मिखाइल बुल्गाकव
किस्सा थियेटर का
हिन्दी अनुवाद
आ. चारुमति रामदास
एक मृत व्यक्ति की टिप्पणियाँ
प्रस्तावना
पाठकों को आगाह कर रहा हूँ कि इन टिप्पणियों की रचना से मेरा कोई संबंध
नहीं है और वे मुझे बेहद अजीब और दर्दनाक हालात में प्राप्त हुई हैं.
ठीक सिर्गेइ लिओंतेविच मकसूदव की आत्महत्या
वाले दिन, जो पिछले साल बसंत में कीएव में हुई थी,
मुझे आत्महत्या करने वाले द्वारा भेजा गया एक मोटा पार्सल और एक ख़त मिला जो उसने
पहले ही मुझे भेज दिया था.
पार्सल में ये टिप्पणियाँ थीं, और ख़त भी बड़ा अजीबोगरीब था : सिर्गेइ लिओंतेविच घोषणा कर रहा था कि ज़िंदगी
से बिदा लेते हुए वह अपनी टिप्पणियाँ मुझे सौंप
रहा है, इस उद्देश्य से कि मैं, जो उसका एकमेव मित्र हूँ, इन्हें सुधारूं. अपने हस्ताक्षर करूँ और उन्हें प्रकाशित करूँ.
विचित्र मगर मृत्य से पूर्व प्रकट की गई
इच्छा.
साल भर तक मैं सिर्गेइ लिओंतेविच के
रिश्तेदारों और निकटवर्ती लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करता रहा. व्यर्थ ही
में! मत्यु पूर्व लिखे गए पत्र में उसने झूठ नहीं लिखा था कि इस दुनिया में उसका
कोई नहीं बचा है.
और मैं इस तोहफे को स्वीकार कर लेता हूँ.
अब दूसरी बात: मैं सूचित करता हूँ कि
आत्महत्या करने वाले का न तो नाटकों से और न ही थियेटर से कोइ सम्बन्ध था, वह वही रहा था, “शिपिंग कंपनी समाचार” नामक अखबार का छोटा
सा कर्मचारी, सिर्फ एक बार वह उपन्यास लेखक बना था, मगर उसमें भी असफल रहा – सिर्गेइ लिओंतेविच का उपन्यास प्रकाशित ही नहीं
हुआ.
इस तरह, मकसूदव के नोट्स उसकी कल्पना का ही फल है, और, आह, वह भी बीमार कल्पना का. सिर्गेइ एक बीमारी
से ग्रस्त था, जिसका बड़ा अप्रिय नाम है – उदासी.
मैं, जो मॉस्को की थियेटर की ज़िंदगी को अच्छी तरह जानता हूँ, ग्यारंटी से कहता
हूँ कि कहीं भी ऐसे कोई थियेटर्स, या लोग नहीं हैं, जिन्हें मृतक की रचना में दिखाया गया है, और न ही थे.
और अंत में, तीसरी और आख़िरी बात : नोट्स पर मेरा काम ये था कि मैंने उन्हें शीर्षक दिए, और इसके बाद उस उद्धरण को नष्ट कर दिया जो मुझे कृत्रिम, अनावश्यक और
अप्रिय लग रहा था.
यह उद्धरण था:
“जिसको तिसको उसके कर्मों के हिसाब से...”
और, इसके अलावा, जहाँ जहाँ विराम चिह्न नहीं थे, वहाँ उन्हें रख दिया.
सिर्गेइ लिओंतेविच की शैली को मैंने हाथ नहीं
लगाया, हालांकि वह बेहद अव्यवस्थित है.
वैसे भी, उस आदमी से आप क्या उम्मीद करा सकते हैं, जो इन नोट्स के अंत में पूर्णविराम लगाकर, ‘चेन-ब्रिज’ से सिर के बल कूद गया.
तो.....
अध्याय 1
अजीब
घटनाओं का आरम्भ
29 अप्रैल को तूफानी बारिश ने मॉस्को को धो
दिया, और हवा में मिठास भर गई, और रूह जैसे हल्की हो गई, और जीने को दिल चाहने लगा.
अपने नए, भूरे सूट और काफी बढ़िया ओवरकोट में मैं राजधानी की एक प्रमुख सड़क पर जा
रहा था, उस जगह की और, जहाँ अब तक कभी गया नहीं था. मेरे जाने का
कारण था पॉकेट में पडा हुआ वह ख़त जो मुझे
अकस्मात् मिला था. ये रहा वह ख़त:
“परम आदरणीय सिर्गेई लिओंतेविच!
आपसे मिलने की बेइंतहा ख्वाहिश है, और साथ ही एक रहस्यमय मामले के बारे में बात करने की भी, जो आपके लिए बहुत-बहुत दिलचस्प हो सकता है.
अगर आपके पास समय हो तो बुधवार को चार बजे ‘स्वतन्त्र
थियेटर’ के ट्रेनिंग स्टेज पर आपसे मिलकर बेहद खुशी होगी. .
सादर,
ज़े. ईल्चिन “
ख़त पेन्सिल से कागज़ पर लिखा हुआ था जिसके
बाएँ कोने में छपा हुआ था:
जेवियर बरीसविच ईल्चिन
डाइरेक्टर ट्रेनिंग स्टेज
स्वतन्त्र थियेटर.
ईल्चिन का नाम मैंने पहली बार देखा था, पता नहीं था
कि ट्रेनिंग स्टेज भी होता है.
स्वतन्त्र थियेटर के बारे में सूना था, जानता था कि
वह एक प्रसिद्ध थियेटर है, मगर वहाँ कभी गया नहीं था.
ख़त मुझे बेहद दिलास्प लगा, इसलिए भी कि
तब मेरे पास कभी कोई खत आते ही नहीं थे. मुझे बताना होगा, कि मैं
“शिपिंग” कंपनी के अखबार का एक छोटा-सा कर्मचारी था. उन दिनों मैं खमूतव गली के पास “लाल दरवाज़ा” मोहल्ले में
सातवीं मंजिल पर एक स्वतन्त्र, मगर बेहद बुरे कमरे में रहता था.
तो, ताज़ी हवा
में सांस लेते हुए मैं जा रहा था और सोच रहा था कि तूफानी बारिश फिर आयेगी, और इस बारे
में भी कि ज़ेवियर ईल्चिन को मेरे अस्तित्व के बारे में कैसे पता चला, उसने मुझे
कैसे ढूँढा और उसका मुझसे क्या काम हो सकता है. मगर मैंने कितना ही सोचने की कोशिश
क्यों न की इस आख़िरी बात को समझ नहीं पाया और इस ख़याल पर आकर ठहर गया कि ईल्चिन
मुझसे कमरा बदलना चाहता है.
बेशक, ईल्चिन को
लिखना चाहिए था कि अगर उसे मुझसे काम है, तो वह खुद
मेरे पास आये, मगर कहना पडेगा कि मुझे अपने कमरे, उसके वातावरण, और
आसपास के लोगों के कारण शर्म आ रही थी. आम तौर से, मैं एक अजीब
क़िस्म का आदमी हूँ, और मुझे लोगों से थोड़ा सा डर लगता है. सोचिये, ईल्चिन आता
है और मेरा सोफा देखता है जिसकी सिलाई उधड गई है और स्प्रिंग बाहर निकल रही है, मेज़ पर रखे
लैम्प का कवर अखबार से बनाया गया है, और बिल्ली घूम रही है और
किचन से अन्नूश्का की गालियाँ सुनाई दे रही हैं.
मैं लोहे के नक्काशीदार फाटक में घुसा, वहाँ एक
दुकान देखी जिमें सफेद बालों वाला एक आदमी सीने पर टांकने वाले बैज और चश्मों की
फ्रेम्स बेच रहा था.
शांत गंदली धारा को फांद कर मैंने अपने आप को
एक पीले रंग की बिल्डिंग के सामने पाया और सोचा यह बिल्डिंग बहुत-बहुत पहले बनाई
गई थी, जब न मैं और ना ही ईल्चिन इस दुनिया में थे.
सुनहरे अक्षरों वाला काला बोर्ड यह दर्शा रहा
था कि यहाँ ट्रेनिंग स्टेज है. मैं भीतर गया, और हरे शोल्डर स्ट्रैप्स का जैकेट पहने एक छोटे कद के आदमी ने, जिसके चहरे पर मस्सा था, मेरा रास्ता रोक लिया.
“आपको किससे मिलना है, नागरिक?” उसने संदेह से पूछा और दोनों हाथ फैला दिए
जैसे मुर्गी पकड़ना चाहता हो.
“मुझे डाइरेक्टर ईल्चिन से मिलना है,” अपनी आवाज़ को गुस्ताख बनाते हुए कहा.
देखते-देखते, मेरी आँखों के सामने, आदमी बेहद
बदल गया. उसने हाथ नीचे गिरा लिए और कृत्रिम मुस्कान बिखेरी.
“जेवियर बरीसिच से? अभ्भी लीजिये. कोट दीजिये. गलोश नहीं हैं?”
आदमी ने मेरा कोट इतने एहतियात से लिया, जैसे वह चर्च का कोई बहुमूल्य आवरण हो.
मैं लोहे की सीढी पर चढ़ रहा था, शिरस्त्राण पहने योद्धाओं और उनके नीचे नक्काशी की हुई भयानक तलवारे, वायु-निकासी के सुनहरे, चमचमाते पाइप्स के साथ प्राचीन होलैंड-भट्टियों के रेखाचित्र देखते हुए.
बिल्डिंग खामोश थी, कहीं भी और कोई भी नहीं था, और सिर्फ स्ट्रैप्स वाला आदमी मेरे पीछे-पीछे आ रहा था, और, पलटते हुए मैंने देखा कि वह मेरा ध्यान रख रहा है, मेरे प्रति खामोशी से वफादारी, सम्मान, प्यार, प्रसन्नता प्रदर्शित कर रहा है, कि मैं यहां
आया और वह, हालांकि पीछे-पीछे चल रहा है, मगर मेरा मार्गदर्शन कर रहा है, मुझे वहाँ ले जा रहा है, जहाँ एक अकेला, रहस्यमय जेवियर बरीसविच इल्यिच है. और अचानक अन्धेरा हो गया, होलैंड-भट्टियों
की सफ़ेद चमक लुप्त हो गई, अन्धेरा अचानक घिर आया – उसके पीछे-पीछे
खिडकियों के पीछे दूसरी तूफानी बारिश गरजने लगी. मैंने दरवाज़ा खटखटाया, भीतर गया और आखिर धुंधलके में जेवियर बरीसविच को देखा.
“मकसूदव,” मैंने गरिमापूर्वक कहा.
तभी पल भर के लिए फ़ोस्फोरस के रंग से ईल्यिच
को प्रकाशित करते हुए मॉस्को से कहीं दूर आसमान को चीरते हुए बिजली चमकी.
“तो, ये आप है, प्रिय सिर्गेइ लिओंतिविच!” चालाकी से
मुस्कुराते हुए ईल्चिन ने कहा.
और मेरी कमर से लिपटते हुए ईल्चिन मुझे ठीक
वैसे ही सोफे की तरफ ले गया जैसा मेरे कमरे में था – उसमें से स्प्रिंग भी उसी तरह
बाहर निकल रही थी, जैसी मेरे वाले में थी, - बीचोंबीच.
वैसे आज तक मैं उस कमरे का उद्देश्य नहीं समझ
पाया, जहाँ ये मनहूस मीटिंग हुई थी. सोफा किसलिये?
फर्श पर कोने में कागज़ बिखरे पड़े थे? खिड़की में कपों वाली तराजू क्यों थी? इल्यिच मेरा इंतज़ार इसी कमरे में क्यों कर रहा था, न कि, मिसाल के तौर पर, बगल वाले होंल में, जिसमें दूर, तूफ़ान के धुंधलके में अस्पष्ट रूप से पियानो टिमटिमा रहा था?
और तूफान की गुरगुराहट के बीच जेवियर बरीसविच
ने मनहूसियत से कहा:
“मैंने आपका उपन्यास पढ़ लिया है.”
मैं थरथरा गया.
बात ये है कि...
अध्याय २
न्यूरेस्थिनिया का दौरा
बात यह है कि, “शिपिंग कंपनी” में ‘रीडर’ के मामूली पद पर नौकरी करते हुए, मै इस ‘पद’ से नफ़रत करता था और रात को, कभी-कभी भोर होने तक, अपनी अटारी में बैठकर
उपन्यास लिखता था.
वह अवतरित हुआ था एक रात को, जब एक निराश सपने के बाद मेरी आंख खुली थी.
मुझे अपने पैतृक शहर का सपना आया था, बर्फ, जाडे का मौसम, गृह युद्ध... सपने में मेरे सामने से बर्फीला तूफ़ान गुज़र
रहा था, और उसके बाद प्रकट हुआ एक पुराना पियानो और
उसके पास वे लोग जो अब दुनिया में नहीं हैं. सपने में मेरा अकेलापन मुझे चौंका गया, मुझे खुद पर दया आई. और मैं आंसुओं में जागा. मैंने बत्ती जलाई, धूल भरा लैम्प, जो मेज़ के ऊपर टंगा था. वह मेरी निर्धनता को
प्रकाशित कर रहा था – सस्ती दवात, कुछ किताबें, पुराने अखबारों का गट्ठा. स्प्रिंग की वजह
से बांया हिस्सा दर्द कर रहा था, दिल को भय ने दबोच लिया था. मुझे महसूस हुआ
कि मैं अभी मेज़ पर ही मर जाऊँगा, मृत्यु के दयनीय भय ने मुझे इतना गिरा दिया कि
मैं कराहा, कोई सहायता और मृत्यु से सुरक्षा ढूँढते हुए
उत्सुकता से चारों और देखने लगा. और यह सहायता मुझे मिल गई. बिल्ली हौले से म्याँऊ–म्याँऊ
करने लगी, जिसे मैं कभी फाटक से उठाकर लाया था. जानवर
घबरा गया. एक पल के बाद अखबारों के गट्ठे पर बैठा मेरी और गोल-गोल आंखों से देख
रहा था, पूछ रहा था, - क्या हुआ?
धूसर रंग के दुबले-पतले जानवर को इस बात में
दिलचस्पी थी कि कुछ न हुआ हो. वाकई में इस बूढ़ी बिल्ली को कौन खिलाएगा?
“ ये न्यूरेस्थिनिया का दौरा है,” मैंने बिल्ली को समझाया, “वह मेरे भीतर शुरू हो चुका है, बढ़ता जाएगा और मुझे खा जाएगा. मगर फिलहाल जिया जा सकता है.
बिल्डिंग सो रही थी. मैंने खिड़की में देखा.
पांचों मंजिलों पर एक भी खिड़की से रोशनी नहीं आ रही थी. मैं समझ गया कि यह कोई
रिहायशी बिल्डिंग नहीं बल्कि अनेक स्तरों वाला जहाज़ है, जो स्थिर काले आसमान के नीचे
उड़ रहा है. गति के ख़याल से मैं खुश हो गया. मैं शांत हो गया और बिल्ली ने, आँखे बंद कर लीं.
इस तरह मैंने उपन्यास लिखना शुरू किया. मैंने
उनींदे बर्फीले तूफ़ान का वर्णन किया. यह वर्णन करने की कोशिश की कि लैम्प-शेड के
नीचे पियानो का कोना कैसे चमक रहा है. यह मुझसे नहीं हो पाया. मगर मैं जिद पे उतर
आया.
दिन में मैं एक बात की कोशिश करता – अपने
ज़बरदस्ती के काम पर जहाँ तक संभव हो, कम शक्ति खर्चा करूँ. मैं उसे यंत्रवत करता, इस तरह कि वह दिमाग पर बोझ न डाले. मौक़ा मिलते ही मैं बीमारी का बहाना
बनाकर काम से गायब हो जाता. लोग, बेशक, मुझ पर विश्वास नहीं करते, और मेरी ज़िंदगी अप्रिय हो गई. मगर फिर भी मैं बर्दाश्त करता रहा और
धीरे-धीरे खींचता रहा. ठीक उसी तरह, जैसे एक बेसब्र छोकरा मिलन की घड़ी का इंतज़ार करता है, मैं रात के एक बजे
का इंतज़ार करता. इस वक्त नासपिटी बिल्डिंग शांत हो चुकी होती. मैं मेंज़ पर बैठ
जाता... उत्सुक बिल्ली अखबार पर बैठ जाती, मगर उपन्यास उसे बेहद आकर्षित कर रहा था, और वह अखबार के पन्ने से पूरी तरह लिखे हुए पन्ने पर बैठ जाती. और मैं
उसकी गर्दन पकड़कर उसे वापस उसकी जगह पर रख देता.
एक बार रात को मैंने सिर उठाया और चौंक गया.
मेरा जहाज़ कहीं भी नहीं उड रहा था, बिल्डिंग अपनी जगह पर ही थी, और पूरी तरह
उजाला हो चुका था. लैम्प कुछ भी प्रकाशित नहीं कर रहा था, बल्कि अप्रिय और चिड़चिड़ा लग रहा था. मैंने
उसे बुझा दिया और मेरे सामने भोर के प्रकाश में
बदहवास कमरा प्रकट हो गया. सीमेंट के आँगन में चोरों जैसी बेआवाज़ चाल से
रंग बिरंगी बिल्लियाँ घूम रही थी. पन्ने पर लिखा हर शब्द बगैर किसी लैम्प के देखा
जा सकता था.
“खुदा! ये अप्रैल है!” न जाने क्यों घबराहट
से मैं चहका, और मोटे-मोटे शब्दों में लिखा दिया: “
समाप्त.”
सर्दियाँ ख़त्म हो गई, बर्फीले तूफ़ान ख़त्म हो
गए, ठंड ख़त्म हो गई. सर्दियों में मैंने अपने जो
भी थोड़े बहुत परिचित थे, उन्हें खो दिया, बेहद खस्ताहाल हो गया, जोड़ों के दर्द से बीमार रहा और कुछ जंगली
जैसा हो गया. मगर हजामत मैं रोज़ करता था.
इस सब के बारे में सोचते हुए मैंने बिल्ली को
आँगन में छोड़ दिया, इसके बाद वापस आया और सो गया - लगता है - सर्दियों में पहली
बार – बिना किसी सपने के. उपन्यास को लम्बे समय तक सुधारना पडेगा. कई स्थानों को
हटाना होगा, सैंकड़ों शब्दों को दूसरे शब्दों से बदलना
होगा. काफी बड़ा, मगर ज़रूरी काम है!
मगर मुझ पर लालच सवार हो गया, और, पहले छः पृष्ठों को सुधारने के बाद, मैं लोगों के बीच आया. मैंने
मेहमानों को बुलाया. उनमें “शिपिंग कंपनी” के दो पत्रकार थे, वैसे ही कामगार, जैसा मैं था, उनकी बीबियाँ और दो साहित्यकार थे. एक- जवान था, जिसने मुझे इस बात से चकित किया था कि वह लाजवाब आसानी से कहानियाँ लिखता
था, और दूसरा – अधेड उम्र का, दुनिया देख चुका आदमी, जो घनिष्ठ परिचय के बाद खतरनाक रूप से हरामी
साबित हुआ.
एक ही शाम को मैंने अपने उपन्यास का करीब एक
चौथाई भाग पढ़ दिया. बीबियाँ तो इस पठन से इतनी पस्त हो गईं कि मेरी आत्मा मुझे
कचोटने लगी. मगर पत्रकार और साहित्यकार धैर्यवान आदमी निकले. उनके निष्कर्ष भाईचारे
की दृष्टी से ईमानदार, काफी गंभीर और, जैसा कि मैं अब समझ रहा हूँ, उचित ही थे.
“भाषा!” साहित्यकार (जो, हरामी निकला) चीखा, “भाषा, ख़ास बात है! भाषा किसी काम की नहीं है.” वह वोद्का का बडा पैग पी गया, सार्डीन गटक गया. मैंने उसे दूसरा पैग दिया.
वह उसे पी गया, सोंसेज का टुकड़ा खाया.
“रूपक!” खाने के बाद चिल्लाया.
“हाँ,” नौजवान साहित्यकार ने शराफत से पुष्टि
की, “भाषा कमजोर है.”
पत्रकारों ने कुछ नहीं कहा, मगर संवेदना से सिर हिला दिए, पी गए. महिलाओं ने सिर नहीं हिलाए, वे कुछ नहीं बोलीं, ख़ास तौर से उनके लिए खरीदी गई पोर्ट वाइन से
इनकार कर दिया और वोद्का ही पी.
“कैसे नहीं होगी कमजोर,” अधेड़ आदमी चीखा, “
रूपक कोई कुत्ता तो नहीं है, कृपया इसे ‘नोट’ करें! उसके बिना सब ‘नंगा’ है! नंगा! एकदम नंगा! यह बात याद रख, बुढ़ऊ!”
ये “बुढ़ऊ” ज़ाहिर है, मेरे ही लिए था. मैं जैसे जम गया.
बिदा लेते हुए ये तय किया कि मेरे यहां फिर
आयेंगे. और एक हफ्ते बाद वे फिर मौजूद थे.
मैंने दूसरा भाग पढ़ा. उस शाम की ख़ास बात ये
थी कि अधेड़ साहित्यकार एकदम अप्रत्याशित रूप से और मेरी मर्जी के खिलाफ मेरे साथ
‘बुदरशैफ्ट’ पी गया और मुझे “लिओंतिच” कहने लगा/
“भाषा किसी काम की नहीं है! मगर दिलचस्प है.
शैतान खा जाए ( ये मेरे लिए था)! बेहद दिलचस्प!” दूस्या की बनाई जैली खाते हुए
अधेड आदमी चीखा.
तीसरी शाम को एक नया आदमी प्रकट हुआ. वह भी
साहित्यकार था – मेफिस्तोफिलीस जैसे दुष्ट चेहरे वाला, बाईँ आंख टेढ़ी, बिना हजामत के. बोला कि उपन्यास बुरा है, मगर उसने चौथा और अंतिम भाग सुनने की इच्छा प्रकट की. और, एक तलाकशुदा बीबी थी, और खोलबंद गिटार वाला एक आदमी. इस शाम को मैंने काफी
कुछ ज्ञान प्राप्त किया, जो मेरे लिए उपयोगी था. “शिपिंग कंपनी” के
मेरे विनम्र कोम्रेड्स को बढ़ते हुए समूह की आदत हो गई और उन्होंने भी अपने विचार
प्रकट किये. एक ने कहा, कि सत्रहवां अध्याय काफी लंबा खिंच गया है, दूसरे ने कहा कि वासेन्का के पात्र का चित्रण पर्याप्त स्पष्टता से नहीं
किया गया है. दोनों ही बातें सही थीं.
चौथी और अंतिम वाचन-संध्या का आयोजन मेरे
यहाँ नहीं, बल्कि नौजवान साहित्यकार के घर हुआ, जो बड़ी
कुशलता से कहानियाँ लिखता था. यहाँ करीब बीस लोग थे, और साहित्यकार की दादी से भी मेरा परिचय हुआ, जो बहुत प्यारी वृद्धा थी, मगर जिसे सिर्फ एक चीज़ बिगाड़ रही थी – भय का भाव, जो न जाने क्यों पूरी शाम उस पर हावी था. इसके अलावा मैंने “नर्स” को भी
देखा जो संदूक पर सो रही थी.
उपन्यास समाप्त हो गया था. और तभी विपदा आ
टपकी. सभी श्रोताओं ने एक सुर में कहा कि मेरा उपन्यास प्रकाशित नहीं हो सकता, क्योंकि सेन्सर उसे प्रमाणित नहीं करेगा.
मैंने यह शब्द पहली बार सुना था और तभी मैंने
महसूस किया कि उपन्यास लिखते समय मैंने एक भी बार इस बारे में नहीं सोचा कि सेन्सर
उसे “पास” करेगा या नहीं.
शुरुआत एक महिला ने की (बाद में मुझे पता चला
कि वह भी तलाकशुदा बीबी थी). उसने यूं कहा:
“ये बताइये, मक्सूदव, क्या आपका उपन्यास ‘पास’ कर देंगे?”
“ना-ना-ना!” अधेड़ उम्र का साहित्यकार चहका. “
किसी हालत में नहीं! ‘पास’ करने के बारे में तो बात ही नहीं हो सकती. इसकी तो, बस, कोई भी उम्मीद नहीं है. बुढऊ, परेशान न हो - ‘पास’ नहीं करेंगे.”
“‘पास’ नहीं करेंगे!” मेज़ का छोटा सिरा कोरस
में चिल्लाया.
“भाषा...” उसने शुरुआत की, जो गिटार वाले का
भाई था, मगर अधेड़ उम्र वाले ने उसकी बात काटते हुए
कहा:
“भाड़ में जाए भाषा!” अपनी प्लेट में सलाद
रखते हुए वह चीखा, “बात भाषा की नहीं है. बुढऊ ने बुरा, मगर दिलचस्प उपन्यास लिखा है. तुझमें, बदमाश, निरीक्षण शक्ति है. और ये सब कहाँ से आया!
ज़रा भी उम्मीद नहीं थी, मगर!... विषयवस्तु!”
“हुम् , विषयवस्तु...”
“खास तौर से विषयवस्तु,” नर्स को परेशान करते
हुए अधेड़ आदमी चिल्लाया, “तुम्हें पता है कि किस चीज़ की माँग की जाती है? नहीं पता? अहा! वही तो – वही तो!”
उसने आँख मारी. साथ ही पीता भी रहा. इसके बाद
उसने मुझे गले लगा लिया और चिल्लाते हुए चूम लिया:
“तुझमें कोई अप्रिय बात है, मेरा यकीन कर! तू मुझ पर पक्का यकीन कर, मगर मैं तुझसे प्यार करता हूँ.
प्यार करता हूँ, चाहे तू मुझे मार ही क्यों न डाले! शरारती
है यह बदमाश! चालू इंसान है! आँ? क्या? क्या आपने चौथे अध्याय पर गौर किया? वह नायिका से क्या कह रहा था? वही - वही तो!...”
“सबसे पहले, ये कैसी बात कर रहे हैं,” उसकी घनिष्ठता से परेशानी महसूस करते हुए मैंने
कहा.
“पहले तुम मुझे चूमो,” अधेड़ साहित्यकार चिल्लाया, “नहीं चाहता? देखते ही पता चल जाता है कि तू कैसा कॉम्रेड
है! नहीं, भाई, तू सीधा आदमी नहीं है!”
“बेशक, सीधा नहीं है!” दूसरी तलाकशुदा बीबी
ने उसका समर्थन किया.
“पहली बात,” मैंने फिर से कडवाहट से शुरू किया, मगर इससे कुछ भी हासिल न हुआ.
“कोई पहली-वहली बात नहीं!” अधेड़ साहित्यकार
चीखा, “और तुझमें दस्तयेव्स्कियत बैठी है! हाँ---!
चल, ठीक है, तू मुझसे प्यार नहीं करता, इसके लिए खुदा तुझे माफ करेगा, मैं तुझ पर गुस्सा नहीं हूँ. मगर हम सब तुमसे सचमुच में प्यार करते हैं, और तेरा भला चाहते हैं!” अब उसने गिटार वाले के भाई और लाल चहरे वाले एक अन्य
व्यक्ति की और इशारा किया जो मेरे लिए अनजान था. जिसने आते ही देरी से आने के लिए
माफी मांगी थी, यह कहकर कि वह सेन्ट्रल बाथ-हाउस में गया था. “और मैं तुझसे
साफ-साफ कहता हूँ,” अधेड़ साहित्यकार कहता रहा, “क्योंकि मैं सबके सामने खुल्लमखुल्ला कहता हूँ , इस उपन्यास को लेकर तुम
कहीं भी न जाना. अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लोगे और हमें, तुम्हारे दोस्तों को
तुम्हारी परेशानियों के खयाल से तकलीफ होगी. तू मेरा यकीन कर! मैंने कई कड़वे अनुभव
झेले हैं. ज़िंदगी को जानता हूँ! ये लो,” वह अपमान से चीखा और इशारे से सबको गवाही के लिए बुलाया, “देखिये : मेरी तरफ भेडिये जैसी आंखों से देख रहा है. ये है अच्छे बर्ताव
का उपहार! लिओंतिच!” वह इतनी जोर से चीखा कि परदे के पीछे सो रही नर्स संदूक से उठ
गई. “समझ ले! तू समझ ले कि तेरे उपन्यास की कलात्मक विशेषताएँ इतनी महान भी नहीं
हैं, (अब दीवान से गिटार का हल्का सुर सुनाई
दिया), कि उसके कारण तू सूली पर चढ़ जाए. समझ ले!”
“तू स-मझ, समझ, समझ!” गिटार वाला प्यारे सुर में गा उठा.
“और मैं तुझसे कहता हूँ,” अधेड उम्र वाला चीखा, “अगर तुम फ़ौरन मुझे चूमोगे नहीं, तो मैं उठ जाऊँगा, चला जाऊँगा, दोस्तों की महफ़िल से निकल जाऊँगा,
क्योंकि तुमने मेरा अपमान किया है!”
अवर्णनीय पीड़ा का अनुभव करते हुए मैने उसे
चूमा. कोरस इस समय बहुत बढ़िया गा रहा था, और ऊँची सुरीली आवाज़ नजाकत से और सहजता से अन्य आवाजों के ऊपर तैर रही थी:
तू-ऊ समझ ले, समझ ले...”
बगल में भारी पांडुलिपि दबाये, मैं बिल्ली की तरह चुपके से क्वार्टर से बाहर निकल गया.
आंसुओं से भरी लाल-लाल आंखों से नर्स, झुककर,
किचन में नल से पानी पी रही थी.
न जाने क्यों मैंने नर्स की और एक रूबल बढ़ा
दिया.
“चलो,” नर्स ने रूबल झपटते हुए कड़वाहट से कहा, “रात के तीन बज चुके हैं! ओह, ये दोज़ख जैसी तकलीफ है.”
अब कोरस को चीरती हुई जानी पहचानी आवाज़ चीखी:
“वो है कहाँ? भाग गया? उसे पकड़ो! आप देख रहे हैं, कॉम्रेड्स...”
मगर मोमजामे के कपड़े से ढंके दरवाजे ने मुझे
आजाद कर दिया था, और मैं बिना इधर-उधर देखे भाग रहा था।
अध्याय 3
मेरी आत्महत्या
“हाँ, ये खौफ़नाक है,” अपने कमरे में मैंने अपने आप से कहा, “सब कुछ खौफनाक है.”
“वो सलाद, और वो नर्स, और अधेड़ साहित्यकार, और अविस्मरणीय “समझ ले”, और आम तौर से मेरी पूरी ज़िंदगी.
खिड़कियों के बाहर पतझड की हवा चिंघाड़ रही थी,
फटी हुई लोहे की चादर गरज रही थी, शीशों पर बारिश की धाराएँ रेंग रही थी. नर्स और गिटार के साथ वाली शाम के
बाद काफी घटनाएँ घटी थीं, मगर इतनी घिनौनी
कि उनके बारे में लिखने की इच्छा नहीं है. सबसे पहले मैं उपन्यास को इस दृष्टिकोण
से जाँचने में लग गया कि उसे ‘पास’ करेंगे या नहीं. और यह स्पष्ट हो गया कि ‘पास’ नहीं करेंगे. अधेड साहित्यकार बिल्कुल सही था. इस बारे में, जैसा मुझे महसूस हुआ, उपन्यास की हर पंक्ति चीखा-चीखकर कह रही थी.
उपन्यास को सुधारने के बाद मैंने बचे खुचे
पैसे दो अंशों की नकल करवाने में खर्च कर दिए और उन्हें लेकर एक मोटी पत्रिका के
सम्पादक के पास ले गया. दो सप्ताह बाद मुझे वे अंश वापस मिल गए. हस्तलिखित के कोने
पर लिखा था : “उपयुक्त नहीं है”.
इस निर्णय को नाखून काटने वाली कैंची से
काटकर मैं उन्हीं अंशों को दूसरी मोटी पत्रिका में ले गया और दो सप्ताह बाद वे
मेरे पास उसी निर्णय के साथ लौट आए, “उपयुक्त नहीं है”.
इसके बाद मेरी बिल्ली मर गई. उसने खाना बंद
कर दिया, एक कोने में दुबकी रहती और मुझे बेज़ार करते
हुए म्याँऊ-म्याँऊ करती रहती. चौथे दिन मैंने उसे कोने में करवट के बल
निश्चल पडा पाया.
मैंने चौकीदार से फावड़ा लिया और उसे हमारी
बिल्डिंग के पीछे खाली जगह में दफना दिया.
मैं धरती पर पूरी तरह अकेला रह गया, मगर, मानता हूँ , कि दिल की गहराई में कहीं खुश
हो गया. अभागा प्राणी कितना बोझ था मेरे लिए. और फिर पतझड़ की बारिश शुरू हुई, मेरा कंधा और बायाँ घुटना दर्द करने लगा.
मगर सबसे बुरी बात यह नहीं थी, बल्कि वो थी, कि उपन्यास बुरा था. अगर वह बुरा था, तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरी ज़िंदगी ख़त्म हो रही है.
पूरी ज़िंदगी “शिपिंग कंपनी” में नौकरी करता
रहूँ, “आप मज़ाक कर रहे हैं.”
हर रात मैं घुप अँधेरे में आंखें फाड़े लेटा
रहता, और दुहराता रहता – “ये खौफनाक है”. अगर कोई
मुझसे पूछता, कि “शिपिंग कंपनी” मे, गुजारे [cR1] हुए समय के बारे में कितना याद है, तो मैं सच्चे दिल से जवाब देता – कुछ भी नहीं. हैंगर के पास गंदे गलोश (रबड
के ऊपरी जूते – अनु.) और हैंगर पर किसी की सबसे लम्बे कानों वाली गीली टोपी –
बस इतना ही.
“ये खौफनाक है!” कानों में भिनभिनाती रात की
खामोशी को सुनते हुए मैंने दुहराया.
करीब दो सप्ताह बाद अनिद्रा ने अपना असर
दिखाना शुरू किया.
मैं ट्राम से समातेच्नाया-सदोवाया स्ट्रीट के
लिए निकल पडा, जहां एक बिल्डिंग में, जिसका नंबर मैंने अति गुप्त रखा है, एक आदमी रहता था, जिसे अपने काम के सिलसिले में हथियार रखने
का अधिकार प्राप्त था.
किन परिस्थितियों में हमारा परिचय हुआ यह
महत्त्वपूर्ण नहीं है/
क्वार्टर में प्रवेश करने पर मैंने अपने
दोस्त को दीवान पर लेटे हुए पाया.
जब तक वह किचन में स्टोव्ह पर चाय गरम कर रहा
था, मैंने लिखने की मेज़ की बाईं दराज़ खोली और
वहाँ से ब्राउनिंग (पिस्तौल) चुराई, फिर चाय पी और अपने घर निकल गया.
रात के करीब नौ बज रहे थे. मैं घर पहुँचा. सब
कुछ हमेशा की तरह ही था.
किचन से रोस्ट-मटन की गंध आ रही थी, कॉरीडोर में सदाबहार, मेरा जाना-पहचाना कोहरा था, उसमें से छत के नीचे
टिमटिमाता हुआ बल्ब जल रहा था, मैं अपने कमरे में आया. रोशनी ऊपर की ओर भभकी और
फ़ौरन कमरा अँधेरे में खो गया. बल्ब जल गया था.
“सारी मुसीबतें एक के बाद एक आ रही थीं, और सब कुछ बिलकुल सही था,” मैंने संजीदगी से कहा.
मैंने फर्श पर कोने में कैरोसिन का लैम्प
जलाया. एक कागज़ पर लिखा:
“एतद् द्वारा सूचित करता हूँ, कि ब्राउनिंग नं. (नंबर भूल गया), जैसे, कि फलाँ-फलाँ, मैंने पर्फ्योंन इवान वसील्येविच विच के घर
से चुराई है (उसका कुलनाम, बिल्डिंग नं., स्ट्रीट, सब कुछ वैसे ही लिखा, जैसा होना चाहिए)”
हस्ताक्षर कर दिए, केरोसिन लैम्प के पास फर्श पर लेट गया. मौत के डर ने मुझे दबोच लिया. मरना
ख़ौफ़नाक है. तब मैंने अपने कॉरीडोर की, मटन की और अधेड़ उम्र वाले की और “शिपिंग
कंपनी” की कल्पना की, इस खयाल से खुश हो गया की कैसे धड़ाम-धड़ाम करते हुए मेरे कमरे
का दरवाजा तोड़ेंगे वगैरह.
मैंने नली को कनपटी पर रखा, गलत उंगली से ट्रिगर ढूंढता रहा. इसी समय नीचे से काफी जानी-पहचानी आवाजें
सुनाई दीं, भर्राई हुई आवाज़ में ओर्केस्ट्रा बज उठा, और ग्रामोफोन में ऊँची आवाज़ गाने लगी:
मगर क्या खुदा मुझे सब कुछ वापस देगा?!
“मेरे प्यारों! “फाऊस्ट”! – मैंने सोचा. “ ओह, ये तो, वाकई में बिलकुल सही वक्त पर आया है. मगर
मेफिस्टोफेल के आने का इंतज़ार कर लेता हूँ. आख़िरी बार. बाद में फिर कभी नहीं
सुनूंगा”.
ओर्केस्ट्रा फर्श के नीचे कभी गुम हो जाता, कभी प्रकट हो जाता, मगर ऊँची आवाज़ जोर-जोर से गाये जा रही थी.
शाप देता हूँ मैं ज़िंदगी, विश्वास और सभी विज्ञानों को!
“अभी, अभी,” मैं सोच रहा था, “मगर वह कितनी जल्दी गा रहा है...”
ऊँची आवाज़ बदहवासी से चीखी, इसके बाद ओर्केस्ट्रा गरज उठा.
थरथराती ऊँगली ट्रिगर पर पडी थी, और इसी पल गरज ने मुझे बहरा कर दिया, दिल शायद कहीं गम हो गया, मुझे लगा कि केरोसिन के लैंप की लौ छत पर उड़ गई
है, मैंने रिवॉल्वर गिरा दिया.
गरज फिर से सुनाई दी. नीचे से भारी, नीची
आवाज़ आई:
“लो, मैं आ गया!”
मैं दरवाज़े की और मुडा.
अध्याय – ४
मैं तलवार के साथ
दरवाज़े पर खटखट हो रही थी. जोर से और बार-बार. मैंने रिवोल्वर को पतलून की पॉकेट
में घुसा दिया और मरियल आवाज़ में
चिल्लाया:
“अन्दर आ जाइए!”
दरवाज़ा खुल गया, और मैं डर के मारे फर्श पर जम गया. ये वो ही था, बिना किसी शको-शुबहे के. धुंधलके में मेरे
ऊपर दबंग नाक और छितरी भौंहों वाला एक चेहरा था. परछाईयाँ खेल रही थीं और मुझे ऐसा
लगा कि चौकोर ठोढी के नीचे काली दाढ़ी का नुकीला सिरा बाहर निकल रहा था. टोपी बड़ी
अदा से कान के ऊपर मुडी हुई थी. मगर पेन, वाकई में नहीं था.
संक्षेप में कहूं तो, मेरे सामने
खडा था मेफिस्तोफेलस. अब मैंने देखा कि वह ओवरकोट और चमचमाते गहरे गलोशों में था,
और बगल में ब्रीफकेस दबाये है. “ये स्वाभाविक है,” मैंने सोचा, “बीसवीं सदी में वह किसी और अवतार में मॉस्को
में घूम ही नहीं सकता.”
“रुदल्फी,” दुष्ट आत्मा ने ऊँची आवाज़ में कहा, न कि भारी आवाज़ में
वैसे, वह मुझे
अपना परिचय नहीं भी दे सकता था. मैं उसे पहचान गया था. मेरे कमरे में तत्कालीन
साहित्य जगत के सबसे मशहूर व्यक्तियों में से एक, इकलौती निजी पत्रिका, ‘रोदिना’ का सम्पादक-प्रकाशक – इल्या इवान
वसील्येविच विच रुदल्फी खडा था.
मैं फर्श से उठा.
“क्या बल्ब जला सकते हैं?” रुदल्फी ने
पूछा.
“अफसोस है, कि ऐसा नहीं
कर सकता,” मैंने जवाब
दिया, “क्योंकि
बल्ब फ्यूज़ हो गया है, और दूसरा
मेरे पास नहीं है.”
सम्पादक का रूप धारण की हुई दुष्टात्मा ने अपना एक आसान सा कारनामा किया –
फ़ौरन ब्रीफकेस से बल्ब निकाला.
“क्या आप हमेशा अपने साथ बल्ब रखते हैं?” मुझे आश्चर्य हुआ.
“नहीं,” आत्मा ने
गंभीरता से स्पष्ट किया, “सिर्फ
इत्तेफाक है, मैं अभी-अभी
दूकान में गया था.”
जब कमरे में उजाला हो गया और रुदल्फी ने ओवरकोट उतारा, तो मैंने चालाकी से रिवॉल्वर
चुराने की स्वीकृति वाला ‘नोट’ मेंज़ से हटा
दिया, और आत्मा ने
ऐसे दिखाया कि उसने इस पर ध्यान नहीं दिया है.
बैठ गए. थोड़ी देर खामोश रहे.
“क्या आपने उपन्यास लिखा है?” आखिरकार
रुदल्फी ने कठोरता से पूछा.
“आप कैसे जानते हैं?”
“लिकास्पास्तव ने बताया.”
“देखिये,” मैंने
बोलना शुरू किया (लिकास्पास्तव वही अधेड उम्र वाला है), “वाकई में, मैंने...मगर...संक्षेप में ये बुरा उपन्यास
है.”
“तो,” आत्मा ने
कहा और गौर से मेरी और देखा. अब पता चला कि उसकी कोई दाढ़ी-वाढी नहीं थी. परछाइयां
मज़ाक कर रही थीं.
“दिखाइये,”
अधिकारपूर्ण स्वर में रुदल्फी ने कहा.
“किसी हाल में नहीं,” मैंने जवाब
दिया.
“दि-खा-इ-ये,” रुदल्फी ने
हिज्जों में कहा.
“उसे सेन्सर पास नहीं करेगा...”
“दिखाइये”
“वह, पता है, हाथ से लिखा हुआ है, और मेरी लिखाई बहुत बुरी है, शब्द “ओ” सिर्फ एक डंडी की तरह निकलता है, और...”
और मुझे खुद को ही पता नहीं चला कि कैसे मेरे हाथों ने वह दराज़ खोली, जिसमें बदनसीब उपन्यास पडा था.
“मैं हर तरह की लिखाई को छपे हुए अक्षरों की तरह पढ़ लेता हूँ,” रुदल्फी ने
स्पष्ट किया, “यह
व्यावसयिक है...” और नोट-बुक्स उसके हाथों में नज़र आईं.
एक घंटा बीता. मैं केरोसिन स्टोव्ह के पास बैठा पानी गरम कर रहा था, और रुदल्फी उपन्यास पढ़ रहा था. मेरे दिमाग
में कई विचार घूम रहे थे. सबसे पहले मैं रुदल्फी के बारे में सोच रहा था. ये बताना
पडेगा कि रुदल्फी जाना-माना सम्पादक था और उसकी पत्रिका में छपना प्रसन्नता और
सम्मान की बात समझी जाती थी. मुझे इस बात से खुशी होनी चाहिए थी कि सम्पादक मेरे
यहाँ आया था, चाहे
मेफिस्तोफेलस के रूप में ही सही. मगर दूसरी तरफ, उपन्यास उसे पसंद नहीं आ सकता था, और यह अप्रिय बात होती...इसके अलावा, मैं महसूस कर सकता था कि आत्महत्या, जो सबसे दिलचस्प क्षण में बाधित हो गई थी, अब न हो पायेगी, और इसके फलस्वरूप, मैं कल से फिर गरीबी के
गर्त में डूब जाऊंगा. इसके अलावा चाय पेश करनी थी, मगर मेरे पास मक्खन नहीं था. मतलब, दिमाग में बेहद गड़बड़ हो रही थी, जिसमें बेकार ही में चुराई गई रिवॉल्वर भी
शामिल हो गई थी.
इस बीच रुदल्फी एक के बाद एक पन्ने जैसे निगलता जा रहा था, और मैं बेकार ही यह जानने की कोशिश कर रहा
था कि उपन्यास का उस पर क्या असर हो रहा है. रुदल्फी का चेहरा भावहीन था.
जब वह चश्मे के कांच पोंछने के लिए कुछ रुका, तो मैंने पहले ही कही हुई बेवकूफियों में एक
और जोड़ दी:
“और,
लिकास्पास्तव ने मेरे उपन्यास के बारे में क्या कहा?”
“उसने कहा, कि यह
उपन्यास बहुत बुरा है,” रुदल्फी ने
ठंडेपन से जवाब देकर पन्ना पलटा. (“ देखा, कैसा सूअर है लिकास्पास्तव! अपने दोस्त की मदद करने के बदले वगैरह, वगैरह.”)
रात के एक बजे हमने चाय पी, और दो बजे रुदल्फी ने आख़िरी पन्ना पढ़ लिया.
मैं दीवान पर कसमसा रहा था.
“तो,” रुदाल्फी ने कहा.
कुछ देर खामोशी रही.
“टॉल्स्टॉय की नक़ल करते हैं,” रुदाल्फी
ने कहा.
मैं गुस्सा हो गया.
“कौन से वाले टॉल्स्टॉय की?” मैंने
पूछा. “वे बहुत सारे हैं,... क्या
अलेक्सेइ कन्स्तान्तीनविच, मशहूर लेखक की, प्योत्र अन्द्रेयेविच की, जिसने विदेश
में राजकुमार अलेक्सेइ को पकड़ लिया था, मुद्राशास्त्री इवान वसील्येविच इवान
वसील्येविच विच की या ल्येव निकालाइच की?”
“आप कहाँ पढ़े हैं?”
यहाँ मुझे एक छोटा सा रहस्य खोलना पडेगा. बात ये है, कि मैंने विश्वविद्यालय में दो विषय किये थे
और इस बात को छुपाया था.
“मैंने पैरिश स्कूल (चर्च का स्कूल) पूरा किया है,” मैंने खांस कर कहा.
“क्या बात है!” रुदल्फी ने कहा, और हल्की मुस्कुराहट उसके होठों को छू गई.
फिर उसने पूछा:
“आप हफ्ते में कितनी वार ‘शेव’ करते हैं?”
“सात बार”.
“बदतमीजी के लिए माफी चाहता हूँ,” रुदल्फी ने अपनी बात जारी रखी, “और आपका हेयर स्टाइल ऐसा रहे, इसके लिए आप क्या करते हैं?”
“सिर पर ब्रिओलिन लगाता हूँ. मगर मुझे पूछने की इजाज़त दीजिये कि यह सब
किसलिए...”
“खुदा के लिए,” रुदल्फी ने
जवाब दिया, “मैंने
सिर्फ यूँ ही,” और आगे
बोला, “दिलचस्प
बात है. इंसान ने पैरिश स्कूल पूरा किया है, हर दिन शेव करता है और केरोसिन लैम्प के पास फर्श पर सोता है. आप – मुश्किल
इंसान हैं!” इसके बाद उसने फौरन आवाज़ बदली और संजीदगी से कहने लगा: “आपका उपन्यास “ग्लावलिट्”
‘पास’ नहीं करेगा, और इसे कोई भी प्रकाशित नहीं करेगा. इसे न
तो “ज़ोरी” में, और न ही “रास्स्वेत” में स्वीकार करेंगे.”
“मुझे मालूम है,” मैंने
दृढ़ता से कहा.
“मगर फिर भी मैं आपका उपन्यास ले रहा हूँ,” रुदल्फी ने सख्ती से कहा (मेरे दिल की धड़कन
रुक गई), - “और आपको (अब उसने खतरनाक रूप से छोटी रकम बताई, भूल गया कि वह क्या थी) प्रति पृष्ठ की दर
से भुगतान करूंगा. कल इसे टाइपराइटर पर टाइप कर दिया जाएगा.
“उसमें चार सौ पृष्ठ हैं!” मैं भर्राई आवाज़ में चहका.
“मैं उसे कई हिस्सों में विभाजित करूंगा,” खनखनाती आवाज़ में रुदल्फी बोल रहा था, “और ब्यूरो में बारह टाइपिस्ट शाम तक टाइप
कर देंगे.”
अब मैंने विरोध करना छोड़ दिया और रुदल्फी की आज्ञा मानने का फैसला कर लिया.
“पत्र व्यवहार आपके खर्चे पर,” रुदल्फी
कहता रहा, और मैंने सिर्फ सिर हिला दिया, किसी मूर्ती की तरह, “ इसके बाद
तीन शब्द मिटाने पड़ेंगे – पृष्ठ क्रमांक एक, इकहत्तर और तीन सौ दो पर.”
मैंने अपनी नोटबुक्स में झांका और देखा, कि पहला शब्द था “क़यामत”, दूसरा –
“स्वर्गदूत” और तीसरा – “शैतान”. मैंने
चुपचाप उन्हें मिटा दिया; सही में, मैं कहना
चाह रहा था कि हटाये गए शब्द बेहद मासूम हैं, मगर मैंने रुदल्फी की और देखा और खामोश रहा.
“इसके बाद,” रुदल्फी ने
आगे कहा, “आप मेरे
साथ ग्लावलिट् आयेंगे. और मैं आपसे नम्रतापूर्वक विनती करता हूँ, कि आप वहाँ एक भी शब्द नहीं बोलेंगे.”
फिर भी, मैं बुरा मान
ही गया.
“अगर आप को डर है कि मैं कुछ कह बैठूंगा,” मैं आत्म सम्मान से बुदबुदाने लगा, “तो मैं घर पे ही बैठ सकता हूँ....”
रुदल्फी ने मेरे इस आक्रोश के प्रयास पर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे कहा:
“नहीं, आप घर में
नहीं बैठ सकते, बल्कि मेरे
साथ जायेंगे.”
“मैं वहाँ करूंगा क्या?”
“आप कुर्सी पर बैठे रहेंगे,” रुदल्फी ने
हुक्म दिया, “और उस सबका
जवाब, जो आपसे कहा जाएगा, विनम्र मुस्कान
से देंगे...”
“मगर...”
“और वार्तालाप करूंगा मैं!” रुदल्फी ने अपनी बात ख़त्म की.
इसके बाद उसने कोरा कागज़ माँगा, उसके ऊपर पेन्सिल से कुछ लिखा, जिसमें, जहाँ तक मुझे याद है, कुछ पॉइंट्स (बिंदु) थे, खुद उस पर हस्ताक्षर किये, मुझे भी हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया, इसके
बाद पॉकेट से दो करकराते नोट निकाले, मेरी नोटबुक्स को अपनी ब्रीफकेस में रखा, और वह कमरे से गायब हो गया.
मैं पूरी रात सो नहीं पाया, कमरे में
घूमता रहा, रोशनी में
नोटों को देखता रहा, ठंडी चाय पी
और किताबों की दुकानों की शेल्फ्स की कल्पना करता रहा.
दूकान में बहुत सारे लोग आते रहे, मैगजीन का अंक माँगते रहे. घर-घर में लोग लैम्पों के पास बैठकर किताब पढ़ते
रहे, कुछ लोग तो जोर से पढ़ रहे थे.
हे भगवान! कैसी बेवकूफी है, कैसी
बेवकूफी! मगर तब मैं काफी जवान था, मुझ पर
हंसने की ज़रुरत नहीं है.
अध्याय – ५
असाधारण घटनाएं
चुराना मुश्किल नहीं है. वापस अपनी जगह पर रखना – ये है कमाल की बात.
होल्स्टर में रखे रिवोंल्वर को अपनी पॉकेट में रखकर मैं अपने दोस्त के घर आया.
मेरे दिल की धड़कन बंद हो गई, जब मैंने
दरवाज़े से उसकी चीखें सुनीं:
“मामा! और कौन?...”
बुढ़िया की, उसकी माँ की दबी-दबी आवाज सुनाई दी:
“प्लंबर...”
“क्या हुआ?” मैंने
ओवरकोट उतारते हुए पूछा.
दोस्त ने इधर-उधर देखा और फुसफुसाकर बोला:
“आज किसीने रिवॉल्वर पार कर लिया…. कमीने कहीं के...”
“आय-याय-याय,” मैंने कहा.
बूढ़ी मम्मा पूरे छोटे से क्वार्टर में घूम रही थी, कोरिडोर के फर्श पर रेंग
रही थी, किन्हीं टोकरियों में देख रही थी.
“ममाशा! ये बेवकूफी है! फर्श पर रेंगना बंद करो!”
“आज?” मैंने
प्रसन्नता से पूछा. (वह गलत था, रिवॉल्वर कल
गायब हो गया था, मगर न जाने
क्यों उसे ऐसा लगा कि उसने कल रात को उसे मेज़ की दराज़ में देखा था.)
“और आपके यहाँ कौन आया था?”
“प्लम्बर”, मेरा दोस्त चिल्लाया.
“पर्फ्योशा! वह स्टडी रूम में नहीं गया,” ममाशा ने डरते हुए कहा, “सीधे नल की तरफ गया...”
“आह, ममाशा! आह, ममाशा!”
“इसके अलावा कोई और तो नहीं आया? और कल कौन आया था?”
“और तो कल कोई भी नहीं आया! सिर्फ आप आये थे, और कोई नहीं.”
और मेरे दोस्त ने अचानक मुझ पर अपनी आँखें गडा दीं.
“माफ कीजिये,” मैंने
गरिमा पूर्वक कहा.
“आह! कितनी जल्दी बुरा मान जाते हैं ये बुद्धिजीवी!” दोस्त चहका. “मैं ये
तो नहीं सोच रहा हूँ कि आपने उसे पार कर लिया है.”
और वह फ़ौरन यह देखने के लिए लपका कि प्लम्बर किस नल की तरफ गया था. ममाशा
प्लम्बर को प्रस्तुत कर रही थी और उसके लहजे की नक़ल भी कर रही थी.
“ये, ऐसे आया,” बुढ़िया बता रही थी, “उसने कहा ‘नमस्ते’...”
टोपी लटका दी – और गया...”
“किधर गया?”
बुढ़िया प्लम्बर की नक़ल उतारते हुए, किचन में गई, मेरा दोस्त उसके पीछे गया, मैंने झूठ मूठ ऐसे दिखाया जैसे उनके पीछे हूँ, फ़ौरन अध्ययन कक्ष में मुड़ गया, रिवॉल्वर को बाई नहीं, बल्कि दाई दराज में
रख दिया और किचन की ओर गया.
“आप उसे कहाँ रखते हैं?” मैंने
अध्ययन कक्ष में सहानुभूति पूर्वक पूछा.
दोस्त ने बाईं दराज़ खोली और खाली जगह की और इशारा किया.
“समझ नहीं पा रहा हूँ,” मैंने कंधे
सिकोड़ते हुए कहा, “वाकई में रहस्यमय बात है, - हाँ, ये साफ है कि चुराई गई है.”
मेरा दोस्त पूरी तरह परेशान हो गया.
“मगर फिर भी, मैं सोच रहा हूँ कि उसे चुराया नहीं
है,” मैने कुछ
देर बाद कहा. “आखिर, अगर कोई आया
ही नहीं था, तो उसे कौन
चुरा सकता है?”
दोस्त अपनी जगह से उछला और उसने प्रवेश कक्ष
में टंगे पुराने ओवरकोट की जेबें ढूंढी.
वहाँ कुछ नहीं मिला.
“ज़ाहिर है, चुरा ली है,” मैंने सोच में डूब कर कहा, “पुलिस में रिपोर्ट
लिखवानी पड़ेगी.”
दोस्त ने कराहते हुए कुछ कहा.
“आपने कहीं और तो नहीं घुसा दी?”
“मैं उसे हमेशा एक ही जगह पर रखता हूँ,” मेरा दोस्त नर्वस होते हुए चहका, और साबित करने के लिए मेज़ की बीच वाली दराज़
खोली. फिर होठों से कुछ फुसफुसाते हुए, बाईं दराज़ खोली और उसके भीतर हाथ भी डाला, फिर उसके नीचे वाली, और फिर गाली देते हुए दाईं दराज़ खोली.
“ये हुई न बात!” वह मेरी तरफ देखते हुए भर्राया, “ये रही, ममाशा! मिल गई!”
उस दिन वह असाधारण रूप से खुश था और उसने मुझे लंच के लिए रोक लिया.
मेरी अंतरात्मा पर लटकते रिवॉल्वर संबंधी प्रश्न को रफा-दफा करके मैंने वह कदम
उठाया जिसे जोखिम भरा कहा जा सकता है, - “शिपिंग कंपनी न्यूज़” की नौकरी छोड़ दी.
मैं एक दूसरी ही दुनिया में चला गया, रुदल्फी के यहां जाने लगा और लेखकों से मिलने लगा, जिनमें से कुछ तो बेहद मशहूर थे.
मगर अब तो यह सब मेरे दिमाग से उतर चुका है, बिना कोई निशान छोड़े, सिवाय बोरियत के, यह सब मैं भूल गया हूँ.
सिर्फ एक बात नहीं भूल सकता: और वो है रुदल्फी के प्रकाशक, मकार र्वात्स्की से परिचय को.
बात यह थी कि रुदल्फी के पास सब कुछ था : अक्लमंदी भी, और होशियारी भी और व्यापक ज्ञान भी, उसके पास सिर्फ एक चीज़ नहीं थी – पैसे. मगर
अपने काम के प्रति जूनून ने रुदल्फी को इस बात पर मजबूर किया कि चाहे जो भी हो जाए, एक मोटी पत्रिका प्रकाशित करनी ही है. मैं
समझता हूँ कि इसके बगैर तो वह मर ही गया होता.
इसी कारण से मैं एक दिन मोंस्को के एक प्रमुख मार्ग पर स्थित एक विचित्र कमरे
में पहुँचा. यहाँ, जैसा कि रुदाल्फी ने मुझे समझाया था, प्रकाशक र्वात्स्की बैठता था. मुझे इस बात
ने चौंका दिया कि कमरे के प्रवेशद्वार पर लगा हुआ बैनर यह बता रहा था कि यहाँ –
फोटोग्राफिक एक्सेसरीज़ का ब्यूरो है.
इससे भी ज़्यादा विचित्र बात यह थी कि कमरे में अखबारी कागज़ में लिपटे छींट
और सूती कपडे के टुकड़ों को छोड़कर कोइ भी फोटोग्राफिक एक्सेसरीज़ नहीं थीं.
वह लोगों से उफन रहा था. वे सब ओवरकोट, टोपियां पहने थे , आपस में जिंदादिली से
बातें कर रहे थे. मैंने उड़ते-उड़ते दो लब्ज़ सुने – “तार” और “डिब्बे”, मुझे बेहद
आश्चर्य हुआ, मगर मेरी
तरफ भी लोग अचरजभरी निगाहों से देख रहे थे. मैंने कहा, कि मैं र्वात्स्की के पास काम के सिलसिले
में आया हूँ. मुझे फ़ौरन और बहुत आदर के साथ प्लायवुड के पार्टीशन के पीछे ले जाया
गया, जहां मेरा आश्चर्य उच्चतम सीमा तक पहुँच गया.
लिखने की मेज़ पर, जिसके पीछे
र्वात्स्की बैठा था एक के ऊपर एक कई सारे मछलियों के बक्से रखे थे.
मगर खुद र्वात्स्की मुझे उसके प्रकाशन गृह में रखे मछलियों के बक्सों से
ज़्यादा बुरा लगा. र्वात्स्की एक सूखा, दुबला-पतला, छोटे कद
वाला आदमी था, मेरी आंखों
के लिए, जिन्हें
“शिपिंग कंपनी” में ढीले ट्यूनिक्स को देखने की आदत थी, बेहद अजीब तरह के कपडे पहने हुए था. उसने
कोट पहना था, धारीदार
पतलून, गंदी कलफ की
हुई कॉलर, और कॉलर पर
हरी टाई, और टाई में रूबी की पिन टंकी थी.
र्वात्स्की ने मुझे आश्चर्यचकित किया, और मैंने र्वात्स्की को या तो डरा दिया, या, असल में परेशान कर दिया, जब मैंने
स्पष्ट किया कि उसके द्वारा प्रकाशित पत्रिका में मेरे उपन्यास के प्रकाशन के
संबंध में उसके साथ एग्रीमेंट पर दस्तखत करने आया हूँ. मगर फिर भी, उसने शीघ्र ही अपने आप को संभाल लिया, मेरे द्वारा लाई गई एग्रीमेंट की दो
प्रतियां लीं, फाउन्टेन पेन
निकाला, लगभग बिना
पढ़े दोनों पर दस्तखत कर दिए और फाउन्टेन पेन के साथ दोनों प्रतियां मेरी और बढ़ा
दीं. मैंने फाउन्टेन पेन हाथ में लिया ही था, कि अचानक मेरी नज़र डिब्बे पर पडी जिस पर लिखा हआ था, “अस्त्राखान की चुनी हुई मछलियाँ” और जाल
बना हुआ था, जिसके निकट मोडी
हुई पतलून पहने मछेरा था, और एक चुभता
हुआ ख़याल मेरे मन में कौंध गया.
“क्या पैसे मुझे फ़ौरन मिलेंगे, जैसा कि एग्रीमेंट में लिखा है?” मैंने पूछा.
र्वात्स्की पूरी तरह से मधुरता और शिष्टता की मुस्कान में परिवर्तित हो
गया.
थोड़ा-सा खांसकर उसने कहा, “ठीक दो
सप्ताह बाद, अभी थोडी अड़चन है....”
मैंने पेन रख दिया.
“या एक सप्ताह बाद,” र्वात्स्की
ने फ़ौरन कहा, “आप दस्तखत क्यों
नहीं कर रहे हैं?”
“तो हम एग्रीमेंट पर तभी दस्तखत करेंगे, जब अड़चन सुलझ जायेगी.”
र्वात्स्की सिर हिलाते हुए कड़वाहट से मुस्कुराया.
“आपको मुझ पर यकीन नहीं है?” उसने पूछा.
