अध्याय
7
रोक्क
पता नहीं कि क्या वाक़ई में
लेफ़ोर्तोव वेटेरिनरी इन्स्टीट्यूट के टीके बढ़िया थे, या समारा की क्वरन्टाइन टीमें
कुशल थीं, या फिर कालुगा और वोरोनेझ में अंड़ों की जमाखोरी के विरुद्ध उठाए गए क़दम प्रभावशाली
थे, या मॉस्को की आपात-कमिटी का काम सफ़ल एवम् सराहनीय था, मगर ये अच्छी तरह मालूम
हो गया कि पेर्सिकोव की अल्फ्रेड के साथ हुई अंतिम मीटिंग के दो सप्ताह बाद
रिपब्लिक में मुर्गियों के मामले की पूरी तरह सफ़ाई हो चुकी थी. कस्बाई शहरों के
पिछवाड़े के आँगनों में मुर्गियों के अनाथ पंख बिखरे थे, जो आँखों में आँसू भर
देते, और अस्पतालों में कुछ अंतिम खवैये डायरिया और खून की उल्टियों से निजात पा
रहे थे. सौभाग्य से पूरे देश में मरने वालों की संख्या एक हज़ार से ज़्यादा नहीं थी.
बड़े पैमाने पर गड़बडी भी नहीं हुई. हाँ, वोलोकोलाम्स्क में ज़रूर एक फ़कीर प्रकट हुआ
था, जिसने यह घोषित कर दिया कि मुर्गियों के विनाश के पीछे कोई और नहीं , बल्कि कमिसार ही ज़िम्मेदार हैं, मगर उसकी ओर किसी ने
विशेष ध्यान नहीं दिया. वोलोकोलाम्स्क के बाज़ार में कुछ पुलिस वालों की पिटाई हो
गई जो औरतों के हाथों से मुर्गियाँ छीन रहे थे, और स्थानीय पोस्ट एवम् टेलिग्राफ़
ऑफ़िस की शाख़ा की खिड़कियों के शीशे तोड़ दिए. मगर, सौभाग्य से स्थानीय प्रशासनिक
अधिकारियों ने फ़ौरन कुछ कदम उठाए जिनके फलस्वरूप सबसे पहले, फ़कीर कोई नामो-निशान
छोड़े बगैर ग़ायब हो गया; और इसके बाद टेलिग्राफ़ ऑफ़िस के शीशे बिठा दिए गए.
उत्तर में
अर्खांगेल्स्क और स्यूम्किन वीस्योलक पहुँचने के बाद प्लेग अपने आप ही इस वजह से
रुक गया कि उसे आगे बढ़ने के लिए कोई जगह ही नहीं थी – श्वेत सागर में, जैसा कि
सर्व विदित है मुर्गियाँ होती ही नहीं हैं. वो व्लादीवोस्तोक में भी रुक गया,
क्योंकि आगे महासागर था. दूर दक्षिण में- ओर्दुबात, जुल्फी और कराबुलाक के तप्त
भागों में नष्ट हो गया और शांत हो गया, और पश्चिम में आश्चर्यजनक तरीके से पोलैण्ड
और रुमानिया की सीमा पर ही रुक गया. या तो वहाँ की आबोहवा अलग तरह की थी, या फिर
पड़ोसी राज्यों द्वारा प्रयुक्त रोक-थाम के उपाय कारगर साबित हुए, मगर वास्तविकता
ये थी कि प्लेग आगे नहीं बढ़ा. विदेशी अख़बार इस अप्रत्याशित बीमारी के बारे में
ज़ोर-शोर से बहस कर रहे थे, मगर सोवियत गणराज्यों का शासन बिना कोई शोर मचाए निरंतर
काम करता रहा. ‘मुर्गियों के प्लेग से संघर्ष’ के लिए बनी आपात-कमिटी का नाम बदलकर
‘गणराज्य में मुर्गीपालन के पुनर्जीवन एवम् संवर्धन’ से संबंधित आपात-कमिटी कर
दिया गया, जिसके सोलह सदस्यों में एक नई, असाधारण त्रोइका का समावेश था.
“दोब्रोकूर (वालंटियर-मुर्गियाँ)” की स्थापना की गई जिसके मानद डेप्युटी-चेयरमैन
के रूप में पेर्सिकोव और पोर्तुगालोव को शामिल किया गया. अख़बारों में छपी उनकी
तस्वीरों के नीचे शीर्षक प्रकट हुए: “विदेशों से थोक में अण्डे ख़रीदे जाएँगे”, और
“ह्यूज़ महाशय अण्डों का प्रचार रोकने की कोशिश में”. पूरे मॉस्को में पत्रकार
कोलेच्किन का ज़हरीला लेख लोकप्रिय हो रहा था, जो इन शब्दों से समाप्त होता था:
“महाशय ह्यूज़, हमारे अण्डों को नज़र न लगाएँ, आपके पास अपने अण्डे हैं!”
