँचा और लाठी के निर्मम प्रहार से उसकी खोपड़ी तोड़ दी. पेर्सिकोव लड़खड़ाया, एक किनारे को गिरने लगा, और उसका अंतिम शब्द था:
”पन्क्रात...पन्क्रात...”
बेक़ुसूर मारिया स्तेपानोव्ना को कैबिनेट में मार कर कुचल दिया गया, बुझी हुई किरण वाले चैम्बर के  भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले, मेंढकों के पिंजरों को चूर-चूर कर दिया, मतिहीन हो गये मेंढकों को मार डाला और पैरों से कुचल दिया, काँच की मेज़ों को चूर-चूर कर दिया, रेफ्लेक्टर्स के टुकड़े-टुकड़े कर डाले, और एक घण्टे बाद इन्स्टिट्यूट जल उठी, उसके निकट पड़े थे मृत शरीर, जिनके चारों ओर इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर्स से लैस सैनिकों ने घेरा बना दिया था, और आग बुझाने वाली मशीनें, नलों से पानी खींच-खींच कर सारी खिड़कियों में पानी की बौछार कर रही थीं, जिनमें से ऊँची-ऊँची सनसनाती हुई लपटें निकल रहीं थीं.

                                        ****

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 10

अध्याय 10
विनाश

‘इज़्वेस्तिया’ अख़बार के रात के एडिटोरियल ऑफिस में तेज़ रोशनी हो रही थी, और मोटा ड्यूटी-एडिटर सीसे की मेज़ पर टेलिग्राम्स के आधार पर दूसरा कॉलम ‘’संघीय रिपब्लिक्स में’ तैयार कर रहा था. उसकी नज़र एक गैली पर पड़ी, उसने अपने आले से उसे देखा और ठहाका मार कर हँस पड़ा, प्रूफ-रीडर्स और कोम्पोज़िटर्स को बुलाया और सबको ये गैली दिखाई. गीले कागज़ पर एक छोटी पट्टी में टाइप किया गया था:
 “ग्राचेव्का, स्मोलेन्स्क प्रान्त. कस्बे में एक मुर्गी प्रकट हुई है, जो घोड़े जितनी बड़ी है, और घोड़े जैसी ही दुलत्ती मारती है. पूँछ के बदले उसके बुर्झुआ महिलाओं के पर हैं.”
कोम्पोज़िटर्स ने ज़ोर से ठहाका लगाया.
 “मेरे ज़माने में,” ड्यूटी-एडिटर ज़ोर से खी-खी करते हुए कहने लगा, “जब मैं वान्या सीतिन के पास  ‘रूस्कोए स्लोवो’ में काम करता था, इतना पी जाते थे कि उन्हें हाथी नज़र आने लगते थे. ये सही है. और अब, शायद, उन्हें ऑस्ट्रिच नज़र आने लगे हैं.
कोम्पोज़िटर्स ठहाके लगाते रहे.
 “सही कहा, ऑस्ट्रिच,” कोम्पोज़िटर ने कहा, “इसको रखना है, इवान वोनिफ़ात्येविच?”
 “क्या तू पागल हो गया है,” ड्यूटी-एडिटर ने जवाब दिया, “मुझे ताज्जुब है कि सेक्रेटरी की नज़र इस पर कैसे नहीं पड़ी, बिल्कुल पियक्कड टेलिग्राम है.”
 “मस्ती कर रहे थे, ये सही है,” कोम्पोज़िटर्स ने सहमत होते हुए कहा, और मेकर-अप ने मेज़ से ऑस्ट्रिच वाली सूचना हटा ली.
इसलिए अगले दिन का ‘इज़्वेस्तिया’ हमेशा की तरह दिलचस्प ख़बरों को समेटे निकला, ग्राचेव्का के ऑस्ट्रिच का कोई ज़िक्र किए बगैर. प्राइवेट- सहायक प्रोफेसर इवानोव ने, जो अपने कैबिन में बड़े ग़ौर से ‘इज़्वेस्तिया’ पढ़ रहा था, पन्ना पलटा, उबासी ली और बुदबुदाया ‘कोई दिलचस्प ख़बर नहीं है’, और सफ़ेद एप्रन पहनने लगा. कुछ समय बाद उसकी कैबिन में बर्नर्स जल उठे और मेंढक टर्-टर् करने लगे. प्रोफेसर पेर्सिकोव के कमरे में तो मानो भूचाल आ गया था. भयभीत पन्क्रात अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा था.
 “समझ गया, सुन रहा हूँ,” वह कह रहा था.
पेर्सिकोव ने उसे एक सीलबन्द लिफ़ाफ़ा दिया और कहा:
 “सीधे पशुपालन डिपार्टमेन्ट में जा, इस प्ताखा के पास और उससे सीधे कह दे कि वो – सूअर है. कह दे कि मैंने, प्रोफेसर पेर्सिकोव ने, ऐसा ही कहा है. और ये पैकेट उसे दे दे.”
 'बहुत बढ़िया काम है, बस, करते रहो...' डर से पीले पड़ गए पन्क्रात ने सोचा और पैकेट लेकर चला गया.
पेर्सिकोव गुस्से से उबल रहा था.
 “शैतान ही जाने कि ये क्या है,” कैबिनेट में चक्कर लगाते हुए और अपने दस्तानों वाले हाथ मलते हुए उसने दाँत भींचे, “ये तो वे मेरा और प्राणिशास्त्र का मज़ाक उड़ा रहे हैं. इन नासपीटे मुर्गी के अण्डों के ढेर पर ढेर लाए जा रहे हैं, और मुझे दो महीनों में भी ज़रूरत का सामान नहीं मिला है. जैसे कि अमेरिका बहुत दूर है! हमेशा की झकझक! हमेशा की बदइंतज़ामी!" – वह अपनी उँगलियों पर गिनने लगा, - “इकट्ठा करने में...हुँ, हद से हद दस दिन, चलो, ठीक है, पन्द्रह...चलो, बीस ही सही और पैकिंग में दो दिन, लन्दन से बर्लिन तक - एक दिन. बर्लिन से यहाँ तक – छह घण्टे...कोई बेहद अजीब किस्म की गड़बड़ हो रही है...”
वह तैश में आकर टेलिफोन की ओर लपका और कहीं फोन करने लगा.
उसकी कैबिनेट में किन्हीं रहस्यमय और बेहद ख़तरनाक प्रयोगों की पूरी तैयारी हो चुकी थी, दरवाज़ों पर चिपकाने के लिए कटी हुई कागज़ की पट्टियों का ढेर पड़ा था, डाइवर्स के हेल्मेट पड़े थे ड्रेन-पाइप के साथ, और कई सिलिण्डर्स पड़े थे, पारे की तरह चमचमाते, जिन पर ‘दोब्रोखिम’ और ‘छूना मना है’, वाले लेबल्स और ‘खोपड़ी और हड्डियों’ की ड्राईंग थी.
प्रोफेसर को शांत होकर छोटे-छोटे कामों की ओर लौटने में कम से कम तीन घण्टे लग गए. ऐसा ही उसने किया. इन्स्टीट्यूट में उसने रात के ग्यारह बजे तक काम किया और इसलिए इन दूधिया-रंग की दीवारों के बाहर क्या हो रहा है इसका उसे ज़रा भी बात पता नहीं चला. न तो मॉस्को में फैल रही बेवकूफ़ी भरी अफ़वाह, किन्हीं साँपों के बारे में, न ही शाम के अख़बार में छपे अजीब टेलिग्राम के बारे में अख़बार बेचने वाले छोकरे की चिल्लाहट का उसे पता चला, क्योंकि असिस्टेण्ट-प्रोफेसर इवानोव आर्ट थियेटर में ‘फ़्योदोर इओन्नोविच’ देखने गया था, और इसलिए प्रोफेसर को इन बातों की ख़बर देने वाला कोई नहीं था.
आधी रात के क़रीब पेर्सिकोव प्रेचिस्तेन्को वापस आया और बिस्तर में ही लन्दन से आई ‘प्राणि-शास्त्र समाचार’ नामक पत्रिका में कोई अंग्रेज़ी लेख पढ़कर सो गया. वह सो रहा था, और देर रात तक चकरघिन्नी की तरह घूमता मॉस्को भी सो रहा था, बस, त्वेर्स्काया रोड पर स्थित भूरे रंग की एक विशाल बिल्डिंग भर नहीं सो रही थी, जहाँ भयानक शोर करते हुए ‘इज़्वेस्तिया’ की रोटरी-मशीनें पूरी बिल्डिंग को थर्राए दे रही थीं. ड्यूटी-एडिटर की कैबिन में भयानक शोर-गुल और परेशानी का आलम था. वह, पूरी तरह तैश में आकर, लाल-लाल आँखें लिए भाग-दौड़ कर रहा था, यह न जानते हुए कि क्या करना चाहिए, और सबको गालियाँ देते हुए शैतान की ख़ाला के पास भेज रहा था. मेकर-अप उसके पीछे ही था और साँस से शराब की गंध छोड़ते हुए बोला:
 “कोई बात नहीं, इवान वोनिफ़ात्येविच, कोई आसमान तो नहीं गिर पड़ा, चलिए, कल सुबह एक आपात-संस्करण निकाल देंगे. अब प्रेस से अंक तो बाहर नहीं ना खींचा जा सकता.”
कोम्पोज़िटर्स घर नहीं गए, बल्कि झुण्ड बनाए घूमते रहे, सामूहिक रूप से टेलिग्राम्स पढ़ते रहे, जो पूरी रात पन्द्रह-पन्द्रह मिनट बाद लगातार आते रहे, और वे एक से एक विचित्र और डरावने होते जा रहे थे. अल्फ्रेड ब्रोन्स्की की नुकीली हैट चकाचौंध करने वाले गुलाबी प्रकाश से आलोकित एडिटोरियल-ऑफ़िस में झलक जाती थी, और कृत्रिम पैर वाला मोटा भी सरसराहट करते और लंगड़ाते हुए यहाँ वहाँ दिखाई दे जाता था. पोर्च में दरवाज़े धड़ाम्-धड़ाम् किए जा रहे थे, और पूरी रात रिपोर्टर आते रहे. प्रिंटिंग-ऑफ़िस के सभी बारह टेलिफोन लगतार बजे जा रहे थे, और एक्स्चेंज ऑफ़िस से रहस्यमय रिसीवरों को यांत्रिक रूप से ‘व्यस्त है’ का सिग्नल मिल रहा था, और एक्स्चेंज में जागती हुई महिला-ऑपरेटर्स के सामने निरंतर सिग्नल्स बीप्-बीप् कर रहे थे....
