लोकप्रिय पोस्ट

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

The Fateful Eggs - 7

अध्याय 7
रोक्क
पता नहीं कि क्या वाक़ई में लेफ़ोर्तोव वेटेरिनरी इन्स्टीट्यूट के टीके बढ़िया थे, या समारा की क्वरन्टाइन टीमें कुशल थीं, या फिर कालुगा और वोरोनेझ में अंड़ों की जमाखोरी के विरुद्ध उठाए गए क़दम प्रभावशाली थे, या मॉस्को की आपात-कमिटी का काम सफ़ल एवम् सराहनीय था, मगर ये अच्छी तरह मालूम हो गया कि पेर्सिकोव की अल्फ्रेड के साथ हुई अंतिम मीटिंग के दो सप्ताह बाद रिपब्लिक में मुर्गियों के मामले की पूरी तरह सफ़ाई हो चुकी थी. कस्बाई शहरों के पिछवाड़े के आँगनों में मुर्गियों के अनाथ पंख बिखरे थे, जो आँखों में आँसू भर देते, और अस्पतालों में कुछ अंतिम खवैये डायरिया और खून की उल्टियों से निजात पा रहे थे. सौभाग्य से पूरे देश में मरने वालों की संख्या एक हज़ार से ज़्यादा नहीं थी. बड़े पैमाने पर गड़बडी भी नहीं हुई. हाँ, वोलोकोलाम्स्क में ज़रूर एक फ़कीर प्रकट हुआ था, जिसने यह घोषित कर दिया कि मुर्गियों के विनाश के पीछे कोई और नहीं , बल्कि  कमिसार ही ज़िम्मेदार हैं, मगर उसकी ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया. वोलोकोलाम्स्क के बाज़ार में कुछ पुलिस वालों की पिटाई हो गई जो औरतों के हाथों से मुर्गियाँ छीन रहे थे, और स्थानीय पोस्ट एवम् टेलिग्राफ़ ऑफ़िस की शाख़ा की खिड़कियों के शीशे तोड़ दिए. मगर, सौभाग्य से स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों ने फ़ौरन कुछ कदम उठाए जिनके फलस्वरूप सबसे पहले, फ़कीर कोई नामो-निशान छोड़े बगैर ग़ायब हो गया; और इसके बाद टेलिग्राफ़ ऑफ़िस के शीशे बिठा दिए गए.
उत्तर में अर्खांगेल्स्क और स्यूम्किन वीस्योलक पहुँचने के बाद प्लेग अपने आप ही इस वजह से रुक गया कि उसे आगे बढ़ने के लिए कोई जगह ही नहीं थी – श्वेत सागर में, जैसा कि सर्व विदित है मुर्गियाँ होती ही नहीं हैं. वो व्लादीवोस्तोक में भी रुक गया, क्योंकि आगे महासागर था. दूर दक्षिण में- ओर्दुबात, जुल्फी और कराबुलाक के तप्त भागों में नष्ट हो गया और शांत हो गया, और पश्चिम में आश्चर्यजनक तरीके से पोलैण्ड और रुमानिया की सीमा पर ही रुक गया. या तो वहाँ की आबोहवा अलग तरह की थी, या फिर पड़ोसी राज्यों द्वारा प्रयुक्त रोक-थाम के उपाय कारगर साबित हुए, मगर वास्तविकता ये थी कि प्लेग आगे नहीं बढ़ा. विदेशी अख़बार इस अप्रत्याशित बीमारी के बारे में ज़ोर-शोर से बहस कर रहे थे, मगर सोवियत गणराज्यों का शासन बिना कोई शोर मचाए निरंतर काम करता रहा. ‘मुर्गियों के प्लेग से संघर्ष’ के लिए बनी आपात-कमिटी का नाम बदलकर ‘गणराज्य में मुर्गीपालन के पुनर्जीवन एवम् संवर्धन’ से संबंधित आपात-कमिटी कर दिया गया, जिसके सोलह सदस्यों में एक नई, असाधारण त्रोइका का समावेश था. “दोब्रोकूर (वालंटियर-मुर्गियाँ)” की स्थापना की गई जिसके मानद डेप्युटी-चेयरमैन के रूप में पेर्सिकोव और पोर्तुगालोव को शामिल किया गया. अख़बारों में छपी उनकी तस्वीरों के नीचे शीर्षक प्रकट हुए: “विदेशों से थोक में अण्डे ख़रीदे जाएँगे”, और “ह्यूज़ महाशय अण्डों का प्रचार रोकने की कोशिश में”. पूरे मॉस्को में पत्रकार कोलेच्किन का ज़हरीला लेख लोकप्रिय हो रहा था, जो इन शब्दों से समाप्त होता था: “महाशय ह्यूज़, हमारे अण्डों को नज़र न लगाएँ, आपके पास अपने अण्डे हैं!”
पिछले तीन सप्ताहों में प्रोफेसर पेर्सिकोव पूरी तरह पस्त हो गया था और बुरी तरह थक गया था. मुर्गियों वाली घटनाओं ने उसे अपने मार्ग से पूरी तरह विचलित कर दिया था और उस पर दोहरा बोझ डाल दिया था. पूरी-पूरी शाम उसे मुर्गियों वाली कमिटी की सभाओं में भाग लेना पड़ता था और समय-समय पर अल्फ्रेड ब्रोन्स्की या यांत्रिक पैर वाले मोटे से लम्बी-लम्बी बहस करनी पड़ती थी. प्रोफेसर पोर्तुगालोव, प्राइवेट-रीडर इवानोव और बोर्नगार्त के साथ मिलकर प्लेग के बेसिलस की खोज में मुर्गियों की चीर-फाड़ करनी पड़ती थी, उन्हें माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर उनका अध्ययन करना पड़ता था;  और तीन शामों को बैठकर अति शीघ्रता से एक ब्रोश्युर भी लिखना पड़ा “प्लेग से प्रभावित मुर्गियों के यकृत में हुए परिवर्तनों के बारे में.”
मुर्गियों के क्षेत्र में पेर्सिकोव बगैर किसी विशेष उत्साह के काम कर रहा था, और यह बात समझ में भी आती थी – उसका पूरा दिमाग़ दूसरी – मुख्य और महत्वपूर्ण- समस्या में उलझा था, उसमें, जिससे उसे इस मुर्गियों वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने ज़बर्दस्ती खींच कर अलग कर दिया था, मतलब लाल किरण में. अपने पहले से ही ख़राब स्वास्थ्य को और अधिक ख़राब करते हुए, भोजन और नींद के समय से कुछ घंटे छीनकर, कभी-कभी प्रेचिस्तेन्को वापस लौटने के बदले इंस्टीट्यूट के मोमजामा चढ़े दीवान पर ही झपकी ले लेता - इस तरह पेर्सिकोव रातों में अपने चैम्बर्स और माइक्रोस्कोप के पास ही काम करता रहता..

जुलाई के अंत तक गड़बड़ कुछ शांत हो गई. नवगठित कमिटी के कार्य-कलाप भी साधारण गति से चलने लगे, और पेर्सिकोव अपने अधूरे काम की ओर लौटा. माइक्रोस्कोप्स के नीचे नए प्रिपैरेटिव रखे गए, चैम्बर में लाल किरण के नीचे जादुई शीघ्रता से मछलियों और मेंढकों के अंडसमूह बढ़ रहे थे. केनिग्सबेर्ग से हवाई जहाज़ में ख़ास तौर से ऑर्डर किए गए शीशे मंगवाए गए, और जुलाई के अंतिम दिनों में इवानोव की निगरानी में कारीगरों ने दो नए, बड़े चैम्बर्स को सुसज्जित कर दिया जिनमें किरण अपने उद्गम पर सिगरेट के पैकेट जितनी चौड़ी थी और दूसरे सिरे पर – पूरे एक मीटर. पेर्सिकोव ने प्रसन्नता से अपने हाथ मले और किन्हीं रहस्यमय एवम् क्लिष्ट प्रयोगों की तैयारी करने लगा. सबसे पहले उसने शिक्षा विभाग के कमिसार से बात की, और रिसीवर ने उसे अत्यंत प्रिय और हर तरह के आश्वासन का वादा किया. इसके बाद पेर्सिकोव ने सर्वोच्च कमिशन के पशुपालन विभाग के प्रमुख प्ताखा-पोरोस्यूक से बात की. प्ताखा ने बड़ी गर्मजोशी से पेर्सिकोव की बात सुनी. बात हो रही थी प्रोफेसर पेर्सिकोव के लिए विदेश से किसी बहुत बड़े ऑर्डर की. प्ताखा ने फोन पर कहा कि वह फ़ौरन बर्लिन और न्यूयॉर्क में तार भेज देगा. इसके पश्चात् क्रेमलिन द्वारा पूछा गया कि पेर्सिकोव का काम कैसे चल रहा है, और उस महत्वपूर्ण और मीठी आवाज़ ने पूछा कि पेर्सिकोव को कार की ज़रूरत तो नहीं है.
 “नहीं, धन्यवाद. मुझे ट्रामगाड़ी में जाना ज़्यादा अच्छा लगता है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया.
 “मगर क्यों?” उस रहस्यमय आवाज़ ने हल्के से मुस्कुराते हुए पूछा.
पेर्सिकोव के साथ अक्सर सब लोग या तो भय मिश्रित आदर से बात करते या फिर प्यार भरी मुस्कान के साथ जैसे किसी छोटे मगर अत्यन्त महत्वपूर्ण बच्चे से की जाती है.
 “उसकी रफ़्तार ज़्यादा तेज़ होती है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया, जिसके बाद टेलिफोन से आती खनखनाती, मोटी आवाज़ ने जवाब दिया:
 “ठीक है, जैसी आपकी मर्ज़ी.”
एक सप्ताह और बीत गया, जिसके दौरान मुर्गियों की अपेक्षाकृत शांत होती समस्याओं से स्वयम् को अधिकाधिक दूर रखते हुए पेर्सिकोव पूरी तरह से किरण के अध्ययन में जुट गया. अनिद्रा और अत्यधिक थकान के कारण उसका सिर मानो पारदर्शी और हल्का हो गया. अब उसकी आँखों के सामने से लाल छल्ले हटते ही नहीं थे, और लगभग हर रात पेर्सिकोव इंस्टिट्यूट में ही गुज़ारता था. एक बार उसने इस प्राणि-शास्त्रीय आश्रयस्थल को छोड़ा ज़रूर था, जिससे कि प्रेचिस्तेन्को पर स्थित त्सेकुबु (वैज्ञानिकों की जीवन शैली सुधारने संबंधी सेंट्रल कमिशन) के विशाल हॉल में अपनी किरण और अंडों के कोशाणुओं पर उसके प्रभाव के बारे में अपना शोध-पत्र पढ़ सके. ये सिरफिरे प्राणिशास्त्रज्ञ की महान जीत थी. स्तम्भों वाले हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट से छत से कुछ-कुछ बिखर रहा था, गिर रहा था, और सनसनाते आर्क लैम्प्स त्सेकुबिस्तों के काले जैकेट्स और महिलाओं की सफ़ेद पोषाकों पर रोशनी बिखेर रहे थे. स्टेज पर, भाषण-मंच के पास, काँच की कुर्सी पर भारी-भारी सांसें लेते हुए और भूरा पड़ते हुए एक प्लेट में बिल्ली के आकार का नम मेंढक विराजमान था. भाषण-मंच पर चिटें फेंकी गईं. उनमें सात प्रेम-पत्र थे, उन्हें पेर्सिकोव ने फाड़ कर फेंक दिया. त्सेकुबु का प्रमुख बड़ी कठिनाई से उसे घसीट कर मंच पर लाया ताकि वह लोगों का अभिवादन कर सके. पेर्सिकोव ने गुस्से से अभिवादन किया, उसके हाथ पसीने से तर-बतर थे और काली टाई ठोढ़ी के नीचे न होकर बाएँ कान के नीचे विराजमान थी. उसके सामने मानो सांसों की धुंध में लिपटे मौजूद थे सैकड़ों पीले चेहरे और मर्दों के सफ़ेद सीने, और अचानक पिस्तौल का पीला होल्स्टर कौंधकर सफ़ेद स्तम्भ के पीछे गायब हो गया. पेर्सिकोव को वह कुछ अस्पष्ट-सा नज़र आया और फिर वह उसके बारे में भूल गया. मगर भाषण के बाद बाहर निकलते हुए, सीढ़ियों के लाल कार्पेट पर अचानक उसकी तबियत बिगड़ने लगी. एक पल को लॉबी के जगमगाते झुम्बर पर कालिमा छा गई, और पेर्सिकोव को सब कुछ धुँधला नज़र आने लगा, उसका जी घबराने लगा...उसे बेहद गर्मी महसूस होने लगी, ऐसा लगा कि गर्दन में गरम, चिपचिपा खून बह रहा है...और थरथराते हाथ से प्रोफेसर ने रेलिंग थाम ली.
 “आपकी तबियत ख़राब है, व्लादीमिर इपातिच?” चारों तरफ़ से परेशान आवाज़ें आने लगीं.
“नहीं, नहीं,” पेर्सिकोव ने संभलते हुए जवाब दिया, “मैं, बस, बेहद थक गया हूँ...हाँ...एक ग्लास पानी मंगवा दीजिए.”
***