“मेहेरबानी कीजिये.”
“ आखिरी बात, बुधवार को!”
र्वात्स्की ने कहा, “अगर आप को
पैसों की ज़रुरत है तो.”
“अफसोस है, नहीं कर
सकता.”
“एग्रीमेंट पर दस्तखत करना महत्त्वपूर्ण है,” र्वात्स्की ने विवेकपूर्ण ढंग से कहा, “और पैसे मंगलवार को भी दिए जा सकते हैं.”
“अफसोस है कि नहीं कर सकता” और अब मैंने एग्रीमेंट की प्रतियां हटा लीं और
बटन बंद किया. लिया.
“एक मिनट, आह, कैसे हैं आप!” र्वात्स्की चहका, “और कहते
हैं कि लेखक - अव्यावहारिक होते हैं.” और उसके फीके चहरे पर उदासी छा गई, उसने परेशानी से इधर उधर देखा, मगर कोई नौजवान भाग कर आया और उसने
र्वात्स्की को सफ़ेद कागज़ में लिपटा हुआ कार्डबोर्ड का टिकट थमा दिया, “ये रिज़र्व्ड सीट का टिकट है,” मैंने सोचा, “वह कहीं जा रहा है...”
प्रकाशक के गालों पर लाली छा गई, उसकी आंखें चमकने लगीं, मैंने बिलकुल नहीं
सोचा था कि ऐसा हो सकता है.
संक्षेप में, र्वात्स्की
ने मुझे वह रकम दे दी जो एग्रीमेंट में दिखाई गई थी, और बची हुई रकम के लिए मेरे नाम से प्रोमिसरी नोट
लिख कर दिया. मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार अपने हाथों में प्रोमिसरी
नोट पकड़ा था, जो मेरे नाम
से दिया गया था. (प्रोमिसरी नोट के लिए कागज़ लाने कहीं भागे, मैं किन्हीं डिब्बों पर बैठकर इंतज़ार कर रहा था, जिनसे जूते के चमड़े की तेज़ बदबू आ रही थी) मुझे बहुत खुशी
हो रही थी कि मेरे पास प्रोमिसरी नोट्स हैं.
अगले दो महीनों की याद धुंधली हो गई है. सिर्फ इतना याद है, कि मैं रूदल्फी के पास भुनभुना रहा था कि
उसने मुझे र्वात्स्की जैसे आदमी के पास भेजा, कि धुंधली आंखों और रूबी की टाई पिन लगाने वाला इंसान प्रकाशक हो ही नहीं
सकता. ये भी याद है कि कैसे मेरा दिल एक पल के लिए धड़कना भूल गया था, जब रूदल्फी ने कहा, “ज़रा प्रोमिसरी नोट तो दिखाइये,” और कैसे वह
फिर से सामान्य हो गया, जब उसने
भिंचे हुए दांतों के बीच से कहा, “सब ठीक है.” इसके अलावा, यह भी कभी नहीं भूलूंगा कि कैसे मैं इन
प्रोमिसरी नोट्स में से पहले को भुनाने आया था.
शुरूआत ऐसे हुई कि “ फोटोग्राफिक एक्सेसरीज़ के ब्यूरो” का बैनर गायब हो गया
था और उसकी जगह “मेडिकल कुप्पियों के ब्यूरो” वाले बैनर ने ले ली थी.
मैं अन्दर गया और बोला, “ मुझे मकार
बरीसविच र्वात्स्की से मिलना है.”
बड़ी अच्छी तरह याद है कि मेरी टांगें कैसे मुड़ गई थीं, जब मुझे बताया गया कि एम. बी. र्वात्स्की
...विदेश में है.
फिर से संक्षेप में: प्लायवुड के पार्टीशन के पीछे र्वात्स्की का भाई बैठा
था.
(र्वात्स्की मेरे साथ एग्रीमेंट पर दस्तखत करने के दस मिनट बाद विदेश चला
गया था – याद है रिज़र्व्ड टिकट?) देखने में अपने भाई से एकदम विपरीत, खिलाड़ियों की तरह हट्टे-कटते, बोझिल आँखों
वाले अलोइज़ी र्वात्स्की ने प्रोमिसरी नोट के मुताबिक़ पैसे दे दिए.
दूसरे प्रोमिसरी नोट के पैसे मैंने, एक महीने बाद, ज़िंदगी को
कोसते हुए किसी सरकारी दफ्तर में प्राप्त किये, जहाँ प्रोमिसरी नोट भुनाने के लिए जाते हैं
( शायद, नोटरी के
दफ्तर, या बैंक में, जहां जालियों वाली छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं).
तीसरे नोट के समय तक मैं कुछ अक्लमंद हो गया था, अवधि से दो सप्ताह पहले दूसरे र्वात्स्की के
पास गया और बोला, कि थक गया
हूँ.
र्वात्स्की के उदास भाई ने पहली बार मुझ पर नज़र डाली और बुदबुदाया:
“समझता हूँ. मगर आपको समय पूरा होने का इंतज़ार क्यों करना है? अभी भी पैसे लेना संभव है.”
आठ सौ रूबल्स के स्थान पर मैंने चार सौ प्राप्त किये और बड़ी राहत से र्वात्स्की
को दो लम्बे कागज़ थमा दिए.
आह, रुदल्फी,
रुदल्फी! शुक्रिया मकार के लिए और अलोइज़ी के लिए.
खैर, आगे नहीं
भागेंगे, आगे इससे भी
बुरा होने वाला है.
वैसे, मैंने अपने
लिए ओवरकोट खरीद लिया.
और आखिरकार वह दिन आ पहुँचा, जब भयानक
बर्फबारी में मैं इसी बिल्डिंग में पहुँचा. शाम का समय था. सौ कैंडल पॉवर वाला
लैम्प बुरी तरह आंखों में चुभ रहा था. लैम्प के नीचे, प्लायवुड-पार्टीशन के पीछे दोनों
र्वात्स्कियों में से कोई नहीं था (क्या यह बताने की ज़रुरत है कि दूसरा भी चला गया
था). इस लैम्प के नीचे ओवरकोट पहने रुदल्फी बैठा था, और उसके सामने मेज़ पर, और फर्श पर, और मेज़ के नीचे अभी-अभी छाप कर आयी हुई
पत्रिका के अंक की भूरी-नीली प्रतियाँ पडी थीं. ओह,
वह पल! अब तो मुझे हंसी आती है,
मगर तब मैं ज़्यादा जवान था.
रुदल्फी की आंखें चमक रही थीं. कहना पडेगा, कि वह अपने काम से प्यार करता था. वह असली
सम्पादक था.
कुछ ऐसे नौजवान लोग होते हैं, और आप, बेशक, मॉस्को में
उनसे मिल चुके है.
ये नौजवान पत्रिकाओं के सम्पादकीय दफ्तरों में नए अंक के प्रकाशन के अवसर
पर उपस्थित रहते हैं, मगर वे लेखक नहीं होते. वे सभी थियेटर्स के ग्रान्ड
रिहर्सल्स पर मौजूद रहते हैं, हांलाकि वे
अभिनेता नहीं होते, वे कलाकारों
की प्रदर्शनियों में रहते हैं, हांलाकि खुद
कुछ नहीं रचते. ऑपेरा की प्रमुख गायिकाओं का उल्लेख वे उनके कुलनाम से नहीं, बल्कि नाम और पिता के नाम से करते हैं, नाम और पिता के नाम से ही उन लोगों का
उल्लेख करते हैं, जो
ज़िम्मेदार पदों पर होते हैं, हांलाकि
व्यक्तिगत रूप से उनसे परिचित नहीं होते. बल्शोय थियेटर के प्रीमियर पर वे सातवीं
और आठवीं पंक्तियों में सिकुड़कर बैठे होते हैं, और ड्रेस सर्कल में बैठे किसी की और देखकर
हाथ हिलाते हैं, “मेत्रोपोल”
में वे फव्वारे के पास वाली मेज़ पर बैठते हैं, और रंगबिरंगे बल्ब उनकी बेल-बॉटम वाली
पतलूनों को प्रकाशित करते हैं.
उनमें से एक रुदल्फी के सामने बैठा था.
“ तो, आपको हमारा
नया अंक कैसा लगा?” रुदल्फी ने
नौजवान से पूछा.
“इल्या इवानिच!” हाथों में पत्रिका के पन्ने पलटते हुए नौजवान ने भावुकता
से कहा, “आकर्षक
पत्रिका है, मगर, इल्या इवानिच, साफ-साफ कहने की इजाज़त दीजिये, हम, आपके पाठक, समझ नहीं पा
रहे हैं, कि अपनी पसंद
के बावजूद, आपने मक्सूदव की इस चीज़ को कैसे शामिल कर लिया.”
“ये है नमूना”! ठंडा पड़ते हुए मैंने सोचा. मगर
रुदल्फी ने किसी षडयंत्रकारी की भाँति मुझे आंख मारी और पूछा: “क्या हुआ?”
“फरमाइए,” नौजवान
चहका, “पहली
बात...आप मुझे स्पष्ट रूप से कहने की इजाज़त देंगे, इल्या इवानाविच?”
“प्लीज़, प्लीज़,”
रुदल्फी ने मुस्कुराते हुए कहा.
“पहली बात, ये जड से ही
गंवारू है...मैं कम से कम बीस ऐसी जगहे दिखा सकता हूँ, जहाँ वाक्य रचना की बेहद फूहड गलतियाँ हैं.”
“फ़ौरन फिर से पढ़ना होगा,” मैं जैसे
बर्फ बनाते हुए सोचा.
“और, शैली!” नौजवान चीखा, “माय गॉड,
कैसी भयानक शैली है! इसके अलावा, ये कुछ खिचडी
जैसी, नकलछाप, मरियल शैली
है! सस्ती फिलोसोफी, सतही तौर पर फिसलने जैसा है... बुरी, सपाट है इल्या इवान वसील्येविच विच! इसके
अलावा, वह नक़ल करता
है...”
“किसकी?” रुदल्फी ने
पूछा.
“अवेर्चिन्का की!” पत्रिका को घुमाते और पलटते हुए, और चिपके हुए पन्नों को
उँगलियों से अलग करते हुए नौजवान चीखा – अत्यंत साधारण अवेर्चिन्का की! लीजिये, मैं आपको दिखाता हूँ,” – और नौजवान पत्रिका में ढूँढने लगा, और मैं, बत्तख की तरह उसके हाथों का पीछा
करता रहा. मगर, अफसोस, वह वो नहीं
ढूंढ पाया जिसे खोज रहा था.
“घर में ढूंढ लूँगा,” मैं सोच
रहा था.
“घर में ढूँढूँगा,” नौजवान ने वादा किया, “किताब खराब हो गई, या खुदा, इल्या इवान वसील्येविच विच. वह बिलकुल अनपढ़
है! कौन है वो? कहाँ पढ़ा है?”
“वह कहता है कि उसने पेरिश स्कूल पूरा किया है,” आंखें चमकाते हुए रुदल्फी ने जवाब दिया, “मगर, आप खुद ही उससे पूछ लीजिये. प्लीज़, मिलिए.”
नौजवान के गालों पर जैसे हरी, सड़ी हुई
फफूंद की पर्त छा गई, और उसकी
आंखें ऐसी दहशत से भर गईं, जिसका वर्णन
नहीं किया जा सकता.
मैंने झुककर नौजवान का अभिवादन किया, उसने अपने दांत दिखाए, तकलीफ उसके प्यारे नाक-नक्श को विकृत कर रही
थी. उसने कराहते हुए पॉकेट से रूमाल
निकाला और अब मैंने देखा कि उसके गाल पर खून बह रहा है. मैं अवाक रह गया.
“आपको क्या हुआ है?” रुदल्फी
चीखा.
“कील,” नौजवान ने
जवाब दिया.
“अच्छा, मैं चला,” मैंने
नौजवान की और न देखने की कोशिश करते हुए सूखी जुबान से कहा.
“किताबें तो लेते जाइए.”
मैंने लेखकीय प्रतियों का गट्ठा लिया, रुदल्फी से हाथ मिलाया, झुककर नौजवान का अभिवादन किया, जिसने निरंतर अपने गाल पर रूमाल दबाते हुए, फर्श पर किताब और छडी गिरा दी, और पीछे सरकता हुआ दरवाज़े की तरफ सरका,
कुहनी मेज़ पर मारी और बाहर निकल गया.
भारी बर्फ गिर रही थी, क्रिसमस
ट्री वाली बर्फ.
ये वर्णन करने की ज़रुरत नहीं है, कि कैसे मैं पूरी रात बैठकर उपन्यास के विभिन्न स्थानों को पढ़ता रहा. इस
बात पर ध्यान देना होगा, कि कहीं
कहीं उपन्यास अच्छा लग रहा था, मगर इसके
फ़ौरन बाद वह घिनौना लगने लगता. सुबह तक तो मुझे उससे भयानक डर लगने लगा.
अगले दिन की घटनाएं मुझे याद हैं. सुबह मेरे पास मेरा दोस्त आया था, जिसके यहाँ मैंने चोरी की थी, जिसे मैंने उपन्यास की एक प्रति भेंट की, और शाम को मैं एक पार्टी में गया, जिसे लेखकों के एक समूह ने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना – प्रसिद्ध लेखक इज्माइल
अलेक्सांद्रविच बन्दर्योव्स्की के विदेश से वापस लौटने के मौके पर आयोजित किया था.
समारोह की गरिमा इसलिए भी बढ गई थी कि साथ ही एक और प्रसिद्ध लेखक इगोर
अगाप्योनव का भी सम्मान किया जाने वाला था, जो अपनी चीन की यात्रा से लौटे थे.
और मैंने कपडे पहने और अत्यंत उत्तेजना से चल पडा पार्टी के लिए. आखिर मेरे
लिए ये “वो” नई दुनिया थी, जहाँ मैं
जाना चाहता था. ये दुनिया मेरे सामने खुलने वाली थी, और वो भी सबसे अच्छी तरफ से – पार्टी में
साहित्य के जाने माने प्रतिनिधि आने वाले थे, उसकी पूरी चमक दमक दिखाई देने वाली थी.
और जैसे ही मैंने क्वार्टर में प्रवेश किया, मेरा दिल खुशी से उछलने लगा.
सबसे पहले जिस पर मेरी नज़र पडी, वो वही कल वाला नौजवान था, जिसने कील से अपना कान ज़ख़्मी कर लिया था. उसका चेहरा साफ बैंडेज की
पट्टियों में लिपटा होने के बावजूद मैं उसे पहचान गया.
मुझे देखकर वह ऐसे खुश हुआ जैसे किसी अपने से मिल रहा हो, और बड़ी देर तक हाथ मिलाता रहा, यह बताते हुए कि वह पूरी रात मेरा उपन्यास
पढ़ता रहा और उसे उपन्यास अच्छा लगने लगा था.
“मै भी,” मैंने उससे
कहा, “पूरी रात
पढ़ता रहा, मगर अब वह
मुझे पसंद आना बंद हो गया.”
हम गर्म जोशी से बातें कर रहे थे, जिसके दौरान नौजवान ने मुझे बताया कि फिश-जैली देने वाले है. आमतौर से वह
खुश और उत्तेजित था.
मैंने चारों ओर नज़र दौडाई – नई दुनिया ने मुझे भीतर आने दिया था, और यह
दुनिया मुझे अच्छी लगी. क्वार्टर बहुत बड़ा था, मेज़ पर करीब पच्चीस प्लेटें सजाई गई थीं;
क्रिस्टल जगमगा रहा था; काली
कैवियार में भी चिनगारियाँ चमक रही थीं; ताजी, हरी ककड़ियाँ किन्हीं पिकनिकों के, न
जाने क्यों, प्रसिद्धि वगैरह के बारे में बेवकूफीभरे-खुशनुमा खयाल पैदा कर रही थीं.
फ़ौरन मेरा परिचय सबसे प्रसिद्ध लेखक लिसासेकव से और उपन्यास लेखक तून्स्की
से करवाया गया. महिलाएं हाँलाकि कम थीं, मगर थीं.
लिकास्पास्तव जल से भी ज़्यादा खामोश, घास से भी कम ऊंचा था, और तभी मैंने महसूस किया कि वह औरों से कुछ
कमतर ही होगा, कि भूरे
बालों वाले नौसिखिए लिसासेकव से भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती, बेशक, अगाप्योनव या इज्माइल अलेक्सान्द्रविच की तो
बात ही छोडिये.
लिकास्पास्तव मेरे पास आया, हमने एक
दूसरे का अभिवादन किया.
“तो, फिर,” न जाने क्यों गहरी सांस लेकर लिकास्पास्तव
ने कहा, “ मुबारक
हो. तहे दिल से मुबारकबाद देता हूँ. और सीधे-सीधे तुझ से कहता हूँ – तू चालाक है, भाई. मैं शर्त लगाने को तैयार हूँ कि तेरा
उपन्यास प्रकाशित होना नामुमकिन है, एकदम असंभव है. तूने रुदल्फी को कैसे पटा लिया, समझ नहीं पा रहा हूँ. मगर तुझसे कहे देता
हूँ, कि तू दूर
तक जाएगा! देखने में तो – खामोश तबियत लगते हो...मगर खामोश इंसान में...”
यहाँ लिकास्पास्तव की बधाइयों को पोर्च से आती हुई जोरदार ड़ोअर बेल्स ने
बीच में ही रोक दिया, और मेज़बान की
भूमिका निभा रहा आलोचक कोन्किन (आयोजन उसंके
क्वार्टर में हो रहा था) चीखा:
“वो है !”
और वाकई में : ये इज्माईल अलेक्सान्द्रविच ही निकला. प्रवेश कक्ष में
खनखनाती आवाज़ सुनाई दी, फिर चूमने
की आवाजें, और डाइनिंग
होंल में जैकेट पर सेल्यूलॉइड की कॉलर लगाए एक छोटे कद के नागरिक ने प्रवेश किया.
आदमी परेशान, खामोश, विनम्र था और उसने हाथ में एक टोपी पकड़ रखी थी, जिसे उसने न
जाने क्यों प्रवेश कक्ष में नहीं छोड़ा था. टोपी पर मखमल का बैण्ड और सिविलियन बैज
का धूलभरा निशान था.
“माफ़ कीजिये, यहाँ कोई
गड़बड़ है,” जोरदार ठहाके के साथ भीतर प्रवेश करते हुए आदमी के साथ प्रवेश कक्ष से
सुनाई दिए “बटन खोल” इस शब्द का तालमेल न बिठाते हुए मैंने सोचा.
गड़बड़ हो ही गई थी. भीतर आने वाले के पीछे-पीछे नजाकत से कमर में हाथ डाले कोन्किन
एक ऊंचे और हट्टे कट्टे ख़ूबसूरत आदमी को डाइनिंग होल में लाया, जिसकी हलके रंग की घनी, घुंघराली दाढी थी और घुंघराले बाल सलीके से
कंघी किये हुए थे.
वहाँ उपस्थित उपन्यासकार फिआल्कव ने, जिसके बारे में रुदल्फी ने मुझसे फुसफुसाकर कहा था कि वह काफी ऊंचाई पर जा
रहा है, बढ़िया कपडे
पहने थे, (वैसे सभी
ने अच्छे कपडे पहने थे), मगर फिआल्कव के सूट की तुलना इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की
पोशाक से नहीं की जा सकती थी. बढ़िया कपडे का और पैरिस के बेहतरीन टेलर द्वारा सिला
हुआ, कत्थई रंग
का सूट इस्माइल अलेक्सान्द्रविच के छरहरे, मगर कुछ फूले हुए बदन पर चुस्त बैठा था. कमीज़ कलफ की हुई, पेटेंट लेदर के जूते, नीलम के कफ-लिंक्स. साफ-सुथरा, सफ़ेद, ताज़ा तवाना, प्रसन्न, सीधा-सादा था इस्माइल अलेक्सान्द्रविच. उसके
दांत चमके और वह भोज की मेज़ पर नज़र डालकर चीखा:
“हा! शैतानो!!
और ठहाके और
तालियाँ गूँज उठे और चुम्बनों की आवाज़ सुनाई दीं. किसी के साथ इज्माइल
अलेक्सान्द्रविच हाथ मिला रहा था, किसी को अपनी बांहों में ले रहा था,
किसी के सामने मज़ाक से सफ़ेद हथेली से चेहरा ढांक कर मुँह फेर लेता मानो रोशनी चुंधिया गया हो, और साथ ही
ठहाका लगाता.
मुझे, शायद कोई और समझ कर उसने तीन बार चूमा, इस्माइल अलेक्सान्द्रविच से कन्याक की, यूडी कलोन की और सिगार की गंध आ रही थी.
“बक्लाझानव!” इस्माइल अलेक्सान्द्रविच पहले प्रवेश करते हुए व्यक्ति की ओर
इशारा करते हुए चिल्लाया, “मिलिए, बक्लाझानव, मेरा दोस्त.”
बक्लाझानव पीडाभरी मुस्कान से मुस्कुराया और, इस अनजान, बड़ी महफ़िल में परेशानी से उसने
अपनी कैप एक लड़की के चोकलेट के बुत को पहना दी, जिसके हाथों में इलेक्ट्रिक लैम्प था.
“मैं इसे अपने साथ घसीट लाया!” इस्माइल अलेक्सान्द्रविच कहता रहा. “घर में
क्यों बैठा रहे. मिलिए – एक गज़ब का इंसान और बेहद ज़हीन. और, मेरी बात याद रखिये, साल भर में वहा हम सबको
लपेट लेगा! तूने, शैतान, उसे कैप क्यों पहना दी? बक्लाझानव?”
बक्लाझानव शर्म से लाल हो गया और वह ‘हैलो’ कहने ही वाला था, मगर उसके मुँह से कुछ न निकला, क्योंकि लोगों को बैठाने का दौर उफान पर था, और उनके बिठाए गए लोगों के बीच फूली-फूली
लच्छेदार पेस्ट्री पेश की जा रही थी.
भोज फ़ौरन ही दोस्ताना, प्रसन्न, खुशनुमा अंदाज़ में शुरू हो गया.
“पाइ बेकार गईं!” मैंने इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की आवाज़ सुनी. हमने-तुमने
बक्लाझानव पाइ क्यों खाई?”
क्रिस्टल की आवाज़ कानों को सहला रही थी, ऐसा लगा, जैसे झुम्बर में रोशनी बढ गई हो.
तीसरे जाम के बाद सबकी नज़रें इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की और मुड गईं.
अनुरोध सुनाई दिए:
“पैरिस के बारे में! पैरिस के बारे में!”
“खैर, मिसाल के
तौर पर ऑटोमोबाइल एक्जीबिशन में गए थे,” इस्माइल अलेक्सान्द्रविच सुना रहा था, “उदघाटन, हर चीज़ प्रोटोकोल के
मुताबिक़, मिनिस्टर, जर्नलिस्ट्स, भाषण...जर्नलिस्ट्स के बीच में यह बदमाश,
कन्द्युकोव साशा खडा था... तो, फ्रांसीसी,
बेशक भाषण दे रहा था...बिलकुल माचिस की तीली जैसा. शैम्पेन, ज़ाहिर है. सिर्फ देखता क्या हूँ – कन्द्युकोव
गाल फुला रहा है, और हम पलक भी झपका नहीं पाए कि उसे उल्टी हो गई!
वहाँ महिलाएं थी, मिनिस्टर
थे! और वह, कुत्ते का
पिल्ला!... और उसे क्या ख़याल आ रहा था, अब तक समझ नहीं पा रहा हूँ. खतरनाक स्कैंडल. मिनिस्टर, बेशक, यूँ दिखा रहा है कि वह कुछ नहीं देख रहा है, मगर देखेगा कैसे नहीं.... टेल कोट, कैप, पतलून सब मिलाकर एक हज़ार फ्रैंक के. सब बर्बाद हो गया. खैर, उसे बाहर ले गए, पानी पिलाया और वापस छोड़ आये....”
“और! और!” मेज़ से चिल्लाए.
इसी समय सफ़ेद एप्रन पहनी नौकरानी स्टर्जन परोस रही थी. जोर से घंटी बजी, आवाजें सुनाई दीं. मगर मैं पैरिस के बारे
में जानने के लिए तड़प रहा था, और घंटी की
आवाज़ के बीच, खटखटाहट के
बीच और विस्मयजनक टिप्पणियों के बीच मैं अपने कान से इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की
कहानियों को सुनता रहा.
“बक्लाझानव! तू खा क्यों नहीं रहा है?”
“आगे! प्लीज़!” नौजवान तालियाँ बजाते हुए चीखा...”आगे क्या हुआ?”
“आगे ये दोनों धोखेबाज़ शान-ज़िलीज़े में एक दूसरे से टकरा गए...हिसाब बराबर!
और वह देख भी नहीं पाया था कि इस बदमाश कात्किन ने सीधे उसके थोबड़े पर थूक
दिया!...”
“आय-आय-आय!”
“हाँ-रे...बक्लाझानव! तू सोना नहीं, शैतान कहीं के!...तो, फिर, उत्तेजना से, वह भयानक न्यूरोटिक है, गड़बड़ा गया, और सीधे एक महिला से टकरा गया, पूरी तरह अनजान महिला से, सीधे उसकी हैट
से...”
“शान-ज़िलीज़े में?!”
“सोच सकते हो! वहाँ इतना आसान है! और उसकी सिर्फ हित हैट ही तीन हज़ार
फ्रैंक्स की थी! खैर, बेशक, किसी एक सज्जन ने उसके थोबड़े पे किसी छडी
से...कैसा खतरनाक स्कैंडल!”
तभी कोने में ‘फट्’ आवाज़ हुई, और मेरे सामने एक संकरे जाम में पीली ‘अब्राऊ’ चमक उठी....याद है, कि इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की सेहत के नाम
पी रहे थे.
और मैं फिर से पैरिस के बारे में सुनने लगा.
“वह, बिना किसी शर्म
के उससे कहता है, “कितना? और वह...बदमाश! (इस्माइल अलेक्सान्द्रविच ने
अपनी आंखें सिकोड लीं.) बोला, आठ हज़ार!”
और ये, जवाब में:
“मिल जाएगा!” और अपना हाथ निकालकर फ़ौरन उसे ठेंगा दिखाता है!”
“ग्रांड-ओपेरा में?!”
“सोचो! उसने ग्रांड-ओपेरा की ज़रा भी कद्र नहीं की. वहाँ दूसरी पंक्ति में
दो मिनिस्टर बैठे थे.”
“अच्छा, और वो? उसने क्या किया?” ठहाका मारते हुए किसी ने पूछा.
“माँ की गाली दी, ज़ाहिर है!”
“लोगों!”
“खैर, दोनों को ले
गए बाहर, वहाँ ये
आसान है...”
पार्टी मस्ती में चल रही थी. मेज़ के ऊपर धुआं तैर रहा था, उसकी परतें बन रही थीं. मुझे पैर के नीचे कोई
नरम और चिकनी चीज़ महसूस हुई और, झुकने के
बाद मैंने देखा कि ये सैलमन मछली का टुकड़ा था, और पता नहीं, वह पैर के नीचे कैसे आ गया. इस्माइल
अलेक्सान्द्रविच के शब्द ठहाकों में डूब गए, और बाकी की चौंकाने वाली पैरिस की
कहानियां मेरे लिए अज्ञात रह गईं.
मैं विदेशी ज़िंदगी की विचित्रताओं के बारे में ठीक से सोच भी नहीं पाया कि
घंटी ने इगोर अगाप्योनव के आगमन की सूचना दी. अब काफी गड़बड़ होने लगी थी. बगल के
कमरे से पियानो सुनाई दे रहा था, कोई हौले-हौले फॉक्सट्रोट की धुन बजा रहा था, और मैंने देखा कि मेरा वाला नौजवान कैसे एक
महिला को नज़दीक से थामे ताल दे रहा है.
इगोर अगाप्योनव प्रसन्नता से, मस्ती से
अन्दर आया, और उसके
पीछे-पीछे आया एक चीनी, छोटा-सा, सूखा-सा, पीला-सा, काली फ्रेम का चश्मा पहने. चीनी के पीछे
पीली पोशाक में एक महिला थी और एक हट्टा कट्टा दाढीवाला आदमी, जिसका नाम था वसीली पित्रोविच.
“इसमाश यहाँ है?” इगोर चहका
और इस्माइल अलेक्सान्द्रविच की ओर लपका.
खुशी से हँसते हुए वह थरथरा गया, चहक कर बोला:
“हा! इगोर!” और अपनी दाढी अगाप्योनव के कंधे पर जमा दी. चीनी सबकी और देखते
हुए प्यार से मुस्कुरा रहा था, मगर एक भी
शब्द नहीं कर रहा था, जैसा कि आगे
भी उसने कुछ नहीं कहा.
“मिलिए, मेरे दोस्त, किताइत्सेव से!” इस्माइल अलेक्सान्द्रविच को
चूमने के बाद इगोर चिल्लाया.
मगर आगे काफी शोर, गड़बड़ लगी. याद आता है कि कमरे में कालीन पर नृत्य कर रहे
थे, जिससे काफी
असुविधा हो रही थी. प्यालों में कोंफी लिखने की मेज़ पर रखी थी. वसीली पित्रोविच कन्याक पी रहा था. मैंने
आरामकुर्सी में सो रहे बक्लझानव को देखा. सिगरेट का तेज़ धुआं भर गया था. और ऐसा
महसूस होने लगा कि अब वाकई में घर जाने का समय हो गया है.
और बिलकुल अप्रत्याशित रूप से मेरी अगाप्योनव से बातचीत होने लगी. मैंने
गौर किया कि जैसे ही रात के तीन बजने वाले थे, वह कुछ बेचैन-सा दिखाई देने लगा. और किसी के
साथ किसी बारे में बातें करने लगा, और, जहाँ तक
मैं समझता हूँ, उस धुंध और
धुएँ में उसे दृढ इनकार ही मिल रहे थे. मैं, लिखने की मेज़ के पास आराम कुर्सी में धंसा हुआ कोंफी पी रहा था, यह न समझ पाते हुए कि मेरे दिल को क्यों चोट
पहुँची है, और अचानक ये
पैरिस मुझे क्यों उकताहटभरा लगाने लगा, कि अचानक वहाँ जाने की ख्वाहिश ही
ख़त्म हो गई.
तभी मुझ पर एकदम गोल चश्मा पहने एक चौड़ा चेहरा झुका. यह अगाप्योनव था.
“मक्सूदव?” उसने पूछा.
“जी हाँ.”
“सूना है, सूना है,” अगाप्योनव ने कहा. “रुदाल्फी बता रहा था. कहते
हैं कि आपने उपन्यास छपवाया है?”
“हाँ.”
“कहते हैं कि बढ़िया उपन्यास है. उह, मक्सूदाव!” अगाप्योनव अचानक आंख मारते हुए फुसफुसाया, “इस नमूने की पर गौर फरमाइए...देख रहे हैं?”
“ये – दाढ़ी वाला?”
“वही, वही, मेरा साला है.”
“लेखक है?” मैंने
वसीली पित्रोविच को गौर से देखते हुए पूछा, जो प्यारी-जोशीली मुस्कान बिखेरते हुए कोन्याक पी रहा था.
“नहीं! तेत्यूशी का कोऑपरेटर
है...मक्सूदव, समय न
गंवाइये, - पछताना
पडेगा. ऐसी खतरनाक चीज़ है! आपको अपने काम के लिए उसकी ज़रुरत पड़ेगी. आप उससे एक रात
में दर्जनों कहानियां निकलवा सकते हैं और हरेक को मुनाफे के साथ बेच सकते हैं. ऐसी-ऐसी
खतरनाक कहानियां सुनाता है – इख्तियोसारस, ताम्र युग! आप कल्पना कीजिये कि उसने
अपनी तेत्यूशी में क्या-क्या नहीं देखा होगा. उसे पकडिये, वर्ना दूसरे लोग टांग अडायेंगे और काम बिगाड़
देंगे.”
वसीली पित्रोविच यह महसूस करके कि बात उसीके बारे में हो रही है और भी
उत्कंठा से मुस्कुराया और पी गया.
“हाँ, सबसे
बढ़िया...आइडिया!” अगाप्योनव भर्राया. “मैं अभी आपका परिचय करवाता हूँ....आप कुंआरे
हैं?” अगाप्योनव
ने उत्सुकता से पूछा.
“कुँआरा ...” मैंने आंखें फाड़कर अगाप्योनव की और देखते हुए कहा.
अगाप्योनव के चहरे पर प्रसन्नता दिखाई दी.
“बढ़िया! आप परिचय कीजिये और उसे अपने यहाँ रात बिताने के लिए ले जाइए!
आइडिया! आपके पास कोई दीवान तो है? वह दीवान पर
सो जाएगा, उसे कुछ नहीं होगा. और दो दिन बाद वह चला जाएगा.”
विस्मय के कारण मुझे कोई जवाब ही नहीं सूझा, सिवाय इसके, कि
“मेरे पास एक ही दीवान है....”
“चौड़ा है?” अगाप्योनव
ने परेशानी से पूछा.
मगर तब तक मैं कुछ संभल चुका था. और बिलकुल सही वक्त पर, क्योंकि वसीली पित्रोविच परिचय करने के लिए
तैयार था और अगाप्योनव मेरा हाथ पकड़ कर खींचने लगा था.
“माफ कीजिये,” मैंने कहा, “मुझे अफसोस है कि किसी भी हालत में उसे
नहीं ले जा सकता. मैं किसी और के क्वार्टर में ‘पैसेज’ वाले कमरे में रहता हूँ, और पार्टीशन के पीछे मालकिन के बच्चे सोते
हैं (मैं यह भी कहना चाहता था कि उन्हें ‘लाल बुखार’ हो रहा है, मगर बाद में यह तय किया कि ये तो भयानक झूठ
हो जाएगा, मगर फिर भी जोड़ ही दिया)...और उन्हें ‘स्कार्लेट फीवर’ है.
“वसीली!” अगाप्योनव चिल्लाया, “क्या तुझे
स्कार्लेट फीवर” हुआ था?”
ज़िंदगी में कितनी बार मुझे अपने बारे में “बुद्धिजीवी” शब्द सुनने का मौक़ा
मिला है. बहस नहीं करूंगा, मैं, हो सकता है, इस दयनीय नाम के लायक हूँ.
मगर इस बार हिम्मत बटोर ही ली और, वसीली पित्रोविच चिरौरी करती मुस्कुराहट से जवाब “हु...” दे भी नहीं पाया
था कि मैंने अगाप्योनव से दृढता से कह दिया:
“स्पष्ट रूप से उसे ले जाने से इनकार करता हूँ. नहीं ले जा सकता.”
:किसी तरह,” अगाप्योनव
हौले से फुसफुसाया.
“नहीं ले जा सकता.”
अगाप्योनव ने सिर लटका लिया, अपने होंठ
चबाने लगा.
“मगर, माफ कीजिये, वह तो आपके यहाँ आया है? वह रुका कहाँ है?”
“मेरे घर में ही रुका है, शैतान ले
जाए,” अगाप्योनव ने
अफसोस से कहा.
“और, ऊपर से...”
“और आज ही मेरी सास भी बहन के साथ आई है, आप समझ रहे हैं, प्यारे इंसान, और फिर यह चीनी भी है...और
शैतान इन्हें भी ले आता है,” अचानक
अगाप्योनव ने जोड़ा, “इन सालों
को. बैठा रहता अपने त्योत्यूश्की में...”
और अगाप्योनव मुझसे दूर चला गया.
न जाने क्यों एक अस्पष्ट परेशानी मुझ पर हावी हो गई, और मैं कोन्किन के अलावा किसी से भी बिदा
लिए बगैर क्वार्टर से निकल गया.
अध्याय – ६
तबाही
ये अध्याय, मुलाहिजा
फरमाइए, सबसे छोटा
होने वाला है. सुबह मुझे महसूस हुआ कि मेरी पीठ में कंपकंपी हो रही है. फिर उसकी
पुनरावृत्ति हुई. मैं गुडीमुडी हो गया और मैंने कम्बल में सिर छुपा लिया, कुछ आराम महसूस हुआ, मगर सिर्फ एक मिनट के लिए. अचानक बेहद गर्मी
महसूस हुई. फिर वापस ठंड, और इतनी कि
दांत किटकिटाने लगे. मेरे पास थर्मामीटर था. वह 38.8 दिखा रहा था. मतलब, मैं बीमार हो गया था.
सुबह होते-होते मैंने सोने की कोशिश की और आज तक मुझे वह सुबह याद है. जैसे
ही मैं आंखें बंद करता, मेरे सामने
चश्मे वाला चेहरा झुकता और भिनभिनाता: “ ले जाओ”, और मैं सिर्फ एक ही बात दुहराता:
“नहीं, नहीं ले
जाऊंगा”. या तो मुझे वसीली पित्रोविच का सपना आ रहा था, या वह वाकई में मेरे कमरे में था, और खौफनाक बात ये थी कि वह कन्याक अपने जाम
में डाल रहा था, जबकि उसे पी
रहा था मैं. पैरिस बिलकुल बर्दाश्त से बाहर हो गया. ‘ग्राण्ड ओपेरा’ और उसमें कोई मुट्ठी तानकर दिखा रहा है.
वापस ले जाता है, दिखाता है
और फिर से छुपा लेता है. तानता है, दिखाता है.
“मैं सच कहना चाहता हूँ.” मैं बडबडा रहा था, जब गलीज़, बिना धुले परदे के पीछे दिन पसर
गया था, “पूरा सच.
मैंने कल एक नई ज़िंदगी देखी, और ये
ज़िंदगी मुझे घिनौनी लगी. मैं उसमें नहीं जाऊंगा. वो – पराई दुनिया है. घिनौनी
दुनिया है! ये पूरी तरह गुप्त रखना होगा, स्-स्-स् !”
मेरे होंठ असाधारण रूप से जल्दी जल्दी सूख रहे थे. मैंने, न जाने क्यों, अपनी बगल में पत्रिका का अंक रखा था; शायद
इस उद्देश्य से कि पढूंगा. मगर कुछ भी नहीं पढ़ा. एक बार और थर्मामीटर लगाना चाहा, मगर नहीं रखा. थर्मामीटर बगल में ही कुर्सी
पर पडा है, मगर मुझे, न जाने क्यों उसके लिए कहीं जाना पड़ता. फिर
मैं पूरी तरह होश खोने लगा. “शिपिंग कंपनी” के अपने सहकारी का चेहरा तो मुझे याद
है, मगर डॉक्टर
का चेहरा धुंधला हो गया. मतलब, ये फ्ल्यू
था. कुछ दिनों तक मैं बुखार में बेसुध रहा, और फिर तापमान कम हो गया. मुझे
‘शान-ज़ेलिज़े’ दिखाई देना बंद हो गया, और कोई भी हिट पर थूक नहीं रहा था, और पैरिस सौ मील नहीं फैला.
मुझे भूख लगी थी, और भली पड़ोसन, मास्टर की बीबी ने मुझे शोरवा उबालकर दिया. मैंने टूटे कान वाले कप से उसे पिया, अपनी रचना को पढ़ने की कोशिश की, मगर दस ही पंक्तियाँ पढ़कर उसे एक तरफ रख
दिया.
करीब बारहवें दिन मैं तंदुरुस्त हो गया. मुझे इस बात का आश्चर्य हुआ कि
रुदल्फी मुझे देखने नहीं आया, हालांकि मैंने उसे पर्चा भेजा था कि मेरे यहाँ आये.
बारहवें दिन मैं घर से निकला, “मेडिकल कपिंग
ब्यूरो” में गया और उस पर बड़ा सा ताला देखा.
तब मैं ट्राम में बैठकर, कमजोरी के
मारे खिड़की की फ्रेम पकडे और जमे हुए शीशे पर सांस छोड़ते हुए बड़ी दूर तक गया. वहाँ
पहुँचा, जहाँ
रुदल्फी रहता था. घंटी बजाई. किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. दुबारा बजाई. एक बूढ़े
ने दरवाज़ा खोला और तिरस्कार से मेरी तरफ देखा.
“रुदल्फी घर में है?”
बूढ़े ने अपने नाईट-शूज़ की नोक की तरफ देखा और जवाब दिया, “ नहीं है.”
मेरे इन सवालों के जवाब में कि – वह कहाँ गया है, कब वापस आयेगा, और मेरे हास्यास्पद सवाल के जवाब में, कि “ब्यूरो” पर ताला क्यों लटक रहा है, बूढ़ा कुछ झिझका, उसने पूछा कि मैं कौन हूँ. मैंने सब कुछ
समझाया, यहाँ तक कि उपन्यास के बारे में भी बताया. तब बूढ़े ने बताया:
“वह हफ्ता भर पहले अमेरिका चला गया.”
मुझे मार डालो, अगर मुझे
पता हो कि रुदल्फी कहाँ और क्यों गायब हो गया. उपन्यास कहाँ गायब हो गया, “ब्यूरो” का क्या हुआ, कहाँ का अमेरिका, कैसे गया, नहीं जानता और कभी जान भी नहीं पाऊंगा. बूढा
कौन है, शैतान ही
जाने!
फ्ल्यू के बाद आई कमजोरी के प्रभाव में मेरे थके हुए दिमाग में एक ख़याल
कौंध गया कि कहीं मैंने यह सब सपने में तो नहीं देखा था – मतलब, खुद रुदल्फी को, और छपे हुए उपन्यास को, और शान-ज़िलीज़े, और वसीली पित्रोविच को, और कील से कटे हुए कान को. मगर घर पहुँचने
पर मैंने अपने यहाँ नौ नीली-नीली किताबें देखीं. उपन्यास प्रकाशित किया गया था.
हाँ, प्रकाशित हुआ था. ये रहा वो.
अफसोस कि पत्रिका में छपे हुए लोगों में से मैं किसी को नहीं जानता था. तो, रुदल्फी के बारे में किसी से पूछ नहीं सकता
था.
एक और बार “ब्यूरो” में जाने पर मुझे यकीन हो गया कि वहाँ कोई
ब्यूरो-व्यूरो नहीं है, बल्कि मोमजामे से ढंकी मेजों वाला कैफे है.
नहीं, आप मुझे
समझाइये, इतनी सैंकड़ों पत्रिकाएँ कहाँ गायब हो गईं? कहाँ हैं वे?
ऐसी अजीब घटना, जैसी इस
उपन्यास और रुदल्फी के साथ हुई थी, मेरे जीवन
में पहले कभी नहीं हुई थी.
अध्याय – ७
ऐसी अजीब परिस्थितियों में सबसे ज़्यादा अक्लमंदी का काम होता यह सब भूल
जाना और रुदल्फी के बारे में सोचना बंद किया जाए, और उसके साथ पत्रिका के अंक के गायब होने के
बारे भी न सोचा जाए. मैंने ऐसा ही किया.
मगर इससे मुझे आगे जीने की क्रूर ज़रुरत से राहत नहीं मिली. मैंने अपनी
पिछली ज़िंदगी पर नज़र डाली.
‘तो,’ मार्च के
बर्फानी तूफानों में, केरोसिन
लैम्प के पास बैठकर, मैंने अपने
आप से कहा, - ‘मैं इन जगहों पर जा चुका हूँ.
पहली दुनिया : यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला, जिसमें मुझे ‘फ्यूम हुड’ तथा “ट्रायपोड्स पर रखी कुप्पियों
की याद है. ये दुनिया मैंने गृहयुद्ध के दौरान छोड़ दी थी. इस बात पर बहस नहीं
करेंगे कि मैंने परिणामों का विचार किये बिना ये काम किया. अविश्वसनीय साहसिक
कारनामों के बाद (हाँलाकि, वैसे, अविश्वसनीय क्यों? – आखिर गृहयुद्ध के दौरान
किसने अविश्वसनीय कारनामों का सामना नहीं किया था?), संक्षेप में, इसके बाद मैं “शिपिंग कंपनी” में पहुँच गया.
किस वजह से? छुपाऊँगा
नहीं. मैं मन में लेखक बनने का सपना संजोये था. तो, इससे क्या? मैंने ‘शिपिंग कंपनी’ की दुनिया भी छोड़ दी.
और, वाकई में, जिस दुनिया में जाने का मैं प्रयत्न कर रहा
था, वह दुनिया
मेरे सामने खुल गई, और वहाँ ऐसी
घटना हुई कि वह मुझे फ़ौरन असहनीय लगने लगी. जैसे पैरिस की कल्पना करते ही मेरे भीतर सिहरन दौड़ जाती है और मैं दरवाज़े
के भीतर नहीं घुस सकता. और ये शैतान वसीली पित्रोविच! तित्यूषी में बैठा रहता! और
इस्माईल अलेक्सान्द्रविच चाहे कितना ही प्रतिभावान क्यों न हो, पैरिस में सब कुछ बहुत घिनौना है. तो, इसका मतलब, मैं किसी शून्य में रह गया हूँ? बिल्कुल
ठीक.
तो फिर क्या, जब तूने ये
काम हाथ में ले ही लिया है तो, बैठ और
दूसरे उपन्यास की रचना कर ले, और
पार्टियों में नहीं भी जा सकता है. बात पार्टियों की नहीं है, बल्कि असल बात तो ये है, कि मैं वाकई में नहीं जानता था कि ये दूसरा
उपन्यास किस बारे में होना चाहिए? मानवता को
क्या दिखाना है? यही तो सारी
समस्या है.
वैसे, उपन्यास के
बारे में. सच का सामना करें. उसे किसीने नहीं पढ़ा था. पढ़ भी नहीं सकता था, क्योंकि ज़ाहिर है, किताब को वितरित करने से पूर्व ही रुदल्फी
गायब हो गया था. और मेरे दोस्त ने भी, जिसे मैंने एक प्रति भेंट में दी थी, उसने भी नहीं पढ़ा था. यकीन दिलाता हूँ.
हाँ, वैसे: मुझे
यकीन है, कि इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद कई लोग मुझे बुद्धिजीवी और न्यूरोटिक (विक्षिप्त)
कहेंगे. पहले के बारे में तो बहस नहीं करूंगा, मगर दूसरे के बारे में पूरी संजीदगी से आगाह
करता हूँ, कि ये झूठ
है. मुझमें तो न्यूरेस्थेनिया (विक्षिप्तता) का लेशमात्र भी नहीं है. और वैसे, इस शब्द को इधर-उधर फेंकने से पहले, सही तरह से यह जानना होगा, कि न्यूरेस्थेनिया आखिर है क्या, और इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की कहानियाँ
सुनना होगा. मगर ये एक अलग बात है. सबसे पहले तो ज़िंदा रहना ज़रूरी था, और इसके लिए पैसे कमाना था.
तो, मार्च की
बकवास बंद करके, मैं काम पर
गया. यहाँ तो ज़िंदगी जैसे मुझे गर्दन से पकड़कर पथभ्रष्ठ बेटे की तरह वापस ‘शिपिंग
कंपनी’ में ले आई. मैंने
सेक्रेटरी से कहा, कि मैंने
उपन्यास लिखा है. इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ. संक्षेप में, मैं इस बात पर राजी
हो गया, कि हर महीने
चार लेख लिखूंगा. इसके लिए मुझे नियमानुसार मेहनताना प्राप्त होगा. इस तरह, कुछ आर्थिक आधार का जुगाड़ तो हो गया. प्लान
ये था कि जितनी जल्दी हो सके, इन लेखों का
बोझ कन्धों से उतार दूँ और रातों को फिर से लिखूं.
पहला भाग तो मैंने पूरा कर लिया, मगर दूसरे भाग के साथ शैतान जाने क्या हुआ. सबसे पहले मैं किताबों की
दुकानों में गया और आधुनिक लेखकों की रचनाएं खरीदीं. मैं जानना चाहता था, कि वे किस बारे में लिखते हैं, इस कला का जादुई रहस्य क्या है.
क़िताबें खरीदते समय मैंने पैसे की फ़िक्र नहीं की, बाज़ार में उपलब्ध सबसे बढ़िया चीज़ें खरीदता
रहा. सबसे पहले मैंने इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की रचनाएं, अगाप्योनव की किताब, लिसासेकव के दो उपन्यास, फ़्लविआन फिआल्कोव के दो कथा संग्रह और भी
बहुत कुछ खरीदा.
सबसे पहले, बेशक, मैं इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की ओर लपका. जैसे
ही मैंने आवरण पर नज़र डाली, एक अप्रिय
भावना मुझे कुरेदने लगी. किताब का शीर्षक था “ पैरिस के अंश”.
आरंभ से अंत तक वे सभी मुझे जाने-पहचाने लगे. मैंने नासपीटे कन्द्यूकोव को पहचाना,
जिसने ऑटोमोबाईल प्रदर्शनी में उल्टी कर दी थी, और उन दोनों
को भी, जो शान-ज़िलीज़ पर हाथा-पाई कर बैठे थे (एक था, शायद, पमाद्किन, दूसरा – शिर्स्त्यानिकव),
और उस बदमाश को भी जिसने ‘ग्रांड ओपेरा’ में अभद्र रूप से
मुट्ठी दिखाई थी. इस्माईल अलेक्सान्द्रविच असाधारण प्रतिभा से लिखता था, उसकी तारीफ़ करनी ही चाहिए, और उसने पैरिस के बारे
में मेरे मन में एक भय की भावना पैदा कर दी.
अगाप्योनव ने,
लगता है, अपना कथा-संग्रह – ‘त्योतुशेन्स्काया गमाज़ा’ -
पार्टी के फ़ौरन बाद प्रकाशित कर दिया. यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था, कि वसीली पित्रोविच कहीं भी रात बिताने का इंतज़ाम नहीं कर पाया था, वह अगाप्योनव के यहाँ रात गुजारता था, जिसे खुद को
‘बेघर देवर’ की कहानियों का इस्तेमाल करना पडा. सब कुछ समझ में आ रहा था, सिवाय पूरी तरह आगामी शब्द ‘गमाज़ा’ के.
मैंने दो बार
लिसासेकव के उपन्यास ‘हंस’ को पढ़ना शुरू किया, दो बार
पैंतालीसवें पृष्ठ तक पढ़ा गया और फिर से शुरू से पढ़ने लगा,
क्योंकि भूल गया कि आरंभ में क्या था. इससे मैं सचमुच घबरा गया। मेरे दिमाग़ में
कुछ गड़बड़ हो रही थी – या तो मैं गंभीर बातें समझना भूल गया था या अभी तक उन्हें
समझ नहीं पाया था. और मैंने लिसासेकव को हटा कर फ़्लाविआन को पढ़ना शुरू किया और
लिकास्पास्तव को भी, और इस अंतिम लेखक ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया. खासकर, उस कहानी को पढ़ते हुए, जिसमें किसी विशिष्ट पत्रकार
का वर्णन किया गया था ( कहानी का शीर्षक था ‘ऑर्डर पर किराएदार’), मैंने फटे हुए सोफे को पहचान लिया, जिसके भीतर से
स्प्रिंग बाहर उछल आई थी, मेज़ पर सोख्ता...मतलब, कहानी में वर्णन किया था...मेरा!
पतलून भी वही,
कन्धों के बीच खींचा हुआ सिर और भेडिये जैसी आंखें...मतलब,
एक लब्ज़ में, मैं ही था! मगर, हर उस चीज़ की, जो मुझे ज़िंदगी
में प्रिय थी, कसम खाकर कहता हूँ, कि मेरा
वर्णन ईमानदारी से नहीं किया गया था. मैं बिल्कुल भी चालाक नहीं हूँ, लालची नहीं हूँ, शरारती नहीं हूँ, झूठा नहीं हूँ, पदलोलुप नहीं हूँ, और ऐसी बकवास, जैसी इस कहानी में है, मैंने कभी भी नहीं की!
लिकास्पास्तव की
कहानी को पढ़कर मुझे अवर्णनीय दुःख हुआ. और मैंने खुद को निष्पक्ष भाव से और कठोरता
से देखने का निर्णय कर लिया, और इस निर्णय के लिए मैं लिकास्पास्तव का अत्यंत
आभारी हूँ.
मगर मेरे दुःख
और अपनी अपरिपूर्णता के बारे में मेरे विचारों का मूल्य, खासकर,
कुछ भी नहीं था, उस भयानक आत्मज्ञान के मुकाबले में, कि मैं
सर्वश्रेष्ठ लेखकों की पुस्तकों से कुछ भी हासिल नहीं कर पाया था, कोई रास्ता, जैसा कहते हैं,
नहीं खोज पाया, अपने सामने कोई रोशनी नहीं देख पाया, और मैं हर चीज़ से बेज़ार हो गया. और एक घृणित विचार किसी कीड़े की तरह मेरे
दिल को कुरेदने लगा, कि मैं कभी भी लेखक नहीं बन पाऊंगा. और
तभी एक और भयानक विचार से टकराया, कि ...तो फिर लिकास्पास्तव
जैसे लेखक कैसे बनते हैं? हिम्मत करके कुछ और भी कहूंगा: और
अचानक वैसे, जैसा अगाप्योनव है? गमाज़ा? गमाज़ा क्या है? और काफ़िर किसलिए? ये सब बकवास है, आपको यकीन दिलाता हूँ!
निबंधों से परे
मैंने बहुत सारा समय अलग-अलग तरह की किताबें पढ़ते हुए, सोफे पर बिताया,
जिन्हें जैसे-जैसे मैं खरीदता गया, लंगडी किताबों की शेल्फ
में और मेज़ पर और बस कोने में रखता गया. मेरी अपनी रचना के साथ मैंने ऐसा किया कि बची
हुई नौ प्रतियों और पांडुलिपि को मेज़ की दराजों में रख दिया, उन्हें चाभी से बंद
कर दिया और फैसला कर लिया कि ज़िंदगी में उनकी ओर कभी नहीं लौटूंगा.
एक बार बर्फानी
बवंडर ने मुझे जगा दिया. मार्च तूफ़ानी था और चिंघाड़ रहा था,
हांलाकि समाप्त होने को था, और फिर से,
जैसे तब, मैं आंसुओं तर जाग गया! कैसी कमजोरी, आह, कैसी कमजोरी है! और फिर से वे ही लोग, और फिर से
दूरस्थ शहर, और पियानो का किनारा, और
गोलीबारी, और फिर से कोई बर्फ़ में गिरा हुआ.
ये लोग सपनों में पैदा होते, सपनों से बाहर आते और
मेरी कोठरी में बस जाते. ज़ाहिर था कि उनसे इस तरह अलग होना संभव नहीं था. मगर उनके
साथ किया क्या जाए?
शुरू में तो मैं सिर्फ बातें करता रहा,
मगर फिर भी उपन्यास तो मुझे दराज़ से बाहर निकालना ही पडा, अब
मुझे शाम को ऐसा प्रतीत होने लगा, कि सफ़ेद पृष्ठ से कोई
रंगीन चीज़ उभर रही है. गौर से देखने पर, आंखें सिकोड़ कर
देखने पर, मुझे यकीन हो गया की यह एक चित्र है. और ऊपर से ये
चित्र समतल नहीं है, बल्कि तीन आयामों वाला है. जैसे कोई
डिब्बा हो, और उसमें पंक्तियों के बीच से दिखाई दे रहा है:
रोशनी जल रही है और उसमें वे ही आकृतियाँ घूम रही हैं जिनका उपन्यास में वर्णन
किया गया है. आह, ये कितना दिलचस्प खेल था, और मैं कई बार पछताया कि बिल्ली अब इस दुनिया में नहीं है और यह दिखाने
के लिए कोई नहीं था कि छोटे से कमरे में पृष्ठ पर लोग कैसे घूम रहे हैं. मुझे यकीन
है कि जानवर अपना पंजा निकाल कर पृष्ठ को खरोंचने लगता. मैं कल्पना कर सकता हूँ,
कि बिल्ली की आंख में कैसी जिज्ञासा चमक रही होगी, कैसे उसका
पंजा अक्षरों को खरोंच रहा होगा!
समय के साथ किताब वाला कमरा आवाज़ करने लगा. मैंने स्पष्ट रूप से
पियानो की आवाज़ सुनी. सही है, कि अगर मैं किसी से इस बारे में कहता, तो यकीन कीजिये, मुझे डॉक्टर के पास जाने की सलाह
दी जाती. कहते, कि फर्श के नीचे पियानो बजा रहे हैं, और ये भी कहते, संभव है, कि
निश्चित रूप से बजा रहे हैं. मगर मैं इन शब्दों पर ध्यान नहीं देता. नहीं, नहीं! मेरी मेज़ पर पियानो बजा रहे हैं, यहाँ
कुंजियों की शांत झंकार हो रही है. मगर ये तो कम ही है. जब घर शांत हो जाएगा और
नीचे कुछ भी नहीं बजा रहे होंगे, मैं सुनूंगा, कि कैसे बवंडर के बीच से व्याकुल और डरावना हार्मोनियम चिघाड रहा है, और क्रोधित और दयनीय आवाजें हार्मोनियम के साथ मिलकर कराह रही हैं, कराह रही हैं. ओह, नहीं, ये
फर्श के नीचे नहीं है. कमरा बुझ क्यों रहा है, पन्नों पर
द्नेप्र के ऊपर वाली शीत ऋतु की शाम क्यों छा रही है, घोड़ों के थोबड़े, और उनके ऊपर
टोपियाँ पहने लोगों के चेहरे. और मैं देखता हूँ तेज़ तलवारें, और सुनता हूँ, आत्मा को चीरती हुई सीटी. ये, हांफते हुए एक
छोटा-सा आदमी भाग रहा है. तम्बाकू के धुएँ के बीच मैं उसका पीछा करता हूँ, मैं अपनी आंखों पर ज़ोर डालता हूँ और देखता हूँ: आदमी के पीछे एक चमक हुई, गोली चली, वह हांफते हुए पीठ के बल गिर जाता है, जैसे किसी तेज़ चाकू से उसके दिल पर सामने से वार किया गया हो. वह निश्चल
पडा है, और सिर से काला पोखर फ़ैल जाता है. और ऊंचाई पर चाँद
है, और दूर पर बस्ती की उदास, लाल रोशनियों की श्रृंखला.
पूरी ज़िंदगी ये
खेल खेला जा सकता था, पन्ने की तरफ देखते हुए...मगर इन आकृतियों को कैसे पक्का करके रखेंगे? इस
तरह, कि वे कहीं और न भाग जाएं?
और एक रात को
मैंने इस जादुई डिब्बे का वर्णन करने का निश्चय कर लिया. कैसे करूँ उसका वर्णन?
बिल्कुल आसान
है. जो देखते हो, वही लिखो, और जो नहीं देखते,
उसका वर्णन करने की ज़रुरत नहीं है. यहाँ: चित्र रोशन होता है, चित्र चमकता है. क्या वह मुझे अच्छा लगता है? बेहद.
तो, मैं लिखता हूँ: पहला चित्र. मैं देखा रहा हूँ शाम का
मंज़र, लैम्प जल रहा है. पियानो पर नोट्स खुले पड़े हैं.
‘फ़ाऊस्ट’ बजा रहे हैं. अचानक ‘फ़ाउस्ट’
खामोश हो जाता है, मगर गिटार बजने लगता है. कौन बजा रहा है? वो हाथ में गिटार लिए दरवाज़े से बाहर निकलता है. सुन रहा हूँ – वह
गुनगुना रहा है. लिखता हूँ – गुनगुना रहा है.
हाँ, लगता है की यह एक आकर्षक खेल
है! पार्टियों में जाने की ज़रुरत नहीं है, न ही थियेटर में
जाने की कोई ज़रुरत है.
तीन रातें
मैंने पहली तस्वीर से खेलते हुए बिताईं, और इस रात के अंत में मैं समझ गया की मैं
नाटक लिख रहा हूँ.
अप्रैल के
महीने में, जब आँगन से बर्फ गायब हो चुकी थी, पहला अंक तैयार हो गया था. मेरे नायक हलचल कर रहे थे, घूम रहे थे, और बातें कर रहे थे.
अप्रैल के अंत
में ईल्चिन का पत्र आया.
और अब, जब पाठक को उपन्यास का इतिहास
ज्ञात है, मैं अपना कथन वहां से जारी रख सकता हूँ, जब मैं ईल्चिन से मिला था.
अध्याय 8
सुनहरा घोड़ा
“हाँ,” धूर्तता से रहस्यमय ढंग से
आंखें सिकोड़ते हुए ईल्चिन ने दुहराया, “मैंने आपका उपन्यास पढ़ लिया है.”
मैंने आंखें
फाड़कर वार्तालाप कर रहे व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रकाशित हो जाता, तो
कभी बुझ जाता. खिड़कियों के पीछे पानी के थपेड़े बह रहे थे. ज़िंदगी में पहली बार
मैंने अपने सामने पाठक को देखा था.
“मगर आपने उसे
हासिल कैसे किया? देखिये....किताब...” मेरा इशारा उपन्यास की ओर था...
“आप ग्रीशा
ऐवाज़ोव्स्की को जानते हैं?”
“नहीं.”
ईल्चिन ने भंवे ऊपर उठाईं, उसे अचरज हुआ.
“ग्रीशा
फ्रेंड्स ग्रुप कगोर्ता में साहित्यिक विभाग का प्रभारी है.”
“और ये कगोर्ता
क्या है?”
ईल्चिन को इतना अचरज हुआ, कि वह बिजली का इंतज़ार करने लगा, ताकि मुझे अच्छी तरह देख सके.
बिजली चमकी और
लुप्त हो गयी, और ईल्चिन ने आगे कहा:
“कगोर्ता – एक
थियेटर है. क्या आप वहाँ कभी नहीं गए?”
“मैं किसी भी
थियेटर में नहीं गया हूँ. देखिये, आप तो जानते हैं कि मैं हाल ही में मॉस्को आया हूँ.”
तूफ़ान का ज़ोर कम
हो गया, और दिन वापस लौटने लगा. मैं देख रहा था, कि मैं
ईल्चिन में एक खुशनुमा अचरज जगा रहा हूँ.
“ग्रीशा बेहद
खुश था,” ना जाने क्यों और भी रहस्यमय ढंग से ईल्चिन ने कहा, और मुझे किताब दी. बढ़िया उपन्यास है.”
