अध्याय 5
मुर्गियों का किस्सा
कोस्त्रोम्स्काया प्रांत के स्तेक्लोव्स्क
कस्बे के छोटे से कस्बाई शहर, भूतपूर्व त्रोइत्स्क और आज के स्तेक्लोव्स्क में,
भूतपूर्व सोबोर्नाया, और वर्तमान में कार्लारादेकोव्स्काया स्ट्रीट के छोटे से घर
की ड्योढ़ी में भूरे रंग की फूल फूल वाली ड्रेस पहने, सिर पर रूमाल बांधे एक औरत
निकली और बिसूरने लगी. ये औरत, भूतपूर्व चर्च के भूतपूर्व प्रीस्ट द्रोज़्दोव की
विधवा, इतने ज़ोर से गला फाड़ कर रोने लगी कि सड़क के उस पार वाले घर की खिड़की से
रोएँदार रूमाल में एक औरत का सिर बाहर निकला और चहका:
“क्या बात है स्तेपानोव्ना, क्या फिर से?”
“सत्रहवीं!” हिचकियाँ ले लेकर भूतपूर्व
द्रोज़्दोवा ने जवाब दिया.
“आह-हा-आह- आह,” रिरियाते हुए रूमाल वाली औरत ने
सिर हिलाया, “ ये आख़िर क्या बात है? ख़ुदा नाराज़ हो गया है, सच कहती हूँ! क्या मर
गई?”
“हाँ, तू देख, देख, मात्र्योना,” ज़ोर ज़ोर से और
मुश्किल से सिसकियाँ लेते हुए प्रीस्ट की विधवा बुदबुदाई. “तू देख, इसे क्या हुआ
है!”
भूरे रंग का ख़स्ताहाल फाटक बजा, औरत के
नंगे पैर धूल भरी सड़क पर छप-छप करते हुए आए और आँसुओं से भीगी प्रीस्ट की विधवा
मात्र्योना को अपने मुर्गियों के दड़बे में ले गई.
ये बताना होगा कि फ़ादर सव्वाती द्रोज़्दोव
की विधवा ने, जो सन् ’26 में धर्मविरोधी आन्दोलन के कारण मर गया था, हिम्मत नहीं
हारी और ये बेहतरीन मुर्गीपालन का काम शुरू कर दिया. जैसे ही विधवा का काम तरक्की
करने लगा, उस पर इतने टैक्स लगाए गए कि मुर्गीपालन क़रीब-क़रीब बन्द ही हो गया होता,
अगर कुछ भले आदमियों ने सहायता न की होती. उन्होंने विधवा को सलाह दी, स्थानीय अधिकारियों
को एक दरख़्वास्त देने की, कि वो, विधवा, मुर्गीपालन श्रमिक को-ऑपरेटिव शुरू
कर रही है. को-ऑपरेटिव में शामिल हुई – स्वयँ द्रोज़्दोवा, उसकी विश्वासपात्र
नौकरानी मात्र्योश्का, और विधवा की बहरी भांजी. विधवा का टैक्स माफ़ कर दिया गया,
और उसका मुर्गीपालन इस क़दर बढ़ गया कि सन् ’28 आते-आते मुर्गियों के दड़बों से अटे
उस धूल भरे आँगन में लगभग 250 मुर्गियाँ दौड़ती थीं, जिनमें कुछ कोख़िनखिन भी थीं.
विधवा के अंडे हर इतवार को स्तेक्लोव्स्क के बाज़ार में पहुँचते, विधवा के अंडों का
ताम्बोव में व्यापार होता था, और ऐसा भी होता कि वे उस दुकान की कांच की शो-केसेस
में भी देखे जाते थे जिसे पहले ‘मॉस्को स्थित चिच्कोव का मक्खन और चीज़’ के नाम से
जाना जाता था.
और अब ये – सुबह से सत्रहवीं
ब्रह्मपुत्रा, प्यारी कलगी वाली , आँगन में घूम रही थी, और उसे उलटियाँ होने लगीं. “एर्...र् र्...उ र्
ल् ... उ र् ल्...ग़ो-ग़ो-ग़ो,” कलगीवाली
उलटियाँ किए जा रही थी, और उसने अपनी उदास आँखें सूरज पर इस तरह टिका दीं, मानो
उसे आख़िरी बार देख रही हो. मुर्गी की नाक के सामने हाथों में पानी का कप पकड़े
को-ऑपरेटिव की मेम्बर मात्र्योश्का उकडूँ बैठे नाच रही थी.
“कलगी वाली, प्यारी-प्यारी...त्सीप्-त्सीप्-
त्सीप्... पानी पी ले,” मात्र्योश्का उसे मना रही थी और कलगीवाली की चोंच के
पीछे-पीछे कप घुमाती जा रही थी, मगर कलगीवाली का पीने का मन ही नहीं हो रहा था.
उसने चोंच चौड़ी खोली, सिर को ऊपर की ओर उठाया. इसके बाद वह खून उगलने लगी.
“लॉर्ड जीज़स! ” अपने कूल्हों पर हाथ मारते हुए
मेहमान चीख़ी, “ये क्या हो रहा है? बस खून के थक्के! अपनी ज़िन्दगी में मैंने किसी
मुर्गी को इंसान की तरह ऐसे तड़पते हुए नहीं देखा.”