पिछले तीन सप्ताहों में प्रोफेसर
पेर्सिकोव पूरी तरह पस्त हो गया था और बुरी तरह थक गया था. मुर्गियों वाली घटनाओं
ने उसे अपने मार्ग से पूरी तरह विचलित कर दिया था और उस पर दोहरा बोझ डाल दिया था.
पूरी-पूरी शाम उसे मुर्गियों वाली कमिटी की सभाओं में भाग लेना पड़ता था और समय-समय
पर अल्फ्रेड ब्रोन्स्की या यांत्रिक पैर वाले मोटे से लम्बी-लम्बी बहस करनी पड़ती
थी. प्रोफेसर पोर्तुगालोव, प्राइवेट-रीडर इवानोव और बोर्नगार्त के साथ मिलकर प्लेग
के बेसिलस की खोज में मुर्गियों की चीर-फाड़ करनी पड़ती थी, उन्हें माइक्रोस्कोप के
नीचे रखकर उनका अध्ययन करना पड़ता था; और
तीन शामों को बैठकर अति शीघ्रता से एक ब्रोश्युर भी लिखना पड़ा “प्लेग से प्रभावित
मुर्गियों के यकृत में हुए परिवर्तनों के बारे में.”
मुर्गियों के क्षेत्र में पेर्सिकोव बगैर
किसी विशेष उत्साह के काम कर रहा था, और यह बात समझ में भी आती थी – उसका पूरा
दिमाग़ दूसरी – मुख्य और महत्वपूर्ण- समस्या में उलझा था, उसमें, जिससे उसे इस
मुर्गियों वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने ज़बर्दस्ती खींच कर अलग कर दिया था, मतलब
लाल किरण में. अपने पहले से ही ख़राब स्वास्थ्य को और अधिक ख़राब करते हुए, भोजन और
नींद के समय से कुछ घंटे छीनकर, कभी-कभी प्रेचिस्तेन्को वापस लौटने के बदले
इंस्टीट्यूट के मोमजामा चढ़े दीवान पर ही झपकी ले लेता - इस तरह पेर्सिकोव रातों
में अपने चैम्बर्स और माइक्रोस्कोप के पास ही काम करता रहता..
जुलाई के अंत तक गड़बड़ कुछ शांत हो गई.
नवगठित कमिटी के कार्य-कलाप भी साधारण गति से चलने लगे, और पेर्सिकोव अपने अधूरे
काम की ओर लौटा. माइक्रोस्कोप्स के नीचे नए प्रिपैरेटिव रखे गए, चैम्बर में लाल
किरण के नीचे जादुई शीघ्रता से मछलियों और मेंढकों के अंडसमूह बढ़ रहे थे.
केनिग्सबेर्ग से हवाई जहाज़ में ख़ास तौर से ऑर्डर किए गए शीशे मंगवाए गए, और जुलाई
के अंतिम दिनों में इवानोव की निगरानी में कारीगरों ने दो नए, बड़े चैम्बर्स को
सुसज्जित कर दिया जिनमें किरण अपने उद्गम पर सिगरेट के पैकेट जितनी चौड़ी थी और
दूसरे सिरे पर – पूरे एक मीटर. पेर्सिकोव ने प्रसन्नता से अपने हाथ मले और किन्हीं
रहस्यमय एवम् क्लिष्ट प्रयोगों की तैयारी करने लगा. सबसे पहले उसने शिक्षा विभाग
के कमिसार से बात की, और रिसीवर ने उसे अत्यंत प्रिय और हर तरह के आश्वासन का वादा
किया. इसके बाद पेर्सिकोव ने सर्वोच्च कमिशन के पशुपालन विभाग के प्रमुख
प्ताखा-पोरोस्यूक से बात की. प्ताखा ने बड़ी गर्मजोशी से पेर्सिकोव की बात सुनी.
बात हो रही थी प्रोफेसर पेर्सिकोव के लिए विदेश से किसी बहुत बड़े ऑर्डर की. प्ताखा
ने फोन पर कहा कि वह फ़ौरन बर्लिन और न्यूयॉर्क में तार भेज देगा. इसके पश्चात्
क्रेमलिन द्वारा पूछा गया कि पेर्सिकोव का काम कैसे चल रहा है, और उस महत्वपूर्ण
और मीठी आवाज़ ने पूछा कि पेर्सिकोव को कार की ज़रूरत तो नहीं है.