ये नहीं समझते
हुए कि ऐसे हालात में क्या करना है, मैंने झुककर ईल्चिन का अभिवादन किया.
“और जानते हैं, कि मेरे दिमाग़ में क्या ख़याल
आया,” रहस्यमय ढंग से अपनी बाईं आंख को सिकोड़ते हुए ईल्चिन
फुसफुसाया, “ इस उपन्यास से आपको एक नाटक लिखना चाहिए!”
‘किस्मत की
मेहेरबानी!’ मैंने सोचा और कहा:
“आप जानते हैं, मैंने उसे लिखना शुरू कर दिया
है.”
ईल्चिन को इतना
आश्चर्य हुआ की वह दाएं हाथ से बायां कान खुजाने लगा और उसने और ज़्यादा ताकत से
आंखें सिकोड़ लीं. उसने, शायद,
पहले तो इस संयोग पर विश्वास ही नहीं किया, मगर फ़ौरन अपने आप
पर काबू पा लिया.
“अद्भुत, अद्भुत! आप निरंतर लिखते रहिये, पल भर के लिए भी न रुकिए. क्या आप मीशा पानिन को जानते हैं?”
“नहीं.”
“हमारे साहित्य
विभाग का प्रमुख.”
“ओहो.”
ईल्चिन ने आगे
कहा, कि चूंकि पत्रिका में उपन्यास का सिर्फ एक तिहाई भाग प्रकाशित हुआ है, और आगे क्या हुआ, यह जानना नितांत
आवश्यक है, इसलिए मुझे इस आगे के भाग को पांडुलिपि से उसे और मीशा को पढ़कर सुनाना है, और साथ ही एव्लाम्पिया
पित्रोव्ना को भी, और, अपने अनुभव से सीखकर, उसने यह भी नहीं पूछा कि क्या मैं उसे जानता हूँ, बल्कि खुद ही समझाया
की यह महिला-डाइरेक्टर है.
ईल्चिन की सभी योजनाओं से मैं बेहद उत्तेजित हो गया.
और वह फुसफुसाता रहा:
“आप नाटक लिखिए, और हम उसका मंचन करेंगे। ये होगी बढ़िया बात! आँ ?”
मेरा सीना उत्तेजना से धड़धड़ा रहा था, मैं दोपहर के तूफ़ान के नशे में था, किन्हीं पूर्वानुमानों
से परेशान था. और ईल्चिन ने कहा:
“और, पता है, शैतान न जाने क्या-क्या गुल खिलाये, हो सकता है, बूढ़ा अचानक राज़ी हो
जाए...आँ?”
यह जानकर की मैं बूढ़े को भी नहीं जानता, उसने सिर हिलाया, और उसकी आंखों में भाव
था: “ये है मासूम बच्चा!”
“इवान वसील्येविच वसील्येविच!” वह
फुसफुसाया. “इवान वसील्येविच वसील्येविच!
क्या? आप उसे नहीं जानते? क्या आपने नहीं सुना की वह ‘इन्डिपेंडेंट’ का प्रमुख है?” और आगे बोला: अच्छा, अच्छा.”
मेरे दिमाग में सब कुछ घूम रहा था, और ख़ासकर इस वजह से कि आसपास की दुनिया मुझे
न जाने क्यों परेशान कर रही थी. जैसे हाल ही के सपनों में मैं उसे पहले ही देख
चुका हूँ, और अब उसमें पहुँच गया हूँ.
मैं और ईल्चिन कमरे से बाहर निकले, भट्टी वाले हॉल को पार किया, और ये हॉल मुझे इतना
पसंद आया, मानो मैं खुशी के नशे में झूम रहा हूँ. आसमान साफ़ हो गया था, और अचानक लकड़ी के फर्श पर प्रकाश की किरण रेंग गयी. और
फिर हम कुछ अजीब से दरवाजों के पास से गुज़ारे, और, मेरी
दिलचस्पी देखकर, ईल्चिन ने लुभाने वाले अंदाज़ में उंगली से
भीतर की ओर इशारा किया. कदमों की आहट गायब हो गयी, सन्नाटा
और भूमिगत अन्धेरा छा गया. मेरे साथी के संरक्षक हाथ ने मुझे बाहर खींचा, लंबे, आयताकार हिस्से में कृत्रिम रूप से रोशनी हो रही थी – ये मेरे साथी ने भारी
परदे हटाये, और हम करीब तीन सौ सीटों वाले दर्शक हॉल में
पहुंचे. छत के नीचे झूमर में दो लैम्प मंद-मंद जल रहे थे,
परदा खुला था, और स्टेज खुला-खुला था. वह गंभीर, रहस्यमय और खाली था. उसके कोनों में अन्धेरा था, और
बीच में कुछ-कुछ चमकते हुए, पिछली टांगों पर खड़ा था, सुनहरा घोड़ा.
“आज हमारा
छुट्टी का दिन है,” ईल्चिन गंभीरता से फुसफुसाया, जैसे मंदिर में हो, फिर वह दूसरे कान के पास आया और कहता रहा, “
नौजवानों में नाटक लोकप्रिय होगा, इससे बढ़िया चीज़ की तो
उम्मीद ही नहीं कर सकते. आप इस बात पर ध्यान न दीजिये कि हॉल छोटा नज़र आ रहा है, असल में वह बड़ा ही है, और यहाँ आवक, वैसे,
पूरी-पूरी होती है. और अगर बूढ़ा ज़िद पर अड़ जाए, तो क्या पता, वह बड़े स्टेज पर भी पहुँच जाए! आ?”
‘वह मुझे ललचा
रहा है,’ मैंने सोचा, और मेरा दिल पूर्वाभास से धड़धड़ा रहा
था, और काँप रहा था, - ‘मगर वह सीधे
मतलब की बात क्यों नहीं करता है? ये सही है, कि यह बड़ी आवक महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण है यह सुनहरा घोड़ा, और बेहद दिलचस्प है यह रहस्यमय बूढा, जिसे मनाया जा
सकता है, और सीधा किया जा सकता है,
ताकि नाटक चल पड़े...’
“ये दुनिया
मेरी है...” मैं फुसफुसाया, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि मैं ज़ोर से बोल रहा हूँ.
“आ?”
“नहीं, मैं वैसे ही.”
मैंने ईल्चिन
से बिदा ली, जाते-जाते मैंने उससे एक सिफ़ारिशी पत्र लिया:
“आदरणीय
प्योत्र पित्रोविच!
कृपया “काली
बर्फ” के लेखक के लिए “पसंदीदा” में जगह सुनिश्चित करें”.
भवदीय,
ईल्चिन.”
“इसे ‘काउंटर
मार्क’ (फ्री टिकट – अनु.) कहते
हैं,” ईल्चिन ने मुझे समझाया, और मैं ज़िंदगी का पहला
‘काउंटर मार्क’ लिए, बिल्डिंग से बाहर
निकला.
उस दिन से मेरा
जीवन नाटकीय रूप से बदल गया. दिन में मैं पूरे जोश से नाटक पर काम करता, और दिन की रोशनी में पन्नों से
चित्र नहीं प्रकट होते, डिब्बा प्रशिक्षण-मंच के आकार तक
विस्तारित हो गया.
शाम को मैं
बेताबी से सुनहरे घोड़े से मुलाक़ात का इंतज़ार करता.
मैं कह नहीं
सकता कि नाटक “पसंदीदा” अच्छा था या बकवास. इस बात में मुझे दिलचस्पी भी नहीं थी.
मगर इस प्रस्तुतीकरण में कोई अनिर्वचनीय आकर्षण तो था. जैसे ही छोटे से हॉल में
रोशनी बुझ जाती, स्टेज के पीछे कहीं संगीत शुरू हो जाता और अठाहरवीं शताब्दी की पोशाकें
पहने लोग डिब्बे में बाहर निकलते. सुनहरा घोड़ा स्टेज के किनारे पर खडा था, पात्र कभी-कभी बाहर निकलते और घोड़े के खुरों के पास बैठ जाते या उसकी
थूथन के पास भावुक बातचीत करते, और मैं इसका आनंद लेता.
जब
प्रस्तुतीकरण समाप्त हो जाता और बाहर आना पड़ता, तो कटु विचार मुझ पर हावी हो
जाते. बहुत दिल चाहता था मेरा बिल्कुल वैसा ही कफ्तान पहनने को, जैसा कलाकार पहने थे, और अभिनय में भाग लेने को.
उदाहरण के लिए, ऐसा लगता कि कितना अच्छा होता, अगर मैं चेहरे पर बड़ी भारी चपटी नाक चिपकाए, तम्बाकू वाला कफ्तान पहने, छड़ी लिए, हाथ में नसवार लिए अचानक किनारे से बाहर
निकलता और कोई बेहद मज़ाकिया बात कहता, और इस मज़ाकिया बात को
दर्शकों की सटी हुई पंक्ति में बैठे-बैठे मैंने सोच भी लिया था. मगर मज़ाकिया बात
दूसरे कलाकार कह रहे थे, गैरों के द्वारा लिखी गयी, और हॉल कभी-कभार हंस देता. न इससे पहले, न इसके बाद
मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ, जिसने मुझे इससे बड़ी खुशी दी हो.
मैं “पसंदीदा” तीन बार गया, उदास और अंतर्मुख प्योत्र
पित्रोविच को विस्मित करते हुए, जो ‘प्रशिक्षण-स्टेज का
संचालक’ लिखी छोटी खिड़की में बैठा रहता, जिसमें पहली बार दूसरी पंक्ति में, दूसरी बार – छठी
पंक्ति में, और तीसरी बार – ग्यारहवीं पंक्ति में बैठा था.
और ईल्चिन नियमित रूप से मुझे नोट्स देता, और मैंने एक और नाटक देखा, जिसमें कलाकार स्पैनिश पोशाकों में बाहर निकलते और जिसमें एक कलाकार ने
नौकर की भूमिका इतने शानदार और मज़ाकिया ढंग से निभाई, कि
खुशी के कारण मेरे माथे पर पसीने की छोटी-छोटी बूँदें छलक आईं.
फिर मई का
महीना आया, और आखिरकार, एक शाम को, एव्लाम्पिया पित्रोव्ना, और मीशा, और ईल्चिन, और मैं एक साथ बैठे. हम इसी प्रशिक्षण-स्टेज की बिल्डिंग के एक संकरे
कमरे में आये. खिड़की खुली हुई थी, और शहर ‘बीप-बीप’ की आवाजों से अपने बारे में अनुभव करवा रहा था.
एव्लाम्पिया
पित्रोव्ना शाही चेहरे वाली, शाही महिला थी, जिसने कानों में हीरे की बालियाँ पहनी थीं, जबकि मीशा ने अपनी हंसी से मुझे हैरान कर दिया. वह अचानक हंसना शुरू कर
देता, - “आह, आह,
आह”, तब सब लोग बातचीत बंद कर देते और इंतज़ार करते. जब वह अपनी हंसी बंद करता, तो अचानक बूढा हो जाता, खामोश हो जाता.
‘कैसी मातमी
आंखें हैं उसकी,’ मैं अपनी दर्दनाक आदत से कल्पना करने लगता. ‘इसने कभी द्वंद्व-युद्ध में
पितीगोर्स्क में अपने दोस्त को मार डाला था,’ – मैं सोच रहा
था, ‘और अब वह दोस्त रातों को इसके पास आता है, चाँद की रोशनी में खिड़की के पास सिर हिलाता है.’
मुझे मीशा बहुत
अच्छा लगा.
मीशा और ईल्चिन
और एव्लाम्पिया पित्रोव्ना अपनी असाधारण सहनशक्ति का परिचय दे रहे थे, और एक ही बैठक में मैंने
उपन्यास का वह एक तिहाई भाग पढ़ दिया जो प्रकाशित अंश के बाद आता था. अचानक मेरी
आत्मा मुझे कचोटने लगी, और मैं ये कहकर रुक गया, कि आगे सब
कुछ स्पष्ट है. देर हो चुकी थी.
श्रोताओं के
बीच बातचीत चल रही थी, और, हाँलाकि वे रूसी में बोल रहे थे, मगर वह इतनी रहस्यमय थी, कि मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था.
मीशा की आदत थी
कि किसी भी बात पर चर्चा करते समय वह कमरे में इधर-उधर भागा करता था, कभी कभी अचानक ठहर भी जाता.
“ओसिप इवानिच?” ईल्चिन ने आंखें सिकोड़ते हुए
हौले से पूछ लिया.
“ना-ना,” मीशा
ने जवाब दिया और अचानक हंसी से लोटपोट हो गया. हंसने के बाद, उसे फिर से गोली मारे गए
व्यक्ति की याद आई और वह गंभीर हो गया.
“आम तौर से वरिष्ठ...” ईल्चिन कहने लगा.
“मैं ऐसा नहीं
सोचता,” मीशा बुदबुदाया.
आगे सुनाई
दिया:
“मगर सिर्फ
गालिनों और सहायक पर तो ज़्यादा नहीं...(ये एव्लाम्पिया पित्रोव्ना थी).
“माफ़ कीजिये,” मीशा ने तेज़ी से कहा और हाथ
हिलाने लगा, “मैं कब से इस बात पर ज़ोर दे रहा हूँ, कि इस सवाल को थियेटर में उठाने का समय आ गया है!”
“और ‘सीव्त्सेव
व्राझेक’ के बारे में क्या ख़याल है?” (एव्लाम्पिया पित्रोव्ना).
“और ‘इंडिया’
भी, पता नहीं कि इस विषय पर क्या प्रतिक्रिया देगा,”
ईल्चिन ने आगे कहा.
“हमें सब कुछ एक ही बार में पेश करना होगा,” ईल्चिन हौले से फुसफुसाया, “वे म्यूजिक से साथ पेश करते हैं”.
“सीव्त्सेव!”
एव्लाम्पिया पित्रोव्ना ने गहरे अंदाज़ में कहा.
अब मेरे चेहरे पर, ज़ाहिर है, पूरी तरह बदहवासी छा गयी, क्योंकि, श्रोताओं ने अपनी समझ में न आने वाली
बातचीत रोक दी और मुझसे मुखातिब हुए.
“हम सब तहे दिल से प्रार्थना करते हैं, सिर्गेई लिओन्तेविच, कि नाटक अगस्त तक पूरा हो जाए, ताकि सीज़न के आरम्भ
में इसे पढ़ा जा सके.”
मुझे याद नहीं कि मई का महीना कैसे ख़तम हुआ. जून
भी दिमाग़ से निकल गया, मगर जुलाई की याद है.
असाधारण गर्मी पड़ने लगी. मैं एक चादर लपेटे
निर्वस्त्र बैठा रहता, और नाटक लिखता रहता. जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे वह अधिकाधिक मुश्किल
होता जा रहा था. मेरा डिब्बा अब आवाज़ नहीं करता था, उपन्यास
बुझ गया, और मृतप्राय पड़ा था, जैसा
अनचाहा हो. रंगीन आकृतियाँ अब मेज़ पर नहीं हिलती थीं, कोई भी मदद के लिए नहीं आया.
अब आंखों के सामने प्रशिक्षण-स्टेज का डिब्बा खडा हो जाता. कलाकार बड़े हो गए और
बड़ी आसानी से और प्रसन्नता से स्टेज पर प्रवेश करते, मगर, ज़ाहिर है, मगर वहाँ उन्हें सुनहरे घोड़े के पास इतना
अच्छा लगता, कि वे कहीं और जाने को तैयार नहीं थे, और घटनाक्रम आगे बढ़ता जा रहा था, मगर उसका कोई अंत
नज़र नहीं आ रहा था. फिर गर्मी कम हो गयी, कांच की सुराही, जिससे मैं उबला हुआ पानी पीता था, खाली हो गयी, उसकी तली पर मक्खी तैर रही थी.
बारिश होने लगी, अगस्त का महीना आ गया. अब मुझे
मीशा पानिन का ख़त मिला. वह नाटक के बारे में पूछ रहा था.
मैंने हिम्मत बटोरी और घटनाओं के प्रवाह को रोक
दिया. नाटक में तेरह दृश्य थे.
अध्याय 9
शुरू हो गया
सिर को ऊपर उठाकर मैंने अपने ऊपर देखा, एक धुंधला प्रकाश से भरा गोला,
बगल में कांच की अलमारी में विशाल चांदी की माला, जिस पर
रिबन लिपटे हुए थे और लिखा था:
“प्रिय स्वतन्त्र थियेटर को मॉस्को जूरी की
तरफ़ से...” (एक शब्द झुका हुआ था),
अपने सामने मैंने कलाकारों के मुस्कुराते हुए चेहरे देखे, जिनमें से अधिकांश बदल रहे थे.
सन्नाटा दूर से ही सुनाई दे रहा था, और कभी-कभी मैत्रीपूर्ण उदास
गीत के सुर, फिर कोई शोर, जैसा
स्नानागार में होता है. जब मैं अपना नाटक पढ़ रहा था, तो वहाँ
कोई ‘शो’ चल रहा था.
मैं निरंतर अपना माथा रूमाल से पोंछ रहा था और
अपने सामने एक गठीले, हट्टे-कट्टे आदमी को देख रहा था, सफ़ाचट दाढ़ी और सिर
पर घने बालों वाला. वह दरवाज़े में खड़ा था, और मुझसे नज़र नहीं हटा रहा था, जैसे वह
कुछ सोच रहा हो.
सिर्फ वही याद रहा, बाकी सब कुछ उछल रहा था, चमक रहा था और बदल रहा था; अपरिवर्तित थी, इसके अलावा माला. वह सबसे अधिक
स्मृति में अंकित है. ऐसा था पठन, मगर प्रशिक्षण स्टेज पर
नहीं, बल्कि मुख्य स्टेज पर.
रात को निकलते हुए, मैंने मुड़ कर देखा, कि मैं कहाँ
हूँ. शहर के केंद्र में, जहां थियेटर की बगल में
डिपार्टमेंटल स्टोर है, और सामने “बैंडेज और कोर्सेट” है, एक बिल्डिंग थी, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था, कछुए के समान और धुंधले, घनाकार लालटेनों
वाली.
अगले दिन यह इमारत मुझे भीतर से शरद ऋतू के शाम
के धुंधलके में दिखाई दी. याद आता है, कि मैं, सैनिकों के कपड़े के मुलायम कालीन पर किसी चीज़ के चारों ओर चल रहा था, जो, जैसा मुझे प्रतीत हुआ कि दर्शक-हॉल की भीतरी
दीवार थी, और बहुत सारे लोग मेरे निकट से भाग रहे थे. ‘सीज़न’ शुरू हो रहा था. और मैं बेआवाज़ कालीन पर चलते हुए एक बेहद शानदार ढंग से
सुसज्जित ऑफिस में पहुंचा, जहाँ मैने एक बुज़ुर्ग, सफाचट दाढी और प्रसन्न आंखों वाले, प्यारे व्यक्ति को देखा. यह अन्तोन
अन्तोनविच क्निझेविच, नाटको को स्वीकार करने वाली कमेटी का
प्रमुख था.
क्निझेविच की लिखने की मेज़ के ऊपर एक चमकदार, प्रसन्न तस्वीर थी... याद आता
है, कि उस पर लटकनों वाला गहरे लाल रंग का परदा था, और परदे के पीछे हल्का-हरा खुशनुमा बगीचा...
“आह,
कोम्रेड मक्सूदव,” सिर को एक तरफ झुकाते हुए क्निझेविच
स्नेहपूर्वक चिल्लाया, “हम आप ही का इंतज़ार कर रहे हैं,
इंतज़ार कर रहे हैं! विनम्रता से निवेदन करता हूँ, कि कृपया
बैठ जाइए, बैठ जाईये!”
और मैं चमड़े की बेहद आरामदेह कुर्सी में बैठ
गया.
“सुना, सुना, सुना आपका नाटक,” क्निझेविच मुस्कुराते हुए कह रहा था, और न जाने
क्यों हाथों को हिला रहा था, “ख़ूबसूरत नाटक है! ये सच है, कि हमने इस तरह के नाटक पहले कभी प्रस्तुत नहीं किये, मगर इसे फ़ौरन स्वीकार करेंगे और प्रस्तुत करेंगे...”
जैसे-जैसे क्निझेविच बोल रहा था, उसकी आंखें अधिकाधिक प्रसन्न
होती जा रही थीं.
“...और आप खतरनाक रूप से अमीर हो जायेंगे,” क्निझेविच कहता रहा, “गाड़ियों में घूमेंगे! हाँ-, गाड़ियों में!”
‘फिर भी,’ मेरे मन में विचार आया, ‘वह
उलझा हुआ आदमी है, ये क्निझेविच...बहुत जटिल...’
और जैसे-जैसे क्निझेविच अधिकाधिक खुश होता गया, मैं,
आश्चर्यजनक रूप से, अधिकाधिक तनावग्रस्त होता गया.
मुझ से कुछ देर और बात करने के बाद क्निझेविच ने
घंटी बजाई.
“हम अभी आपको गव्रील स्तिपानविच के पास भेजते
हैं, सीधे उसीके पास, मतलब, उसके
हाथों में सौंप देंगे, हाथों में! गज़ब का आदमी है हमारा गव्रील
स्तिपानविच...मक्खी का भी अपमान नहीं करता! मक्खी का भी!”
मगर घंटी की आवाज़ पर आये हुए हरे फीतों वाले
आदमी ने कहा:
“गव्रील स्तिपानविच अभी थियेटर में नहीं आये
हैं.”
“आह, नहीं आये, तो आ जायेंगे,” पहले ही की तरह प्रसन्नता से क्निझेविच ने जवाब दिया, “आधा घंटा भी नहीं
बीतेगा, कि आ जाएगा! और आप, जब तक
ट्रायल चल रही है, थियेटर में घूमिए-फिरिए, अच्छी तरह देखिये, मज़ा उठाइये, हमारे कैंटीन में चाय पीजिये, और
सैंडविच भी, सैंडविच पर कंजूसी न करें,
हमारे कैंटीन वाले, एर्मलायेव इवान वसील्येविच विच को नाराज़ न कीजिये!”
और मैं थियेटर में टहलने के लिए निकल पडा.
कार्पेट पर चलते हुए मेरे जिस्म को आराम मिल रहा था, और चारों तरफ फैला हुआ रहस्यमय
धुंधलका और खामोशी भी प्रसन्नता दे रहे थे.
उस धुंधलके में मेरी एक और व्यक्ति से पहचान
हुई. क़रीब मेरी ही उम्र का आदमी, दुबला-पतला, ऊँचा, मेरे पास
आया और उसने अपना परिचय दिया:
“प्योत्र बम्बार्दव.”
बम्बार्दव ‘स्वतन्त्र थियेटर’ का एक्टर था. उसने
कहा कि वह मेरा नाटक सुन चुका है, और उसकी राय में यह एक अच्छा नाटक है.
न जाने क्यों, पहले ही क्षण से बम्बार्दव से मेरी
दोस्ती हो गयी. वह मुझे अत्यंत बुद्धिमान, चौकस व्यक्ति प्रतीत हुआ.
“क्या आप लॉबी में हमारी पोर्ट्रेट-गैलरी देखना
चाहेंगे?” बम्बार्दव ने विनम्रता से पूछा.
मैंने इस प्रस्ताव के लिए उसे धन्यवाद दिया, और हम विशाल लॉबी में आये, जहां भूरा कालीन बिछा हुआ था. लॉबी की दीवारों पर कई पंक्तियों में
पोर्ट्रेट्स और सुनहरी अंडाकार फ्रेमों में बड़े-बड़े चित्र टंगे हुए थे.
पहली फ्रेम से हमारी तरफ़ करीब तीस वर्षीय महिला
की ऑइल पेंटिंग झाँक रही थी, प्रसन्न आँखें, सामने माथे पर बालों की सीधी लटें, गहरी काट वाली ड्रेस में.
“सारा बिर्नार,”- बम्बार्दव ने स्पष्ट किया.
प्रसिद्ध एक्ट्रेस की बगल में फ्रेम में मूंछों
वाले आदमी की फ़ोटो थी.
“सिवस्त्यानव अंद्रेई पखोमविच, थियेटर की प्रकाश व्यवस्था के
प्रमुख,” बम्बार्दव ने नम्रता से कहा.
सिवस्त्यानव के पड़ोसी को मैं खुद ही पहचान गया, ये मोल्येर था. मोल्येर के बाद
एक महिला थी, एक तरफ़ को झुकी हुई, छोटी-सी तश्तरीनुमा टोपी
में, सीने पर तीर की तरह रूमाल बंधा था, और लेस का रूमाल, जिसे महिला ने अपनी छोटी ऊंगली
बाहर निकालते हुए हाथ में पकड़ा था.
“ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना प्र्याखिना, हमारे थियेटर की कलाकार,” बम्बार्दव ने कहा, उसकी आंखों में एक चमक उठी.
मगर, मेरी तरफ देखकर बम्बार्दव ने आगे कुछ भी नहीं जोड़ा.
“माफ़ी चाहता हूँ, और ये कौन है?” घुंघराले सिर पर लॉरेल वृक्ष की पत्तियाँ बांधे कठोर चेहरे के आदमी को
देखकर मुझे आश्चर्य हुआ. आदमी प्राचीन रोमन ड्रेस में था और उसके हाथों में पांच
तारों का वाद्य था.
“सम्राट नीरो,” बम्बार्दव ने कहा, और फिर से उसकी आंख चमक कर बुझ गई.
“मगर क्यों?...”
“इवान वसील्येविच वसील्येविच के आदेश पर,” चेहरे की भावहीनता को
बनाए रखते हुए बम्बार्दव ने कहा, “नीरो गायक और कलाकार था.”
“अच्छा, अच्छा, अच्छा.”
नीरो के बाद था ग्रिबायेदव, ग्रिबायेदव के बाद – शेक्सपियर,
स्टार्च लगी, लेटी हुई कॉलर में, उसके
बाद – अनजान व्यक्ति, जो प्लीसव निकला,
जो चालीस वर्षों तक थियेटर के टर्निंग-स्टेज का प्रमुख रह चुका था.
आगे थे झिवकीनि, गल्दोनी,
बमार्शे, स्तासव, श्चेप्किन. और इसके
बाद अपनी फ्रेम से मेरी ओर देख रहा था, शानदार, तिरछा
शिरस्त्राण, उसके नीचे शाही चेहरा, सधी हुई मूंछें, सामान्य
घुड़सवारों के एपोलेट्स, लाल लैपल, पेटी.
“स्वर्गीय मेजर-जनरल क्लाउडियस अलेक्सान्द्रविच
कमारोवस्की-एशापार द’ बिआन्कूर, महामहिम की उलान-रेजिमेंट की लाईफ-गार्ड्स के कमांडर.”
और मेरी दिलचस्पी को देखते हुए, बम्बार्दव ने बताया: “उनकी कहानी एकदम असाधारण है. एक बार वह पीटर से दो
दिनों के लिए मॉस्को आये. तेस्तोव के यहाँ भोजन किया, और शाम
को हमारे थियेटर में आये. तो, स्वाभाविक है, पहली पंक्ति में बैठे, देख रहे थे...याद नहीं, कि कौन-सा नाटक प्रदर्शित हो रहा था, मगर
प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया, कि उस दृश्य के दौरान, जिसमें जंगल दिखाया जा रहा था, जनरल के साथ कुछ हो
गया. सूर्यास्त का जंगल, सोने से पहले पंछियों की चहचहाहट,
स्टेज के पीछे दूर के गाँव के गिरजाघर में प्रार्थना...देखते हैं, जनरल बैठे हैं, और कैम्ब्रिक के रूमाल से अपनी
आंखें पोंछ रहे हैं. नाटक पूरा होने के बाद अरिस्तार्ख प्लतोनविच के कार्यालय में
गए. थियेटर के प्रवेशक ने बाद में बताया कि कार्यालय में प्रवेश करते हुए जनरल ने
खोखली और भयानक आवाज़ में कहा, “सिखाइए,
क्या करना है?!”
तो, वे अरिस्तार्ख प्लतोनविच के साथ बंद हो गए...
“माफ़ी चाहता हूँ, मगर ये अरिस्तार्ख प्लतोनविच
कौन है?” मैंने पूछा.
बम्बार्दव ने अचरज से मेरी ओर देखा, मगर फ़ौरन ही चेहरे से विस्मय के
भाव छुपाकर फ़ौरन समझाने लगा:
“हमारे थियेटर के शीर्ष में दो डाइरेक्टर्स हैं –
इवान वसील्येविच वसील्येविच और अरिस्तार्ख
प्लतोनविच. माफ़ कीजिये, क्या आप मॉस्कोवासी नहीं हैं?”
“नहीं, मैं – नहीं...आप, कृपया, अपनी
बात जारी रखिये.”
“... बंद हो गए, और उन्होंनें किस बारे में
बातें कीं, पता नहीं, मगर ये पता है,
कि उसी रात को जनरल ने ऐसा टेलीग्राम पीटर्सबुर्ग भेजा: “पीटर्सबुर्ग. महामहिम की
सेवा में. महामहिम के स्वतन्त्र थियेटर में कलाकार बनने की आत्मा की पुकार पर,
अत्यंत विनम्रतापूर्वक मुझे सेवामुक्त करने की प्रार्थना करता हूँ.
कमारोव्स्की-बियोन्कूर”
मैंने आह भरी और पूछा:
“फिर क्या हुआ?”
“ऐसा मुरब्बा बना, कि बस,
मज़ा आ गया,” बम्बार्दव ने जवाब दिया. “अलेक्सान्द्र तृतीय को
टेलीग्राम रात के दो बजे दिया गया. उन्हें ख़ास तौर पे जगाया गया. वह एक
अंतर्वस्त्र में, दाढी, क्रॉस ...बोले:
‘इधर दो! मेरे एशापार को क्या हुआ है?’ टेलीग्राम पढ़ा और दो
मिनट तक कुछ भी न कह सके, सिर्फ लाल हो गए और सिर्फ नाक से
‘सूं-सूं’ करते रहे और फिर बोले: “कलम लाओ!” – और वहीं, फ़ौरन, टेलीग्राम पर ही अपना निर्णय लिख दिया: “पीटर्सबुर्ग में उसका नामोनिशान
भी न रहे, अलेक्सान्द्र.” और सो गए.
और जनरल अगले दिन बिज़नेस सूट पहनकर सीधे रिहर्सल
पर पहुंचा.
निर्णय पर वार्निश फेर दिया गया, और क्रान्ति के बाद टेलीग्राम
थियेटर को सौंप दिया गया. आप उसे हमारे दुर्लभ वस्तुओं के संग्रहालय में देख सकते
हैं.”
“वे किस प्रकार की भूमिकाएं करते थे?” मैंने पूछा.
“त्सारों की, जनरलों की और अमीर घरों के
सेवकों की,” बम्बार्दव ने जवाब दिया,
“हमारे यहाँ, पता है, ज़्यादातर
अस्त्रोव्स्की के, उसमें व्यापारी होते हैं...और फिर लम्बे
समय तक ‘अँधेरे का साम्राज्य’ प्रदर्शित करते रहे...तो, स्वाभाविक है, हमारे अपने शिष्टाचार हैं, आप खुद ही समझते हैं...और वह सब कुछ अच्छी तरह जानता था, चाहे महिला को रूमाल देना हो, ग्लास में वाईन डालना
हो, फ्रेंच बढ़िया तरीके से बोलता था,
फ्रांसीसियों से भी बढ़िया...और उसका एक और शौक था: स्टेज के पीछे पंछियों की नक़ल
करता था. जब ऐसे नाटक प्रदर्शित होते थे, जिनमें कथानक वसंत
ऋतु में घटित हो रहा होता, तो हमेशा पार्श्व में सीढ़ी पर
बैठता और कोयल की आवाज़ निकालता. ऐसी अजीब कहानी है!”
“नहीं! मैं आपसे सहमत नहीं हूँ!” मैं तैश में
चीखा, “आपके यहाँ थियेटर में इतना अच्छा है, कि, अगर मैं जनरल की जगह पर होता, तो मैं भी ठीक ऐसा ही
करता...”
“करातीगिन, तग्लिओनी,” मुझे एक पोर्ट्रेट
से दूसरे पोर्ट्रेट की ओर ले जाते हुए बम्बार्दव गिनाता जा रहा था, “कैथरीन द्वितीय, करूज़ो,
फिआफान प्रकपोविच, ईगर सिविर्यानिन, बतिस्तीनी, एव्रिपीद, महिलाओं की सिलाई-कार्यशाला की प्रमुख बबिल्योवा.”
मगर तभी उनमें से एक, जो हरे बटनहोल वाले थे, बेआवाज़ भागता हुआ फ़ॉयर में आया, और उसने सूचित किया
कि गव्रील स्तिपानविच थियेटर में आ चुके हैं.
बम्बार्दव ने अपनी बात बीच ही में रोक दी, मुझसे दृढ़ता से हाथ मिलाया, और हौले से रहस्यमय शब्द कहे:
“दृढ़ रहिये...: और वह आधे अँधेरे में कहीं खो
गया.
मैं फ़ीतों वाले आदमी के पीछे चल पडा, जो मेरे आगे-आगे दुलकी चाल से
चल रहा था, कभी-कभी मुझे उंगली से इशारा करते हुए और बीमार
मुस्कराहट बिखेर देता.
चौड़े कॉरीडोर की दीवारों पर, जहां से हम जा रहे
थे, हर दसवें कदम पर चमचमाते इलेक्ट्रिक निर्देश थे:
“खामोश! बगल में रिहर्सल चल रही है!”
सुनहरे नाक-पकड़ चश्मे और हरे ही फीतों में, इस
गोल कॉरीडोर के अंत में बैठा हुआ एक व्यक्ति, यह देखकर कि मुझे ले जाया जा रहा है,
उछला, फुसफुसाहट से चिल्लाया: “नमस्ते!” और उसने थियेटर के एम्ब्रॉयडरी किये हुए सुनहरे मोनोग्राम “NT” वाला भारी परदा हटाया.
अब मैंने अपने आप को एक तम्बू में पाया. छत हरे
रंग के रेशम से ढंकी थी, जो केंद्र से किरणों की तरह विकिरित हो रही थी,
जहां एक क्रिस्टल का लैम्प जल रहा था. वहां नरम सिल्क का फर्नीचर था. एक और परदा, और उसके पीछे धुंधले कांच का दरवाज़ा.
नाकपकड़ चश्मे वाला मेरा नया मार्गदर्शक उसके पास
नहीं गया, बल्कि उसने इशारे से कहा, ‘खटखटाइए!’, और फ़ौरन गायब
हो गया.
मैंने हौले से दरवाज़ा खटखटाया, चमचमाते बाज़ के
सिर के आकार के हैंडल पर हाथ रखा, न्यूमेटिक स्प्रिंग की सरसराहट हुई, और दरवाज़े मुझे भीतर ले गया. मेरा
चेहरा परदे से टकरा गया, उलझ गया, उसे
छोड़ दिया...
मैं नहीं रहूँगा, बहुत जल्द मैं नहीं रहूँगा, मैं
मर जाऊंगा! मैंने फैसला कर लिया, मगर फिर भी यह डरावना
है...मगर, मरते हुए मैं इस कार्यालय को याद करूंगा, जिसमें थियेटर के सामग्री-कोष के प्रबंधक गव्रील स्तिपानविच ने मेरा
स्वागत किया था.
जैसे ही मैंने प्रवेश किया, बाएँ कोने में लगी विशाल घड़ी ने
हौले से मिनुएट (मिनुएट – हलके नृत्य की धुन – अनु.) बजाना शुरू कर दिया.
मेरी आंखों में रंगबिरंगी रोशनियाँ तैर गईं. लिखने की मेज़ से हरी, मतलब, मेज़ से नहीं, बल्कि
अलमारी से, मतलब, अलमारी नहीं, बल्कि दसियों दराजों वाली जटिल संरचना से, जिसमें
चिट्ठियों के लिए खड़े खाने थे, चांदी की झुकी हुई टांग पर
खड़े एक अन्य लैम्प से, सिगार वाले इलेक्ट्रिक लाइटर से.
रोज़वुड की मेज़ के नीचे
से, जिस पर तीन टेलीफोन रखे थे, आ रही थी लाल नारकीय-रोशनी. चपटे विदेशी टाइप राइटर रखी छोटी से मेज़ से
आती हुई सफ़ेद रोशनी,जिस पर चौथा टेलीफोन, और “NT” के मोनोग्राम्स वाला सुनहरी
किनारी वाले कागज़ों का गट्ठा था. छत से रोशनी परावर्तित हो रही थी.
कार्यालय का फर्श कपड़े से ढंका था, मगर फ़ौजी कपड़े से नहीं, बल्कि बिलियार्ड के कपड़े से, और उसके ऊपर लाल, एक इंच मोटा कालीन बिछा था. एक विशाल सोफा, जिस पर
तकिये थे और उसकी बगल में तुर्की हुक्का था. बाहर आँगन में मॉस्को का दिन था, मगर खिड़की से होकर कोई भी आवाज़, एक भी किरण
कार्यालय में प्रवेश नहीं कर रही थी, जिसे परदे की तिहरी
पर्तों से कस कर बंद किया गया था. यहाँ चिरंतन बुद्धिमान रात थी, यहाँ चमड़े की, सिगार की, सेंट
की गंध थी. गर्म हवा चेहरे और हाथों को सहला रही थी.
सोना जड़ी मुलायम खाल से ढंकी हुई दीवार पर
कलाकारों जैसे बाल, सिकोड़ी हुई आंखें, मरोड़ी हुई मूंछें, और हाथों में लॉर्नेट लिये एक व्यक्ति का बड़ा-सा चित्र लटका हुआ था.
मैंने अनुमान लगाया की ये या तो इवान वसील्येविच वसील्येविच है अथवा अरिस्तार्ख प्लतोनविच, मगर दोनों में से कौन है, यह मुझे पता नहीं था.
स्टूल के स्क्रू पर तेज़ी से मुड़कर काली
फ्रेंच-कट दाढ़ी, आंखों की तरफ जाती हुई तीर जैसी मूंछों वाला, एक मझोले कद का आदमी
मुझसे मुखातिब हुआ.
“मक्सूदव,” मैंने कहा.
“माफ़ कीजिय,” मेरे नए परिचित ने ऊंचे सुर
में कहा और दिखाया, कि अभी कागज़ पढेगा और...
...उसने कागज़ पूरा पढ़ा, नाक-पकड़ चश्मा काली डोरी पर फ़ेक
दिया, थकी हुई आंखें मलीं और आखिरकार अलमारी की तरफ पीठ
करके, गौर से मुझे देखता रहा, जैसे किसी नई मशीन का अध्ययन
कर रहा हो. उसने यह नहीं छुपाया की वह मुझे पढ़ रहा है, उसने
आंखें भी बारीक कीं. मैंने आंखें फेर लीं, कोई फ़ायदा नहीं
हुआ, मैं सोफे पर कसमसाने लगा...अंत में मैंने सोचा: ‘एहे-हे...’ और खुद ही
प्रयत्नपूर्वक जवाब में उस आदमी पर अपनी आंखें गड़ा दीं. ऐसा करते हुए न जाने क्यों
क्निझेविच के प्रति मुझे एक अस्पष्ट अप्रसन्नता का अनुभव हुआ.
“कैसी अजीब बात है,” मैंने सोचा, “या तो वह अंधा है, यह
क्निझेविच...मक्खियाँ...मक्खियाँ...पता नहीं...पता नहीं...फौलादी, गहरी धंसी हुई छोटी-छोटी आंखें...उनमें फ़ौलादी इच्छा शक्ति, शैतानी साहस, अडिग साहस...फ्रेंच-कट दाढी...वह
मक्खियों का भी अपमान क्यों नहीं करता?...वह ड्यूमा के मस्केटीयर्स
के नेता की तरह है...उसका क्या नाम था...भूल गया, शैतान ले
जाए!”
और ज़्यादा चुप्पी असहनीय हो गयी, और उसे गव्रील स्तिपानविच ने तोड़ा. वह न
जाने क्यों शोखी से मुस्कुराया और अचानक मेरा घुटना हिलाया.
“अच्छा, तो, कॉन्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर करने
होंगे?” उसने कहा.
वह स्टूल पर घूमा, विपरीत दिशा में घूमा, और गव्रीला स्तिपानविच के हाथों में कॉन्ट्रेक्ट दिखाई दिया.
“मगर, मुझे सिर्फ ये नहीं मालूम है कि इवान वसील्येविच वसिलीविच की सहमति के बिना इस पर हस्ताक्षर कैसे
करें?” और उसने अनिच्छापूर्वक फोटो पर संक्षिप्त नज़र डाली.
‘आहा! तो, खुदा का, - शुक्र है...अब मैं जान गया,’ – मैंने सोचा, - ‘ये इवान वसील्येविच
वसिलीविच है.’
“कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं होगी?” गव्रीला स्तिपानविच कहता रहा. “चलिए, आपकी खातिर!” वह
दोस्ताना अंदाज़ में मुस्कुराया.
तभी बिना खटखटाहट के दरवाज़ा खुला, परदा हटा, और दक्षिणी प्रकार के
घमंडी चेहरे वाली महिला अन्दर आई, उसने मेरी तरफ़ देखा. मैंने उसका अभिवादन किया, कहा:
“मक्सूदव...”
महिला ने मुझसे कसकर, मर्दों के समान, हाथ मिलाया, जवाब दिया:
“अव्गुस्ता मिनाझ्राकी,” स्टूल पर बैठ गयी, हरे रंग के जम्पर की पॉकेट से
सुनहरा सिगरेट धारक निकाला, सिगरेट जलाई और हौले से टाइपराइटर खटखटाने लगी.
मैंने कॉन्ट्रेक्ट पढ़ा, साफ़-साफ़ कहूं, तो कुछ भी समझ नहीं पाया और न ही समझने की
कोशिश की.
मैं कहना चाहता था: “मेरा नाटक खेलो, मुझे और किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं है, सिवाय इसके कि मुझे
यहाँ हर रोज़ आने का अधिकार मिले, दो घंटे इस सोफे पर लेटे रहने, और तम्बाकू की शहद जैसी गंध सूंघने दी जाए, घड़ियों के घंटे सुनने
और सपने देखने का मौक़ा मिले!”
खुशकिस्मती से मैंने यह नहीं कहा. याद आ गया, कि अक्सर कॉन्ट्रेक्ट
में ‘यदि’, और ‘जहां तक’ इन शब्दों की भरमार होती है और हर बिंदु इन शब्दों से आरम्भ
होता है:
“लेखक को अधिकार नहीं है.”
लेखक को अपना नाटक मॉस्को के किसी अन्य थियेटर को देने का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना नाटक लेनिनग्राद शहर के किसी थियेटर को देने का अधिकार नहीं
है.
लेखक को अपना नाटक रशियन सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के किसी भी शहर में देने
का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना नाटक युक्रेनी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के किसी भी शहर नें
देने का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना नाटक प्रकाशित करने का अधिकार नहीं है.
लेखक को थियेटर से फलाँ चीज़ की मांग करने का अधिकार नहीं है, और वह चीज़ क्या थी –
मैं भूल गया (बिंदु नं 21).
लेखक को फलाँ चीज़ का विरोध करने का अधिकार नहीं है, और किस चीज़ के विरुद्ध
– ये भी याद नहीं है.
मगर, एक बिंदु इस डॉक्यूमेंट की एकरूपता का उल्लंघन कर रहा था – ये था 57 वां
बिंदु . वह इन शब्दों से शुरू हो रहा था : “लेखक बाध्य है”.
इस बिंदु के अनुसार, लेखक बाध्य है “अपने नाटक में बिना शर्त और तुरंत वे
सुधार, परिवर्तन, परिवर्धन या संक्षिप्तीकरण करने के लिए, यदि कोई निर्देशालय, या कोई कमिटी, या संस्था, या संगठन, या निगम, या ऐसा करने के लिए उचित
अधिकार संपन्न व्यक्ति इनकी मांग करते हैं – इसके लिए किसी अतिरिक्त पारिश्रमिक की
मांग न करते हुए, सिवाय उसके जिसका 15वें बिन्दु में उल्लेख है.”
इस बिंदु पर ध्यान देने के बाद, मैंने देखा कि उसमें “पारिश्रमिक” शब्द के
बाद खाली जगह थी.
इस जगह पर मैंने अपने नाखून से सवालिया निशान बनाया.
“और आप अपने लिए किस प्रकार के पारिश्रमिक की अपेक्षा करते हैं?” गव्रील स्तिपानविच ने
मुझसे नज़र हटाए बिना पूछा.
“अन्तोन अन्तोनविच क्निझेविच ने,” मैं बोला, “ कहा था, कि मुझे दो
हज़ार रूबल्स देंगे...”
मेरे वार्ताकार ने सम्मानपूर्वक अपना सिर झुका लिया.
“तो,” उसने कहा, कुछ देर चुप रहा और आगे बोला, “ऐह, पैसे, पैसे! उनके कारण दुनिया में कितनी बुराई है!
हम सभी सिर्फ पैसे के बारे में ही सोचते हैं, मगर क्या किसीने आत्मा के बारे में सोचा है?”
अपने कठिन जीवन के दौरान मैं ऐसे वाक्यों से इतना अनभ्यस्त हो चुका था, कि, स्वीकार करता हूँ, परेशान हो गया...मैंने
सोचा: ‘क्या पता, हो सकता है, कि क्निझेविच सही हो...
मैं बस, संवेदनहीन और शक्की हो गया था...’ और शालीनता बनाए रखने के लिए मैंने सांस
छोड़ीं और वार्ताकार ने भी मुझे वैसे ही सांस छोड़कर जवाब दिया, फिर उसने शोख़ी से मुझे
आंख मारी, जो उसकी आह से ज़रा भी मेल नहीं खा रही थी, और घनिष्ठता से
फुसफुसाकर कहा:
“ चार सौ रूबल्स? आ? सिर्फ आपके लिए? आ?”
स्वीकार करना पडेगा, कि मैं निराश हो गया. बात ये थी, कि मेरे पास एक भी कोपेक नहीं था और मुझे
इन दो हज़ार पर बहुत भरोसा था.
“हो सकता है, एक हज़ार आठ सौ संभव हो,- क्निझेविच कह रहा था...”
“लोकप्रियता ढूंढ रहा है,” गव्रील स्तिपानविच ने कड़वाहट से जवाब दिया.
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, और हरे बटनों वाला आदमी सफ़ेद रूमाल से ढंकी हुई ट्रे भीतर लाया. ट्रे में
चांदी का कॉफ़ी-पॉट था, दूध का जग, दो चीनी मिट्टी के कप – बाहर से संतरे के रंग के और भीतर से सुनहरे, दानेदार कैवियर के साथ
दो सैंडविच, दो नारंगी, पारदर्शी बलीक के साथ, दो चीज़ के साथ, दो ठन्डे रोस्ट-बीफ़ के साथ.
“क्या आप इवान वसील्येविच वसील्येविच के पास पैकेट ले गए?” अव्गुस्ता मिनाझ्राकी
ने भीतर आए हुए व्यक्ति से पूछा.
उसका चेहरा बदल गया और उसने कनखियों से ट्रे की तरफ़ देखा.
“मैं, अव्गुस्ता अव्देयेव्ना, बुफे भाग रहा था, और इग्नूतव पैकेट के साथ भागा,” उसने कहा.
“ मैंने इग्नूतव को तो आदेश नहीं दिया था, बल्कि आपको दिया था,” मिनाझ्राकी ने कहा, “इवान वसील्येविच के पास पैकेट्स ले जाने का काम इग्नूतव का नहीं, इग्नूतव बेवकूफ है, कुछ न कुछ गड़बड़ कर
देता है, बात को वैसे नहीं कहेगा...क्या आप यह चाहते हैं की इवान वसील्येविच वसील्येविच का पारा गरम हो जाए?”
“मार डालना चाहता है,” गव्रील स्तिपानविच ने ठंडेपन से कहा.
ट्रे वाला आदमी हौले से कराहा और उसने चम्मच नीचे गिरा दी.
“जब आप बुफ़े में थे, तो पाकिन कहाँ था?” अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने पूछा.
“पाकिन कार के लिए भागा,” सवाल पूछे जा रहे व्यक्ति ने स्पष्ट किया, “मैं बुफ़े भाग रहा था, मैंने इग्नूतव से कहा, “इवान वसील्येविच के पास भाग.”
“और बब्कोव?”
“बब्कोव टिकिट्स के लिए भाग रहा था.”
“यहाँ रखो!” अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने कहा, घंटी का बटन दबाया, और दीवार से डाइनिंग बोर्ड
उछल कर बाहर आया.
बटन्स वाला आदमी खुश हो गया, उसने ट्रे रख दी, पीठ से परदा हटाया, पैर से दरवाज़ा खोला और उसमें स्वयम् को घुसा लिया.
“आत्मा के बारे में, अपनी आत्मा के बारे में थोड़ा सोचिये, क्लूक्विन!” गव्रील स्तिपानविच ने पीछे से
चिल्लाकर उससे कहा, और मेरी ओर मुड़कर आत्मीयता से कहा:
“चार सौ पच्चीस. आ?”
अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने सैंडविच का एक टुकड़ा खाया और एक ऊंगली से हौले से
खटखट करती रही.
“शायद, एक हज़ार तेरह? मुझे, सचमुच में बड़ा अटपटा लग रहा है, मगर अभी मेरे पास बिल्कुल पैसे नहीं हैं, और मुझे टेलर को पैसे
देना है...”
“क्या ये सूट सिलवाया है?” गव्रील स्तिपानविच ने मेरी पतलून की ओर इशारा करते हुए पूछा.
“हाँ”.
“उस बदमाश ने सिया तो बहुत बुरा है,” गव्रील स्तिपानविच ने टिप्पणी की, - “आप गर्दन पकड़ कर
उसे बाहर निकाल दीजिये!”
“मगर, देखिये...”
“हमारे यहाँ,” गव्रील स्तिपानविच ने परेशानी से कहा, “ऐसा पहले कभी नहीं
हुआ कि लेखकों को कॉन्ट्रेक्ट के साथ ही पैसे दिए गए, मगर सिर्फ आपके
लिए...चार सौ पच्चीस!”
“एक हज़ार दो सौ,” मैंने कुछ अधिक प्रसन्नता से कहा, “बगैर इसके तो मैं परिस्थिति से बाहर नहीं
निकल सकता....
हालात मुश्किल हैं...”
“और, क्या आपने रेस खेलने की कोशिश नहीं की? – गव्रील स्तिपानविच ने
सहानुभूति से पूछा.
“नहीं,” मैंने अफसोस से जवाब दिया.
“हमारे यहाँ एक एक्टर कुछ उलझन में पड़ गया, रेस खेलने गया और, ज़रा सोचिये, डेढ़ हज़ार जीत गया. और
आपको हमसे लेने में कोई तुक नहीं है. दोस्त की तरह सलाह दे रहा हूँ, अगर आप इसके
पीछे भागेंगे – खो जायेंगे! एह, पैसे! किसलिए चाहिए? जैसे, मेरे पास नहीं है, और दिल पर कोई बोझ नहीं है, कितना सुकून है...” और गव्रील स्तिपानविच ने पॉकेट उलट कर दिखा दी, उसमें पैसे नहीं थे, बल्कि चेन से बंधा
चाभियों का गुच्छा था.
“एक हज़ार,” मैंने कहा.
“एह, भाड़ में जाए ये सब!” – गव्रील स्तिपानविच ने साहसपूर्वक कहा. “चाहे मुझे
बाद में मार डालें, मगर आपको पाँच सौ रूबल्स दूंगा. हस्ताक्षर कीजिये!”
मैंने कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत कर दिए, गव्रील स्तिपानविच मुझे समझा रहा था
कि पैसा जो मुझे दिया जाएगा, वह अग्रिम राशि के रूप में होगा, जिसकी किश्त पहले ही प्रदर्शन से आरंभ हो
जायेगी. इस बात पर सहमति हुई कि आज मुझे पचहत्तर रूबल्स प्राप्त होंगे, दो दिन बाद – सौ
रूबल्स, फिर शनिवार को – और सौ, और बाकी के – चौदह तारीख को.
खुदा! कार्यालय के बाद सड़क मुझे कितनी उबाऊ लग रही थी. बूंदा बांदी हो रही
थी, जलाऊ लकड़ी की गाडी गेट में फंस गयी थी, और गाड़ीवान भयानक आवाज़
में घोड़े पर चिल्ला रहा था, बुरे मौसम के कारण नागरिक अप्रसन्न चेहरों से चल रहे थे.
मैं तेज़ी से घर की तरफ़ भागा जा रहा था, रास्ते के दयनीय
दृश्यों की न देखने की कोशिश करते हुए. बहुमूल्य कॉन्ट्रेक्ट मेरे दिल के पास रखा
था.
अपने कमरे में
मैंने अपने दोस्त को देखा (रिवॉल्वर वाला किस्सा देखिए).
मैंने गीले
हाथों से कॉन्ट्रेक्ट बगल से बाहर निकाला और चिल्लाया:
“पढ़िए!”
मेरे मित्र ने कॉन्ट्रेक्ट पढ़ा और, मुझे आश्चर्य में डालते हुए, वह मुझ पर
गुस्सा हो गया.
“ये कैसा मूर्खतापूर्ण दस्तावेज़ है? आप, ठस दिमाग़, किस पर दस्तख़त कर रहे
हैं?” उसने पूछा.
“आप थियेटर के मामलों में कुछ नहीं समझते, इसलिए बेहतर होगा की
आप चुप ही रहें!” मैं गुस्सा हो गया.
“ये क्या है, ‘बाध्य होगा, बाध्य होगा’, और क्या वे किसी भी बात के लिए बाध्य हैं?” मेरा दोस्त
बुदबुदाया.
मैं उसे जोश से बताने लगा, की आर्ट गैलरी क्या होती है, गव्रील स्तिपानविच कितना ईमानदार व्यक्ति है, सारा बर्नहार्ट और
जनरल कमारोव्स्की का उल्लेख किया. मैं बताना चाहता था की घड़ी में कैसे ‘मिनुएट’ बजता है, कॉफ़ी से कैसे भाप उठती
है, कालीन पर कदमों की आहट कितनी शांत, कितनी जादुई प्रतीत होती है, मगर घड़ी के घंटे मेरे
दिमाग में बज रहे थे, मैंने खुद ही देखा सुनहरा सिगरेट-होल्डर, और इलेक्ट्रिक भट्टी
में नारकीय लपटें, और सम्राट नीरो को भी देखा, मगर यह सब बता नहीं पाया.
“उनके यहाँ क्या यह नीरो कॉन्ट्रेक्ट्स बनाता है?” मेरे दोस्त ने भयानक
मज़ाक किया.
“ओह, जाने भी दो!” मैं चीखा और उसके हाथ से कॉन्ट्रेक्ट छीन लिया. नाश्ता करने
का फैसला किया और दूस्या के भाई को ‘स्टोअर’ में भेजा.
शरद ऋतु की बारिश हो रही थी. कैसा ‘हैम’ था, कैसा मक्खन! सुख के
पल.
मॉस्को का मौसम अपनी मनमानी के लिए मशहूर है.
दो दिन बाद ख़ूबसूरत, गर्मियों जैसा, गर्माहट भरा दिन था. और मैं ‘स्वतन्त्र-थियेटर’ की ओर भागा जा रहा था. सौ
रूबल्स पाने के मीठे एहसास के साथ, मैं थियेटर के निकट पहुंचा और मैंने देखा, कि बीच वाले दरवाज़े पर एक
मामूली-सा पोस्टर है.
मैंने पढ़ा:
प्रदर्शनों की सूची,
चालू सीज़न के लिए:
एस्खिलस – “एगामेम्नन”
सोफ़ोकल्स – “फिलोक्तेत”
लोपे द’ वेगा – “फेनिज़ा नेटवर्क”
शेक्सपियर – “किंग लिअर”
शिलेर – “दि मेड ऑफ़ ऑर्लियन्स”
अस्त्रोव्स्की – “नॉट ऑफ़ धिस वर्ल्ड”
मक्सूदव – “ब्लैक स्नो”
मैं फुटपाथ पर मुँह खोले खड़ा था, - और मुझे अचरज होता है, कि इस समय किसी ने
मेरा बटुआ क्यों नहीं निकाला था. लोग मुझे धक्का दे रहे थे, कुछ भला-बुरा कह रहे
थे, मगर मैं पोस्टर देखते हुए खड़ा ही रहा. इसके बाद मैं एक किनारे हो गया, इस उद्देश्य से कि
पोस्टर आने-जाने नागरिकों पर क्या प्रभाव डालता है.
पता चला, कि कुछ भी प्रभाव नहीं हो रहा है. अगर उन तीन-चार लोगों को छोड़ दिया जाए, जिन्होंने पोस्टर पर
नज़र डाली थी, ये कह सकते हैं, कि किसीने भी उसे नहीं पढ़ा था.
मगर पाँच मिनट भी नहीं बीते थे, कि मुझे अपने इंतज़ार का सौ गुना इनाम मिल
गया. थियेटर की तरफ़ जाने वालों के प्रवाह में मैंने स्पष्ट रूप से इगोर अगाप्योनव
का बड़ा सिर देखा. वह अपने पूरे झुण्ड के
साथ थियेटर की ओर जा रहा था, जिसमें दांतों में पाईप दबाये लिकास्पास्तव की और
प्यारे-से मोटे चेहरे वाले अनजान व्यक्ति की झलक दिखाई दी. अंत में घूम रहा था
गर्मियों वाले, असाधारण पीले ओवरकोट में और न जाने क्यों बिना टोपी के एक काफ़िर. मैं
नीचे की ओर गहराई में गया, जहां दृष्टिहीन मूर्ति थी, और देखने लगा.
ये गुट पोस्टर
के पास पहुंचा और रुक गया. पता नहीं, कैसे वर्णन करूं कि लिकास्पास्तव को क्या हुआ. वहाँ रुककर पढ़ने वालों में
वह पहला था. अभी तक उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, उसके होठों
पर अभी तक किसी चुटकुले के आख़िरी शब्द थे. तो, वह “फेनिज़ा
नेटवर्क” तक पहुंचा. अचानक लिकास्पास्तव पीला पड़ गया और जैसे फ़ौरन बूढ़ा हो गया.
उसके चहरे पर वास्तविक भय व्यक्त हो रहा था.
अगाप्योनव ने
पढ़ा, कहा:
“हुम्...”
अनजान मोटे ने
आंखें झपकाईं... “वह याद कर रहा है, कि उसने मेरा नाम कहाँ सुना है...”
काफ़िर ने
अंग्रेज़ी में पूछा कि उसके साथियों ने क्या देखा...अगाप्योनव ने कहा:
“पोस्टर, पोस्टर,”
और हवा में चौकोन बनाने लगा. कुछ भी न समझते हुए काफ़िर ने सिर हिला दिया.
लोग लहर की तरह जा रहे थे और कभी इस गुट को ढांक
देते, कभी उनके सिर दिखा देते. उनके शब्द कभी मुझ तक पहुंचते, कभी सड़क के शोर
में डूब जाते.
लिकास्पास्तव
अगाप्योनव की ओर मुड़ा और बोला:
“नहीं, आपने देखा इगोर निलीच? ये क्या बात है?”
उसने उदासी से
चारों ओर देखा.
“वे पागल हो गए
हैं!...”
हवा इस वाक्य
के अंतिम शब्द उड़ा ले गयी.
कभी अगाप्योनव
के मन्द्र सप्तक के, तो कभी लिकास्पास्तव के तार सप्तक के सुरों के गुच्छे मुझ तक पहुंचे.
“...अरे, ये कहाँ से आ गया?...हाँ, मैंने ही तो उसे खोजा
था...वही...हुम्...हुम्...हुम्...खतरनाक आदमी...”
मैं गहरी जगह
से निकला और सीधा पढ़ने वालों के पास पहुंचा.
लिकास्पास्तव
ने पहले मुझे देखा, और, उसकी आंखों में हुए परिवर्तन ने मुझे चौंका दिया. ये
लिकास्पास्तव की ही आंखें थीं, मगर उनमें कोई नई, परायेपन की बात दिखाई दी, हमारे
बीच जैसे कोई खाई थी...
“बहुत अच्छे, भाई,”
लिकास्पास्तव चीखा, “बहुत अच्छे, भाई!
धन्यवाद, इसकी उम्मीद नहीं थी! एस्खिलस, सोफोकल्स और तुम!
तुमने ये कैसे कर लिया, समझ नहीं पा रहा हूँ, मगर ये है बहुत शानदार! तो, अब तुम, बेशक, अपने दोस्तों को नहीं पहचानोगे! अब हम कहाँ
शेक्सपियरों से दोस्ती बनाए रखेंगे!”
“तू ये अपना
नाटक बंद कर!” मैंने सकुचाते हुए कहा.
“तो, लब्जों में कहना मुश्किल है!
कैसा है तू, या खुदा! अरे, मैं तुमसे
नाराज़ नहीं हूँ. चल, बात करते हैं, बुढ़ऊ!” और मैंने
लिकास्पास्तव के गाल का स्पर्श महसूस किया, जिसमें एक छोटा
तार जड़ा हुआ था.
“मिलिए!” और
मैं मोटे से मिला, जो मुझसे आंख नहीं हटा रहा था. उसने कहा:
“क्रूप्प.”
मैं काफ़िर से
भी मिला, जिसने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बहुत लंबा वाक्य कहा. चूंकि मैं यह वाक्य
समझ नहीं पाया, इसलिए मैंने काफ़िर से कुछ नहीं कहा.
“बेशक, ट्रेनिंग स्टेज पर प्रदर्शित
करेंगे, है ना?” लिकास्पास्तव ने
उत्सुकता से पूछा.
“पता नहीं,” मैंने जवाब दिया, “कहते हैं, कि मुख्य स्टेज पर प्रदर्शित करेंगे.
लिकास्पास्तव का चेहरा फिर से पीला पड़ गया और उसने चमकते हुए आसमान की ओर उदासी से
देखा.