कोम्पोज़िटर्स ने कृत्रिम पैर वाले मोटे को घेर लिया था, और समुद्री-यात्राओं का कैप्टेन उनसे कह रहा था:
 “उन्हें हवाई जहाज़ों में गैस भेजनी पड़ेगी.”
 “और कोई रास्ता ही नहीं है,” कोम्पोज़िटर्स ने जवाब दिया, “आख़िर ये क्या है?” इसके बाद माँ की एक भयानक गाली हवा में गूँज गई, और किसी की तीखी आवाज़ चिल्लाई:
 “इस पेर्सिकोव को तो गोली मार देनी चाहिए.”
 “इसमें पेर्सिकोव कहाँ से आ गया,” भीड़ में से किसीने जवाब दिया, “ सोव्खोज़ वाले उस कुत्ते के पिल्ले को – असल में उसे गोली मारनी चाहिए.”
 “सुरक्षा का इंतज़ाम करना चाहिए था,” कोई और चीखा.
 “हाँ, हो सकता है कि वो अण्डे ही नहीं हों.”
पूरी बिल्डिंग रोटरी-मशीनों के पहियों से गूँज रही थी और थरथरा रही थी, और कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि ये भूरी बदसूरत बिल्डिंग इलेक्ट्रिक आग में दहक रही है.
अगली सुबह भी ये हंगामा रुका नहीं, बल्कि ज़्यादा ही तेज़ हो गया, हालाँकि अब लाइट्स बुझ चुकी थीं. एक के बाद एक मोटरसाइकल सवार सिमेन्ट के कम्पाउण्ड में आते जा रहे थे, बीच बीच में कारें भी आ रही थीं. पूरा मॉस्को उठ गया था और अख़बारों के सफ़ेद पन्नों ने मानो पंछियों की तरह उसे ढँक दिया था. सभी के हाथों में अख़बार के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और सरसरा रहे थे, अख़बार बेचने वालों के पास ग्यारह बजते-बजते कोई अंक ही नहीं बचा, बावजूद इसके कि इस महीने में ‘इज़्वेस्तिया’ की ग्राहक-संख्या डेढ मिलियन हो गई थी. प्रोफेसर पेर्सिकोव प्रेचिस्तेन्को से निकल कर बस में इंस्टिट्यूट पहुँचा. वहाँ एक अच्छी ख़बर उसका इंतज़ार कर रही थी. लाउंज में सलीके से धातु की पट्टियाँ जड़े लकड़ी के डिब्बे रखे थे, इन तीन डिब्बों पर जर्मन भाषा में लेबल्स चिपके हुए थे, और उनके ऊपर एक छोटी सी रूसी इबारत झलक रही थी : ‘सावधान – अण्डे’
प्रोफेसर पर मानो खुशी का दौरा पड़ गया.
 “आख़िरकार,” वह चिल्लाया, “पन्क्रात, डिब्बों को धीरे से और सावधानी से खोल, जिससे कि टूट न जाएं. मेरे पास – कैबिनेट में.”
पन्क्रात ने फ़ौरन आज्ञा का पालन किया और पन्द्रह मिनट बाद प्रोफेसर की कैबिनेट में, जिसमें लकड़ी का बुरादा और कागज़ की कतरनें बिखरी पड़ी थीं, उसकी गुस्से भरी आवाज़ सुनाई दी:
  “वे, क्या, मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं,” मुट्ठियाँ तानते हुए और हाथों में अण्डे घुमाते हुए प्रोफेसर चिंघाड़ा, “ये कोई जानवर है, न कि प्ताखा. मैं अपना मज़ाक उड़ाने की इजाज़त नहीं दूँगा. ये क्या है, पन्क्रात?”
 “अण्डे हैं, जनाब,” पन्क्रात ने अफसोस से कहा.
 “मुर्गियों के, समझ रहे हो, मुर्गियों के, शैतान उन्हें ले जाए! किस शैतान के लिए मुझे उनकी ज़रूरत है? इन्हें भी उस निकम्मे के पास सोव्खोज़ में भेज दें!”
पेर्सिकोव कोने में रखे टेलिफोन की ओर लपका, मगर फोन नहीं कर पाया.
 “व्लादीमिर इपातिच! व्लादीमिर इपातिच!” इन्स्टीट्यूट के कॉरीडोर में इवानोव की आवाज़ गरजी.
पेर्सिकोव टेलिफोन से दूर हट गया, और असिस्टेंट-प्रोफेसर को जगह देते हुए पन्क्रात फ़ौरन एक कोने में हट गया. अपनी शराफ़त के बावजूद, बिना अपनी भूरी हैट उतारे, जो पीछे खोपड़ी पर खिसक गई थी, और हाथों में अख़बार का पन्ना लिए, वह भागते हुए कैबिनेट में घुसा.
 “आप जानते हैं, व्लादीमिर इपातिच, क्या हुआ है?” वह चीखा और पेर्सिकोव के चेहरे के सामने अख़बार का पन्ना नचाने लगा था, जिस पर यह शीर्षक था: ‘आपात-परिशिष्ठ’ जिसके मध्य में एक भड़कीला, रंगीन चित्र था.
 “नहीं, सुनिए, उन्होंने क्या कर दिया है,” – जवाब में उसकी बात सुने बिना पेर्सिकोव चिल्लाया, “वे मुर्गियों के अण्डों से मुझे आश्चर्यचकित करना चाहते हैं. ये प्ताखा, पूरा ईडियट है, देखिए!”
इवानोव पूरी तरह सकते में आ गया. भयभीत होकर वह खुले हुए डिब्बों की ओर देखने लगा, फिर अख़बार के पन्ने की ओर, फिर उसकी आँखें एकदम कपाल पर चढ़ गईं.
 “तो, ये बात है,” गहरी साँस लेते हुए वह बड़बड़ाया, “अब मैं समझ रहा हूँ...नहीं, व्लादीमिर इपातिच, आप सिर्फ देखिए,” – उसने फ़ौरन पन्ना पलटा और थरथराती उँगलियों से पेर्सिकोव को रंगीन चित्र दिखा दिया. उसमें अग्नि-शामक गाड़ी के डरावने पाईप जैसा, अजीब सी हरियाली से पुता हुआ, पीले धब्बों वाला ज़ैतूनी साँप झूम रहा था. उसकी तस्वीर ऊपर से ली गई थी, हलके विमान से, जो सावधानी से साँप के ऊपर फिसल रहा था, “आपकी राय में यह कौन है, व्लादीमिर इपातिच?”
पेर्सिकोव ने चश्मा माथे पर चढ़ाया, फिर उसे आँखों तक लाया, ग़ौर से चित्र को देखा और बेहद विस्मय से बोला:
 “ये कैसी शैतानियत है. ये...हाँ, ये अनाकोण्डा है, पानी का अजगर...”
इवानोव ने हैट फेंक दी, कुर्सी पर बैठ गया और एक-एक शब्द पर मुट्ठी से मेज़ बजाते हुए बोला:
 “व्लादीमिर इपातिच, ये स्मोलेन्क प्रान्त का अनाकोण्डा है. भयानक बात है. आप समझ रहे हैं, इस बेवकूफ़ ने मुर्गियों के बदले साँपों को पैदा कर दिया, और, आप ग़ौर कीजिए, वे भी वैसे ही अभूतपूर्व परिणाम दे रहे हैं, जैसे मेंढकों ने दिए थे!”
 “क्या कह रहे हो?” पेर्सिकोव ने जवाब दिया और उसका चेहरा लाल हो गया... “आप मज़ाक कर रहे हैं, प्योत्र स्तेपानोविच...कहाँ से?”
इवानोव एक पल को गूँगा हो गया, फिर उसकी बोलने की शक्ति वापस आई और, वह खुले हुए डिब्बे में, जहाँ पीले बुरादे में अण्डों सफ़ेद सिरे झाँक रहे थे, उँगली गड़ाकर बोला:
 “यहाँ से.”
 “क्या...आ?!” पेर्सिकोव चिंघाड़ा, उसे सब समझ में आने लगा था.
इवानोव पूरे विश्वास के साथ दोनों बन्द मुट्ठियाँ नचाते हुए बोला:
 “शांत रहिए. उन्होंने गलती से साँपों और ऑस्ट्रिच के अण्डों का आपका ऑर्डर सोव्खोज़ भेज दिया, और मुर्गियों वाला आपको.”
 “माय गॉड...माय गॉड,” पेर्सिकोव ने दुहराया और रिवॉल्विंग स्टूल पर बैठने लगा. उसका चेहरा हरा होने लगा.
दरवाज़े के पास खड़ा पन्क्रात जैसे बिल्कुल पागल हो गया, पीला पड़ गया, और गूँगा हो गया. इवानोव उछला, उसने अख़बार का पन्ना पकड़ा और अपने नुकीले नाखून से उस पंक्ति को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर के कान में चिल्लाया:
 “अब भयानक हंगामा होने वाला है!...आगे क्या होगा, मैं कल्पना नहीं कर सकता. व्लादीमिर इपातिच, आप देखिए,” और वह मुड़े-तुड़े अख़बार से, जहाँ नज़र पड़ी वही पंक्ति पढ़ते हुए चीत्कार कर उठा... “साँपों के झुण्ड मोझाइस्क की ओर बढ़े चले आ रहे हैं... अनगिनत अण्डे देते हुए. अण्डे दूखोव्स्की जिले में देखे गए...मगरमच्छ और ऑस्ट्रिच पैदा हो गए. विशेष सैन्य बल...और सुरक्षा विभाग की टुकड़ियों ने, शहर के बाहर वाला जंगल जला कर, रेंगने वाले प्राणियों को आगे बढ़ने से रोक कर दहशत पर काबू पा लिया...”
पेर्सिकोव चितकबरा, नीला-बदरंग हो गया, पागल जैसी आँखों से स्टूल से उठा और हाँफ़ते हुए चिल्लाने लगा:
 “अनाकोण्डा...अनाकोण्डा...पानी का अजगर! माय गॉड!” ऐसी हालत में उसे इवानोव और पन्क्रात ने आज तक नहीं देखा था.
प्रोफेसर ने एक झटके से टाई नोंच ली, कोट के बटन तोड़ दिए, चेहरा पैरेलिसिस जैसे भयानक लाल रंग का हो गया और, लड़खड़ाते हुए, संज्ञाहीन, काँच जैसी निर्जीव आँखों से कहीं लपका. उसका विलाप इंस्टीट्यूट की पत्थर की मेहराबों में गूंजने लगा.
 “अनाकोण्डा...अनाकोण्डा..” प्रतिध्वनि गूँजती रही.
 “प्रोफेसर को पकड़!” इवानोव ने चीत्कार करते हुए पन्क्रात से कहा, जो डर के मारे अपनी ही जगह पर उछल-कूद कर रहा था. “उन्हें पानी पिला...दौरा पड़ा है.”