“नहीं, धन्यवाद. मुझे ट्रामगाड़ी में जाना ज़्यादा
अच्छा लगता है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया.
“मगर क्यों?” उस रहस्यमय आवाज़ ने हल्के से
मुस्कुराते हुए पूछा.
पेर्सिकोव के साथ अक्सर सब लोग या तो भय
मिश्रित आदर से बात करते या फिर प्यार भरी मुस्कान के साथ जैसे किसी छोटे मगर
अत्यन्त महत्वपूर्ण बच्चे से की जाती है.
“उसकी रफ़्तार ज़्यादा तेज़ होती है,” पेर्सिकोव ने
जवाब दिया, जिसके बाद टेलिफोन से आती खनखनाती, मोटी आवाज़ ने जवाब दिया:
“ठीक है, जैसी आपकी मर्ज़ी.”
एक सप्ताह और बीत गया, जिसके दौरान
मुर्गियों की अपेक्षाकृत शांत होती समस्याओं से स्वयम् को अधिकाधिक दूर रखते हुए पेर्सिकोव
पूरी तरह से किरण के अध्ययन में जुट गया. अनिद्रा और अत्यधिक थकान के कारण उसका
सिर मानो पारदर्शी और हल्का हो गया. अब उसकी आँखों के सामने से लाल छल्ले हटते ही
नहीं थे, और लगभग हर रात पेर्सिकोव इंस्टिट्यूट में ही गुज़ारता था. एक बार उसने इस
प्राणि-शास्त्रीय आश्रयस्थल को छोड़ा ज़रूर था, जिससे कि प्रेचिस्तेन्को पर स्थित
त्सेकुबु (वैज्ञानिकों की जीवन शैली सुधारने संबंधी सेंट्रल कमिशन) के विशाल हॉल
में अपनी किरण और अंडों के कोशाणुओं पर उसके प्रभाव के बारे में अपना शोध-पत्र पढ़
सके. ये सिरफिरे प्राणिशास्त्रज्ञ की महान जीत थी. स्तम्भों वाले हॉल में तालियों
की गड़गड़ाहट से छत से कुछ-कुछ बिखर रहा था, गिर रहा था, और सनसनाते आर्क लैम्प्स
त्सेकुबिस्तों के काले जैकेट्स और महिलाओं की सफ़ेद पोषाकों पर रोशनी बिखेर रहे थे.
स्टेज पर, भाषण-मंच के पास, काँच की कुर्सी पर भारी-भारी सांसें लेते हुए और भूरा
पड़ते हुए एक प्लेट में बिल्ली के आकार का नम मेंढक विराजमान था. भाषण-मंच पर चिटें
फेंकी गईं. उनमें सात प्रेम-पत्र थे, उन्हें पेर्सिकोव ने फाड़ कर फेंक दिया.
त्सेकुबु का प्रमुख बड़ी कठिनाई से उसे घसीट कर मंच पर लाया ताकि वह लोगों का
अभिवादन कर सके. पेर्सिकोव ने गुस्से से अभिवादन किया, उसके हाथ पसीने से तर-बतर
थे और काली टाई ठोढ़ी के नीचे न होकर बाएँ कान के नीचे विराजमान थी. उसके सामने
मानो सांसों की धुंध में लिपटे मौजूद थे सैकड़ों पीले चेहरे और मर्दों के सफ़ेद
सीने, और अचानक पिस्तौल का पीला होल्स्टर कौंधकर सफ़ेद स्तम्भ के पीछे गायब हो गया.
पेर्सिकोव को वह कुछ अस्पष्ट-सा नज़र आया और फिर वह उसके बारे में भूल गया. मगर
भाषण के बाद बाहर निकलते हुए, सीढ़ियों के लाल कार्पेट पर अचानक उसकी तबियत बिगड़ने
लगी. एक पल को लॉबी के जगमगाते झुम्बर पर कालिमा छा गई, और पेर्सिकोव को सब कुछ
धुँधला नज़र आने लगा, उसका जी घबराने लगा...उसे बेहद गर्मी महसूस होने लगी, ऐसा लगा
कि गर्दन में गरम, चिपचिपा खून बह रहा है...और थरथराते हाथ से प्रोफेसर ने रेलिंग
थाम ली.
“आपकी तबियत ख़राब है, व्लादीमिर इपातिच?” चारों
तरफ़ से परेशान आवाज़ें आने लगीं.