अगस्त का कड़ी धूप वाला दिन था.  इससे प्रोफ़ेसर को परेशानी हो रही थी इसलिए परदे गिरा दिए गए थे. एक एडजेस्टेबल रिफ्लेक्टर विभिन्न उपकरणों और लेन्सों से अटी कांच की मेज़ पर तेज़ प्रकाश पुंज फेंक रहा था. घूमती कुर्सी की पीठ से टिककर, थकान से चूर प्रोफेसर कश लगा रहा था और बेहद थकी हुई मगर प्रसन्न आँखों से धुँए के बादल से चैम्बर के अधखुले दरवाज़े के भीतर देख रहा था, जहाँ कैबिनेट की दमघोंटू और गन्दी हवा को कुछ-कुछ गरमाते हुए लाल रंग का प्रकाश पुंज पड़ा था.       
दरवाज़े पर खटखट हुई.
“क्या है?” पेर्सिकोव ने पूछा.
दरवाज़ा हौले से चरमराया और पन्क्रात भीतर आया. उसने अटेन्शन की मुद्रा में हाथ रखे और इस महान हस्ती के सामने भय से पीले पड़ते हुए कहा:
 “वहाँ, आपके पास, प्रोफेसर महाशय, रोक्क आया है.”
वैज्ञानिक के गालों पर मुस्कुराहट जैसा कुछ दिखाई दिया. उसने आँखों को सिकोड़ा और कहा:
”दिलचस्प बात है. बस, मैं व्यस्त हूँ.”
 “वे कहते हैं कि क्रेमलिन से सरकारी कागज़ लाए हैं.”
 “रोक, (रूसी में ROK शब्द का अर्थ है – किस्मत, जबकि जो व्यक्ति आया है उसका नाम है ROKK. उच्चारण की समानता के कारण प्रोफेसर ने उसे किस्मत वाला ROK समझ लिया है. निस:न्देह बुल्गाकोव किसी गहरी बात की ओर इशारा करना चाहते हैं! – अनु.) कागज़ के साथ? विरल संयोग है,” पेर्सिकोव ने टिप्पणी की और आगे कहा: “ख़ैर, भेजो उसे यहाँ!”
 “जी,” पन्क्रात ने जवाब दिया और घास के साँप की तरह दरवाज़े के पीछे ग़ायब हो गया.
एक मिनट बाद वो फिर चरमराया, और देहलीज़ पर एक आदमी प्रकट हुआ. पेर्सिकोव कुर्सी पर कसमसाया और उसने चश्मे के ऊपर से और कंधे के ऊपर से आगंतुक पर नज़र गड़ा दी. पेर्सिकोव असल ज़िन्दगी से काफ़ी दूर था – उसे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, मगर पेर्सिकोव की आँखों ने भी इस आदमी का प्रमुख लक्षण भाँप लिया. वह अजीब किस्म के पुराने फैशन का था. सन् 1919 में यह आदमी राजधानी की सडकों पर पूरी तरह चल जाता; सन् 1924 में, वर्ष के आरंभ में, लोग उसे बर्दाश्त कर लेते; मगर सन् 1928 में वह विचित्र ही लग रहा था. उस समय, जब प्रोलेटेरिएट का सबसे पिछड़ा वर्ग – नानबाई- भी कोट पहनता था; जब मॉस्को में मिलिट्री ट्यूनिक – पुराने फ़ैशन का सूट जिसे सन् 1924 के अंत में पूरी तरह खारिज कर दिया गया था- कभी-कभार ही दिखाई देता था; आगंतुक ने दुहरे पल्ले वाली चमड़े की जैकेट, हरी पतलून पहन रखी थी, पैरों पर कसी हुई पट्टियाँ, और फ़ौजी जूते थे, और बगल में लटक रही थी भारी-भरकम, पुराने फैशन की पिस्तौल ‘माउज़ेर’ - पीले खोल में. आगंतुक के चेहरे का भी पेर्सिकोव पर वैसा ही प्रभाव पड़ा जैसा और सब पर पड़ता था – अत्यंत अप्रिय . छोटी-छोटी आँखें पूरी दुनिया को हैरत से, मगर साथ ही आत्मविश्वास से देख रही थीं. सपाट पैरों वाली छोटी-छोटी टाँगों में कुछ बेतकल्लुफ़ी सी थी. चेहरा नीलाई लिए सफ़ाचट. पेर्सिकोव ने फ़ौरन नाक-भौंह चढ़ा लिए. वह बड़ी बेरहमी से घूमती कुर्सी पर चरमराया, और आगंतुक की ओर अब चश्मे के ऊपर से नहीं, बल्कि सीधे देखते हुए बोला:
 “आप कोई कागज़ लाए हैं? कहाँ है वो?”
आगंतुक, ज़ाहिर है, उस सबसे भौंचक्का हो गया, जो उसने देखा था. आमतौर से तो वह कम ही परेशान होता था, मगर इस समय वह परेशान हो ही गया. उसकी आँखों से पता चल रहा था कि उसे सबसे ज़्यादा 12 ख़ानों वाली शेल्फ ने चौंका दिया था, जो सीधे छत तक पहुँच रही थी और किताबों से ठँसी थी. इसके बाद, बेशक, चैम्बर्स ने, जिनमें, नर्क के समान, झिलमिलाती लाल रंग की किरण लैन्सों से फूटी पड़ रही थी. और आधे-अंधेरे में, रेफ्लेक्टर से आती नुकीली किरण के पास बैठे ख़ुद पेर्सिकोव ने भी, जो स्क्रू वाली घूमती कुर्सी में काफ़ी विचित्र और महान प्रतीत हो रहा था. आगंतुक ने उस पर नज़र गड़ा दी, जिसमें साफ़ तौर से उसके आत्मविश्वास को फांदते हुए आदर की चिनगारियाँ फूटी पड़ रही थीं, कोई कागज़-वागज़ नहीं दिया, मगर बोला:
 “मैं अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच रोक्क हूँ!”
 “अच्छा? तो फिर?”
 “मुझे ‘रेड रे’ मॉडेल सोव्खोज़ (सोवियत फ़ार्म) का डाइरेक्टर बनाया गया है,” आगंतुक ने स्पष्ट किया.
 “तो?”
 “और मैं, कॉम्रेड, आपके पास सीक्रेट मिशन पर आया हूँ.”
 “मुझे उसके बारे में जानने में दिलचस्पी है. संक्षेप में, अगर संभव हो तो.”
पेर्सिकोव की ’कॉम्रेड’ शब्द सुनने की आदत इतनी छूट गई थी कि अब वह शब्द मानो उसके कानों को चीरता चला गया. वह बुरी तरह झल्ला गया.
आगंतुक ने जैकेट का पल्ला खोला और शानदार चिकने कागज़ पर टाइप किया हुआ ‘ऑर्डर’ बाहर निकाला. उसने इसे पेर्सिकोव की ओर बढ़ा दिया. और उसके बाद पेर्सिकोव के बिना कहे घूमते स्टूल पर बैठ गया.
 “मेज़ को धक्का मत मारो,” घृणा से पेर्सिकोव ने कहा.
आगंतुक ने घबरा कर मेज़ की ओर देखा, जिसके दूर वाले किनारे पर एक नम अंधेरे छेद में पन्ने के समान किसी की निर्जीव आँखें टिमटिमा रही थीं. उनसे अजीब सी ठण्डक निकल रही थी.
जैसे ही पेर्सिकोव ने कागज़ पढ़ा, वह उछला और टेलिफोन की ओर लपका. कुछ ही पल बाद वह अत्यंत तैश में आकर जल्दी-जल्दी बात कर रहा था:
 “माफ़ कीजिए...मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...ऐसा कैसे हो सकता है? मैं...बिना मेरी अनुमति के, सलाह के...शैतान जाने वो क्या कर डालेगा!!”
यहाँ अजनबी अत्यंत अपमानित होकर स्टूल पर घूमा.
 “माफ़ी चाहता हूँ,” उसने कहना शुरू किया,” मैं डाइ...”
मगर पेर्सिकोव ने टेढ़ी ऊँगली से उसे धमकाया और कहता रहा:
 “माफ़ कीजिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...मैं, अंत में, कड़ा विरोध प्रकट करता हूँ. अण्डों पर प्रयोग करने की इजाज़त मैं नहीं दूँगा...जब तक कि मैं ख़ुद इन्हें न आज़मा लूँ...”
रिसीवर में कोई चीज़ चहकी और खड़खड़ाई, और दूर से भी समझ में आ रहा था कि रिसीवर से जैसे एक पुचकारती हुई आवाज़ किसी छोटे बच्चे से बात कर रही है. इसका अंत ये हुआ कि लाल पड़ गए पेर्सिकोव ने धड़ाम् से रिसीवर लटका दिया और उससे मुख़ातिब होकर दीवार से कहा:
 “मैं अपने हाथ धो लेता हूँ!”
वह मेज़ की तरफ़ आया, वहाँ से कागज़ उठाया, उसे एक बार ऊपर से नीचे चश्मे के ऊपर से पढ़ा, फिर
नीचे से ऊपर सीधे चश्मे से पढ़ा और अचानक चिंघाड़ा:
“पन्क्रात!”
पन्क्रात इस तरह दरवाज़े में प्रविष्ट हुआ मानो ऑपेरा में सीढ़ी चढ़ कर आया हो. पेर्सिकोव ने उसकी ओर देखा और ज़ोर से चीख़ा:
 “बाहर निकल, पन्क्रात!”
और पन्क्रात, अपने चेहरे पर ज़रा सा भी विस्मय का प्रदर्शन किए बगैर ग़ायब हो गया.
 इसके बाद पेर्सिकोव आगंतुक की ओर मुड़ा और कहने लगा:
 “ठीक है...मैं आदेश का पालन करूँगा. मुझे क्या करना है! और मुझे कोई दिलचस्पी भी नहीं है.”
प्रोफेसर ने आगंतुक का जितना अपमान नहीं किया, उतना उसे विस्मित कर दिया.
 “माफ़ी चाहता हूँ,” उसने शुरूआत की, “आप तो, कॉम्रेड...”
 “ये आप हमेशा कॉम्रेड, कॉम्रेड क्या करते रहते हैं...” पेर्सिकोव नाक-मुँह चढ़ा कर बुदबुदाया और ख़ामोश हो गया.
 ‘तो ये बात है’, रोक्क के चेहरे पर लिखा था.
 “माफ़...”
 “तो, ये, प्लीज़,” पेर्सिकोव ने उसकी बात काटते हुए कहा, “ये आर्क-लैम्प है. इससे आई-पीस को इधर- उधर सरका कर,” पेर्सिकोव ने चैम्बर के कैमेरे जैसे ढक्कन को खट्-खट् किया, “किरण प्राप्त कर सकते हैं, जिसे आप लैन्सों को, ये नं. 1...और शीशों को, ये नं. 2, सरका-सरका कर इकट्ठा कर सकते हैं,” पेर्सिकोव ने किरण को बुझा दिया, उसे फिर से एस्बेस्टस के चैम्बर के फर्श पर जला दिया, “और फर्श पर, किरण में वो सब कुछ रख सकते हैं, जो आपको अच्छा लगे, और प्रयोग कर सकते हैं. बहुत ही आसान है, है ना?”