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शनिवार, 18 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 9

अध्याय 9
ज़िन्दा पॉरिज

दुगीनो स्टेशन की शासकीय सुरक्षा एजेंसी (गेपेऊ) का एजेंट शूकिन एक बहुत बहादुर इन्सान था. उसने कुछ सोचते हुए अपने लाल बालों वाले साथी पोलाइतिस से कहा:
“तो फिर, जाएँगे. हाँ? मोटरसाइकल निकाल...” फिर कुछ देर चुप रहने के बाद उस आदमी से मुख़ातिब होते हुए, जो बेंच पर बैठा था, वह आगे बोला, “आप बन्सी तो रख दीजिए.”
मगर दुगीनो की गेपेऊ की इमारत में बेंच पर बैठे सफ़ेद बालों वाले, थरथर काँपते उस आदमी ने बन्सी नहीं रखी, बल्कि रोने और बुदबुदाने लगा. तब शूकिन और पोलाइतिस समझ गए कि बन्सी को उसके हाथों से खींचकर अलग करना पड़ेगा. उँगलियाँ उससे चिपक गई थीं. शूकिन ने, जो बेहद ताक़तवर था, एक एक करके सारी उँगलियाँ मोड़-मोड़ कर दूर हटाईं. तब बन्सी को मेज़ पर रख दिया गया.
ये हो रहा था मान्या की मौत के दूसरे दिन तेज़ धूप वाली सुबह को.
 “आप हमारे साथ जाएँगे,” शूकिन ने अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच से मुख़ातिब होते हुए कहा, “हमें दिखाएँगे कि कहाँ और क्या-क्या हुआ था.” मगर रोक्क डर के मारे उससे दूर हट गया और उसने हाथों से स्वयँ को यूँ ढाँक लिया जैसे किसी भयानक दृश्य से अपने आप को बचा रहा हो.           
 “मगर, दिखाना तो पड़ेगा,” संजीदगी से पोलाइतिस ने जोड़ा.
 “नहीं, छोड़ो उसे. देख रहे हो न, कि आदमी अपने बस में नहीं है.”
 “ मुझे मॉस्को भेज दीजिए,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने रोते हुए विनती की.
 “क्या आप कभी सोव्खोज़ वापस नहीं लौटेंगे?”
मगर रोक्क ने जवाब के बदले फिर से स्वयँ को हाथों से ढाँक लिया, और उसकी आँखों से भय टपकने लगा.
 “ठीक है, कोई बात नहीं,” शूकिन ने फ़ैसला कर लिया, “आप वाक़ई में सही हालत में नहीं हैं...मैं देख रहा हूँ. अभी थोड़ी देर में एक्स्प्रेस ट्रेन जाने वाली है, उसमें बैठ कर आप चले जाईये.”
इस बीच, जब तक स्टेशन के गार्ड ने अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को पानी पिलाया, जिसे उसने नीले बदरंग मग पर दाँत किटकिटाते हुए पी लिया, शूकिन और पोलाइतिस ने कुछ सलाह-मशविरा कर लिया. पोलाइतिस का कहना था कि असल में कुछ भी नहीं हुआ है, सिर्फ रोक्क एक मानसिक रोगी है और उसे कोई भ्रम हुआ है. जबकि शूकिन का विचार था कि ग्राचेव्का शहर से, जहाँ आजकल सर्कस आई हुई है, कोई अजगर भाग निकला है. उनकी संदेहास्पद फुसफुसाहट को सुनकर, रोक्क उठ खड़ा हुआ. वह कुछ संभल चुका था, और उसने बाइबल के किसी प्रवर्तक की तरह हाथ फैलाते हुए कहा:
 “मेरी बात सुनिए. सुनिए. आप मेरी बात पर यक़ीन क्यों नहीं कर रहे हैं? वो थी. कहाँ है मेरी बीबी?”
शूकिन ख़ामोश और संजीदा हो गया और उसने फ़ौरन ग्राचेव्का को कोई टेलिग्राम भेज दिया. तीसरे एजेंट को शूकिन के निर्देशों के अनुसार, लगातार अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के पास बने रहना था और उसके साथ मॉस्को जाना था. ख़ुद शूकिन और पोलाइतिस अभियान पर जाने की तैयारी करने लगे.           
उनके पास सिर्फ एक ही इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर था, मगर यह भी पर्याप्त सुरक्षा प्रदान कर सकता था. पचास गोलियों की क्षमता वाला सन् ’27 का मॉडॆल, नज़दीकी रेंज के लिए फ्रेंच टेक्नोलॉजी का बेहतरीन नमूना, सिर्फ सौ कदम की दूरी से मार गिराता था, मगर दो मीटर के व्यास की रेंज का था, और इस घेरे के भीतर हर ज़िन्दा चीज़ का ख़ात्मा कर सकता था. निशाना चूक जाना बेहद मुश्किल था. शूकिन ने यह शानदार इलेक्ट्रिक खिलौना पहन लिया, जबकि पोलाइतिस 25 गोलियों वाली कमर में लटकाने वाली साधारण मशीन-गन से लैस हो गया, गोलियों का चार्जर ले लिया, और वे एक मोटरसाइकल पर, सुबह की ओस और ठण्डक में राजमार्ग से सोव्खोज़ की ओर निकल पड़े. स्टेशन और सोव्खोज़ के बीच की दूरी को, जो 20 मील थी, मोटरसाइकल ने पन्द्रह मिनट में पार कर लिया (रोक्क पूरी रात चलता रहा था, मौत के डर से रास्ते के किनारे वाली घास में बार-बार छुपते हुए), और जब सूरज काफ़ी तपने लगा, तो पहाड़ी पर, जिसे घेरते हुए तोप नदी बह रही थी, हरियाली में स्तम्भों वाला शक्करनुमा महल दिखाई दिया. चारों और मृतप्राय सन्नाटा था. सोव्खोज़ के ठीक प्रवेश-द्वार पर एजेंट्स ने गाड़ी पर जाते हुए एक किसान को पीछे छोड़ दिया. किन्हीं बोरों से लदा-फंदा, वह धीरे धीरे जा रहा था और जल्दी ही पीछे छूट गया. मोटरसाइकल ने पुल पार किया, और पोलाइतिस ने भोंपू बजाया ताकि किसी को बुला सके. मगर दूर, कोन्त्सोव्का के पागल कुत्तों के सिवाय कहीं से भी, किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया. अपनी गति को कम करते हुए मोटरसाइकल जंग लगे सिंहों के गेट की ओर आई. धूल धूसरित, पीले गेटर्स पहने एजेंट्स उछल कर नीचे उतरे, मोटरसाइकल को जंगले के पास खड़ा करके चेन वाला ताला लगाया और कम्पाऊण्ड में घुसे. सन्नाटे ने उन्हें चौंका दिया.
 “ऐ, कोई है!” शूकिन ज़ोर से चिल्लाया.
मगर उसकी दमदार आवाज़ का किसी ने जवाब नहीं दिया. अधिकाधिक चौंकन्ने होते हुए एजेंट्स ने कम्पाऊण्ड का चक्कर लगाया. पोलाइतिस ने त्यौरियाँ चढ़ा ली. शूकिन बड़ी गंभीरता से, अपनी सफ़ेद भौंहे चढ़ाए निरीक्षण करने लगा. किचन की बन्द खिड़की से झाँका तो पाया कि वहाँ पर कोई नहीं है, मगर पूरा फर्श पर प्लेटों के सफ़ेद टुकड़ों से अटा पड़ा था.
“तू समझ रहा है ना, उनके यहाँ कुछ तो ज़रूर हुआ है. अब मैं देख सकता हूँ. भयानक हादसा,” पोलाइतिस बुदबुदाया.
 “ऐ, वहाँ कौन है! ऐ!,” शूकिन चिल्लाया, मगर किचन के गुम्बज़ से टकराकर उसकी आवाज़ लौट आई.
”शैतान ही जाने!” शूकिन बड़बड़ाया. “वो एकदम सबको तो निगल नहीं ना सकता था. या फिर भाग गए हैं. घर के अन्दर चलते हैं.”
महल के स्तम्भों वाले बरामदे का दरवाज़ा पूरी तरह खुला हुआ था, और उसमें निपट ख़ामोशी थी. एजेंट्स अटारी पर भी गए, सारे दरवाज़े खटखटाए और खोले, मगर कोई ख़ास बात नहीं मिली और वे मृतप्राय पोर्च से निकल कर फिर से कम्पाऊण्ड में आ गए.
 “चारों ओर एक चक्कर लगाते हैं. ग्रीन-हाऊस की ओर,” शूकिन ने कहा, “सब कुछ ठीक से देख लेंगे, और वहाँ से फोन भी कर सकते हैं.”
क्यारियों को पार करके, ईंटोंवाले रास्ते से होते हुए एजेंट्स पिछले आँगन में पहुँचे, उसे पार किया और उन्हें ग्रीन-हाऊस के दमकते शीशे दिखाई दिए.
 “थोड़ा रुक,” शूकिन ने फुसफुसाकर कहा और कमर से रिवॉल्वर निकाल लिया. पोलाइतिस सतर्क हो गया और उसने मशीनगन निकाल ली. ग्रीन हाऊस में और कहीं उसके पीछे से एक विचित्र और गरजती हुई आवाज़ आ रही थी. ऐसा लग रहा था कि कहीं कोई इंजिन फुफकार रहा है. ज़ऊ-ज़ऊ...ज़उ-ज़ऊ...स्-स्-स्-स्... ग्रीन हाऊस फुफकार रहा था.
 “देख, सावधानी से,” शूकिन फुसफुसाया, और, एड़ियों की आवाज़ न करने की कोशिश करते हुए, एजेंट्स शीशों के बिल्कुल पास आ गए और उन्होंने ग्रीन हाऊस में झाँका.
पोलाइतिस फ़ौरन पीछे हटा, और उसका चेहरा विवर्ण हो गया. शूकिन का मुँह खुल गया और वह हाथ में रिवॉल्वर समेत जम गया.