ये आख़िरी शब्द थे जो अंतिम यात्रा पर
निकली ग़रीब मुर्गी के लिए कहे गए थे. वह अचानक एक ओर को पलटी, असहायता से धूल में
चोंच मारी और आँखें घुमा दीं. फिर वह पीठ के बल मुड़ी, दोनों टाँगें ऊपर उठा दीं और
निश्चल पड़ी रही. मात्र्योश्का पानी छलकाते हुए दहाड़ मार कर रो पड़ी, और प्रीस्ट की
विधवा – कोऑपरेटिव की प्रेसिडेंट भी रो पड़ी, और मेहमान झुककर उसके कानों में
फुसफुसाई:
“स्तेपानोव्ना, मैं मिट्टी खाऊँ, अगर ये गलत
निकले कि तेरी मुर्गियों पर किसी ने टोना कर दिया है. ऐसा कहीं देखा है! मुर्गियों
की तो ऐसी कोई बीमारी है ही नहीं! तेरी मुर्गियों पर किसी ने जादू-टोना कर दिया
है.”
“मेरी जान के दुश्मन!” आसमान की ओर देखते हुए
प्रीस्ट की विधवा चहकी, “ वे क्या मुझे दुनिया से मिटा देना चाहते हैं?”
उसकी बात का जवाब दिया मुर्गे की ज़ोरदार
चीख़ ने, और इसके बाद मुर्गियों के दड़बे से तिरछे-तिरछे , शराबख़ाने से किसी पियक्कड़
की तरह निकला नुचे हुए पंखों वाला मरियल मुर्गा. उसने किसी जानवर की तरह उन पर
भयानक नज़र डाली, वहीं लड़खड़ाया, बाज़ की तरह पंख फैलाए, मगर उड़ा कहीं भी नहीं, बल्कि
आंगन में ही दौड़ लगाने लगा, गोल चक्कर में, जैसे रस्सी से बंधा कोई घोड़ा लगाता है.
तीसरे चक्कर पे वह रुक गया, और उसे उल्टी हो गई, फिर वह खाँसने लगा, गला साफ़ करने
लगा, भर्राने लगा, अपने चारों ओर खून के धब्बे थूकने लगा, उलटा हो गया और उसके
पंजे मस्तूलों की तरह सूरज की ओर उठ गए. औरतों का विलाप आंगन में छा गया. और
मुर्गियों के दड़बे से इसके जवाब में सुनाई दी बेचैन कट्कट् , पंखों की फ़ड़फ़ड़ाहट और हलचल.
“क्या कहा था मैंने, है न टोना?” विजयी मुद्रा
में मेहमान ने पूछा, “फ़ादर को बुलाओ, प्रेयर करके पवित्र जल छिड़क देगा.”
शाम को छह बजे, जब सूरज अपना आग जैसा लाल
मुख लिए, जवान सूरजमुखी के चेहरों के बीच नीचे-नीचे जा रहा था, मुर्गी-पालन वाले
आंगन में फादर सेर्गेइ, चर्च के चीफ़ प्रीस्ट ने प्रेयर पूरी की और अपना स्टोल
हटाया. लोगों के उत्सुक चेहरे लकड़ी की बागड़ के ऊपर और उसकी झिरियों में झाँक रहे
थे. प्रीस्ट की शोकमग्न विधवा ने सलीब को चूमा और आँसुओं से भीगा फटा हुआ एक रूबल
का नोट फ़ादर सेर्गेइ को दिया, जिस पर उसने गहरी साँस लेते हुए कुछ इस तरह कहा कि
जैसे ख़ुदा हम पर नाराज़ हो गया है. फ़ादर सेर्गेइ के चेहरे के भाव कुछ इस तरह के थे,
मानो वह अच्छी तरह जानता है कि ख़ुदा किसलिए नाराज़ हो गया है, बस सिर्फ बताएगा
नहीं.
इसके बाद भीड़ बिखर गई, और चूँकि मुर्गियाँ
जल्दी सो जाती हैं, इसलिए किसी को पता नहीं चला कि प्रीस्ट की विधवा द्रोज़्दोवा के
पड़ोसी के मुर्गीख़ाने में एकदम तीन मुर्गियाँ और एक मुर्गे ने प्राण त्याग दिए.
उन्हें भी उसी तरह से उल्टियाँ हुईं, जैसे द्रोज़्दोवा की मुर्गियों को हुई थीं, बस
फ़र्क इतना था कि ये मौतें बन्द मुर्गीख़ाने में और ख़ामोशी से हुई. मुर्गा अपनी जगह
से औंधे मुँह गिरा, और उसी दशा में मर गया. जहाँ तक विधवा की मुर्गियों का सवाल
है, तो वे प्रार्थना के फ़ौरन बाद मर गईं, और शाम होते होते मुर्गियों के दड़बे में
मौत का सन्नाटा फैल गया, मरे हुए पक्षियों ढेर लग गए.
सुबह शहर ऐसे जागा मानो उस पर बिजली गिर
गई हो, क्योंकि इस घटना ने अजीब, रौद्र रूप धारण कर लिया था. कार्लारादेकोव्स्काया
स्ट्रीट पर दोपहर तक सिर्फ़ तीन ज़िन्दा मुर्गियाँ बची थीं, सबसे कोने वाले घर में,
जिसे प्रदेश के टैक्स- इन्स्पेक्टर ने किराए पर लिया था, मगर वे भी एक बजते-बजते
मर गईं. और शाम तक तो कस्बाई शहर स्तेक्लोव्स्क मधुमक्खियों के छत्ते के समान
भिनभिनाने लगा, और उस पर दौड़ने लगा भयानक शब्द
‘ प्लेग’. स्थानीय अख़बार ‘लाल योद्धा’ में छपे लेख , ‘कहीं ये मुर्गियों का
प्लेग तो नहीं?’ नामक लेख में द्रोज़्दोवा का नाम छपा और वहाँ से मॉस्को पहुँचा.
