अध्याय – ६
तबाही
ये अध्याय, मुलाहिजा
फरमाइए, सबसे छोटा होने वाला है. सुबह
मुझे महसूस हुआ कि मेरी पीठ में कंपकंपी हो रही है. फिर उसकी पुनरावृत्ति हुई. मैं
गुडीमुडी हो गया और मैंने कम्बल में सिर छुपा लिया, कुछ आराम
महसूस हुआ, मगर सिर्फ एक मिनट के लिए. अचानक
बेहद गर्मी महसूस हुई. फिर वापस ठंड, और इतनी
कि दांत किटकिटाने लगे. मेरे पास थर्मामीटर था. वह 38.8 दिखा रहा
था. मतलब, मैं बीमार हो गया था.
सुबह होते-होते मैंने सोने की
कोशिश की और आज तक मुझे वह सुबह याद है. जैसे ही मैं आंखें बंद करता, मेरे
सामने चश्मे वाला चेहरा झुकता और भिनभिनाता: “ ले जाओ”, और मैं सिर्फ एक ही बात
दुहराता: “नहीं, नहीं ले
जाऊंगा”. या तो मुझे वसीली पित्रोविच का सपना आ रहा था, या वह
वाकई में मेरे कमरे में था, और खौफनाक
बात ये थी कि वह कन्याक अपने जाम में डाल रहा था, जबकि उसे
पी रहा था मैं. पैरिस बिलकुल बर्दाश्त से बाहर हो गया. ‘ग्राण्ड ओपेरा’ और उसमें
कोई मुट्ठी तानकर दिखा रहा है. वापस ले जाता है, दिखाता है
और फिर से छुपा लेता है. तानता है, दिखाता है.
“मैं सच कहना चाहता हूँ.” मैं
बडबडा रहा था, जब गलीज़,
बिना धुले परदे के पीछे दिन पसर गया था, “पूरा सच.
मैंने कल एक नई ज़िंदगी देखी, और ये
ज़िंदगी मुझे घिनौनी लगी. मैं उसमें नहीं जाऊंगा. वो – पराई दुनिया है. घिनौनी
दुनिया है! ये पूरी तरह गुप्त रखना होगा, स्-स्-स्
!”
मेरे होंठ असाधारण रूप से जल्दी जल्दी
सूख रहे थे. मैंने, न जाने
क्यों, अपनी बगल में पत्रिका का अंक रखा
था; शायद इस उद्देश्य से कि पढूंगा. मगर कुछ भी नहीं पढ़ा. एक बार और थर्मामीटर
लगाना चाहा, मगर नहीं रखा. थर्मामीटर बगल में
ही कुर्सी पर पडा है, मगर मुझे, न जाने
क्यों उसके लिए कहीं जाना पड़ता. फिर मैं पूरी तरह होश खोने लगा. “शिपिंग कंपनी” के
अपने सहकारी का चेहरा तो मुझे याद है, मगर
डॉक्टर का चेहरा धुंधला हो गया. मतलब, ये फ्ल्यू
था. कुछ दिनों तक मैं बुखार में बेसुध रहा, और फिर तापमान कम हो गया. मुझे ‘शान-ज़ेलिज़े’
दिखाई देना बंद हो गया, और कोई भी हिट पर थूक नहीं रहा था, और पैरिस
सौ मील नहीं फैला.
मुझे भूख लगी थी, और भली पड़ोसन, मास्टर की
बीबी ने मुझे शोरवा उबालकर दिया. मैंने टूटे कान वाले कप से उसे पिया, अपनी रचना
को पढ़ने की कोशिश की, मगर दस ही
पंक्तियाँ पढ़कर उसे एक तरफ रख दिया.
करीब बारहवें दिन मैं तंदुरुस्त हो
गया. मुझे इस बात का आश्चर्य हुआ कि रुदल्फी मुझे देखने नहीं आया, हालांकि मैंने
उसे पर्चा भेजा था कि मेरे यहाँ आये.
बारहवें दिन मैं घर से निकला, “मेडिकल कपिंग
ब्यूरो” में गया और उस पर बड़ा सा ताला देखा.
तब मैं ट्राम में बैठकर, कमजोरी के
मारे खिड़की की फ्रेम पकडे और जमे हुए शीशे पर सांस छोड़ते हुए बड़ी दूर तक गया. वहाँ
पहुँचा, जहाँ रुदल्फी रहता था. घंटी बजाई.
किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. दुबारा बजाई. एक बूढ़े ने दरवाज़ा खोला और तिरस्कार से
मेरी तरफ देखा.
“रुदल्फी घर में है?”
बूढ़े ने अपने नाईट-शूज़ की नोक की
तरफ देखा और जवाब दिया, “ नहीं
है.”
मेरे इन सवालों के जवाब में कि –
वह कहाँ गया है, कब वापस
आयेगा, और मेरे हास्यास्पद सवाल के जवाब
में, कि “ब्यूरो” पर ताला क्यों लटक
रहा है, बूढ़ा कुछ झिझका, उसने पूछा
कि मैं कौन हूँ. मैंने सब कुछ समझाया, यहाँ तक कि उपन्यास के बारे में भी बताया.
तब बूढ़े ने बताया:
“वह हफ्ता भर पहले अमेरिका चला
गया.”
मुझे मार डालो, अगर मुझे
पता हो कि रुदल्फी कहाँ और क्यों गायब हो गया. उपन्यास कहाँ गायब हो गया, “ब्यूरो”
का क्या हुआ, कहाँ का अमेरिका, कैसे गया, नहीं
जानता और कभी जान भी नहीं पाऊंगा. बूढा कौन है, शैतान ही
जाने!
फ्ल्यू के बाद आई कमजोरी के प्रभाव
में मेरे थके हुए दिमाग में एक ख़याल कौंध गया कि कहीं मैंने यह सब सपने में तो
नहीं देखा था – मतलब, खुद
रुदल्फी को, और छपे हुए उपन्यास को, और
शान-ज़िलीज़े, और वसीली पित्रोविच को, और कील से
कटे हुए कान को. मगर घर पहुँचने पर मैंने अपने यहाँ नौ नीली-नीली किताबें देखीं.
उपन्यास प्रकाशित किया गया था. हाँ, प्रकाशित हुआ था. ये रहा वो.
अफसोस कि पत्रिका में छपे हुए
लोगों में से मैं किसी को नहीं जानता था. तो, रुदल्फी
के बारे में किसी से पूछ नहीं सकता था.
एक और बार “ब्यूरो” में जाने पर
मुझे यकीन हो गया कि वहाँ कोई ब्यूरो-व्यूरो नहीं है, बल्कि मोमजामे से ढंकी मेजों
वाला कैफे है.
नहीं, आप मुझे
समझाइये, इतनी सैंकड़ों पत्रिकाएँ कहाँ गायब हो गईं? कहाँ हैं
वे?
ऐसी अजीब घटना, जैसी इस उपन्यास और रुदल्फी के साथ हुई थी, मेरे जीवन में पहले कभी नहीं हुई थी.
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