पूरा ग्रीन हाऊस कीड़ों के पॉरिज जैसा खदखदा रहा था. छल्ले बनाते हुए और बिगाड़ते हुए, फुफकारते हुए और पलटते हुए, गोल-गोल घूमते हुए और सिरों को हिलाते हुए, ग्रीन हाऊस के फर्श पर विशालकाय साँप रेंग रहे थे. अंडों के टूटे हुए छिलके फर्श पर बिखरे थे और उनके शरीरों के नीचे चूर-चूर हो रहे थे. ऊपर काफ़ी पॉवरफुल इलेक्ट्रिक बल्ब जल रहा था, और इसके कारण ग्रीन हाऊस का भीतरी भाग एक अजीब डरावने प्रकाश से चमक रहा था. फर्श पर फोटोग्राफिक कैमेरों जैसे काले तीन बड़े बडे डिब्बे झाँक रहे थे, जिनमें से दो जो टेढ़े हो गए थे और सरका दिए गए थे, बुझ चुके थे, मगर तीसरे में प्रकाश का एक छोटा सा गहरा लाल धब्बा चमक रहा था. सभी आकारों के साँप तारों पर रेंग रहे थे, फ्रेम्स से लिपट रहे थे, रेंगते हुए छत पर बने छेदों से बाहर निकल रहे थे. ख़ुद इलेक्ट्रिक बल्ब पर एक बिल्कुल काला, धब्बों वाला, कई हाथ लम्बा साँप लटक रहा था, और उसका सिर बल्ब से पेंडुलम की भाँति झूल रहा था. इस फुफकार में कुछ झुनझुने जैसी आवाज़ भी थी, ग्रीन हाऊस से विचित्र, सड़ी हुई, तालाब जैसी दुर्गन्ध आ रही थी. और एजेंट्स ने देखे धूल भरे कोनों में बिखरे, धुंधले-से सफ़ेद अण्डों के ढेर, और एक विचित्र जलचर पक्षी, जो डिब्बों के पास निश्चल पड़ा था, और देखा दरवाज़े के पास भूरे कपड़ों में एक आदमी का मृत शरीर, जो संगीन के पास पड़ा था.
 “पीछे,” दाएँ हाथ से पोलाइतिस को पीछे दबाते हुए और बाएँ हाथ में रिवॉल्वर ऊपर को उठाए शूकिन चीख़ा और पीछे हटने लगा. ग्रीन हाऊस में सनसनाती बिजली की हरी लकीर फेंकते हुए उसने नौ बार फ़ायर किए. आवाज़ भयानक रूप से गूंजी, और शूकिन की गोलीबारी के जवाब में पूरे ग्रीन हाऊस में बदहवास हलचल होने लगी, और सभी छेदों से चपटे सिर झाँकने लगे. ये गड़गड़ाहट फ़ौरन ही पूरे सोव्खोज़ में फैल गई और दीवारों पर बिजलियों की चमक नाचने लगी. ‘चाख्-चाख्-चाख्-चाख् – पोलाइतिस पीछे हटते हुए फ़ायर किए जा रहा था. पीठ के पीछे एक अजीब चार पैरों वाली सरसराहट सुनाई दी, और पीठ के बल गिरते हुए पोलाइतिस अचानक भय से चिल्लाया. मुड़ी हुई टाँगों वाला, भूरे-हरे रंग का, भारी-भरकम नुकीले थोबड़े वाला, दाँतेदार पूँछ वाला, भयानक आकार की छिपकली जैसा प्राणी गोदाम के कोने से बाहर आया और, तैश में पोलाइतिस का पैर काट कर, उसे ज़मीन पर गिरा दिया.
 “बचाओ,” पोलाइतिस चीखा, और तभी उसका दायाँ हाथ उस प्राणी के जबड़े में जा गिरा और चूर-चूर हो गया, बाएँ हाथ को मज़बूती से उठाने की कोशिश करते हुए वह रिवॉल्वर को ज़मीन पर घुमाने लगा. शूकिन पलटा और हरकत में आ गया. एक बार उसने फ़ायर किया मगर गोली किनारे से निकल गई क्योंकि उसे डर था कि कहीं अपने साथी को ही न मार दे. दूसरी बार उसने ग्रीन हाऊस की दिशा में गोली चलाई, क्योंकि वहाँ से, साँपों के छोटे-छोटे सिरों के बीच से एक विशालकाय, ज़ैतूनी सिर बाहर निकला, जिसका धड़ सीधे उसकी ओर उछला. इस फ़ायर से उसने इस महाकाय साँप को मार डाला और फिर से, पोलाइतिस के नज़दीक उछलते हुए और घूमते हुए, जो मगरमच्छ के जबड़े में अधमरा हो गया था, एक जगह चुनी, जहाँ गोली चलाई जा सके, जिससे एजेंट को धक्का पहुँचाए बिना ख़तरनाक सरपट प्राणी को मार डाले. आख़िरकार उसे इसमें सफ़लता मिल ही गई. चारों ओर हरा प्रकाश बिखेरते हुए इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर से दो बार फ़ायर हुए, और मगरमच्छ, उछलकर सीधा तन गया, पत्थर की तरह निश्चल हो गया और उसने पोलाइतिस को छोड़ दिया.                                                   
उसकी बाँह से खून बह रहा था, मुँह से खून बह रहा था, और उसने, बाएँ, तन्दुरुस्त हाथ पर मुड़कर टूटे हुए पैर को सीधा किया. उसकी आँखें बुझ रही थीं.
 “शूकिन...भाग...” वह हिचकियाँ लेते हुए बुदबुदाया.
शूकिन ने ग्रीन हाऊस की दिशा में कुछ और फ़ायर किए, उसके कई शीशे टूट कर बिखर गए. मगर तभी पीछे से, गोदाम की खिड़की से एक भयानक, ज़ैतूनी और लचीली कुण्डली, उछल कर बाहर आई, अपने पाँच हाथ के शरीर से कम्पाऊण्ड को पूरा घेरते हुए उसे पार किया, और पल भर में शूकिन के पैरों से लिपट गई. वह ज़मीन पर गिर पड़ा, और शानदार रिवॉल्वर उछल कर एक ओर को जा गिरा. शूकिन पूरी ताक़त से चीख़ा, फिर उसका दम घुट गया, फिर कुण्डली के छल्लों ने सिर्फ सिर को छोड़कर उसे पूरी तरह से ढाँक लिया. छल्ला एक बार सिर के ऊपर से गुज़रा उसकी खोपड़ी फाड़ते हुए, और तब, सिर चटक गया. इसके बाद सोव्खोज़ में एक भी फ़ायर की आवाज़ नहीं सुनाई दी. चारों ओर व्याप्त फुफकारती आवाज़ हर चीज़ निगल गई. और दूर कोन्त्सोव्का से हवा पे सवार एक विलाप ने उसे जवाब दिया, मगर अब यह समझना भी मुश्किल था कि ये किसका विलाप है, कुत्तों का या इन्सान का.


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शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 8

अध्याय 8

सोव्खोज़ (सोवियत फार्म) में काण्ड
 

कम से कम स्मोलेन्स्क प्रांत में बीच-अगस्त के मौसम से शानदार कोई और मौसम हो ही नहीं सकता. सन् 1928 की गर्मियाँ, जैसा कि ज्ञात है, सबसे शानदार थीं, बसंत की बारिश सही समय पर हुई थी, कड़ी धूप थी, फ़सल भी बेहद बढ़िया हुई थी...शेरेमेत्येवों की भूतपूर्व जागीर में सेब पक रहे थे, जंगलों पर हरियाली छा रही थी, चौकोर खेत सुनहरे-पीले हो चुके थे..प्रकृति की गोद में इन्सान भी बेहतर हो जाता है. और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच भी उतना बदसूरत नहीं लग सकता था, जैसा वह शहर में प्रतीत हो रहा था. वो घिनौना जैकेट भी अब उस पर नहीं था. चेहरा तांबे जैसा चमक रहा था, खुली हुई फूलदार कमीज़ के भीतर से उसका घने काले बालों से ढँका सीना दिखाई दे रहा था, उसने नई कैनवास की पतलून पहनी थी. और उसकी आँखों से शांति और दया छलक रही थी.
स्तम्भों वाले पोर्च से निकल कर, जिस पर सितारे के नीचे बैनर लगा था:
 ‘सोव्खोज़ (सोवियत फ़ार्म)’ ‘लाल किरण’
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच उत्तेजना से ट्रक की ओर भागा, जो सुरक्षा-गार्डों की निगरानी में तीन काले चैम्बर्स लाए थे.
 भूतपूर्व शिशिर-उद्यान – शेरेमेत्येवों के ग्रीन-हाऊस - में चैम्बर्स फिक्स करने की गड़बड़ में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच अपने सहायकों के साथ पूरे दिन भागदौड़ करता रहा... शाम होते-होते सब तैयार हो गया. काँच की छत के नीचे सफ़ेद मटमैला लैम्प जल उठा, ईंटों पर चैम्बर्स रख दिए गए, और चैम्बर्स के साथ आए हुए मैकेनिक ने चमकदार स्क्रूज़ को थपथपाकर, इधर-उधर घुमाकर काले डिब्बों के एस्बेस्टस के फर्श पर रहस्यमय लाल किरण जला दी.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच भाग-दौड़ करता रहा, सीढ़ी पर चढ़कर जाँच करता रहा कि तार ठीक से लगे हैं या नहीं.                  
दूसरे दिन वही ट्रक स्टेशन से लौटा और बढ़िया प्लायवुड के तीन खोके उतारे, जिन पर तरह तरह के लेबल्स चिपके हुए थे और काली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद अक्षरों वाले नोटिस लगे थे:
  
VORSICHT: EIER!!
सावधान: अंडे!!
                          
“ये इतने कम क्यों भेजे हैं?” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को अचरज हुआ, मगर वह फ़ौरन उन्हें खोलने में लग गया. अण्डे बाहर निकालने का काम उसी ग्रीन-हाऊस में किया गया, और इसमें शामिल थे: ख़ुद अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, उसकी असाधारण रूप से मोटी बीबी मान्या, भूतपूर्व शेरेमेत्येवों का भूतपूर्व काणा गार्डनर, जो अब सोव्खोज़ में हरफ़नमौला चौकीदार का काम करता था, और झाडू लगाने वाली दून्या. ये मॉस्को नहीं था, और यहाँ हर चीज़ सीधी-सादी, दोस्ताना और पारिवारिक भावना लिए हुए थी. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच प्यार से उन खोकों की ओर देखते हुए निर्देश दे रहा था, जो ग्रीन-हाऊस की काँच की छत के नीचे फैले सूर्यास्त के नर्म-मद्धिम प्रकाश में किसी ज़बर्दस्त उपहार जैसे प्रतीत हो रहे थे. चौकीदार, जिसकी संगीन दरवाज़े के पास मीठी नींद ले रही थी, प्लायर्स की सहायता से धातु की पट्टियाँ और क्लिप्स निकाल रहा था. चरमराहट हो रही थी...धूल गिर रही थी. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच अपने सैण्डिल्स खटखटाते हुए खोकों के पास भाग दौड़ कर रहा था.
 “धीरे से, प्लीज़,” वह चौकीदार से बोला. “और ज़्यादा सावधानी से. क्या देख नहीं रहे हो – अण्डे हैं?...”