पेर्सिकोव व्यंग्य और नफ़रत प्रकट करना चाहता था, मगर चमकती आँखों से चैम्बर के भीतर ध्यानपूर्वक देख रहा आगंतुक इसे देख ही नहीं पाया.
 “सिर्फ ये चेतावनी देता हूँ,” पेर्सिकोव ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “हाथों को किरण में मत रखिए, क्योंकि मेरे अवलोकनों के अनुसार, इससे कोशिकाओं में वृद्धि होने लगती है...और वे हानिकारक हैं अथवा नहीं, अफ़सोस है कि ये मैं अभी तक सिद्ध नहीं कर पाया हूँ.”
यहाँ आगंतुक ने फ़ौरन अपनी चमड़े की कैप गिराकर, हाथ पीठ के पीछे छुपा लिए, और प्रोफेसर के हाथों की ओर देखने लगा. वे पूरी तरह आयोडिन से पुते थे और दाहिने हाथ पर, कलाई के पास, बैण्डेज बंधा था.
 “और आप कैसे करते हैं, प्रोफेसर?”
  “कुज़्नेत्स्की पर श्वाब की दुकान से रबड़ के दस्ताने ख़रीद सकते हैं,” प्रोफेसर ने चिढ़कर जवाब दिया. “ये मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है.”
अब पेर्सिकोव ने आगंतुक की ओर यूँ देखा मानो मैग्निफ़ाईंग ग्लास से देख रहा हो.
 “आप कहाँ से टपक पड़े? मतलब...आपको क्यों?...”
आख़िर रोक्क ने बेहद अपमानित महसूस कर ही लिया.
 “माफ़...”
 “आख़िर इन्सान को ये तो मालूम होना चाहिए कि वह कर क्या रहा है!...आप इस किरण के पीछे क्यों पड़ गए?”
 “इसलिए कि ये महत्वपूर्ण सरकारी काम है...”
 “ओहो. सरकारी? तब...पन्क्रात!”
और जब पन्क्रात प्रकट हुआ:
 “ठहर, मैं ज़रा सोच लूँ.”
और पन्क्रात नम्रता से ग़ायब हो गया.
 “मैं,” पेर्सिकोव ने कहा, “समझ नहीं पा रहा हूँ कि आख़िर इतनी जल्दबाज़ी की और इतने राज़ की ज़रूरत क्या है?”
 “आपने, प्रोफेसर, मुझे पूरी तरह उलझा दिया है,” रोक्क ने जवाब दिया,  “आपको तो मालूम ही है कि सारी मुर्गियों का सफ़ाया हो चुका है, एक भी बाक़ी नहीं है.”
 “तो, इससे क्या?,” प्रोफेसर चीख़ा, “क्या आप पल भर में ही उन्हें पुनर्जीवित करना चाहते हैं? और फिर उस किरण की सहायता से क्यों, जिसका अभी तक अध्ययन नहीं किया गया है?”
 “कॉम्रेड प्रोफेसर,” रोक्क ने जवाब दिया, “आप मुझे, क़सम से, परेशान किए जा रहे हैं. मैं आपसे कह रहा हूँ कि सरकार को मुर्गीपालन को नए सिरे से शुरू करना होगा, क्यों कि विदेशों में हमारे बारे में हर तरह की ऊटपटांग बातें लिखी जा रही हैं. हाँ.”
 “तो, लिखने दो...”
 “मगर, आप जानते हैं...,” भेद भरे अंदाज़ में रोक्क ने जवाब दिया और सिर को गोल-गोल घुमाया.
“मैं जानना चाहूँगा कि अण्डों से मुर्गियाँ पैदा करने का ख़याल किसके दिमाग़ में आया...”
”मेरे...” रोक्क ने जवाब दिया.
 “”ऊहू...चुक्... और किसलिए, कृपया बताने का कष्ट करेंगे? किरण के गुणों के बारे में आपको कैसे पता चला?”
 “मैं, प्रोफेसर, आपके लेक्चर पे मौजूद था.”
 “मैंने अभी तक अण्डों पर कोई प्रयोग नहीं किया है!...बस, करने का इरादा है!”
 “ऐ ख़ुदा, सब ठीक हो जाएगा,” रोक्क ने तहे दिल से बड़े आत्मविश्वास से कहा, “आपकी किरण इतनी लाजवाब है कि चाहे तो हाथी भी पैदा कर सकते हो, मुर्गियों की तो बात ही क्या है.”
 “बात ये है,” पेर्सिकोव ने बड़ी दीनता से कहा, “आप प्राणि विशेषज्ञ नहीं हैं? नहीं ना? अफ़सोस...अगर होते तो आप एक बिन्दास प्रयोगकर्ता होते...हाँ...मगर, आप बहुत बड़ा ख़तरा मोल ले रहे हैं...क़ामयाबी तो नहीं मिलेगी...और आप बस मेरा समय बर्बाद कर रहे हैं...”
 “चैम्बर्स हम आपको वापस लौटा देंगे. ठीक है?”
 “कब?”
 “बस, मैं पहली खेप निकाल लूँ.”
 “ये आप कितने यक़ीन के साथ कह रहे हैं! ठीक है. पन्क्रात!”
 “मैं अपने साथ आदमी लाया हूँ,” रोक्क ने कहा, “और सेक्युरिटी गार्ड भी...”
शाम तक पेर्सिकोव की कैबिनेट अनाथ हो गई... मेज़ें ख़ाली हो गईं. रोक्क के आदमी तीन बड़े चैम्बर्स उठाकर ले गए, प्रोफेसर के लिए सिर्फ उसका पहले वाला, छोटा-सा चैम्बर छोड़ गए जिससे उसने अपने प्रयोग शुरू किए थे.
जुलै जैसा अंधेरा घिर आया, इन्स्टीट्यूट को उदासी ने घेर लिया, वह कॉरीडोर्स में फैल गई. कैबिनेट में क़दमों की एक सी आहट सुनाई दे रही थी – ये पेर्सिकोव था जो, बिना लाइट जलाए, बड़े कमरे में खिड़की से दरवाज़े की ओर निरंतर चक्कर लगा रहा था.
अजीब सी बात हो रही थी: इस शाम को इंस्टीट्यूट में रहने वाले इन्सानों और जानवरों पर भी एक ऐसी मायूसी की भावना हावी थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता. न जाने क्यों मेंढक बडा दर्दभरा राग छेड़ रहे थे, और ख़ौफ़नाक ढंग से, मानो ख़तरे की चुनौती सी देते हुए टर्र-टर्र कर रहे थे. पन्क्रात को कॉरीडोर से एक घास के साँप को पकड़ना पड़ा, जो अपने पिंजरे से खिसक गया था, और, जब उसने उसे पकड़ा, तो ऐसे लगा, मानो साँप कहीं भागने की तैयारी में था, बस, वहाँ से जाना चाहता था.
देर शाम को पेर्सिकोव के कैबिनेट की घण्टी बजी. पन्क्रात ड्योढ़ी पर आया. और उसने एक अजीब सी तस्वीर देखी. कैबिनेट के बीचोंबीच वैज्ञानिक अकेला खड़ा था और मेज़ों की ओर देख रहा था. पन्क्रात खाँसा और, जैसे जम गया.
 “देखो, पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने कहा और खाली मेज़ की ओर इशारा किया.
पन्क्रात बेहद डर गया. उसे ऐसा लगा कि अंधेरे में प्रोफेसर की आँखें रो रही थीं. ये इतना असाधारण, इतना डरावना था.
 “जी,” पन्क्रात ने रोनी आवाज़ में कहा और सोचा: ‘इससे बेहतर तो ये होता कि तुम मुझ पर गरजते!’
 “ये,” पेर्सिकोव ने दुहराया, और उसके होंठ एक बच्चे के होंठों जैसे थरथराए, जिससे बिना बात उसके प्यारे खिलौने को छीन लिया गया हो.
 “तुझे मालूम है, प्यारे पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने खिड़की की ओर मुड़ते हुए आगे कहा, “ मेरी बीबी, जो पन्द्रह साल पहले ऑपेरा में काम करने के लिए चली गई थी, मगर अब, ऐसा लगता है, कि मर गई है... ये है बात, प्यारे पन्क्रात...मुझे ख़त भेजा गया है...”
मेंढक बड़ी दयनीयता से चिल्ला रहे थे, और शाम के अंधेरे ने प्रोफेसर को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, और अब है...रात. मॉस्को...कहीं कुछ सफ़ेद गोले खिड़की के उस पार जल उठे. ..परेशान सा पन्क्रात दुखी हो रहा था, डर के मारे अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा था.
 “जा, पन्क्रात,” प्रोफेसर ने बोझिल स्वर में कहा और हाथ हिलाया, “सो जा, प्यारे, दुलारे, पन्क्रात.”
और रात हो गई. पन्क्रात न जाने क्यों पंजों के बल कैबिनेट से भागा, अपनी कोठरी में आया, कोने में पड़े चीथड़ों को हटा कर वोद्का की बोतल निकाली और बड़ा गिलास भर के एक ही दम में पी गया. उसने नमक के साथ ब्रेड खाई और उसकी आँखों में कुछ चमक लौटी.
देर शाम, क़रीब-क़रीब आधी रात को, पन्क्रात नंगे पैर मद्धिम रोशनी वाले वेस्टिब्यूल में बेंच पर बैठकर फूलदार कमीज़ के नीचे अपने सीने को खुजाते हुए, ड्यूटी पर तैनात गार्ड-हैट से कह रहा था:
 “अच्छा होता अगर मार डालता, ऐ ख़ु...”
”क्या वाक़ई में रो रहा था?” गार्ड-हैट ने उत्सुकता से पूछा.
 “ऐ...ख़ु...” पन्क्रात ने यक़ीन दिलाया.
”महान वैज्ञानिक,” गार्ड-हैट ने सहमति दिखाई, “ज़ाहिर है कि मेंढक तो बीबी की जगह नहीं ले सकता.”
 “किसी हालत में नहीं,” पन्क्रात ने सहमत होते हुए कहा.
फिर उसने कुछ सोचा और आगे कहा:
 “मैं अपनी बीबी को यहाँ लाने की सोच रहा हूँ...वह गाँव ही में क्यों बैठी रहे. बस, वह इन साँपों को किसी हालत में बर्दाश्त न कर पाएगी...”
 “क्या कहें, ख़तरनाक किस्म का घिनौनापन है,” गार्ड-हैट ने सिर हिलाया.
वैज्ञानिक की कैबिनेट से कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी. और उसमें रोशनी भी नहीं थी. दरवाज़े के नीचे रोशनी का धब्बा भी नहीं था.