*
* *
प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव की ज़िंदगी बड़ी अजीब,
बदहवास और परेशान हो चली थी. संक्षेप में, ऐसी परिस्थितियों में काम करना बेहद
मुश्किल हो चला था. जब उसने अल्फ्रेड ब्रोन्स्की से पीछा छुड़ाया था, उसके दूसरे
दिन उसे इन्स्टिट्यूट में अपने कैबिन का फ़ोन रिसीवर हटा कर बन्द कर देना पड़ा, और
शाम को जब वह ट्राम से ओखोत्नी लाइन्स से गुज़र रहा था तो प्रोफेसर ने स्वयम् को एक
विशाल भवन की छत पर देखा जिस पर काले अक्षरों में लिखा था - ‘वर्कर्स न्यूज़पेपर’.
वह, याने प्रोफेसर पेर्सिकोव बिफ़रते हुए, कटुता से, आँखें मिचकाते हुए टैक्सी में
बैठ रहा था, और उसके पीछे-पीछे, उसकी आस्तीन पकड़े कम्बल जैसे सूट में नकली,
यांत्रिक पैर वाला मोटा घुसा. छत पर प्रोफेसर, सफ़ेद परदे पर, हथेलियाँ चेहरे पर
रखे बैंगनी रंग की रोशनी से अपने आप को बचा रहा था. इसके साथ चमकदार इबारत दिखाई
दी: ‘टैक्सी में जाते हुए प्रोफेसर पेर्सिकोव हमारे जाने माने संवाददाता कैप्टेन
स्तेपानोव को समझा रहे हैं.’ और वाक़ई में : वोल्खोन्का स्ट्रीट पर स्थित चर्च के
सामने से गुज़रते हुए खटारा कार उछली, उसमें बैठा प्रोफेसर ऊपर-नीचे हिचकोले खा
रहा था, और उसकी हालत किसी मार खाए भेड़िए जैसी हो रही थी.
“ये इन्सान नहीं बल्कि शैतान हैं,” दाँतों के
बीच प्राणि-शास्त्रज्ञ बुदबुदाया और आगे बढ़ गया.
उसी शाम को प्रेचिस्तेन्को के अपने घर
लौटने पर प्राणि-शास्त्रज्ञ को केयर-टेकर मारिया स्तेपानोव्ना से टेलिफ़ोन नंबरों समेत 17 चिट्ठियाँ प्राप्त
हुईं, जिन्होंने प्रोफेसर की अनुपस्थिति में उसे फोन किये थे; और मारिया
स्तेपानोव्ना का अल्टिमेटम भी कि वह तंग आ चुकी है. प्रोफ़ेसर चिट्ठियाँ फाड़ देना
चाहते थे, मगर रुक गए, क्योंकि एक नम्बर के सामने कुछ इबारत लिखी थी: ‘पीपल्स
कमिश्नर – स्वास्थ्य विभाग’.
“क्या बात है?” सनकी वैज्ञानिक वाक़ई में हैरान
रह गया, “इनको क्या हुआ है?”
उसी शाम 10.15 बजे घण्टी बजी, और प्रोफेसर
को मजबूरन एक चमकते-दमकते नागरिक के साथ बात करनी ही पड़ी. प्रोफेसर को उसके
विज़िटिंग कार्ड की ख़ातिर ही उसे बुलाना पड़ा, जिस पर छपा था (बिना नाम और उपनाम के)
‘सोवियत संघ में विदेशी फर्मों के व्यापार-विभागों का आधिकारिक प्रमुख’.
“शैतान ले जाए,” हरे टेबल-क्लॉथ पर
मैग्निफ़ाइंग-ग्लास और कुछ डायग्राम्स फेंक कर पेर्सिकोव गुर्राया, और उसने मारिया स्तेपानोव्ना से कहा, “बुलाइए
उसे यहाँ, कैबिन में, इस आधिकारिक को या जो कोई भी है.”
“कहिए, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?”
पेर्सिकोव ने ऐसे लहजे में पूछा कि वह प्रमुख कुछ सिहर गया. पेर्सिकोव ने अपना
चश्मा नाक से हटाकर माथे पर चढ़ा लिया, और आगंतुक की ओर ध्यान से देखा. वो क्रीम और
बहुमूल्य पत्थरों से चमचमा रहा था, और दाईं आँख पर उसने एक काँच वाला चश्मा लगाया
था.
‘कैसा घिनौना चेहरा है,’ न जाने क्यों
पेर्सिकोव ने सोचा.
मेहमान ने बड़े दूर से बात शुरू की, पहले
उसने पेर्सिकोव से पूछा कि क्या वह सिगार पी सकता है, इस कारण बड़ी अनिच्छा से
पेर्सिकोव को उसे बैठने के लिए कहना पड़ा. फिर मेहमान इतनी देर से आने के लिए बड़ी
लम्बी-चौड़ी माफ़ी मांगने लगा: “ मगर...प्रोफेसर महाशय को दिन में पकड़...खी-खी...माफ़
कीजिए, पाना असंभव है.” (मेहमान, हँसते हुए, लकड़बग्घे के समान सिसकियाँ ले रहा
था.)
“हाँ, मैं बहुत व्यस्त हूँ!” पेर्सिकोव ने इतना
संक्षिप्त उत्तर दिया कि मेहमान दुबारा सिहर गया.
मगर फिर भी उसने मशहूर वैज्ञानिक को
परेशान करने की आज़ादी ले ही ली.
“समय – बहुत क़ीमती है, जैसा कि कहते
हैं...सिगार से प्रोफेसर को परेशानी तो नहीं ना हो रही है?”
“बुर्-बुर्-बुर्,”प्रोफेसर ने जवाब दिया. उसने
इजाज़त दे दी.
”प्रोफेसर ने जीवन की किरण की खोज की है?”
“माफ़ कीजिए, कैसे जीवन की?! ये बस अख़बार
वालों की कल्पना है!” पेर्सिकोव ज़िन्दादिली से बोला.