 “कोई बात नहीं,” कस्बाई योद्धा चहकते हुए भर्राया, “ बस, अभी हो जाता है...”
 टर्-र्-र्... और धूल गिरने लगी.
अण्डे एकदम ‘सुपर’ तरीक़े से रखे गए थे: लकड़ी के ढक्कन के नीचे मोमजामे वाले कागज़ की तह थी, इसके नीचे ब्लॉटिंग पेपर की, इसके नीचे मोटी तह लकड़ी की छीलन की, फिर बुरादा, और उनके बीच से अण्डों के सफ़ेद सिर झाँक रहे थे.
 “विदेशों की पैकिंग है”, भूसे में हाथ डालते हुए अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने प्यार से कहा, “ हमारे जैसी नहीं. मान्या, ध्यान से, तू उन्हें तोड़ देगी.”
 “तुम तो, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, पगला गए हो,” पत्नी ने जवाब दिया, “ कौनसा सोना भरा है इनमें. क्या मैंने कभी अण्डे देखे नहीं हैं? ओय!...कितने बड़े-बड़े हैं!”
 “विदेश,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने अण्डे लकड़ी की मेज़ पर रखते हुए कहा, “क्या ये हमारे किसानों वाले अण्डे हैं...सब, शायद, ब्रह्मपुत्रा के हैं, शैतान ले जाए! जर्मन...”
 “सही बात है,” अण्डों की ओर प्यार से देखते हुए चौकीदार ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा.
 “बस, एक बात समझ नहीं पा रहा हूँ, कि ये इतने गन्दे क्यों हैं,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने सोच में पड़ कर कहा.  “मान्या, तुम ज़रा देखना. उन्हें और अण्डे बाहर निकालने दो, और मैं फोन करके आता हूँ.”
और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच आँगन से होकर सोव्खोज़ के दफ़्तर में फोन करने गया.             
शाम को प्राणि-विज्ञान संस्था की कैबिनेट में टेलिफोन बजने लगा. प्रोफेसर पेर्सिकोव ने अपने बालों में ऊँगलियाँ फेरीं और फोन की ओर आया.
“येस?” उसने पूछा.
“कस्बे से आपके लिए फोन है,” रिसीवर से धीमी फुसफुसाहट में किसी जनानी आवाज़ ने कहा.
 “ठीक है. सुन रहा हूँ,” कुछ हिकारत से पेर्सिकोव ने टेलिफोन के काले मुँह में कहा... उसमें कुछ खट्-खट् हुई, और फिर दूर से आती हुई मर्दानी आवाज़ ने उत्तेजना से कान में कहा:
 “क्या अण्डे धोने हैं, प्रोफेसर?”
 “क्या कहा? क्या? क्या पूछ रहे हैं?” प्रोफेसर चिढ़ गया, “कहाँ से बोल रहे हैं?”
 “निकोल्स्कोए से, स्मोलेन्स्क प्रांत से,” रिसीवर ने जवाब दिया.
 “कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. मैं किसी निकोल्स्कोए को नहीं जानता. कौन बोल रहा है?”
 “रोक्क,” रिसीवर ने संजीदगी से कहा.
 “कौनसा रोक्क? आह, हाँ...ये आप हैं...तो, आप क्या पूछ रहे थे?”
 “क्या उन्हें धोना पड़ेगा?...मुझे विदेश से मुर्गी के अण्डे भेजे गए हैं...”
 “अच्छा?”
 “...और वे किसी तरह की गन्दगी में लिपटे हैं...”
 “आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है...उन पर ‘गन्दगी’ कैसे हो सकती है, जैसा कि आप कह रहे हैं? बेशक, हो सकता है, कि थोड़ा सा कचरा चिपक गया हो...या कोई और चीज़...”
 “तो धोने की ज़रूरत नहीं है?”
 “बेशक, कोई ज़रूरत नहीं है... क्या आप चैम्बर्स में अण्डे रखने भी लगे?”
 “रख रहा हूँ. हाँ,” रिसीवर ने जवाब दिया.
 “हुम्,” प्रोफेसर गुर्राया.
 “ओके,” रिसीवर ने कहा और ख़ामोश हो गया.
 “ठीक है,” बड़ी नफ़रत से प्रोफेसर ने प्राइवेट सहायक-प्रोफेसर इवानोव की ओर देखते हुए दुहराया और पूछा, “आपको ये नमूना कैसे लगा, प्योत्र स्तेपानोविच?”
इवानोव हँस पड़ा.
 “ये ‘वो’ था? मैं कल्पना कर सकता हूँ कि वहाँ वो इन अण्डों का क्या हाल करेगा.”
  “हाँ...हाँ...हाँ...” पेर्सिकोव ने कटुतापूर्वक कहना शुरू किया. “आप कल्पना कीजिए, प्योत्र स्तेपानोविच... ठीक है, बढ़िया है...बहुत मुमकिन है, कि मुर्गियों के अण्डों के ड्यूटेरोप्लाज़्मा पर किरण का वैसा ही प्रभाव हो जैसा कि मेंढ़कों के प्लाज़्मा पर होता है. काफ़ी मुमकिन है कि उसके अण्डों से मुर्गियाँ निकल आएँगी. मगर न तो आप, न ही मैं बता सकते हैं कि वे मुर्गियाँ कैसी होंगी...हो सकता है कि वे किसी भी काम की न हों. हो सकता है कि वे दो दिनों में मर भी जाएँ. हो सकता है, कि उन्हें खाना नामुमकिन हो! और क्या मैं इस बात की ग्यारंटी दे सकता हूँ कि वे अपने पैरों पर खड़ी भी हो पायेंगी या नहीं? हो सकता कि उनकी हड्डियाँ भुरभुरी हों.” पेर्सिकोव तैश में आ गया, और अपनी हथेली नचाने लगा, उँगलियाँ चटख़ाने लगा.
 “बिल्कुल सही है,” इवानोव ने सहमति दर्शाई.
 “क्या आप ग्यारंटी दे सकते हैं, प्योत्र स्तेपानोविच कि उनमें प्रजनन क्षमता होगी? हो सकता है ये बांझ मुर्गियों की किस्म हो. उन्हें कुत्ते जितना बड़ा कर लो और फिर अगली पीढ़ी का इंतज़ार प्रलय तक करते रहो.”
 “ग्यारंटी नहीं दे सकते,” इवानोव की भी यही राय थी.
 “और कैसी बेतकल्लुफ़ी,” पेर्सिकोव गुस्से में आ गया, “कैसी स्मार्टनेस! और मुलाहिज़ा फ़रमाईये, मुझे इस कमीने को निर्देश देना हैं,” पेर्सिकोव ने रोक्क द्वारा दिए गए कागज़ की ओर इशारा किया (वह प्रयोगों वाली मेज़ पर पड़ा था)...और मैं कैसे उस बेवकूफ़ को निर्देश दूँगा, जबकि मैं ख़ुद ही इस बारे में कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ.”
 “क्या मना करना संभव नहीं था?” इवानोव ने पूछा.
पेर्सिकोव लाल हो गया, उसने कागज़ उठाया और इवानोव को दिखाया. उसने उसे पढ़ा और व्यंग्य से मुस्कुरा दिया.
 “हुँ..हाँ,” उसने गहरे अंदाज़ में कहा.
 “और, ज़रा मुलाहिज़ा फ़रमाईये...मैं अपने ऑर्डर का दो महीने से इंतज़ार कर रहा हूँ, उसके बारे में कोई ख़बर ही नहीं है. मगर इसे फ़ौरन अण्डे भी भेज दिए और हर तरह की मदद भी मिल गई...”
 “उससे कुछ होने वाला नहीं है, व्लादीमिर इपातिच. आख़िर में आपके चैम्बर्स आपको लौटाने पडेंगे. “
 “बस, जल्दी से लौटा दें, वर्ना मेरे सारे प्रयोग रुके पड़े हैं.”
 “हाँ, ये बड़ी ख़राब बात है. मैंने सारी तैयरियाँ पूरी कर ली हैं.”
 “क्या आपको सुरक्षा-सूट मिल गए हैं?”
 “हाँ, आज आ गए हैं”
पेर्सिकोव कुछ शांत हुआ और उसकी आँखों में कुछ चमक आ गई.
 “हुँ...मेरा ख़याल है कि हम ऐसा करेंगे. प्रयोगशाला के दरवाज़े कस के बन्द कर देंगे और खिड़की हम खोल देंगे...”
 “बेशक,” इवानोव ने सहमति दर्शाई.
 “तीन हेल्मेट्स हैं?”
 “तीन. हाँ.”
 “तो, ऐसा करेंगे...आप तो हैं ही, मैं और विद्यार्थियों में से किसी एक को बुलाया जा सकता है. उसे तीसरा हेल्मेट दे देंगे.”
 “ग्रीनमुत को बुला सकते हैं.”
 “ये वो तो नहीं, जो आपके साथ सैलामैंडर्स पर काम कर रहा है? हुम्...वो ठीक है...मगर, ग़ौर फ़रमाईये, बसंत की परीक्षा में वह ये नहीं बता पाया था कि प्स्युडोटाइफ्लोप्स के एयर-ब्लैडर की संरचना कैसी होती है,” पेर्सिकोव ने कड़वाहट से आगे कहा.
 “नहीं, वह ठीक ही है, वह अच्छा स्टूडेंट है,” इवानोव ने उसकी तरफ़दारी करते हुए कहा.
 “एक रात बिना नींद के गुज़ारनी पड़ेगी,” पेर्सिकोव कहता रहा, “बस, एक बात है, प्योत्र स्तेपानोविच, आप गैस चेक कर लेना, वर्ना शैतान जाने, उनके ये वालंटीयर-केमिस्ट कैसे हैं. न जाने क्या भेज दें.”
 “नहीं, नहीं,” और इवानोव ने हाथ हिलाते हुए कहा, “मैंने कल ही ट्रायल ले लिया था. उनकी तारीफ़ करनी पड़ेगी, व्लादीमिर इपातिच, बेहतरीन किस्म की गैस है.”
 “आपने किस पर ट्रायल लिया था?”
 “साधारण मेंढकों पर. जैसे ही गैस की फ़ुहार छोड़ते हो – फ़ौरन मर जाते हैं. हाँ, व्लादीमिर इपातिच, हम एक काम और कर सकते हैं. आप गेपेऊ को लिखिए कि आपको इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर भेजा जाए.”
 “मगर मुझे तो उसका इस्तेमाल करना आता ही नहीं है...”