“नहीं, नहीं,” पेर्सिकोव ने संभलते हुए
जवाब दिया, “मैं, बस, बेहद थक गया हूँ...हाँ...एक ग्लास पानी मंगवा दीजिए.”
***
अगस्त का कड़ी धूप वाला दिन था. इससे प्रोफ़ेसर को परेशानी हो रही थी इसलिए परदे गिरा दिए गए थे. एक
एडजेस्टेबल रिफ्लेक्टर विभिन्न उपकरणों और लेन्सों से अटी कांच की मेज़ पर तेज़
प्रकाश पुंज फेंक रहा था. घूमती कुर्सी की पीठ से टिककर, थकान से चूर प्रोफेसर कश
लगा रहा था और बेहद थकी हुई मगर प्रसन्न आँखों से धुँए के बादल से चैम्बर के
अधखुले दरवाज़े के भीतर देख रहा था, जहाँ कैबिनेट की दमघोंटू और गन्दी हवा को
कुछ-कुछ गरमाते हुए लाल रंग का प्रकाश पुंज पड़ा था.
दरवाज़े पर खटखट हुई.
“क्या है?” पेर्सिकोव ने पूछा.
दरवाज़ा हौले से चरमराया और पन्क्रात भीतर
आया. उसने अटेन्शन की मुद्रा में हाथ रखे और इस महान हस्ती के सामने भय से पीले
पड़ते हुए कहा:
“वहाँ, आपके पास, प्रोफेसर महाशय, रोक्क आया
है.”
वैज्ञानिक के गालों पर मुस्कुराहट जैसा
कुछ दिखाई दिया. उसने आँखों को सिकोड़ा और कहा:
”दिलचस्प बात है. बस, मैं व्यस्त हूँ.”
“वे कहते हैं कि क्रेमलिन से सरकारी कागज़ लाए
हैं.”
“रोक, (रूसी में ROK शब्द का अर्थ है – किस्मत, जबकि जो
व्यक्ति आया है उसका नाम है ROKK. उच्चारण की
समानता के कारण प्रोफेसर ने उसे किस्मत वाला ROK समझ लिया है. निस:न्देह बुल्गाकोव किसी
गहरी बात की ओर इशारा करना चाहते हैं! – अनु.) कागज़ के साथ? विरल संयोग है,” पेर्सिकोव
ने टिप्पणी की और आगे कहा: “ख़ैर, भेजो उसे यहाँ!”
“जी,” पन्क्रात ने जवाब दिया और घास के साँप की
तरह दरवाज़े के पीछे ग़ायब हो गया.
एक मिनट बाद वो फिर चरमराया, और देहलीज़ पर
एक आदमी प्रकट हुआ. पेर्सिकोव कुर्सी पर कसमसाया और उसने चश्मे के ऊपर से और कंधे
के ऊपर से आगंतुक पर नज़र गड़ा दी. पेर्सिकोव असल ज़िन्दगी से काफ़ी दूर था – उसे
इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, मगर पेर्सिकोव की आँखों ने भी इस आदमी का प्रमुख
लक्षण भाँप लिया. वह अजीब किस्म के पुराने फैशन का था. सन् 1919 में यह आदमी
राजधानी की सडकों पर पूरी तरह चल जाता; सन् 1924 में, वर्ष के आरंभ में, लोग उसे
बर्दाश्त कर लेते; मगर सन् 1928 में वह विचित्र ही लग रहा था. उस समय, जब
प्रोलेटेरिएट का सबसे पिछड़ा वर्ग – नानबाई- भी कोट पहनता था; जब मॉस्को में मिलिट्री
ट्यूनिक – पुराने फ़ैशन का सूट जिसे सन् 1924 के अंत में पूरी तरह खारिज कर दिया
गया था- कभी-कभार ही दिखाई देता था; आगंतुक ने दुहरे पल्ले वाली चमड़े की जैकेट,
हरी पतलून पहन रखी थी, पैरों पर कसी हुई पट्टियाँ, और फ़ौजी जूते थे, और बगल में लटक
रही थी भारी-भरकम, पुराने फैशन की पिस्तौल ‘माउज़ेर’ - पीले खोल में. आगंतुक के
चेहरे का भी पेर्सिकोव पर वैसा ही प्रभाव पड़ा जैसा और सब पर पड़ता था – अत्यंत
अप्रिय . छोटी-छोटी आँखें पूरी दुनिया को हैरत से, मगर साथ ही आत्मविश्वास से देख
रही थीं. सपाट पैरों वाली छोटी-छोटी टाँगों में कुछ बेतकल्लुफ़ी सी थी. चेहरा नीलाई
लिए सफ़ाचट. पेर्सिकोव ने फ़ौरन नाक-भौंह चढ़ा लिए. वह बड़ी बेरहमी से घूमती कुर्सी पर
चरमराया, और आगंतुक की ओर अब चश्मे के ऊपर से नहीं, बल्कि सीधे देखते हुए बोला:
“आप कोई कागज़ लाए हैं? कहाँ है वो?”