***

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

The Fateful Eggs - 6

अध्याय 6
जून 1928 का मॉस्को

वह जगमगा रहा था, रोशनियाँ नाच रही थीं, बुझतीं और फिर से जल उठतीं. थियेटर के चौक पर बसों की सफ़ेद बत्तियाँ, ट्रामों की हरी रोशनियाँ घूम रही थीं; भूतपूर्व ‘म्यूर और मेरिलिज़’ की छत पर, उस पर चढ़ाई गई दसवीं मंज़िल के ऊपर, एक रंगबिरंगी बिजली की औरत उछल रही थी, जो ‘वर्कर्स क्रेडिट’ का एक-एक अक्षर बाहर फेंकती जा रही थी. ‘बोल्शोय थियेटर’ के बाहर के चौक पर, जहाँ रात को रंगबिरंगा फ़व्वारा उछल रहा था, लोगों की भीड़ धक्का-मुक्की कर रही थी और भिनभिना रही थी. और बोल्शोय थियेटर के ऊपर एक भारी-भरकम लाउडस्पीकर घोषणा किए जा रहा था:
 ‘लेफ़ोर्तोव वेटेरिनरी इन्स्टीट्यूट के मुर्गियों की बीमारी वाले टीकों के बहुत अच्छे परिणाम आए हैं. मृत मुर्गियों की संख्या में आधे से भी ज़्यादा कमी हो गई है...’
इसके बाद लाउडस्पीकर ने अपना स्वर बदल दिया, उसके भीतर कुछ घरघराहट हुई, थियेटर के ऊपर हरी रोशनी जलती-बुझती रही, और लाउडस्पीकर गहरी आवाज़ में शिकायत-सी करने लगा:
 ‘मुर्गियों के प्लेग से निपटने के लिए एक आपात-कमिटी बनाई गई है जिसमें शामिल हैं पीपल्स कमिसार फॉर हेल्थ, पीपल्स कमिसार फॉर एग्रिकल्चर, डाइरेक्टर पशु-पालन विभाग कॉम्रेड प्ताखा-पोरोस्यूक, प्रोफेसर पेर्सिकोव, प्रोफेसर पोर्तुगालोव...और कॉम्रेड राबिनोविच!...घुसपैठ की नई कोशिशें!...’ लाउडस्पीकर सियार की तरह खिलखिलाता और रोता रहा, - ‘मुर्गियों के प्लेग के संबंध में!’
थियेटर का गलियारा, नेग्लिन्नी और लुब्यान्का, सफ़ेद और बैंगनी रोशनियों से दहक रहा था, किरणों से झिलमिला रहा था, साइरनों से चिंघाड़ रहा था और धूल के बादल से चकरा रहा था. तेज़ लाल-लाल रिफ्लेक्टरों से आलोकित दीवारों पर लगे बड़े-बड़े इश्तेहारों के पास लोगों के झुण्ड के झुण्ड जमा थे.
 “कड़ी सज़ा के प्रावधान को देखते हुए जनता को निर्देश दिया जाता है कि भोजन में मुर्गियों के माँस और अण्डों का उपयोग न करे. यदि प्राइवेट व्यापारी इन्हें बाज़ारों में बेचने की कोशिश करते पाए गए तो कानूनी कार्रवाई के अंतर्गत उनकी सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जाएगी. सभी नागरिक, जिनके पास अण्डे हैं, जल्दी से जल्दी उन्हें अपने निकट के पुलिस थाने में जमा कर दें.”
 ‘वर्कर्स न्यूज़पेपर’ की छत पर लगे स्क्रीन पर आसमान तक ऊँचा मुर्गियों का ढेर लगा था, और हरे-हरे अग्निशामक कर्मचारी, उनके छोटे-छोटे ढेर बनाकर उन पर पाइप से केरोसिन डालकर आग लगा देते. इसके बाद लाल-लाल लपटें स्क्रीन पर नाचतीं , बेजान धुँए का गुबार बाहर निकलता, बादलों की तरह बिखरने लगता, एक धार की तरह ऊपर उठता, चमकते अक्षर बाहर निकलते: “खोदीन्का में मुर्गियों के शव जलाए जा रहे हैं.”  
बदहवास रोशनी में नहाए दुकानों की शो-केसेस के बीच, जो रात के तीन बजे तक कारोबार करती थीं, सिर्फ दिन और रात के भोजनावकाश को छोड़कर, अन्धे छेदों से देख रही थीं कुछ ताले ठुँकी खिड़कियाँ जिन पर बैनर लगे थे ‘अण्डों का व्यापार. क्वालिटी की गारंटी.’
अक्सर, कर्कश साइरन बजातीं, फुफकारती ‘मॉस्को स्वास्थ्य विभाग.’ की एम्बुलेन्सें भारी बसों और पुलिस की गाड़ियों को ओवरटेक करते हुए निकल जातीं.         
“फिर कोई हो गया शिकार सड़े हुए अण्डों का,” भीड़ में सरसराहट होने लगती.
पेत्रोव्स्की लाइन्स पर विश्व प्रसिद्ध रेस्टॉरेंट ‘’एम्पायर’ हरे और नारंगी लैम्पों से जगमगा रहा था, और उसके भीतर की मेज़ों पर पोर्टेबल टेलिफोन्स के निकट पड़े थे शराब के धब्बों वाले कार्ड बोर्ड के नोटिस जिन पर लिखा था: ‘निर्देशों के अनुसार – ऑमलेट उपलब्ध नहीं है. ताज़े ऑयस्टर्स प्राप्त हुए हैं.’
हेर्मिटेज पार्क में, जहाँ बेजान, शिथिल हरियाली के बीच मोतियों की तरह मरियल चीनी लैम्प जल रहे थे, आँखों को चकाचौंध करते स्टेज पर गायक-जोड़ी श्राम्स और कर्मान्चिकोव कवियों की जोड़ी आर्गो और आर्गुयेव द्वारा रचित गीत गा रहे थे:
आह, मम्मा, क्या करूँगा मैं
बिना अण्डों के?? -              
और टॅप-डान्स कर रहे थे.
व्सेवोलोद मेयेरहोल्ड के नाम पर बना थियेटर, जो सन् 1927 में, जैसा कि सबको ज्ञात है, पूश्किन के ‘बोरिस गोदुनोव’ के प्रस्तुतिकरण के दौरान नग्न बोयारों वाले झूले के टूट जाने के कारण मर गये थे, रंगबिरंगी रोशनियों वाला इलेक्ट्रिक इश्तेहार दिखाए जा रहा था, जिसमें रिपब्लिक के प्रसिद्ध डाइरेक्टर, मेयेरहोल्ड के शिष्य कुख़्तेरमिअन द्वारा प्रस्तुत एरेन्डोर्ग के नाटक ‘मुर्गियों की बिदाई’ का ज़िक्र था. बगल में ही, ‘एक्वेरियम’ गार्डन में, निओन की रंगबिरंगी की रोशनियाँ फेंकते और अर्धनग्न औरत का शरीर दिखाते हुए,  ओपन-एयर स्टेज की हरियाली में तालियों के शोर के बीच लेखक लेवित्सेव का शो ‘मुर्गियों के बच्चे’ चल रहा था. और त्वेर्स्काया पर कान के नीचे एक एक लालटेन लटकाए, सर्कस के गधों की एक क़तार चली जा रही थी, जिनकी पीठ पर रखे थे जगमगाते पोस्टर्स. कोर्श थियेटर में रोस्तान के ‘शांतेक्लेर’ का पुन: प्रदर्शन हो रहा था.
मोटर-गाड़ियों के बीच से भागते हुए अख़बार बेचने वाले लड़के चीख़ रहे थे:
”ज़मीन के नीचे ख़तरनाक दौलत! पोलैण्ड ख़तरनाक युद्ध की तैयारी में!! प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव के ख़तरनाक आविष्कार!!”
 भूतपूर्व निकितिन सर्कस के ताज़े गोबर से लिपे गीले भूरे अरेना में मुर्दना-सफ़ेद जोकर बोम ने ड्रॉप्सी के कारण फूल गए बीम से कहा:
 “मुझे मालूम है कि तू इतना दुखी क्यों है!”
 “कों?” फिसफिसाते हुए बीम ने पूछा.
 “तूने अपने अण्डे ज़मीन में गाड़ दिए थे, मगर पन्द्रहवें सेक्टर की पुलिस को वो मिल गए.”
 “हा-हा-हा-हा,” सर्कस में दर्शक इतनी ज़ोर से हँस पड़े कि नसों में बड़े प्यार से खून बहने लगा, और प्राचीन गुम्बद के नीचे ट्रेपेज़ी और मकड़-जाले हिलने लगे.
 “आ-आप्!” जोकर्स तीखे सुर में चिल्लाए, और एक तन्दुरुस्त सफ़ेद घोड़ा लाल पोषाक पहनी सुडौल पैरों वाली, ग़ज़ब की ख़ूबसूरत औरत को बिठाकर बाहर लाया.

*****

बिना किसी की ओर देखे, किसी पर भी ध्यान न देते हुए, वेश्याओं के धक्कों और नाज़ुक सिसकारियों का जवाब दिए बिना, उत्तेजित और अकेला, अप्रत्याशित प्रसिद्धी से मंडित पेर्सिकोव मोखोवाया स्ट्रीट पर मानेझ की निओन से प्रकाशित घड़ी की ओर चला जा रहा था. यहाँ, इधर-उधर देखे बगैर, अपने ख़यालों में डूबे वह एक विचित्र, पुराने फैशन के आदमी से टकरा गया, उँगलियाँ बड़ी ज़ोर से उस आदमी की कमर में लटके रिवॉल्वर के लकड़ी के होल्स्टर से टकराईं.
 “आह, शैतान!” पेर्सिकोव पतली आवाज़ में चीखा, “माफ़ कीजिए.”
 “माफ़ी चाहता हूँ,” अप्रिय आवाज़ में उस आदमी ने कहा, और लोगों की रेल-पेल में वे किसी तरह एक दूसरे से आज़ाद हुए. और प्रेचिस्तेन्को की ओर बढ़ता हुए प्रोफ़ेसर फ़ौरन ही इस टक्कर के बारे में भूल भी गया.