 “ये आप मुझ पर छोड़ दीजिए,” इवानोव ने जवाब दिया, “हमने क्ल्याज़्मा में उससे फ़ायर किए थे, बस, यूँ ही मज़ाक में...वहाँ मेरी बगल में एक गेपेऊ वाला रहता था...बढ़िया चीज़ है. एकदम बेहतरीन...सौ क़दम की दूरी से बिना आवाज़ के मार गिराती है. हमने कौओं पर चलाई थी...मेरे ख़याल में तो गैस की भी ज़रूरत नहीं है.”
 “हुम्...ये ब्रिलियंट आइडिया है...बेहद...” पेर्सिकोव कोने में गया, रिसीवर उठाया और चहका...
 “मुझे वो दीजिए...क्या कहते हैं...लुब्यान्का...”
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दिन बेहद गर्म थे. खेतों के ऊपर घनी, पारदर्शक गर्मी वातावरण में घुलती हुई साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी. मगर रातें ग़ज़ब की थीं, छलावे जैसी, हरी-हरी. चान्द चमक रहा था और शेरेमेत्येवों की भूतपूर्व जागीर पर ऐसी ख़ूबसूरती बिखेर रहा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता. महल-सोव्खोज़ ऐसे चमक रहा था, मानो शक्कर का हो, परछाईयाँ थरथरा रही थीं, और पोखर मानो दो रंगों में बँट गए हों – एक तिरछा चाँद का स्तम्भ और दूसरा आधा अंतहीन अंधेरा. चांद के प्रकाश में आसानी से ‘इज़्वेस्तिया’ पढ़ा जा सकता था, शतरंज वाले स्तम्भ को छोड़कर, जो बहुत छोटी लिखाई में था. मगर ऐसी रातों में, ज़ाहिर है, कोई भी ‘इज़्वेस्तिया’ नहीं पढ़ता...दून्या, सफ़ाई करने वाली, सोव्खोज़ के पीछे वाली बगिया में थी, और, संयोगवश, सोव्खोज़ के ख़स्ताहाल ट्रक का लाल मूंछों वाला ड्राइवर भी वहीं पर था. वे वहाँ क्या कर रहे थे – पता नहीं. वे एल्म की अस्थिर छाया में, सीधे ड्राइवर के बिछाए गए चमड़े के कोट पर दुबके बैठे थे. किचन में लैम्प जल रहा था, वहाँ दो माली खाना खा रहे थे, और मैडम रोक्क, सफ़ेद गाऊन में, स्तम्भों वाले बरामदे में बैठी, ख़ूबसूरत चाँद की ओर देखते हुए सपने देख रही थी.
रात के दस बजे, जब सोव्खोज़ के पीछे वाले कोन्त्सोव्का गाँव में सारी आवाज़ें शांत हो गईं, तो यह अप्रतिम वातावरण बन्सी की शानदार, नाज़ुक स्वरलहरियों से भर गया. वे बागों के और शेरेमेत्येवों के महल के भूतपूर्व स्तम्भों के ऊपर कितनी भली प्रतीत हो रही थीं, इसका बखान करने से कोई लाभ नहीं है. ‘ हुक्म की बेगम’ की नाज़ुक लीज़ा जोशीली पोलिना के साथ अपनी आवाज़ मिलाकर चाँद की ऊँचाई तक यूँ ले जा रही थी, मानो प्राचीन, मगर फिर भी सदा प्यारे, आँसुओं की हद तक सम्मोहित करने वाले जीवन की छवि हो.                       
बुझते हैं...बुझते हैं...
आहें भरते हुए, बन्सी स्वर-लहरियाँ बिखेर रही थी.
बगिया मानो जम गई, और दून्या, वन-देवी जैसी लचीली, ड्राइवर के खुरदुरे, लाल, सोमर्दाने गाल पर अपना गाल टिकाए सुन रही थी. 
 “ये, कम्बख़्त, बन्सी अच्छी बजाता है,” दून्या की कमर में अपना मर्दाना हाथ डालते हुए ड्राइवर ने कहा.
बन्सी ख़ुद सोव्खोज़ का डाइरेक्टर अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच रोक्क बजा रहा था, और मानना पड़ेगा कि बेहद अच्छी बजा रहा था. बात ये थी कि बन्सी ही अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की विशेषता थी. सन् 1917 तक वह निर्देशक पेतूखोव के प्रसिद्ध कॉन्सर्ट ग्रुप में काम करता था, जो ओडेसा के ‘जादुई सपने’ नामक सिनेमा के प्रवेश-हॉल में हर शाम अपनी स्वर लहरियाँ बिखेरता था. मगर अनेक लोगों के कैरियर को चौपट करने वाला महान सन् 1917 अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को भी नई राहों पर ले चला. उसने ‘जादुई सपने’ और प्रवेश-हॉल का धूल भरा सितारों जड़ा सैटिन छोड़ दिया और युद्ध एवम् क्रांति के समन्दर में कूद पड़ा, बन्सी के बदले मौत बिखेरने वाले रिवॉल्वर को अपना लिया. लहरों के थपेड़ो ने उसे कई बार उछालकर ला पटका कभी क्रीमिया में, कभी मॉस्को में, तो कभी तुर्किस्तान में, यहाँ तक कि व्लादीवोस्तोक में भी. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की सम्पूर्ण योग्यता को प्रकट होने के लिए, कि ये आदमी वाक़ई में महान है, और, बेशक, ‘सपनों’ का प्रवेश-हॉल इसके लिए नहीं है, क्रांति की ही ज़रूरत थी. ज़्यादा विस्तार में न जाते हुए ये कहेंगे कि सन् 1927 के अंत और सन् 1928 के आरंभ में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने अपने आप को तुर्किस्तान में पाया, जहाँ पहले, वह एक बड़े राजनैतिक-साहित्यिक अख़बार का संपादन करता था, और इसके बाद सर्वोच्च आर्थिक कमिशन के स्थानीय सदस्य के रूप में तुर्किस्तान में सिंचाई से संबंधित अपने आश्चर्यजनक कामों के कारण प्रसिद्ध हो गया. सन् 1928 में रोक्क मॉस्को आया और उसे थोड़ी छुट्टी मिली, जिसका वह वाक़ई में हक़दार था. उस संस्था की सर्वोच्च कमिटी ने जिसका पहचान-पत्र बड़े सम्मान से यह पुराने फ़ैशन का प्रांतीय व्यक्ति लिये-लिये घूमता था, उसकी योग्यता को पहचाना और उसे एक सुकूनभरी और सम्माननीय ज़िम्मेदारी सौंप दी. हाय! हाय! रिपब्लिक की बदकिस्मती से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच का खदखदाता दिमाग़ शांत नहीं हुआ, मॉस्को में रोक्क का सामना पेर्सिकोव के आविष्कार से हो गया, और त्वेर्स्काया वाले 'लाल पैरिस’ हॉटेल के कमरे में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के दिमाग में इस ख़याल ने जन्म लिया कि पेर्सिकोव की किरण की सहायता से एक महीने के भीतर रिपब्लिक में मुर्गी-पालन को पुनर्जीवित किया जाए. क्रेमलिन ने अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की बात सुनी, क्रेमलिन उसकी बात से सहमत हो गया और रोक्क सनकी प्राणी-वैज्ञानिक के पास पक्का ऑर्डर लेकर आ गया.
शीशे जैसे पारदर्शी जल, क्यारियों और पार्क पर झूमता हुआ यह संगीत अंत की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने उसे बीच ही में रोक दिया. ख़ास तौर से कोन्त्सोव्का में कुत्ते, जिन्हें अब तक सो जाना चहिए था, अचानक बेतहाशा भौंकने लगे, जो क्रमशः एक सामूहिक दर्दभरे रुदन में परिवर्तित हो गया. यह रुदन बड़ा होते-होते खेतों पर तैर गया, और रुदन का जवाब पोखरों के मेंढकों की लाखों आवाज़ों ने अपनी टर्राहट वाले संगीत से दिया. यह सब इतना डरावना था कि एक पल को ऐसा लगा जैसे रहस्यमयी जादुई रात बुझ गई है.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने बन्सी रख दी और बाहर बरामदे में आया.
 “मान्या. तुम सुन रही हो? ये नासपीटे कुत्ते...क्या सोचती हो, ये, ऐसे पगला क्यों रहे हैं?”
 “मुझे कहाँ से मालूम?” मान्या ने चाँद की ओर देखते हुए जवाब दिया.
 “चलो, मानेच्का, चलकर अण्डों को देखते हैं,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने कहा.
 “ऐ ख़ुदा, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, तुम अपने अण्डों और मुर्गियों के कारण एकदम पागल हो गए हो. थोड़ा आराम कर लो!”
 “नहीं, मानेच्का, चल, जाएँगे.”
 ग्रीन-हाऊस में प्रखर रोशनी का बल्ब जल रहा था. तमतमाया हुआ चेहरा और चमकती आँखें लिए दून्या भी आई. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने प्यार से निरीक्षण करने वाली खिड़की को खोला, और सब चैम्बर्स के भीतर देखने लगे. सफ़ेद ऐस्बेस्टस के फर्श पर सही-सही क़तारों में करीने से रखे थे धब्बों वाले चमकीले- लाल अण्डे, चैम्बर्स में निपट ख़ामोशी थी...और ऊपर का 15,000 वाट वाला बल्ब हौले हौले सन्-सन् कर रहा था...
 “ऐह, निकालूँगा मैं चूज़ों को!” जोश में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने कभी किनारे से, निरीक्षण के लिए बनी झिरियों से, कभी ऊपर से, वेंटीलेटर वाले बड़े-बड़े छेदों से, झाँकते हुए कहा, “देख ही लेना...क्या? नहीं निकालूँगा?”
 “आपको मालूम है, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,” दून्या ने मुस्कुराते हुए कहा, “कोन्त्सोव्का के किसान कह रहे थे कि आप एन्टीक्राईस्ट हैं. कहते हैं कि आपके अण्डे शैतानी हैं. मशीनों से चूज़े पैदा करना गुनाह है. आपको ख़त्म करने की सोच रहे थे.”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच काँप गया और बीबी की ओर मुड़ा. उसका चेहरा पीला पड़ गया था.
 “ख़ैर, क्या कह सकते हैं? लोग हैं! ऐसे लोगों के साथ आप कर भी क्या सकते हो? हँ? मानेच्का, उनकी एक मीटिंग बुलानी पड़ेगी...कल फोन करके जिले से पार्टी-वर्कर्स को बुलाऊँगा. मैं ख़ुद भी भाषण दे दूँगा. यहाँ, थोड़ा काम करना ही पड़ेगा...वर्ना तो, ये कैसा भालुओं जैसा उजाड़ कोना है...”
“अज्ञान का अंधकार,” ग्रीन-हाऊस के दरवाज़े के पास अपने ओवरकोट पर बैठा गार्ड बुदबुदाया.