“ठीक है,” उसने भर्राई हुई आवाज़ में कहा, “खुदा रहम करे. आगे बढ़ो, आगे बढ़ो. हो सकता है, यहाँ तुम्हें कामयाबी मिल जाए. उपन्यास के साथ तो कुछ नहीं हुआ, कौन कह सकता है, नाटक कामयाब हो जाए. सिर्फ तू
घमण्ड न करना. याद रख: दोस्तों को भूलने से ज़्यादा बुरा और कोई काम नहीं है!”
क्रूप्प मेरी
ओर देख रहा था, और न जाने क्यों अधिकाधिक सोच में पड़ गया; मैंने यह
भी देखा की सबसे ज़्यादा ध्यान वह मेरे बालों और नाक पर दे रहा है.
बिदा लेना
ज़रूरी था. दुःख हो रहा था. इगोर ने मुझसे हाथ मिलाते हुए, पूछ लिया, कि क्या मैंने उसकी किताब पढ़ी
है. मैं भय से ठंडा पड़ गया और मैंने जवाब दिया कि नहीं पढी. अब इगोर का चेहरा फ़क हो
गया.
“वह कहाँ से
पढेगा?” लिकास्पास्तव बोल पड़ा, “उसके पास आधुनिक साहित्य पढ़ने के लिए समय नहीं
है...अरे, मज़ाक कर रहा हूँ, मज़ाक कर
रहा हूँ...”
“आप पढ़िए,” इगोर ने गंभीरता से कहा, “अच्छी बन पड़ी है किताब.”
मैं ड्रेस
सर्कल के प्रवेश द्वार में घुसा. सड़क की तरफ़ वाली खिड़की खुली थी. हरे बटन होल्स
वाला आदमी उसे कपड़े से पोंछ रहा था. धुंधले कांच के पीछे साहित्यकारों के सिर तैर
रहे थे, लिकास्पास्तव की आवाज़ सुनाई दी:
“संघर्ष कर रहे
हो...बर्फ़ पर पड़ी मछली की तरह संघर्ष कर रहे हो...शर्मनाक है!”
मेरे दिमाग़ में
अभी भी पोस्टर फड़फड़ा रहा था, और मुझे सिर्फ एक ही एहसास हो रहा था, कि मेरा नाटक, असल में, बेहद, हमारे बीच
कहूँ तो, बुरा है और कुछ न कुछ करना पड़ेगा, मगर क्या – पता नहीं.
...और मेरे
सामने, ड्रेस सर्कल को जाने वाली सीढ़ी के पास हट्टा-कट्टा गोरा, दृढ़ चेहरे और परेशान आंखों वाला व्यक्ति प्रकट हुआ. गोरा मोटी ब्रीफकेस
पकड़े हुए था.
“कॉमरेड
मक्सूदव?” गोरे ने पूछा.
“हाँ, मैं...”
“पूरे थियटर
में आपको ढूँढ रहा हूँ,” नए परिचित ने कहा, “अपना परिचय देने की इजाज़त दें – डाइरेक्टर फ़मा
स्त्रिज़. तो, सब कुछ ठीक है. परेशान न हों, और फ़िक्र न करें, आपका नाटक अच्छे हाथों में है.
कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत कर दिए?”
“हाँ.”
“अब आप हमारे
हैं,” स्त्रिज़ निर्णयात्मक सुर में कहता रहा. उसकी आंखें चमक रही थीं, “आपको बस,
ये करना है, हमारे साथ अपनी सभी आगामी रचनाओं के लिए
कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत करना है! ज़िंदगी भर के लिए! ताकि वे सभी हमारे पास आयें.
अगर चाहें, तो हम अभी यह कर सकते हैं. एक बार थूक दो!” और
स्त्रिज़ ने थूकदान में थूक दिया. “तो, नाटक का प्रदर्शन मैं
करूँगा. हम उसे दो महीनों में कर देंगे. पंद्रह दिसंबर को जनरल रिहर्सल दिखाएँगे.
शिलेर हमें नहीं रोकेगा. शिलेर का काम आसान है...”
“माफी चाहता
हूँ,” मैंने डरते हुए कहा, “ – मगर मुझे बताया गया है, कि एव्लाम्पिया पित्रोव्ना प्रदर्शित करेंगी...”
स्त्रिज़ का
चेहरा बदल गया.
“कौन है ये
एव्लाम्पिया पित्रोव्ना?” – उसने गंभीरतापूर्वक मुझसे पूछा. “कोई एव्लाम्पिया नहीं
है.” उसकी आवाज़ खनखनाने लगी. “एव्लाम्पिया का यहाँ कोई संबंध नहीं है, वह ईल्चिन के साथ ‘आउट हाउस के
आँगन में’ प्रदर्शित करेगी. मेरे पास इवान वसील्येविच वसील्येविच के साथ पक्का समझौता है! और अगर
किसीने खुराफ़ात करने की कोशिश की, तो मैं इंडिया को भी
लिखूंगा. जिन्होंने ऑर्डर दिया है, अगर बात वहां तक पहुँची तो,” परेशान होते हुए फ़मा स्त्रिज़ धमकी भरी आवाज़ में चीखा. “लाईये, मुझे प्रतिलिपि दीजिये,” उसने मेरी तरफ़ हाथ
बढ़ाते हुए हुक्म दिया.
मैंने समझाया की प्रतिलिपि की अभी नक़ल नहीं हुई है.
“उन्होंने क्या सोच लिया है?” उत्तेजना से चारों ओर देखते हुए स्त्रिज़ चिल्लाया. “क्या आप ड्रेसिंग रूम
में पलिक्सेना तरोपित्स्काया के पास गए थे?”
मैं कुछ भी
नहीं समझा और जंगलीपन से स्त्रिज़ की ओर देखता रहा.
“नहीं गए? आज उसकी छुट्टी है. कल ही
प्रतिलिपि लेकर उसके पास जाइए, मेरा नाम लेकर काम कीजिये!
हिम्मत से!”
तभी एक बहुत
सभ्य, हट्टा-कट्टा, ख़ूबसूरत आदमी बगल में प्रकट हुआ और विनम्रता से, मगर ज़ोर देकर बोला:
“कृपया रिहर्सल
हॉल में आइये, फ़मा स्त्रिज़!”
और फ़मा ने
ब्रीफकेस बगल में दबाई और जाते-जाते चिल्लाकर मुझसे कहते हुए छुप गया:
“कल ही
ड्रेसिंग रूम में! मेरे नाम से!”
और मैं खड़ा रह
गया और बड़ी देर तक निश्चल खड़ा ही रहा.
अध्याय 10
ड्रेसिंग रूम के दृश्य
समझ में आ गया! समझ में आ गया!
मेरे नाटक में तेरह दृश्य थे. अपने छोटे-से कमरे में बैठकर, मैंने अपने सामने
पुरानी चांदी की घड़ी रखी और ज़ाहिर है, दीवार के पीछे वाले पड़ोसी को आश्चर्यचकित
करते हुए ज़ोर-ज़ोर से अपने ही लिए नाटक पढ़ा. हर दृश्य पढ़ने के बाद मैं कागज़ पर
अंकित करता जाता. जब पूरा पढ़ चुका, तो पता चला कि पढ़ने में तीन घंटे लग गए
हैं. अब मैंने यह कल्पना की, कि प्रदर्शन के समय ‘इंटरवल’ भी होते हैं, जिनमें
दर्शक ‘बुफे’ में जाते हैं. ‘इन्टरवल्स’ का समय जोड़ने पर
मैंने देखा कि मेरा नाटक एक ही शाम को नहीं खेला जा सकता. इस प्रश्न से जुड़ी रात की यातनाओं ने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचाया
कि मैंने एक दृश्य काट दिया. इससे प्रदर्शन का समय बीस मिनट कम हो गया, मगर इससे
समस्या हल नहीं हुई. मुझे याद आया, की इंटरवल्स के अलावा कुछ विराम भी होते
हैं. जैसे, उदाहरण के लिए, ऐक्ट्रेस खड़ी है, और रोते हुए
फ्लॉवरपॉट में गुलदस्ता ठीक कर रही है. बोलने को तो वह कुछ नहीं बोलती, मगर समय तो गुज़रता
है. हो सकता है, घर पर बुदबुदाते हुए नाटक की इबारत पढ़ना – एक बात है, और स्टेज पर उसका
उच्चारण करना – एकदम अलग ही बात है.
नाटक में से कुछ न कुछ और हटाना पडेगा, मगर क्या – यह पता नहीं. मुझे हर चीज़
महत्वपूर्ण लग रही थी, और इसके अलावा, हटाने के लिए कुछ योजना
तो बनानी थी, जैसे परिश्रम से बनाई हुई इमारत ढहने लगी
हो, और मुझे सपना आया, कॉर्निस गिर रही हैं, और बाल्कनियाँ ढह
रही हैं, और ये सपने भविष्यसूचक थे.
तब मैंने एक पात्र को निकाल दिया, जिससे एक दृश्य कुछ तिरछा हो गया, बाद में पूरी तरह उड़
गया, और ग्यारह दृश्य
बचे.
आगे, मैंने अपने दिमाग़ पर कितना ही जोर क्यों न
दिया, कितनी ही सिगरेटें क्यों
न फूंकी, कुछ भी कम नहीं कर सका. मेरी बाईं कनपटी में प्रतिदिन दर्द होता. यह समझ
कर कि अब आगे कुछ और नहीं हो सकता, मैंने मामले को उसके स्वाभाविक प्रवाह पर
छोड़ने का निर्णय लिया.
और इसके बाद मैं पलिक्सेना तरपेत्स्काया के पास गया.
‘नहीं, बम्बार्दव के बिना मेरा काम नहीं
चलेगा...’ मैंने सोचा.
और बम्बार्दव ने मेरी बहुत मदद की. उसने समझाया कि ‘इंडिया’ दो बार आया है, और ड्रेसिंग रूम –
ज़रा भी बकवास नहीं है और मैंने इसे नहीं सुना.
अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया, की स्वतन्त्र थियेटर के प्रमुख दो
डाइरेक्टर थे: इवान वसील्येविच वसील्येविच, जैसा कि मैं पहले ही
जानता था, और अरिस्तार्ख प्लतोनविच...
“वैसे, ये बताइये, कि कार्यालय में, जहां मैंने
कॉन्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर किए थे, केवल एक ही पोर्ट्रेट क्यों है – इवान
वसील्येविच वसील्येविच का?”
यहाँ बम्बार्दव, जो आम तौर पर बहुत जोश में रहता है, झिझक गया.
“क्यों?...नीचे? हुम्...हुम्...
नहीं...अरिस्तार्ख प्लतोनविच...वह...वहां है...उसका पोर्ट्रेट ऊपर है...”
मैं समझ गया कि बम्बार्दव को अभी मेरी आदत नहीं हुई है, वह मुझसे शर्मा रहा
है. ये इस अस्पष्ट उत्तर से स्पष्ट था. मैंने भी शिष्टाचारवश आगे कुछ नहीं पूछा... ‘ये दुनिया लुभाती है, मगर वह रहस्यों से भरपूर है...’ – मैं सोच रहा
था.
इंडिया? बहुत आसान है. अरिस्तार्ख प्लतोनविच इस
समय इंडिया में है, फ़मा उसे रजिस्टर्ड ख़त लिखने वाला था. जहां तक ड्रेसिंग रूम का सवाल है, तो ये कलाकारों का मज़ाक है. वे ऊपरी डाइरेक्टर
के सामने वाले कार्यालय को इस नाम से पुकारते थे (और ये ही चिपक गया), जिसमें
पलिक्सेना वसील्येव्ना तरपेत्स्काया काम करती थी. वह – अरिस्तार्ख प्लतोनविच की
सेक्रेटरी थी...
“और अव्गुस्ता अव्देयेव्ना?”
“हाँ, ज़ाहिर है, इवान वसील्येविच वसील्येविच की.”
“आहा, आहा.”
“आहा-तो, आहा...” मेरी तरफ़ विचारपूर्वक देखते हुए
बम्बार्दव ने कहा,- “मगर आप, मैं आपको पूरी संजीदगी से सलाह देता हूँ, तरपेत्स्काया पर अच्छा प्रभाव डालने की कोशिश
करें.”
“मुझे ये नहीं आता.”
“नहीं, आप कोशिश कीजिये.”
ट्यूब की तरह मुड़ी हुई पांडुलिपि को पकड़े हुए
मैं थियेटर के ऊपरी भाग में गया और उस जगह तक पहुंचा, जहां, निर्देशों के अनुसार ड्रेसिंग रूम था.
ड्रेसिंग रूम के सामने दालान था, जिसमें सोफा था; मैं यहाँ रुक गया, परेशान हो गया. अपनी टाई ठीक की, यह सोचते हुए की मैं पलिक्सेना तरपेत्स्काया पर
अच्छा प्रभाव कैसे डाल सकता हूँ. और तभी मुझे ऐसा लगा, कि ड्रेसिंग रूम से सिसकियाँ सुनाई दे रही हैं.
“ये मुझे आभास हुआ है...” – मैंने सोचा और मैं ड्रेसिंग रूम में गया, मगर फ़ौरन पता चल गया कि मुझे ज़रा भी आभास नहीं
हुआ था. मैंने अंदाज़ लगाया, कि शानदार रंग के चेहरे और लाल ब्लाऊज़ पहनी,
पीले डेस्क के पीछे बैठी महिला ही पलिक्सेना तरपेत्स्काया है, और वही सिसकियाँ ले रही थी. स्तब्ध और बिना
दिखे, मैं दरवाज़े में
ही ठहर गया. तरपेत्स्काया के गालों पर आंसू बह रहे थे, एक हाथ में वह रूमाल दबा रही थी, दूसरे हाथ से डेस्क पर टकटक कर रही थी. भय और दुःख से घूमती
आंखों वाला, एक चेचकरू, हट्टा कट्टा, हरे
बटनहोल वाला आदमी, हाथों को हवा में नचाते हुए डेस्क के
सामने खड़ा था.
“पलिक्सेना वसील्येव्ना!” – बदहवासी से भर्राई हुई आवाज़ में वह आदमी चीखा.
“पलिक्सेना वसील्येव्ना! अभी तक दस्तखत नहीं किये हैं! कल करेंगे!”
“ये कमीनापन है!” पलिक्सेव्ना तरपेत्स्काया चीखी.
“आपने ओछा काम किया है, दिम्यान कुज़्मिच! कमीना!”
“पलिक्सेना वसील्येव्ना!”
“ये नीचे वाले लोगों ने अरिस्तार्ख प्लतोनविच के खिलाफ साज़िश रची, इस बात का फ़ायदा
उठाकर कि वह इंडिया में है, और आपने उनकी मदद की!”
“पलिक्सेना वसील्येव्ना! माँ!” – भयानक आवाज़ में वह आदमी चिल्लाया. “आप क्या
कह रही हैं! क्या मैं अपने उपकारकर्ता के खिलाफ...”
“मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहती,” तरपेत्स्काया चिल्लाई, “ सब झूठ है, घिनौना झूठ! आपको
रिश्वत दी गई है!”
यह सुनकर दिम्यान कुज़्मिच चीखा:
“पली...पलिक्सेना,” और अचानक खुद ही भयानक, खोखली, भौंकने जैसी आवाज़
में बिसूरने लगा.
और पलिक्सेना ने डेस्क को तोड़ने के लिए हाथ उठाया, उसे तोड़ दिया और
अपनी हथेली में फूलदान से निकलती कलम की नोक घुसा ली. अब पलिक्सेना धीरे से
चिल्लाई, डेस्क के पीछे से उछली, कुर्सी पर गिर गयी, और बकल्स पर कांच के
हीरे जड़े विदेशी जूते पहने अपने पैर पटकने लगी.
दिम्यान कुज़्मिच चिल्लाया भी
नहीं, बल्कि घुटी-घुटी
आवाज़ में चिंघाड़ा:
“हे भगवान! डॉक्टर को बुलाओ!” और बाहर भागा, और उसके पीछे मैं भी
दालान में लपका.
एक मिनट बाद मेरे सामने से भूरा सूट पहने, हाथ में बैंडेज और
एक बोतल लिए डॉक्टर भागते हुए गया और ड्रेसिंग रूम में छुप गया.
मैंने उसकी चीख सुनी:
“डियर! शांत रहिये!”
“क्या हुआ है?” मैंने दालान में दिम्यान कुज़्मिच से
फुसफुसाकर पूछा.
“ गौर फरमाइए,” दिम्यान कुज़्मिच ने अपनी बदहवास, छलकती आंखों से मेरी
तरफ़ देखते हुए, गूंजती हुई आवाज़ में कहा, “उन्होंने मुझे
कमिटी में भेजा, अक्टूबर में हमारी सोची यात्रा के लिए
ट्रेवल वाउचर लाने के लिए...तो, उन्होंने मुझे चार वाउचर दिए और
अरिस्तार्ख प्लतोनविच के भतीजे को न जाने कैसे कमिटी में शामिल करना भूल गए...
बोले, कल बारह बजे आओ...और, गौर फरमाइए – मैंने साज़िश
रची है!” और दिम्यान कुज़्मिच की दर्द भरी आंखों से यह स्पष्ट था कि वह बेक़सूर है, उसने कोइ साज़िश नहीं
रची और आम तौर से वह साजिशों में शामिल नहीं होता. ड्रेसिंग रूम से एक कमजोर चीख
“आय!” बाहर आई, दिम्यान कुज़्मिच फ़ौरन लपक कर दालान से
बाहर उछला और बिना कोई निशान छोड़े गायब हो
गया. दस मिनट बाद डॉक्टर भी चला गया. मैं कुछ देर दालान में सोफ़े पर बैठा
रहा, जब तक कि ड्रेसिंग
रूम से टाइपराइटर की टकटक सुनाई न देने लगी, तब हिम्मत करके मैं अन्दर गया.
पलिक्सेना तरपेत्स्काया पावडर लगाकर, शांत होकर डेस्क के पीछे बैठी टाइप कर रही
थी. मैंने झुककर अभिवादन किया, ये कोशिश करते हुए कि वह सुखद और शालीन
प्रतीत हो, और शालीन तथा प्रिय आवाज़ में बोलना शुरू
किया, जिससे वह आश्चर्यजनक
रूप से घुटी-घुटी प्रतीत हुई.
यह स्पष्ट करने के बाद कि मैं फलां-फलां हूँ, और मुझे फ़मा ने भेजा
है नाटक लिखवाने के लिए, पलिक्सेना ने मुझे बैठकर और इंतज़ार करने
के लिए कहा, मैंने ऐसा ही किया.
ड्रेसिंग रूम की दीवारों पर काफी सारी तस्वीरें, दगुएरियोटाइप, और चित्र लगे हुए थे, जिनके बीच प्रमुझ
रूप से एक बड़ी, ऑइलपेंटिंग थी, कोट पहने और सत्तर के
दशक की फैशन के अनुसार गलमुच्छों वाले एक सम्मानित व्यक्ति का पोर्ट्रेट. मैंने
अनुमान लगाया की यह अरिस्तार्ख प्लतोनविच है, मगर ये नहीं समझा कि यह हवा जैसी सफ़ेद
लड़की या महिला कौन थी, जो अरिस्तार्ख प्लतोनविच के सिर के पीछे
से झाँक रही थी और जिसने हाथ में पारदर्शी घूंघट पकड़ा हुआ था. इस पहेली ने मुझे
इतना परेशान कर दिया, कि, मैं उचित पल में मैंने खांसकर इस बारे में
पूछ लिया.
कुछ देर खामोशी रही, जिसके दौरान पलिक्सेना ने अपनी नज़र मुझ पर
गड़ा दी, जैसे मेरा अध्ययन कर रही हो, और आखिरकार उसने
जवाब दिया, मगर जैसे मजबूरी से:
“ये – कवित्व प्रेरणा है.”
“आ-आ,” मैंने कहा.
टाइप राइटर फिर खटखटाने लगा, और मैं दीवारों का निरीक्षण करने लगा और मुझे
यकीन हो गया, कि हर फ़ोटो या तस्वीर में अरिस्तार्ख प्लतोनविच ही है, अन्य लोगों के साथ.
जैसे, पीला पड़ चुका पुराना फ़ोटो अरिस्तार्ख
प्लतोनविच को जंगल के किनारे पर दिखा रहा था. अरिस्तार्ख प्लतोनविच शरद ऋतु की, शहरी स्टाइल की
वेशभूषा में था, जूतों में, ओवरकोट और ऊंची टोपी
में. और उसका साथी किसी जैकेट में था, एक बैग के साथ, दुनाली बन्दूक लिए.
उसके साथी का चेहरा, नाक पकड़ चष्मा, सफ़ेद दाढ़ी मुझे जानी
पहचानी लग रही थी.
पलिक्सेना तरपेत्स्काया में अब एक शानदार गुण प्रदर्शित हुआ – एक ही समय में
लिखना और किसी जादुई तरीके से देखना कि कमरे में क्या हो रहा है. मैं तो थरथरा भी
गया, जब उसने सवाल का
इंतज़ार किये बिना, कहा:
“हाँ, हाँ, अरिस्तार्ख प्लतोनविच तुर्गेनेव के साथ
शिकार पर.”
इसी तरह मैंने जाना कि स्लव्यान्स्की बाज़ार के प्रवेश के पास, ओवरकोट पहने,
दो घोड़ों वाली गाड़ी के पास खड़े दो व्यक्ति
- अरिस्तार्ख प्लतोनविच और अस्त्रोव्स्की हैं.
मेज़ पर बैठे चार व्यक्ति, और पीछे रबर का पेड़: अरिस्तार्ख प्लतोनविच, पीसेम्स्की, ग्रिगारविच, और लिस्कोव.
अगले फोटो के बारे में तो पूछने की ज़रुरत ही नहीं थी : बूढ़ा, नंगे पाँव, लम्बी कमीज़ में, हाथ बेल्ट में घुसाए, झाड़ियों जैसी भंवें, बेतरतीब दाढी वाला
और गंजा, ल्येव टॉलस्टॉय के अलावा कोई और हो ही
नहीं सकता था. अरिस्तार्ख प्लतोनविच उसके सामने फूस की सपाट टोपी, और टसर की
गर्मियों वाली जैकेट में खड़ा था.
मगर अगली वाटरकलर की तस्वीर ने मुझे बेइंतहा चौंका दिया.
‘ये नहीं हो सकता,’ – मैंने सोचा. अत्यंत साधारण कमरे में, कुर्सी पर, बेहद लम्बी पंछियों
जैसी नाक वाला एक आदमी बैठा था, बीमार और उत्तेजित आंखें, बालों की सीधी लटें लटकते
हुए गालों पर झूल रही थीं, हल्के रंग की तंग पतलून, चौकोर पंजे के जूते, नीले टेलकोट में.
घुटनों पर पांडुलिपि, मेज़ पर शमादान में मोमबत्ती.
करीब सोलह साल का जवान आदमी, जिसके अभी कल्ले भी नहीं फूटे थे, मगर वैसी ही धृष्ट नाक
वाला, एक लब्ज़ में, बेशक अरिस्तार्ख
प्लतोनविच, मेज़ पर हाथ टिकाये खड़ा था.
मैंने आंखें फाड़कर पलिक्सेना की ओर देखा, और उसने रूखेपन से
जवाब दिया:
“हाँ, हाँ. गोगल अरिस्तार्ख प्लतोनाविच को ‘मृत
आत्माएं’ का दूसरा भाग पढ़ कर सुना रहा है.
मेरे सिर के बाल खड़े हो गए, जैसे पीछे से कोई
फूंक पर मार रहा था, और मेरे मुँह से अनचाहे ही निकल गया:
“आखिर अरिस्तार्ख प्लतोनविच कितने साल के हैं?”
असभ्य प्रश्न का उत्तर मुझे उसी तरह से मिला, पलिक्सेना की
थरथराहट सुनाई दी:
“अरिस्तार्ख प्लतोनविच जैसे लोगों की उम्र सालों में नहीं गिनी जाती. आपको, शायद, इस बात से
आश्चर्य हो रहा है, कि अरिस्तार्ख प्लतोनविच के कार्यकाल में
कई लोगों को उनकी संगत का लाभ उठाने का मौक़ा मिला.
“माफ़ कीजिये,” मैं घबराकर चिल्लाया. “इसके बिलकुल
विपरीत!...मैं...” – मगर मैंने आगे कोई फ़िज़ूल की बात नहीं कही, क्योंकि मैंने सोचा, “बल्कि इसके विपरीत?! मैं क्या बकवास कर
रहा हूँ?”
पलिक्सेना चुप हो गयी, और मैंने सोचा : ‘नहीं, मैं उस पर अच्छा
प्रभाव नहीं डाल सका. ओफ़! ये स्पष्ट है!’
तभी दरवाज़ा खुला, और ड्रेसिंग रूम में फुर्तीली चाल से एक महिला ने प्रवेश
किया, और उसे देखते ही मैं
पहचान गया कि यह पोर्टेट-गैलरी से ल्युद्मीला सिल्वेस्त्रव्ना प्र्याखिना है.
महिला पर सब कुछ वैसा ही था, जैसा पोर्ट्रेट में था : स्कार्फ, और हाथ में वही
रूमाल, और उसने उसी तरह उसे पकड़ा था, छोटी ऊंगली बाहर को
निकली हुई.
मैं सोच रहा था की उस पर भी अच्छा प्रभाव डालने की कोशिश करना बुरा नहीं
होगा, अच्छा था कि यह साथ
ही करूं, और मैंने विनम्रता से झुक कर उसका अभिवादन
किया, मगर उस पर किसी का
ध्यान नहीं गया.
भागते हुए भीतर आकर महिला ठहाके लगाने लगी और चहकी:
“नहीं, नहीं! क्या आप देख नहीं रही हैं? क्या वाकई में आप
नहीं देख रही हैं?”
“क्या बात है?” तरपेत्स्काया ने पूछा.
“अरे, सूरज, सूरज!” रूमाल से
खेलते हुए, और कुछ डान्स करते हुए ल्युद्मीला
सिल्वेस्त्रव्ना चहकी. “इन्डियन समर! इन्डियन समर!”
पलिक्सेना ने ल्युद्मीला सिल्वेस्त्रव्ना पर रहस्यमय नज़र डाली और बोली:
“यहाँ ये प्रश्नावली भरना होगी.”
ल्युद्मीला सिल्वेस्त्रव्ना की खुशी फ़ौरन काफ़ूर हो गयी और उसका चेहरा इस कदर
बदल गया कि अब किसी भी हालत में मैं उसे पोर्ट्रेट में भी नहीं पहचान सकता.
“और कैसी प्रश्नावली? आह, माय गॉड! माय गॉड!” और अब तो मैं उसकी
आवाज़ भी नहीं पहचान सका. “अभी-अभी मैं सूरज को देखकर खुश हो रही थी, अपने आप में मगन थी, अभी-अभी मैंने कुछ
पाया था, बीज उगाया था, मन के तार गाने लगे
थे, मैं चल रही थी, जैसे मंदिर में जा
रही हूँ...और ये...खैर, लाईये, लाईये, इधर दीजिये!”
“चिल्लाने की ज़रुरत नहीं है, ल्युद्मीला सिल्वेस्त्रव्ना,”
तरपेत्स्काया ने हौले से कहा.
“मैं चिल्ला नहीं रही हूँ! मैं चिल्ला नहीं रही हूँ! और मैं कुछ देख भी नहीं
रही हूँ, भयानक तरीके से छापा है.”
प्र्याखिना ने प्रश्नावली के भूरे कागज़ पर नज़र दौड़ाई और अचानक उसे दूर धकेल
दिया:
“आह, आप खुद ही लिखिए, लिखिए, इन बातों में मैं
कुछ भी नहीं समझती!”
तरपेत्स्काया ने कंधे उचकाए, कलम उठाई.
“चलो, प्र्याखिना, प्र्याखिना,” ल्युदमीला
सिल्वेस्त्रव्ना मायूसी से चीखी, - “ ओह, ल्युद्मीला
सिल्वेस्त्रव्ना! सब ये जानते हैं, और मैं कुछ भी नहीं छुपाती!”
तरपेत्स्काया ने प्रश्नावली में तीन शब्द लिखे और पूछा:
“आपका जन्म कब हुआ था?”
इस सवाल ने प्र्याखिना पर गज़ब का प्रभाव डाला: उसके गालों की हड्डियों पर
लाल धब्बे उभर आये, और वह अचानक फुसफुसाहट से बोली:
“अत्यंत पवित्र ईश्वर की माँ! ये क्या है? मैं समझ नहीं पा रही
हूँ, कि किसे यह जानने की ज़रुरत है, किसलिए? अच्छा, ठीक है, ठीक है. मैं मई में
पैदा हुई थी, मई में! और क्या चाहिए मुझसे? क्या?”
“कौनसे साल में, यह ज़रूरी है,” तरपेत्स्काया ने हौले से
कहा.
प्र्याखिना की आंखें नाक की तरफ झुक गईं, और उसके कंधे
थरथराने लगे.
“ओह, काश,” वह फुसफुसाई, “इवान वसील्येविच वसील्येविच देखते की कैसे कलाकार को रिहर्सल से
पहले सताया जाता है!...”
“नहीं, ल्युद्मीला सिल्वेस्त्रव्ना, ऐसे नहीं चलेगा,” तरपेत्स्काया ने
जवाब दिया, “आप प्रश्नावली घर ले जाइए और खुद ही जैसा
चाहें, भर लीजिये.”
प्र्याखिना ने झपट कर कागज़ ले लिया और मुंह बनाते हुए, घृणा से उसे अपने
पर्स में ठूंसने लगी.
तभी टेलीफोन बज उठा, और तरपेत्स्काया तीखी आवाज़ में चिल्लाई,
“ओह! नहीं, कॉम्रेड! कैसे टिकट! मेरे पास कोई
टिकट-विकट नहीं है!...क्या?
नागरिक! आप मेरा वक्त बर्बाद कर रहे हैं! मेरे पास कोई...क्या? आह!”
तरपेत्स्काया का चेहरा लाल हो गया. “आह! माफ़ कीजिये! मैं आवाज़ नहीं पहचान
पाई! हाँ, बेशक! बेशक! सीधे कंट्रोल रूम में रख दिए
जायेंगे. और मैं प्रोग्राम भी रखने के लिए कह दूंगी! और, क्या फिओफिल
व्लदिमीरविच खुद नहीं आयेगे? हमें बहुत अफसोस होगा! बहुत!
शुभकामनाएँ, ढेर सारी शुभकामनाएँ!”
परेशान तरपेत्स्काया ने रिसीवर लटका दिया और
कहा:
“आपकी वजह से मैंने ग़लत इंसान से बदतमीज़ी की!”
“आह, छोडिये, ये सब छोडिये!’ प्र्याखिना मायूसी से चिल्लाई. –
“बीज मर गया, दिन बर्बाद हो गया!”
“हाँ,” तरपेत्स्काया ने कहा, “ग्रुप लीडर ने आपसे उसके पास जाने के लिए कहा
है.”
प्र्याखिना के गालों पर हल्की लाली छा गयी, उसने घमंड से अपनी भौंहें ऊपर उठाईं.
“उसे मेरी ज़रुरत क्यों पड गयी? ये बेहद दिलचस्प है!”
“कॉस्ट्यूम डिज़ाईनर करल्कोवा ने आपकी शिकायत
की.”
“कौन करल्कोवा?” – प्र्याखिना चहकी. “कौन है वो? आह, हाँ याद आया! और याद कैसे ना आये,” अब ल्युद्मीला सिलेस्त्रव्ना ने इतनी ज़ोर से
ठहाका लगाया, कि मेरी पीठ में ठण्डी लहर दौड़ गयी, “ऊ” करते हुए और अपने होंठ खोले बिना, “इस करल्कोवा को कैसे याद न करूँ, जिसने मेरी झालर को बर्बाद कर दिया
था? उसने मेरे बारे में
क्या ज़हर उगला है?”
“वह शिकायत कर रही है, की आपने हेयर ड्रेसर्स के ड्रेसिंग रूम
में गुस्से से उसे चुटकी काट ली,” तरपेत्स्काया ने प्यार से कहा, और उसकी हीरे जैसी
आंखों में पल भर के लिए चमक प्रकट हुई.
तरपेत्स्काया के शब्दों ने जो प्रभाव डाला था, उससे मैं हैरान हो
गया. प्र्याखिना ने अचानक, अपना मुंह आडा-तिरछा खोला, जैसा दांतों के
डॉक्टर के सामने खोलते हैं, और उसकी आंखों से आंसुओं की दो धाराएं
छलछला गईं. मैं अपनी कुर्सी में सिकुड़ गया और न जाने क्यों पाँव ऊपर कर लिए.
तरपेत्स्काया ने घंटी का बटन दबाया, और फ़ौरन दरवाज़े में दिम्यान कुज़्मिच का
सिर घुसा और फ़ौरन गायब हो गया.
इधर प्र्याखिना ने माथे पर मुट्ठी रखी और ऊंची, कर्कश आवाज़ में
चीखने लगी:
“मुझे दुनिया से उठा देना चाहते हैं. माय गॉड! माय गॉड! माय गॉड! कम से कम
तुम तो देखो, पवित्र माँ, मेरे साथ थियेटर में
क्या कर रहे हैं! कमीना पेलिकान! और गेरासिम निकालायेविच गद्दार है! मैं कल्पना कर
सकती हूँ, कि उसने सिव्त्सेव व्राझेक में मेरी
शिकायत की है! मगर मैं इवान वसील्येविच वसील्येविच के पैरों पर गिर पडूँगी! उससे
प्रार्थना करूंगी की मेरी बात सुने!...” उसकी आवाज़ बैठ गयी और थरथरा गयी.
तभी दरवाज़ा खुल गया, वही डॉक्टर भागते हुए भीतर आया. उसके
हाथों में एक बोतल और गिलास था. किसी से भी कुछ न पूछते हुए, उसने अभ्यस्त हाथों
से बोतल से गिलास में धुंधला द्रव डाला, मगर प्र्याखिना भर्राई हुई आवाज़ में चीखी:
“छोड़ दो मुझे! छोड़ दो मुझे! कमीने लोग!” और बाहर भाग गई.
उसके पीछे चिल्लाते हुए डॉक्टर भागा: “प्यारी!” और डॉक्टर के पीछे, अपने
गठिया वाले पैरों से विभिन्न दिशाओं में धम् धम् करते हुए, न जाने कहाँ से भागकर
प्रकट हुआ दिम्यान कुज़्मिच.
खुले हुए दरवाजों से पियानो की पट्टियों की फ़ुहार और दूर से आती हुई दमदार
आवाज़ जोश से गा रही थी:
“...और बनेगी तू रानी दू...उ...उ...” वह और आगे भी गा रहा था, “निया...या की ...”,
मगर दरवाज़े धड़ाम् से बंद हो गए, और आवाज़ ग़ायब हो गई.
“तो, अब मैं खाली हूँ, चलो, शुरू करें,” हौले से मुस्कुराते
हुए तरपेत्स्काया ने कहा.
अध्याय 11
मैं थियेटर से
परिचित होता हूँ
तरपेत्स्काया को टाइपिंग में महारत हासिल थी. मैंने इस तरह की प्रवीणता कभी
नहीं देखी थी. उसे विराम चिह्न लिखवाने की ज़रुरत नहीं थी, न ही उन निर्देशों
को दुहराने की, कि कौन बोल रहा है. मैं तो यहाँ तक पहुंचा, कि ड्रेसिंग रूम में
आगे-पीछे घूमते हुए और लिखवाते हुए, रुक जाता, सोच में पड़ जाता,
फिर कहता: “नहीं, ठहरिये...” लिखे हुए को बदलता, पूरी तरह बताना भूल गया, कि कौन
बोल रहा है, बुदबुदाता और ज़ोर से बोलता, मगर मैं चाहे जो भी करता, तरपेत्स्काया के
हाथों से बिना मिटाए, एक-सा साफ़-सुथरा पृष्ठ निकलता, बिना किसी व्याकरण
की त्रुटी के – चाहे तो उसे अभी प्रिंटर को दे दें.
मतलब, तरपेत्स्काया अपना काम जानती थी और उसे
अच्छी तरह निभाती थी. हम टेलीफोन की घंटियों की संगत में लिख रहे थे. पहले तो वे
मुझे परेशान कर रही थीं, मगर बाद में मुझे उनकी ऐसी आदत हो गयी, कि वे मुझे अच्छी
लगने लगीं. पलिक्सेना फ़ोन करने वालों के साथ असाधारण निपुणता से पेश आती. वह फ़ौरन
चिल्लाती:
“यस. बोलिए, कॉमरेड, फौरन बोलिए, मैं व्यस्त हूं! हां?”
ऐसे स्वागत से टेलीफ़ोन के दूसरे सिरे वाला कॉमरेड गड़बड़ा जाता और हर तरह की
बकवास करने लगता और उसे फ़ौरन ठीक कर दिया जाता.
तरपेत्स्काया के कार्यकलापों का घेरा अत्यंत विस्तीर्ण था. इस बात पर मुझे
टेलीफोन की घंटियों से विश्वास हो गया.
“हाँ,” तरपेत्स्काया कहती, “नहीं, आप गलत नंबर पर फ़ोन
कर रहे हैं. मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं है...मैं तुम्हें गोली मार दूंगी! (ये –
मुझे, पहले लिखे गए वाक्य
को दुहराते हुए.)
फिर घंटी.
“हाँ? स्वतन्त्र! मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं है!...बालकनी बालकनी
“सारे टिकट बिक चुके हैं,” तरपेत्स्काया ने कहा, “मेरे पास कोई
फ्री-पास नहीं है...इससे तुम कुछ भी साबित नहीं कर पाओगे. (मेरे लिए.)
‘अब मैं समझने लगा हूँ,’ मैंने सोचा, मॉस्को में कितने
लोग मुफ़्त में थियेटर जाने के शौकीन हैं. और, अजीब बात है: उनमें से कोई भी मुफ़्त
में ट्राम में जाने की कोशिश नहीं करता. फिर – उनमें से कोई भी डिपार्टमेंटल स्टोर
में जाकर मुफ्त में मछलियों का डिब्बा देने को नहीं कहेगा. वे ऐसा क्यों सोचते हैं, कि थियेटर में भुगतान
नहीं करना पडेगा?’
“हाँ! हाँ!” तरपेत्स्काया फ़ोन में चीख रही थी. “कलकत्ता, पंजाब, मद्रास, अलाहाबाद...नहीं, पता नहीं दे सकते!
हाँ?” उसने मुझसे कहा.
“मैं इस बात की इजाज़त नहीं दूँगा, कि वह मेरी मंगेतर की खिड़की के नीचे प्रेम
गीत गाये,” – ड्रेसिंग रूम में भागते हुए मैं जोश से
कह रहा था.
“मंगेतर की...” तरपेत्स्काया ने दुहराया. टाइपराइटर हर मिनट घंटियाँ बजा रहा
था.
फिर से टेलीफोन खनखनाया .
“हाँ! स्वतन्त्र थियेटर! मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं हैं. मंगेतर की...”
“मंगेतर की!...” मैंने कहा. – “येर्माकोव फर्श पर गिटार फेंक देता है और
बाहर बाल्कनी में भागता है.
“हाँ? स्वतन्त्र! मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं
हैं!...बाल्कनी.”
“आन्ना लपकती है....नहीं सिर्फ उसके पीछे जाती है.”
“जाती है...हाँ? आह हाँ. कॉमरेड बूतविच, आपके लिए ऑफ़िस में
फिली के पास रख दिए जाएंगे. शुभ कामनाएँ.”
“आन्ना – वह खुद को गोली मार लेगा!”
बख्तीन – नहीं मारेगा!”
“हाँ. हैलो. हाँ, उसके साथ. फिर अंदमान द्वीपसमूह. अफसोस है
कि मैं पता नहीं दे सकती, अल्बर्त अल्बर्तोविच...खुद को गोली नहीं
मारेगा!...”
पलिक्सेना तरपेत्स्काया की तारीफ़
करनी ही पड़ेगी: अपना काम वह बखूबी जानती थी. वह दसों उँगलियों से टाईप करती थी –
दोनों हाथों से; जैसे ही टेलीफोन की घंटी बजती, एक हाथ से लिखती, दूसरे से रिसीवर
उठाती, चिल्लाती: “कलकत्ता पसंद नहीं आया! तबियत
अच्छी है...” दिम्यान कुज़्मिच अक्सर आता, काऊंटर के पास जाता, कोई कागज़ देता.
तरपेत्स्काया दाईं आंख से उन्हें पढ़ती, सील लगाती, बाएँ हाथ से टाईप
राइटर पर टाईप करती: “हारमोनियम प्रसन्नता से बज रहा है, मगर इससे...”
“नहीं, ठहरिये!” मैं चिल्लाया. – “नहीं, प्रसन्नता से नहीं, बल्कि कुछ धृष्ठता
से...या नहीं...ठहरिये,” मैं बदहवासी से दीवार की ओर देख रहा था, न जानते हुए कि
हार्मोनियम कैसे बजता है. इस दौरान तरपेत्स्काया चेहरे पर पाउडर लगा रही थी, टेलीफोन पर किसी
मिस्सी को बता रही थी कि कोर्सेट के लिए पैड अलबर्त अलबर्तोविच वियेना में
खरीदेंगे. ड्रेसिंग रूम में विभिन्न प्रकार के लोग आते, और शुरू में तो मुझे
उनके सामने लिखवाने में झिझक होती, ऐसा लगता, जैसे कपड़े पहने हुए
लोगों के बीच मैं अकेला निर्वस्त्र हूँ, मगर मुझे जल्दी से आदत हो गयी.
मीशा पानिन प्रकट होता और हर
बार, करीब से गुज़रते हुए,
मुझे प्रोत्साहित करने के लिए मेरा कंधा दबाता और अपने दरवाज़े की तरफ़ चला जाता, जिसके पीछे, जैसा की मैं जानता
था, उसकी विश्लेषणात्मक
कार्यशाला है.
चिकनी दाढी, अवसादपूर्ण रोमन जैसी रूपरेखा, जिद्दीपन से बाहर निकले हुए
निचले होंठ वाला डाइरेक्टरों की कॉर्पोरेशन का अध्यक्ष इवान वसील्येविच अलेक्सान्द्रविच पल्तरात्स्की आया.
“माफ़ी चाहता हूँ. दूसरा अंक भी लिख रहे हैं? शानदार!” वह चहका और
दूसरे दरवाज़े से गया, अपने पैरों को हास्यपूर्ण ढंग से उठाते
हुए, यह दिखाने के लिए कि
वह शोर न मचाने की कोशिश कर रहा है. अगर दरवाज़ा थोड़ा-सा खुलता, तो सुनाई देता कि वह
टेलीफ़ोन पर कैसे बात कर रहा है:
“मुझे कोई फ़रक नहीं पड़ता...मैं कोई पूर्वाग्रह नहीं रखता...ये भी अपने आप
में मौलिक है – हम अंडरपैंट पहन कर दौड़ में आए. मगर इण्डिया नहीं मानेगा...सभी के
लिए एक जैसे सिलवाये – राजकुमार के लिए, पति के लिए, और सामंत के लिए...बिल्कुल
बढ़िया अंडरपैंट रंग में और फैशन में!...और आप कह रहे हैं, कि पतलून चाहिए.
मुझे कोई लेना-देना नहीं है! उन्हें फिर से बनाने दें. और आप उसे शैतानों के पास
भेज दें. कि वह झूठ बोल रहा है! पेत्या दीत्रिख ऐसी वेशभूषाओं की रूपरेखा नहीं बना
सकता! उसने पतलूनों के चित्र बनाए. रेखाचित्र मेरी मेज़ पर हैं! पेत्या परिष्कृत है
अथवा नहीं, वह खुद पतलून में घूमता है! अनुभवी आदमी
है! …”
दोपहर की गहमा-गहमी में, जब मैं अपने बालों को पकड़े, कल्पना करने की
कोशिश कर रहा था, कि इस स्थिति को कैसे ठीक तरह से
प्रदर्शित किया जाए, कि...आदमी गिर रहा है...रिवॉल्वर गिरा
देता है...खून बहता है या नहीं बहता?- ड्रेसिंग रूम में मामूली कपड़े पहने हुए एक
युवा अभिनेत्री ने प्रवेश किया और चहकी:
“नमस्ते, प्यारी, पलिक्सेना
वसील्येव्ना! मैं आपके लिए फूल लाई हूँ!”
उसने पलिक्सेना को चूमा और काउंटर पर एस्टर के चार पीले फूल रख दिए.
“क्या मेरे बारे में इंडिया से कुछ है तो नहीं?”
पलिक्सेना ने जवाब दिया कि है, और उसने काउंटर से फूला-सा लिफ़ाफ़ा निकाला.
ऐक्ट्रेस उत्तेजित हो गयी.
“विश्निकोवा से कहें,” तरपेत्स्काया ने पढ़ा, कि मैंने क्सेन्या
के पात्र की पहेली को सुलझा लिया है...”
“आह, अच्छा, अच्छा!” विश्निकोवा
चीखी.
“मैं प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना के साथ गंगा के किनारे पर था, और वहां मुझे इसका
एहसास हुआ.
बात ये है, कि विश्निकोवा को बीच वाले दरवाज़े से बाहर
नहीं निकलना चाहिए, बल्कि बगल वाले से, वहां, जहां पियानो है. वह
भूले नहीं कि उसने हाल ही में अपने पति को खोया है और वह किसी भी हालत में बीच
वाले दरवाज़े से निकलने की हिम्मत नहीं करेगी. वह मठवासियों जैसी चाल से चलती है, आंखें नीचे किये, हाथों में जंगली
डेज़ी के फूलों का गुलदस्ता पकड़े हुए, जो हर विधवा की विशेषता है...”
“माय गॉड! कितना सही है! कितनी गहराई से सोचा है!” विश्निकोवा चीखी. “सही
है! मुझे भी बीच वाले दरवाज़े में अटपटा लग रहा था.”
“ठहरिये,” तरपेत्स्काया आगे बोली, “यहाँ और भी है,” और उसने आगे पढ़ा:
“मगर, विश्निकोवा जहां से चाहे, निकल सकती है! मैं
आऊँगा, तब सब स्पष्ट हो जाएगा. मुझे गंगा अच्छी
नहीं लगी, मेरे विचार से इस नदी में किसी बात की कमी
है...” मगर इसका आपसे ताल्लुक नहीं है,” पलिक्सेना ने टिप्पणी की.
“पलिक्सेना वसील्येव्ना,” विश्निकोवा कहने लगी, “अरिस्तार्ख
प्लतोनविच को लिखिए, कि मैं पागलपन की हद तक उनकी शुक्रगुज़ार हूँ!”
“अच्छा.”
“और क्या मैं खुद उन्हें नहीं लिख सकती?”
“नहीं,” पलिक्सेना ने जवाब दिया, _ “उन्होंने
इच्छा प्रकट की है कि मेरे अलावा उन्हें कोई और न लिखे. यह विचार प्रक्रिया के
दौरान उन्हें थका देगा.”
“समझती हूँ, समझती हूँ!” विश्निकोवा चीखी और तरपेत्स्काया को चूम कर, चली
गई.
एक मोटा, अधेड़ आयु का, चुस्त व्यक्ति भीतर आया, और
दमकते हुए, चहका:
“नया चुटकुला सुना? आह, आप लिख रही हैं?”
“कोई बात नहीं, हमारा मध्यांतर है,” तरपेत्स्काया ने कहा,
और मोटा आदमी, ज़ाहिर है, चुटकुले से फूटते हुए, खुशी से दमकते हुए, तरपेत्स्काया की ओर
झुका. साथ ही हाथों से आदमियों को बुला रहा था. चुटकुला सुनने के लिए मीशा पानिन
और पल्तरात्स्की और कोई और भी आया. सिर काउंटर के ऊपर झुके. मैं सुन रहा था: “और
इसी समय पति ड्राइंग रूम में लौटता है...” काउन्टर पर लोग
हंसने लगे.
मोटा कुछ और फुसफुसाया, जिसके बाद मीशा पानिन को
हंसी का दौरा पड़ा “आह, आह, आह”. पल्तरात्स्की चिल्लाया: “शानदार! “ और मोटा खुशी से ठहाके लगाने लगा
और फ़ौरन चिल्लाते हुए बाहर निकल गया:
“वास्या! वास्या! ठहर! सुना? नया चुटकुला बेचूंगा!”
मगर वह वास्या को चुटकुला नहीं बेच सका, क्योंकि उसे तरपेत्स्काया ने वापस बुलाया.
पता चला कि अरिस्तार्ख प्लतोनविच ने पूरी बात के
बारे में लिखा था.
“येलागिन से कहिये,” तरपेत्स्काया पढ़ रही थी, “ कि सबसे ज़्यादा वह परिणाम खेलने से बचे, जिसकी तरफ वह हमेशा आकर्षित होता है.”
येलागिन का चेहरा बदल गया और उसने पत्र में
झांका.
“उससे कहिये, कि जनरल के यहाँ पार्टी में उसे फ़ौरन जनरल की
पत्नी स्वागत नहीं करना चाहिए, बल्कि पहले मेज़ का चक्कर लगाए, परेशानी से मुस्कुराते हुए. उसकी वाइन
डिस्टिलरी है, और वह किसी हाल में फ़ौरन ‘हैलो!’ नहीं कहेगा, बल्कि...”
“समझ नहीं पा रहा हूँ!” येलागिन ने कहा, “माफ़ कीजिये, नहीं समझ पा रहा,” येलागिन ने कमरे का चक्कर लगाया, जैसे किसी
चीज़ से बचना चाहता हो, “मैं यह बात महसूस नहीं कर सकता. मुझे असहज लगता है!...जनरल की पत्नी उसके
सामने है, और वह कहीं और जा रहा है...महसूस नहीं करता!”
“क्या आप ये कहना चाहते हैं, कि आप इस दृश्य को अरिस्तार्ख प्लतोनविच से
ज़्यादा अच्छी तरह समझते हैं?” बर्फ़ीली आवाज़ में तरपेत्स्काया ने पूछा.
इस सवाल ने येलागिन को परेशान कर दिया.
“नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ...” वह लाल हो गया.
“मगर, आप खुद ही फैसला कीजिये...” और उसने फिर से कमरे का चक्कर लगाया.
“मैं सोचती हूँ, कि
अरिस्तार्ख प्लतोनविच के पैरों में झुकना चाहिए, कि वह इंडिया से...”
“ये क्या पैरों में, पैरों में लगा रखा है,” येलागिन अचानक
बुदबुदाया.
“एह, वह बहादुर है,” मैंने सोचा.
“आप, बेहतर सुनिए कि अरिस्तार्ख प्लतोनविच आगे क्या
लिखते हैं,” और वह पढ़ने लगी: “ मगर, खैर वह जैसा चाहे, करने दो. मैं वापस आऊँगा, और नाटक सब को स्पष्ट हो जाएगा.”
येलागिन खुश हो गया और ये कारनामा किया. उसने एक
कान के पास हाथ हिलाया, फिर दूसरे कान के पास, और मुझे ऐसा लगा कि मेरी आंखों के सामने, देखते-देखते उसके गलमुच्छे उग आये हैं. इसके
बाद उसका कद छोटा हो गया, उसने धृष्ठता से नथुने फुलाए और दांत भींचकर, अपने काल्पनिक गलमुच्छों से बाल उखाड़ते हुए, वह सब कुछ बोल गया, जो पत्र में उसके बारे में लिखा था.
“क्या एक्टर है!” मैंने सोचा. मैं समझ गया कि वह
अरिस्तार्ख प्लतोनविच की नक़ल कर रहा है.
तरपेत्स्काया के चेहरे पर खून उतर आया, वह
जोर-जोर से सांस लेने लगी.
“मैं आपसे विनती करती हूँ!...”
“वैसे,” दांत भींचकर येलागिन ने कहा, उसने कंधे उचकाए, अपनी साधारण आवाज़ में कहा: “समझ नहीं पा रहा
हूँ!” और बाहर निकल गया. मैंने देखा कि उसने बरामदे में एक और घेरा बनाया, हैरानी से कंधे उचकाये और गायब हो गया.
“ओह, ये औसत दर्जे के इंसान!” पलिक्सेना कहने लगी, “इनके लिए कुछ भी पवित्र नहीं है. आपने सुना, कैसे बात करते है?
“हुम्,” मैंने जवाब दिया, यह न जानते हुए कि क्या कहूं, और ख़ास बात, मुझे समझ में नहीं आ रहाथा की “औसत” शब्द का
क्या मतलब है.
पहला दिन समाप्त होते-होते यह स्पष्ट हो गया कि
ड्रेसिंग रूम में नाटक नहीं लिखा जा सकता.
पलिक्सेना को दो दिनों के लिए उसके ज़रूरी
कर्तव्यों से मुक्त कर दिया गया, और मुझे उसके साथ एक महिला ड्रेसिंग रूम में भेज दिया गया. दिम्यान कुज्मिच
हांफते हुए, खींचकर वहां टाईप राइटर ले गया.
‘इण्डियन समर’ ने हारकर गीली शरद ऋतु को स्थान
दे दिया. खिड़की में धूसर प्रकाश आ रहा था. मैं सोफे पर बैठा था, कांच की अलमारी में परावर्तित होते हुए, और पलिक्सेना स्टूल पर बैठी थी. मैं स्वयं को
दुमंजिला महसूस कर रहा था. ऊपर की मंजिल पर उथल-पुथल और बेतरतीबी थी, जिसे व्यवस्थित करना था. नाटक के सशक्त पात्र
मन में असाधारण परेशानी पैदा कर रहे थे. हरेक आवश्यक शब्दों की मांग कर रहा था,
औरों को धकेलते हुए हरेक पहला स्थान प्राप्त करना चाह रहा था.
नाटक का सम्पादन करना – बेहद थकाने वाला काम है.
ऊपर वाली मंजिल दिमाग़ में शोर मचा रही थी और निचली मंजिल का आनंद उठाने में बाधा
डाल रही थी, जहां चिर शांति का साम्राज्य था. छोटे से ड्रेसिंग रूम की दीवारों से, जो मिठाई के डिब्बे जैसा था, कृत्रिम रूप से मुस्कुराते हुए, बेहद फूले-फूले
होठों, और आंखों के नीचे परछाईयों वाली
महिलाएं देख रही थीं. ये महिलाएं क्रिनोलिन या हुप्स पहने हुए थीं. उनके बीच हाथों में टोपियाँ लिए, चमकते दांतों वाले
पुरुषों की तस्वीरे चमक रही थीं. नशे में धुत एक मोटी नाक होंठों तक लटक रही थी,
गर्दन और गर्दन पर सिलवटें पड़ी थीं. जब तक पलिक्सेना ने नहीं बताया, मैं उस तस्वीर में
येलागिन को नहीं पहचान पाया.
मैं फोटोग्राफ्स को देख रहा था, सोफ़े से उठकर छू रहा था, बिना जले लैम्प, खाली पाउडर का
डिब्बा. किसी पेंट की मुश्किल से महसूस हो रही गंध और पलिक्सेना की सिगरेट की
खुशबू को सूंघा. यहाँ शान्ति थी, और इस शान्ति को सिर्फ टाईप राइटर की
टक-टक और उसकी शांत घंटियाँ, और कभी कभी लकड़ी का फर्श हौले से चरमराता.
खुले दरवाज़े से कभी कभी कलफ़दार स्कर्टों का ढेर लिए जा रही कुछ मुरझाई हुईं, बुज़ुर्ग महिलाओं को,
पंजों के बल चलते देखा जा सकता था.
कभी कभी इस कॉरीडोर की महान खामोशी को कहीं से आते हुए संगीत के दबे दबे
विस्फोट, और दूर से आती भयानक चीखें भंग कर देतीं. अब मैं जान गया था कि पुराने कॉरीडोर्स,
ढलानों और सीढ़ियों के जाल के पीछे स्टेज पर, “स्तिपान राज़िन” नाटक की रिहर्सल चल
रही थी.
हमने बारह बजे लिखना शुरू किया था, और दो बजे अंतराल हुआ. पलिक्सेना अपने
कमरे में चली गयी, ताकि अपना काम देख सके, और मैं चाय के बुफे
पर गया.
वहां जाने के लिए मुझे कॉरीडोर छोड़ कर सीढ़ियों पर निकलना था. वहां खामोशी की
मोहकता पहले ही भंग हो चुकी थी. सीढ़ियों पर अभिनेता और अभिनेत्रियाँ ऊपर आ रहे थे, सफ़ेद दरवाजों के
पीछे टेलीफ़ोन बज रहा था, कहीं नीचे से दूसरा टेलिफ़ोन जवाब दे रहा
था. नीचे अव्गुस्ता मिनाझ्राकी का प्रशिक्षित कुरियर ड्यूटी पर था. फिर मध्ययुगीन
लोहे का दरवाज़ा, उसके पीछे रहस्यमयी सीढियां और ऊंचाई पर कोई
असीमित, जैसा कि मुझे लगा, ईंटों की खाई, गंभीर, आधी अंधेरी. इस खाई
में, उसकी दीवारों की तरफ़ झुकी हुई, कई पर्तों में सफ़ेद सजावट थी. उनकी लकड़ी
की फ्रेमों में काले रंग से लिखी हुईं रहस्यमय लिखावट थी: “I बाएं पीछे”, “ग्राफ ज़ास्पिन.”, “शयन कक्ष –
III
अंक”. चौड़े, ऊंचे, समय के कारण काला पड़ गया द्वार, उस पर खुदा हुआ दरवाज़ा,
भारी भरकम ताले के साथ दाईं ओर था, और मैं जान गया कि सीढियां स्टेज की तरफ़ जाती हैं. वैसा ही द्वार बाई, ओर था, और वे सीढियां आँगन
में ले जाती हैं, और इन द्वारों से सरायों के श्रमिक सजावट
का सामान दे रहे थे, जो
खाई में नहीं समा रहा था. मैं हमेशा खाई में रुक जाता था, ताकि अकेले में सपने
देख सकूं, और ऐसा करना आसान था, क्योंकि सजावटी
सामान के बीच संकरे गलियारे में कोई इक्का दुक्का ही मुसाफिर मिल जाता, जहां एक दूसरे से
बचने के लिए बगल में घूमना पड़ता था.
लोहे के दरवाज़े पर लगे स्प्रिंग-सिलिंडर ने हल्की सी सांप जैसी सीटी के साथ
हवा को सोखते हुए मुझे बाहर निकलने दिया. पैरों के नीचे आवाजें गायब हो गईं, मैं
कालीन पर आया, तांबे के सिंह के सिर से मैंने गव्रीला
स्तिपानविच के कार्यालय के प्रवेश द्वार को पहचाना और उसी सैनिकों वाले कपडे से
होता हुआ उस ओर चला, जहां लोगों की झलक दिखाई दे रही थी, आवाजें सुनाई दे रही
थीं, - चाय के बुफे में.
पहली चीज़, जिस पर ध्यान आकर्षित होता था, वह था काऊंटर के
पीछे अनेक बाल्टियों वाला चमचमाता समोवार, और उसके बाद एक छोटे कद का आदमी, अधेड़, लटकती हुई मूंछों
वाला, गंजा और इतनी उदास
आंखों वाला, कि हरेक के मन में, जो उसका अभ्यस्त नहीं
था, उसके प्रति दया और
करुणा उत्पन्न हो जाती थी. दुःख से आहें भरते हुए दयनीय आदमी काउंटर के पीछे खड़ा
था और कीटो कैवियार और पनीर चीज़ के सैंडविचेस के ढेर की तरफ़ देख रहा था. एक्टर्स बुफे
की तरफ जाते, इस
खाद्य पदार्थ को लेते, और तब बारमैन की आंखें आंसुओं से भर
जातीं. उसे उन पैसों से खुशी नहीं होती थी, जो लोग सैण्डविच के लिए देते थे, न ही इस बात का
एहसास कि वह राजधानी की सबसे बढ़िया जगह, स्वतन्त्र थियेटर में खड़ा है . उसे किसी
बात से खुशी नहीं हो रही थी, उसकी आत्मा, ज़ाहिर है, इस खयाल से दुखी थी, कि लोग प्लेट में
पडी हर चीज़ खा लेंगे, बिना कुछ छोड़े, पूरा भीमकाय समोवार
पी जायेंगे.
दो खिड़कियों से पनीली शरद ऋतु का प्रकाश आ रहा था, साइड बोर्ड के पीछे,
दीवार पर, त्युल्पान के शेड में लैम्प जल रहा था, जो कभी नहीं बुझता
था, कोने चिर धुंधलके
में डूबे रहते.
मैं छोटी छोटी मेजों के पीछे बैठे अजनबी लोगों से झिझक रहा था, हाँलाकि उनके पास
जाने का जी कर रहा था. मेजों के पीछे से दबी दबी हंसी सुनाई दे रही थी, हर जगह कुछ न कुछ
किस्से सुनाए जा रहे थे.
चाय का एक प्याला पीकर और चीज़ सैंडविच खाकर मैं थियेटर की अन्य जगहों पर चल
पडा. सबसे ज़्यादा मुझे वह जगह पसंद थी, जिसका नाम था ‘ऑफिस’.
ये जगह थियेटर की अन्य जगहों से काफ़ी अलग थी, क्योंकि यही एक
शोरगुल वाली जगह थी, जहां, अगर कहें तो, रास्ते से जीवन घुल
मिल गया था.
ऑफिस में दो हिस्से थे. पहले वाले तंग कमरे में, जहां आँगन से इतनी
जटिल सीढियां पहुँचती थीं, कि थियेटर में पहली बार आने वाला हर
व्यक्ति ज़रूर गिरता था. पहले वाले छोटे कमरे में दो कुरियर बैठे थे, कत्कोव और बक्वालिन.
उनके सामने छोटी सी मेज़ पर दो टेलीफ़ोन रखे थे. और ये टेलिफ़ोन लगभग हर समय, बिना खामोश हुए, बज
रहे थे.