“आह, नहीं, खी-खी-खी...” – वह उस नम्रता से
अच्छी तरह वाक़िफ़ है जो सभी असली वैज्ञानिकों का गुण है...इसके बारे में क्या कहा
जाए...आज कितने सारे टेलिग्राम्स आए...दुनिया भर के शहरों में : वारसा में , और
रीगा में तो इस किरण के बारे में सब कुछ पता है. पूरी दुनिया बस प्रोफेसर
पेर्सिकोव का ही नाम लिए जा रही है...पूरी दुनिया साँस रोके प्रोफेसर पेर्सिकोव के
काम पर नज़र गड़ाए हुए है...मगर सबको अच्छी तरह मालूम है कि सोवियत रूस में
वैज्ञानिकों की हालत कितनी बुरी है. आपस की बात कहता हूँ...यहाँ कोई बाहर का आदमी
तो नहीं है?...अफ़सोस, यहाँ वैज्ञानिक कार्यों का उचित मूल्यांकन नहीं होता, इसलिए
वह प्रोफ़ेसर से कुछ बात करना चाहता है...एक विदेशी सरकार बिना किसी स्वार्थ के
प्रोफेसर पेर्सिकोव के प्रायोगिक कामों के लिए मदद करना चाहती है. जैसा कि पवित्र
ग्रंथ में कहा गया है, यहाँ अपने मोती क्यों बिखेरे जाएँ. सरकार को मालूम है कि
सन् ’19 और ’20 में , इस खी-खी...क्रांति के दौरान प्रोफ़ेसर को कितनी तकलीफ़ उठानी
पड़ी थी. बेशक, हर चीज़ पूरी तरह गुप्त रहेगी...प्रोफ़ेसर अपनी खोजों के परिणामों से
सरकार को अवगत कराएगा, और वो इसके लिए प्रोफ़ेसर की आर्थिक सहायता करेगी. आख़िर उसने
ये चैम्बर बनाया है, इस चैम्बर के डिज़ाइन को जानना दिलचस्प होगा...
यहाँ मेहमान ने अपने कोट की भीतरी जेब से
एकदम कोरे नोटों की गड्डी निकाली.
एक छोटा-सी रकम, 5000 रुबल्स, मिसाल के
तौर पर, एडवान्स, प्रोफ़ेसर को अभी, इसी पल दी जा सकती है...और किसी रसीद वगैरह की
भी ज़रूरत नहीं है...प्रोफ़ेसर अगर रसीद का ज़िक्र भी करेंगे तो वह इस
आधिकारिक-प्रमुख का अपमान होगा.
“गेट-आऊट!!!” अचानक प्रोफ़ेसर इतनी भयानक आवाज़
में चीख़ा कि ड्राइंग रूम में रखे पियानों की तार-सप्तक की पट्टियाँ थरथरा उठीं.
मेहमान ऐसे ग़ायब हुआ कि गुस्से से थरथराते
पेर्सिकोव को एक मिनट बाद यह शक होने लगा कि वह आया भी था कि या उसे भ्रम हुआ था.
“उसके गलोश?!” – एक मिनट बाद पेर्सिकोव
प्रवेश-कक्ष में चिंघाड़ा.
“वो भूल गए,” थरथराती हुई मारिया स्तेपानोव्ना
ने जवाब दिया.
”बाहर फेंक दो!”
“कहाँ फेंकूंगी. वो आएगा उन्हें लेने के लिए.”
”हाउसिंग कमिटी में दे दो. रसीद ले लेना.
जिससे कि इन गलोशों का नामो-निशान न रहे! कमिटी में! उन्हें ही रखने दो जासूस के
गलोश!...”
मारिया स्तेपानोव्ना ने सलीब का निशान
बनाते हुए भारी-भरकम, चमड़े के गलोश उठाए और उन्हें चोर-दरवाज़े से ले गई. वहाँ वह
कुछ देर दरवाज़े के पीछे खड़ी रही, और फिर गलोशों को गोदाम में छुपा दिया.
“दे दिए?”
“दे दिए.”
“रसीद मुझे दो.”
“
कैसे दूँ, व्लादीमिर इपातिच. प्रेसिडेंट तो अनपढ़ है!...”
“फ़ौरन! इसी पल. चाहिए. रसीद. उसके बदले किसी
पढ़े-लिखे सुअर के बच्चे को हस्ताक्षर करने दो!”
मारिया स्तेपानोव्ना ने केवल सिर हिलाया,
फिर वह चली गई और पन्द्रह मिनट बाद एक पुर्जे के साथ लौटी:
“’स्टॉक के लिए प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव की ओर से
प्राप्त हुई 1 (एक) जो. गलो. कोलेसोव’.
“और ये क्या है?”
“
बैगेज कूपन है.”
प्रोफ़ेसर ने कूपन को पैरों से कुचल दिया,
और रसीद ब्लॉटिंग पैड के नीचे छुपा दी. फिर न जाने किस ख़याल से उसके उभरे माथे पर
कालिमा छा गई. वह टेलिफ़ोन की ओर लपका, पन्क्रात को इन्स्टिट्यूट में फोन किया और
उससे पूछा: “सब कुछ ठीक-ठाक तो है?” पन्क्रात रिसीवर में कुछ बुदबुदाया, जिससे यह
समझ में आ रहा था, कि उसकी राय में, सब कुछ ठीक-ठाक है. मगर पेर्सिकोव का सुकून
सिर्फ एक ही मिनट रहा. नाक-भौंह चढ़ाए वह फिर टेलिफोन से चिपक गया और उसने चोंगे
में कहा:
“मुझे उसका, क्या कहते हैं, लुब्यान्का का,
नम्बर दीजिए. धन्यवाद...आपमें से किसे मैं ये बात बताऊँ...मेरे यहाँ कुछ सन्दिग्ध
व्यक्ति गलोशों में घूमते हैं, हाँ...प्रोफ़ेसर IV विश्वविद्यालय का, पेर्सिकोव...”