अगले दिन की शुरूआत ही अत्यंत विचित्र और अनाकलनीय घटनाओं से हुई. सुबह, सूरज की पहली किरण के साथ ही बगिया, जो अक्सर सूरज का स्वागत पक्षियों की निरंतर चहचहाहट से करतीं थीं, उससे पूरी निःशब्दता से मिलीं. इस बात को सभी ने महसूस किया. ये, जैसे तूफ़ान से पहले की शांति थी. मगर किसी भी तूफ़ान का कोई नामोनिशान नहीं था. सोव्खोज़ में कुछ अजीब तरह की और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के लिए दुहरे अर्थ की बातें हो रही थीं, और ख़ास तौर से इसलिए भी कि कोन्त्सोव्का के उपद्रवी एवम् विद्वान, जिसे ‘बकरे की दाढ़ी’ के नाम से जाना जाता था, के अनुसार अगर सारे पंछी झुण्ड बनाकर सुबह होते ही शेरेमेत्योव से कहीं दूर, उत्तर की ओर, चले गए हैं, तो ये बड़ी बेवकूफ़ी भरी बात है. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच बेहद परेशान हो गया और उसने पूरा दिन फ़ोन पर ग्राचेव में कमिटी से बात करने की कोशिश में बिता दिया. वहाँ से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच से वादा किया गया कि क़रीब दो दिन बाद दो विषयों पर बोलने के लिए वक्ता भेजेंगे – अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति और वालंटीयर मुर्गियों के प्रश्न पर.
शाम को भी अजीब-अजीब घटनाएँ होती रहीं. अगर सुबह बगीचे ख़ामोश हो गए थे, पूरी शिद्दत से यह साबित करते हुए कि पेड़ों के बीच की ख़ामोशी कैसी संदेहास्पद रूप से अप्रिय होती है; अगर दोपहर को सोव्खोज़ के कम्पाऊण्ड से चिड़ियों के झुण्ड कहीं उड़ गए थे; तो शाम को शेरेमेत्योव्का का तालाब भी ख़ामोश हो गया. ये वाक़ई में चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि चालीस मील के दायरे में स्थित बस्तियों में रहने वाले सभी को शेरेम्त्योव के मेंढ़कों की टर्राहट चिर-परिचित थी. मगर, अब मानो वे मर गए हों. तालाब से एक भी आवाज़ नहीं आ रही थी, और घास के पौधे भी गुमसुम खड़े थे. मानना पड़ेगा कि अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच पूरी तरह बेचैन हो गया था. इन घटनाओं के बारे में लोग अत्यंत अप्रिय तरीक़े से बहस करते रहे, करते रहे – मतलब अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की पीठ के पीछे.
 “वाक़ई में ये अचरज की बात है,” दोपहर के खाने पर अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने पत्नी से कहा, “मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इन पंछियों को उड़ कर जाने की ज़रूरत क्या थी?”
 “मुझे कैसे मालूम?” मान्या ने जवाब दिया. “हो सकता है, तुम्हारी किरण की वजह से?”
 “तू भी ना मान्या, बिल्कुल बेवकूफ़ है,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने चम्मच फेंकते हुए जवाब दिया, “तू – किसानों जैसे ही कह रही है. यहाँ किरण कहाँ से आ गई?”
 “मुझे नहीं मालूम. मुझे तो तुम बख़्श ही दो.”
शाम को तीसरी आश्चर्यजनक घटना हुई – कोन्त्सोव्का में फिर से कुत्ते रोने लगे, और वो भी कैसे! चाँद से प्रकाशित खेतों पर निरंतर कराहें गूंजती रही, दुष्ट दयनीय कराहें.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को एक आश्चर्य का झटका और लगा, मगर यह सुखद था, और वह भी ग्रीन-हाऊस में. चैम्बर्स में लाल अण्डों में लगातार खट्-खट् होने लगी. टोकी...टोकी...टोकी...टोकी – कभी एक अण्डे में, तो कभी दूसरे में और कभी तीसरे में खटखटाहट होती.
अण्डों में हो रही खटखट अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की जीत की दस्तक थी. बगीचे में और तालाब में हुई अजीब घटनाओं के बारे में सब भूल गए. सभी ग्रीन-हाऊस में इकट्ठे हो गए : मान्या, और दून्या, और गार्ड, और चौकीदार जिसने संगीन को दरवाज़े के पास छोड़ दिया था.
 “तो, फिर? क्या कहते हैं?” विजयी मुद्रा से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने पूछा. सभी उत्सुकता से पहले चैम्बर के दरवाज़े से कान लगाए खड़े थे.  “ये वे अपनी चोचों से खड़खड़ा रहे हैं – चूज़े,” दमकते हुए अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच कहता रहा. “नहीं निकाल पाऊँगा चूज़े, कहेंगे? नहीं, मेरे प्यारों,” और असीम भावावेग में उसने चौकीदार की पीठ थपथपाई. “ऐसे चूज़े निकालूँगा, कि आप लोग आहें भरने लगेंगे. अब मुझे बहुत सावधान रहना होगा,” उसने कड़ाई से कहा, “जैसे ही बाहर निकलने लगें, फ़ौरन मुझे ख़बर करो.”
 “ठीक है,” एक कोरस में गार्ड ने, दून्या ने और चौकीदार ने जवाब दिया.
 ‘टकी...टकी...टकी...’ पहले चैम्बर के कभी एक, तो कभी दूसरे अण्डे में खड़खड़ाहट हो रही थी. वाक़ई, आँखों के सामने पतली खोल से जन्म लेते हुए नए जीवन की तस्वीर इतनी आकर्षक थी कि सारे लोग काफ़ी देर तक उलटे रखे खाली डिब्बों पर बैठे रहे, ये देखते हुए कि उस झिलमिलाते रहस्यमय प्रकाश में लाल अण्डे कैसे पक रहे हैं. देर रात गए सब लोग सोने चले गए, जब सोव्खोज़ और आसपास की बस्तियों पर हरी रात बिखर चुकी थी.  वह रहस्यमय थी, और, कह सकते हैं, कि भयानक भी, शायद इसलिए कि उसकी निपट ख़ामोशी को बीच-बीच में शुरू हो जाता कोन्त्सोव्का के कुत्तों का अकारण, दयनीय और टीस भरा रुदन भंग कर रहा था. ये नासपीटे कुत्ते क्यों पागल हो रहे थे – बिल्कुल पता नहीं.
सुबह-सुबह एक अप्रियता अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के सामने मुँह बाँए खड़ी थी. चौकीदार बेहद परेशान था, दिल पर हाथ रखकर क़सम खा रहा था, ख़ुदा का वास्ता दे रहा था कि वह सोया नहीं था, मगर उसने कुछ नहीं देखा.
 “समझ में न आने वाली बात है,” चौकीदार यक़ीन दिला रहा था, “मेरा इसमें कोई क़ुसूर नहीं है, कॉम्रेड रोक्क.”
 “धन्यवाद और तहे दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उस पर बरसते हुए कहा, “आप सोचते क्या हैं, कॉम्रेड? आपको यहाँ किसलिए रखा गया था? निगरानी रखने के लिए. तो, आप मुझे बताएँगे कि वे कहाँ गुम हो गए? आख़िर बाहर तो निकले थे न वो? मतलब, चुरा लिया. मतलब, हमने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया और ख़ुद घर चले गए. मुझे अभ्भी चूज़े चाहिए!”
 “मैं कहीं नहीं गया. मैं, क्या, अपना काम नहीं जानता,” आख़िर फ़ौजी को गुस्सा आ ही गया, “आप बेकार में मुझे क्यों डाँट रहे हैं, कॉम्रेड रोक्क?”
 “फिर वो गए कहाँ?”
 “मुझे कैसे मालूम,” फ़ौजी भी आख़िरकार तैश में आ गया, “मैं क्या उन पर पहरा दूँ? मुझे यहाँ क्यों रखा गया है? ये देखने के लिए कि कोई चैम्बर्स को उठाकर न ले जाए, अपनी ड्यूटी मैं कर रहा हूँ. ये रहे आपके चैम्बर्स. और आपके चूज़ों को पकड़ना क़ानूनन मेरा काम नहीं है. किसे मालूम कि आपके चूज़े कैसे निकलते हैं, हो सकता है, कि उन्हें साईकल पे भी पकड़ना मुश्किल हो!”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच थोड़ा स्तब्ध रह गया, वह कुछ और बुदबुदाया और आश्चर्य की स्थिति में आ गया. बात थी ही विचित्र. पहले चैम्बर में, जिसमें सबसे पहले उपकरण फिट किए गए थे, दो अण्डे, जो किरण के उद्गम के पास रखे थे, टूटे हुए पाए गए. और उनमें से एक तो एक किनारे को लुढ़क गया था. छिलका एस्बेस्टोस के फर्श पर पड़ा था.
 “शैतान ही जाने,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच बड़बड़ाया, “खिड़कियाँ बन्द हैं, वे छत से तो उड़ नहीं गये हैं!”
उसने सिर को झटका दिया और उस ओर देखा जहाँ छत पर लगे काँच में कुछ चौड़े-चौड़े छेद थे.
 “क्या, आप भी, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,” बड़े अचरज से दून्या ने कहा, “आपके चूज़े तो उड़ने भी लगे. वे यहीं कहीं हैं...त्सिप्...त्सिप्...” वह चिल्लाने लगी और ग्रीन हाऊस के कोनों में देखने लगी, जहाँ धूल भरे फ्लॉवर-पॉट्स, कुछ लकड़ी के बोर्ड और पुराना रद्दी सामान पड़ा था. मगर किसी भी चूज़े ने प्रत्युत्तर नहीं दिया.
इन फुर्तीले चूज़ों की खोज में कर्मचारियों की पूरी टीम क़रीब दो घंटे सोव्खोज़ के कम्पाउण्ड में भागती रही, और कहीं भी कुछ नहीं मिला. दिन बड़ी उत्तेजना में बीता. चैम्बर्स की सुरक्षा बढ़ा दी गई, अब चौकीदार भी साथ में पहरा दे रहा था, और उन्हें कड़ी हिदायत दी गई थी: हर पन्द्रह मिनट बाद चैम्बर्स की खिड़कियों में झाँका जाए और, कोई बात हो, तो फ़ौरन अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को बुलाया जाए. गार्ड घुटनों के बीच संगीन दबाए, मुँह चढ़ाकर, दरवाज़े के पास बैठा था. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच पूरी तरह व्यस्त था और तब कहीं जाकर दो बजे वह खाना खाने बैठा. खाने के बाद ठण्डी छाँव में शेरेमेत्योवों की भूतपूर्व गद्देदार लम्बी चौकी पर वह क़रीब घंटा भर सोया, फिर सोव्खोज़ में बनाया गया क्वास पीकर ग्रीन हाऊस गया और उसने इत्मीनान कर लिया कि अब वहाँ सब कुछ बिल्कुल ठीक ठाक है. बूढ़ा गार्ड फूस की चटाई पर पेट के बल लेटकर आँखें मिचकाते हुए पहले चैम्बर के निरीक्षण काँच से भीतर देख रहा था. गार्ड दरवाज़े से बिना हटे नज़र रख रहा था.