मैं बहुत जल्दी समझ गया, कि फोन पर एक ही आदमी को बुलाया जा रहा है
जो बगल में सटे हुए कमरे में बैठा है, जिसके दरवाजों पर इबारत लटकी हुई थी:
आतंरिक मामलों के प्रमुख
फिलिप फिलिपविच तुलुम्बासव
पूरे मॉस्को में तुलुम्बासव से ज़्यादा लोकप्रिय व्यक्ति कोई और व्यक्ति नहीं
था, और, शायद, कभी भी नहीं होगा.
मुझे ऐसा लगा कि पूरा शहर, टेलिफोनों के माध्यम से तुलुम्बासव पर
टूटा पड़ रहा था, और कभी कत्कोव, तो कभी बक्वालिन
फिलिप फिलिपविच से बात करने के इच्छुक लोगों का उनसे संपर्क करवा रहे थे.
क्या मुझसे किसी ने कहा था, या मुझे सपना आया था, कि जैसे जूलियस सीज़र
एक ही समय में कई विभिन्न प्रकार के काम करने की क्षमता रखता था, जैसे, कुछ पढ़ता, और किसी की बात
सुनता. यहाँ, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि यदि जूलियस
सीज़र को फिलिप फिलिपविच की जगह पर बिठा दिया जाता, तो वह अत्यंत दयनीय ढंग
से परेशान हो जाता.
इन दो टेलीफोनों के अलावा, जो
बक्वालिन और कत्कोव के हाथों के निकट गरज रहे हैं, खुद फिलिप फिलिपविच
के सामने दो टेलीफोन थे. और एक पुराने स्टाईल का, दीवार पर लटक रहा
था.
फिलिप फिलिपविच, बेहद गोरा, प्यारे से गोल चहरे
वाला, असाधारण रूप से
जीवंत आंखों वाला, जिनके भीतर किसी को भी न दिखाई देने वाली
उदासी थी, छुपी हुई, शायद, शाश्वत, लाइलाज, एक कटघरे के पीछे, एक बेहद आरामदेह
कोने में बैठा था. बाहर आँगन में चाहे दिन हो या रात, फिलिप फिलिपविच के
पास हमेशा शाम रहती थी, हरे शेड के नीचे जल रहे लैम्प के साथ. फिलिप
फिलिपविच की लिखने की मेज़ पर चार कैलेंडर्स थे, रहस्यमय लिखाई से
खचाखच भरे हुए, जैसे: “प्र्यान. 2, पार्त. 4”, “13 सुबह. 2”,
“मोन. 77727” और इसी तरह से.
वैसे ही प्रतीकों से मेज़ पर पांच खुली हुई
नोटबुक्स चिह्नित थीं. फिलिप फिलिपविच के ऊपर एक भरवां भूरा भालू था, जिसकी आंखों में इलेक्ट्रिक बल्ब फ़िट किये गए
थे. फिलिप फिलिपविच कटघरे से बाहरी दुनिया से सुरक्षित था, और दिन के किसी भी समय इस कटघरे पर विभिन्न
प्रकार की वेशभूषाओं में लोग पेट के बल लटके रहते थे. यहाँ, फिलिप फिलिपविच के सामने से पूरा देश गुज़रता था, यह दावे के साथ कहा जा सकता है; यहाँ उसके सामने थे सभी वर्गों के, गुटों के, स्तरों के, विश्वासों के, लिंगों के, आयु के प्रतिनिधि होते थे. कुछ मामूली कपड़े,
घिसीपिटी टोपियाँ पहनीं महिलाओं के स्थान पर अलग-अलग रंग के बटनहोल वाले सैनिक आ
जाते. सैनिक बीवर कॉलर वाले, और कडक स्टार्च की गई कॉलर वाले अच्छे कपड़े पहने
मर्दों को जगह देते. स्टार्च की हुई कॉलरों के बीच कभी तिरछी कॉलर वाला सूती
कसावरोत्का भी दिखाई दे जाता. उद्दाम लटों पर टोपी. शानदार महिला महंगे फ़र का शॉल
कंधों पर डाले हुए. कानों वाली टोपी, काली आंख. नाक पर पाउडर लगाए एक किशोरी.
दलदली जूतों में एक आदमी, लम्बे कोट पर बेल्ट बांधे एक आदमी. एक और फ़ौजी, एक डायमंड वाला. कोई एक सफ़ाचट दाढ़ी वाला, सिर
पर बैंडेज बांधे. थरथराते जबड़े वाली एक बुढ़िया, मृतप्राय आंखों वाली और न जाने
क्यों अपनी साथी से फ्रेंच में बात करती हुई, और उसकी साथी मर्दाने गलोशों(रबड़ के ऊपरी
जूते – अनु.) में. भेड़ की खाल का कोट.
वे जो कटघरे पर पेट के बल नहीं लेट सकते थे, पीछे भीड़ बनाए खड़े थे, कभी कभार मुडी हुई चिटें ऊपर उठाते हुए, कभी डरते हुए चिल्लाते: “फ़िलिप फ़िलिपविच!”
कभी-कभी कटघरे को घेरी हुई भीड़ में बिना ऊपरी
पोषाक में, सिर्फ ब्लाऊज या जैकेट पहने पुरुष और महिलाएं घुस जातीं, और मैं समझ जाता कि ये ‘स्वतन्त्र थियेटर के
अभिनेता और अभिनेत्रियाँ हैं.
मगर चाहे जो भी कटघरे के पास जाता, इक्का दुक्का अपवाद को छोड़कर, सभी के मुख पर चापलूसी का भाव था, वे कृतघ्नातापूर्वक मुस्कुराते. सभी आगंतुक
फिलिप फिलिपविच से पूछते, सभी उसके उत्तर पर निर्भर रहते.
तीन टेलीफोन निरंतर बज रहे थे, बिना खामोश हुए, और कभी कभी तो एकदम तीनों
गरजते हुए कार्यालय को बहरा कर देते. फिलिप फिलिपविच को इससे ज़रा भी परेशानी नहीं
हो रही थी.
दायें हाथ से वह दाईं और के टेलिफ़ोन का रिसीवर
उठाता, उसे कंधे पर रखता और गाल से चिपका लेता, बाएं हाथ में दूसरा रिसीवर उठाता और उसे बाएं
कान से सटा लेता, और दायें हाथ को मुक्त करके, उससे उसकी तरफ दिए जा रहे पुर्जे को लेता, तीनों टेलिफ़ोनों से एक साथ बात करना शुरू करता –
बाएँ, दायें टेलीफोन
में, फिर आगंतुक से, फिर दुबारा बाएँ टेलीफोन पर, दाएं पर, आगंतुक से. दायें, आगंतुक से, बाएँ, बाएँ, दाएं, बाएँ.
फ़ौरन दोनों फ़ोनोँ को लीवर्स पर गिरा देता, और
चूंकि दोनों हाथ खाली हो गए थे, दो पुर्जे ले लिए. उनमें से एक को अस्वीकार करके उसने पीले टेलिफ़ोन का
रिसीवर उठाया, पल भर के लिए सु ना, कहा, “कल तीन बजे फ़ोन कीजिये”, रिसीवर लटका दिया और आगंतुक से कहा: “कुछ नहीं कर
सकता”.
थोड़ी देर में मैं समझने लगा, कि लोग फिलिप फिलिपविच से क्या मांग रहे थे. वे
उससे टिकट मांग रहे थे.
उससे अलग-अलग तरह से टिकट मांग रहे थे. कुछ लोग
ऐसे थे, जो कह रहे थे कि इर्कुत्स्क से आये हैं और उन्हें रात को ही जाना है, मगर ‘दरिद्री दुल्हन’ देखे बिना नहीं जा सकते. कोई एक आदमी कह रहा था, की वह याल्टा का टूरिस्ट गाईड है. किसी
डेलिगेशन का प्रतिनिधि. कोई, जो टूरिस्ट गाईड नहीं है, और न ही साइबेरिया का है, और न ही कहीं जा रहा है, बल्कि सिर्फ कहता है, “पेतुखोव, याद है?” अभिनेता और अभिनेत्रियाँ कह रहे थे, “फिल्या, अरे फिल्या, इंतज़ाम कर दो...” कोइ कह रहा था : “किसी भी
कीमत पर, कीमत की मुझे परवाह नहीं...”
“इवान वसील्येविच को अठ्ठाईस साल से जानते हुए,” अचानक एक बुढ़िया
बुदबुदाई, जिसकी टोपी पर दीमक ने एक छेद बना दिया था, - “मुझे यकीन है की वह मुझे इनकार नहीं
करेगा...”
“खड़ा होने दूंगा,” फिलिप फिलिपविच ने अचानक कहा
और, भौंचक्की रह गयी
बुढ़िया के आगे कुछ कहने से पहले, उसकी ओर कागज़ का एक टुकड़ा बढ़ा दिया.
“हम आठ लोग हैं,” एक हट्टे कट्टे आदमी ने कहना शुरू किया, और फिर से उसके आगे के शब्द मुँह में ही रह गए, क्योंकि फ़िल्या ने पहले ही कह दिया:
“आपको फ्री टिकट्स!” और उसकी तरफ़ कागज़ बढ़ा दिया.
“ मैं अर्नाल्द अर्नाल्दविच की ओर से आया हूँ,” एक नौजवान कहने लगा, जो शानो शौकत का दिखावा करते कपड़े पहने था.
‘खड़ा होने दूंगा,’ मैंने ख़यालों में कहा और अंदाज़ा नहीं लगाया.
“कुछ नहीं कर सकता,” फ़िल्या ने, सिर्फ एक सरसरी नज़र नौजवान के
चेहरे पर डालकर अकस्मात् जवाब दिया.
“मगर अर्नाल्द ...”
“नहीं कर सकता!”
और नौजवान ऐसे ग़ायब हो गया, मानो धरती में
समा गया हो.
“मैं बीबी के साथ...” एक मोटा नागरिक कहने लगा.
“कल के लिए?” फ़िल्या ने अचानक और जल्दी जल्दी
पूछा.
“जी, सुन रहा हूँ.”
“कैश काउंटर पर!” फ़िल्या चहका, और मोटा आगे खिंच गया, हाथों में कागज़ का टुकड़ा पकड़े और फ़िल्या इस समय
टेलिफ़ोन पर चिल्ला रहा था:
“नहीं! कल!” और साथ ही बाईँ आंख से दिए गए कागज़
को पढ़ रहा था.
समय के साथ मैं समझ गया की वह लोगों की वेशभूषा से
प्रभावित नहीं होता था और, बेशक उनके चीकट कागज़ों से. साधारण, और, गरीबों जैसे कपड़े
पहने हुए लोग भी थे, जिन्हें, मेरे लिए भी
अप्रत्याशित रूप से चौथी पंक्ति में दो मुफ़्त के टिकट मिल जाते, और बढ़िया कपड़े पहने
हुए लोग भी थे, जो खाली हाथ लौट जाते. लोग विशाल, अस्त्राखान
से, येव्पतोरिया से, वलोग्दा से, लेनिनग्राद से ख़ूबसूरत
जनादेश लेकर आते, और या तो उनका कोई असर न होता, या सिर्फ पांच दिन
बाद सुबह ही वे प्रभावशाली हो सकते थे, मगर कभी बेहद विनम्र और शांत लोग आते और
लगभग कुछ भी न कहते, बल्कि कठघरे से हाथ बढ़ा देते और फ़ौरन सीट
प्राप्त कर लेते.
समझदार होने के बाद, मैं समझ गया, कि मेरे सामने ऐसा
इंसान है, जो लोगों को पूरी तरह जानता है. ये समझने
के बाद, मुझे दिल के नीचे उत्तेजना और ठंडक का
एहसास हुआ. हाँ, मेरे सामने सबसे महान, दिलों को जानने
वाला व्यक्ति था. वह लोगों को उनके दिलों की गहराई तक जानता था. वह उनकी गुप्त
इच्छाएं भांप लेता था, उसे उनके जुनून का, उनकी बुराईयों का
ज्ञान था, सब जानता था, कि उनके भीतर क्या
छुपा है, साथ ही, उनकी अच्छाईयों से
भी वाकिफ़ था. और सबसे महत्वपूर्ण बात, वह उनके अधिकार भी जानता था. वह जानता था, कि किसे, कब थियेटर में आना
चाहिए, किसे चौथी पंक्ति में बैठने का अधिकार है, और किसे निचली में सड़ना
पडेगा, सीढ़ी पर बैठकर इस भ्रमपूर्ण आशा में कि
किसी जादुई ढंग से उसके लिए अचानक कोई जगह खाली हो जायेगी.
मैं समझ गया कि फ़िलिप फ़िलीपविच का स्कूल सबसे महान स्कूल था.
और, वह लोगों को कैसे नहीं जानेगा, जब उसके सामने से,
उसके सेवाकाल के पंद्रह वर्षों में दसियों हज़ार लोग गुज़र चुके थे. उनमें थे
इंजीनियर्स, सर्जन, कलाकार, महिला-आयोजक, गबन करने वाले, गृहिणियाँ, मशीनिस्ट, मोजो-सप्रानो गायक, रियल इस्टेट
डेवलपर्स, गिटारिस्ट्स, पॉकेट कतरे, डेन्टिस्ट्स, अग्निशामक, बिना किसी
विशिष्ट व्यवसाय वाली लड़कियाँ, फोटोग्राफर्स, प्लानर्स, पायलेट्स,
पुश्किनवादी, सामूहिक फार्मों के अध्यक्ष, गुप्त छिछोरी
लड़कियाँ, क्रॉस-कंट्री राइडर्स, फिटर्स, डिपार्टमेंटल स्टोर्स की सेल्स गर्ल्स,
विद्यार्थी, हेयरड्रेसर्स, डिज़ाइनर्स, गीतकार, अपराधी, प्रोफेसर्स, भूतपूर्व मकान
मालिक, पेंशनर्स, गाँवों के शिक्षक, वाईन निर्माता, वायलिन वादक, तलाकशुदा पत्नियाँ, कैफे प्रबंधक, पोकर खिलाड़ी, होमियोपैथ, संगत करने वाले, ग्राफोमैनियाक्स, कन्ज़र्वेटरी के टिकट
कंट्रोलर्स, रसायनज्ञ, आयोजक, एथलीट्स, शतरंज के खिलाड़ी, प्रयोगशाला सहायक, बदमाश, अकाऊंटेंट्स, मनोरुग्ण, भोजन चखने
वाले, मैनीक्यूरिस्ट,
अकाउंटेंट्स, भूतपूर्व पादरी, सट्टेबाज, फोटोग्राफ़िक टेक्नीशियन्स.
फ़िलिप फ़िलीपविच को कागज़ात की क्या ज़रुरत थी?
सामने प्रकट हुए आदमी की एक ही नज़र और पहले ही शब्द काफी थे यह जानने के लिए, कि वह किस चीज़ का
हकदार है, और फ़िलिप फिलिपविच जवाब देता, और ये जवाब हमेशा अचूक होते.
“मैंने,” – परेशान होते हुए एक महिला ने कहा, कल “डॉन कार्लोस” के
दो टिकट खरीदे, उन्हें पर्स में रखा, घर पहुँची...”
मगर फिलिप फिलिपविच ने पहले ही घंटी
बजा दी और, महिला की तरफ़ दुबारा न देखते हुए बोला:
“बक्वालिन! दो टिकट खो गए हैं...कौन सी पंक्ति?”
“ग्यारहवीं...”
“ग्यारहवीं पंक्ति में. भीतर जाने दिया जाए. बिठाया जाए... जांच करें!”
“जी, सुन रहा हूँ!”
बक्वालिन भौंका, और महिला गायब हो गयी, और कोई और कटघरे पर
झुक रहा था, भर्रा रहा था, कि वह कल जा रहा है.
“ऐसा नहीं करना चाहिए!” महिला ने
गुस्से से ज़ोर देकर कहा, और उसकी आंखें चमकने लगीं. “वह सोलह साल
का हो गया है! ये देखने की ज़रुरत नहीं है, कि वह ‘शॉर्ट्स’ में है...”
“हम ये नहीं देखते, महोदया, कि किसने कैसी पतलून
पहनी है,” फ़िल्या ने धातुई आवाज़ में जवाब दिया, “क़ानून के अनुसार
पंद्रह वर्ष तक के बच्चों को इजाज़त नहीं है. यहाँ बैठो, अभी,” इस समय वह सफाचट
दाढी वाले अभिनेता के साथ घनिष्ठता से बात कर रहा था.
“माफ़ कीजिये,” लफड़ेबाज़ महिला
चिल्लाई, “और यहीं बगल से, लंबे बेलबॉटम पहने तीन छोटे बच्चों को अंदर छोड़ रहे हैं.
मैं शिकायत करूंगी!”
“ये छोटे बच्चे,
मैडम,” फ़िल्या ने जवाब दिया,” कस्त्रोमा के लिलिपुट थे.
एकदम सन्नाटा छा गया.
महिला की आंखें बुझ गईं, तब फ़िल्या दांत निकालकर इस तरह मुस्कुराया, कि महिला काँप उठी.
कठघरे के पास एक दूसरे को कुचल रहे लोग, दुर्भावना से खी-खी कर रहे थे.
विवर्ण चहरे वाला
अभिनेता, पीड़ित, धुंधली आंखों से, अचानक कठघरे के
किनारे पर गिर गया, वह फुसफुसा रहा था:
“भयानक माइग्रेन...”
फ़िल्या ने
आश्चर्यचकित हुए बिना, मुड़े बिना, हाथ पीछे बढाया, दीवार पर बनी छोटी
अलमारी खोल दी, टटोलते हुए एक छोटा डिब्बा उठाया, उसमें से एक छोटा
पैकेट निकाला, पीड़ित व्यक्ति की ओर बढाया, कहा:
“पानी के साथ ले
लो...हाँ, आपकी बात सुन रहा हूँ, नागरिक.”
महिला की आंखों में
आंसू निकल आये, टोपी कान पर खिसक गयी. महिला का दर्द महान
था. उसने गंदे रूमाल में नाक छिनकी. पता चला, कि कल, उसी “डॉन कार्लोस”
से, घर आई, और पर्स तो नहीं था.
पर्स में एक सौ पचाहत्तर रूबल्स, पाउडर का डिब्बा, और रूमाल था.
“बहुत बुरी बात है, नागरिक,” फ़िल्या ने गंभीरता
से कहा, “पैसे बैंक में रखना चाहिए, न की पर्स में.”
महिला ने आंखें फाड़कर
फ़िल्या की तरफ़ देखा, उसे उम्मीद नहीं थी, की उसके दुःख के प्रति इतनी लापरवाही से
पेश आयेंगे.
मगर फ़िल्या ने फ़ौरन
खड़खड़ाते हुए मेज़ की दराज़ खोली और एक पल बाद मुड़ा-तुड़ा पर्स, पीली धातुई पट्टी के
साथ महिला के हाथों में था. उसने कृतज्ञता के शब्द कहे.
“मृतक आ पहुंचा है, फ़िलिप फ़िलीपविच,”
बक्वालिन ने बताया.
उसी समय लैम्प बुझ
गया, खड़खड़ाते हुए दराज़ें
बंद हो गईं, फौरन ओवरकोट बदन पर डालकर, फिल्या भीड़ के बीच से लपका और बाहर निकल
गया. मंत्रमुग्ध सा मैं उसके पीछे तैर गया. सीढ़ी के मोड़ पर दीवार से सिर टकराकर,
वह आँगन में आया. कार्यालय के दरवाजों के पास एक ट्रक खडा था, लाल फीते से लिपटा
हुआ, और ट्रक में लेटा था, शरद के आकाश को बंद आंखों से देखता हुआ, एक अग्निशामक. उसके
पैरों के पास हेल्मेट चमक रहा था, और सिर के पास देवदार की शाखाएं पड़ी थीं.
फ़िल्या, बिना टोपी के, गंभीर चेहरे के साथ, ट्रक के पास खडा था, और कुस्कोव, बक्वालिन और
क्ल्यूकव को चुपचाप कुछ हिदायतें दे रहा था.
ट्रक ने हॉर्न बजाया
और रास्ते पर निकल आया. वहीं, थियेटर के प्रवेशद्वार से तुरही की
तीक्ष्ण आवाजें सुनाई दीं. लोग अलसाए हुए आश्चर्य से ठहर गए, ट्रक भी रुक गया.
थियेटर के प्रवेशद्वार के पास डाइरेक्टर की छड़ी हिलाता, ओवरकोट में एक
दाढ़ीवाला दिखाई दिया. छड़ी के आदेशों का पालन करते हुए कई चमचमाती तुरहियों ने तेज़
आवाज़ से रास्ते को भर दिया. फिर आवाज़ें उसी तरह अचानक रुक गईं, जैसे वे आरंभ हुई
थीं, और सुनहरी तुरहियाँ और भूरी दाढ़ी प्रवेशद्वार में छुप गयी. कुस्कोव उछल कर
ट्रक में चढ़ गया, तीन अग्निशामक ताबूत के कोनों पर खड़े हो
गए, ट्रक कब्रिस्तान चला
गया, और फ़िल्या कार्यालय
में लौट आया.
विशालतम शहर स्पंदित
हो रहा है, और उसमें चारों ओर लहरें – उठती हैं और गिरती हैं. कभी कभी बिना किसी
प्रत्यक्ष कारण के फ़िल्या के मुलाकातियों की लहर कमज़ोर पड़ जाती, और फ़िल्या कुर्सी पर
पीछे झुककर बैठ जाता, किसी किसी के साथ मज़ाक कर लेता, ढीला पड़ जाता.
“और उन्होंने मुझे
आपके पास भेजा है,” किसी अन्य थियेटर का एक्टर बोला.
“चुन कर भेजा है, - लफड़ेबाज़ को,”
फ़िल्या ने सिर्फ गालों से हँसते हुए जवाब दिया ( फ़िल्या की आंखें कभी भी
मुस्कुराती नहीं थी).
फ़िल्या के दरवाज़े में
कन्धों पर काली-भूरी लोमड़ी की खाल वाले, बढ़िया ढंग से सिले ओवरकोट में, एक बहुत ख़ूबसूरत
महिला ने प्रवेश लिया. फ़िल्या प्यार से मुस्कुराया और चीखा:
“गुड़ मॉर्निंग, मिस!”
जवाब में महिला खुशी
से मुस्कुराई. महिला के पीछे पीछे आराम से चलते हुए, नाविकों की टोपी में
एक सात साल का बच्चा आया, असाधारण रूप से धृष्ठ, सोया-चॉकलेट से सना
हुआ और आंख के नीचे तीन नाखूनों के निशान वाला. बच्चा थोड़ी थोड़ी देर बाद हिचकियाँ
ले रहा था. बच्चे के पीछे एक मोटी और परेशान महिला भीतर आई.
“ओफ्फ, अल्योशा!” वह
जर्मन लहज़े में चहकी.
“अमालिया इवान्ना!”
छोटे ने चुपके से अमालिया इवान वसील्येविच व्ना को मुट्ठी दिखाते हुए धीरे से और
धमकी भरे स्वर में कहा.
“ओफ्फ़, अल्योश!” अमालिया इवान
वसील्येविच व्ना ने धीमे से कहा.
“ओह, बढ़िया!” छोटे की ओर
हाथ बढ़ाते हुए फ़िल्या चहका. वह, हिचकी लेकर, झुका और पाँव घसीट दिया.
“ओफ्फ़, अल्योश!” अमालिया इवान वसील्येविच व्ना फुसफुसाई.
“ये तुम्हारी आँख के नीचे क्या है?” फ़िल्या ने पूछा.
“मैंने,” हिचकियां लेते हुए, सिर लटकाकर बच्चा फुसफुसाया, “जॉर्ज के साथ झगड़ा किया था...”
“ओफ्फ़, अल्योशा,” सिर्फ होठों से और पूरी तरह यंत्रवत् अमालिया इवान वसील्येविच व्ना
फुसफुसाई.
“अफ़सोस की बात है!” फ़िल्या गरजा और उसने मेज़ से एक छोटी सी चॉकलेट
निकाली.
धुंधली हुई बच्चे की
आंखों में चॉकलेट से एक मिनट के लिए चमक आई, उसने चॉकलेट ले ली.
“अल्योशा, आज तूने चौदह खाई
हैं,” अमालिया इवान
वसील्येविच व्ना सकुचाते हुए फुसफुसाई.
“झूठ मत बोलो, अमालिया इवान
वसील्येविच व्ना,” ये सोचते हुए की वह धीमी आवाज़ में बोल
रहा है, बच्चा गूंज उठा.
“ओफ्फ़, अल्योशा!...”
“फ़िल्या, आप मुझे बिल्कुल भूल
गए हैं, शैतान!” महिला हौले से चहकी.
“नहीं, मैडम, ये नामुमकिन है, मगर काम के मारे!”
महिला बुदबुदाते हुए
हंसी, फिल्या के हाथ पर
दस्ताना मारा.
“पता है,” महिला ने जोश में
कहा, “मेरी दार्या ने आज
पाईज़ बनाई हैं, डिनर के लिए आना. आँ?”
“खुशी से!” फ़िल्या
चहका और उसने महिला के सम्मान में भालू की आखें जला दीं.
“तुमने मुझे कितना
डरा दिया, शैतान फिल्या!” महिला चहकी.
“अल्योशा! देख, कैसा भालू है,” अमालिया इवान
वसील्येविच व्ना कृत्रिम ढंग से अचरज प्रकट करने लगी, “जैसे ज़िंदा हो!”
“छोडिये,” बच्चा चीखा
और छिटक कर काउंटर की तरफ़ भागा.
“ओफ्फ़, अल्योशा...”
“अपने साथ अर्गूनिन
को लेते आना,” महिला उत्साह से चहकी.
“वह शो में अभिनय कर
रहा है!”
“शो के बाद आ जाए,” महिला ने अमालिया इवान
वसील्येविच व्ना की तरफ़ पीठ फ़ेरते हुए कहा.
“मैं उसे ले आऊँगा.”
“ठीक है, प्यारे, ये अच्छा
है. हाँ, फिलेन्का, तुमसे एक प्रार्थना
है. क्या एक बूढ़ी महिला को “डॉन कार्लोस” में कहीं बिठा सकते हो? आँ? कम से कम किसी कतार
में? आँ, सोनू?”
“टेलर? सब समझने वाली नज़रों
से महिला की ओर देखते हुए फ़िल्या ने पूछा.
“कितने घिनौने हो तुम!”
महिला चहकी. “टेलर ही क्यों? वह प्रोफ़ेसर की विधवा है और अब...”
“अंतर्वस्त्र सीती
है,” अपनी नोटबुक में लिखते हुए फ़िल्या ने मानो सपने में कहा:
“बेलाश्वेय. मी.
किनारे पर, कतार. 13 तारीख.”
“आपने कैसे भांप
लिया!” खुश होते हुए महिला चहकी.
“फ़िलिप फिलिपविच, आपके लिए
डाइरेक्टरेट में टेलीफ़ोन है,” बक्वालिन भौंका.
“तब तक मैं अपने शौहर
को फ़ोन कर लेती हूँ,” महिला ने कहा. फिल्या उछल कर कमरे से
बाहर गया, और महिला ने रिसीवर उठाया, नंबर घुमाया.
“मैनेजर का ऑफिस. तो, कैसे हो? और आज मैंने अपने
यहाँ फ़िल्या को बुलाया है ‘पाई’ खाने के लिए. ओह, कोई बात नहीं. तुम
एक घंटा सो जाओ. हाँ, और अर्गूनिन ने भी विनती की है...खैर, मुझे अटपटा
लगता...खैर, अलविदा, प्यारे. और ये
तुम्हारी आवाज़ कुछ परेशान-सी क्यों है? अच्छा, चूमती हूँ.”
मैं ऑइलक्लोथ वाले
सोफ़े की पीठ से टीककर बैठा था, और आंखें बंद करके सपने देख रहा था. “ओह, कैसी दुनिया
है...आनंद की, चैन की दुनिया...” मैंने इस अज्ञात महिला के क्वार्टर की कल्पना की.
मुझे न जाने क्यों ऐसा लगा, कि ये एक बहुत बड़ा क्वार्टर है, कि विशाल सफ़ेद
बरामदे में दीवार पर सुनहरी फ़्रेम में तस्वीर टंगी है, कि कमरों में फ़र्श
चमचमा रहा है. कि बीच वाले कमरे में पियानो है, कि विशाल काली...
मेरी कल्पना को अचानक
हल्की सी कराह और पेट की गुड़गुड़ाहट ने भंग कर दिया. मैंने आंखें खोलीं.
छोटा बच्चा, मुर्दों जैसा सफ़ेद
पड़ गया था, उसने आंखें माथे पर चढ़ा ली, सोफ़े पर बैठा था, फर्श पर पैर फैलाए.
महिला और अमालिया इवान वसील्येविच व्ना उसकी ओर लपकीं. महिला का चेहरा विवर्ण हो
गया.
“अल्योशा!” महिला
चीखी, “तुझे क्या हुआ है?!”
“ओफ्फ़, अल्योशा! तुझे
क्या हुआ है?!” अमालिया इवान वसील्येविच व्ना भी चीखी.
“सिर दर्द कर रहा है,” क्षीण, थरथराती आवाज़ में
बच्चे ने जवाब दिया, और उसकी टोपी आंख पर फिसल गई. उसने अचानक
गाल फुलाए, तथा और भी ज़्यादा विवर्ण हो गया.
“ओह, गॉड!” महिला चीखी.
कुछ मिनटों बाद आँगन
में एक खुली टैक्सी उड़ती हुई आई, जिसमें खड़े होकर, बक्वालिन उड़ा जा रहा
था.
रूमाल से छोटे बच्चे
का मुंह पोंछकर, हाथों से सहारा देते हुए उसे कार्यालय से
ले गए.
ओ, कार्यालय की
आश्चर्यजनक दुनिया! फ़िल्या! अलबिदा! जल्दी ही मैं नहीं रहूँगा. तब आप भी मुझे याद
करना.
अध्याय 12
सिव्त्सेव
व्राझेक
मैंने ध्यान ही नहीं दिया कि मैंने तरपेत्स्काया के साथ कैसे नाटक को फिर से
लिखा. और मैं सोच भी नहीं पाया था, की अब आगे क्या होगा, कि खुद किस्मत ने ही
जवाब दे दिया.
क्ल्युक्विन मेरे लिए पत्र लाया.
“परम आदरणीय लिओन्ती सिर्गेयेविच!...”
शैतान ले जाए, क्यों वे ऐसा चाहते हैं, की मैं लिओन्ती सिर्गेयेविच होता
शायद, ये कहना ज़्यादा आसान है, बजाय सिर्गेई लिओन्तेविच
के?...खैर, ये महत्वपूर्ण नहीं
है!
“आपको अपना नाटक इवान वसील्येविच वसील्येविच
को पढ़कर सुनाना होगा. इसके लिए आपको सोमवार, 13 तारीख को दोपहर 12 बजे सीवत्सेव
व्राझेक पहुँचना होगा.
गहराई से समर्पित,
फ़मा स्त्रिझ”
मैं बेहद उत्तेजित था, यह समझते हुए, की यह पत्र असाधारण
रूप से महत्वपूर्ण था.
मैंने यह तय किया: कलफ़ की हुई कॉलर, नीली टाई, भूरा सूट. अंतिम चीज़ का
निश्चय करना मुश्किल नहीं था, क्योंकि भूरा सूट ही मेरा एकमात्र बढ़िया सूट था.
विनम्रता से पेश आना, मगर गरिमा के साथ और, खुदा बचाए, चापलूसी का कोई
संकेत नहीं.
मुझे अच्छी तरह याद है, कि तेरह तारीख अगले ही दिन थी, और सुबह
मैं थियेटर में बम्बार्दव से मिला.
उसके निर्देश मुझे अत्यंत विचित्र प्रतीत हुए.
“जैसे ही बड़े, भूरे घर को पास से गुज़रेंगे,” बम्बार्दव ने कहा, “बाएं मुड़ जाईये, अंधी गली में. वहां
आपको आसानी से दिखाई देगा. नक्काशीदार, फ़ौलाद के दरवाज़े, स्तंभों वाला घर.
सड़क से प्रवेश नहीं है, और आँगन में कोने से मुड़ जाईये. वहां आप
भेड़ की खाल के कोट में एक आदमी को देखेंगे, वह आपसे पूछेगा : “आप किसलिए?” – और आप उससे सिर्फ
इतना कहें : “अपॉईंटमेंट है.”
“क्या यह पासवर्ड है?” मैंने पूछा. “और अगर आदमी न हुआ तो?”
“वह रहेगा,” बम्बार्दव ने ठंडेपन से कहा और आगे बोला: “कोने के पीछे, भेड़ की खाल का कोट
पहने आदमी के सामने, आप जैक पर लगी एक बिना पहियों वाली कार
देखेंगे, और उसकी बगल में एक बाल्टी और एक आदमी, जो कार धो रहा
होगा.”
“क्या आप आज वहाँ गए थे?” मैंने उत्तेजना से पूछा.
“मैं वहाँ एक महीना पहले गया था.”
“तब आप कैसे जानते हैं, कि आदमी कार धो रहा होगा?”
“क्योंकि, वह उसे रोज़ धोता है, पहिये निकालकर.”
“और इवान वसील्येविच वसील्येविच उसमें
कब जाते हैं?”
“वह उसमें कभी भी नहीं जाते.”
“क्यों?”
“और, वो जायेंगे कहाँ?”
“ खैर, जैसे, थियेटर?”
“इवान वसील्येविच वसील्येविच थियेटर
में साल में दो बार आते हैं, ग्रैंड रिहर्सल के लिए, और तब उनके लिए गाड़ीवान
द्रीकिन को किराए पर लेते हैं.”
“ये हुई न बात! अगर कार है, तो गाड़ीवान क्यों?”
“और अगर शोफ़र स्टीयरिंग व्हील पर हार्ट फेल से मर जाए, और कार किसी खिड़की
में घुस जाए, तो क्या करंगे?”
“माफ़ कीजिये, और अगर घोड़ा लड़खड़ा जाए तो?”
“द्रीकिन का घोड़ा नहीं लड़खड़ाएगा. वह सिर्फ कदम-कदम चलता है. बाल्टी वाले
आदमी के सामने – दरवाज़ा है. अन्दर जाईये और लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ जाईये. फिर एक और
दरवाज़ा. घुस जाईये. वहां आप अस्त्रोव्स्की की काली अर्धप्रतिमा देखेंगे. और सामने
सफ़ेद स्तम्भ और काली-काली भट्टी, जिसके पास एक आदमी फेल्ट के जूते पहने उकडू
बैठकर उसे गरमा रहा होगा.”
मैं हंस पडा.
“क्या आपको यकीन है की वह वहाँ ज़रूर होगा और अवश्य उकडू बैठा होगा?”
“बेशक,” बम्बार्दव ने, ज़रा भी मुस्कुराए बिना
रूखेपन से जवाब दिया.
“ये जाँचना दिलचस्प रहेगा.”
“बिल्कुल जाँचिये. वह उत्सुकता से पूछेगा: ‘आप कहाँ?’ और आप जवाब
देंगे...”
“अपॉईन्ट्मेन्ट है?”
“हूँ. तब वह आपसे कहेगा: ‘अपना ओवरकोट यहाँ उतारिये,’ – और आप हॉल में
प्रवेश करेंगे, तभी आपके सामने नर्स आयेगी और पूछेगी: ‘आप किसलिए?’ और आप जवाब
देंगे...”
मैंने सिर हिलाया.
“इवान वसील्येविच वसील्येविच आपसे
सबसे पहले यह पूछेंगे कि आपके पिता कौन थे? वह कौन थे?”
“उप राज्यपाल.”
बम्बार्दव ने त्यौरियाँ चढ़ाईं,
“ऐह...नहीं, ये, माफ़ कीजिए, नहीं चलेगा. नहीं,
नहीं. आप ऐसा कहिये: बैंक में काम करते थे.”
“मुझे ये अच्छा नहीं लगता. मैं पहले ही पल से झूठ क्यों बोलूँ?”
“इसलिए, कि ये उसे डरा सकता है, और...”
मैंने सिर्फ पलकें
झपकाईं.
“और आपको तो कोई फर्क नहीं पड़ता, की वह बैंक में या कहीं और काम करते थे.
फिर वह पूछेगा, कि होमिओपैथी के बारे आपका क्या ख़याल है. और आप कहेंगे, कि पिछले साल पेट के
दर्द के लिए कुछ बूँदें ली थीं, और उनका बहुत फ़ायदा हुआ.
तभी घंटियाँ गरजने
लगीं, बम्बार्दव जल्दी से
जाने लगा, उसे रिहर्सल में जाना था, और आगे के निर्देश उसने संक्षेप में दिए.
“मीश्का पानिन को आप
नहीं जानते, जन्म मॉस्को में हुआ,” जल्दी-जल्दी बम्बार्दव ने सूचित किया, - “फोमा के बारे में
कहिये कि वह आपको अच्छा नहीं लगा. जब नाटक के बारे में बात करेंगे, तो कोई आपत्ति न
करें. तीसरे अंक में गोली चलती है, तो, आप उसे न पढ़ें...”
“कैसे न पढूँ जब उसने
अपने आप को गोली मार ली है?!”
घंटियाँ बार-बार बजने
लगीं.
बम्बार्दव आधे अँधेरे
की तरफ़ भागा, दूर से उसकी शांत चीख सुनाई दी:
“गोली के बारे में न
पढ़ना! और ज़ुकाम आपको नहीं है!”
बम्बार्दव की
पहेलियों से पूरी तरह स्तब्ध, मैं दोपहर में बिल्कुल ठीक समय पर
सीव्त्सेव व्राझेक वाली अंधी गली में था.
आँगन में भेड़ की खाल
पहना आदमी नहीं था, मगर ठीक उसी जगह, जहां बम्बार्दव ने
बताया था, सिर पर स्कार्फ़ बांधे एक औरत खड़ी थी. उसने
पूछा: “आपको क्या चाहिए?” – और संदेह से मेरी ओर देखा.
‘अपॉइन्ट्मेन्ट’ शब्द ने उसे पूरी तरह संतुष्ट कर दिया, और मैं नुक्कड़ पर मुड़ गया.ठीक
उसी जगह, जो बम्बार्दव ने बताई थी, कॉफी के रंग की कार
थी, मगर वह पहियों पर खड़ी थी, और एक आदमी कपड़े से उसे पोंछ रहा था. कार की बगल में
एक बाल्टी और कोई बोतल रखी थी.
बम्बार्दव के निर्देशों के अनुसार, मैं बिना चूके चल पड़ा और अस्त्रोव्स्की की
अर्धप्रतिमा के पास पहुँच गया. “एह...” बम्बार्दव को याद करके मैंने सोचा : भट्टी
में बर्च की टहनियां आसानी से धधक रही थीं, मगर कोई भी उकडू नहीं बैठा था. मगर मैं मुस्कुरा
भी नहीं पाया था, कि काला , चमचमाता हुआ, प्राचीन शाहबलूत का
दरवाज़ा खुल गया, और उसमें से हाथ में पोकर लिए, पैबंद लगे जूते पहने
एक बूढा बाहर निकला. मुझे देखकर वह डर गया और आंखें झपकाने लगा.
“अपॉइन्ट्मेन्ट है,” जादुई शब्द की ताकत का आनंद उठाते हुए
मैंने जवाब दिया. बुढ़ऊ का चेहरा खिल उठाया और उसने पोकर से दूसरे दरवाजे की ओर
हिला दिया. वहां छत के नीचे एक पुराना लैम्प जल रहा था. मैंने कोट उतारा, नाटक को बगल में
दबाया, दरवाज़ा खटखटाया. फ़ौरन दरवाज़े के पीछे
ज़ंजीर खुलने की आवाज़ सुनाई दी, फिर दरवाजों में चाभी घूमी और सफ़ेद
स्कार्फ़ और सफ़ेद गाऊन पहनी एक महिला ने बाहर झांका.
“आपको क्या चाहिए?”
“अपॉइन्ट्मेन्ट है,” – मैंने जवाब दिया. महिला एक तरफ़ हट गई,
उसने मुझे भीतर आने दिया और ध्यान से मेरी तरफ़ देखने लगी.
“क्या बाहर आँगन में ठण्ड है?” उसने पूछा.
“नहीं, अच्छा मौसम है, इन्डियन समर,” मैंने
जवाब दिया.
“आपको ज़ुकाम तो नहीं है?”
मैं कांप गया, बम्बार्दव को याद करके, और कहा:
“नहीं, नहीं है.”
“यहाँ खटखटाइए और अंदर आइए.” महिला ने कठोरता से कहा और छुप गई. काले, धातु की पट्टियां
जड़े दरवाज़े को खटखटाने से पहले, मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई.
सफ़ेद भट्टी, कुछ भारी भरकम अल्मारियाँ. पुदीने की ओर
किसी अन्य घास की प्रिय गंध आ रही थी. पूरी तरह नि:स्तब्धता थी, और वह अचानक कर्कश
ध्वनी से भंग हो गई. बारह बार घंटे बजे, और उसके बाद अलमारी के पीछे कोयल उत्सुकता
से कूकने लगी.
मैंने दरवाज़ा खटखटाया, फिर भारी-भरकम छल्ले को हाथ से दबाया, दरवाजा मुझे
बड़े प्रकाशित कमरे में ले गया.
मैं परेशान था, मुझे लगभग कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, सिवाय उस सोफ़े के,
जिस पर इवान वसील्येविच वसील्येविच बैठा
था. वह बिल्कुल वैसा ही था, जैसे तस्वीर में था, सिर्फ कुछ ज़्यादा
तरोताज़ा और जवान. उसकी काली, सिर्फ नाम मात्र की सफ़ेद मूंछें बढ़िया ढंग
से मुड़ी हुई थीं. सीने पर, सोने की ज़ंजीर से एक लॉर्नेट लटका हुआ था.
इवान वसील्येविच वसील्येविच ने अपनी
मोहक मुस्कान से मुझे चकित कर दिया.
“बड़ी खुशी हुई,” उसने कुछ तुतलाते हुए कहा, “कृपया बैठिये.”
और मैं कुर्सी में बैठ गया.
“आपका नाम और कुलनाम?” मेरी तरफ़ प्यार से देखते हुए इवान
वसील्येविच वसील्येविच ने पूछा.
“सिर्गेई लिओन्तेविच.”
“बहुत अच्छा! तो, आप कैसे हैं, सिर्गेई
पाफ्नुत्येविच?” – और मेरी तरफ़ प्यार से देखते हुए इवान
वसील्येविच वसील्येविच मेज़ पर उंगलियाँ
बजाने लगा, जिस पर पेन्सिल का ठूंठ पडा था और पानी का
एक गिलास था, न जाने क्यों कागज़ से ढंका हुआ.
“बहुत, बहुत धन्यवाद, अच्छा हूँ.”
“ज़ुकाम तो नहीं है?”
“नहीं.”
इवान वसील्येविच कुछ घुरघुराया और
उसने पूछा:
“और आपके पिता का स्वास्थ्य कैसा है?”
“मेरे पिता मर चुके हैं.”
“भयानक,” इवान वसील्येविच ने जवाब दिया, “और आप किसके पास गए
थे? किसने इलाज किया था?”
“ठीक से नहीं बता सकता, मगर, लगता है, प्रोफ़ेसर...प्रोफ़ेसर
यन्कोव्स्की ने.”
“ये बेकार हुआ,” इवान वसील्येविच ने कहा, “प्रोफ़ेसर प्लितूश्कव के पास जाना चाहिए
था, तब कुछ न होता.”
मैंने अपने चेहरे पर खेद व्यक्त किया कि प्लितूश्कव के पास नहीं गया.
“और इससे भी बेहतर...हुम्...हुम्...होमियोपैथ..” – इवान वसील्येविच वसील्येविच ने अपनी बात जारी रखी, “ वे खतरनाक हद तक
सबकी मदद करते हैं.”- अब उसने गिलास पर सरसरी नज़र डाली. “क्या आप होमिओपैथी में
विश्वास करते हैं?”
‘बम्बार्दव अद्भुत आदमी है,’ मैंने सोचा और कुछ अस्पष्ट सा कहना शुरू
किया:
“एक तरफ़ से, बेशक...मैं व्यक्तिगत रूप से...हालांकि
बहुत सारे लोग विश्वास नहीं भी करते हैं...”
“बकवास!” इवान वसील्येविच ने कहा, “पंद्रह बूँदें, और आपकी सारी तकलीफ़ ख़त्म
हो जायेगी.” और वह फिर से घुरघुराया और आगे बोला: “और आपके पिता, सिर्गेई पन्फ़ीलीच, कौन थे?”
“सिर्गेई लिओन्तेविच,” मैंने प्यार से कहा.
“हज़ार बार माफ़ी मांगता हूँ!” इवान वसील्येविच चहका. “तो, वह कौन थे?”
‘झूठ नहीं बोलूंगा!’ मैंने सोचा और कहा:
“वह उप राज्यपाल थे.”
इस खबर से इवान वसील्येविच के चेहरे से मुस्कराहट भाग गयी.
“अच्छा, अच्छा, अच्छा,” उसने परेशानी से
कहा, कुछ देर चुप रहा, मेज़ पर टकटक की और
कहा: “तो, चलो, शुरू करें.”
मैंने पाण्डुलिपि खोली, कुछ खांसा, ठिठक गया, एक बार फिर खांसा और
पढ़ना शुरू किया.
मैंने शीर्षक पढ़ा, फिर पात्रों की लम्बी सूची पढी और पहला अंक पढ़ना शुरू
किया:
“दूर पर रोशनियाँ, आँगन, बर्फ से ढंका हुआ, आउटहाउस का दरवाज़ा.
आउटहाउस से हल्की आवाज में ‘फाउस्ट’ सुनाई दे रहा था, जिसे पियानो पर
बजाया जा रहा था...”
क्या आपको कभी किसी के सामने अकेले में नाटक सुनाना पड़ा है? ये बड़ा कठिन काम है, आपको यकीन दिलाता
हूँ. मैं बीच बीच में आंखें उठाकर इवान वसील्येविच की ओर देख लेता, रूमाल से माथा पोंछ
लेता.
इवान वसील्येविच एकदम निश्चल बैठा था और लगातार लॉर्नेट से मेरी ओर देख रहा
था. मुझे इस बात से बेहद उलझन हो रही थी, कि वह एक भी बार नहीं मुस्कुराया, हांलाकि
पहले ही दृश्य में हास्यास्पद प्रसंग थे. उन्हें पढ़ते हुए अभिनेता बहुत हंस रहे थे, और एक की आंखों से तो
हंसते हंसते आंसू तक निकल आये.
मगर इवान वसील्येविच न केवल नहीं हंसा, बल्कि उसने घुरघुराना भी बंद कर दिया. और
हर बार, जैसे मैं उसकी ओर नज़र उठाता, एक ही बात देखता :
मुझे घूरता हुआ लॉर्नेट और उसमें पलकें भी न झपकाती आंखें. परिणाम स्वरूप मुझे ऐसा
लगने लगा कि ये मज़ाकिया प्रसंग बिल्कुल भी मज़ेदार नहीं हैं. तो मैं पहले प्रसंग के
अंत तक पहुंचा और दूसरे प्रसंग की ओर चला. पूरी खामोशी में सिर्फ मेरी ही नीरस
आवाज़ सुनाई दे रही थी, ऐसा लग रहा था, जैसे सेक्सटन मृत व्यक्ति के लिए पाठ पढ़ रहा हो.
उदासीनता मुझे दबोचने लगी, और मोटी नोटबुक बंद करने की इच्छा होने लगी.
मुझे ऐसा लगा, की इवान वसील्येविच धमकी भरी आवाज़ में कहेगा: “क्या ये कभी ख़त्म होगा?” मेरी आवाज़ भर्रा गयी, और मैं बीच बीच में खांसकर गला साफ़ कर लेता, कभी ऊंची आवाज़ में पढ़ता, कभी नीची आवाज़ में, एक दो बार
अप्रत्याशित रूप से मुर्गे भी उड़ गए, मगर उन्होंने भी किसी को भी नहीं हंसाया –
न तो इवान वसील्येविच को, न मुझे.
सफ़ेद वस्त्रों में अचानक एक महिला के प्रकट होने से कुछ राहत महसूस हुई. वह
बिना शोर मचाये भीतर आई, इवान वसील्येविच ने जल्दी से घड़ी की ओर
देखा. महिला ने इवान वसील्येविच को छोटा सा गिलास दिया, इवान वसील्येविच ने
दवा पी, उसके ऊपर गिलास से पानी पिया, उसे ढक्कन
से बन्द किया और फिर से घड़ी की तरफ़ देखा. महिला प्राचीन रूसी तरीके से इवान
वसील्येविच के सामने झुकी और धृष्ठता से चली गई.
“ठीक है, जारी रखिये,” इवान वसील्येविच ने कहा, और मैं फिर से पढ़ने
लगा.
दूर कहीं एक कोयल चिल्लाई. फिर कहीं परदे के
पीछे टेलिफ़ोन की घंटी बजी.
“माफ़ कीजिये,” इवान वसील्येविच ने कहा, “ये मुझे बुला रहे हैं संस्था से किसी अत्यंत
महत्वपूर्ण काम से. “हाँ,” परदे के पीछे से उसकी आवाज़ सुनाई दी, - :हाँ...हुम्...हम्...ये पूरी गैंग काम कर रही
है. मैं हुक्म देता हूँ कि यह सब अत्यंत गुप्त रखें. शाम को मेरे पास एक
विश्वासपात्र व्यक्ति आयेगा, और हम योजना बनाएंगे...”
इवान वसील्येविच वापस लौटा, और हम पांचवे, दृश्य के अंत तक पहुंचे. और तब छठे दृश्य के
आरम्भ में एक चौंकाने वाली घटना हुई. मेरे कानों ने सुना, कि कहीं एक दरवाज़ा बंद हुआ, कहीं पर ज़ोर से और, जैसा मुझे प्रतीत हुआ, झूठमूठ रोने की आवाज़ सुनाई दी, दरवाज़ा, वो वाला नहीं जिससे मैं गुज़रा था, बल्कि, शायद, भीतर के कमरों में जाने वाला, धड़ाम से खुल गया, और कमरे में तीर की तरह, भय से पागल हुई, मोटी, धारियों वाली बिल्ली उड़ती हुई आई. वह मेरी बगल से होकर जाली के
परदे की ओर लपकी, उसे पकड़ लिया और ऊपर की तरफ़ रेंगने लगी. जाली का परदा उसका वज़न
बर्दाश्त न कर सका, और उसमें फ़ौरन छेद हो गए. परदे को फाड़ते
हुए बिल्ली ऊपर तक चढ़ गयी और वहां से गुस्से से देखने लगी. इवान वसील्येविच ने
लॉर्नेट गिरा दिया, और ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना प्र्याखिना
भागकर कमरे में आई. बिल्ली ने जैसे ही उसे देखा, और ऊंचे चढ़ने की
कोशिश की, मगर आगे छत थी. जानवर गोल कार्निस से छिटक
गया और भय से जमकर, परदे पर लटक गया.
प्र्याखिना बंद आंखों से भागती हुई भीतर आई, मुड़े-तुड़े और गीले
रूमाल वाली मुट्ठी को माथे पर दबाये, और दूसरे हाथ में लेस वाला सूखा रूमाल
पकडे. कमरे के बीच तक पहुंचकर वह एक घुटने पर बैठ गयी, सिर झुकाया और हाथ
आगे बढाया, जैसे कोई कैदी विजेता को तलवार सौंप रहा
हो.
“मैं अपनी जगह से नहीं हटूंगी,” प्र्याखिना कर्कश आवाज़ में चीखी, “जब तक सुरक्षा नहीं
पाऊँगी, मेरे गुरू! पेलिकान – गद्दार है! खुदा सब देखता है, सब कुछ!”
अब परदा फट गया, और बिल्ले के नीचे आधे गज का छेद बन गया.
“शुक्!!” इवान वसील्येविच वसील्येविच अचानक तैश से चीखा और उसने ताली
बजाई.
बिल्ली परदे को फाड़ते हुए नीचे सरकी, और उछलकर कमरे से बाहर कूद गयी, और प्र्याखिना गला
फाड़कर रोने लगी और, हाथों से आखें बंद करके, चीखने लगी, आंसुओं से उसका दम
घुट रहा था:
“ये मैं क्या सुन रही हूँ?! क्या सुन रही हूँ?! कहीं सचमुच में
मेरे गुरू और शुभचिंतक मुझे दूर भगा रहे हैं?! खुदा, ऐ खुदा!! तू देख रहा
है?!”
“चारों ओर देखो, ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना!” इवान
वसील्येविच बदहवासी से चिल्लाया, और तभी दरवाज़े में एक बुढ़िया प्रकट हुई, जो चीख़ी:
“मीलाच्का! पीछे! अजनबी है!...”
अब ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना ने आंखें खोलीं और भूरी कुर्सी में मेरा भूरा
सूट देखा. उसने आंखें फाड़कर मुझे
देखा, और आँसू, जैसा मुझे लगा, उसकी आंखें पल भर में सूख गईं. वह उछल कर घुटने से
उठी, फुसफुसाई: “खुदा...”
– और बाहर भाग गयी. बुढ़िया भी फ़ौरन गायब हो गयी, और दरवाज़ा बंद हो
गया.
मैं और इवान वसील्येविच कुछ देर चुप रहे. लम्बे विराम के बाद वह मेज़ पर
उंगलियाँ बजाने लगा.
“तो, कैसा लगा?” उसने पूछा और दुःख
से कहा: “परदा जहन्नुम में चला गया.”
हम कुछ देर और ख़ामोश रहे.
“आपको, निःसंदेह इस दृश्य ने प्रभावित किया है?” इवान वसील्येविच ने
पूछा और गला साफ़ किया. गला मैंने भी साफ़ किया और कुर्सी में कसमसाया, मैं सचमुच नहीं
जानता था, कि क्या जवाब देना चाहिए. और मैं अच्छी
तरह समझ गया कि ये उसी दृश्य का सिलसिला था, जो ड्रेसिंग रूम में हो रहा था, और प्र्याखिना ने इवान
वसील्येविच के चरणों में गिरने का अपना वादा पूरा किया है.
“ये हम रिहर्सल कर रहे थे,” अचानक इवान वसील्येविच ने सूचना दी. “और आपने, शायद सोचा कि कोई
स्कैंडल है! कैसी रही? आ?”
“ग़ज़ब का!”मैंने
आंखें चुराते हुए कहा.
“कभी कभी हमें
अचानक में किसी दृश्य को स्मृति में ताज़ा करना अच्छा लगता
है...हुम्...हुम्...रेखाचित्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. और पेलिकान के बारे में
आप यकीन मत कीजिये. पेलिकान – सबसे बहादुर और सबसे उपयोगी आदमी है!...”
इवान वसील्येविच ने
दुःख से परदे की तरफ़ देखा और कहा:
“खैर, जारी रखते हैं!”
मगर हम जारी न रख
सके, क्योंकि वही बुढ़िया, जो दरवाज़े पर थी, भीतर आई.
“मेरी चाची, नस्तास्या इवानव्ना,” इवान वसील्येविच ने कहा. मैंने झुक कर अभिवादन किया.
प्यारी बुढ़िया ने स्नेहपूर्वक मेरी तरफ़ देखा, बैठी और पूछने
लगी:
“आपका स्वास्थ्य
कैसा है?”
“विनम्रता से आपको
धन्यवाद देता हूँ,” झुकते हुए मैंने जवाब दिया, “मैं पूरी तरह स्वस्थ्य हूँ.”
कुछ देर चुप रहे, फिर चाची और इवान वसील्येविच ने परदे पर नज़र डाली और कड़वी दृष्टि से एक
दूसरे की ओर देखा.
“इवान वसील्येविच के
पास कैसे आना हुआ?”
“लिओन्ती
सिर्गेयेविच,” इवान वसील्येविच मेरे पास नाटक लेकर आये हैं.”
“किसका नाटक?” बुढ़िया ने वेदनापूर्ण आंखों से मुझे देखते हुए पूछा.
“लिओन्ती
सिर्गेयेविच ने स्वयं ही नाटक लिखा है!”
“मगर किसलिए?” नस्तास्या इवान वसील्येव्ना ने उत्सुकता से पूछा.
“किसलिए
क्या?...हुम्...हुम्...”
“क्या कोई नाटक
बचे ही नहीं हैं?” प्यार से – ताना देते हुए पूछा. “कैसे-कैसे
अच्छे नाटक हैं. और कितने सारे हैं! प्रदर्शित करना शुरू करो – बीस साल में भी
पूरे नहीं खेल पाओगे. आपको नाटक लिखने की तकलीफ़ उठाने की ज़रुरत क्या है?”
वह इतने विश्वास
के साथ कह रही थी, कि मैं कोई जवाब ही नहीं दे पाया. मगर इवान
वसील्येविच ने मेज़ पर उंगलियाँ बजाईं और
कहा:
“लिओन्ती
लिओन्तेविच ने आधुनिक नाटक लिखा है!”
अब बुढ़िया घबरा
गयी.
“हम अधिकारियों के
खिलाफ विद्रोह नहीं करते,” उसने कहा.
“विद्रोह किसलिए करना है,” मैंने उसका समर्थन
किया.
“और, क्या ‘शिक्षा के फल’ आपको पसंद नहीं है?” – नस्तास्या इवानव्ना
ने उत्सुक-भय से पूछा. “कितना अच्छा नाटक है. और मीलच्का के लिए भी भूमिका है...”
उसने आह भरी, उठी. “आपके पिता को सलाम कहिये”
“सिर्गेई
सिर्गेयेविच के पिता मर चुके हैं,” इवान वसील्येविच ने सूचित किया.
“खुदा जन्नत नसीब
करे,” बुढ़िया ने नम्रता से कहा, “वह, शायद, नहीं जानते की आप नाटक लिखते हैं? और कैसे मृत्यु
हुई?”
“गलत डॉक्टर को
बुलाया था,” इवान वसील्येविच ने कहा. “लिओन्ती पाफ़्नुत्येविच ने मुझे यह दुखद
घटना सुनाई थी.”
“मगर, आपका नाम है क्या, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ,” नस्तास्या इवान वसील्येव्ना ने कहा, “कभी लिओन्ती, तो
कभी सिर्गेई! क्या नाम बदलने की भी इजाज़त है? हमारे यहाँ एक ने
अपना कुलनाम बदला था. अब आप ढूँढते रहिये, कि वह आखिर है
कौन!”
“मैं सिर्गेई
लिओन्तेविच,” मैंने भर्राई आवाज़ में कहा.
“हज़ार बार माफ़ी
चाहता हूँ,” इवान वसील्येविच चहका, “ये मैंने गड़बड़ कर दी!”
“खैर, मैं दखल नहीं दूँगी,” बुढ़िया ने कहा.
“बिल्ले की पिटाई करना चाहिए,” इवान वसील्येविच ने कहा, “ये बिल्ला नहीं, बल्कि डाकू है. हम पर,
वैसे डाकुओं ने कब्ज़ा कर लिया है,” उसने घनिष्ठता से कहा, “पता नहीं कि क्या करना चाहिए!”
गहराती हुई शाम के साथ विपदा भी आई.
मैंने पढ़ा:
“बख्तीन (पित्रोव से). तो, अलविदा! बहुत जल्दी तुम मेरे लिए आओगे...”
पित्रोव: “तुम कर क्या रहे हो?!”
बख्तीन (अपनी कनपटी में गोली मारता है,
गिरता है, दूर से सुनाई देता है हार्मोनि...)”
“ये बेकार में ही है!” इवान वसील्येविच चहका.
“ये किसलिए? इसे मिटा देना चाहिए, फ़ौरन एक सेकण्ड की भी देर किये. मेहेरबानी
कीजिये! गोली क्यों मारना है?”
“मगर उसे आत्महत्या से जीवन समाप्त करना
है,” खांसकर मैंने जवाब दिया.
“और बहुत अच्छा! ख़त्म करने दो और खंजर
भोंकने दो!”
“मगर, देखिये, यह घटना गृह युद्ध के दौरान हो रही है...खंजरों का इस्तेमाल नहीं होता
था...”
“नहीं, होता था,” इवान वसील्येविच ने आपत्ति जताई,” मुझे उसने बताया था...क्या नाम है...भूल गया...कि खंजरों का इस्तेमाल होता
था...आप इस ‘शॉट’ को काट दीजिए!...”
मैं चुप रहा, एक दुखद गलती करते हुए, और मैंने आगे पढ़ा:!
“ (...यम, और अलग-थलग गोली बारी. पुल पर संगीन लिए
एक आदमी प्रकट हुआ. चाँद...)
“माय गॉड!” इवान वसील्येविच चीखा. “गोली
बारी! फिर से गोली बारी! कैसी विपदा है! पता है, लिओ...मतलब, आप इस दृश्य को हटा दीजिये, वह अनावश्यक है.”
“मैं सोच रहा था,” मैंने यथासंभव नम्रता से कहने की कोशिश
की, “कि यह दृश्य प्रमुख है....यहाँ
देखिये...”
“पूरी तरह गलतफहमी है!” इवान वसील्येविच ने
बात काटते हुए कहा. “ये दृश्य न सिर्फ महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उसकी बिलकुल ज़रूरत नहीं है. ये
किसलिए है? आपका वो, क्या नाम है?...अच्छा हाँ, अच्छा, अच्छा, उसने कहीं दूर खंजर भोंक लिया,” इवान वसील्येविच ने कहीं दूर की दिशा में हाथ हिलाया, - “और घर आता है कोई दूसरा और माँ से कहता
है, “बेख्तेयेव ने खुद को खंजर भोंक लिया!”
“मगर माँ तो नहीं है,” मैंने हैरानी से ढक्कन वाले गिलास की ओर
देखते हुए कहा.
“बेहद ज़रूरी है! आप उसे लिखिए. ये मुश्किल
नहीं है. पहले ऐसा लगता है, कि मुश्किल है - माँ नहीं थी, और अचानक वह है, मगर यह गलत धारणा है, ये बहुत आसान है. और बुढ़िया घर पर रो रही है, और जो ये खबर लाया था... उसे नाम दीजिए इवानोव...”
“मगर हीरो तो बख्तिन है! उसके स्वगत भाषण
हैं पुल पर...मैंने सोचा...”