आगंतुक, ज़ाहिर है, उस सबसे भौंचक्का हो
गया, जो उसने देखा था. आमतौर से तो वह कम ही परेशान होता था, मगर इस समय वह परेशान
हो ही गया. उसकी आँखों से पता चल रहा था कि उसे सबसे ज़्यादा 12 ख़ानों वाली शेल्फ
ने चौंका दिया था, जो सीधे छत तक पहुँच रही थी और किताबों से ठँसी थी. इसके बाद,
बेशक, चैम्बर्स ने, जिनमें, नर्क के समान, झिलमिलाती लाल रंग की किरण लैन्सों से
फूटी पड़ रही थी. और आधे-अंधेरे में, रेफ्लेक्टर से आती नुकीली किरण के पास बैठे ख़ुद
पेर्सिकोव ने भी, जो स्क्रू वाली घूमती कुर्सी में काफ़ी विचित्र और महान प्रतीत हो
रहा था. आगंतुक ने उस पर नज़र गड़ा दी, जिसमें साफ़ तौर से उसके आत्मविश्वास को
फांदते हुए आदर की चिनगारियाँ फूटी पड़ रही थीं, कोई कागज़-वागज़ नहीं दिया, मगर
बोला:
“मैं अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच रोक्क हूँ!”
“अच्छा? तो फिर?”
“मुझे ‘रेड रे’ मॉडेल सोव्खोज़ (सोवियत फ़ार्म) का
डाइरेक्टर बनाया गया है,” आगंतुक ने स्पष्ट किया.
“तो?”
“और मैं, कॉम्रेड, आपके पास सीक्रेट मिशन पर आया
हूँ.”
“मुझे उसके बारे में जानने में दिलचस्पी है.
संक्षेप में, अगर संभव हो तो.”
पेर्सिकोव की ’कॉम्रेड’ शब्द सुनने की आदत
इतनी छूट गई थी कि अब वह शब्द मानो उसके कानों को चीरता चला गया. वह बुरी तरह
झल्ला गया.
आगंतुक ने जैकेट का पल्ला खोला और शानदार
चिकने कागज़ पर टाइप किया हुआ ‘ऑर्डर’ बाहर निकाला. उसने इसे पेर्सिकोव की ओर बढ़ा
दिया. और उसके बाद पेर्सिकोव के बिना कहे घूमते स्टूल पर बैठ गया.
“मेज़ को धक्का मत मारो,” घृणा से पेर्सिकोव ने
कहा.
आगंतुक ने घबरा कर मेज़ की ओर देखा, जिसके
दूर वाले किनारे पर एक नम अंधेरे छेद में पन्ने के समान किसी की निर्जीव आँखें
टिमटिमा रही थीं. उनसे अजीब सी ठण्डक निकल रही थी.
जैसे ही पेर्सिकोव ने कागज़ पढ़ा, वह उछला
और टेलिफोन की ओर लपका. कुछ ही पल बाद वह अत्यंत तैश में आकर जल्दी-जल्दी बात कर
रहा था:
“माफ़ कीजिए...मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...ऐसा
कैसे हो सकता है? मैं...बिना मेरी अनुमति के, सलाह के...शैतान जाने वो क्या कर
डालेगा!!”
यहाँ अजनबी अत्यंत अपमानित होकर स्टूल पर
घूमा.
“माफ़ी चाहता हूँ,” उसने कहना शुरू किया,” मैं
डाइ...”
मगर पेर्सिकोव ने टेढ़ी ऊँगली से उसे
धमकाया और कहता रहा:
“माफ़ कीजिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...मैं, अंत
में, कड़ा विरोध प्रकट करता हूँ. अण्डों पर प्रयोग करने की इजाज़त मैं नहीं
दूँगा...जब तक कि मैं ख़ुद इन्हें न आज़मा लूँ...”
रिसीवर में कोई चीज़ चहकी और खड़खड़ाई, और
दूर से भी समझ में आ रहा था कि रिसीवर से जैसे एक पुचकारती हुई आवाज़ किसी छोटे बच्चे
से बात कर रही है. इसका अंत ये हुआ कि लाल पड़ गए पेर्सिकोव ने धड़ाम् से रिसीवर
लटका दिया और उससे मुख़ातिब होकर दीवार से कहा:
“मैं अपने हाथ धो लेता हूँ!”