***

शनिवार, 16 नवंबर 2013

The Fateful Eggs - 5

अध्याय 5
मुर्गियों का किस्सा

कोस्त्रोम्स्काया प्रांत के स्तेक्लोव्स्क कस्बे के छोटे से कस्बाई शहर, भूतपूर्व त्रोइत्स्क और आज के स्तेक्लोव्स्क में, भूतपूर्व सोबोर्नाया, और वर्तमान में कार्लारादेकोव्स्काया स्ट्रीट के छोटे से घर की ड्योढ़ी में भूरे रंग की फूल फूल वाली ड्रेस पहने, सिर पर रूमाल बांधे एक औरत निकली और बिसूरने लगी. ये औरत, भूतपूर्व चर्च के भूतपूर्व प्रीस्ट द्रोज़्दोव की विधवा, इतने ज़ोर से गला फाड़ कर रोने लगी कि सड़क के उस पार वाले घर की खिड़की से रोएँदार रूमाल में एक औरत का सिर बाहर निकला और चहका:
 “क्या बात है स्तेपानोव्ना, क्या फिर से?”
 “सत्रहवीं!” हिचकियाँ ले लेकर भूतपूर्व द्रोज़्दोवा ने जवाब दिया.
 “आह-हा-आह- आह,” रिरियाते हुए रूमाल वाली औरत ने सिर हिलाया, “ ये आख़िर क्या बात है? ख़ुदा नाराज़ हो गया है, सच कहती हूँ! क्या मर गई?”
 “हाँ, तू देख, देख, मात्र्योना,” ज़ोर ज़ोर से और मुश्किल से सिसकियाँ लेते हुए प्रीस्ट की विधवा बुदबुदाई. “तू देख, इसे क्या हुआ है!”
भूरे रंग का ख़स्ताहाल फाटक बजा, औरत के नंगे पैर धूल भरी सड़क पर छप-छप करते हुए आए और आँसुओं से भीगी प्रीस्ट की विधवा मात्र्योना को अपने मुर्गियों के दड़बे में ले गई.
ये बताना होगा कि फ़ादर सव्वाती द्रोज़्दोव की विधवा ने, जो सन् ’26 में धर्मविरोधी आन्दोलन के कारण मर गया था, हिम्मत नहीं हारी और ये बेहतरीन मुर्गीपालन का काम शुरू कर दिया. जैसे ही विधवा का काम तरक्की करने लगा, उस पर इतने टैक्स लगाए गए कि मुर्गीपालन क़रीब-क़रीब बन्द ही हो गया होता, अगर कुछ भले आदमियों ने सहायता न की होती. उन्होंने विधवा को सलाह दी, स्थानीय अधिकारियों को एक दरख़्वास्त देने की, कि वो, विधवा, मुर्गीपालन श्रमिक को-ऑपरेटिव शुरू कर रही है. को-ऑपरेटिव में शामिल हुई – स्वयँ द्रोज़्दोवा, उसकी विश्वासपात्र नौकरानी मात्र्योश्का, और विधवा की बहरी भांजी. विधवा का टैक्स माफ़ कर दिया गया, और उसका मुर्गीपालन इस क़दर बढ़ गया कि सन् ’28 आते-आते मुर्गियों के दड़बों से अटे उस धूल भरे आँगन में लगभग 250 मुर्गियाँ दौड़ती थीं, जिनमें कुछ कोख़िनखिन भी थीं. विधवा के अंडे हर इतवार को स्तेक्लोव्स्क के बाज़ार में पहुँचते, विधवा के अंडों का ताम्बोव में व्यापार होता था, और ऐसा भी होता कि वे उस दुकान की कांच की शो-केसेस में भी देखे जाते थे जिसे पहले ‘मॉस्को स्थित चिच्कोव का मक्खन और चीज़’ के नाम से जाना जाता था.
और अब ये – सुबह से सत्रहवीं ब्रह्मपुत्रा, प्यारी कलगी वाली , आँगन में घूम रही थी, और उसे उलटियाँ होने लगीं.एर्...र् र्...उ र् ल् ... उ र् ल्...ग़ो-ग़ो-ग़ो,”  कलगीवाली उलटियाँ किए जा रही थी, और उसने अपनी उदास आँखें सूरज पर इस तरह टिका दीं, मानो उसे आख़िरी बार देख रही हो. मुर्गी की नाक के सामने हाथों में पानी का कप पकड़े को-ऑपरेटिव की मेम्बर मात्र्योश्का उकडूँ बैठे नाच रही थी.
 “कलगी वाली, प्यारी-प्यारी...त्सीप्-त्सीप्- त्सीप्... पानी पी ले,” मात्र्योश्का उसे मना रही थी और कलगीवाली की चोंच के पीछे-पीछे कप घुमाती जा रही थी, मगर कलगीवाली का पीने का मन ही नहीं हो रहा था. उसने चोंच चौड़ी खोली, सिर को ऊपर की ओर उठाया. इसके बाद वह खून उगलने लगी.
 “लॉर्ड जीज़स! ” अपने कूल्हों पर हाथ मारते हुए मेहमान चीख़ी, “ये क्या हो रहा है? बस खून के थक्के! अपनी ज़िन्दगी में मैंने किसी मुर्गी को इंसान की तरह ऐसे तड़पते हुए नहीं देखा.”
ये आख़िरी शब्द थे जो अंतिम यात्रा पर निकली ग़रीब मुर्गी के लिए कहे गए थे. वह अचानक एक ओर को पलटी, असहायता से धूल में चोंच मारी और आँखें घुमा दीं. फिर वह पीठ के बल मुड़ी, दोनों टाँगें ऊपर उठा दीं और निश्चल पड़ी रही. मात्र्योश्का पानी छलकाते हुए दहाड़ मार कर रो पड़ी, और प्रीस्ट की विधवा – कोऑपरेटिव की प्रेसिडेंट भी रो पड़ी, और मेहमान झुककर उसके कानों में फुसफुसाई:
 “स्तेपानोव्ना, मैं मिट्टी खाऊँ, अगर ये गलत निकले कि तेरी मुर्गियों पर किसी ने टोना कर दिया है. ऐसा कहीं देखा है! मुर्गियों की तो ऐसी कोई बीमारी है ही नहीं! तेरी मुर्गियों पर किसी ने जादू-टोना कर दिया है.”
 “मेरी जान के दुश्मन!” आसमान की ओर देखते हुए प्रीस्ट की विधवा चहकी, “ वे क्या मुझे दुनिया से मिटा देना चाहते हैं?”
उसकी बात का जवाब दिया मुर्गे की ज़ोरदार चीख़ ने, और इसके बाद मुर्गियों के दड़बे से तिरछे-तिरछे , शराबख़ाने से किसी पियक्कड़ की तरह निकला नुचे हुए पंखों वाला मरियल मुर्गा. उसने किसी जानवर की तरह उन पर भयानक नज़र डाली, वहीं लड़खड़ाया, बाज़ की तरह पंख फैलाए, मगर उड़ा कहीं भी नहीं, बल्कि आंगन में ही दौड़ लगाने लगा, गोल चक्कर में, जैसे रस्सी से बंधा कोई घोड़ा लगाता है. तीसरे चक्कर पे वह रुक गया, और उसे उल्टी हो गई, फिर वह खाँसने लगा, गला साफ़ करने लगा, भर्राने लगा, अपने चारों ओर खून के धब्बे थूकने लगा, उलटा हो गया और उसके पंजे मस्तूलों की तरह सूरज की ओर उठ गए. औरतों का विलाप आंगन में छा गया. और मुर्गियों के दड़बे से इसके जवाब में सुनाई दी बेचैन कट्कट् , पंखों की फ़ड़फ़ड़ाहट और हलचल.
 “क्या कहा था मैंने, है न टोना?” विजयी मुद्रा में मेहमान ने पूछा, “फ़ादर को बुलाओ, प्रेयर करके     पवित्र जल छिड़क देगा.”
शाम को छह बजे, जब सूरज अपना आग जैसा लाल मुख लिए, जवान सूरजमुखी के चेहरों के बीच नीचे-नीचे जा रहा था, मुर्गी-पालन वाले आंगन में फादर सेर्गेइ, चर्च के चीफ़ प्रीस्ट ने प्रेयर पूरी की और अपना स्टोल हटाया. लोगों के उत्सुक चेहरे लकड़ी की बागड़ के ऊपर और उसकी झिरियों में झाँक रहे थे. प्रीस्ट की शोकमग्न विधवा ने सलीब को चूमा और आँसुओं से भीगा फटा हुआ एक रूबल का नोट फ़ादर सेर्गेइ को दिया, जिस पर उसने गहरी साँस लेते हुए कुछ इस तरह कहा कि जैसे ख़ुदा हम पर नाराज़ हो गया है. फ़ादर सेर्गेइ के चेहरे के भाव कुछ इस तरह के थे, मानो वह अच्छी तरह जानता है कि ख़ुदा किसलिए नाराज़ हो गया है, बस सिर्फ बताएगा नहीं.
इसके बाद भीड़ बिखर गई, और चूँकि मुर्गियाँ जल्दी सो जाती हैं, इसलिए किसी को पता नहीं चला कि प्रीस्ट की विधवा द्रोज़्दोवा के पड़ोसी के मुर्गीख़ाने में एकदम तीन मुर्गियाँ और एक मुर्गे ने प्राण त्याग दिए. उन्हें भी उसी तरह से उल्टियाँ हुईं, जैसे द्रोज़्दोवा की मुर्गियों को हुई थीं, बस फ़र्क इतना था कि ये मौतें बन्द मुर्गीख़ाने में और ख़ामोशी से हुई. मुर्गा अपनी जगह से औंधे मुँह गिरा, और उसी दशा में मर गया. जहाँ तक विधवा की मुर्गियों का सवाल है, तो वे प्रार्थना के फ़ौरन बाद मर गईं, और शाम होते होते मुर्गियों के दड़बे में मौत का सन्नाटा फैल गया, मरे हुए पक्षियों ढेर लग गए.
सुबह शहर ऐसे जागा मानो उस पर बिजली गिर गई हो, क्योंकि इस घटना ने अजीब, रौद्र रूप धारण कर लिया था. कार्लारादेकोव्स्काया स्ट्रीट पर दोपहर तक सिर्फ़ तीन ज़िन्दा मुर्गियाँ बची थीं, सबसे कोने वाले घर में, जिसे प्रदेश के टैक्स- इन्स्पेक्टर ने किराए पर लिया था, मगर वे भी एक बजते-बजते मर गईं. और शाम तक तो कस्बाई शहर स्तेक्लोव्स्क मधुमक्खियों के छत्ते के समान भिनभिनाने लगा, और उस पर दौड़ने लगा भयानक शब्द  ‘ प्लेग’. स्थानीय अख़बार ‘लाल योद्धा’ में छपे लेख , ‘कहीं ये मुर्गियों का प्लेग तो नहीं?’ नामक लेख में द्रोज़्दोवा का नाम छपा और वहाँ से मॉस्को पहुँचा.