“और इवान वसील्येविच कह देगा उसके सारे
स्वगत भाषण!...आपके स्वगत भाषण अच्छे हैं, उन्हें वैसा ही रहने देना है. इवान वसील्येविच ही कहेगा – पेत्या ने खुद को
खंजर घोंप लिया और मरने से पहले ऐसा-ऐसा, ऐसा-ऐसा और ऐसा-ऐसा कहा...बहुत प्रभावशाली दृश्य होगा.”
“मगर ये कैसे हो सकता है, इवान वसील्येविच, मेरे पास तो पुल पर भीड़
का दृश्य है...वहां लोग आपस में भिड़ गए हैं…”
“तो, उन्हें स्टेज के पीछे भिड़ने दो. हमें ये किसी हालत में नहीं देखना चाहिए.
भयानक, जब वे स्टेज पर आपस में टकराते हैं! आप
खुशनसीब हैं, सिर्गेई लिओन्तेविच, एक ही बार इवान वसील्येविच ने सही उच्चारण किया, “कि आप किसी मीशा पानिन को नहीं
जानते!...(मैं ठण्डा पड़ गया.) ये, मैं आपसे कहता हूँ, गज़ब का व्यक्ति है! हम उसे आपातकाल के लिए रखते हैं, यदि अचानक कुछ हो जाता है, तो उसका उपयोग करते हैं...वह हमारे लिए
नाटक भी लाया था, दोस्ती कर ली, जैसे, कह सकते हैं ‘स्तेन्का राज़िन’. मैं थियेटर में आया, पास जाते हुए, दूर से ही सुना, खिड़कियाँ पूरी खुली थीं, - गरज, सीटियाँ, चीखें, गाली-गलौज, और बंदूकें चला रहे हैं! घोड़ा करीब-करीब भाग ही गया, मैंने सोचा, कि थियेटर में दंगा हो गया है! खतरनाक!
पता चला कि ये स्त्रिझ रिहर्सल कर रहा है! मैंने अव्गुस्ता अव्देयेव्ना से कहा: आप
कहाँ देख रही थीं? आप, मैंने पूछा, क्या ये चाहती हैं, कि मुझे खुद को गोली मार दी जाए? जैसे ही ये स्त्रिझ थियेटर जलाएगा, मेरा सिर तो नहीं ना थपथपाएंगे, सही है ना? अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने, जो एक बहादुर महिला है, जवाब दिया: “चाहे तो मुझे मार डालिए, इवान वसील्येविच, स्त्रिझ के साथ मैं कुछ नहीं कर सकती!” ये
स्त्रिझ – हमारे थियेटर में जैसे प्लेग है. अगर आप उसे देखें तो जहां सींग समाये
एक मील दूर भाग जाइए. (मैं ठण्डा हो गया.) खैर, ये सब किसी अरिस्तार्ख प्लतोनिच की मेहेरबानियों का नतीजा है, खैर आप उसे नहीं जानते, खुदा का शुक्र है! और आप – गोलीबारी! इस
गोलीबारी के लिए, पता है, क्या हो सकता है? खैर,
जारी रखते हैं.”
और हमने पढ़ना जारी रखा, और, जब अन्धेरा होने लगा, तो मैंने भर्राए गले से कहा: ‘समाप्त’.
और जल्दी ही भय और बदहवासी ने मुझे घेर
लिया, और मुझे ऐसा लगा कि मैंने एक घर बनाया, और जैसे ही उसमें प्रवेश किया, तो छत ढह गई
“बहुत अच्छे,” पढ़ना समाप्त होने के बाद इवान वसील्येविच ने कहा, “अब आपको इस सामग्री पर काम करना शुरू कर
देना चाहिए.”
मैं चिल्लाना चाहता था:
“क्या?!”
मगर नहीं चिल्लाया.
और इवान वसील्येविच ने, सामग्री में गहरे
पैठते हुए, विस्तार से बताना शुरू किया कि इस सामग्री पर कैसे काम करना चाहिए. बहन
को, जो नाटक में थी, माँ में परिवर्तित करना था. मगर, चूंकि बहन का मंगेतर था, और पचपन वर्ष की माँ का (इवान वसील्येविच ने
फ़ौरन उसका नाम रख दिया – अन्तानीना) बेशक, मंगेतर नहीं हो सकता था, तो मेरे नाटक से एक पूरी भूमिका उड़ गयी, और, ख़ास बात ये कि वह मुझे बहुत अच्छी लगी थी.
शाम का धुंधलका कमरे में प्रवेश कर रहा था.
नर्स आई, और इवान वसील्येविच ने फिर से कोई बूँदें लीं. फिर कोई झुर्रियों वाली
बुढ़िया टेबल लैम्प लाई, और शाम हो गयी.
मेरे दिमाग़ में गड्ड-मड्ड होने लगी. कनपटी में हथौड़े चल रहे थे. भूख के मारे
पेट में गड़बड़ होने लगी, और आँखों के सामने रह-रहकर कमरा टेढ़ा-मेढ़ा होने आगा. मगर, मुख्य बात ये थी, की पुल वाला दृश्य उड़ गया, और उसके साथ ही मेरा नायक भी उड़ गया.
नहीं, शायद, सबसे मुख्य बात ये थी, कि प्रत्यक्ष रूप से कोई ग़लतफ़हमी हो रही थी. मेरी आंखों के सामने अचानक
इश्तेहार तैर गया, जिस पर नाटक विद्यमान था, पॉकेट में नाटक के लिए प्राप्त हुए
नोटों में से अंतिम नोट करकरा रहा था, जिसे मैंने अभी तक खाया नहीं था, फ़मा स्त्रिझ जैसे पीठ के पीछे खड़ा था और आश्वासन दे रहा था कि दो महीने में
नाटक प्रदर्शित कर देगा, मगर यहाँ तो पूरी तरह स्पष्ट था, कि कोई नाटक है ही नहीं और यह कि उसे आरम्भ से अंत तक फिर से लिखना होगा.
एक बेतरतीब गोल-नृत्य में मेरे सामने नाच रहे थे मीशा पानिन, एव्लाम्पिया, स्त्रिझ, ड्रेसिंग रूम के दृश्य, मगर नाटक नहीं था.
मगर आगे कुछ एकदम अप्रत्याशित और, जैसा मुझे प्रतीत हुआ, अनाकलनीय हुआ.
यह दिखाकर (और बहुत अच्छी तरह से दिखाकर), कि कैसे बख्तीन, जिसका नामकरण इवान
वसील्येविच ने दृढ़ता से बेख्तेव कर दिया
था, अपने आप को खंजर भोंक लेता है, वह अचानक कराहा और उसने ऐसा भाषण दिया:
“आपको ऐसा नाटक लिखना चाहिए...पल भर में ढेरों पैसा कमा सकते हो. गहन
मनोवैज्ञानिक नाटक...अभिनेत्री का भाग्य. जैसे किसी राज्य में एक अभिनेत्री रहती
है, और दुश्मनों की गैंग उसे तंग कर रही है, पीछा कर रही है और जीने नहीं दे रही
है...मगर वह अपने दुश्मनों को सिर्फ दुआएँ ही भेजती है...”
‘और लफड़े करती है’, - अचानक अप्रत्याशित कड़वाहट की
लहर में मैंने सोचा.
“क्या खुदा से दुआएँ मांगती है, इवान वसील्येविच ?”
इस सवाल ने इवान वसील्येविच को परेशान कर दिया. वह घुरघुराया और बोला:
“खुदा से?...हुम्...हुम्... नहीं, किसी हालत में नहीं. आप ‘खुदा’ न लिखें...खुदा से नहीं, बल्कि...कला से, जिसके प्रति वह गहराई से समर्पित है. और
उसे तंग कर रही है बदमाशों की गैंग, और इस गैंग को उकसा रहा है कोइ जादूगर चेर्नामोर. आप लिखिए, कि वह अफ्रीका चला गया है, और अपनी ताकत किसी महिला ‘एक्स’ को सौंप गया. खतरनाक औरत. डेस्क के पीछे
बैठती है और कुछ भी कर सकती है. उसके साथ चाय पीने बैठिये, गौर से देखिये, वरना वह आपकी चाय में इतनी शक्कर डाल देगी...”
‘माय डियर, ये तो वह तरपेत्स्काया के बारे में कह रहा है!’ मैंने सोचा.
“...कि आप पियेंगे, और पैर लंबे कर देंगे. वो और एक खतरनाक बदमाश
स्त्रिझ...मतलब कि मैं...अकेला ही डाइरेक्टर हूँ...”
मैं चुपचाप इवान वसील्येविच को घूरता रहा. उसके चेहरे से धीरे धीरे मुस्कराहट
गायब होने लगी, और मैंने अचानक देखा कि उसकी आंखें ज़रा भी स्नेहपूर्ण नहीं थीं.
“आप, जैसा मैं देख रहा हूँ, जिद्दी इन्सान हैं,” उसने बेहद निराशा से
कहा और अपने होंठ चबाये.
“नहीं, इवान वसील्येविच, मगर मैं सिर्फ कलात्मक दुनिया से दूर हूँ और...”
“मगर आप उसे जानिये! ये बहुत आसान है. हमारे यहाँ थियेटर में ऐसे लोग हैं, कि उनकी सिर्फ तारीफ़ करें...फ़ौरन नाटक का
डेढ़ अंक तैयार हो जाएगा! आपके चारों ओर ऐसे घूमते हैं, कि देखते-देखते वह या तो शौचालय से आपके जूते चुरा लेगा, या आपकी पीठ में फ़िनिश चाकू घोंप देगा.”
“ये भयानक है,” मैंने बीमार आवाज़ में कहा और अपनी कनपटी को छुआ.
“मैं देख रहा हूँ कि यह आपको दिलचस्प नहीं प्रतीत हो रहा है...आप जिद्दी
आदमी हैं! वैसे, आपका नाटक भी अच्छा है,” मेरी तरफ़ जिज्ञासु नज़र से देखते हुए इवान
वसील्येविच ने कहा, “अब सिर्फ उसे लिखना बाकी है, और सब तैयार हो जाएगा...”
मुड़ते हुए पैरों पर, सिर में हथौड़े की आवाज़ लिये, मैं बाहर निकला और कड़वाहट से काले अस्त्रोव्स्की की ओर देखा. चरमराती
सीढ़ियों से उतरते हुए मैं कुछ बड़बड़ाया, और मुझे घृणित लग रहा नाटक मेरे हाथ खींच रहा था. बाहर आँगन में निकलते ही हवा
ने मेरी हैट गिरा दी, और मैंने उसे एक डबरे में पकड़ा. ‘इन्डियन समर’ का नामोनिशान नहीं था. बारिश
तिरछी फुहारों में गिर रही थी, पैरों के नीचे चपचप आवाज़ हो रही थी, बाग में पेड़ों से गीले पत्ते नीचे गिर रहे
थे. मेरी कॉलर के पीछे धाराएं बह रही थीं.
ज़िंदगी को और स्वयं को कुछ बेमतलब गालियाँ देते हुए, बारिश के जाल में
धुंधले जल रहे लालटेनों की ओर देखते हुए मैं चल रहा था.
किसी गली के नुक्कड़ पर एक स्टाल में मद्धिम रोशनी फड़फड़ा रही थी. ईंटों के
नीचे दबाए हुए अखबार काउंटर पर गीले हो गए थे, और न जाने क्यों, मैंने ‘मेलपमेना का चेहरा’ नामक पत्रिका खरीदी, जिस पर बेहद तंग पतलून पहने, टोपी में पर खोंसे और नकली चित्रित आंखों वाले आदमी का चित्र था.
मेरा कमरा मुझे आश्चर्यजनक रूप से घृणित प्रतीत हो रहा था. मैंने पानी से
फूल गए नाटक को फर्श पर फेंका, मेज़ के पास बैठा और हाथ से कनपटी दबाई, जिससे दर्द कम हो जाए. दूसरे हाथ से मैं काली डबल रोटी के टुकड़े काट रहा था
और उन्हें चबा रहा था.
कनपटी से हाथ हटाकर मैंने नम हो गयी ‘मेलपमेना का चेहरा’ पत्रिका के पन्ने पलटना शुरू किया. कसी
हुई पोशाक में एक लड़की दिखाई दे रही थी, शीर्षक झलका “ध्यान दीजिये”, दूसरा – ‘द अनब्रिडल्ड टेनर दी ग्रात्सिया’, और अचानक मेरा कुलनाम चमक उठा. मैं इस
कदर चकित हो गया, कि मेरा सिरदर्द भी गायब हो गया. मेरा कुलनाम बार-बार झलक रहा था, और फिर ‘लोपे दे वेगा’ भी झलका. कोई संदेह नहीं था, मेरे सामने नाटक था ‘अपनी स्लेज में नहीं’, और इस नाटक का नायक था मैं. मैं भूल गया कि
नाटक का सार क्या था. उसका आरंभ धुंधला-सा याद है:
“पर्नास पर बेहद उकताहट थी.
“कुछ भी नया नहीं है,” उबासी लेते हुए जॉन बाटिस्ट मोल्येर ने कहा.
“हाँ, उकताहट तो है,” शेक्सपियर ने जवाब दिया.
याद है, इसके बाद दरवाज़ा खुला, और मैं भीतर गया – काले बालों वाला नौजवान, बगल में
बेहद मोटा नाटक दबाये.
सब मुझ पर हंस रहे थे, इसमें कोई संदेह नहीं था, - सभी दुर्भावनापूर्वक हंस रहे थे. शेक्सपियर भी, लोपे द वेगा भी, और ज़हरीला मोल्येर भी, जो मुझसे पूछ रहा था, कि क्या मैंने ‘तार्त्यूफ़’ जैसी कोई चीज़ लिखी है, और चेखव, जिसे मैं उसकी किताबों के आधार पर सबसे नाज़ुक व्यक्ति समझता था, मगर सबसे अधिक निर्दयतापूर्वक मेरा मज़ाक
उड़ाया एक नाटक के लेखक ने, जिसका नाम था वल्कादाव.
अब याद करना हास्यास्पद लगता है, मगर मेरा गुस्सा काबू से बाहर था. मैं कमरे में घूम रहा था, बिना किसी अपराध के, बेवजह, यूं ही, स्वयं को अपमानित महसूस करते हुए. वल्कादाव को गोली मार देने का भयानक
ख़याल, इन परेशान खयालों के बीच आ जाता था, कि आखिर मेरा अपराध क्या है?
“वो इश्तेहार!” – मैं फुसफुसाया. “मगर क्या उसे मैंने बनाया था? अब भुगतो!”- मैं फुसफुसाया, और मुझे ऐसा लगा कि, कैसे खून से लथपथ,
वल्कादाव मेरे सामने फ़र्श पर गिर रहा है.
तभी पाईप से तम्बाकू के धुएँ की गंध आई, दरवाज़ा चरमराया, और कमरे में गीले रेनकोट में लिकास्पास्तव प्रकट हुआ.
“पढ़ा?” उसने प्रसन्नता से पूछा. “हाँ, भाई, बधाई देता हूँ, तुम कामयाब हो गए. खैर, क्या कर सकते हैं – अपने आप को मशरूम कहते हो, चढ़ जाओ टोकरी में. मैंने जैसे ही देखा, तुम्हारे पास चला आया, दोस्त से मिलना चाहिए,” और उसने अपना खड़ा रेनकोट कील पर लटका दिया.
“ये वल्कादाव कौन है?” मैंने उदासी से पूछा.
“और तुम्हें उसकी क्या ज़रुरत है?”
“आह, तुम जानते हो?...”
“मगर, तुम तो उससे परिचित हो.”
“मैं किसी वल्कादाव को नहीं जानता!”
“कैसे नहीं जानते! मैंने ही तो तुम्हारा परिचय करवाया था...याद है, रास्ते पर...ये हास्यास्पद
इश्तेहार...सफोकल्स...”
अब मुझे विचारमग्न बूढ़े की याद आई, जो मेरे बालों की ओर देख रहा था... ‘काले बाल!...’
“मैंने उस कमीने का क्या बिगाड़ा है?” मैंने बिफरते हुए पूछा.
लिकास्पास्तव ने सिर हिलाया.
“ऐ, भाई, अच्छी बात नहीं है, अ-च्छी बा-त नहीं है. मैं देख रहा हूँ, कि तुम्हें बहुत घमण्ड हो गया है. ये क्या बात हुई, कि कोई तुम्हारे बारे में एक शब्द भी नहीं
कह सकता? बिना आलोचना के गुज़ारा नहीं होगा.”
“ये कैसी आलोचना है?! वह मेरा मज़ाक उड़ा रहा है...वो है कौन?”
“वह नाटककार है,” लिकास्पास्तव ने जवाब दिया, “ पांच नाटक लिख चुका है. और अच्छा आदमी है, तुम बेकार में ही गुस्सा कर रहे हो. खैर, बेशक, वह थोड़ा नाराज़ है. सभी को अपमानजनक लगा है...”
“मगर, मैंने तो इश्तेहार नहीं बनाया ना? क्या इसमें मेरा दोष है, कि उनके प्रदर्शनों की सूची में सफोकल्स
और लोपे द बेगा...और...”
“फिर भी तुम सफोकल्स तो नहीं हो,” लिकास्पास्तव ने कड़वाहट से मुस्कुराते हुए कहा, “मैं, भाई, पच्चीस साल से लिख रहा हूँ, मगर सफोकल्स जैसा नहीं हो पाया,” उसने गहरी सांस ली.
मैंने महसूस किया कि मेरे पास लिकास्पास्तव को जवाब देने के लिए कुछ नहीं
है. कुछ भी नहीं! ऐसा कहना: नहीं हो पाए, क्योंकि तुमने बुरा लिखा, और मैंने अच्छा!’ क्या ऐसा कह सकता हूँ, मैं आपसे पूछता हूँ? क्या यह संभव है?
मैं खामोश रहा, और लिकास्पास्तव कहता रहा:
“बेशक, इस पोस्टर ने जनता के बीच हलचल मचा दी है. मुझसे कई लोगों ने पूछा.
दुखी तो करता है इश्तेहार! खैर, मैं बहस करने नहीं आया हूँ, बल्कि, तुम्हारे दूसरे दुर्भाग्य के बारे में जानकर, सांत्वना देने आया हूँ, दोस्त से बात करने आया हूँ...”
“कौनसा दुर्भाग्य?!”
“मगर, इवान वसील्येविच को नाटक पसंद नहीं आया,” लिकास्पास्तव ने कहा, और उसकी आंखें चमक उठीं, - कहते हैं कि आज तुमने नाटक पढ़ा था?”
“ये कहाँ से पता चला?”
“अफवाहों से धरती भरी है,” गहरी सांस लेकर लिकास्पास्तव ने कहा, जिसे आम तौर से मुहावरों और कहावतों में बात करना अच्छा लगता था, - “तुम
नस्तास्या इवान्ना कल्दीबायेवा को जानते हो?” – और मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना कहता रहा: सम्माननीय महिला, इवान वसील्येविच की चाची. पूरा मॉस्को
उनकी इज्जत करता है, अपने समय में उसके लिए प्रार्थना करते थे. सुप्रसिद्ध
अभिनेत्री थीं! और हमारी बिल्डिंग में एक ड्रेसमेकर रहती है, स्तूपिना आन्ना. वह अभी नस्तास्या इवानवव्ना
के यहाँ गयी थी, अभी वापस आई है. नस्तास्या इवान्ना उसे बता रही थीं. बोली, की आज इवान वसील्येविच के पास
कोई नया आदमी आया था, नाटक पढ़ रहा था, काला-सा, भंवरे जैसा (मैंने फ़ौरन अंदाज़ लगाया, कि वो तुम थे). बोली, कि इवान वसील्येविच को पसंद नहीं आया. न
जाने क्यों. और मैंने तुमसे तब कहा था, याद है, जब तुम पढ़ रहे थे? मैंने कहा था, कि तीसरा अंक हल्के-फुल्के ढंग से, सतही रूप से लिखा गया है, तुम मुझे माफ़ करो, मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ. मगर तुमने मेरी बात नहीं सुनी! खैर, इवान वसील्येविच, भाई, काम को समझता है, उससे छुप नहीं सकते, फ़ौरन समझ गया. तो, अगर उसे पसंद नहीं है, तो नाटक प्रदर्शित नहीं होगा. होगा ये कि तुम सिर्फ हाथों में इश्तेहार लिए
रह जाओगे. लोग हँसेंगे, ये रहा तुम्हारा एव्रीपीड! नस्तास्या इवानव्ना कह रही थीं कि तुमने इवान
वसील्येविच के साथ बदतमीजी की? उसे परेशान किया? वह तुम्हें सलाह देने लगा, और तुमने जवाब में, नस्तास्या इवान्ना ने कहा, - खर्राटे! खर्राटे! तुम मुझे माफ़ करो, मगर ये ज़रा ज़्यादा ही है! अपनी औकात से बाहर हो रहे हो! इतना बहुमूल्य भी
नहीं है (इवान वसील्येविच के लिए) तुम्हारा नाटक, कि तुम खर्राटे भरो...”
“रेस्टारेंट में चलो,” मैंने हौले से कहा, “मेरा घर में बैठने को जी नहीं चाहता.”
“समझ रहा हूँ! आह, अच्छी तरह समझ रहा हूँ,” लिकास्पास्तव चहका. “खुशी से. सिर्फ वो...” उसने परेशानी से पर्स में हाथ
डाला.
“मेरे पास हैं.”
क़रीब आधे घंटे बाद हम रेस्टारेंट “नेपल्स” में खिड़की के पास धब्बेदार मेजपोश
के पीछे बैठे थे. खुशमिजाज़ गोरा लड़का मेज़ पर खाने की चीज़ें सजा रहा था, वह प्यार से बोल रहा था, ‘खीरे’ को ‘खिरे’ कह रहा था, ‘कैवियार’ को ‘कैवियार्चिक समझता हूँ’, और उससे इतनी गर्माहट और आराम महसूस हो रहा था, की मैं भूल गया, कि बाहर अभेद्य अन्धकार है, और यह महसूस होना भी ख़त्म हो गया कि
लिकास्पास्तव एक सांप है.
13.
मैं सच्चाई जान गया हूं
कॉमरेड्स, कायरता और आत्मविश्वास की कमी से बुरी और कोई चीज़ नहीं है. वे
ही तो मुझे उस बिंदु तक लाये,
कि मैं सोच में पड़ गया – क्या वाकई में, बहन-मंगेतर को माँ
में परिवर्तित करना चाहिए?
‘सचमुच में, ऐसा नहीं हो सकता,’ – मैं अपने
आप से तर्क कर रहा था, - ‘कि उसने बेकार ही में यह बात कही
हो? आखिर, वह इन मामलों को समझता है!’
और हाथ में पेन
लेकर मैं कागज़ पर कुछ लिखने लगा. ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ: कोई बकवास ही
निकली. सबसे मुख्य बात ये थी,
कि मुझे बिन बुलाई माँ, अन्तनीना से इतनी नफ़रत हो गई थी, कि
जैसे ही वह कागज़ पर अवतरित हुई, मैंने दांत पीस लिए. तो, ज़ाहिर है, कुछ भी नहीं हो सका. अपने
नायकों से प्यार करना चाहिए; अगर ऐसा नहीं होगा, तो मैं किसी को भी हाथ में कलम लेने की सलाह नहीं दूंगा – आपको भारी
मुसीबतों का सामना करना पडेगा, ये समझ लीजिये.
“अच्छी तरह जान
लो!” मैं भर्राया और कागज़ के टुकड़े टुकड़े करके, अपने आप से वादा किया, कि थियेटर में नहीं जाऊंगा. इसका पालन करना अत्यंत
कठिन था. मैं अभी भी जानना चाहता था, इसका अंत कैसे होगा.
‘नहीं, उन्हें मुझे बुलाने दो,’ –
मैंने सोचा.
खैर, एक दिन बीता, दूसरा बीता, तीन दिन, एक सप्ताह – नहीं बुला रहे हैं. ‘लगता है, कि बदमाश लिकास्पास्तव सही था,’ मैंने सोचा, - ‘उनके
यहाँ नाटक नहीं होगा. ये ले तेरा इश्तेहार और “फेनिज़ा का जाल”! आह, मैं कितना बदकिस्मत हूँ!’
मगर दुनिया में
अच्छे आदमी भी हैं, मैं लिकास्पास्तव की नक़ल करते हुए कहूंगा. एक बार मेरे दरवाज़े
पर दस्तक हुई, और बम्बार्दव अन्दर आया. उसे देखकर मैं इतना खुश हुआ, कि मेरी आंखों में खुजली होने लगी.
“इस सबकी तो
उम्मीद थी ही,’ खिड़की की सिल पर
बैठे हुए स्टीम हीटर पर पैर से टकटक करते हुए बम्बार्दव कह रहा था, - “वैसा ही
हुआ. मैंने तो आपको आगाह किया था ना ?”
“मगर, सोचिये, ज़रा सोचिये, प्योत्र पित्रोविच!” मैं चहका – “गोलीबारी के बारे में कैसे नहीं पढ़ता? उसे कैसे ना पढ़ता?!”
“तो, पढ़ लिया! मेहेरबानी,” बम्बार्दव
ने कठोरता से कहा.
“मैं अपने नायक
से जुदा नहीं होऊँगा,” मैंने कड़वाहट से कहा.
“आप जुदा नहीं
भी होते...”
“माफ़ कीजिये!”
और मैंने, घुटते
हुए, बम्बार्दव को सब कुछ बताया : माँ
के बारे में, और पेत्या के बारे में,
जिसके पास नायक के बहुमूल्य स्वगत भाषण थे, और खंजर के बारे
में, जिसने ख़ास तौर से मुझे आपे से बाहर कर दिया था.
“आपको इस तरह के
प्रोजेक्ट कैसे लगते हैं?”
मैंने बिफरते हुए पूछा.
“बकवास,” न जाने क्यों चारों तरफ़ देखकर बम्बार्दव ने कहा.
“चलो, ठीक है!...”
“इसलिए, बहस नहीं करना चाहिए थी,”
बम्बार्दव ने हौले से कहा, - “बल्कि इस तरह जवाब देना चाहिए
था: आपके निर्देशों के लिए बहुत आभारी हूँ, इवान वसील्येविच , मैं अवश्य उन्हें पूरा करने की कोशिश करूंगा. आपत्ति नहीं करना चाहिए, आप
समझते हैं, या नहीं? सीव्त्सेव व्राझेक
में आपत्ति नहीं करते.”
“मतलब, ऐसा कैसे?! क्या कोई भी और कभी
भी आपत्ति नहीं करता?”
“कोई नहीं और
कभी नहीं,” हर शब्द पर टकटक
करते हुए बम्बार्दव ने जवाब दिया, “आपत्ति नहीं की, आपत्ति नहीं करता और आपत्ति नहीं करेगा.”
“वह चाहे जो भी
कहे?”
“वह चाहे जो
कहे.”
“और अगर वह ये
कहे, की मेरे नायक को पेंज़ा चले जाना
चाहिए तो? या फिर, इस माँ, अंतनीना को
फांसी लगा लेना चाहिए? या वह सबसे निचले सुर में गाती है?
या, कि ये भट्टी काले रंग की है? इसका मुझे क्या जवाब देना
चाहिए?”
“कि ये भट्टी
काले रंग की है.”
“तो, स्टेज पर वह कैसी दिखाई देगी?”
“सफ़ेद, काले धब्बे के साथ.”
“कोई शैतानी-सी,
अनसुनी-सी!...”
“कोई बात नहीं, हो जाएगा,” बम्बार्दव ने जवाब
दिया.
“माफ़ कीजिये!
क्या अरिस्तार्ख प्लतोनविच उससे कुछ नहीं कह सकते?”
“अरिस्तार्ख
प्लतोनविच उससे कुछ नहीं कह सकते,
क्योंकि अरिस्तार्ख प्लतोनविच सन् एक हज़ार आठ सौ पचासी से इवान वसील्येविच से बात नहीं करते हैं.”
“ये कैसे हो
सकता है?”
“उनके बीच सन्
एक हज़ार आठ सौ पचासी में झगड़ा हो गया था और तब से वे एक दूसरे से मिलते नहीं हैं, एक दूसरे से टेलिफ़ोन पर भी बात नहीं करते.”
“मेरा सिर घूम
रहा है! तो, थियेटर का काम चलता
कैसे है?”
“चल रहा है, जैसा देख रहे हो, बढ़िया चल रहा
है. उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र बाँट लिए हैं. जैसे, अगर, इवान वसील्येविच को आपके नाटक
में दिलचस्पी है, तो अरिस्तार्ख प्लतोनविच उसके पास भी नहीं
जायेंगे, और इसके विपरीत भी. मतलब, ऐसा
कोई आधार ही नहीं है, जिस पर उनकी टक्कर हो. ये बहुत
होशियारीपूर्ण प्रणाली है.”
“खुदा! और, किस्मत से, अरिस्तार्ख
प्लातोनाविच इण्डिया में हैं. अगर वे यहाँ होते, तो मैं उनके
पास जाता...”
“हुम्,”
बम्बार्दव ने कहा और खिड़की से देखने लगा.
“आखिर, आप ऐसे आदमी से नहीं निपट सकते,
जो किसी की नहीं सुनता हो!”
“नहीं, वह सुनता है. वह तीन व्यक्तियों की बात सुनता है :
गव्रीला स्तिपानविच, चाची नस्तास्या इवानव्ना, और अव्गुस्ता अव्देयेव्ना की. पूरी दुनिया में ये ही तीन व्यक्ति हैं, जो इवान वसील्येविच पर प्रभाव डाल
सकते हैं. अगर इन लोगों के अलावा कोई और इवान वसील्येविच को प्रभावित करने का विचार करेगा, तो नतीजा ये होगा, की इवान वसील्येविच बिल्कुल विपरीत काम करेगा.”
“मगर क्यों?!”
“वह किसी पर भी
विश्वास नहीं करता.”
“मगर ये तो
भयानक है!”
“हर बड़े आदमी की
अपनी-अपनी सनक होती है,” बम्बार्दव ने शान्ति
से कहा.
“अच्छा. मैं समझ
गया और मैं समझता हूँ, कि परिस्थिति निराशाजनक है. मेरा नाटक स्टेज पर प्रदर्शित
हो, इसके लिए उसे इस तरह विकृत करना
चाहिए, कि उसमें से सारा अर्थ निकल जाए, उसे दिखाना ज़रूरी
नहीं है. मैं नहीं चाहता, कि पब्लिक यह देखकर कि कैसे बीसवीं
सदी का कोई आदमी, जिसके हाथ में रिवॉल्वर है, अपने आप को
खंजर भोंक देता है, मुझ पर उँगलियाँ उठाए!”
“वह उंगलियाँ न
उठाती, क्योंकि कोई खंजर ही नहीं होता.
आपका नायक अपने आपको किसी सामान्य आदमी की तरह गोली मार लेता.”
मैं चुप हो
गया.
“अगर आप शांत
रहते,” बम्बार्दव कहता रहा, “उसकी नसीहतें सुनते, खंजरों पर भी सहमत होते, और अन्तनीना से भी, तो न ये हुआ होता, न कुछ और. हर चीज़ के अपने-अपने रास्ते और तरीक़ा होता है.”
“आखिर कैसे हैं
ये तरीके?”
“मीशा पानिन
उनके बारे में जानता है,” मुर्दनी आवाज़ में
बम्बार्दव ने जवाब दिया.
“तो, अब, मतलब, सब कुछ ख़त्म हो गया?”
निराशा से मैंने पूछा.
“मुश्किल है, कुछ मुश्किल है,” बम्बार्दव ने दयनीयता से जवाब दिया.
एक सप्ताह और
बीता, थियेटर से कोई भी समाचार नहीं
था. मेरा ज़ख्म धीरे धीरे भर रहा था, और एक ही चीज़, जो मेरे लिए बर्दाश्त से बाहर थी, वह थी
“शिपिंग-बुलेटिन” में जाना और लेख लिखने की ज़रुरत.
मगर अचानक...ओह, ये नासपीटा शब्द! हमेशा के लिए जाते हुए, मैं इस शब्द के प्रति अदम्य, कायर भय को अपने साथ ले जाऊंगा. मैं इससे
उसी तरह डरता हूँ, जैसे शब्द “आश्चर्य” से, जैसे “आपके लिए फोन है”, “आपके लिए टेलीग्राम है” या “आपको कार्यालय में
बुला रहे हैं” शब्दों से. मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, कि
इन शब्दों के बाद क्या होता है.
तो, अचानक और पूरी तरह अनपेक्षित रूप से मेरे दरवाज़े पर
दिम्यान कुज़्मिच प्रकट हुआ, अदब से झुका और मुझे अगले दिन चार बजे थियेटर में आने
का निमंत्रण दिया.
अगले दिन बारिश
नहीं थी. अगला दिन शरद ऋतु का कड़ाके की ढण्ड का दिन था. डामर पर एडियाँ खटखटाते
हुए, परेशान होते हुए, मैं थियेटर जा रहा
था.
पहली बात, जिस पर मेरी नज़र गयी, वह था
गाड़ीवान का घोड़ा, राईनोसारस की तरह खाया-पिया, और बक्से पर बैठा सूखा बूढ़ा. और, पता नहीं क्यों, मैं फ़ौरन पहचान गया कि यह दीर्किन है. इससे मैं और ज़्यादा परेशान हो गया.
थियेटर के भीतर मुझे किसी उत्तेजना ने परेशान कर दिया, जो हर
चीज़ में नज़र आ रही थी. फ़ीली के कार्यालय में कोई नहीं था, उसके सभी मुलाकाती, मतलब, उनमें सबसे
ज़्यादा ज़िद्दी, ठण्ड से ठिठुरते हुए, आँगन में
परेशान हो रहे थे, और कभी-कभार
खिड़की में देख लेते थे. कुछेक तो खिड़की पर टकटक भी कर रहे थे, मगर कोई परिणाम नहीं था. मैंने दरवाज़ा खटखटाया, वह थोड़ा सा खुला, दरार से
बक्वालिन की आंख झांकी, मैंने फीली की आवाज़ सुनी:
“फ़ौरन अन्दर आने दो!”
और मुझे भीतर जाने दिया गया. आँगन में परेशान हो रहे लोगों ने मेरे
पीछे-पीछे घुसने की कोशिश की, मगर दरवाज़ा
बंद हो गया. सीढ़ियों से गिरते हुए मुझको बक्वालिन ने उठाया और मैं कार्यालय में
पहुंचा. फील्या अपनी जगह पर नहीं बैठा था, बल्कि पहले कमरे में था. फील्या ने नई टाई पहनी थी, जैसा कि मुझे अभी भी याद है, छोटे छोटे
धब्बों वाली; फील्या ने असाधारण रूप से चिकनी दाढ़ी बनाई थी.
उसने विशेष गंभीरता से, मगर कुछ उदासी से मेरा स्वागत किया. थियेटर में कुछ
हो रहा था, और मैंने कुछ ऐसा महसूस किया, जैसे बैल महसूस करता है, जिसे काटने
के लिए ले जाया जा रहा हो,
महत्त्वपूर्ण बात ये थी, कि इसमें मैं, कल्पना कीजिये, मुख्य
भूमिका निभा रहा हूँ.
यह फील्या के छोटे से वाक्य से महसूस हुआ, जो उसने बक्वालिन को हुक्म देते हुए कहा था;
“ओवरकोट ले लो!”
मुझे सन्देशवाहकों और प्रवेशकों ने भी चकित
कर दिया, उनमें से एक भी अपनी
जगह पर नहीं बैठा था, वे बेचैनी से भाग दौड़ कर रहे थे, जो
अनभिज्ञ आदमी की समझ से बाहर था. तो, दिम्यान कुज्मिच तेज़ी से दौड़ लगाते हुए मुझसे आगे निकल
गया, और चुपचाप ड्रेस सर्कल में चला गया. जैसे ही वह आंखों
से ओझल हुआ, कि भागते हुए कुस्कोव ड्रेस सर्कल से बाहर आया,
तेज़ दौड़ते हुए, और वह भी गायब हो गया. सांझ के अँधेरे में
निचले फॉयर से क्लुक्विन बाहर निकला, और न जाने क्यों उसने
एक खिड़की का परदा खींच दिया, और बाकी की खुली छोड़कर बिना कोई नामोनिशान छोड़े ग़ायब
हो गया. बक्वालिन सैनिकों वाले बेआवाज़ कपडे पर तेज़ी से गुज़र गया, और चाय वाले बुफ़े में गायब हो गया, और बुफ़े से
पाकिन भागकर बाहर आया और दर्शक-हॉल में छुप गया.
“कृपया मेरे साथ ऊपर आईए,” फील्या ने नम्रता से मेरे साथ चलते हुए कहा.
हम ऊपर जा रहे थे, कोई और
चुपचाप उड़कर टीयर में चढ़ गया. मुझे ऐसा लगने लगा, मानो मेरे चारों और मृतकों की परछाईयाँ दौड़ रही हैं.
जब हम चुपचाप
ड्रेसिंग रूम के दरवाज़े तक पहुँचे,
तो मैंने दिम्यान कुज्मिच को देखा, जो दरवाज़े पर खडा था.
जैकेट पहनी आकृति जैसे दरवाज़े की ओर लपकी, मगर दिम्यान
कुज्मिच हौले से चीख़ा और दरवाज़े पर क्रॉस की तरह लटक गया, और आकृति लड़खड़ाई, और वह
साँझ के धुंधलके में सीढ़ी पर लुप्त हो गई.
“जाने दो,” फील्या फुसफुसाया और गायब हो गया. दिम्यान कुज्मिच
दरवाज़े पर झुका, उसने मुझे अन्दर जाने दिया और...एक और
दरवाज़ा, मैं ड्रेसिंग रूम में पहुँच गया, जहां अन्धेरा नहीं
था. तरपेत्स्काया की डेस्क पर लैम्प जल रहा था, तरपेत्स्काया
लिख नहीं रही थी, बल्कि अखबार में देखती हुई बैठी थी. उसने
मेरी तरफ़ देखकर सिर हिलाया. और डाइरेक्टर के कार्यालय में जाने वाले दरवाज़े पर
मिनाझ्राकी खड़ी थी, हरा स्वेटर पहने,
गर्दन में हीरे का क्रॉस लटकाए और चमड़े की चमकदार बेल्ट पर चमचमाती चाभियों का
गुच्छा लटकाए.
उसने कहा, “इधर”, और मैंने खुद को तेज़ रोशनी वाले कमरे में
पाया.
पहली बात, जिस पर मेरा ध्यान गया, - वह था
सुनहरी सजावट वाला करेलियन बर्च का कीमती फर्नीचर, वैसी ही भारी भरकम लिखने की मेज़
और कोने में काला अस्त्रोव्स्की. छत के नीचे झुम्बर जल रहा था, दीवारों पर केंकेट लैम्प जल रहे थे. अब मुझे ऐसा लगा की पोर्ट्रेट गैलरी
की फ्रेमों से निकालकर पोर्ट्रेट्स बाहर आये और मेरी तरफ़ लपके. मैंने इवान वसील्येविच
को पहचान लिया, जो
सोफे पर बैठा था छोटी गोल मेज़ के सामने, जिस पर फूलदान में जैम रखा था. क्निझेविच
को पहचाना, पोर्ट्रेट्स से कई अन्य लोगों को पहचाना, जिसमें असाधारण व्यक्तित्व वाली एक महिला थी – कत्थई, जैकेट में जिस पर सितारों जैसे बटन थे, जिसके ऊपर
सेबल का फ़र डाला गया था. महिला के सफ़ेद हो रहे बालों पर छोटी-सी टोपी आराम से बैठी
थी, काली भौहों के नीचे चमकती आंखें,
और चमकती उंगलियाँ जिन पर हीरों की भारी अंगूठियाँ थीं.
कमरे में ऐसे
लोग भी थे, जो पोर्ट्रेट गैलरी
में नहीं थे. सोफ़े के पीछे वही डॉक्टर खड़ा था, जिसने मीलच्का
प्र्याखिना को समय पर दिल के दौरे से बचाया था, और वह उसी
तरह हाथों में गिलास लिए खड़ा था, और दरवाज़े के पास उसी ग़मगीन
भाव के साथ बुफे-अटेंडर खड़ा था.
एक तरफ़ सफ़ेद झक
मेजपोश से ढंकी बड़ी गोल मेज़ थी. रोशनी क्रिस्टल और पोर्सिलीन पर खेल रही थी, नर्ज़ान की बोतलों से उदासी से परावर्तित हो रही थी, कोई लाल चीज़, शायद, सैलमन कैवियार चमक रही थी. मेरे
प्रवेश करते ही कुर्सियों पर पसर कर बैठे लोगों में हलचल हुई, और उन्होंने झुककर मेरा अभिवादन किया.
“आSS! लिओ!” इवान वसील्येविच कहने ही वाला था.
“सिर्गेई लिओन्तेविच,”
क्निझेविच ने फ़ौरन कहा.
“हाँ...सिर्गेई
लिओन्तेविच, स्वागत है! बैठिये,
अदब से कहता हूँ!” और इवान वसील्येविच ने
गर्म जोशी से मुझसे हाथ मिलाया. “क्या कुछ खाना चाहेंगे?
शायद, लंच या नाश्ता? बिना किसी
तकल्लुफ के! हम इंतज़ार करेंगे. एर्मलाय इवानविच तो हमारे यहाँ जादूगर है, बस, उससे
कहना बाकी है और...एर्मलाय इवानविच, क्या हमारे पास लंच के
लिए कुछ मिल जाएगा?”
जादूगर एर्मलाय
इवानविच ने जवाब में ऐसी प्रतिक्रया दी: उसने माथे के नीचे आंखें घुमाई, फिर उन्हें वापस अपनी जगह ले गया, और मुझ पर विनती भरी नज़र डाली.
“या फिर, शायद, कोई पेय?” इवान वसील्येविच ने मेरी मेहमान
नवाज़ी जारी राखी. “नर्ज़ान? सिट्रो? करौंदे का रस?” गंभीरता
से इवान वसील्येविच ने कहा, “क्या हमारे पास करौंदे का पर्याप्त स्टॉक है?
विनती करता हूँ, कि इस पर सख्ती से नज़र रखी जाए.”
एर्मलाय इवानविच
जवाब में सकुचाहट से मुस्कुराया और उसने सिर लटका लिया.
“एर्मलाय
इवानविच,
वैसे...हुम्...हुम्... जादूगर है. अत्यंत निराशा भरे समय में उसने पूरे थियेटर में
हरेक को स्टर्जन मछली खिलाकर भूख से बचाया. नहीं तो एक-एक आदमी मर जाता. अभिनेता
उससे प्यार करते हैं!”
एर्मलाय इवानविच
ने इस वर्णित उपलब्धि पर गर्व नहीं किया,
और, इसके विपरीत, कोई उदास छाया उसके
चेहरे पर छा गई.
स्पष्ट, दृढ़, खनखनाती आवाज़ में मैंने सूचित किया कि मैं
नाश्ता कर चुका हूँ, खाना भी खा चुका हूँ, और मैंने स्पष्टत: नार्ज़न और करौंदे के रस से इनकार कर दिया.
“तो फिर, केक? एर्मलाय अपने केक के लिए पूरी दुनिया में मशहूर
है!...”
मगर मैंने और भी
खनखनाती और दृढ़ आवाज़ में (बाद में बम्बार्दव ने,
उपस्थित लोगों के शब्दों से, मेरी नक़ल की, यह कहते हुए: “और
कहते हैं कि, आपके पास आवाज़ भी थी!” “और कैसी?” – भर्राई हुई, क्रोध भरी,
पतली...”) केक से भी इनकार कर दिया.
“वैसे, केक के बारे में,” अचानक मखमली,
नीची आवाज़ में असाधारण रूप से सलीके से कपडे पहने, और बाल
बनाए गोरा आदमी, जो इवान वसील्येविच की बगल में बैठा था, बोल
उठा, “मुझे याद है, एक बार हम प्रुचिवीन के यहाँ बैठे थे. और
सबको आश्चर्यचकित करते हुए वहां पहुंचते हैं राजकुमार मक्समिलियान
पित्रोविच...हमने खूब ठहाके लगाए...वैसे प्रुचिवीन को तो आप जानते हैं, इवान वसील्येविच ? ये मजेदार किस्सा मैं आपको बाद
में सुनाऊंगा.”
“मैं प्रुचिवीन
को जानता हूँ,” इवान वसील्येविच ने जवाब
दिया, “महा बदमाश है. उसने अपनी ही सगी
बहन को नंगा कर दिया था.खैर...”
अब दरवाज़े ने एक
और व्यक्ति को भीतर छोड़ा, जिसकी तस्वीर गैलरी में नहीं थी, - मतलब, मीशा पानिन को. “हाँ, उसने गोली
चलाई...” मैंने मीशा के चेहरे की ओर देखते हुए सोचा.
“आ--! परम आदरणीय मिखाइल अलेक्सेविच!” – इवान वसील्येविच ने आगंतुक की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा. “आपका
स्वागत है! कृपया बैठिये. आपसे परिचय करवाने की आज्ञा दें,” इवान वसील्येविच मुझसे मुखातिब
हुआ, “ये हमारे बहुमूल्य मिखाइल अलेक्सेविच हैं, जो हमारे यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण काम करते हैं. और ये हैं...”
“सिर्गेई लिओन्तेविच!” क्निझेविच ने प्रसन्नता से कहा.
“ठीक, वही!”
इस बारे में कुछ भी कहे बिना कि हम एक दूसरे से परिचित हैं, और इस परिचय से इनकार किये बिना, मैंने और
मीशा ने सिर्फ एक दूसरे से हाथ मिलाया.
“तो, शुरू करते हैं!” इवान वसील्येविच ने घोषणा की, और सबकी आंखें मुझ पर टिक गईं, जिससे मैं सिहर उठा. “कौन बोलना चाहेगा? इपालित पाव्लविच!”
अब असाधारण रूप से आकर्षक और सुरुचिपूर्ण ढंग से कपडे पहने, कौए के पंख जैसे घुंघराले बालों वाले व्यक्ति ने नाकपकड़ चश्मा चढ़ाया और
अपनी नज़र मुझ पर टिका दी.
फिर उसने अपने गिलास में नर्ज़ान डाली, एक गिलास पी गया, रेशमी रूमाल से मुंह पोंछा, कुछ झिझका –
क्या और पिए, दूसरा गिलास भी पी गया और तब बोलना शुरू किया.
उसकी आवाज़ अद्भुत, मुलायम, सधी हुई, विश्वासपूर्ण
थी और सीधे दिल तक पहुंचती थी.
“आपका उपन्यास,
ले...सिर्गेई लिओन्तेविच? सही है ना? आपका
उपन्यास बहुत, बहुत अच्छा
है...उसमें...अं...कैसे कहूं,” – यहाँ
वक्ता ने बड़ी मेज़ की ओर कनखियों से देखा, जहां नर्ज़ान
की बोतलें रखी थीं, और एर्मलाय
इवानविच फ़ौरन उसके पास गया और उसे एक ताज़ा बोतल थमा दी, “मनोवैज्ञानिक गहराई से परिपूर्ण है, व्यक्तियों का चित्रण असाधारण विश्वसनीयता से किया गया है...अं ...जहां तक
प्रकृति का वर्णन है, तो उसमें, मैं कहूंगा, की आपने तुर्गेनेव की ऊंचाई को छू लिया है!” – अब नर्ज़ान गिलास में उबल
रही थी, और वक्ता ने तीसरा गिलास पी लिया और झटके से आंख से नाकपकड़ चश्मा फेंक
दिया.
“ये,” उसने आगे कहा, “दक्षिणी प्रकृति का वर्णन...अं...उक्राइन की तारों भरी रातें....फिर
कोलाहल करती द्नेप्र...अं...जैसा कि गोगल ने वर्णन किया है...अं...आश्चर्यजनक
द्नेप्र, जैसा आपको याद है...और अकासिया की खुशबू...ये
सब आपने बड़ी कुशलता से किया है...
मैंने मीशा पानिन की तरफ़ देखा – वह कुर्सी में सिकुड़ कर बैठा था, और उसकी आंखें डरावनी थीं.
“विशेषकर...अं...उपवन का यह वर्णन प्रभावशाली है...चिनार के चांदी जैसे
पत्ते...आपको याद है?”
“मेरी आंखों के सामने अभी तक रात में द्नेपर की ये तस्वीरें तैर रही हैं, जब हम यात्रा पर गए थे!” सेबल का कोट पहनी नीची आवाज़ वाली महिला ने
कहा.
“यात्रा के बारे में,” इवान वसील्येविच की बगल में नीची आवाज़ गूंजी और हंस पड़ी:
“गवर्नर-जनरल दुकासव के साथ उस समय बहुत दिलचस्प घटना हुई. क्या आपको उसकी याद है, इवान वसील्येविच ?”
“याद है. भयानक पेटू!” इवान वसील्येविच ने जवाब दिया. “मगर आप आगे कहिये.”
“आपके उपन्यास के बारे में तारीफों के अलावा...अं...अं... कुछ और कहना ठीक
नहीं है, मगर...आप मुझे माफ़ कीजिये...स्टेज के अपने
नियम होते हैं!”
इवान वसील्येविच बड़ी दिलचस्पी से
इपालित पाव्लविच का भाषण सुनते हुए जैम खा रहा था.
“आप अपने नाटक में अपने दक्षिण की समूची खुशबू नहीं प्रकट कर सके, ये उमस भरी रातें. भूमिकाएँ मनोवैज्ञानिक रूप से अधूरी प्रतीत हुईं, जो
विशेष रूप से बख्तिन के पात्र में प्रकट होता है...” यहाँ वक्ता न जाने क्यों बहुत
आहत हो गया, उसने अपने होंठ भी फुला लिए: “प...प...और
मैं...अं...नहीं जानता,” वक्ता ने
अपने नाक-पकड़ चश्मे की किनार से नोटबुक को थपथपाया, और मैंने उसमें अपना नाटक पहचान लिया, - “उसे प्रदर्शित करना असंभव है...माफ़ कीजिये,” उसने पूरी तरह अपमानित स्वर में अपनी बात ख़त्म की, “माफ़ कीजिये!”
यहाँ हमारी नज़रें मिलीं. और मेरी नज़र में, मेरा ख़याल है, वक्ता ने कड़वाहट और आश्चर्य देखा.
बात यह थी, कि मेरे
नाटक में न तो बबूल थे, न ही चांदी
जैसे चमचमाते चिनार थे, न ही शोर
मचाती द्नेप्र, नहीं... एक
लब्ज़ में, ऐसा कुछ भी नहीं था.
‘उसने नहीं पढ़ा! उसने मेरा उपन्यास नहीं पढ़ा,” – मेरा सिर झनझना रहा था, - ‘और फिर भी वह ख़ुद को उसके बारे में बोलने की अनुमति देता है? वह उक्राइन की रातों के बारे में कोई कहानी बुन रहा है...उन्होंने मुझे
यहाँ क्यों बुलाया?!’
“और कोई कुछ कहना चाहता है?” सबको देखते
हुए इवान वसील्येविच ने प्रसन्नता से
पूछा.
तनाव भरी खामोशी छा गई. कोई भी बोलना नहीं चाहता था. सिर्फ कोने से आवाज़
आई:
“एहो-हो...”
मैंने सिर घुमाया और कोने में काले जैकेट में एक मोटे बुज़ुर्ग आदमी को
देखा. मुझे धुंधली-सी याद आई कि पोर्टेट में उसके चेहरे को देखा था...उसकी आंखों
में सौम्य भाव था, चेहरे से
उकताहट प्रकट हो रही, लम्बे समय से चली आ रही उकताहट. जब मैंने उसकी तरफ़ देखा, तो उसने आंखें हटा लीं.
“आप कुछ कहना चाहते हैं, फ़्योदर व्लादीमिरविच?”
इवान वसील्येविच उससे मुखातिब हुआ.
“नहीं,” उसने जवाब
दिया. खामोशी ने विचित्र रूप धारण कर लिया था.
“और, शायद, आप कुछ कहना चाहेंगे?...” इवान वसील्येविच
मुझसे मुखातिब हुआ.
मैंने ऐसी आवाज़ में, जो ज़रा भी मधुर, प्रसन्न और स्पष्ट नहीं थी, मैं
खुद भी यह समझ रहा था, कहा:
“जहां तक मैं
समझा हूँ, मेरा नाटक उपयुक्त
नहीं था, और मैं विनती करता हूँ, कि वह मुझे वापस लौटा दिया
जाए.”
इन शब्दों ने न
जाने क्यों परेशानी उत्पन्न कर दी. कुर्सियां सरकने लगीं, कुर्सी के पीछे से कोई मेरी ओर झुका और बोला:
“नहीं, ऐसा क्यों कह रहे हैं? माफ़ी चाहता हूँ!”
इवान वसील्येविच
ने जैम की तरफ़ देखा, और फिर अचरज से आस-पास के लोगों पर नज़र डाली.
“हुम्...हुम्...”और
उसने मेज़ पर अपनी उंगलियां बजाईं, हम दोस्ताना तरीक़े से कह रहे हैं, कि आपके नाटक को प्रदर्शित करना – मतलब, आपको भयानक नुक्सान पहुंचाना है! खतरनाक नुक्सान! खासकर यदि फ़मा स्त्रीझ
उसे संभाल लेता है. आप खुद ही ज़िंदगी से ख़ुश नहीं होंगे, और हमें गालियाँ
देंगे...”
कुछ देर रुकने
के बाद मैंने कहा:
“उस हालत में
मैं विनती करता हूँ, कि उसे मुझे वापस कर
दिया जाए.”
और तब मैंने
स्पष्ट रूप से इवान वसील्येविच की आंखों
में कड़वाहट देखी.
“हमारा
कॉन्ट्रेक्ट है,” अचानक कहीं से आवाज़ आई,
और मुझे डॉक्टर की पीठ के पीछे से गव्रील स्तिपानविच का चेहरा दिखाई दिया,
“मगर, आपका थियेटर तो उसे प्रदशित नहीं करना चाहता, फिर आपको उसकी ज़रुरत क्या है?”
अब मेरे निकट
बेहद सजीव आंखों वाला चेहरा, नाक पकड़ चश्मा पहने,
मेरे निकट सरका, ऊंची पतली आवाज़ में बोला:
“कहीं आप उसे
श्लीपे के थियेटर में तो नहीं ले जायेंगे?
तो, वहाँ वे क्या दिखायेंगे? खैर,
स्टेज पर कुछ जिंदादिल ऑफिसर्स घूमते रहेंगे. इसकी किसे ज़रुरत है?”
“वर्तमान नियमों
और स्पष्टीकरणों के आधार पर,
उसे श्लीपे के थियेटर में नहीं दे सकते, हमारा तो
कॉन्ट्रेक्ट है!” गव्रील स्तिपानविच ने कहा और डॉक्टर के पीछे से बाहर निकला.
“यहाँ क्या हो
रहा है? आखिर वे चाहते क्या
हैं?” मैंने सोचा और मुझे ज़िंदगी में पहली बार भयानक घुटन महसूस हुई.
“माफ़ कीजिये,” सुस्त आवाज़ में मैंने कहा, -
“मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, आप उसे प्रदर्शित करना नहीं चाहते, और साथ ही कह रहे हैं, कि दूसरे थियेटर में मैं उसे
नहीं दे सकता. फिर कैसे होगा?”
इन शब्दों ने
आश्चर्यजनक प्रभाव डाला. सेबल की खाल के कोट वाली महिला ने अपमानित नज़रों से दीवान
पर बैठे नीची आवाज़ वाले व्यक्ति की ओर देखा. मगर सबसे डरावना चेहरा था इवान वसील्येविच
का. उसके चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गयी,
और उसकी गुस्सैल, उग्र आख्नें मुझे घूर
रही थीं.
“हम आपको खतरनाक
नुक्सान से बचाना चाहते हैं!” इवान वसील्येविच ने कहा. – “ एक निश्चित खतरे से, जो नुक्कड़ पर आपका इंतज़ार कर रहा है.”
फिर से सन्नाटा
छा गया और वह इतना बोझिल हो गया,
कि उसे और ज़्यादा बर्दाश्त करना नामुमकिन था.
उँगली से कुर्सी
का कपड़ा थोड़ा सा हटाकर मैं खडा हो गया और मैंने झुककर अभिवादन किया. मुझे सभी ने
झुककर जवाब दिया, सिवाय इवान वसील्येविच
के, जो मेरी ओर अचरज
से देख रहा था. मैं किनारे से दरवाज़े तक गया, लड़खड़ाया, बाहर गया, झुककर तरपेत्स्काया का अभिवादन किया, जो एक आंख से ‘इजवेस्तिया’ को देख रही थी, और दूसरी
से मुझे, अव्गुस्ता मिनाझ्राकी का,
जिसने मेरे अभिवादन को गंभीरता से स्वीकार किया, और बाहर
निकल गया.
थियेटर सांझ के
अँधेरे में डूब रहा था. चाय के बुफ़े में सफ़ेद धब्बे प्रकट हुए – ‘शो’ के लिए मेज़ें सजाई जा रही थीं.
सभागृह का
दरवाज़ा खुला था, मैं कुछ पल रुका और
देखा. स्टेज पूरा खुला हुआ था, दूर वाली ईंटों की दीवार तक.
ऊपर से एक हरा मंडप उतर रहा था, सिरपेचे की बेल से ढंका हुआ,
एक ओर से मज़दूर खुले विशाल दरवाजों से, चींटियों की तरह, मोटे-मोटे सफ़ेद स्तंभ मंच
पर ले जा रहे थे.
एक ही मिनट बाद
मैं थियेटर में नहीं था.
चूंकि बम्बार्दव
के पास टेलीफ़ोन नहीं था, मैंने उसी शाम उसे इस
मजमून का टेलिग्राम भेजा:
“आ जाओ, मेमोरियल सर्विस है. आपके बिना पागल हो जाऊंगा, कुछ
समझ में नहीं आ रहा है.”
वे इस टेलीग्राम
को ले नहीं रहे थे और उन्होंने उसे तभी लिया जब मैंने “शिपिंग बुलेटिन” में शिकायत
करने की धमकी दी.
अगली शाम को मैं
बम्बार्दव के साथ सजी हुई मेज़ पर बैठा था. मास्टर की बीबी, जिसका मैं पहले ज़िक्र कर चुका हूँ, पैनकेक्स लाई.
बम्बार्दव को
‘मेमोरियल सर्विस’ आयोजित करने का ख़याल
पसंद आया, उसे कमरा भी पसंद आया, जिसे
मैंने सही तरीके से सजा दिया था.
“अब मैं शांत हो
गया हूँ,” मेरे मेहमान की पहली
भूख शांत होने के बाद मैंने कहा, “मैं सिर्फ एक बात चाहता हूँ – यह जानना कि
ये सब क्या था. उत्सुकता मुझे खाये जा रही
है. ऐसी अद्भुत चीज़ें मैंने पहले कभी नहीं देखीं. जवाब में बम्बार्दव ने पैनकेक्स
की तारीफ़ की, कमरे पर चारों और नज़र दौड़ाई और कहा:
“ आपको शादी कर
लेना चाहिए, सिर्गेई लिओन्तेविच, किसी सुन्दर, नाज़ुक महिला से या लड़की से.”
“ये बातचीत गोगल
पहले ही लिख चुका है,” मैंने जवाब दिया, “उसे दुहरायेंगे नहीं. मुझे बताईये, कि यह सब क्या
था?’
बम्बार्दव ने
कंधे उचका दिए.
“कोई विशेष बात नहीं
थी, इवान वसील्येविच की थियेटर के वरिष्ठ
सदस्यों के साथ मीटिंग थी.”
“अच्छा. वो सेबल्स वाली महिला कौन है?”
“मार्गारीता पित्रोव्ना तव्रीचेस्काया, हमारे थियटर की आर्टिस्ट, वरिष्ठों
के या संस्थापकों के समूह की सदस्य. वह
इसलिए प्रसिद्ध है, कि स्वर्गीय
अस्त्रोव्स्की ने सन् अठारह सौ अस्सी में मार्गारीता पित्रोव्ना का अभिनय
देखकर - जो पहली बार रंगमंच पर आई थी, - कहा था : “बहुत अच्छा”.
आगे, मुझे अपने दोस्त से यह पता चला. कि कमरे में केवल
संस्थापक ही थे, जिन्हें मेरे नाटक के सिलसिले में सभा के
लिए अविलम्ब बुलाया गया था, और यह कि दीर्किन को रात को ही सूचित कर दिया गया था, और उसने बड़ी देर तक घोड़े को साफ़ किया और गाड़ी को कार्बोलिक एसिड़ से धोया.
महान राजकुमार
मैक्स्मिलियन, और खाऊ गवर्नर-जनरल का किस्सा सुनाने वाले के बारे में पूछने पर
मुझे पता चला, कि वह सभी संस्थापकों
में सबसे छोटा था.
कहना पड़ेगा, के बम्बार्दव के जवाब प्रकट रूप में संयमित और
सावधानी पूर्ण थे. इस बात पर गौर करने के बाद, मैंने अपने
प्रश्नों को इस तरह से पूछने की कोशिश की, ताकि मेरे मेहमान
से न केवल औपचारिक और सूखे जवाब प्राप्त करूं, जैसे जन्म इस वर्ष हुआ, नाम और कुलनाम फलां-फलां, बल्कि कुछ और भी
विशेषताएं प्राप्त कर सकूं. मुझे उस समय डाइरेक्टर के कमरे में इकट्ठा हुए लोगों
में गहरी दिलचस्पी थी. उनकी विशेषताओं से, मेरा ख़याल था, कि
इस रहस्यपूर्ण मीटिंग में उनके बर्ताव के बारे में कोई स्पष्टीकरण मिल जाएगा.
“तो, क्या ये गर्नस्ताएव (गवर्नर-जनरल
के बारे में किस्सा सुनाने वाला) अच्छा अभिनेता है?” मैंने
बम्बार्दव के गिलास में वाईन डालते हुए पूछा.
“ऊहू-ऊ”, बम्बार्दव ने जवाब दिया.