वह मेज़ की तरफ़ आया, वहाँ से कागज़ उठाया,
उसे एक बार ऊपर से नीचे चश्मे के ऊपर से पढ़ा, फिर
नीचे से ऊपर सीधे चश्मे से पढ़ा और अचानक
चिंघाड़ा:
“पन्क्रात!”
पन्क्रात इस तरह
दरवाज़े में प्रविष्ट हुआ मानो ऑपेरा में सीढ़ी चढ़ कर आया हो. पेर्सिकोव ने उसकी ओर
देखा और ज़ोर से चीख़ा:
“बाहर निकल, पन्क्रात!”
और पन्क्रात, अपने
चेहरे पर ज़रा सा भी विस्मय का प्रदर्शन किए बगैर ग़ायब हो गया.
इसके बाद पेर्सिकोव आगंतुक की ओर मुड़ा और कहने
लगा:
“ठीक है...मैं आदेश का पालन करूँगा. मुझे क्या
करना है! और मुझे कोई दिलचस्पी भी नहीं है.”
प्रोफेसर ने आगंतुक
का जितना अपमान नहीं किया, उतना उसे विस्मित कर दिया.
“माफ़ी चाहता हूँ,” उसने शुरूआत की, “आप तो,
कॉम्रेड...”
“ये आप हमेशा कॉम्रेड, कॉम्रेड क्या करते रहते
हैं...” पेर्सिकोव नाक-मुँह चढ़ा कर बुदबुदाया और ख़ामोश हो गया.
‘तो ये बात है’, रोक्क के चेहरे पर लिखा था.
“माफ़...”
“तो, ये, प्लीज़,” पेर्सिकोव ने उसकी बात काटते
हुए कहा, “ये आर्क-लैम्प है. इससे आई-पीस को इधर- उधर सरका कर,” पेर्सिकोव ने
चैम्बर के कैमेरे जैसे ढक्कन को खट्-खट् किया, “किरण प्राप्त कर सकते हैं, जिसे आप
लैन्सों को, ये नं. 1...और शीशों को, ये नं. 2, सरका-सरका कर इकट्ठा कर सकते हैं,”
पेर्सिकोव ने किरण को बुझा दिया, उसे फिर से एस्बेस्टस के चैम्बर के फर्श पर जला
दिया, “और फर्श पर, किरण में वो सब कुछ रख सकते हैं, जो आपको अच्छा लगे, और प्रयोग
कर सकते हैं. बहुत ही आसान है, है ना?”
पेर्सिकोव व्यंग्य
और नफ़रत प्रकट करना चाहता था, मगर चमकती आँखों से चैम्बर के भीतर ध्यानपूर्वक देख
रहा आगंतुक इसे देख ही नहीं पाया.
“सिर्फ ये चेतावनी देता हूँ,” पेर्सिकोव ने अपनी
बात जारी रखते हुए कहा, “हाथों को किरण में मत रखिए, क्योंकि मेरे अवलोकनों के
अनुसार, इससे कोशिकाओं में वृद्धि होने लगती है...और वे हानिकारक हैं अथवा नहीं,
अफ़सोस है कि ये मैं अभी तक सिद्ध नहीं कर पाया हूँ.”
यहाँ आगंतुक ने
फ़ौरन अपनी चमड़े की कैप गिराकर, हाथ पीठ के पीछे छुपा लिए, और प्रोफेसर के हाथों की
ओर देखने लगा. वे पूरी तरह आयोडिन से पुते थे और दाहिने हाथ पर, कलाई के पास,
बैण्डेज बंधा था.
“और आप कैसे करते हैं, प्रोफेसर?”
“कुज़्नेत्स्की पर श्वाब की दुकान से रबड़ के
दस्ताने ख़रीद सकते हैं,” प्रोफेसर ने चिढ़कर जवाब दिया. “ये मेरी ज़िम्मेदारी नहीं
है.”
अब पेर्सिकोव ने
आगंतुक की ओर यूँ देखा मानो मैग्निफ़ाईंग ग्लास से देख रहा हो.
“आप कहाँ से टपक पड़े? मतलब...आपको क्यों?...”
आख़िर रोक्क ने बेहद
अपमानित महसूस कर ही लिया.
“माफ़...”
“आख़िर इन्सान को ये तो मालूम होना चाहिए कि वह
कर क्या रहा है!...आप इस किरण के पीछे क्यों पड़ गए?”