* * *

प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव की ज़िंदगी बड़ी अजीब, बदहवास और परेशान हो चली थी. संक्षेप में, ऐसी परिस्थितियों में काम करना बेहद मुश्किल हो चला था. जब उसने अल्फ्रेड ब्रोन्स्की से पीछा छुड़ाया था, उसके दूसरे दिन उसे इन्स्टिट्यूट में अपने कैबिन का फ़ोन रिसीवर हटा कर बन्द कर देना पड़ा, और शाम को जब वह ट्राम से ओखोत्नी लाइन्स से गुज़र रहा था तो प्रोफेसर ने स्वयम् को एक विशाल भवन की छत पर देखा जिस पर काले अक्षरों में लिखा था - ‘वर्कर्स न्यूज़पेपर’. वह, याने प्रोफेसर पेर्सिकोव बिफ़रते हुए, कटुता से, आँखें मिचकाते हुए टैक्सी में बैठ रहा था, और उसके पीछे-पीछे, उसकी आस्तीन पकड़े कम्बल जैसे सूट में नकली, यांत्रिक पैर वाला मोटा घुसा. छत पर प्रोफेसर, सफ़ेद परदे पर, हथेलियाँ चेहरे पर रखे बैंगनी रंग की रोशनी से अपने आप को बचा रहा था. इसके साथ चमकदार इबारत दिखाई दी: ‘टैक्सी में जाते हुए प्रोफेसर पेर्सिकोव हमारे जाने माने संवाददाता कैप्टेन स्तेपानोव को समझा रहे हैं.’ और वाक़ई में : वोल्खोन्का स्ट्रीट पर स्थित चर्च के सामने से गुज़रते हुए खटारा कार उछली, उसमें बैठा प्रोफेसर ऊपर-नीचे हिचकोले खा रहा था, और उसकी हालत किसी मार खाए भेड़िए जैसी हो रही थी.
 “ये इन्सान नहीं बल्कि शैतान हैं,” दाँतों के बीच प्राणि-शास्त्रज्ञ बुदबुदाया और आगे बढ़ गया.
उसी शाम को प्रेचिस्तेन्को के अपने घर लौटने पर प्राणि-शास्त्रज्ञ को केयर-टेकर मारिया स्तेपानोव्ना से  टेलिफ़ोन नंबरों समेत 17 चिट्ठियाँ प्राप्त हुईं, जिन्होंने प्रोफेसर की अनुपस्थिति में उसे फोन किये थे; और मारिया स्तेपानोव्ना का अल्टिमेटम भी कि वह तंग आ चुकी है. प्रोफ़ेसर चिट्ठियाँ फाड़ देना चाहते थे, मगर रुक गए, क्योंकि एक नम्बर के सामने कुछ इबारत लिखी थी: ‘पीपल्स कमिश्नर – स्वास्थ्य विभाग’.
 “क्या बात है?” सनकी वैज्ञानिक वाक़ई में हैरान रह गया, “इनको क्या हुआ है?”
उसी शाम 10.15 बजे घण्टी बजी, और प्रोफेसर को मजबूरन एक चमकते-दमकते नागरिक के साथ बात करनी ही पड़ी. प्रोफेसर को उसके विज़िटिंग कार्ड की ख़ातिर ही उसे बुलाना पड़ा, जिस पर छपा था (बिना नाम और उपनाम के) ‘सोवियत संघ में विदेशी फर्मों के व्यापार-विभागों का आधिकारिक प्रमुख’.
 “शैतान ले जाए,” हरे टेबल-क्लॉथ पर मैग्निफ़ाइंग-ग्लास और कुछ डायग्राम्स फेंक कर पेर्सिकोव गुर्राया,  और उसने मारिया स्तेपानोव्ना से कहा, “बुलाइए उसे यहाँ, कैबिन में, इस आधिकारिक को या जो कोई भी है.”
 “कहिए, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?” पेर्सिकोव ने ऐसे लहजे में पूछा कि वह प्रमुख कुछ सिहर गया. पेर्सिकोव ने अपना चश्मा नाक से हटाकर माथे पर चढ़ा लिया, और आगंतुक की ओर ध्यान से देखा. वो क्रीम और बहुमूल्य पत्थरों से चमचमा रहा था, और दाईं आँख पर उसने एक काँच वाला चश्मा लगाया था.
‘कैसा घिनौना चेहरा है,’ न जाने क्यों पेर्सिकोव ने सोचा.
मेहमान ने बड़े दूर से बात शुरू की, पहले उसने पेर्सिकोव से पूछा कि क्या वह सिगार पी सकता है, इस कारण बड़ी अनिच्छा से पेर्सिकोव को उसे बैठने के लिए कहना पड़ा. फिर मेहमान इतनी देर से आने के लिए बड़ी लम्बी-चौड़ी माफ़ी मांगने लगा: “ मगर...प्रोफेसर महाशय को दिन में पकड़...खी-खी...माफ़ कीजिए, पाना असंभव है.” (मेहमान, हँसते हुए, लकड़बग्घे के समान सिसकियाँ ले रहा था.)
 “हाँ, मैं बहुत व्यस्त हूँ!” पेर्सिकोव ने इतना संक्षिप्त उत्तर दिया कि मेहमान दुबारा सिहर गया.
मगर फिर भी उसने मशहूर वैज्ञानिक को परेशान करने की आज़ादी ले ही ली.
“समय – बहुत क़ीमती है, जैसा कि कहते हैं...सिगार से प्रोफेसर को परेशानी तो नहीं ना हो रही है?”
 “बुर्-बुर्-बुर्,”प्रोफेसर ने जवाब दिया. उसने इजाज़त दे दी.
”प्रोफेसर ने जीवन की किरण की खोज की है?”
“माफ़ कीजिए, कैसे जीवन की?! ये बस अख़बार वालों की कल्पना है!” पेर्सिकोव ज़िन्दादिली से बोला.
 “आह, नहीं, खी-खी-खी...” – वह उस नम्रता से अच्छी तरह वाक़िफ़ है जो सभी असली वैज्ञानिकों का गुण है...इसके बारे में क्या कहा जाए...आज कितने सारे टेलिग्राम्स आए...दुनिया भर के शहरों में : वारसा में , और रीगा में तो इस किरण के बारे में सब कुछ पता है. पूरी दुनिया बस प्रोफेसर पेर्सिकोव का ही नाम लिए जा रही है...पूरी दुनिया साँस रोके प्रोफेसर पेर्सिकोव के काम पर नज़र गड़ाए हुए है...मगर सबको अच्छी तरह मालूम है कि सोवियत रूस में वैज्ञानिकों की हालत कितनी बुरी है. आपस की बात कहता हूँ...यहाँ कोई बाहर का आदमी तो नहीं है?...अफ़सोस, यहाँ वैज्ञानिक कार्यों का उचित मूल्यांकन नहीं होता, इसलिए वह प्रोफ़ेसर से कुछ बात करना चाहता है...एक विदेशी सरकार बिना किसी स्वार्थ के प्रोफेसर पेर्सिकोव के प्रायोगिक कामों के लिए मदद करना चाहती है. जैसा कि पवित्र ग्रंथ में कहा गया है, यहाँ अपने मोती क्यों बिखेरे जाएँ. सरकार को मालूम है कि सन् ’19 और ’20 में , इस खी-खी...क्रांति के दौरान प्रोफ़ेसर को कितनी तकलीफ़ उठानी पड़ी थी. बेशक, हर चीज़ पूरी तरह गुप्त रहेगी...प्रोफ़ेसर अपनी खोजों के परिणामों से सरकार को अवगत कराएगा, और वो इसके लिए प्रोफ़ेसर की आर्थिक सहायता करेगी. आख़िर उसने ये चैम्बर बनाया है, इस चैम्बर के डिज़ाइन को जानना दिलचस्प होगा...
यहाँ मेहमान ने अपने कोट की भीतरी जेब से एकदम कोरे नोटों की गड्डी निकाली.
एक छोटा-सी रकम, 5000 रुबल्स, मिसाल के तौर पर, एडवान्स, प्रोफ़ेसर को अभी, इसी पल दी जा सकती है...और किसी रसीद वगैरह की भी ज़रूरत नहीं है...प्रोफ़ेसर अगर रसीद का ज़िक्र भी करेंगे तो वह इस आधिकारिक-प्रमुख का अपमान होगा.
 “गेट-आऊट!!!” अचानक प्रोफ़ेसर इतनी भयानक आवाज़ में चीख़ा कि ड्राइंग रूम में रखे पियानों की तार-सप्तक की पट्टियाँ थरथरा उठीं.
मेहमान ऐसे ग़ायब हुआ कि गुस्से से थरथराते पेर्सिकोव को एक मिनट बाद यह शक होने लगा कि वह आया भी था कि या उसे भ्रम हुआ था.
 “उसके गलोश?!” – एक मिनट बाद पेर्सिकोव प्रवेश-कक्ष में चिंघाड़ा.
 “वो भूल गए,” थरथराती हुई मारिया स्तेपानोव्ना ने जवाब दिया.
”बाहर फेंक दो!”
 “कहाँ फेंकूंगी. वो आएगा उन्हें लेने के लिए.”
”हाउसिंग कमिटी में दे दो. रसीद ले लेना. जिससे कि इन गलोशों का नामो-निशान न रहे! कमिटी में! उन्हें ही रखने दो जासूस के गलोश!...”
मारिया स्तेपानोव्ना ने सलीब का निशान बनाते हुए भारी-भरकम, चमड़े के गलोश उठाए और उन्हें चोर-दरवाज़े से ले गई. वहाँ वह कुछ देर दरवाज़े के पीछे खड़ी रही, और फिर गलोशों को गोदाम में छुपा दिया.
 “दे दिए?”
 “दे दिए.”
 “रसीद मुझे दो.”
 “ कैसे दूँ, व्लादीमिर इपातिच. प्रेसिडेंट तो अनपढ़ है!...”
 “फ़ौरन! इसी पल. चाहिए. रसीद. उसके बदले किसी पढ़े-लिखे सुअर के बच्चे को हस्ताक्षर करने दो!”
मारिया स्तेपानोव्ना ने केवल सिर हिलाया, फिर वह चली गई और पन्द्रह मिनट बाद एक पुर्जे के साथ लौटी:
 “’स्टॉक के लिए प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव की ओर से प्राप्त हुई 1 (एक) जो. गलो. कोलेसोव’.
 “और ये क्या है?”
 “ बैगेज कूपन है.”
प्रोफ़ेसर ने कूपन को पैरों से कुचल दिया, और रसीद ब्लॉटिंग पैड के नीचे छुपा दी. फिर न जाने किस ख़याल से उसके उभरे माथे पर कालिमा छा गई. वह टेलिफ़ोन की ओर लपका, पन्क्रात को इन्स्टिट्यूट में फोन किया और उससे पूछा: “सब कुछ ठीक-ठाक तो है?” पन्क्रात रिसीवर में कुछ बुदबुदाया, जिससे यह समझ में आ रहा था, कि उसकी राय में, सब कुछ ठीक-ठाक है. मगर पेर्सिकोव का सुकून सिर्फ एक ही मिनट रहा. नाक-भौंह चढ़ाए वह फिर टेलिफोन से चिपक गया और उसने चोंगे में कहा:
 “मुझे उसका, क्या कहते हैं, लुब्यान्का का, नम्बर दीजिए. धन्यवाद...आपमें से किसे मैं ये बात बताऊँ...मेरे यहाँ कुछ सन्दिग्ध व्यक्ति गलोशों में घूमते हैं, हाँ...प्रोफ़ेसर IV विश्वविद्यालय का, पेर्सिकोव...”