“नहीं, “ऊहू-ऊ” ये कम है. जैसे मिसाल के तौर पर मार्गारीता
पित्रोव्ना के बारे में पता है, कि अस्त्रोव्स्की ने कहा था, “बहुत अच्छी”. ये कैसा “ऊहू-ऊ”. शायद, गर्नस्ताएव
ने भी कोई काबिले तारीफ़ काम किया हो?
बम्बार्दव ने
कनखियों से मेरी ओर सतर्क दृष्टि से देखा, कुछ बुदबुदाया...
“इस बारे में
तुम्हें क्या बताऊँ? हुम्, हुम्...” और
अपना गिलास सुखाकर कहा, “हाँ तो अभी हाल ही में गर्नस्ताएव
ने सबको इस तथ्य से चौंका दिया, कि उसके साथ एक चमत्कार
हुआ...” और वह अपनी पैन केक पर मख्खन डालने लगा और इतनी देर तक डालता रहा, कि मैं चहका:
“खुदा के लिए
बात को न खींचो!”
“बढ़िया वाईन है नेपरौली,” बम्बार्दव ने फिर भी पुश्ती जोड़ ही दी, मेरी सहनशक्ति का इम्तेहान लेते हुए, और आगे बोला:
“ये बात हुई थी चार साल पहले, बसंत के आरम्भ में, और जैसा कि
अब मुझे याद आता है, उन दिनों गेरासिम निकलायेविच कुछ विशेष
रूप से प्रसन्न और उत्साहित था. आदमी यूं ही खुश नहीं था! अपने दिमाग़ में कोई
प्लान्स बना रहा था, कहीं जाना चाहता था, जवान भी हो रहा था. और आपसे कहना पडेगा, कि वह
थियेटर से दीवानगी की हद तक प्यार करता है. मुझे याद है, उस
समय वह कहा करता था: “ऐह, मैं कुछ पिछड़ गया, पहले मैं पश्चिम के थियेटर की ज़िंदगी की खोज खबर रखता था, हर साल विदेश
जाता था, खैर, स्वाभाविक है, हर बात की खबर रखता था, कि जर्मनी के, फ्रांस के
थियेटर में क्या हो रहा है! फ्रांस क्या चीज़ है, सोचिये, अमेरिका के थियेटर की उपलब्धियों के बारे में देख लेता था.”
“तो तुम,” उससे कहते, “एक आवेदन पत्र दे
दो और चले जाओ”. एक कोमल मुस्कान बिखेरता.
“किसी हालत में नहीं,”
वह कहता, “ आजकल आवेदन पत्र देने के लिए सही समय नहीं है!
क्या मैं इस बात की इजाज़त दूंगा, कि मेरी वजह से सरकार
बहुमूल्य मुद्रा बेकार ही में खर्च करे? बेहतर है, कि कोई
इंजीनियर चला जाए या कोई व्यवसाय प्रबंधक !”
“तंदुरुस्त, असली इंसान ! तो..(बम्बार्दव वाईन से लैम्प के प्रकाश
की तरफ देख रहा था, उसने एक बार और वाईन की तारीफ़ की) तो, एक महीना बीता, असली बसंत आ पहुंचा. तभी परेशानी
आरम्भ हो गयी. एक बार गेरासिम निकलायेविच अव्गूस्ता अव्देयेव्ना के कार्यालय में
आया. चुपचाप रहा. उसने गेरासिम निकलायेविच की तरफ़ देखा, उसका
चेहरा फ़क पड़ गया था, नैपकिन की तरह सफ़ेद हो रहा था, आखों में मातम छाया था.
“आपको क्या हुआ
है, गेरासिम निकलायेविच?”
“कुछ नहीं,” उसने जवाब दिया, आप ध्यान मत
दीजिये.”
खिड़की के पास
गया, कांच पर उँगलियों से टकटक करता
रहा, सीटी पर कोई बेहद मातमी और भयानक रूप से परिचित धुन
बजाता रहा. शायद, शोपेन का अंतिम संस्कार . उससे रहा नहीं
गया, उसका दिल
मानवता के लिए दुखी होने लगा, वह उठी: “ये क्या है? क्या बात है?”
वह उसकी तरफ़
मुड़ा, कुटिलता से मुस्कुराया और बोला:
“कसम खाओ कि तुम किसी को नहीं बताओगी!” उसने, स्वाभाविक रूप
से फ़ौरन कसम खाई. “मैं अभी डॉक्टर के पास गया था, और उसने
निदान किया कि मुझे फेफड़े का कैंसर है”. वह मुड़ा और बाहर चला गया.
“ओह, ये बात है....” मैंने हौले से कहा, और मुझे बहुत बुरा लगा.
“क्या कह सकते
हैं!” बम्बार्दव ने पुष्टि की. “तो,
अव्गूस्ता अव्देयेव्ना ने फ़ौरन कसम देकर ये बात गव्रीला स्तिपानविच को बताई, उसने अपनी पत्नी को, पत्नी ने एव्लाम्पिया पित्रोव्ना को; संक्षेप में, दो घंटे बाद दर्जी के विभाग के
प्रशिक्षार्थी भी जान गए कि गेरासिम निकलायेविच की कलात्मक गतिविधियाँ समाप्त हो
चुकी हैं, और चाहें तो अभी भी पुष्पचक्रों का ऑर्डर दिया जा
सकता है. चाय वाले बुफ़े में, तीन घंटे बाद कलाकार इस बात पर चर्चा कर रहे थे, कि
गेरासिम निकलायेविच की भूमिकाएँ किसे दी जायेंगी.
इस बीच
अव्गूस्ता अव्देयेव्ना ने फ़ोन उठाया और इवान वसील्येविच के पास गई. ठीक तीन दिन बाद अव्गूस्ता
अव्देयेव्ना ने गेरासिम निकलायेविच को फ़ोन करके कहा: “मैं अभी आपके पास आ रही
हूँ”. और, सचमुच में, आ गई.
गेरासिम निकलायेविच चीनी गाऊन पहने सोफ़े पर लेटा था, बिलकुल
मौत की तरह पीला पड़ गया था, मगर गर्वीला और शांत था.
अव्गूस्ता
अव्देयेव्ना - कामकाजी महिला है और उसने सीधे मेज़ पर लाल किताब और चेकबुक – दन् से
पटक दी!
गेरासिम
निकलायेविच थरथरा गया और बोला:
“आप लोग निर्दयी
हैं. मैं ऐसा तो नहीं चाहता था. अनजान देश में मरने में क्या तुक है?”
अव्गूस्ता
अव्देयेव्ना एक दृढ़ महिला और एक असली सचिव है! उसने मरते हुए आदमी के शब्दों पर कोई
ध्यान नहीं दिया और चिल्लाई:
“फादेय!”
और फ़ादेय, गेरासिम निकलायेविच का विश्वासपात्र और समर्पित सेवक
था.
फादेय फ़ौरन
हाज़िर हो गया.
“ट्रेन दो घंटे
बाद जाती है. गेरासिम निकलायेविच के लिए कंबल! अंतर्वस्त्र. सूटकेस. टॉयलेट का
आवश्यक सामान. चालीस मिनट बाद कार आयेगी.”
अभिशप्त आदमी ने
सिर्फ आह भरी, हाथ हिला दिया.
“कहीं, या तो स्विट्ज़रलैंड की सीमा पर,
मतलब, आल्प्स में...” बम्बार्दव ने माथा पोंछा, “एक लब्ज़ में, ये ज़रूरी नहीं है. समुद्र से तीन
हज़ार मीटर्स की ऊंचाई पर विश्वप्रसिद्ध प्रोफ़ेसर क्ली का अल्पाईन हॉस्पिटल है.
वहां सिर्फ अत्यंत आशाहीन परिस्थितियों में ही जाते हैं. मरीज़ या तो मर जाता है, या चला जाता है. इससे ज़्यादा बुरा नहीं होगा, बल्कि, ऐसा भी होता है, कि चमत्कार भी हुए हैं. खुले
बरामदे में, बर्फ से ढंकी चोटियों की पार्श्वभूमि में, क्ली ऐसे आशाहीन लोगों को रखता है, उन्हें कुछ
सर्कोमैटिन के इंजेक्शन देता है, ऑक्सीजन सूंघने पर मजबूर
करता है, और ऐसा होता, कि क्ली साल भर
के लिए मौत को टालने में कामयाब हो जाता.
पचास मिनट बाद
गेरासिम निकलायेविच को, उसकी ख्वाहिश के मुताबिक़ थियेटर के सामने से ले जाया गया,
और दिम्यान कुज़्मिच ने बाद में बताया कि,
उसने देखा, कि कैसे गेरासिम निकलायेविच ने हाथ उठाकर थियेटर
को आशीर्वाद दिया, और फ़िर कार बेलारुस्को-बाल्टिक स्टेशन की
ओर निकल गई.
अब गर्मियां आ
गईं, और ये अफ़वाह फैल गई, कि गेरासिम निकलायेविच की मृत्यु हो गयी है. तो, लोगों
ने गपशप की, सहानुभूति प्रकट की...मगर गर्मियाँ...कलाकार
अपनी-अपनी यात्रा पर निकल रहे थे, उनका दौरा शुरू हो रहा था...तो, किसी को बहुत ज़्यादा दुःख नहीं हुआ...इंतज़ार कर रहे थे, कि गेरासिम निकलायेविच का मृत शरीर बस ला ही रहे होंगे...इस बीच कलाकार चले
गए, सीज़न समाप्त हो गया, और मुझे आपको बताना होगा, कि हमारा प्लीसव...”
“ये वही है ना, मूंछों वाला प्यारा-सा?” मैंने पूछा, “जो गैलरी में
है?”
“वो ही,” बम्बार्दव ने पुष्टि की और आगे कहा:
“तो, उसे थियेटर की मशीनरी
का अध्ययन करने के लिए पैरिस की बिज़नेस ट्रिप की इजाज़त मिल गयी. ज़ाहिर है, फ़ौरन ज़रूरी कागज़ात भी प्राप्त कर लिए, और निकल गया.
प्लीसव, मुझे आपको बताना होगा, कि एक
बेहद मेहनती कलाकार है, और उसे अपने ‘टर्निंग सर्कल’ से बेहद
प्यार है. सबको उससे बेहद ईर्ष्या हो रही थी. हरेक को पैरिस जाने की ख्वाहिश रहती
है... “किस्मतवाला है!” सभी ने कहा. किस्मतवाला हो, या अभागा, खैर उसने कागजात लिए और पैरिस चला गया, ठीक उसी समय, जब गेरासिम निकलायेविच की मौत की खबर आई थी. प्लीसव – ख़ास किस्म का आदमी
है और उसने चालाकी से काम किया, पैरिस पहुँचने पर उसने एफिल टॉवर भी नहीं देखा.
उत्साही कार्यकर्ता है. पूरे समय स्टेजों के नीचे ‘होल्ड्स’ में बिताया, जो भी ज़रूरी थी, उस चीज़ का अध्ययन किया, लालटेनें खरीदीं, सब कुछ ईमानदारी से किया. आखिर, उसे भी जाना था. तब उसने पैरिस घूमने का फैसला किया, कम से कम मातृभूमि लौटने से पहले एक नज़र ही डाल लेता. पैदल चला, बसों में गया, ज़्यादातर मिमिया कर अपनी बात समझाता
रहा, और, आखिरकार उसे जानवर की तरह भूख
लग आई, कहीं गया, शैतान जाने कहाँ.
सोचा, “रेस्टॉरेंट में जाता हूँ, कुछ खा लूंगा”. रोशनी दिखाई
देती है. उसे महसूस हुआ कि वह कहीं शहर के मध्य में है,
ज़ाहिर है, सब कुछ सस्ता था. भीतर गया,
वाकई में औसत दर्जे का रेस्टॉरेंट था. देखा – और जैसे खड़ा था, वैसे ही जम गया.
देखता क्या है: छोटी सी मेज़ के पीछे,
टक्सीडो पहने, बटनहोल में एक फूल खोंसे, मृतक गेरासिम निकलायेविच बैठा है, और उसके साथ दो
फ्रांसीसी लड़कियां थीं, जो ठहाके लगाते हुए दुहरी हो रही
थीं. और उनके सामने मेज़ पर बर्फ के फूलदान में शैम्पेन की बोतल रखी है और कुछ फल
हैं.
प्लीसव सीधे चौखट से लटक गया. “ये नहीं हो सकता! सोचा, “मुझे, शायद भ्रम हुआ हो. गेरासिम निकलायेविच यहाँ
आकर ठहाके नहीं लगा सकता. वह सिर्फ एक ही जगह पर हो सकता है,
नवदेविच्ये कब्रिस्तान में!”
खड़ा है, आंखें फाड़े,
मृतक से भयानक साम्य रखने वाले इस व्यक्ति को घूर रहा है, और
वह उठता है, उसके चेहरे पर पहले तो घबराहट दिखाई दी, प्लीसव को ऐसा भी प्रतीत हुआ, मानो वह उसे
देखकर अप्रसन्न है, मगर बाद में स्पष्ट
हुआ कि गेरासिम निकलायेविच को सिर्फ आश्चर्य हुआ था. और ये वो ही था, गेरासिम
निकलायेविच ने फ़ौरन फुसफुसाकर अपनी फ्रांसीसी लड़कियों से कुछ कहा, और वे फ़ौरन गायब
हो गईं.
प्लीसव को तभी होश आया, जब गेरासिम निकलायेविच ने उसे चूमा. और तब सब
कुछ स्पष्ट हो गया. गेरासिम निकलायेविच की बात सुनते हुए प्लीसव सिर्फ चीख रहा था:
“अच्छा, आगे!” और वाकई में, आश्चर्यजनक बातें ही हुई थीं.
गेरासिम निकलायेविच को इन्हीं आल्प्स में ऐसी हालत में लाया गया, की क्ली ने सिर हिलाया और सिर्फ इतना कहा: “हुम्...”
खैर गेरासिम निकलायेविच को इस बरामदे में रखा गया. उसे दवा का इंजेक्शन लगाया गया.
ऑक्सीजन का तकिया रखा गया. आरंभ में तो मरीज़ की हालत और ज़्यादा खराब हो गयी, और इस
हद तक बिगड़ गई, कि, जैसा बाद में गेरासिम निकलायेविच को
बताया गया, कि क्ली के मन में आने वाले दिन के लिए अत्यंत
अप्रिय ख़याल उत्पन्न हो गए. क्योंकि दिल की धड़कन कम होती जा रही थी. मगर आने वाला
दिन अच्छी तरह गुज़र गया. उसी इंजेक्शन को दुहराया गया. परसों तो हालत और भी बेहतर
हो गयी. और आगे – विश्वास ही नहीं कर सकते. गेरासिम निकलायेविच सोफे पर बैठा , और
फिर उसने कहा: “मैं थोड़ा घूम-फिर लेता हूँ”. न सिर्फ सहायकों की. बल्कि क्ली की
आंखें भी गोल-गोल हो गईं. संक्षेप में, एक और दिन बाद
गेरासिम निकलायेविच बरामदे में घूम रहा था, चेहरा गुलाबी हो गया था, भूख बढ़ गयी...तापमान 36.80 , नब्ज़ सामान्य, दर्द का नामोनिशान भी नहीं था.
गेरासिम निकलायेविच बता रहा था,
कि उसे देखने के लिए आसपास के गाँवों से लोग आने लगे. शहरों से डॉक्टर्स आते, क्ली ने रिपोर्ट प्रस्तुत की, चिल्ला-चिल्लाकर कहा
कि ऐसी घटनाएँ एक हज़ार साल में एक बार होती हैं. गेरासिम निकलायेविच का पोर्ट्रेट मेडिकल
जर्नल में प्रकाशित करना चाहते थे, मगर उसने साफ़ इनकार कर
दिया – “मुझे हो-हल्ला पसंद नहीं है!”
इस बीच क्ली ने गेरासिम निकलायेविच से कहा, कि अब आल्प्स में उसके लिए करने को कुछ भी नहीं है, और वह गेरासिम निकलायेविच को पैरिस भेज रहा है,
जिससे वह झेले गए झटकों से कुछ निजात पा सके. तो इस तरह
गेरासिम निकलायेविच पैरिस पहुँच गया. और फ्रांसीसी लड़कियां – गेरासिम निकलायेविच
ने स्पष्ट किया, “ ये दो स्थानीय युवा डॉक्टर्स हैं, जो उसके बारे में लेख लिखने वाली हैं.” तो, ये बात
है.
“हाँ, ये तो चौंकाने वाली बात है!” मैंने टिप्पणी की. “फिर
भी, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि वह ठीक कैसे हो गया!”
“यही तो चमत्कार
है,” बम्बार्दव ने जवाब दिया,
“शायद, पहले ही इंजेक्शन के प्रभाव से गेरासिम निकलायेविच का
सर्कोमा घुलने लगा और आखिरकार पूरी तरह घुल गया!”
मैंने हाथ
नचाये.
“”बताइये!” मैं
चीखा, “आखिर ऐसा तो कभी नहीं होता!”
“एक हज़ार साल
में एक बार होता है,” बम्बार्दव ने जवाब
दिया और आगे बोला : “मगर, ठहरो, ये
पूरी बात नहीं है. शरद ऋतु में गेरासिम निकलायेविच नया सूट पहन कर आया, ठीक होकर, चेहरे का रंग सांवला हो गया था – उसके पैरिस के डॉक्टरों ने उसे पैरिस के
बाद समुद्र तट पर भी भेजा. चाय के बुफे में समुद्र के बारे में, पैरिस के बारे में, आल्प्स के डॉक्टर्स के बारे
में, और अन्य किस्से सुनते हुए, लोग बिल्कुल गुच्छों की तरह गेरासिम पर झूल जाते
थे. तो सीज़न हमेशा की तरह चल रहा था, गेरासिम निकलायेविच
अभिनय कर रहा था, और यह मार्च तक खिंच गया...और मार्च में
अचानक गेरासिम निकलायेविच ‘लेडी मैकबेथ’ की रिहर्सल पर छड़ी का
सहारा लिए आया. “क्या हुआ?” – “कुछ नहीं, न जाने क्यों कमर में कुछ चुभ रहा है”. तो, चुभता
रहा, चुभता रहा. कुछ देर चुभता है – फिर रुक जाता है. मगर
पूरी तरह दर्द ख़त्म नहीं होता. आगे – और ज़्यादा...नीले रंग के प्रकाश से कोई फ़ायदा नहीं होता...अनिद्रा, पीठ के बल सो नहीं सकता. देखते-देखते दुबला होने लगा. पेंटापोन. कोई
फ़ायदा नहीं! तो, बेशक, डॉक्टर के पास
गया. और कल्पना कीजिए...”
बम्बार्दव
होशियारी से कुछ देर रुका और उसने ऐसी आंखें बनाईं,
कि मेरी पीठ में ठंडक दौड़ गयी.
“और कल्पना
कीजिये...डॉक्टर ने उसे देखा,
मसला, आंख मारी...गेरासिम निकलायेविच ने उससे कहा: “डॉक्टर, खींचिए नहीं, मैं कोई औरत नहीं हूँ, दुनिया देख चुका हूँ...बताइये – क्या ये वही है?
वही!!” – बम्बार्दव भर्राए गले से चीखा और
एक घूँट में गिलास पी गया. सर्कोमा फिर से आ गया था! दाईं किडनी में फ़ैल गया था, और गेरासिम निकलायेविच को खाने लगा था! ज़ाहिर है – सनसनीखेज़ बात थी.
रिहर्सल जाए भाड़ में, गेरासिम निकलायेविच को – घर भेज दिया
गया. तो, इस बार सब कुछ ज़्यादा आसान था. अब उम्मीद थी. फिर
से तीन दिन में पासपोर्ट, टिकट, आल्प्स
पर, क्ली के पास. वह गेरासिम निकलायेविच से किसी सगे-संबंधी
की तरह मिला. क्या बात है! गेरासिम निकलायेविच के सार्कोमा ने प्रोफ़ेसर को पूरे
विश्व में प्रसिद्ध कर दिया! फिर से बरामदे में, फिर
इंजेक्शन – और वही इतिहास! चौबीस घंटे बाद दर्द कम हो गया,
दो दिन बाद गेरासिम निकलायेविच बरामदे में घूमने लगा, और तीन
दिन बाद उसने क्ली से पूछा – क्या वह टेनिस खेल सकता है! अस्पताल में क्या चलता है, समझ से बाहर है. बीमारों के झुण्ड के झुण्ड क्ली के पास आते हैं! जैसा कि
गेरासिम निकलायेविच ने बताया, दूसरे भवन का निर्माण होने
लगा. क्ली ने, संयमित विदेशी होने के बावजूद, गेरासिम निकलायेविच का तीन बार चुम्बन लिया और उसे,
ज़ाहिर है, आराम करने के लिए भेजा, मगर
इस बार पहले नीत्से, फिर पैरिस, और फिर
सिसिली.
और फिर से शरद
ऋतु में गेरासिम निकलायेविच वापस आया – हम अभी-अभी दन्बास की यात्रा से लौटे थे –
ताज़ा, हंसमुख,
तंदुरुस्त, सिर्फ सूट दूसरा था, पिछली
शरद ऋतु में चॉकलेट के रंग का था, और अब छोटे-छोटे चौखानों
वाला भूरा. तीन दिनों तक वह सिसिली के बारे में, और इस बारे में बताता रहा कि
मोन्टे कार्लो में बुर्झुआ लोग रुलेट कैसे खेलते हैं. कहता है, कि घृणित दृश्य है. फिर से सीज़न आया, और फिर से
बसंत के आते-आते वही किस्सा, मगर सिर्फ दूसरी जगह पर.
पुनरावृत्ति हुई थी, मगर सिर्फ बाएँ घुटने के नीचे. फिर से
क्ली, फिर से मदैराय, फिर अंत में – पैरिस। मगर इस बार
सर्कोमा के प्रकोप को लेकर कोई चिंता लगभग नहीं थी. सबको समझ में आ गया था, कि क्ली ने बचाने का तरीका ढूंढ निकाला था. पता चला कि प्रतिवर्ष
इंजेक्शन के प्रभाव से सर्कोमा की तीव्रता कम होती जाती है, और क्ली को उम्मीद है, और उसे इस बात में विश्वास है, कि और तीन चार
मौसमों के बाद, गेरासिम निकलायेविच का शरीर खुद ही सर्कोमा
के कहीं भी प्रकट होने के प्रयास का सामना कर सकेगा. और सचमुच में, पिछले से पिछले साल वह सिर्फ ‘मैक्सिलरी कैविटी’
में हल्के-से दर्द के रूप में प्रकट हुआ और क्ली के पास जाते ही फ़ौरन गायब हो गया.
मगर अब गेरासिम निकलायेविच को सबसे कड़े और निरंतर पर्यवेक्षण में रखा गया, और चाहे दर्द हो या न हो, मगर अप्रैल में उसे भेज
ही देते हैं.
“चमत्कार!”
मैंने, न जाने क्यों आह लेकर कहा. इस बीच हमारी दावत, जैसा कहते हैं, किसी पहाड़ की तरह फैलती गई. वाईन के कारण सिर बोझिल
हो गए, बातचीत और ज़्यादा जोश से, और, ख़ास बात, खुल्लमखुल्ला होने लगी. ‘तुम बहुत दिलचस्प, चौकस और दुष्ट आदमी हो,’ – मैंने बम्बार्दव के बारे में सोचा, ‘और मुझे
बेहद पसंद हो, मगर तुम चालाक और छुपे रुस्तम हो, और तुम्हें ऐसा बनाया है तुम्हारी थियेटर की ज़िंदगी ने...’
“ऐसे न बनो!’
मैंने अचानक अपने मेहमान से कहा. “मुझे बताइये,
आपके सामने स्वीकार करता हूँ – मुझे बहुत तकलीफ होती है...क्या मेरा नाटक इतना
बुरा है?”
“आपका नाटक,” बम्बार्दव ने कहा, “अच्छा है.
और बस.”
“तो फिर क्यों, फिर कार्यालय में मेरे साथ ये विचित्र और डरावनी घटना
हुई? क्या उन्हें नाटक पसंद नहीं आया?”
“नहीं,” बम्बार्दव ने दृढ़ आवाज़ में कहा, “बल्कि इसके विपरीत
ही हुआ. ये सब इसलिए हुआ क्योंकि वह उन्हें पसंद आया. और बेहद पसंद आया.”
“मगर इप्पालित पाव्लविच...”
“सबसे ज़्यादा वह
इप्पालित पाव्लाविच को पसंद आया,”
बम्बार्दव ने हौले से, मगर दृढ़ता से,
साफ़-साफ़ कहा, और मुझे ऐसा लगा, कि, उसकी आंखों में सहानुभूति है.
“पागल हो
जाऊंगा...” मैं फुसफुसाया.
“नहीं, पागल होने की ज़रुरत नहीं है...आप सिर्फ नहीं जानते
हैं, कि थियेटर क्या होता है. दुनिया में क्लिष्ट मशीनें
होती है, मगर थियेटर सबसे ज़्यादा क्लिष्ट है...”
“बोलिए! बोलिए!”
मैं चीखा और मैंने सिर पकड़ लिया.
“नाटक इतना
अच्छा लगा, कि उसने भय भी
उत्पन्न कर दिया,” बम्बार्दव कहने लगा,
“इसी कारण घबराहट भी हुई. जैसे ही वे नाटक से परिचित हुए, और
वरिष्ठों को इस बारे में पता चला, उन्होंने फ़ौरन आपस में
भूमिकाएँ भी बाँट लीं. बख्तिन की भूमिका के लिए इप्पोलित पाव्लविच का चयन किया
गया. पित्रोव की भूमिका वलेन्तीन कन्रादविच को देने का निश्चय किया.”
“कौनसे ...वाले...वो, जो...”
“हाँ, हाँ...वही.”
“मगर, माफ़ कीजिये,” मैं सिर्फ
चिल्लाया ही नहीं, बल्कि दहाड़ा.” मगर...”
“हाँ, हाँ, ठीक कहते हो...” ज़ाहिर है, मुझे आधे ही
शब्द से समझने वाले बम्बार्दव ने कहा, “इप्पोलित पाव्लविच
इकसठ साल का है, वलेन्तीन कन्रादविच – बासठ साल
का...तुम्हारे सबसे बड़े नायक बख्तिन की उम्र कितनी है?”
“अट्ठाईस!”
“यही तो, यही तो. तो, जैसे ही वरिष्ठों
को नाटक की प्रतिलिपियाँ भेजी गईं, तो मैं आपको बता नहीं
सकता, कि क्या-क्या हुआ. हमारे थियेटर के पचास साल के अस्तित्व में ऐसा कभी नहीं
हुआ. वे सभी नाराज़ हो गए.”
“किस पर?’ भूमिकाएँ वितरित करने वाले पर?”
“नहीं. लेखक पर.”
मेरे सामने उसे
घूरने के अलावा कोई और चारा नहीं था,
जो मैंने किया, और बम्बार्दव कहता रहा:
“लेखक पर. वाकई
में – वरिष्ठ कलाकारों के समूह ने यह तर्क दिया : “हम ढूंढ रहे हैं, भूमिकाओं के लिए तरस रहे हैं, हम, संस्थापक सदस्य, आधुनिक नाटक में अपना सारा कौशल
दिखाकर खुश होते और...फरमाइए, नमस्ते! भूरा सूट आता है और
ऐसा नाटक लाता है, जिसमें लड़कों की भूमिकाएँ हैं! मतलब हम
उसे नहीं खेल सकते?! ये क्या बात हुई, क्या वह सिर्फ मज़ाक के
तौर पर उसे लाया था?! सबसे छोटे संस्थापक – गेरासिम
निकलायेविच की उम्र है सत्तावन साल.”
“मैं बिल्कुल
दावा नहीं करता कि संस्थापक ही मेरा नाटक खेलें!” मैं गरजा. – “नौजवानों को खेलने
दो!”
“ऐह, तूने कितनी आसानी से कह दिया!” बम्बार्दव चहका और
उसने शैतान जैसा चेहरा बनाया. “अच्छा, चलो, आर्गुनिन, गालिन, इलागिन, ब्लागास्वित्लोव, स्त्रेन्कोव्स्की, स्टेज पर आयें, झुक कर अभिवादन करें – शाबाश! ब्रेवो! हुर्रे! देखिये, भले लोगों, हम कितना लाजवाब अभिनय करते हैं! और
संस्थापक, मतलब, बैठे रहेंगे और
परेशानी से मुस्कुराते रहेंगे – मतलब, अब हमारी कोई ज़रुरत
नहीं है? मतलब, हमें किसी आश्रम में
भेज देना चाहिए? ही, ही, ही! बहुत आसान है! बहुत चतुराई से! बड़ी आसानी से!”
“सब समझ में आ
गया!” मैं भी शैतान जैसी आवाज़ में चिल्लाने की कोशिश करते हुए, चिल्लाया. “ सब समझ में आ गया!”
“इसमें समझ में
न आने जैसी क्या बात है?” बम्बार्दव ने मेरी
बात काटी. “आखिर इवान वसील्येविच ने आपसे
कहा तो था, कि दुल्हन को माँ में परिवर्तित कर दो, तब मार्गारीटा पाव्लव्ना या नस्तास्या इवानव्ना यह भूमिका कर लेती...”
“नस्तास्या इवानव्ना?!”
“आप थियेटर के
व्यक्ति नहीं हैं,” अपमानजनक मुस्कराहट
से बम्बार्दव ने जवाब दिया, मगर अपमान किसलिए, ये उसने नहीं समझाया.
“सिर्फ एक बात
बताइये,” मैंने तैश में आकर
कहा, “आन्ना की भूमिका वे किसे देना चाहते थे?”
“स्वाभाविक है, ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना प्र्याखिना को.”
अब न जाने क्यों
मुझ पर वहशत सवार हो गयी.
“क्या-आ? ये
क्या बात हुई?! ल्युद्मिला
सिल्वेस्त्रव्ना को?” मैं मेज़ के पीछे से उछला. “और आप हंस
रहे हैं!”
“तो क्या हुआ?” प्रसन्न उत्सुकता से बम्बार्दव ने पूछा.
“उसकी उम्र
कितनी है?”
“ये, माफ़ कीजिये, कोई नहीं जानता.”
“आन्ना की उम्र
उन्नीस साल है! उन्नीस साल! आप समझ रहे हैं?
मगर ये भी सबसे महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है, कि वह
भूमिका नहीं कर सकती!”
“आन्ना की?”
“न सिर्फ आन्ना
की, बल्कि वह कुछ भी नहीं कर सकती!”
“माफ़ कीजिये!”
“नहीं, माफ़ कीजिये! अभिनेत्री, जो
उत्पीड़ित और अपमानित व्यक्ति का रुदन व्यक्त करना चाहती थी,
और उसने उसे इस तरह प्रस्तुत किया कि बिल्ली तैश में आ गई और उसने पर्दा फाड़ दिया, कोई भी भूमिका नहीं कर सकती.
“बिल्ली – बदमाश
है,” – मेरे आवेश का लुत्फ़ उठाते हुए बम्बार्दव ने जवाब दिया, “उसका दिल बड़ा हो गया है, मायोकार्डाइटिस और
न्यूरोस्तेनिया. आखिर वह पूरे-पूरे दिन पलंग पर पड़ी रहती है,
लोगों को नहीं देखती है, तो, स्वाभाविक
है कि डर गई.”
“बिल्ली न्यूरोटिक
है, इस बात से मैं सहमत हूँ!” मैं
चीख़ा. “मगर उसकी भावना बिलकुल सही है, और वह दृश्य को
सही-सही समझती है. उसने झूठ सुना था! आप समझ रहे हैं, घिनौना
झूठ. वह चौंक गई! वैसे, इस सब नौटंकी का क्या मतलब है?”
“अस्तर बाहर आ
गया,” बम्बार्दव ने समझाया.
“इस शब्द का
क्या मतलब है?”
“अस्तर का मतलब, हमारी भाषा में हर उस तरह की गड़बड़ से है, जो स्टेज पर हो जाती है. अभिनेता, अचानक टेक्स्ट
में गलती कर देता है, या परदा समय पर बंद नहीं करते हैं, या...”
“समझ गया, समझ गया...”
“प्रस्तुत
परिस्थिति में दो व्यक्तियों को रखा गया – अव्गूस्ता अव्देयेव्ना और नस्तास्या
इवानव्ना. पहली ने, आपको इवान वसील्येविच
के पास छोड़ते हुए,
नस्तास्या इवानव्ना को आगाह नहीं किया कि आप वहां होंगे. और दूसरी ने, ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना को बाहर छोड़ते हुए, इस
बात की जांच नहीं की कि क्या इवान वसील्येविच के पास कोई है. हांलाकि, बेशक, अव्गूस्ता अव्देयेव्ना का दोष कम है – नस्तास्या इवानव्ना मशरूम्स के लिए
दुकान पर गई थी...”
“समझ गया, समझ गया,” मैंने भीतर से फूट
रही मेफिस्टोफ़ीलियन हंसी को दबाते हुए कहा, “सब कुछ अच्छी
तरह समझ में आ गया! मतलब, आपकी ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना
अभिनय नहीं कर सकती.”
“माफ़
कीजिये! मॉस्कोवासी ज़ोर देकर कहते हैं, कि अपने ज़माने में वह
बढ़िया अभिनय करती थी...”
“झूठ बोलते हैं आपके मॉस्कोवासी!” मैं चीखा. “वह रुदन और दुःख प्रदर्शित करती है, मगर उसकी आंखों से कड़वाहट फूटती है! वह नृत्य करती है और चीखती है
‘इन्डियन समर!’, और उसकी आंखें परेशान रहती हैं! वह मुस्कुराती है, और श्रोताओं की पीठ पर चींटियाँ रेंगने लगती हैं,
मानो उसकी कमीज़ के भीतर किसी ने नार्ज़न डाल दी हो! वह अभिनेत्री नहीं है!”
“फिर
भी! वह तीस वर्षों से इवान वसील्येविच के
‘अवतरण के सिद्धांत’ का अध्ययन कर रही है...”
“मैं
यह सिद्धांत नहीं जानता! मेरी राय में सिद्धांत ने उसकी कोई मदद नहीं की है!”
“आप, शायद, कहेंगे, कि इवान वसील्येविच
भी अभिनेता नहीं है?”
“आ, नहीं! नहीं! जैसे उसने दिखाया की बख्तिन ने कैसे खुद को
खंजर घोंप लिया, मैंने आह भरी: उसकी आंखें मुर्दा हो गईं! वह
दीवान पर गिर पडा, और मैंने उस आदमी को देखा जिसने खुद को
खंजर मारा था. इतने संक्षिप्त दृश्य से क्या निष्कर्ष निकाल सकते हो, मगर निष्कर्ष निकल सकता है, जैसे कि किसी महान गायक
को उसके द्वारा गाई गई एक पंक्ति से पहचाना जा सकता है, वह
स्टेज पर महान घटना है! मैं बिल्कुल नहीं समझ सकता कि वह नाटक की सामग्री के बारे
में क्या कहता है.”
“सब
अच्छा ही कहता है!”
“खंजर!!”
“इस
बात को समझिये, कि जैसे ही आप बैठे और नोटबुक खोली, उसने आप की बात
सुनना बंद कर दिया. हाँ, हाँ. वह इस बात के बारे में कल्पना कर रहा था, कि भूमिकाएँ कैसे वितरित करे, संस्थापकों का क्या
करे, जिससे संस्थापकों को समायोजित कर सके, क्या करे जिससे वे आपका नाटक खुद को नुक्सान पहुंचाए बिना प्रस्तुत कर
सकें...और आप न जाने कहाँ से किसी गोली-बारी के बारे में पढ़ रहे हैं. मैं हमारे
थियेटर में दस साल से काम कर रहा हूँ, और मुझे बताया गया था, कि हमारे थियेटर में सिर्फ एक बार, सन् उन्नीस सौ
एक में गोली-बारी हुई थी, और वह भी बेहद असफल रही थी. इस
नाटक में...भूल गया...प्रसिद्ध लेखक...खैर, ये ज़रूरी नहीं
है...संक्षेप में, दो परेशान अभिनेताओं का विरासत के कारण आपस में झगड़ा हो गया, लड़ते रहे, लड़ते रहे, जब तक कि एक
ने दूसरे को रिवॉल्वर से नहीं मार दिया, और वह भी...खैर, जब तक
साधारण रिहर्सल्स चल रही थीं, सहायक ताली बजाकर गोली-बारी का प्रदर्शन करता रहा, मगर ग्रैंड
रिहर्सल में, पार्श्व में, सचमुच में रिवॉल्वर चला दिया. तो, नस्तास्या
इवानव्ना की तबियत खराब हो गयी – उसने ज़िंदगी में कभी भी गोली चलने की आवाज़ नहीं
सुनी थी, और ल्युदमिला सिल्वेस्त्रव्ना को दौरा पड़ गया. तब से
गोली-बारी बंद कर दी गई है. नाटक में परिवर्तन किया गया, नायक गोली
नहीं चलाता था, बल्कि पानी का डिब्बा हिलाता और चिल्लाता, “मार डालूँगा
तुझे, बदमाश को!”
और पैर पटकता, जिससे, इवान वसील्येविच की राय में, नाटक सफल हो
गया. लेखक थियेटर पर बेहद गुस्सा हो गया और उसने तीन साल तक डाइरेक्टरों से बात
नहीं की, मगर इवान वसील्येविच अपनी राय पर
कायम रहे.
जैसे-जैसे नशे में धुत रात बीतती गयी, मेरा आवेग
ठंडा पड़ता गया, और मैं बम्बार्दव का ज़ोर-शोर से विरोध नहीं कर रहा था, बल्कि
ज़्यादा सवाल पूछ रहा था. नमकीन कैवियर और सेल्मन के बाद मुंह में आग जल रही थी, हम
चाय से अपनी प्यास बुझा रहे थे. कमरा, दूध की तरह धुएँ से भर गया, खुले वातायन
से बर्फीली हवा का झोंका तेज़ी से भीतर आ रहा था, मगर वह
ताज़गी नहीं दे रहा था, बल्कि ठंडक पैदा कर रहा था.
“आप मुझे बताइये, बताइये,” मैंने
कमजोर, खोखली आवाज़
में कहा, “फिर ऐसी हालत में, अगर उनके पास से नाटक नहीं निकलता
है, वे क्यों नहीं
चाहते कि मैं उसे किसी दूसरे थियेटर को दूं? उन्हें उसकी
ज़रुरत किसलिए है? किसलिए?”
“बढ़िया बात है! क्या किसलिए? हमारे
थियेटर के लिए ये बहुत दिलचस्प होगा, कि बगल में ही नया नाटक प्रदर्शित हो रहा है, जो, ज़ाहिर है
सफल होगा! आखिर क्यों! आपने तो कॉन्ट्रेक्ट में लिख दिया है कि नाटक किसी अन्य
थियेटर को नहीं देंगे?”
अब मेरे आंखों के सामने अनगिनत चमचमाती-हरी इबारतें
उछलने लगीं ‘लेखक को अधिकार नहीं है’ और कोई शब्द ‘होगा’...और अनुच्छेदों
के धूर्त आंकडे, याद आया चमड़े से ढंका कार्यालय, ऐसा लगा कि
इत्र की खुशबू आ रही है.
“ उसका धिक्कार हो!” मैं भर्राया.
“किसका?!”
“धिक्कार हो! गव्रील स्तिपानविच!”
“चील!” अपनी सूजी हुई आंखें चमकाते हुए बम्बार्दव चहका.”
“और कितना शांत है और हमेशा आत्मा के बारे में बात करता
है!...”
“भ्रम, बकवास, निरर्थक प्रलाप, निरीक्षण
शक्ति का अभाव!” बम्बार्दव चीख रहा था, उसकी आंखें दहक रही थीं, सिगरेट दहक रही थी, उसके नथुनों
से धुआँ निकल रहा था. “बेशक, चील. वह ऊंची चट्टान पर बैठता है, आसपास चालीस
किलोमीटर की दूरी पर देखता है. और जैसे ही कोई बिंदु दिखाई देता है, वह फड़फड़ाता
है, ऊपर उठता है
और अचानक पत्थर की तरह नीचे गिरता है! एक शिकायत भरी चीख,
घरघराहट...और वह आसमान की तरफ़ लपकता है, और शिकार उसे मिल
जाता है!”
“आप कवि
हैं, शैतान आपको ले जाए!” मैं भर्राया.
“और
आप,” हल्के से मुस्कुराते हुए, बम्बार्दव फुसफुसाया, “दुष्ट आदमी हैं! ऐह, सिर्गेई लिओन्तेविच, आपको बता रहा हूँ, कि आपको बहुत मुश्किल होगी...”
उसके
शब्द मुझे चुभ गए. मैं समझता था, कि मैं बिल्कुल भी
बुरा आदमी नहीं हूँ, मगर तभी भेड़िये की मुस्कान के बारे में लिकोस्पास्तव के
शब्द भी याद आ गए...
“मतलब,” उबासी लेते हुए मैंने कहा, “ मतलब, मेरा नाटक
नहीं चलेगा? मतलब, सब कुछ ख़त्म हो गया?”
बम्बार्दव
ने एकटक मेरी तरफ़ देखा और उसके स्वभाव के प्रतिकूल, आवाज़ में सौहार्द्र
लाते हुए कहा:
“सब
कुछ बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहो. आपको धोखे में नहीं रखूंगा. आपका नाटक नहीं
चलेगा. हाँ, अगर कोई चमत्कार न हो तो...”
खिड़की
के पीछे शरद ऋतु की गंदी, धूमिल भोर झाँक रही थी. मगर इस ओर ध्यान न देते हुए कि
प्लेट में बचे खुचे टुकड़े थे, प्लेटों में सिगरेट
के ठूंठों के ढेर थे, मैंने, इस सारी बेतरतीबी के बीच, एक बार फिर, न जाने किस अंतिम तरंग से प्रेरित होकर
सुनहरे घोड़े के बारे में एकालाप बोलना शुरू कर दिया.
मैं
अपने श्रोता के सामने यह चित्रित करना चाहता था कि घोड़े की सुनहरी दुम पर कैसे
सितारे चमचमाते हैं, कैसे स्टेज ठण्डी और अपनी खुशबू
छोड़ता है, हॉल में हंसी कैसे गूँजती है. मगर खास बात ये नहीं
थी. जोश में प्लेट को दबाते हुए, मैं पूरे जोश से बम्बार्दव
को इस बात का यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था, कि जैसे ही
मैंने घोड़े को देखा, मैं फ़ौरन दृश्य को और उसके सूक्ष्मतम
रहस्यों को समझ गया था. इसका मतलब ये कि, बहुत-बहुत पहले, हो सकता है, बचपन में, या हो
सकता है कि जन्म लेने से पहले, मैं सपने देखता था, अस्पष्ट रूप से उसके लिए तड़पता था. और मैं आ गया!
“मैं
नया हूँ,” मैं चिल्लाया , “मैं नया हूँ! मैं अपरिहार्य हूँ, मैं आ गया हूँ!”
फिर
मेरे गर्म दिमाग़ में कुछ पहिये घूमने लगे, और ल्युद्मिला
सिल्वेस्त्रव्ना उछल कर बाहर आई, गरजने लगी, लेस का रूमाल हिलाने लगी.
“वह
अभिनय नहीं कर सकती,” मैं गुस्से से भर्राया.
“मगर, माफ़ कीजिये!...ऐसा नहीं हो सकता.”
“कृपया
मेरी बात का विरोध न करें,” मैंने गंभीरता से
कहा, “आपको आदत हो गई है, मगर मैं तो
नया हूँ, मेरी राय तीखी और ताज़ा है! मैं उसके आरपार देख सकता
हूँ.”
“फिर
भी!”
“और
कोई भी सि...सिद्धांत किसी भी तरह की मदद नहीं कर सकता! और, वहां वो छोटा, चपटी नाक वाला, क्लर्क अभिनय कर रहा
है, उसके हाथ सफ़ेद हैं, आवाज़ भर्राई
हुई है, मगर उसे किसी सिद्धांत की ज़रुरत नहीं है, और ये, काले दस्तानों में खूनी की भूमिका निभाने
वाला...उसे सिद्धांत की ज़रुरत नहीं है!”
“अर्गुनीन...”
धुएँ के परदे के पीछे से मुझ तक घुटी-घुटी सी आवाज़ पहुँची.
“कोई
सिद्धांत होता ही नहीं है!” पूरी तरह अहंकार से व्याप्त, मैं चीखा और दांत भी किटकिटाने लगा और तभी अकस्मात् मैंने देखा, कि मेरे भूरे जैकेट पर प्याज का टुकड़ा चिपका एक बड़ा तेल का धब्बा है.
मैंने परेशानी से चारों ओर देखा. रात का कहीं नामोनिशान भी नहीं था. बम्बार्दव ने
लैम्प बुझा दिया, और नीले आसमान में सभी वस्तुएं अपनी समूची
कुरूपता में दिखाई देने लगीं.
रात
खा ली गई थी, रात चली गई थी.
अध्याय 14
रहस्यमय चमत्कारकर्ता
मनुष्य की स्मरणशक्ति आश्चर्यजनक रूप से बनी है.
जैसे, शायद, लगता है कि ये सब अभी हाल
में हुआ है, मगर, फिर भी घटनाओं को सुसंगत और क्रमबद्ध तरीके
से पुनर्स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है. शृंखला से कड़ियां बिखर गईं! कुछेक
घटनाएं याद आती हैं, जैसे सीधे आंखों के सामने प्रकाशित हो रही हैं, और शेष बिखर गई हैं, टूट गई हैं, और सिर्फ एक धूल का कण और कोई बारिश ही
स्मृति में बची है. हाँ, वैसे, धूल का
कण तो है. बारिश? बारिश?
तो, शायद उस नशे वाली रात के बाद शायद एक महीना बीता था, नवम्बर का महीना था. तो, बर्फ के साथ-साथ चिपचिपी
बर्फ भी गिर रही थी. खैर, मैं समझता हूँ, कि आप मॉस्को को
जानते हैं. शायद, उसका वर्णन करने के लिए कुछ भी नहीं है.
नवम्बर में उसके रास्तों पर हालत बेहद खराब होती है. और बिल्डिंगों में भी अच्छा
नहीं होता. मगर ये तो आधी ही मुसीबत होती, ज़्यादा बुरी हालत
तब होती है, जब घर पर हालात ठीक न हों. आप मुझे बताइये, की कपड़ों से दाग कैसे हटाएँ? मैंने हर तरह से कोशिश कर ली, हर चीज़ का
प्रयोग करके देख लिया. और आश्चर्यजनक बात : उदाहरण के लिए,
कपड़े को बेंज़ीन में भिगोते हो, और आश्चर्यजनक परिणाम – धब्बा
पिघल जाता है, पिघल जाता है और गायब हो जाता है. आदमी खुश है, क्योंकि कपड़े पर दाग़ जितनी पीड़ा कोई और चीज़ नहीं देती. गंदी चीज़ है, बुरी चीज़ है, दिमाग़ खराब कर देती है. कोट खूंटी पर
लटकाते हो, सुबह उठते हो - धब्बा अपनी पहले वाली जगह पर ही
है, और उसमें से थोड़ी-थोड़ी बेंज़ीन की गंध आ रही है. ठीक यही
बात चाय पीने के बाद बचे डिकाक्शन के साथ भी है, यूडीकलोन के साथ भी. क्या
शैतानियत है! गुस्सा करना शुरू करते हो, अपने आप को चिकोटी
काटते हो, मगर कुछ नहीं कर सकते. नहीँ,
जिसने कपड़े पर दाग लगाया है, वह उसके साथ ही तब तक घूमता
रहेगा, जब तक कि कपड़ा ख़ुद ही सड़ न जाए और उसे हमेशा के लिए
फेंक न दिया जाए. मुझे तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता – मगर औरों के लिए दुआ करता हूँ,
कि उनके साथ ऐसा कम से कम हो.
तो, मैं धब्बा हटा रहा था और उसे नहीं हटाया, फिर, याद
आता है, कि मेरे जूतों के फीते टूटते रहे, मैं खांसता रहा और हर रोज़ ‘बुलेटिन’ के दफ़्तर में
जाता रहा, नमी और अनिद्रा से परेशान था, और भगवान जाने, जो भी मिलता, पढ़ता रहता. परिस्थितियाँ
कुछ ऐसी बनीं, कि मेरे निकट कोई लोग ही नहीं बचे.
लिकास्पास्तव किसी कारण से कॉकेशस चला गया, मेरे दोस्त का, जिसका रिवॉल्वर मैंने चुरा लिया था, तबादला लेनिनग्राद कर दिया गया, और बम्बार्दव गुर्दों की सूजन से बीमार हो गया और उसे अस्पताल में दाख़िल
कर दिया गया. कभी कभी मैं उससे मिलने चला जाता, मगर उसे
थियेटर के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं थी. और वह समझ रहा था,
कि ‘ब्लैक स्नो’ वाली घटना के बाद इस विषय को छूना ठीक नहीं
है, मगर गुर्दों के बारे में बात की जा सकती है, क्योंकि यहाँ हर तरह की सांत्वना की गुंजाइश है. इसीलिये हम गुर्दों के
ही बारे में बात करते, यहाँ तक कि क्ली को भी मज़ाक में याद
करते, मगर फिर भी यह अप्रिय था.
मगर, हर बार, जब मैं बम्बार्दव से मिलता, मैं थियेटर को याद करता, मगर उससे इस बारे में कुछ
भी न पूछने की पर्याप्त इच्छाशक्ति मुझमें थी. मैंने अपने आप से कसम खाई थी कि
थियेटर के बारे में कुछ भी नहीं सोचूंगा, मगर यह कसम
हास्यास्पद थी. सोचने पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता. मगर थियेटर के बारे में
जानकारी प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध लगाना संभव है. और इसी पर मैंने प्रतिबन्ध
लगाया था.
और थियेटर तो जैसे मर गया था और अपने बारे में कोई भी
जानकारी नहीं दे रहा था. मैं, फ़िर से दुहराता हूँ, कि मैं
लोगों से अलग-थलग पड़ गया था. मैं पुरानी किताबों की दुकानों में जाता और कभी-कभी
उकडूं बैठ जाता, आधे अँधेरे में, धूल भरी पत्रिकाएँ छानता रहता और, मुझे याद है, कि मैंने एक
अद्भुत तस्वीर देखी...आर्क डी ट्रायम्फ...
इस
बीच बारिश रुक गई, और एकदम अप्रत्याशित रूप से पाला गिरने लगा. मेरी अटारी
में खिड़की पर एक डिजाईन बन गया, और,
खिड़की के पास बैठे-बैठे और दो कोपेक के सिक्के पर सांस छोड़ते हुए, और उसकी बर्फ बन चुकी सतह पर अंकित करते हुए, मैं
समझ गया, कि नाटक लिखना और उसका मंचन न करना – असंभव है.
मगर
शामों को फर्श के नीचे से वाल्ट्ज़ सुनाई देता, एक ही और वो ही (कोई
उसे याद कर रहा था), और यह वाल्ट्ज़ डिब्बे में तस्वीरें पैदा कर रहा था, काफ़ी अजीब और दुर्लभ. जैसे, मिसाल के तौर पर, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की नीचे अफ़ीमचियों का अड्डा था, और कुछ और भी हो रहा था, जिसे मैंने खयालों में नाम
दिया – ‘तीसरा अंक”. ठीक वही भूरा धुँआ, असममित चेहरे वाली महिला, कोई एक फ्रॉक-कोट वाला आदमी, धुँए के ज़हर से
प्रभावित, और उसकी तरफ़ चोरी-छुपे बढ़ता हुआ, तेज़ धार वाला फिनिश चाकू हाथ में लिए, नींबू जैसे
चेहरे और तिरछी आँखों वाला आदमी.
चाकू
का वार, खून की धार. बकवास, जैसा कि आप
देख रहे हैं! बकवास! और ऐसे नाटक को कहाँ ले जाऊं, जिसमें
तीसरा अंक इसी तरह का है?
हाँ, मैंने सोची हुई बात नहीं लिखी. सवाल ये उठता है,
बेशक, और सबसे पहले वह मेरे दिमाग़ में ही उठता है – किसी आदमी
ने, जिसने खुद को अटारी में दफ़न कर दिया हो, जिसने एक बड़ी विफ़लता का सामना किया हो, और जो उदास
प्रवृत्ति का भी हो (ये तो मैं समझता हूँ, परेशान न हों), आत्महत्या
करने का दूसरा प्रयत्न न किया हो?
सीधे-सीधे
स्वीकार करता हूँ: पहले अनुभव ने इस हिंसक कृत्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी. ये, अगर मेरे बारे में कहा जाए तो. मगर वास्तविक कारण, बेशक, ये नहीं है. हर चीज़ का अपना समय होता है. खैर इस विषय पर विस्तार से
विचार नहीं करेंगे.
जहाँ
तक बाहरी दुनिया का सवाल है, तो उससे स्वयँ को
पूरी तरह अलग-थलग करना असंभव था, और वह अपने होने का एहसास
दे रही थी, क्योंकि उस काल-खंड में, जब
मैं गवरीला स्तिपानविच से कभी पचास, तो कभी सौ रुबल्स
प्राप्त कर रहा था, मैंने तीन थियेटर की पत्रिकाओं और
‘ईवनिंग मॉस्को’ की सदस्यता ली थी.
और
इन पत्रिकाओं के अंक काफ़ी नियमित रूप से आते थे. “थियेटर न्यूज़” विभाग देखते हुए
मैं अपने परिचितों के बारे में समाचारों से रूबरू हो जाता था.
तो, पंद्रह दिसंबर को मैंने पढ़ा:
“सुप्रसिद्ध
लेखक इस्माईल अलेक्सान्द्रविच बोन्दरेवस्की उत्प्रवासन के जीवन पर आधारित नाटक
“मोन्मार्त्र के चाकू” समाप्त कर रहे हैं. सूत्रों के अनुसार, ये नाटक लेखक द्वारा ‘पुराने थियेटर’ को दिया
जाएगा.”
सत्रह
तारीख को मैंने अखबार खोला और इस खबर से टकराया:
“प्रसिद्ध
लेखक ई. अगाप्योनव ‘मित्र-समूह थियेटर’ के आदेश से कॉमेडी ‘देवर’ पर कड़ी मेहनत कर
रहे हैं.”
बाईस
तारीख को छपा था: “नाटककार क्लिन्केर ने हमारे सहयोगी के साथ बातचीत में नाटक के
बारे में समाचार दिया, जिसे वह “स्वतन्त्र थियेटर” को
देना चाहते हैं. अल्बेर्त अल्बेर्तोविच ने सूचित किया, कि
उनका नाटक कसीमव के नेतृत्व में गृह युद्ध का व्यापक चित्रण है. नाटक का शीर्षक मोटे
तौर पर होगा “हमला”.
और
फिर आगे तो जैसे सैलाब ही आ गया: इक्कीस को, और चौबीस को, और छब्बीस को. अखबार – और उसमें तीसरे पृष्ठ पर एक जवान आदमी की धुंधली
तस्वीर, असाधारण उदास सिर वाला और जैसे किसी को टक्कर मार
रहा हो, और सूचना कि यह ई. एस. प्रोक का नाटक है जो तीसरा
अंक समाप्त कर रहा है.
झ्वेन्का
अनीसिम, अन्बाकोमव. चौथा, पांचवां अंक. दो जनवरी को और मैं
नाराज़ हो गया. वहां यह छपा था: “सलाहकार एम. पानिन ने ‘स्वतन्त्र थियेटर’ में नाटककारों के समूह की मीटिंग आयोजित की है. विषय है – ‘स्वतन्त्र
थियेटर’ के लिए आधुनिक नाटक की रचना.” इस ‘नोट’ का शीर्षक था: ‘वक्त आ गया है, कब से वक्त आ गया है!”,
और उसमें ‘स्वतन्त्र थियेटर’ के प्रति इस बात पर खेद और
तिरस्कार व्यक्त किया था, कि वह सभी थियेटरों में अकेला ऐसा
थियेटर है जिसने अभी तक एक भी आधुनिक नाटक का मंचन नहीं किया है, जो हमारे युग पर प्रकाश डाल सके. “मगर फिर भी,”
अखबार ने आगे लिखा था, - “सिर्फ वही और प्रमुख रूप से वही, कोई और नहीं, समुचित रूप से आधुनिक नाटककार की रचना
को प्रस्तुत कर सकता है, अगर इस प्रस्तुति की ज़िम्मेदारी ऐसे
महारथी लेते हैं, जैसे इवान वसील्येविच और
अरिस्तार्ख प्लतोनविच.”
आगे
नाटककारों की निष्पक्ष रूप से निंदा की गयी थी, जिन्होंने अब तक
‘स्वतन्त्र थियेटर’ के लिए योग्य नाटक की रचना नहीं की थी.
मैंने
अपने आप से बोलने की आदत डाल ली थी.
“माफ़
कीजिये,” अपमान से होंठ फुलाते हुए मैं बड़बड़ाया, - “ऐसा कैसे
किसी ने नाटक नहीं लिखा? और पुल? और
हारमोनियम? कुचली हुई बर्फ पर खून?”
खिड़की
से बाहर बवंडर चिंघाड़ रहा था, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ,कि खिड़की के पीछे वही नासपीटा
पुल है, कि हार्मिनियम गा रहा है और सूखी गोलीबारी सुनाई दे
रही थी.
गिलास
में चाय ठंडी हो रही थी, अखबार के पृष्ठ से मेरी ओर गलमुच्छों वाला चेहरा देख रहा
था. नीचे अरिस्तार्ख प्लतोनविच द्वारा मीटिंग के लिए भेजा गया टेलीग्राम था:
“शरीर
से कलकत्ते में, मन से आपके साथ.”
देख
रहे हो, वहां ज़िंदगी जीवन कैसे उबल रही है, खदखदा रही है, जैसे किसी बांध में,” मैं उबासी लेते हुए फुसफुसाया, “और मुझे जैसे दफ़न
कर दिया गया है.”
रात फिसलते हुए दूर जा रही है, कल का दिन भी फिसल जाएगा, जितने दिन छोड़े जायेंगे, वे सब फिसलते हुए चले जायेंगे, और कुछ भी नहीं
बचेगा, सिवाय असफ़लता के.
लंगडाते हुए, दुखते हुए घुटने को सहलाते हुए, मैं घिसटते हुए
दीवान तक गया, ठण्ड से कंपकंपाते हुए,
घड़ी को चाभी दी.
इस तरह कई रातें गुज़र गईं, उनकी मुझे याद है, मगर सामूहिक रूप से – सोने में
ठण्ड लग रही थी. दिन तो जैसे स्मृति से धुल गए थे – कुछ भी याद नहीं है.
इस तरह मामला जनवरी के अंत तक खीच गया, और मुझे एक सपना स्पष्ट रूप से याद है, जो मुझे बीस
जनवरी से इक्कीस जनवरी वाली रात को आया था.
महल में एक विशाल हॉल है, और जैसे मैं इस हॉल में चल रहा हूँ. शमादानों में धुआँ छोड़ते हुए
मोमबत्तियां जल रही थीं, भारी, चिकनी, सुनहरी. मैंने अजीब तरह के कपड़े पहने हैं, पैर कसी
हुई पतलून से ढंके हैं, संक्षेप में,
मैं अपनी शताब्दी में नहीं हूँ, बल्कि पंद्रहवीं शताब्दी में
हूँ. मैं हॉल में चल रहा हूँ, और मेरी बेल्ट पर एक खंजर है.
सपने की सुन्दरता इस बात में नहीं थी, कि मैं स्पष्ट रूप से
शासक था, बल्कि वह थी इस खंजर में,
जिससे दरवाजों पर खड़े दरबारी डर रहे थे. शराब भी इतना नशा नहीं दे सकती, जैसे यह खंजर दे रहा था, और,
मुस्कुराते हुए, नहीं, सपने में हंसते
हुए, मैं चुपचाप दरवाज़े की तरफ़ जा रहा था.
सपना इतना आकर्षक था, कि जागने के बाद भी मैं कुछ देर तक हंसता रहा.
तभी दरवाज़े पर टकटक हुई, और मैं फ़टे हुए जूते घसीटते हुए कंबल की तरफ़ बढ़ा,
और पड़ोसन के हाथ ने झिरी के भीतर घुसकर मुझे एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया. उसके ऊपर
“स्वतन्त्र थियेटर” के सुनहरे अक्षर चमक
रहे थे.
मैंने उसे फाड़ा, वह अभी भी, मेरे सामने तिरछा पड़ा है (और मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा!). लिफ़ाफ़े में
एक कागज़ था, फिर से सुनहरे गोथिक अक्षरों वाला, जिस पर फ़ोमा स्त्रिझ के बड़े-बड़े, दमदार अक्षरों में
लिखा हुआ था:
“प्रिय
सिर्गेई लिओन्तेविच!
फ़ौरन
थियेटर में आ जाईये! कल दोपहर को बारह बजे “काली बर्फ” की रिहर्सल आरंभ कर रहा
हूँ.
आपका
फ़ोमा
स्त्रिझ”
कुटिलता
से मुस्कुराते हुए मैं सोफ़े पर बैठ गया, बेतहाशा कागज़ को
देखते हुए और खंजर के बारे में सोचते हुए, फिर न जाने क्यों, अपने नंगे घुटनों को देखते हुए ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना के बारे में.
इस
बीच दरवाज़े पर दमदार और प्रसन्न दस्तक होने लगी.
“आ
जाओ,” मैंने कहा. कमरे में बम्बार्दव ने प्रवेश किया. पीला
और फ़ीका, बीमारी के बाद अपनी ऊंचाई से लंबा दिखाई दे रहा, और उसी के कारण बदल गई आवाज़ में उसने कहा:
“पता
चल गया? मैं जानबूझ कर आपके पास आया था.
और
अपनी समूची नग्नता और दरिद्रता में, पुराने कंबल को फ़र्श पर घसीटते हुए, मैंने कागज़ गिराकर उसे चूम लिया.