रिसीवर ने झटके से बातचीत बीच ही में तोड़
दी. दांत पीसकर गालियाँ देते हुए पेर्सिकोव टेलिफोन से दूर हटा.
“चाय पिएँगे, व्लादीमिर इपातिच?” कैबिनेट में
झाँक कर झिझकते हुए मारिया स्तेपानोव्ना ने पूछा.
“कोई चाय-वाय नहीं पिऊँगा...बुर्-बुर्-बुर्,
शैतान ले जाए उन सबको...वहशियत सवार थी उन पर .”
ठीक दस मिनट बाद प्रोफ़ेसर अपनी कैबिनेट
में नए मेहमानों का स्वागत कर रहा था. उनमें से एक, जो काफ़ी ख़ुशमिजाज़, गोल-मटोल और
बड़ा शरीफ़ था, साधारण-सा मिलिट्री-कोट और बिरजिस पहने था. उसकी
नाक पर काँच की तितली के समान नाक-पकड़ चश्मा विराजमान था. वह चमचमाते जूतों वाले
किसी फ़रिश्ते की याद दिला रहा था. दूसरा छोटे कद का, भयानक उदास, सिविलियन ड्रेस
में था, मगर सिविलियन ड्रेस उस पर काफ़ी तंग प्रतीत हो रही थी. तीसरा मेहमान कुछ
अजीब ही तरह से पेश आ रहा था, उसने प्रोफ़ेसर की कैबिनेट में प्रवेश नहीं किया,
बल्कि आधे-अंधेरे प्रवेश कक्ष में ही रहा. मगर तम्बाकू के धुँए से भरी, प्रकाशित
कैबिनेट उसे साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी. इस तीसरे वाले के चेहरे पर, जो सिविलियन ड्रेस
में ही था, धुंधले काँच वाला नाक-पकड़ चश्मा विराजमान था.
कैबिनेट वाले दोनों ने प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव
को बुरी तरह परेशान कर दिया : उन्होंने अच्छी तरह विज़िटिंग-कार्ड देखा, पाँच हज़ार
के बारे में कई सवाल पूछे और मेहमान के नाक-नक्श के बारे में बताने पर मजबूर किया.
“
शैतान ही जाने,” पेर्सिकोव बुदबुदाया, “बड़ी घिनौनी शक्ल थी. चरित्रहीन.”
“कहीं उसकी एक आँख काँच की तो नहीं थी?” छोटे कद
वाले ने भर्राई आवाज़ में पूछा.
“शैतान ही जाने. नहीं, इत्तेफ़ाक से, काँच की
नहीं थी, आँखें लगातार घूम रही थीं.”
“रूबिन्स्टैन?” फ़रिश्ते ने सिविलियन ड्रेस वाले
से धीमी आवाज़ में सवाल किया. मगर उसने त्योरी चढ़ाते हुए इनकार में सिर हिला दिया.
“रुबिन्स्टैन बिना रसीद के नहीं देगा, किसी हालत
में नहीं,” वह बुदबुदाया, “ये रुबिन्स्टैन का काम नहीं है. यहाँ कोई बड़ी हस्ती
शामिल है.”
गलोशों के बारे में मेहमानों ने बड़ी
दिलचस्पी से सुना. फ़रिश्ते ने हाऊसिंग सोसाइटी के टेलिफोन पर केवल कुछ शब्द कहे :
“गेपेऊ (शासकीय
सुरक्षा एजेंसी) हाऊसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी कोलेसोव को फ़ौरन गलोशों के साथ
प्रोफेसर पेर्सिकोव के फ्लैट में आने की आज्ञा देती है,”– और बदरंग कोलेसोव फ़ौरन
हाथों में गलोश पकड़े कैबिनेट में हाज़िर हो गया.
“वासेन्का!” फ़रिश्ते ने प्रवेश-कक्ष में बैठे
हुए व्यक्ति को हौले से पुकारा. वह बड़ी सुस्ती से उठा और पाँव घसीटते हुए कैबिनेट
में आया. धुँधले शीशों ने उसकी आँखों को पूरी तरह ढाँक दिया था.
“क्या?” उसने उनींदे सुर में संक्षिप्त सा
प्रश्न किया.
“गलोश.”
धुँधली
आँखें गलोशों पर फिसलने लगीं, और इस समय पेर्सिकोव को ऐसा प्रतीत हुआ कि शीशों के
नीचे, किनारे से, एक पल को चमकीं उनींदी नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चुभती हुई
आँखें. मगर वे फ़ौरन बुझ गईं.
“तो, वासेन्का?”
वह, जिसे वासेन्का के नाम से पुकार रहे थे,
अलसाए सुर में बोला:
“
तो, इसमें क्या ‘तो’ है. पेलेन्झ्कोव्स्की के गलोश हैं.”
फ़ौरन स्टॉक में से प्रोफेसर पेर्सिकोव की
भेंट छीन ली गई. गलोश अख़बारी कागज़ में गायब हो गए.
मिलिट्री कोट वाला फ़रिश्ता अति प्रसन्नता
से उठकर खड़ा हो गया और प्रोफेसर से हाथ मिलाने लगा, उसने एक छोटा सा भाषण भी दिया
जिसका सार ये था : ये काम प्रोफेसर को सम्मानित करता है... प्रोफ़ेसर इत्मीनान
रखें...आगे से उन्हें कोई परेशान नहीं करेगा, न तो इंस्टीट्यूट में और न ही घर पे.
..सही उपाय किए जाएँगे, उनके चैम्बर्स पूरी सुरक्षित रहेंगे...”
“और, क्या ऐसा हो सकता है कि रिपोर्टर्स को गोली
से उड़ा दिया जाए?” प्रोफेसर ने चश्मे के ऊपर से देखते हुए कहा.