रिसीवर ने झटके से बातचीत बीच ही में तोड़ दी. दांत पीसकर गालियाँ देते हुए पेर्सिकोव टेलिफोन से दूर हटा.
 “चाय पिएँगे, व्लादीमिर इपातिच?” कैबिनेट में झाँक कर झिझकते हुए मारिया स्तेपानोव्ना ने पूछा.
 “कोई चाय-वाय नहीं पिऊँगा...बुर्-बुर्-बुर्, शैतान ले जाए उन सबको...वहशियत सवार थी उन पर .”
ठीक दस मिनट बाद प्रोफ़ेसर अपनी कैबिनेट में नए मेहमानों का स्वागत कर रहा था. उनमें से एक, जो काफ़ी ख़ुशमिजाज़, गोल-मटोल और बड़ा शरीफ़ था, साधारण-सा मिलिट्री-कोट और बिरजिस पहने था.   उसकी नाक पर काँच की तितली के समान नाक-पकड़ चश्मा विराजमान था. वह चमचमाते जूतों वाले किसी फ़रिश्ते की याद दिला रहा था. दूसरा छोटे कद का, भयानक उदास, सिविलियन ड्रेस में था, मगर सिविलियन ड्रेस उस पर काफ़ी तंग प्रतीत हो रही थी. तीसरा मेहमान कुछ अजीब ही तरह से पेश आ रहा था, उसने प्रोफ़ेसर की कैबिनेट में प्रवेश नहीं किया, बल्कि आधे-अंधेरे प्रवेश कक्ष में ही रहा. मगर तम्बाकू के धुँए से भरी, प्रकाशित कैबिनेट उसे साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी. इस तीसरे वाले के चेहरे पर, जो सिविलियन ड्रेस में ही था, धुंधले काँच वाला नाक-पकड़ चश्मा विराजमान था.
कैबिनेट वाले दोनों ने प्रोफ़ेसर पेर्सिकोव को बुरी तरह परेशान कर दिया : उन्होंने अच्छी तरह विज़िटिंग-कार्ड देखा, पाँच हज़ार के बारे में कई सवाल पूछे और मेहमान के नाक-नक्श के बारे में बताने पर मजबूर किया.
 “ शैतान ही जाने,” पेर्सिकोव बुदबुदाया, “बड़ी घिनौनी शक्ल थी. चरित्रहीन.”
 “कहीं उसकी एक आँख काँच की तो नहीं थी?” छोटे कद वाले ने भर्राई आवाज़ में पूछा.          
  “शैतान ही जाने. नहीं, इत्तेफ़ाक से, काँच की नहीं थी, आँखें लगातार घूम रही थीं.”
 “रूबिन्स्टैन?” फ़रिश्ते ने सिविलियन ड्रेस वाले से धीमी आवाज़ में सवाल किया. मगर उसने त्योरी चढ़ाते हुए इनकार में सिर हिला दिया.
 “रुबिन्स्टैन बिना रसीद के नहीं देगा, किसी हालत में नहीं,” वह बुदबुदाया, “ये रुबिन्स्टैन का काम नहीं है. यहाँ कोई बड़ी हस्ती शामिल है.”
गलोशों के बारे में मेहमानों ने बड़ी दिलचस्पी से सुना. फ़रिश्ते ने हाऊसिंग सोसाइटी के टेलिफोन पर केवल कुछ शब्द कहे : “गेपेऊ (शासकीय सुरक्षा एजेंसी) हाऊसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी कोलेसोव को फ़ौरन गलोशों के साथ प्रोफेसर पेर्सिकोव के फ्लैट में आने की आज्ञा देती है,”– और बदरंग कोलेसोव फ़ौरन हाथों में गलोश पकड़े कैबिनेट में हाज़िर हो गया.
 “वासेन्का!” फ़रिश्ते ने प्रवेश-कक्ष में बैठे हुए व्यक्ति को हौले से पुकारा. वह बड़ी सुस्ती से उठा और पाँव घसीटते हुए कैबिनेट में आया. धुँधले शीशों ने उसकी आँखों को पूरी तरह ढाँक दिया था.
 “क्या?” उसने उनींदे सुर में संक्षिप्त सा प्रश्न किया.
 “गलोश.”
 धुँधली आँखें गलोशों पर फिसलने लगीं, और इस समय पेर्सिकोव को ऐसा प्रतीत हुआ कि शीशों के नीचे, किनारे से, एक पल को चमकीं उनींदी नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चुभती हुई आँखें. मगर वे फ़ौरन बुझ गईं.
 “तो, वासेन्का?”
 वह, जिसे वासेन्का के नाम से पुकार रहे थे, अलसाए सुर में बोला:
 “ तो, इसमें क्या ‘तो’ है. पेलेन्झ्कोव्स्की के गलोश हैं.”
फ़ौरन स्टॉक में से प्रोफेसर पेर्सिकोव की भेंट छीन ली गई. गलोश अख़बारी कागज़ में गायब हो गए.
मिलिट्री कोट वाला फ़रिश्ता अति प्रसन्नता से उठकर खड़ा हो गया और प्रोफेसर से हाथ मिलाने लगा, उसने एक छोटा सा भाषण भी दिया जिसका सार ये था : ये काम प्रोफेसर को सम्मानित करता है... प्रोफ़ेसर इत्मीनान रखें...आगे से उन्हें कोई परेशान नहीं करेगा, न तो इंस्टीट्यूट में और न ही घर पे. ..सही उपाय किए जाएँगे, उनके चैम्बर्स पूरी सुरक्षित रहेंगे...”
 “और, क्या ऐसा हो सकता है कि रिपोर्टर्स को गोली से उड़ा दिया जाए?” प्रोफेसर ने चश्मे के ऊपर से देखते हुए कहा.
इस सवाल ने तो मेहमानों को बहुत ज़्यादा ख़ुश कर दिया. न केवल चढ़ी हुई नाक-भौंह वाला छोटा आदमी, बल्कि धुँधली आँखों वाला भी बाहर प्रवेश-कक्ष में मुस्कुरा दिया. फ़रिश्ते ने ख़ुशी से दाँत दिखाते हुए समझाया...कि अभी तो, हुम्...बेशक, ये बड़ा ही अच्छा होता...मगर, वो...देखिए...फिर भी प्रेस...हाँलाकि सोवियत में ऐसे प्रस्ताव पर चर्चा ज़रूर हो रही है...अभिवादन करता हूँ.
 “मगर मेरे पास ये कौन बदमाश आया था?”
अब सबने मुस्कुराना बन्द कर दिया, और फ़रिश्ते ने टालमटोल करते हुए जवाब दिया, कि वो तो बस, कोई छोटा-मोटा धोखेबाज़ था, उसकी ओर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं है.....मगर, फिर भी वह नागरिक प्रोफ़ेसर से विनती करता है कि वह आज शाम की घटना के बारे में किसी से कुछ न कहे, और मेहमान चले गए.
पेर्सिकोव अपनी कैबिनेट में, डायग्राम्स के पास लौटा, मगर कुछ भी काम नहीं हो सका. टेलिफोन से लाल-लाल रोशनी निकली और एक महिला की आवाज़ ने प्रोफेसर के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह सात कमरों के फ्लैट वाली एक दिलचस्प और उत्साही विधवा से शादी करना चाहता है... पेर्सिकोव चोंगे में चिंघाड़ा:
 “मैं आपको सलाह दूँगा कि प्रोफ़ेसर रोस्सोलिमो...से अपना इलाज करवा लें...” और तभी दूसरी बार घंटी बजी.
इस बार प्रोफ़ेसर कुछ नरम पड़ गया, क्योंकि, एक काफ़ी मशहूर हस्ती, क्रेमलिन से फोन कर रही थी. उसने पेर्सिकोव से बड़ी देर तक, सहानुभूति से उसके काम के बारे में पूछा और उसकी लैबोरेटरी को देखने की इच्छा भी प्रकट की. टेलिफोन से हट कर पेर्सिकोव ने अपना माथा पोंछा और रिसीवर निकाल कर रख दिया. तब ऊपर वाले फ्लैट में भयानक तुरही की आवाज़ें गरजने लगीं और वाल्किरी की चीख़ें गूँजने लगीं, - कपड़ा-मिल के डाइरेक्टर का रेडियो बोल्शोय थियेटर से वाग्नेर की कॉन्सर्ट का प्रसारण कर रहा था. छत से आती इस चीख़-चिल्लाहट के बीच पेर्सिकोव ने मारिया स्तेपानोव्ना से कह दिया कि वह इस डाइरेक्टर पर मुकदमा ठोंक देगा, उसका रेडियो तोड़ देगा, मॉस्को से दूर शैतान की ख़ाला के पास चला जाएगा, क्योंकि, ज़ाहिर है, कि उसे यहाँ से भगाने की कोशिश की जा रही है. उसने अपना मैग्निफ़ाइंग ग्लास तोड़ दिया और कैबिनेट में ही दीवान पर लेट गया और बोल्शोय थियेटर से आती सुप्रसिद्ध पियानो वादक की नाज़ुक स्वर लहरियों के बीच सो गया.                  
आश्चर्यजनक घटनाएँ अगले दिन भी होती रहीं. ट्राम से इन्स्टीट्यूट पहुँचने पर पेर्सिकोव ने पोर्च में हरी, फ़ैशनेबल हैट वाले एक अपरिचित को देखा. उसने ग़ौर से पेर्सिकोव को देखा, मगर उससे कुछ भी नहीं पूछा, इसलिए पेर्सिकोव ने उसे बर्दाश्त कर लिया. मगर इन्स्टीट्यूट के प्रवेश-कक्ष में बदहवास पन्क्रात के अलावा पेर्सिकोव का स्वागत करने के लिए एक दूसरी हैट उठी और गर्मजोशी से उसका स्वागत करने लगी:
 “नमस्ते, नागरिक प्रोफ़ेसर.”
 “आपको क्या चाहिए?” पन्क्रात की सहायता से अपना ओवर-कोट उतारते हुए ख़ौफ़नाक ढंग से पेर्सिकोव ने पूछा, मगर हैट ने फ़ौरन पेर्सिकोव को शांत कर दिया, बड़ी नज़ाकत से फुसफुसाते हुए कि प्रोफ़ेसर बेकार ही में परेशान हो रहे हैं. वो, हैट, यहाँ इसलिए मौजूद है ताकि प्रोफ़ेसर को हर तरह के ज़िद्दी मेहमानों से बचा सके...और प्रोफेसर न केवल अपनी कैबिनेट के दरवाज़े के, बल्कि खिड़की के भी पीछे चैन से रह सके. इतना कहकर अपरिचित ने एक पल के लिए अपने कोट का पल्ला हटाया और प्रोफ़ेसर को कोई बैज दिखाया.
 “हुम्... इंतज़ाम तो आपने बढ़िया किया है,” पेर्सिकोव बुदबुदाया और फिर भोलेपन से पूछने लगा : “और आप खायेंगे क्या?”
इस पर हैट हँस पड़ी और उसने समझाया कि उसके बदले कोई और आ जाएगा.