“इसलिए कि ये महत्वपूर्ण सरकारी काम है...”
“ओहो. सरकारी? तब...पन्क्रात!”
और जब पन्क्रात
प्रकट हुआ:
“ठहर, मैं ज़रा सोच लूँ.”
और पन्क्रात नम्रता
से ग़ायब हो गया.
“मैं,” पेर्सिकोव ने कहा, “समझ नहीं पा रहा हूँ
कि आख़िर इतनी जल्दबाज़ी की और इतने राज़ की ज़रूरत क्या है?”
“आपने, प्रोफेसर, मुझे पूरी तरह उलझा दिया है,”
रोक्क ने जवाब दिया, “आपको तो मालूम ही है
कि सारी मुर्गियों का सफ़ाया हो चुका है, एक भी बाक़ी नहीं है.”
“तो, इससे क्या?,” प्रोफेसर चीख़ा, “क्या आप पल
भर में ही उन्हें पुनर्जीवित करना चाहते हैं? और फिर उस किरण की सहायता से क्यों,
जिसका अभी तक अध्ययन नहीं किया गया है?”
“कॉम्रेड प्रोफेसर,” रोक्क ने जवाब दिया, “आप
मुझे, क़सम से, परेशान किए जा रहे हैं. मैं आपसे कह रहा हूँ कि सरकार को मुर्गीपालन
को नए सिरे से शुरू करना होगा, क्यों कि विदेशों में हमारे बारे में हर तरह की
ऊटपटांग बातें लिखी जा रही हैं. हाँ.”
“तो, लिखने दो...”
“मगर, आप जानते हैं...,” भेद भरे अंदाज़ में रोक्क
ने जवाब दिया और सिर को गोल-गोल घुमाया.
“मैं जानना चाहूँगा
कि अण्डों से मुर्गियाँ पैदा करने का ख़याल किसके दिमाग़ में आया...”
”मेरे...” रोक्क ने
जवाब दिया.
“”ऊहू...चुक्... और किसलिए, कृपया बताने का कष्ट
करेंगे? किरण के गुणों के बारे में आपको कैसे पता चला?”
“मैं, प्रोफेसर, आपके लेक्चर पे मौजूद था.”
“मैंने अभी तक अण्डों पर कोई प्रयोग नहीं किया
है!...बस, करने का इरादा है!”
“ऐ ख़ुदा, सब ठीक हो जाएगा,” रोक्क ने तहे दिल से
बड़े आत्मविश्वास से कहा, “आपकी किरण इतनी लाजवाब है कि चाहे तो हाथी भी पैदा कर
सकते हो, मुर्गियों की तो बात ही क्या है.”
“बात ये है,” पेर्सिकोव ने बड़ी दीनता से कहा,
“आप प्राणि विशेषज्ञ नहीं हैं? नहीं ना? अफ़सोस...अगर होते तो आप एक बिन्दास
प्रयोगकर्ता होते...हाँ...मगर, आप बहुत बड़ा ख़तरा मोल ले रहे हैं...क़ामयाबी तो नहीं
मिलेगी...और आप बस मेरा समय बर्बाद कर रहे हैं...”
“चैम्बर्स हम आपको वापस लौटा देंगे. ठीक है?”
“कब?”
“बस, मैं पहली खेप निकाल लूँ.”
“ये आप कितने यक़ीन के साथ कह रहे हैं! ठीक है.
पन्क्रात!”
“मैं अपने साथ आदमी लाया हूँ,” रोक्क ने कहा,
“और सेक्युरिटी गार्ड भी...”
शाम तक पेर्सिकोव
की कैबिनेट अनाथ हो गई... मेज़ें ख़ाली हो गईं. रोक्क के आदमी तीन बड़े चैम्बर्स
उठाकर ले गए, प्रोफेसर के लिए सिर्फ उसका पहले वाला, छोटा-सा चैम्बर छोड़ गए जिससे
उसने अपने प्रयोग शुरू किए थे.
जुलै जैसा अंधेरा
घिर आया, इन्स्टीट्यूट को उदासी ने घेर लिया, वह कॉरीडोर्स में फैल गई. कैबिनेट
में क़दमों की एक सी आहट सुनाई दे रही थी – ये पेर्सिकोव था जो, बिना लाइट जलाए,
बड़े कमरे में खिड़की से दरवाज़े की ओर निरंतर चक्कर लगा रहा था.