इस सवाल ने तो मेहमानों को बहुत ज़्यादा
ख़ुश कर दिया. न केवल चढ़ी हुई नाक-भौंह वाला छोटा आदमी, बल्कि धुँधली आँखों वाला भी
बाहर प्रवेश-कक्ष में मुस्कुरा दिया. फ़रिश्ते ने ख़ुशी से दाँत दिखाते हुए
समझाया...कि अभी तो, हुम्...बेशक, ये बड़ा ही अच्छा होता...मगर, वो...देखिए...फिर
भी प्रेस...हाँलाकि सोवियत में ऐसे प्रस्ताव पर चर्चा ज़रूर हो रही है...अभिवादन
करता हूँ.
“मगर मेरे पास ये कौन बदमाश आया था?”
अब सबने मुस्कुराना बन्द कर दिया, और
फ़रिश्ते ने टालमटोल करते हुए जवाब दिया, कि वो तो बस, कोई छोटा-मोटा धोखेबाज़ था,
उसकी ओर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं है.....मगर, फिर भी वह नागरिक प्रोफ़ेसर से
विनती करता है कि वह आज शाम की घटना के बारे में किसी से कुछ न कहे, और मेहमान चले
गए.
पेर्सिकोव अपनी कैबिनेट में, डायग्राम्स
के पास लौटा, मगर कुछ भी काम नहीं हो सका. टेलिफोन से लाल-लाल रोशनी निकली और एक
महिला की आवाज़ ने प्रोफेसर के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह सात कमरों के फ्लैट
वाली एक दिलचस्प और उत्साही विधवा से शादी करना चाहता है... पेर्सिकोव चोंगे में
चिंघाड़ा:
“मैं आपको सलाह दूँगा कि प्रोफ़ेसर
रोस्सोलिमो...से अपना इलाज करवा लें...” और तभी दूसरी बार घंटी बजी.
इस बार प्रोफ़ेसर कुछ नरम पड़ गया, क्योंकि,
एक काफ़ी मशहूर हस्ती, क्रेमलिन से फोन कर रही थी. उसने पेर्सिकोव से बड़ी देर तक,
सहानुभूति से उसके काम के बारे में पूछा और उसकी लैबोरेटरी को देखने की इच्छा भी
प्रकट की. टेलिफोन से हट कर पेर्सिकोव ने अपना माथा पोंछा और रिसीवर निकाल कर रख
दिया. तब ऊपर वाले फ्लैट में भयानक तुरही की आवाज़ें गरजने लगीं और वाल्किरी की
चीख़ें गूँजने लगीं, - कपड़ा-मिल के डाइरेक्टर का रेडियो बोल्शोय थियेटर से वाग्नेर
की कॉन्सर्ट का प्रसारण कर रहा था. छत से आती इस चीख़-चिल्लाहट के बीच पेर्सिकोव ने
मारिया स्तेपानोव्ना से कह दिया कि वह इस डाइरेक्टर पर मुकदमा ठोंक देगा, उसका
रेडियो तोड़ देगा, मॉस्को से दूर शैतान की ख़ाला के पास चला जाएगा, क्योंकि, ज़ाहिर
है, कि उसे यहाँ से भगाने की कोशिश की जा रही है. उसने अपना मैग्निफ़ाइंग ग्लास तोड़
दिया और कैबिनेट में ही दीवान पर लेट गया और बोल्शोय थियेटर से आती सुप्रसिद्ध
पियानो वादक की नाज़ुक स्वर लहरियों के बीच सो गया.
आश्चर्यजनक घटनाएँ अगले दिन भी होती रहीं.
ट्राम से इन्स्टीट्यूट पहुँचने पर पेर्सिकोव ने पोर्च में हरी, फ़ैशनेबल हैट वाले
एक अपरिचित को देखा. उसने ग़ौर से पेर्सिकोव को देखा, मगर उससे कुछ भी नहीं पूछा,
इसलिए पेर्सिकोव ने उसे बर्दाश्त कर लिया. मगर इन्स्टीट्यूट के प्रवेश-कक्ष में
बदहवास पन्क्रात के अलावा पेर्सिकोव का स्वागत करने के लिए एक दूसरी हैट उठी और
गर्मजोशी से उसका स्वागत करने लगी:
“नमस्ते, नागरिक प्रोफ़ेसर.”
“आपको क्या चाहिए?” पन्क्रात की सहायता से अपना
ओवर-कोट उतारते हुए ख़ौफ़नाक ढंग से पेर्सिकोव ने पूछा, मगर हैट ने फ़ौरन पेर्सिकोव
को शांत कर दिया, बड़ी नज़ाकत से फुसफुसाते हुए कि प्रोफ़ेसर बेकार ही में परेशान हो
रहे हैं. वो, हैट, यहाँ इसलिए मौजूद है ताकि प्रोफ़ेसर को हर तरह के ज़िद्दी
मेहमानों से बचा सके...और प्रोफेसर न केवल अपनी कैबिनेट के दरवाज़े के, बल्कि खिड़की
के भी पीछे चैन से रह सके. इतना कहकर अपरिचित ने एक पल के लिए अपने कोट का पल्ला
हटाया और प्रोफ़ेसर को कोई बैज दिखाया.
“हुम्... इंतज़ाम तो आपने बढ़िया किया है,” पेर्सिकोव
बुदबुदाया और फिर भोलेपन से पूछने लगा : “और आप खायेंगे क्या?”
इस पर हैट हँस पड़ी और उसने समझाया कि उसके
बदले कोई और आ जाएगा.
इसके बाद तीन दिन बड़े सुकून से बीते. दो
बार क्रेमलिन से मेहमान आए, और हाँ, एक बार स्टूडेन्ट्स भी आए, जिनका पेर्सिकोव
इम्तेहान ले रहा था. सारे के सारे स्टूडेन्ट्स फ़ेल हो गए, और उनके चेहरों से साफ़
दिखाई दे रहा था कि अब पेर्सिकोव उनके भीतर एक अंधविश्वासी भय पैदा कर रहा है.