इसके बाद तीन दिन बड़े सुकून से बीते. दो बार क्रेमलिन से मेहमान आए, और हाँ, एक बार स्टूडेन्ट्स भी आए, जिनका पेर्सिकोव इम्तेहान ले रहा था. सारे के सारे स्टूडेन्ट्स फ़ेल हो गए, और उनके चेहरों से साफ़ दिखाई दे रहा था कि अब पेर्सिकोव उनके भीतर एक अंधविश्वासी भय पैदा कर रहा है.
 “जाओ, कंडक्टर बन जाओ! तुम प्राणि-शास्त्र नहीं पढ़ सकते,” कैबिनेट से सुनाई दे रहा था.
“क्या बहुत सख़्त है?” हैट ने पन्क्रात से पूछा.
 “ऊ S S S, भगवान बचाए,” पन्क्रात ने जवाब दिया, “ अगर कोई आख़िर तक टिक भी जाता है, तो वह कैबिनेट से बाहर आता है और लड़खड़ाने लगता है. सात मन वज़न कम हो जाता है उसका. और फ़ौरन शराबख़ाने की ओर बढ़ जाता है.”
इस भागदौड़ में तीन दिन कैसे बीत गए, प्रोफेसर को पता ही नहीं चला, मगर चौथा दिन उसे ज़िन्दगी की वास्तविकता में वापस ले आया, और इसका कारण थी सड़क से आती पतली और तीखी आवाज़.    “व्लादीमिर इपातिच!” कैबिनेट की गेर्त्सेन रोड वाली खुली खिड़की से वह आवाज़ चीख़ी. आवाज़ क़ामयाब हो गई: पिछले कुछ दिनों में पेर्सिकोव बेहद थक गया था. इस समय वह आराम कर रहा था, निढ़ाल होकर, सुस्ती से आराम-कुर्सी में बैठा हुआ, लाल फ्रेम में क़ैद आँखों से यूँ ही देखते हुए कश लगा रहा था. वह ज़्यादा देर तक ऐसा नहीं कर सका. और इसलिए कुछ उत्सुकता से उसने खिड़की से बाहर झाँका और फुटपाथ पर अल्फ्रेड ब्रोन्स्की को देखा. नुकीली कैप और नोट-पैड के कारण प्रोफेसर ने शानदार कार्ड के धारक को पहचान लिया.
ब्रोन्स्की बड़ी नज़ाक़त से और आदर से खिड़की के सामने झुका.
 “ओह, ये आप हैं?” प्रोफेसर ने पूछा. उसके पास गुस्सा होने की ताक़त भी नहीं बची थी, और फिर उत्सुकता भी खाए जा रही थी कि आगे क्या होगा? खिड़की के पीछे वह स्वयँ को अल्फ्रेड से सुरक्षित महसूस कर रहा था. रास्ते पर मौजूद हैट ने फ़ौरन अपना कान ब्रोन्स्की की ओर मोड़ दिया. उसके चेहरे पर अत्यधिक प्यारी मुस्कुराहट छा गई.
 “बस, मिनट की एक जोड़ी, प्रिय प्रोफ़ेसर,” फुटपाथ से अपनी आवाज़ पर ज़ोर देते हुए ब्रोन्स्की ने शुरूआत की, “बस एक छोटा सा सवाल, वो भी प्राणी-शास्त्र से संबंधित. क्या पूछ सकता हूँ?”
 “पूछिए,” संक्षेप में और व्यंग्य से पेर्सिकोव ने कहा और सोचने लगा : ‘फिर भी, इस बदमाश में कुछ अमेरिकन जैसा तो है.’
 “मुर्गियों के लिए आप क्या कहेंगे, प्रिय प्रोफेसर?” होंठों पर दोनों हाथों का गोल बनाकर ब्रोन्स्की चिल्लाया.
पेर्सिकोव हैरान रह गया. वह खिड़की की सिल पर बैठ गया, फिर नीचे उतरा, घंटी बजाई और खिड़की में उँगली से इशारा करते हुए चीख़ा:
 “पन्क्रात, इस फुटपाथ वाले को अन्दर आने दो.”
 जब ब्रोन्स्की कैबिनेट में आया, तो पेर्सिकोव ने बस इतनी ही मोहब्बत दिखाई कि गुर्राते हुए उससे कह दिया:
 “बैठिए!”
और ब्रोन्स्की, प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए, रिवॉल्विंग स्टूल पर बैठ गया.
 “मुझे बताइए, प्लीज़,” पेर्सिकोव ने शुरूआत की, “आप वहाँ लिखते हैं, अपने इन अख़बारों में?”
 “सही फ़रमाया,” ब्रोन्स्की ने आदर से जवाब दिया.
 “और मुझे ये समझ में नहीं आता कि आप लिख कैसे सकते हैं, जबकि आपको रूसी बोलना भी नहीं आता है. ये ‘’मिनट की एक जोड़ी’ और ‘मुर्गियों के लिए’ क्या होता है? आप, शायद कहना चाहते थे, ‘मुर्गियों के बारे में’?”
ब्रोन्स्की सम्मानपूर्वक हल्के से मुस्कुराया:
 “वालेन्तिन पेत्रोविच सुधार देते हैं.”
 “ये कौन है – वालेन्तिन पेत्रोविच?”
 “साहित्य-विभाग के प्रमुख.”
 “अच्छा, ठीक है. मैं, वैसे भी, भाषाविद् नहीं हूँ. आपके पेत्रोविच को बाज़ू में हटाते हैं. मुर्गियों के बारे में आप क्या जानना चाहते हैं?”
 “सब कुछ, जो आप बतायेंगे, प्रोफेसर.”
अब ब्रोन्स्की ने हाथ में पेन्सिल पकड़ ली. पेर्सिकोव की आँखों में जीत की चमक दिखाई दी.
 “आप बेकार ही मेरे पास आए हैं, मैं पंखों वाले दोस्तों का विशेषज्ञ नहीं हूँ. आपको I युनिवर्सिटी के प्रोफेसर एमेल्यान इवानोविच पोर्तुगालोव के पास जाना चाहिए था. व्यक्तिगत रूप से मैं बहुत कम जानता हूँ...
ब्रोन्स्की नम्रतापूर्वक मुस्कुराया, यह दिखाते हुए कि वह प्रिय प्रोफेसर के मज़ाक को समझ गया है.  ‘मज़ाक – थोड़ा सा’ उसने नोट-पैड में लिखा.
 “मगर, यदि आपको दिलचस्पी है तो मुलाहिज़ा फ़रमाइए. मुर्गियाँ या कलगी वाले ...मुर्गियों की किस्म के पक्षी होते हैं. कुक्कुट जाति के....” पेर्सिकोव ने ऊँची आवाज़ में बोलना शुरू किया, उसकी नज़रें ब्रोन्स्की पर नहीं बल्कि कहीं दूर टिकी हुई थीं, जहाँ उसके सामने हज़ारों व्यक्तियों का समूह तैर रहा था...”कुक्कुट जाति के...फ़ज़ाइनस. ये ऐसे पक्षी होते हैं जिनकी कलगी मोटी चमड़ी की होती है और निचले जबड़े के नीचे दो गलफ़ड़े होते हैं...ह्म्... हालाँकि कभी कभी एक भी होता है, बीच में, चोंच के नीचे. ...तो, और क्या. पंख छोटे-छोटे और गोलाई लिए होते हैं...पूँछ मध्यम लम्बाई की, कुछ-कुछ सीढ़ियों जैसी और, मैं कहूँगा, कि छत जैसी, बीच के पंख हँसिये के आकार में मुड़े होते हैं... पन्क्रात, मॉडेल वाली कैबिनेट से 705 नं. का मॉडेल लाओ, पालतू मुर्गे का मॉडेल...मगर, शायद, आपको इसकी ज़रूरत नहीं है?...पन्क्रात, मॉडेल मत लाओ...मैं फिर से दुहराता हूँ, मैं विशेषज्ञ नहीं हूँ, पोर्तुगालोव के पास जाइए. ख़ैर, व्यक्तिगत तौर पर मुझे जंगली मुर्गों की छह किस्मों के बारे में पता है..ह्म् पोर्तुगालोव को और भी ज़्यादा मालूम है...इंडिया में और मलय द्वीपसमूह में...मिसाल के तौर पर, बान्किव मुर्गा या काज़िन्ता, वो हिमालय की तराई वाले भाग में पाया जाता है, पूरे इंडिया में, आसाम में, बर्मा में, ... जावा मुर्गे, या गालुस वारिउस, लोम्बोक में, सुम्बावा में और फ्लोरेस में. और जावा द्वीप पर पाया जाता है शानदार मुर्गा गाल्युस एनेउस, इंडिया के दक्षिण-पश्चिम में एक बेहद ख़ूबसूरत मुर्गा सोनेराटी पाया जाता हि...मैं बाद में आपको तस्वीरें दिखाऊँगा. जहाँ तक सीलोन का सवाल है, तो वहाँ हमें स्टेन्ली मुर्गा दिखाई देता है, वो और कहीं नहीं पाया जाता.
ब्रोन्स्की आँखें फाड़े बैठा था और दनाद्न् नोट्स लिखे जा रहा था.
 “कुछ और जानना चाहते हैं?”
 “मैं मुर्गों की बीमारियों के बारे में कुछ जानना चाहूँगा,” अल्फ्रेड हौले से फुसफुसाया.
  “ह्म्, मैं विशेषज्ञ नहीं हूँ...आप पोर्तुगालोव से पूछिए...मगर...ठीक है, टेप-वर्म्स, लीचेज़, खाज, पक्षियों वाले बैक्टेरिया, मुर्गियों वाली जूं, पिस्सू, मुर्गियों का हैजा, लार-ग्रंथियों की सूजन , निमोनिया...कई सारी हैं...(पेर्सिकोव की आँखों में चिनगारियाँ चमक रही थीं)...ज़हर का असर, मिसाल के तौर पर, ट्यूमर्स, रिकेट्स, जॉंडिस, र्‍य़ूमेटिज़्म, अखोरियोन शेंल्याइनी... बड़ी दिलचस्प बीमारी है. इसके कारण कलगी पर छोटे-छोटे धब्बे निकल आते हैं...
ब्रोन्स्की ने फूलदार रूमाल से माथे का पसीना पोंछा.
 “और, आपकी राय में, प्रोफेसर, वर्तमान विपत्ति का क्या कारण है?”
 “कैसी विपत्ति?”
 “क्या! क्या, आपने सचमुच में पढ़ा नहीं है, प्रोफेसर?” ब्रोन्स्की को आश्चर्य हुआ और उसने अपनी बैग से ‘इज़्वेस्तिया’ अख़बार की मुड़ी-तुड़ी प्रति निकाली.
 “मैं अख़बार नहीं पढ़ता,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया और भौंहे चढ़ा लीं.
 “मगर क्यों, प्रोफेसर?” अल्फ्रेड ने नज़ाकत से पूछा.
 “क्योंकि वे हर तरह की बकवास लिखते हैं,” बिना सोचे प्रोफेसर ने जवाब दिया.
 “ये क्या बात हुई, प्रोफेसर?” ब्रोन्स्की हौले से फुसफुसाया और उसने पन्ना खोल दिया.
 “क्या बात है?” पेर्सिकोव ने पूछा और वह अपनी कुर्सी से कुछ उठा. अब ब्रोन्स्की की आँखें चमक रही थीं. उसने अपनी नेल पॉलिश वाली उँगली से पूरे पृष्ठ पर फैली, असाधारण रूप से बड़ी हेडलाइन को रेखांकित किया :   ‘’रिपब्लिक में मुर्गियों की प्लेग’.

 “कैसे?” माथे पर चश्मा सरकाते हुए पेर्सिकोव ने पूछा...