अजीब सी बात हो रही
थी: इस शाम को इंस्टीट्यूट में रहने वाले इन्सानों और जानवरों पर भी एक ऐसी मायूसी
की भावना हावी थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता. न जाने क्यों मेंढक बडा दर्दभरा राग
छेड़ रहे थे, और ख़ौफ़नाक ढंग से, मानो ख़तरे की चुनौती सी देते हुए टर्र-टर्र कर रहे
थे. पन्क्रात को कॉरीडोर से एक घास के साँप को पकड़ना पड़ा, जो अपने पिंजरे से खिसक
गया था, और, जब उसने उसे पकड़ा, तो ऐसे लगा, मानो साँप कहीं भागने की तैयारी में
था, बस, वहाँ से जाना चाहता था.
देर शाम को
पेर्सिकोव के कैबिनेट की घण्टी बजी. पन्क्रात ड्योढ़ी पर आया. और उसने एक अजीब सी
तस्वीर देखी. कैबिनेट के बीचोंबीच वैज्ञानिक अकेला खड़ा था और मेज़ों की ओर देख रहा
था. पन्क्रात खाँसा और, जैसे जम गया.
“देखो, पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने कहा और खाली मेज़
की ओर इशारा किया.
पन्क्रात बेहद डर
गया. उसे ऐसा लगा कि अंधेरे में प्रोफेसर की आँखें रो रही थीं. ये इतना असाधारण,
इतना डरावना था.
“जी,” पन्क्रात ने रोनी आवाज़ में कहा और सोचा: ‘इससे
बेहतर तो ये होता कि तुम मुझ पर गरजते!’
“ये,” पेर्सिकोव ने दुहराया, और उसके होंठ एक
बच्चे के होंठों जैसे थरथराए, जिससे बिना बात उसके प्यारे खिलौने को छीन लिया गया
हो.
“तुझे मालूम है, प्यारे पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने
खिड़की की ओर मुड़ते हुए आगे कहा, “ मेरी बीबी, जो पन्द्रह साल पहले ऑपेरा में काम
करने के लिए चली गई थी, मगर अब, ऐसा लगता है, कि मर गई है... ये है बात, प्यारे
पन्क्रात...मुझे ख़त भेजा गया है...”
मेंढक बड़ी दयनीयता
से चिल्ला रहे थे, और शाम के अंधेरे ने प्रोफेसर को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, और
अब है...रात. मॉस्को...कहीं कुछ सफ़ेद गोले खिड़की के उस पार जल उठे. ..परेशान सा पन्क्रात
दुखी हो रहा था, डर के मारे अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा था.
“जा, पन्क्रात,” प्रोफेसर ने बोझिल स्वर में कहा
और हाथ हिलाया, “सो जा, प्यारे, दुलारे, पन्क्रात.”
और रात हो गई.
पन्क्रात न जाने क्यों पंजों के बल कैबिनेट से भागा, अपनी कोठरी में आया, कोने में
पड़े चीथड़ों को हटा कर वोद्का की बोतल निकाली और बड़ा गिलास भर के एक ही दम में पी गया.
उसने नमक के साथ ब्रेड खाई और उसकी आँखों में कुछ चमक लौटी.
देर शाम, क़रीब-क़रीब
आधी रात को, पन्क्रात नंगे पैर मद्धिम रोशनी वाले वेस्टिब्यूल में बेंच पर बैठकर फूलदार
कमीज़ के नीचे अपने सीने को खुजाते हुए, ड्यूटी पर तैनात गार्ड-हैट से कह रहा था:
“अच्छा होता अगर मार डालता, ऐ ख़ु...”
”क्या वाक़ई में रो
रहा था?” गार्ड-हैट ने उत्सुकता से पूछा.
“ऐ...ख़ु...” पन्क्रात ने यक़ीन दिलाया.
”महान वैज्ञानिक,” गार्ड-हैट
ने सहमति दिखाई, “ज़ाहिर है कि मेंढक तो बीबी की जगह नहीं ले सकता.”
“किसी हालत में नहीं,” पन्क्रात ने सहमत होते
हुए कहा.
फिर उसने कुछ सोचा और
आगे कहा:
“मैं अपनी बीबी को यहाँ लाने की सोच रहा
हूँ...वह गाँव ही में क्यों बैठी रहे. बस, वह इन साँपों को किसी हालत में बर्दाश्त
न कर पाएगी...”
“क्या कहें, ख़तरनाक किस्म का घिनौनापन है,”
गार्ड-हैट ने सिर हिलाया.
वैज्ञानिक की कैबिनेट से कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी. और उसमें रोशनी
भी नहीं थी. दरवाज़े के नीचे रोशनी का धब्बा भी नहीं था.
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