“जाओ, कंडक्टर बन जाओ! तुम प्राणि-शास्त्र नहीं
पढ़ सकते,” कैबिनेट से सुनाई दे रहा था.
“क्या बहुत सख़्त
है?” हैट ने पन्क्रात से पूछा.
“ऊ S S S, भगवान बचाए,” पन्क्रात ने जवाब दिया, “ अगर कोई आख़िर तक टिक भी जाता
है, तो वह कैबिनेट से बाहर आता है और लड़खड़ाने लगता है. सात मन वज़न कम हो जाता है
उसका. और फ़ौरन शराबख़ाने की ओर बढ़ जाता है.”
इस भागदौड़ में तीन
दिन कैसे बीत गए, प्रोफेसर को पता ही नहीं चला, मगर चौथा दिन उसे ज़िन्दगी की
वास्तविकता में वापस ले आया, और इसका कारण थी सड़क से आती पतली और तीखी आवाज़. “व्लादीमिर इपातिच!” कैबिनेट की गेर्त्सेन रोड
वाली खुली खिड़की से वह आवाज़ चीख़ी. आवाज़ क़ामयाब हो गई: पिछले कुछ दिनों में
पेर्सिकोव बेहद थक गया था. इस समय वह आराम कर रहा था, निढ़ाल होकर, सुस्ती से
आराम-कुर्सी में बैठा हुआ, लाल फ्रेम में क़ैद आँखों से यूँ ही देखते हुए कश लगा
रहा था. वह ज़्यादा देर तक ऐसा नहीं कर सका. और इसलिए कुछ उत्सुकता से उसने खिड़की
से बाहर झाँका और फुटपाथ पर अल्फ्रेड ब्रोन्स्की को देखा. नुकीली कैप और नोट-पैड
के कारण प्रोफेसर ने शानदार कार्ड के धारक को पहचान लिया.
ब्रोन्स्की बड़ी
नज़ाक़त से और आदर से खिड़की के सामने झुका.
“ओह, ये आप हैं?” प्रोफेसर ने पूछा. उसके पास
गुस्सा होने की ताक़त भी नहीं बची थी, और फिर उत्सुकता भी खाए जा रही थी कि आगे
क्या होगा? खिड़की के पीछे वह स्वयँ को अल्फ्रेड से सुरक्षित महसूस कर रहा था.
रास्ते पर मौजूद हैट ने फ़ौरन अपना कान ब्रोन्स्की की ओर मोड़ दिया. उसके चेहरे पर
अत्यधिक प्यारी मुस्कुराहट छा गई.
“बस, मिनट की एक जोड़ी, प्रिय प्रोफ़ेसर,” फुटपाथ
से अपनी आवाज़ पर ज़ोर देते हुए ब्रोन्स्की ने शुरूआत की, “बस एक छोटा सा सवाल, वो
भी प्राणी-शास्त्र से संबंधित. क्या पूछ सकता हूँ?”
“पूछिए,” संक्षेप में और व्यंग्य से पेर्सिकोव
ने कहा और सोचने लगा : ‘फिर भी, इस बदमाश में कुछ अमेरिकन जैसा तो है.’
“मुर्गियों के लिए आप क्या कहेंगे, प्रिय
प्रोफेसर?” होंठों पर दोनों हाथों का गोल बनाकर ब्रोन्स्की चिल्लाया.
पेर्सिकोव हैरान रह
गया. वह खिड़की की सिल पर बैठ गया, फिर नीचे उतरा, घंटी बजाई और खिड़की में उँगली से
इशारा करते हुए चीख़ा:
“पन्क्रात, इस फुटपाथ वाले को अन्दर आने दो.”
जब ब्रोन्स्की कैबिनेट में आया, तो पेर्सिकोव ने
बस इतनी ही मोहब्बत दिखाई कि गुर्राते हुए उससे कह दिया:
“बैठिए!”
और ब्रोन्स्की,
प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए, रिवॉल्विंग स्टूल पर बैठ गया.
“मुझे बताइए, प्लीज़,” पेर्सिकोव ने शुरूआत की,
“आप वहाँ लिखते हैं, अपने इन अख़बारों में?”
“सही फ़रमाया,” ब्रोन्स्की ने आदर से जवाब दिया.
“और मुझे ये समझ में नहीं आता कि आप लिख कैसे
सकते हैं, जबकि आपको रूसी बोलना भी नहीं आता है. ये ‘’मिनट की एक जोड़ी’ और
‘मुर्गियों के लिए’ क्या होता है? आप, शायद कहना चाहते थे, ‘मुर्गियों के बारे
में’?”
ब्रोन्स्की
सम्मानपूर्वक हल्के से मुस्कुराया:
“वालेन्तिन पेत्रोविच सुधार देते हैं.”
“ये कौन है – वालेन्तिन पेत्रोविच?”
“साहित्य-विभाग के प्रमुख.”
“अच्छा, ठीक है. मैं, वैसे भी, भाषाविद् नहीं
हूँ. आपके पेत्रोविच को बाज़ू में हटाते हैं. मुर्गियों के बारे में आप क्या जानना
चाहते हैं?”
“सब कुछ, जो आप बतायेंगे, प्रोफेसर.”
अब ब्रोन्स्की ने
हाथ में पेन्सिल पकड़ ली. पेर्सिकोव की आँखों में जीत की चमक दिखाई दी.
“आप बेकार ही मेरे पास आए हैं, मैं पंखों वाले
दोस्तों का विशेषज्ञ नहीं हूँ. आपको I युनिवर्सिटी के प्रोफेसर एमेल्यान इवानोविच पोर्तुगालोव के पास जाना
चाहिए था. व्यक्तिगत रूप से मैं बहुत कम जानता हूँ...