मगर कुछ तो हो रहा था : तीसरे चैम्बर के अण्डे, जिन्हें सबसे बाद में रखा गया था, जैसे सिसकारियों ले रहे थे, फुफकार रहे थे, मानो उनके भीतर कोई सिसकियाँ ले रहा हो.
“ऊह, चूज़े निकलने वाले हैं,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने कहा, “अब देख रहा हूँ कि वे तैयार हो रहे हैं. देखा?” वह गार्ड से मुख़ातिब हुआ...
“हाँ, बड़ा लाजवाब काम है,” उसने सिर हिलाते हुए और पूरी तरह दुहरा अर्थ दर्शाते लहज़े में कहा.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच थोड़ी देर चैम्बर्स के पास बैठा रहा, मगर उसके सामने अण्डे से कोई भी बाहर नहीं निकला. वह उठ गया, थोड़ा अलसाते हुए बोला कि वह सोव्खोज़ से दूर नहीं जा रहा है, सिर्फ तालाब तक तैरने के लिए जाएगा और ज़रूरत पड़ने पर उसे फ़ौरन बुलाया जाए. वह महल के भीतर अपने शयन कक्ष में भागा, जहाँ दो संकरे लोहे के पलंग पड़े थे, जिन पर मुड़ी-तुड़ी चादरें थीं, और कोने में हरे सेबों का ढेर लगा था और था बाजरे का छोटा सा पहाड़, नवजात चूज़ों को खिलाने के लिए, उसने रोंएदार तौलिया उठाया, और कुछ सोचकर, अपने साथ बन्सी भी ले ली, जिससे ख़ामोश पानी पर फुर्सत से बजा सके. वह फुर्ती से महल से बाहर भागा, सोव्खोज़ का आँगन पार किया, और विलो वृक्षों के गलियारे से होते हुए तालाब की ओर चल पड़ा. रोक्क तेज़-तेज़ चल रहा था, तौलिए को हिलाते हुए, बगल में बन्सी दबाए. विलो वृक्षों से छनकर आसमान ऊमस फैला रहा था, जिस्म टूट रहा था और पानी मांग रहा था. रोक्क के दाएँ हाथ पर चौड़ी-चौड़ी पत्तियों वाली घनी झाड़ियाँ थीं, जिनमें उसने, जाते-जाते, थूका. फ़ौरन चौड़े पंजों की उलझी हुई गहराई में कुछ सरसराहट हुई, जैसे कोई लकड़ी के लट्ठे को खींच रहा हो. पल भर को लगा जैसे अचानक दिल डूब रहा है, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने झाड़ियों की ओर सिर घुमाया और अचरज से देखा. तालाब से पिछले दो दिनों से किसी तरह की आवाज़ें नहीं आ रही थीं. सरसराहट रुक गई, झाड़ियों के ऊपर से तालाब के जल की चिकनी सतह और कपड़े बदलने वाली झोंपड़ी की भूरी छत आकर्षित करते हुए कौंध गई. कुछ जंगली मक्खियाँ अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के सामने चक्कर लगा रही थीं. वह लकड़ी के छोटे-से पुल की तरफ़ मुड़ने ही वाला था कि झाड़ियों में दुबारा सरसराहट सुनाई दी और इस बार उसके साथ छोटी सी फुफकार भी थी, जैसे इंजिन से तेल और भाप निकल रही हो. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच सतर्क हो गया और जंगली झाड़ियों की घनी दीवार की ओर देखने लगा.
 “अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,” इसी समय रोक्क की पत्नी की आवाज़ गूंजी, और रास्पबेरी की झाड़ियों में उसका सफ़ेद ब्लाउज़ कभी झलक जाता, कभी छुप जाता. “रुको, मैं भी तैरने के लिए जाऊँगी.”
पत्नी तेज़ी से तालाब की ओर आ रही थी, मगर अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, जैसे झाड़ियों से चिपक गया था. भूरा-ज़ैतूनी लट्ठा उसकी आँखों के सामने उस घने झुरमुट से ऊपर उठने लगा और देखते-देखते बढ़ने लगा. कुछ गीले, पीले-पीले धब्बे, जैसा कि अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को प्रतीत हुआ, उस लट्ठे पर बिखरे थे. वह तनकर सीधा होने लगा, लचकते हुए और डोलते हुए, और इतनी ऊँचाई तक तन गया कि एक छोटे विलो-वृक्ष से ऊँचा हो गया.  फिर लट्ठे का शीर्ष टूट गया, थोड़ा झुका और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के ऊपर मॉस्को के बिजली के खम्भे जैसी कोई चीज़ आ गई. मगर, ये ‘कोई चीज़’ बिजली के खम्भे से तीन गुना मोटी थी और उसके मुक़ाबले काफ़ी ख़ूबसूरत भी थी, छिलकों जैसे गोदने की वजह से. अभी तक कुछ भी न समझ पाते हुए, मगर ठण्ड़े पड़ते हुए, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उस भयानक खम्भे के शिखर की ओर देखा, और कुछ पलों के लिए उसके दिल की धड़कन रुक गई. उसे ऐसा लगा कि अगस्त के गर्म दिन में अचानक बर्फ़बारी हो गई हो, और आँखों के आगे ऐसा अँधेरा छा गया, मानो वह गर्मियों वाली पतलून से होकर सूरज को देख रहा हो.
लट्ठे के ऊपरी सिरे पर सिर था. वो चपटा था, ज़ैतूनी पार्श्वभूमि पर एक गोल पीले धब्बे की सजावट ने उसे नुकीला बना दिया था. सिर की छत पर पलक-रहित, खुली, सर्द और मिचमिची आँखें बैठी थीं, और इन आँखों में ऐसी दुष्टता थी, जैसी अब तक कभी देखी नहीं थी. सिर इस तरह घूम रहा था, मानो हवा को काट रहा हो, पूरा खम्भा झाड़ियों में वापस चला गया, बस सिर्फ आँखें रह गईं जो बिना झपके अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की ओर देख रही थीं. वो, चिपचिपे पसीने से लथपथ, एकदम अविश्वसनीय और पागलपन की हद तक ले जाने वाले भय के कारण उत्पन्न बस चार शब्द बोल पाया. ऐसी बढ़िया थी पत्तों के बीच से झाँकती ये आँखें.
 “ये क्या मज़ाक है...”
उसे याद आया कि फ़कीर...हाँ...हाँ...इण्डिया...बुनी हुई टोकरी और तस्वीर...सम्मोहित करते हैं.
सिर फिर से उठा और अब उसका धड़ भी बाहर आने लगा. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच बन्सी को अपने होठों पर ले गया, भर्राहट से फूँक मारी और बजाने लगा, हर पल गहरी साँस लेते हुए वह ‘येव्गेनी ओनेगिन’ से वाल्ट्ज़ बजाने लगा. इस ऑपेरा के प्रति असीम नफ़रत से हरियाली वाली आँखें फ़ौरन जलने लगीं.
 “तुम क्या, पगला गए हो, ऐसी गर्मी में बजाने के लिए?” मान्या की प्रसन्न आवाज़ सुनाई दी, और आँखों के कोने से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने सफ़ेद धब्बा देखा.
इसके बाद खून जमा देने वाली एक चीख़ पूरे सोव्ख़ोज़ को चीरती चली गई, वह ऊँची हो गई और फैल गई, और वाल्ट्ज़ ऐसे उछला जैसे टूटे पैर से उछल रहा हो. हरियाली से सिर बाहर झपटा, उसकी आँखों ने अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की आत्मा को अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए छोड़ दिया. क़रीब पन्द्रह हाथ लम्बा और एक आदमी जितना चौड़ा साँप किसी स्प्रिंग की तरह उछल कर झाड़ियों से बाहर आया. रास्ते से धूल का बादल उछला, और वाल्ट्ज़ बन्द हो गया. साँप सोव्खोज़ के डाइरेक्टर के सामने से होकर तेज़ी से उस तरफ़ लपका, जहाँ रास्ते पर सफ़ेद ब्लाउज़ था. रोक्क ने साफ़-साफ़ देखा: मान्या पीली-सफ़ेद हो गई और उसके लम्बे बाल, तारों जैसे सिर के ऊपर आधा हाथ उठ गए. साँप ने रोक्क की आँखों के सामने, एक पल को अपना जबड़ा खोलकर, जिससे फोर्क जैसी कोई चीज़ बाहर लपलपाई, दाँतों से धूल में गड़ी जा रही मान्या को कन्धे से उठा लिया, और झटके से ज़मीन से एक हाथ ऊपर उठा दिया. तब मान्या ने मृत्युपूर्व की कर्कश चीख़ दुहराई. साँप ने पाँच हाथ ऊँची कुंडली बना ली, उसकी पूँछ टॉर्नेडो बना रही थी, और वह मान्या को दबाने लगा. उसके मुँह से फिर कोई आवाज़ नहीं निकली, और सिर्फ रोक्क ने उसकी हड्डियाँ टूटने की आवाज़ सुनी. ज़मीन से काफ़ी ऊपर साँप के गाल पर प्यार से चिपका हुआ मान्या का सिर हिल रहा था. मान्या के मुँह से ख़ून का फ़व्वारा निकला, टूटा हुआ हाथ उछला, और नाखूनों के नीचे से ख़ून के फ़व्वारे निकलने लगे. इसके बाद साँप ने अपना जबड़ा खोला, और एकदम मान्या के सिर पर अपना सिर पहना दिया और उस पर ऐसे चढ़ने लगा जैसे ऊँगली पर हाथमोज़ा चढ़ रहा हो. साँप से चारों ओर ऐसी गरम-गरम साँस निकल रही थी कि उसने रोक्क के चेहरे को भी छू लिया, और पूँछ ने उसे क़रीब-क़रीब रास्ते से दूर धूल में फेंक ही दिया. रोक्क के बाल वहीं पर सफ़ेद हो गए. जूतों जैसे काले उसके बालों का पहले दाँया और फिर बायाँ भाग चांदी से ढँक गया. मृत्यु जैसी उबकाई से वह आख़िरकार रास्ते से दूर हुआ और किसी भी ओर न देखते हुए, जंगली चीत्कार से आसपास के वातावरण को भरते हुए, तीर की तरह भागा.


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