ब्रोन्स्की
नम्रतापूर्वक मुस्कुराया, यह दिखाते हुए कि वह प्रिय प्रोफेसर के मज़ाक को समझ गया
है. ‘मज़ाक – थोड़ा सा’ उसने नोट-पैड में
लिखा.
“मगर, यदि आपको दिलचस्पी है तो मुलाहिज़ा फ़रमाइए.
मुर्गियाँ या कलगी वाले ...मुर्गियों की किस्म के पक्षी होते हैं. कुक्कुट जाति
के....” पेर्सिकोव ने ऊँची आवाज़ में बोलना शुरू किया, उसकी नज़रें ब्रोन्स्की पर
नहीं बल्कि कहीं दूर टिकी हुई थीं, जहाँ उसके सामने हज़ारों व्यक्तियों का समूह तैर
रहा था...”कुक्कुट जाति के...फ़ज़ाइनस. ये ऐसे पक्षी होते हैं जिनकी कलगी मोटी चमड़ी
की होती है और निचले जबड़े के नीचे दो गलफ़ड़े होते हैं...ह्म्... हालाँकि कभी कभी एक
भी होता है, बीच में, चोंच के नीचे. ...तो, और क्या. पंख छोटे-छोटे और गोलाई लिए होते
हैं...पूँछ मध्यम लम्बाई की, कुछ-कुछ सीढ़ियों जैसी और, मैं कहूँगा, कि छत जैसी,
बीच के पंख हँसिये के आकार में मुड़े होते हैं... पन्क्रात, मॉडेल वाली कैबिनेट से
705 नं. का मॉडेल लाओ, पालतू मुर्गे का मॉडेल...मगर, शायद, आपको इसकी ज़रूरत नहीं
है?...पन्क्रात, मॉडेल मत लाओ...मैं फिर से दुहराता हूँ, मैं विशेषज्ञ नहीं हूँ,
पोर्तुगालोव के पास जाइए. ख़ैर, व्यक्तिगत तौर पर मुझे जंगली मुर्गों की छह किस्मों
के बारे में पता है..ह्म् पोर्तुगालोव को और भी ज़्यादा मालूम है...इंडिया में और
मलय द्वीपसमूह में...मिसाल के तौर पर, बान्किव मुर्गा या काज़िन्ता, वो हिमालय की
तराई वाले भाग में पाया जाता है, पूरे इंडिया में, आसाम में, बर्मा में, ... जावा
मुर्गे, या गालुस वारिउस, लोम्बोक में, सुम्बावा में और फ्लोरेस में. और जावा
द्वीप पर पाया जाता है शानदार मुर्गा गाल्युस एनेउस, इंडिया के दक्षिण-पश्चिम में
एक बेहद ख़ूबसूरत मुर्गा सोनेराटी पाया जाता हि...मैं बाद में आपको तस्वीरें
दिखाऊँगा. जहाँ तक सीलोन का सवाल है, तो वहाँ हमें स्टेन्ली मुर्गा दिखाई देता है,
वो और कहीं नहीं पाया जाता.
ब्रोन्स्की आँखें
फाड़े बैठा था और दनाद्न् नोट्स लिखे जा रहा था.
“कुछ और जानना चाहते हैं?”
“मैं मुर्गों की बीमारियों के बारे में कुछ
जानना चाहूँगा,” अल्फ्रेड हौले से फुसफुसाया.
“ह्म्, मैं
विशेषज्ञ नहीं हूँ...आप पोर्तुगालोव से पूछिए...मगर...ठीक है, टेप-वर्म्स, लीचेज़, खाज,
पक्षियों वाले बैक्टेरिया, मुर्गियों वाली जूं, पिस्सू, मुर्गियों का हैजा, लार-ग्रंथियों
की सूजन , निमोनिया...कई सारी हैं...(पेर्सिकोव की आँखों में चिनगारियाँ चमक रही थीं)...ज़हर
का असर, मिसाल के तौर पर, ट्यूमर्स, रिकेट्स, जॉंडिस, र्य़ूमेटिज़्म, अखोरियोन
शेंल्याइनी... बड़ी दिलचस्प बीमारी है. इसके कारण कलगी पर छोटे-छोटे धब्बे निकल आते
हैं...
ब्रोन्स्की ने
फूलदार रूमाल से माथे का पसीना पोंछा.
“और, आपकी राय में, प्रोफेसर, वर्तमान विपत्ति
का क्या कारण है?”
“कैसी विपत्ति?”
“क्या! क्या, आपने सचमुच में पढ़ा नहीं है,
प्रोफेसर?” ब्रोन्स्की को आश्चर्य हुआ और उसने अपनी बैग से ‘इज़्वेस्तिया’ अख़बार की
मुड़ी-तुड़ी प्रति निकाली.
“मैं अख़बार नहीं पढ़ता,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया
और भौंहे चढ़ा लीं.
“मगर क्यों, प्रोफेसर?” अल्फ्रेड ने नज़ाकत से
पूछा.
“क्योंकि वे हर तरह की बकवास लिखते हैं,” बिना
सोचे प्रोफेसर ने जवाब दिया.
“ये क्या बात हुई, प्रोफेसर?” ब्रोन्स्की हौले से
फुसफुसाया और उसने पन्ना खोल दिया.
“क्या बात है?” पेर्सिकोव ने पूछा और वह अपनी
कुर्सी से कुछ उठा. अब ब्रोन्स्की की आँखें चमक रही थीं. उसने अपनी नेल पॉलिश वाली
उँगली से पूरे पृष्ठ पर फैली, असाधारण रूप से बड़ी हेडलाइन को रेखांकित किया : ‘’रिपब्लिक
में मुर्गियों की प्लेग’.
“कैसे?” माथे पर चश्मा सरकाते हुए पेर्सिकोव ने
पूछा...