“ये
कैसे संभव हुआ?” मैंने फर्श पर झुकते हुए पूछा.
“ये मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ,” मेरे प्यारे मेहमान ने जवाब दिया, “कोई भी समझ नहीं पायेगा और कभी भी नहीं जान पायेगा. मेरा ख़याल है की ये
पानिन और स्त्रिझ ने मिलकर किया है. मगर उन्होंने ये कैसे किया – पता नहीं है, क्योंकि यह मानवीय शक्ति से परे है. संक्षेप में : यह चमत्कार है.”
भाग दूसरा
अध्याय – 15
भूरे, पतले सांप की भांति,
पूरे स्टाल में फैला हुआ, न जाने कहाँ जाता हुआ, स्टाल के फर्श पर आवरण से ढंका हुआ इलेक्ट्रिक तार पड़ा था. उससे स्टालों
के मध्य एक छोटी सी मेज़ पर रखे हुए नन्हे से लैम्प को बिजली जा रही थी. लैम्प ठीक
उतना ही प्रकाश दे रहा था, ताकि मेज़ पर पड़े कागज़ और दवात को
प्रकाशित कर सके. कागज़ पर चपटी नाक वाला थोबड़ा चित्रित किया गया था, थोबड़े की बगल में अभी तक ताज़ा संतरे का छिलका पडा था और ऐश ट्रे थी, सिगरेट के ठूंठों से पूरी तरह भरी हुई. पानी की सुराही धुंधली चमक रही थी, वह चमकते हुए वृत्त से बाहर थी.
स्टाल आधे अँधेरे में इतना डूबा हुआ
था, कि उजाले से आ रहे लोग, उसमें
प्रवेश करते हुए, कुर्सियों की पीठ का सहारा लेते हुए, अंदाज़
से चल रहे थे, जब तक कि आंख अभ्यस्त नहीं हो जाती.
स्टेज खुला था और ऊपर से दूरस्थ स्पॉट
लाईट द्वारा प्रकाशित था. स्टेज पर कोई दीवार थी, जिसका पिछला हिस्सा दर्शकों
की तरफ़ मुड़ा हुआ था, उस पर लिखा हुआ था: “भेड़िए और भेड़ें – 2”.
वहां एक कुर्सी, लिखने की मेज़, दो स्टूल थे. कुर्सी में रूसी कमीज़ और जैकेट पहने एक मज़दूर बैठा था, और एक स्टूल पर – जैकेट और पतलून पहने, मगर बेल्ट बांधे एक जवान बैठा था, जिस पर सेंट जॉर्ज के बिल्ले वाली तलवार लटक रही थी.
हॉल में उमस थी, बाहर कब से पूरा मई का महीना था.
ये
रिहर्सल का मध्यांतर था – कलाकार नाश्ते के लिए बुफ़े गए थे. मगर मैं रुक गया था.
पिछले कुछ महीनों की घटनाओं को शिद्दत से महसूस कर रहा था, मैं जैसे खुद को टूटा हुआ महसूस कर रहा था, पूरे
समय बैठने का और देर तक, निश्चल बैठने का मन करता था. मगर इस हालत को अक्सर मानसिक
शक्ति का उछाल सुधार देता, जब चलने का,
समझाने का, बोलने का और बहस करने का मन होता. और अब, फिलहाल मैं पहली अवस्था में हूँ. लैम्प के शेड के नीचे घने धुएँ की परतें
जमा हो गयी थीं, उसे लैम्प का शेड सोख रहा था, और फिर वह कहीं ऊपर चला जाता.
मेरे
विचार सिर्फ एक ही बात के चारों ओर घूम रहे थे – मेरे नाटक के चारों ओर. ठीक उसी
दिन से, जब फ़ोमा स्त्रिझ ने मुझे निर्णायक पत्र भेजा था, मेरी ज़िंदगी इतनी बदल गयी थी, कि उसे पहचानना
मुश्किल था. जैसे आदमी ने नया जन्म लिया हो, जैसे उसका कमरा
भी बदल गया हो, हालांकि यह वही कमरा था, जैसे उसके चारों तरफ़ के लोग बदल गए हों, और मॉस्को
शहर में, उसने, इस आदमी ने, अचानक
अस्तित्व का अधिकार प्राप्त कर लिया हो, उसने कोई उद्देश्य
और अर्थ भी प्राप्त कर लिया हो.
मगर
मेरे ख़याल सिर्फ एक ही विषय पर केन्द्रित थे, मेरे नाटक पर, पूरे समय उसी में मगन रहता – मेरे सपने भी – क्योंकि वह मुझे किन्हीं अब
तक अस्तित्वहीन दृश्यों के बीच प्रदर्शित हो चुका दिखाई दिया, सपने में प्रदर्शनों की सूची से हटाया गया दिखाई दिया, या तो वह विफ़ल हो गया या भारी सफ़ल हो गया. इनमें से दूसरे मामले में, याद
आता है, उसे ढलान वाले जंगलों में खेला गया, जिनमें कलाकार
बिखर गए थे, प्लास्टर करने वालों की तरह और हाथों में
लालटेनें लिए, हर मिनट गाना गा रहे थे. लेखक, न जाने क्यों वहीं था, नाज़ुक क्रॉसबार्स पर वैसी ही
आज़ादी से घूमते हुआ, जैसे मक्खी दीवार पर घूमती है, और नीचे थे नींबू और सेब के पेड़, क्योंकि नाटक
उत्साहित दर्शकों से भरे बगीचे में खेला जा रहा था. जनता से भरा था.
पहले
में अक्सर एक विकल्प दिखाई देता था – लेखक, जनरल र्रिहर्सल में
जाते हुए पतलून पहनना भूल गया. रास्ते पर उसने कुछ कदम सकुचाते हुए रखे, कुछ उम्मीद से, कि बिना किसी की नज़र में पड़े पहुँच
जाएगा, और उसने आने-जाने वालों के लिए कोई बहाना तैयार कर
लिया – कोई बहाना स्नानघर से संबंधित, जहां वह अभी-अभी होकर
आया था, और पतलून, स्टेज के पीछे थी, मगर जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, हालात बदतर होते गए, और बेचारा लेखक फुटपाथ से चिपके-चिपके चलता रहा,
अखबार वाले को ढूँढ़ता रहा, वह नहीं था,
ओवरकोट खरीदना चाहा, मगर पैसे नहीं थे,
प्रवेश द्वार में छुप गया और समझ गया कि जनरल रिहर्सल में पहुँचने में देर हो गयी
है...
“वान्या!” स्टेज से धीमी आवाज़ आई. –
“पीला दे!”
टीयर
के अंतिम बॉक्स में, जो स्टेज के पोर्टल के पास ही स्थित है, कुछ जलने लगा, बॉक्स से एक तिरछी किरण विशिष्ट रूप
से गिरी, स्टेज के फर्श पर गोल पीला धब्बा जलने लगा, रेंगने लगा, पुराने कवर वाली, सुनहरे हत्थों वाली
कुर्सी को, या हाथों में
लकड़ी का मोमबत्तीदान पकडे अस्त-व्यस्त सहारे को समेटते
हुए.
जैसे
जैसे मध्यांतर समाप्ति की ओर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे स्टेज पर
हलचल होने लगी. ऊपर उठाए हुए, स्टेज के आकाश के नीचे अनगिनत
कतारों में लटके हुए परदे अचानक सजीव हो उठे. उनमें से एक ऊपर गया और फ़ौरन आंखों
में चुभती हुई हज़ारों लैम्पों की कतार को अनावृत कर गया. दूसरा, न जाने क्यों, इसके विपरीत,
नीचे की ओर आ रहा था, मगर, फ़र्श तक
पंहुचने से पहले ही, चला गया. विंग्स में काली छायाएं प्रकट
होती रहीं, पीली किरण चली गयी, बॉक्स में शोषित हो गई. कहीं
हथौड़ों से ठक ठक हो रही थी. सिविलियन पतलून पहने, मगर एड वाले जूतों में, नागरिक प्रकट हुआ, और उन्हें खनखनाते हुए, स्टेज से
गुज़रा. फिर कोई और, स्टेज के फ़र्श पर झुककर, ढाल की तरह मुंह
पर हाथ रखकर फर्श में चिल्लाया:
“ग्नोबिन!
चल!”
तब
लगभग बिना कोई आवाज़ किये, स्टेज की हर चीज़ किनारे
पर जाने लगी. इसने उस आदमी को भी आकर्षित किया, वह अपने
मोमबत्तीदान समेत चला गया, कुर्सी और मेज़ भी बहते गए. कोई
आदमी इस घूमते हुए गोल में गति की विपरीत दिशा में भागा,
नृत्य करने लगा, सीधा होते हुए, और, सीधा होकर, चला गया. गुनगुनाहट बढ़ गई, और पहले वाली
पार्श्वभूमि के स्थान पर, अजीब सी, लकड़ी की संरचनाएं दिखाई
दीं, जो बिना पेंट की हुई खड़ी सीढ़ियों,
क्रॉस बीम्स, डेकिंग्स, से बनी थीं. ‘पुल आ रहा है’, - मैंने
सोचा और जब वह अपनी जगह पर खड़ा होता, तो हमेशा, न जाने
क्यों, उत्तेजना का अनुभव करता.
“ग्नोबिन!
स्टॉप!” – स्टेज पर लोग चिल्लाए. “ग्नोबिन, पीछे कर!”
पुल
रुक गया. इसके बाद, ग्रेट्स के नीचे से थकी हुई
आंखों पर प्रकाश बिखेरते हुए, मोटे पेट वाले लैम्प प्रकट हुए, फिर से लुप्त हो गए, और ऊपर से भद्दा रंग किया हुआ
कपड़ा ऊपर से नीचे आया, तिरछा होकर खड़ा हो गया. “गेट
हाउस...”, - मैंने सोचा, स्टेज की जोमेट्री से गड़बड़ाते हुए, घबराते हुए, ये समझने की कोशिश करते हुए कि ये सब
कैसा नज़र आयेगा, जब अन्य नाटकों की वस्तुओं से बची खुची वस्तुओं
से फेन्सिंग के स्थान पर, आखिरकार, वास्तविक पुल बनाया
जाएगा. विंग्स में शेड्स के नीचे बाहर निकलती हुई आंखों वाले प्रोजेक्टर्स भड़क उठे
, नीचे से स्टेज को गर्म प्रकाश की लहर ने सराबोर कर दिया. “रैम्प दिया...”
मैं
अँधेरे में आंखें बारीक किये उस आकृति को देख रहा था, जो निर्धारित कदमों से डाइरेक्टर की मेज़ की तरफ बढ़ रही थी.
‘रमानस
आ रहा है, मतलब, अब कुछ-न-कुछ होने वाला
है...’ – हाथ से अपने चेहरे को लैम्प से छुपाते हुए मैंने सोचा.
और
सचमुच में, कुछ ही पलों में मेरे ऊपर कंटीली दाढ़ी दिखाई दी, आधे अँधेरे में डाइरेक्टर रमानस की उत्तेजित आंखें चमक रही थीं. रमानस के
बटन होल में ‘स्वतन्त्र थियेटर’ अक्षरों वाला जुबिली-बैज
था.
“अगर
ये झूठ भी है, तो भी अच्छा ढूँढा, या हो सकता है, और भी प्रभावशाली!” रमानस ने हमेशा की तरह शुरूआत की, उसकी आंखें स्तेपी
के भेड़िये की तरह जल रही थीं. रमानस कोई शिकार ढूंढ रहा था,
और उसे न पाकर, मेरी बगल में बैठ गया.
“आपको
ये कैसा लग रहा है? आँ?” आंखें सिकोड़ते हुए रमानस ने
मुझसे पूछा.
“घसीट रहा है, ओय, वह अब मुझे
बातचीत में घसीट रहा है,” मैंने लैम्प के पास सिकुडते हुए
सोचा.
“नहीं, आप, कृपया मुझे अपनी राय बताइये,” मेरी ओर एकटक देखते हुए, रमानस ने कहा, “ये इसलिए
भी ज़्यादा दिलचस्प है, कि आप लेखक हैं,
और यहाँ हो रही गडबडियों की ओर उदासीन नहीं रह सकते, जो
हमारे यहाँ हो रही हैं.
‘मगर, वह कितनी आसानी से यह
करता है...’ इस हद तक परेशान होते हुए, कि बदन में खुजली
होने लगी, मैंने सोचा.
“संगतकार को, वह भी महिला संगतकार को तुरही से पीठ पर मारना?”
रमानस ने तैश से पूछा. “नहीं. ये पाईप्स हैं! मैं पैंतीस सालों से स्टेज पर हूँ, और आज तक मैंने ऐसी घटना नहीं देखी. स्त्रिझ सोचता है, कि संगीतकार सुअर हैं, और उन्हें बाड़े में खदेड़ा जा
सकता है? एक लेखक का दृष्टिकोण जानना दिलचस्प होगा.”
ज़्यादा देर तक चुप रहना संभव नहीं था.
“बात क्या है?”
रमानस को इसी का इंतज़ार था. खनखनाती
आवाज़ में, जिससे मज़दूर सुनें, जो
उत्सुकतावश फ़ुटलाईट्स के पास इकट्ठे हो रहे थे, रमानस ने कहा, कि स्त्रिझ ने संगीतकारों को स्टेज की पॉकेट में धकेला था, जहां
निम्नलिखित कारणों से प्रदर्शन करने की कोई संभावना नहीं है: पहली बात – जगह की तंगी, दूसरा – अन्धेरा है, और तीसरा, हॉल में कोई भी आवाज़ सुनाई नहीं देती, चौथा, उसे खड़ा होने के लिए कोई जगह नहीं है, संगीतकार उसे नहीं देख सकते.
“ये सही है, कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं,” रमानस ने ज़ोर से
घोषणा की, “संगीत में जिनकी समझ कुछेक जानवरों से अधिक नहीं
होती...”
‘काश, तुझे शैतान ले जाए!”
मैंने सोचा.
“...किन्हीं बेवकूफों में!”
रमानस की कोशिशें कामयाब हुईं –
इलेक्ट्रो टेक्नीकल बूथ से खिलखिलाहट सुनाई दी, बूथ से एक सिर बाहर
आया.
“सचमुच, ऐसे लोगों को
डाइरेक्टर का काम करने की ज़रुरत नहीं है, बल्कि उन्हें तो
नोवो-देविच्ये कब्रिस्तान में क्वास बेचना चाहिए!...” रमानस चीख रहा था.
खिलखिलाहट की पुनरावृत्ति हुई. आगे
स्पष्ट हुआ, कि स्त्रिझ द्वारा की गयी ज्यादतियों के अपने परिणाम
सामने आये. तुरही वाले ने अँधेरे में कॉन्सर्टमास्टर आन्ना अनुफ्रेव्ना देन्झिना
को इस तरह पीठ में तुरही चुभोई कि ...
“एक्स-रे दिखाएगा, कि इसका क्या हश्र होगा!”
रमानस ने आगे कहा, कि पसलियाँ थियेटर में नहीं, बल्कि शराबखाने में
तोड़ना चाहिए, जहां, वैसे भी, कुछ लोग कलात्मक शिक्षा प्राप्त करते हैं.”
इलेक्ट्रीशियन का उल्लासपूर्ण चेहरा
बूथ के स्लॉट के ऊपर चमक रहा था, उसका मुँह हंसी से
फटा जा रहा था.
मगर
रमानस ज़ोर देकर कहता है, कि ये ऐसे समाप्त नहीं होगा.
उसने आन्ना को समझाया है कि उसे क्या करना है. हम, खुदा का
शुक्र है, सोवियत राज्य में रहते हैं,
रमानस ने याद दिलाया, कि प्रोफसयुज़ के सदस्यों की पसलियाँ
तोड़ने की ज़रुरत नहीं है. उसने आन्ना अनुफ्रेव्ना को स्थानीय कमिटी में दरख्वास्त
देने के लिए कहा है.
“खैर, आपकी आँखों से मैं देख सकता हूँ,” रमानस ने मुझे
घूरते हुए और प्रकाश के घेरे में पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा, “कि आपको इस बात में पूरा विश्वास नहीं है कि हमारी स्थानीय कमिटी का चेयरमैन
संगीत को उतनी ही अच्छी तरह समझता है, जितना
रीम्स्की-कर्साकव या शुबर्ट.”
“ये है नमूना!” मैंने सोचा.
“माफ़ कीजिये!...” गंभीरता से बोलने की कोशिश करते हुए मैंने कहा.
“नहीं, ईमानदारी से बात
करेंगे!” मुझसे हाथ मिलाते हुए रमानस चहका, “आप लेखक हैं! और
अच्छी तरह जानते हैं, कि मीत्या मालाक्रोशेच्नी, चाहे बीस बार चेयरमैन रह चुका हो, ओबोय और सेलो में,
या बाख़ के फ़ुगू और फ़ॉक्सट्राट “अल्लेलुइया”
में अंतर बता सकेगा.”
यहाँ रमानस ने ख़ुशी ज़ाहिर की, कि ये भी अच्छा था, कि उसका सबसे क़रीबी दोस्त...
-
... और हमप्याला!”
ऊंची
आवाज़ की खिलखिलाहट में एक भारी कर्कश आवाज़ शामिल हो गयी. बूथ के ऊपर दो चहरे खुश
हो रहे थे.
…अन्तोन कलोशिन मालाक्रोशेच्नी की कला विषयक प्रश्नों को सुलझाने में मदद
करता है. हालांकि इसमें अचरज वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि
थियेटर में काम करने से पहले अन्तोन अग्निशामक दल में काम करता था, जहां वह तुरही बजाया करता था. और अगर अन्तोन न होता, रमानस दावे के साथ कहता है, कि कोई-कोई डाइरेक्टर,
आसानी से चक्कर में पड़ जाते, और ‘रुसलान’ के परिचय को बेहद साधारण “संतों के साथ आराम” में फर्क न कर पाते.
‘ये आदमी खतरनाक है,’ मैंने रमानस की ओर देखते हुए सोचा, ‘गंभीर तौर पर
खतरनाक. उससे लड़ने का कोई साधन नहीं है!”
“अगर कलोशिन न होता, तो, बेशक, हमारे यहाँ संगीतकार को आउटबोर्ड स्पॉट लाईट से उल्टा लटकाकर बजाने पर
मजबूर कर देते, ख़ुशकिस्मती से इवान वसील्येविच थियेटर में नहीं आता है,
मगर फिर भी थियेटर को आन्ना अनुफ्रियेव्ना को पैसा तो देना ही पडेगा, टूटी हुई पसलियों के लिए. और रमानस
ने उसे यूनियन में जाने की, ये पता करने की सलाह दी है, कि वहां ऐसी चीज़ों को किस तरह देखते हैं, जिनके
बारे में वाक़ई में कहा जा सकता है:
“अगर ये झूठ भी है, तो भी अच्छा ढूँढा, या हो सकता है, और भी
प्रभावशाली!”
पीछे से हलके कदमों की आहट सुनाई दी, राहत निकट आ रही थी. मेज़ के पास अन्द्रेई अन्द्रेइच खड़ा था. अन्द्रेई
अन्द्रेइच थियेटर में पहला सहायक निर्देशक था और उसने नाटक “काली बर्फ” का
निर्देशन किया था.
अन्द्रेई अन्द्रेइच मोटा, हट्टाकट्टा भूरे
बालों वाला, क़रीब चालीस साल का, चंचल,
अनुभवी आंखों वाला, अपने काम को अच्छी तरह जानता था. और यह
काम मुश्किल था.
अन्द्रेई अन्द्रेइच, मई के अवसर पर हमेशा वाले काले सूटकेस और पीले जूतों में नहीं, बल्कि नीली सैटिन की कमीज़ और पीले कैनवास के जूते पहने था, मेज़ के पास
आया, बगल में सदाबहार फोल्डर दबाये.
रमानस की आंख और तीव्रता से जल रही थी, और अन्द्रेई अन्द्रेइच अभी लैम्प के नीचे फोल्डर रख भी न पाया था, कि हंगामा शुरू हो गया. वह रमानस के वाक्य से शुरू हुआ:
“मैं दृढ़ता से संगीतकारों पर हो रही हिंसा
का विरोध करता हूँ, और विनती करता हूँ, कि जो कुछ भी हो रहा है, उसे रिपोर्ट में दर्ज किया जाए!”
“कैसी हिंसा?” अन्द्रेई अन्द्रेइच ने आधिकारिक आवाज़ में पूछा और हल्के से एक भौं ऊपर
उठाई.
“अगर हमारे यहाँ ऐसे नाटकों का
प्रदर्शन किया जा रहा है, जो ऑपेरा के अधिक
निकट हैं...” रमानस ने शुरूआत की, मगर उसे सहसा एहसास हुआ, कि लेखक वहीं बैठा है, और उसने मेरी ओर देखते हुए, मुस्कान से अपने चेहरे को बिगाड़ते हुए कहा, “जो कि
सही है! क्योंकि हमारा लेखक नाटक में संगीत के महत्व को समझता है!...तो...मैं
विनती करता हूँ, कि ओर्केस्ट्रा को एक जगह दी जाए, जहां वह
बजा सके!”
‘उसे तो ‘पॉकेट ’ में जगह दी गयी है,” अन्द्रेई अन्द्रेइच ने ऐसा
दिखाते हुए कहा, जैसे किसी ज़रूरी मामले पर फोल्डर खोल रहा
हो.
“पॉकेट
में? हो सकता है, प्रॉम्प्टर के बूथ
में बेहतर होगा? या किसी प्रॉप-रूम में?”
“आपने कहा था, कि आप ‘होल्ड’ में नहीं बजा सकते.”
“होल्ड में?” रमानस चीख़ा. “मैं दुहराता हूँ, कि ये असंभव है. और आपकी जानकारी के लिए
बता दूं, कि चाय के बुफ़े में नहीं बजा
सकते.
“आपकी जानकारी के लिए, मैं खुद भी जानता हूँ, कि चाय के बुफ़े में इसकी
अनुमति नहीं है,” अन्द्रेई अन्द्रेइच ने कहा, और उसकी दूसरी भौं भी हिली.
“आप
जानते हैं,” रमानस ने जवाब दिया और, यह
सुनिश्चित करने के बाद कि स्त्रिझ अभी तक स्टाल में नहीं है,
आगे कहा, “क्योंकि आप पुराने कार्यकर्ता हैं और कला के
क्षेत्र में जानकारी रखते हैं, जो किसी डाइरेक्टर के बारे
में नहीं कहा जा सकता...”
“फिर
भी, डाइरेक्टर से संपर्क कीजिये. वह ध्वनि की जांच कर रहा
था...”
“ध्वनि
की जांच करने के लिए, किसी उपकरण का होना आवश्यक है, जिसकी सहायता से जांच
की जा सके, उदाहरण के लिए, कान! मगर यदि किसी को बचपन
में...”
“मैं
इस लहजे में बात करने से इनकार करता हूँ,” अन्द्रेई अन्द्रेइच
ने कहा और फाईल बंद कर दी.
“कैसा लहजा?! कैसा लहजा?” रमानस चकित हो गया. “मैं लेखक से मुखातिब हो रहा हूँ, वही इस बारे में अपने आक्रोश की
पुष्टि करे, कि हमारे यहाँ संगीतकारों को कैसे विकृत किया
जाता है!”
“इजाज़त दें...” मैंने अन्द्रेई
अन्द्रेइच की चकित नज़र देखकर कहना शुरू किया.
“नहीं, माफ़ी चाहता हूँ!”
रमानस ने चिल्लाकर अन्द्रेई अन्द्रेइच से कहा, “अगर सहायक, जिसे स्टेज को अपनी पांच उँगलियों की तरह जानना चाहिए...”
“कृपया, मुझे न सिखाइए, की स्टेज को कैसे जानना चाहिए,” अन्द्रेई अन्द्रेइच
ने कहा और फोल्डर की रस्सी तोड़ दी.
“करना पडेगा! करना पडेगा,” ज़हरीली
हंसी से अपने दांत दिखाते हुए, रमानस भर्राया.
“जो कुछ आप कह रहे हैं, वह मैं रेकॉर्ड में डाल दूंगा!” अन्द्रेई अन्द्रेइच ने कहा.
“मुझे भी खुशी होगी, कि आप ये सब लिखेंगे!”
“कृपया मुझे अकेला छोड़ दें! आप
कार्यकर्ताओं को रिहर्सल में बाधा डाल रहे हैं!”
“कृपया ये शब्द भी शामिल करें!” रमानस
तारसप्तक में चिल्लाया.
“कृपया चिल्लाए नहीं!”
“मैं भी विनती करता हूँ, कि चिल्लाए नहीं!”
“कृपया चिल्लाए नहीं,” आंखें चमकाते हुए अन्द्रेई अन्द्रेइच ने जवाब दिया और अचानक वहशी की तरह
चीखा : “घुड़सवारों! आप वहाँ क्या कर रहे हैं?!” और वह सीढ़ी से स्टेज की तरफ़ लपका.
स्त्रिझ गलियारे को तेज़ी से पार कर
रहा था, और उसके पीछे कलाकारों की काली आकृतियाँ दिखाई दीं.
मुझे याद है कि स्त्रिझ के साथ लफड़ा कैसे शुरू हुआ था. रमानस तेज़ी से
उसके सामने आया, उसका हाथ पकड़ा और बोला:
“फोमा! मुझे मालूम है, कि तुम संगीत की कदर
करते हो, और ये तुम्हारा कुसूर नहीं है, मगर मैं विनती करता
हूँ और मांग करता हूँ, कि सहायक संगीतकारों का मज़ाक उड़ाने की
हिम्मत न करे!”
“घुड़सवारों!” स्टेज पर अन्द्रेई अन्द्रेयेविच चिल्लाया. “बबिल्योव
कहाँ है?!”
“बबिल्योव खाना खा रहा है,” आसमान से दबी-दबी
आवाज़ आई.
कलाकारों ने रमानस और स्त्रिझ के चारों ओर गोल घेरा बना लिया.
गर्मी थी, मई का महीना था, सैंकड़ों बार ये लोग, जिनके चेहरे लैम्प शेड के ऊपर आधे अँधेरे में रहस्यमय प्रतीत हो रहे थे, पेंट से पुते हुए थे, रूप बदल चुके थे, परेशान हो रहे थे, थक गए थे...वे सीज़न में थक चुके
थे, परेशान थे, चिड़चिड़े हो रहे थे, एक दूसरे को चिढ़ा रहे थे. रमानस उन्हें बहुत बड़ा और प्यारा मनोरंजन
प्रदान कर रहा था.
लंबे, नीली आंखों वाले स्कव्रोन्स्की ने खुशी से हाथ मले और
बुदबुदाया:
“अच्छा, अच्छा,
अच्छा....चल! सच्चे खुदा! तुम उन्हें सब बताओ, ऑस्कर!”
इस सबका अपना परिणाम निकला.
“कृपया, मुझ पर न चिल्लाएं!” स्त्रिझ
अचानक भौंका और उसने नाटक को मेज़ पर पटक दिया.
“ये तू चिल्ला रहा है?” रमानस चीखा.
“सही है! सच्चे खुदा!” स्कव्रोन्स्की खुश हो गया, कभी रमानस को बढ़ावा देता: - “सही है, ऑस्कर! हमारी
पसलियाँ इन प्रदर्शनों से ज़्यादा मूल्यवान हैं! – तो कभी स्त्रिझ को:
“और क्या, कलाकार इन संगीतकारों की तुलना
में हीन हैं? तू, फोमा, इस तथ्य पर गौर करना!”
“अब क्वास पीना चाहिए,” एलागिन ने उबासी
लेते हुए कहा, “ न कि रिहर्सल करना चाहिए...और ये झगड़ा कब
ख़त्म होगा?”
झगड़ा कुछ देर और चलता रहा, लैम्प को घेरते हुए गोल घेरे से चीखें आती
रहीं, और धुआं ऊपर उठता रहा.
मगर मुझे अब इस झगड़ें में कोई दिलचस्पी नहीं थी. पसीने से भरा माथा पोंछते
हुए मैं रैम्प के पास खड़ा था, देख रहा था कि कैसे मॉक-अप रूम से कलाकार – अव्रोरा
गुस्ये गोल के किनारे-किनारे एक नापने वाली छड़ी के साथ चल रही थी, उसे फर्श पर टिकाते हुए. गोस्ये का चेहरा शांत था,
थोड़ा सा दुखी, होंठ भींचे हुए. गोस्ये के सुनहरे बाल कभी जल
उठते, मानो उन्हें जलाया गया हो, जब वह
रैम्प के किनारे पर झुकती, या कभी बुझ जाते और राख जैसे हो
जाते. और मैं सोच रहा था कि सब कुछ, जो यहाँ हो रहा है, जो
इतने दर्दनाक तरीके से खिंच रहा है, सबका अंत हो ही जाएगा...
इस बीच झगड़ा ख़त्म हो गया था.
“चलो, साथियों! चलो!” स्त्रिझ चिल्लाया. – “ हम बेकार ही
वक्त बर्बाद कर रहे हैं!”
पत्रिकेएव, व्लदीचिन्स्की, स्कव्रोन्स्की पहले ही स्टेज पर प्रॉप्स के
बीच में घूम रहे थे. स्टेज पर रमानस भी आया. उसकी उपस्थिति बेकार नहीं गई. वह
व्लदीचिन्स्की के पास गया और उससे चिंतित स्वर में पूछा कि क्या उसे ऐसा नहीं लगता
कि पत्रिकेयेव मसखरेपन का ज़रा ज़्यादा ही इस्तेमाल करता है, जिसके कारण दर्शक उसी समय हंसते हैं, जब
व्लदीचिन्स्की अत्यंत महत्वपूर्ण वाक्य कह रहा होता है: “और मुझे कहाँ जाने को
कहते हैं? मैं अकेला हूँ, मैं बीमार
हूँ...”
व्लदीचिन्स्की मौत की तरह विवर्ण हो गया, और एक मिनट बाद कलाकार, और कामगार, और प्रॉप्स कतार बनाए रैम्प के पास खड़े
थे, कि कैसे पुराने दुश्मन व्लदीचिन्स्की और पत्रिकेयेव एक
दूसरे को गालियाँ देते हैं. व्लदीचिन्स्की हट्टा-कट्टा आदमी था, स्वभाव से मरियल, और अब कटुता के कारण और भी मरियल, मुट्ठियाँ बांधे और
यह कोशिश करते हुए कि उसकी ज़ोरदार आवाज़ भयानक रूप से गूंजे,
पत्रिकेयेव की तरफ़ देखे बिना बोला:
“मैं इस मामले से पूरी तरह निपटूंगा! कब से समय आ गया है कि सर्कस के
कलाकारों पर ध्यान देने का, जो, स्टाम्प्स पर खेलकर, थियेटर के ब्राण्ड का अपमान करते हैं!”
कॉमेडी कलाकार पत्रिकेयेव ने, जो स्टेज पर मजाकिया
युवाओं की भूमिकाएँ करता है, मगर जीवन में असाधारण रूप से
निपुण, चपल, और सघन है, चेहरे को धृष्ठ और साथ ही डरावना बनाने की कोशिश की, जिससे उसकी आंखें उदासी व्यक्त कर रही थीं, और चेहरा शारीरिक वेदना, भर्राई हुई आवाज़ में जवाब दिया:
“कृपया यह न भूलें! मैं ‘स्वतन्त्र
थियेटर’ का कलाकार हूँ, न कि आप जैसा हैक फिल्मों का
डाइरेक्टर!”
रमानस विंग्स में खड़ा था, संतोष से आंखें चमकाते हुए, बहस करने वालों की
आवाज़ें स्त्रिझ की आवाज़ को दबा रही थीं, जो कुर्सियों से चीख
रहा था :
“ये सब इसी पल बंद करो! अन्द्रेई अन्द्रेइच! स्त्रोएव को अलार्म बेल
दो! वह कहाँ है? आप मेरे
प्रदर्शन प्लान में बाधा डाल रहे हैं!”
अन्द्रेई अन्द्रेइच ने अभ्यस्त हाथ से सहायक
के बोर्ड पर बटन दबाए, और दूर कहीं विंग्स के पीछे, और बुफे में, और फ़ॉयर में
उत्तेजना, और कर्कशता से घंटियाँ बजने लगीं.
स्त्रोएव, जो इस समय
तरपेत्स्काया के वेटिंग रूम में डोल रहा था, सीढ़ियाँ
फांदते हुए, दर्शक हॉल की ओर लपका. स्टेज पर वह हॉल की तरफ़ से नहीं
घुसा, बल्कि किनारे से, स्टेज वाले दरवाजे से, पोस्ट की ओर लपका और वहाँ से रैम्प
की तरफ़, हौले-हौले एड़ें बजाते हुए, जो सिविलियन
जूतों पर पहनी थीं, और कृत्रिम भाव से यह दिखाते हुए कि वह यहाँ कब से
मौजूद है.
“स्त्रोएव कहाँ है?” स्त्रिझ
चीखा. “उसे फोन करो, फोन करो! मैं मांग करता हूँ, कि ये बहस
बंद करें!”
“फ़ोन करता हूँ,” अन्द्रेई
अन्द्रेयेविच ने जवाब दिया. वह मुड़ा और सामने स्त्रोएव को देखा. “मैं आपको फ़ौरन बुला रहा हूँ!” अन्द्रेई अन्द्रेयेविच ने
गंभीरता से कहा, और फ़ौरन थियेटर में घंटी खामोश हो गई.
“मुझे?” स्त्रोएव
ने जवाब दिया. “मेरे लिए अलार्म की घंटी की ज़रुरत क्या है? मैं यहाँ, पंद्रह
नहीं, तो दस मिनट से हूँ...कम से कम...मामा...मिया...” उसने खांस कर गला साफ़ किया.
अन्द्रेई अन्द्रेयेविच ने सांस ली, मगर कुछ न
कहा, बल्कि गहरी
नज़र से उसे देखा. खींची हुई सांस का इस्तेमाल उसने चिल्लाने में किया:
“अनावश्यक लोगों को स्टेज छोड़ने की विनती
करता हूँ! शुरू करते हैं!”
सब कुछ ठीक हो गया, प्रॉप्स चले
गए, कलाकार
अपनी-अपनी जगह चले गए. रमानस ने विंग में फुसफुसाकर पत्रिकेएव को बधाई दी कि उसने
कैसे बहादुरी से और सच्चाई से व्लदीचिन्स्की का विरोध किया, जिसे रोकने
का समय कब से आ चुका है.
अध्याय - 16
सफल शादी
जून के महीने में
मई की अपेक्षा गर्मी और बढ़ गयी.
मुझे ये याद रहा, और बाकी सब आश्चर्यजनक रूप
से दिमाग़ में गड्ड-मड्ड हो गया. हांलाकि कुछ अंश सुरक्षित हैं. जैसे, याद है दीर्किन की गाडी, थियेटर के प्रवेश द्वार के
पास, खुद दीर्किन रूई के नीले कफ्तान में बॉक्स पर और दीर्किन के आसपास से
गुज़रते हुए ड्राइवरों के हैरान चहरे.
उसके बाद याद आता
है बड़ा हॉल, जिसमें बेतरतीबी से कुर्सियां रखी थीं, और इन कुर्सियों पर बैठे हुए कलाकार. कपड़े से ढँकी मेज़ पर इवान वसील्येविच, स्त्रिझ, फोमा और मैं बैठे थे.
इवान वसील्येविच
से मेरा परिचय लगभग इसी दौरान हुआ था और मैं कह सकता हूँ, कि ये पूरा समय मुझे अत्यंत
तनावपूर्ण कालखण्ड के रूप में याद है. ये इसलिए हुआ, कि मैं इवान वसील्येविच पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए पूरा प्रयास कर रहा
था, और परेशानियां बहुत थीं.
हर दूसरे दिन मैं
अपना भूरा सूट दूस्या को इस्त्री करने के लिए देता और इसके लिए उसे नियमित रूप से
दस-दस रूबल्स का भुगतान करता.
मैंने एक आर्क
ढूंढा, जिसमें एक जर्जर कमरा था, मानो गत्ते से बना हो, और उस मोटे आदमी से, जिसकी उँगलियों में दो हीरे की अंगूठियाँ थीं, बारह कलफ़ किये हुए कॉलर खरीदे और प्रतिदिन, थियेटर जाते समय मैं नई कॉलर पहनता. इसके अलावा, मैंने, आर्क में नहीं, बल्कि शासकीय डिपार्टमेंटल स्टोर में छह कमीजें खरीदीं: चार सफ़ेद और एक
बैंगनी धारियों वाली, एक नीले चौखाने वाली, अलग-अलग रंगों की आठ टाई खरीदीं. बिना टोपी वाले आदमी से, जो मौसम की परवाह किये बिना, शहर के सेंटर में एक कोने
में टंगी हुई लेसों वाले स्टैण्ड की बगल में बैठता है, मैंने जूतों की पीली पॉलिश के दो डिब्बे खरीदे, और दूस्या से ब्रश लेकर
सुबह अपने पीले जूते साफ करता, और फिर जूतों को अपने गाऊन के किनारे से पोंछता.
इन अविश्वसनीय और
खतरनाक खर्चों का परिणाम यह हुआ, कि मैंने दो रातों में ‘पिस्सू’ शीर्षक से एक छोटी सी कहानी
की रचना कर डाली, और इस कहानी को बेचने की कोशिश में, उसे जेब में रखकर रिहर्सल से खाली समय
में साप्ताहिक पत्रिकाओं, अखबारों के सम्पादकीय कार्यालयों में गया. मैंने ‘शिपिंग
कंपनी’ से शुरूआत की, जहां कहानी तो पसंद आई, मगर उन्होंने उसे प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, पूरी तरह इस उचित आधार
पर कि उसका ‘रिवर शिपिंग’ से कोई लेना-देना नहीं है. यह बताना बहुत लंबा और उकताने वाला है, कि मैं कैसे सम्पादकीय
कार्यालयों में जाता और कैसे वे मुझे इनकार करते. सिर्फ इतना याद है, कि न जाने क्यों हर जगह मुझसे
अप्रसन्नता से मिलते. ख़ासतौर से याद आता है नाकपकड़ चश्मे वाला एक मोटा व्यक्ति,
जिसने न केवल मेरी रचना को पूरी तरह से ठुकरा दिया, बल्कि मुझे कोई भाषण भी सुनाया.
“आपकी कहानी में
व्यंग्य महसूस होता है,” मोटे आदमी ने कहा, और मैंने देखा की वह तिरस्कारपूर्वक मेरी तरफ़ देख रहा है.
मुझे सफ़ाई देना
होगा. मोटे आदमी को ग़लतफ़हमी हुई थी, कहानी में कोई व्यंग्य नहीं था, मगर (अब ये किया जा सकता है) ये स्वीकार करना होगा, कि कहानी उकताहट भरी, हास्यास्पद थी, और लेखक का भेद खोल देती थी:
लेखक कोई भी कहानी नहीं लिख सकता था, उसके पास इसके लिए योग्यता नहीं थी.
मगर फिर भी
चमत्कार हो गया. जेब में कहानी रखकर तीन हफ़्ते भटकने के बाद और वर्वार्का, वज़्द्विझेनिये, चिस्तीये
प्रूदी, स्त्रास्त्नी बुल्वार और, याद आता है, प्ल्युशिखा में भी, मैंने अप्रत्याशित रूप से मिस्नित्स्काया पर ज़्लताउस्तिन्स्की गली में अपनी
रचना बेच दी, अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूँ, तो पांचवीं मंजिल पर किसी आदमी को जिसके गाल
पर बड़ा सा तिल था.
पैसे प्राप्त करने
और भयानक दूरी को पार करने के बाद मैं थियेटर में लौटा, जिसके बगैर मैं रह ही नहीं सकता था, जैसे मोर्फीन की लत वाला आदमी मोर्फीन के बगैर नहीं रह सकता.
भारी मन से मुझे
स्वीकार करना पडेगा कि मेरी सारी कोशिशें बेकार गईं, और, यहाँ तक कि, उनका विपरीत परिणाम हुआ. दिन-प्रतिदिन इवान वसील्येविच मुझे कम पसंद करने लगा था.
बेहद मासूम होगा
यह सोचना, कि मेरा सारा दारोमदार पीले जूतों पर था, जिनमें बसंत का सूरज प्रतिबिंबित होता था. नहीं! यहाँ एक चालाक, उलझा हुआ संयोजन था, जिसमें, उदाहरण के लिए, ऐसी तकनीकों का समावेश था, जैसे शांत, गहरी और
ह्रदयस्पर्शी आवाज़ में बोलना. आवाज़ के साथ सीधी, खुली, ईमानदार नज़र, होठों पर हल्की-सी मुस्कान के साथ (कुछ ताड़ती हुई नहीं, बल्कि सीधी-सरल). मैं अच्छी
तरह कंघी करता, दाढ़ी ऐसी चिकनी कि जब हाथ का पिछला भाग गाल पर घुमाता तो ज़रा भी खुरदुरापन
महसूस न होता, मैं अपने निर्णय संक्षिप्त, बुद्धिमत्तापूर्ण, विषय के ज्ञान से चौंकाने वाले रूप में प्रस्तुत करता,
मगर कोइ नतीजा न निकला. आरम्भ में तो इवान वसील्येविच मुझसे मिलते हुए मुस्कुराता था, मगर धीरे-धीरे उसकी
मुस्कराहट कम होती गयी और, आखिरकार, उसने पूरी तरह मुस्कुराना बंद कर दिया.
तब मैं रातों को
रिहर्सल करने लगा, मैं एक छोटा शीशा लेता, उसके सामने बैठता, उसमें प्रतिबिंबित होता और कहना शुरू करता:
“इवान वसील्येविच !
देखिये, बात ये है: मेरी राय में खंजर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता....”
और सब कुछ बहुत
अच्छी तरह चलने लगा. होठों पर सभी और नम्र मुस्कान खेलती, आईने से आंखें सीधे और
बुद्धिमत्ता से देखतीं, माथा चिकना हो गया, काले सिर सफ़ेद धागे की तरह मांग दिखाई देती. इस सबका परिणाम तो होना ही था, मगर सब कुछ बदतर होता जा रहा
था. मैं थक गया था, दुबला होता जा रहा था और मैंने अपनी ड्रेस में कुछ ढील दी. अब मैं एक ही
कॉलर दो बार पहनता.
एक बार रात को
मैंने जांच करने का निश्चय किया और, आईने में देखे बिना, अपना वाक्य बोला, और इसके बाद चोरी से आंखें बारीक करके जांचने के लिए आईने में देखा और मैं
भयभीत हो गया.
आईने से मेरी ओर
देख रहा था झुर्रियाँ पड़ा माथा, खुले हुए दांत और आंखें, जिनमें न केवल परेशानी बल्कि रहस्यमय विचार भी
परिलक्षित हो रहा था. मैंने सिर पकड़ लिया, समझ गया कि आईने ने मुझे नीचा दिखाया है और मुझे धोखा दिया है, और मैंने
उसे फर्श पर फेंक दिया. और उसमें से एक तिकोना टुकड़ा उछल कर बाहर गिरा. कहते हैं,
कि आईने का टूटना बुरा शगुन है. मगर उस पागल के बारे में क्या कहा जाए, जो ख़ुद ही अपना आईना तोड़
देता हो?
“बेवकूफ, बेवकूफ,” मैं चिल्लाया, और चूंकि मैं बुदबुदा रहा था, तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो रात की खामोशी में कोई कौआ कांव-कांव कर रहा
है,” – मतलब, मैं अच्छा ही था, सिर्फ तब तक जब तक मैं स्वयं को आईने में देख रहा था, मगर जैसे ही उसे हटाया, जैसे नियंत्रण हट गया और
मेरा चेहरा मेरे विचारों की दया पर था और...और, शैतान मुझे ले जाए!
मुझे इसमें कोई शक
नहीं है कि मेरे ‘नोट्स’, अगर संयोगवश किसी के हाथों में पड़ गए, तो वे पाठक पर अच्छा प्रभाव नहीं डालेंगे. वह सोचेगा, कि उसके सामने एक चालाक, दोहरी मानसिकता वाला व्यक्ति
है, जो अपने किसी स्वार्थ की खातिर इवान वसील्येविच पर अच्छा प्रभाव डालने की कोशिश कर रहा था.
फैसला करने की
जल्दी न करें. मैं अभी बताऊंगा, कि स्वार्थ क्या था.
इवान वसील्येविच जिद्दीपन
से और निरंतर नाटक से वही दृश्य हटाने की कोशिश कर रहा था, जहां बख्तीन (बिख्तेएव)
स्वयँ को गोली मार लेता है, जहाँ हार्मोनियम बजाया जाता है. मगर, मैं जानता था, मैंने देखा था, कि, तब नाटक का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. मगर उसका अस्तित्व ज़रूरी था,
क्योंकि मैं जानता था, कि उसमें सच्चाई थी. इवान वसील्येविच को दी गयी विशेषताएँ काफी स्पष्ट थीं.
हाँ, मानता हूँ, कि वे अनावश्यक थीं. मैंने उससे परिचय के आरंभिक दिनों में उसे पहचान लिया
था, और समझ लिया था और मैं जानता था कि इवान वसील्येविच के साथ ज़रा सा भी संघर्ष
संभव नहीं है. मेरे सामने बस एक ही विकल्प था: कोशिश करना कि वह मेरी बात सुने.
ज़ाहिर है, इसके लिए ये ज़रूरी था कि वह अपने सामने किसी खुशगवार व्यक्ति को देखे.
इसीलिये मैं आईने के साथ बैठा था. मैं गोली-बारी बचाने की कोशिश कर रहा था, मैं चाहता था, कि लोग सुनें कि जब बर्फ पर, चाँद की रोशनी में खून का
धब्बा फैलता है, तो पुल पर हार्मोनियम कितने डरावने ढंग से बजता है. मैं चाहता था कि काली
बर्फ देखें. इसके अलावा मैं कुछ और नहीं चाहता था.
और फिर से कौआ
चिल्लाया.
“बेवकूफ़! असली बात
समझना चाहिए थी! तुम किसी आदमी को कैसे अच्छे लग सकते हो, जब खुद तुमको ही वह पसंद
नहीं है! तुम क्या सोचते हो? क्या तुम किसी आदमी को अपनी
मर्ज़ी से पटा लोगे? खुद तुम्हारे मन में ही उसके खिलाफ भावनाएं होंगी, और उसके मन में अपने प्रति
सहानुभूति उत्पन्न करने की कोशिश करोगे? ये कभी भी संभव नहीं होगा, चाहे तुम कितना ही आईने के
सामने सिर पटक लो.
मगर इवान वसील्येविच
मुझे अच्छा नहीं लगा. आंटी नस्तास्या इवानव्ना भी पसंद नहीं आई, ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना
तो बेहद ही बुरी लगी. और ये महसूस होता है!
दीर्किन की गाड़ी
का मतलब ये था की इवान वसील्येविच “काली
बर्फ” की रिहर्सलों पर थियेटर जाता था.
हर रोज़ दोपहर को
पाकिन तेज़ी से अँधेरे स्टाल में भागता था, भय से मुस्कुराते और हाथों में गैलोश लिए. उसके पीछे जाती थी अव्गुस्ता
अव्देयेव्ना हाथों में चौखाने वाली शॉल लिए. अव्गुस्ता अव्देयेव्ना के पीछे –
ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना साझी नोटबुक लिए और लेस वाला रूमाल लिए.
स्टाल में इवान वसील्येविच
ने गैलोश पहने, डाइरेक्टर की मेज़ के पीछे बैठ गया, अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने इवान वसील्येविच के कन्धों पर शॉल डाला, और स्टेज पर रिहर्सल
शुरू हो गयी.
इस रिहर्सल के
दौरान ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना, डाइरेक्टर की मेज़ के पास ही बैठी, अपनी नोटबुक में वह कुछ
लिखती जाती, कभी-कभार विस्मयपूर्वक प्रशंसा के उद्गार प्रकट करती – धीमी आवाज़ में.
अब समय आ गया है
कैफियत देने का. मेरी नापसन्दगी का कारण, जिसे मैं बेवकूफ़ी से छुपाने की कोशिश कर
रहा था, शॉल नहीं थी, ना ही गैलोश थे और ना ही ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना, बल्कि ये था कि इवान वसील्येविच
ने, जो पचास वर्षों से डाइरेक्शन का कार्य कर रहा था, अत्यंत प्रसिद्ध और, सामान्य राय में, मौलिक सिद्धांत का आविष्कार
किया था, जो इस बारे में थी कि कलाकार को अपनी भूमिका के लिए किस प्रकार तैयारी करना
चाहिए.
मुझे एक मिनट के
लिए भी संदेह नहीं है, कि सिद्धांत वास्तव में मौलिक था, मगर जिस तरह से इस सिद्धांत का व्यावहारिक रूप में प्रयोग किया जाता है, उससे मैं निराश हो गया.
मैं अपने सिर की
कसम खाता हूँ, कि अगर मैं कहीं से एक नये व्यक्ति को रिहर्सल पर लाता, तो वह अत्यंत विस्मयचकित हो
जाता.
पत्रिकेव मेरे
नाटक में एक छोटे-मोटे अधिकारी की भूमिका कर रहा था, जो एक औरत से प्यार करता है, मगर वह उसकी भावनाओं को कोई प्रतिसाद नहीं देती.
भूमिका हास्यास्पद
थी, और खुद पत्रिकेव असाधारण रूप से हास्यास्पद ढंग से उसे कर रहा था और दिन
प्रतिदिन अधिकाधिक बेहतर ढंग से उसे निभाता. वो इस कदर अच्छा था, कि मुझे ऐसा लगने लगा, जैसे ये पत्रिकेव नहीं, बल्कि खुद वो अधिकारी है, जिसकी मैंने कल्पना की थी.
कि पत्रिकेव इस अधिकारी से पूर्व ही अस्तित्व में था और किसी चमत्कार की बदौलत
मैंने उसे पहचान लिया.
जैसे ही दीर्किन
की गाड़ी थियेटर के पास प्रकट हुई, और इवान वसील्येविच को शॉल उढ़ाया गया, पत्रिकेव का काम शुरू हो गया.
“ठीक है, शुरू करते हैं,” इवान वसील्येविच ने कहा.
स्टाल में सम्मानपूर्ण
शान्ति छा गई, और परेशान पत्रिकेव (और उसकी परेशानी इस बात से प्रकट हो रही थी, कि उसकी
आंखों में आंसू आ गए) नायिका के साथ प्यार के इज़हार का दृश्य प्रदर्शित कर रहा था.
“तो,” इवान वसील्येविच ने लोर्नेट से आंखें चमकाते हुए कहा, “ये किसी काम का नहीं है.”
मेरी आत्मा ने आह
भरी, और मेरे पेट के भीतर जैसे कुछ टूट गया. मैंने सोचा नहीं था, कि इस दृश्य को पत्रिकेव
द्वारा प्रदर्शित दृश्य से ज़रा भी बेहतर खेला जा सकता था. ‘और अगर वह इसमें सफल हो
जाता है,’ – मैंने सम्मानपूर्वक इवान वसील्येविच की ओर देखते हुए सोचा, ‘तो मैं कहूँगा, कि वह वाकई में जीनियस है.’
“किसी काम का नहीं
है,” इवान वसील्येविच ने दुहराया, “ये सब क्या है? ये सिर्फ कुछ टुकड़े हैं, और एक ही बात बार-बार दुहराई
जा रही है. वो इस महिला के बारे में क्या महसूस करता है?”
“वह उससे प्यार
करता है, इवान वसील्येविच ! आह, कितना प्यार करता है!” फोमा स्त्रिझ चीखा, जो इस पूरे दृश्य को गौर से देख रहा था.
“अच्छा,” इवान वसील्येविच ने कहा और फिर से पत्रिकेव से मुखातिब हुआ :
“क्या आपने इस बारे में सोचा है, कि उत्कट प्रेम क्या होता है?”
जवाब में पत्रिकेव
ने स्टेज से घरघराते हुए कुछ कहा, मगर क्या – उसे समझना असंभव था.
“उत्कट प्रेम,”
इवान वसील्येविच ने आगे कहा, “ इस बात से प्रकट होता है, कि आदमी अपनी प्रियतमा के
लिए कुछ भी करने को तैयार है,” और उसने आज्ञा दी, “यहाँ एक साइकिल लाओ!”
इवान वसील्येविच के
हुक्म से स्त्रिझ उत्साहित हो गया, और वह परेशानी से चिल्लाया:
“ऐ, प्रॉप्स! साइकिल!”
प्रॉप स्टेज पर
पुरानी बाइसिकल चलाते हुए लाया, जिसकी फ्रेम का रंग उतर चुका था. पत्रिकेव ने आंसू भरी नज़रों से उसकी ओर
देखा.
“एक प्रेमी अपनी
प्रियतमा के लिए सब कुछ कर सकता है,” – इवान वसील्येविच ने खनखनाती
आवाज़ में कहा , “खाता है, पीता है, चलता है और ड्राईव करता है...”
उत्सुकता और दिलचस्पी से स्तब्ध होते हुए, मैंने ल्युद्मिला
सिल्वेस्त्रव्ना की ऑइलक्लॉथ वाली नोटबुक में झांका और देखा कि वह बच्चों जैसे
अक्षरों में लिख रही है “प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए सब कुछ करता है...”
“...तो, मेहेरबानी
करके अपनी प्रियतमा के लिए साइकिल पर सवार हो जाईये,” इवान वसील्येविच
ने सूचना दी और एक पेपरमिंट खाया.
मैंने स्टेज से नज़र नहीं हटाई. पत्रिकेव
साइकिल पर चढ़ गया, प्रियतमा की भूमिका करने वाली कलाकार एक बड़ा सा
चमकदार पर्स पेट के पास दबाये, कुर्सी पर बैठी थी. पेत्रिकेव ने पैडल्स को छुआ और
बिना आत्मविश्वास के कुर्सी के चारों ओर जाने लगा, एक आंख से
प्रोम्प्टर-बूथ की तरफ देखते हुए, जिसमें गिरने का उसे डर था, और दूसरी आंख से अभिनेत्री को देख लेता.
हॉल में लोग मुस्कुराने लगे .
“बिल्कुल वो बात नहीं
है,” जब पेत्रिकेव रुका, तो इवान वसील्येविच ने टिप्पणी की, - “आप प्रॉप की तरफ आंखें फाड़े क्यों देख रहे थे? क्या आप उसके लिए चला रहे
हैं?”
पेत्रिकेव फिर से
चलाने लगा, इस बार दोनों आँखे अभिनेत्री पर लगाए, वह मुड़ न सका और बैक स्टेज पर चला गया.
जब साइकिल को
हैंडल से पकड़कर उसे वापस लाया गया, तो इवान वसील्येविच ने इस मार्ग को भी सही नहीं माना, और पेत्रिकेव अपने सिर को
अभिनेत्री की ओर मोड़कर तीसरी बार चल पडा.
“भयानक,” इवान वसील्येविच ने कड़वाहट
से कहा. – “ आपकी मांसपेशियाँ तनी हुई हैं, आपको खुद पर विश्वास नहीं है. मांसपेशियों को ढीला छोडिये, उन्हें ढीला कीजिये!
अनैसर्गिक दिमाग़, आपके दिमाग़ पर भरोसा नहीं किया जा सकता.”
पेत्रिकव साइकिल
चला रहा था, सिर झुकाए, कनखियों से देखते हुए.
“बेकार की ड्राईव
है, आप भावनारहित चला रहे हैं, अपनी प्रियतमा के प्रेम से खाली.”
और पेत्रिकव फिर
से चलाने लगा. एक चक्कर लगाया, कूल्हों पर हाथ रखे और गुर्मी से अपनी प्रियतमा को देखते हुए. एक हाथ से
हैंडल घुमाते हुए, वह तेज़ी से मुँडा और अभिनेत्री के ऊपर चढ़ गया, गंदे टायर से उसके स्कर्ट को खराब कर दिया, जिससे वह डर से चिल्लाई. ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना भी स्टाल्स में चीखी.
यह पता करने के बाद कि अभिनेत्री को चोट तो नहीं आई और उसे किसी डाक्टरी सहायता की
ज़रुरत तो नहीं है, और यह इत्मीनान करने के बाद कि कोई भयानक बात नहीं हुई है, इवान वसील्येविच ने फिर से पेत्रिकव को चक्कर लगाने के लिए भेज
दिया, और वह कई बार घूमता रहा, जब तक इवान वसील्येविच ने पूछ न लिया, कि क्या वह थक गया था? पत्रिकेव ने जवाब दिया कि वह थका नहीं था, मगर इवान वसील्येविच ने कहा, कि वह देख रहा है, कि पेत्रिकेव थक गया है, और उसे छोड़ दिया.
पेत्रिकेव के
स्थान पर मेहमानों का एक समूह आ गया. मैं सिगरेट पीने के लिए बुफे में चला गया, और जब वापस लौटा तो देखा कि
अभिनेत्री का पर्स फर्श पर पड़ा है, और वह खुद अपने नीचे हाथ रखे बैठी है, ठीक उसी तरह जैसे उसकी तीन महिला
मेहमान बैठी हैं, और एक और मेहमान, वो ही विश्निकोवा, जिसके बारे में इंडिया से लिखा था. वे सब उन वाक्यों को बोलने की कोशिश कर
रही थीं, जो नाटक के दौरान इस दृश्य में बोले जाने वाले थे, मगर वे किसी भी तरह से आगे
नहीं बढ़ पा रही थीं, क्योंकि इवान वसील्येविच हर बार
बोलने वाले को रोक देता, ये समझाते हुए की कहाँ गलती हो रही है. मेहमानों की, और पेत्रिकेव की
प्रियतमा की, जो नाटक की हीरोइन थी, मुश्किलें इस बात से भी बढ़
रही थीं, क्योंकि हर मिनट वे अपने नीचे से हाथ बाहर निकालकर हाव-भाव प्रदर्शित करना
चाहते थीं.
मेरे अचरज को
देखते हुए, स्त्रिझ ने फुसफुसाते हुए मुझे समझाया, कि इवान वसील्येविच ने कलाकारों को
हाथों से वंचित किया है, जिससे वे शब्दों के द्वारा अभिप्राय स्पष्ट कर सकें, न कि हाथों की सहायता
लें.
नई, अचरजभरी चीज़ों के प्रभाव से
अभिभूत, मैं रिहर्सल से यह सोचते हुए घर लौट रहा था:
“हाँ, ये सब अद्भुत है. मगर अद्भुत
सिर्फ इसलिए, कि मैं इस क्षेत्र में अनुभवहीन हूँ. हर कला के अपने नियम, अपने रहस्य और अपनी तकनीक
होती है. मिसाल के तौर पर, किसी जंगली आदमी को हास्यास्पद और अजीब लगेगा, कि आदमी मुंह में चॉक भरके ब्रश से दांत साफ करता है. अनुभवहीन व्यक्ति को
अजीब लगता है, कि कोई डॉक्टर फ़ौरन ऑपरेशन करने के बदले मरीज़ के साथ कई सारी अजीब चीज़ें
करता है, जैसे, परीक्षण के लिए खून लेता है और इसी तरह का बहुत कुछ...
सबसे ज़्यादा, अगली रिहर्सल पर मैं साइकिल
के किस्से का अंत देखने के लिए लालायित था, मतलब, यह देखने के लिए, कि क्या पेत्रिकव ‘उसके लिए’ जाने में कामयाब होता है.
मगर, अगले दिन साइकिल के बारे में
किसी ने भी एक भी शब्द नहीं कहा, और मैंने अन्य चीज़ें देखीं, जो कम आश्चर्यजनक नहीं थीं. उसी
पेत्रिकव को अपनी प्रियतमा को गुलदस्ता पेश करना था. इसीसे दोपहर बारह बजे आरंभ
हुआ और ये चार बजे तक चलता रहा.
गुलदस्ता न केवल
पेत्रिकेव ने पेश किया, बल्कि बारी-बारी से सबने पेश किया: एलागिन ने, जो जनरल की भूमिका कर रहा था, और अदेल्बेर्त ने भी, जो डाकुओं के गिरोह की भूमिका में था. इससे मुझे बेहद आश्चर्य हुआ. मगर
फोमा ने यहाँ भी मुझे आश्वस्त किया, ये समझाते हुए, कि इवान वसील्येविच, हमेशा की तरह अत्यंत बुद्धिमानी से काम कर रहे थे, बहुत सारे लोगों को स्टेज की
कोई तकनीक सिखा रहे थे. और वाकई में, इवान वसील्येविच अपने पाठ के
साथ दिलचस्प और शिक्षाप्रद कहानियां भी सुना रहे थे, कि महिलाओं को गुलदस्ते कैसे पेश करना चाहिए, और कौन उन्हें कैसे ले गया.
वहीं मुझे यह भी
पता चला, कि कमारोव्स्की-बिओन्कूर ने इसे सबसे बढ़िया किया था (रिहर्सल के क्रम को
भंग करते हुए ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना चीखी: ‘आह, हाँ, हाँ, इवान वसील्येविच , मैं भूल नहीं सकती!’) और इटालियन बैरिटोन, जो इवान वसील्येविच ने सन् 1889
में मिलान में सीखा था.
मैं, सच में, इस बैरीटोन से परिचित न होने
के कारण, ये कह सकता हूँ, कि सबसे अच्छी तरह गुलदस्ता खुद इवान वसील्येविच ने पेश
किया. वे मगन हो गए, स्टेज पर गए और क़रीब तेरह बार दिखाया कि ये प्यारा तोहफ़ा कैसे पेश करना
चाहिए. दरअसल, मैं विश्वास करने लगा, कि इवान वसील्येविच अद्भुत और वाकई
में प्रतिभाशाली अभिनेता है.
अगले दिन मुझे
रिहर्सल पर जाने में देर हो गयी, और जब वहां पहुंचा तो देखा कि स्टेज पर पास-पास रखी कुर्सियों पर ओल्गा
सिर्गेयेव्ना (अभिनेत्री जो हीरोईन की भूमिका कर रही थी), और विश्निकोवा (मेहमान),
और एलागिन, और व्लदीचिन्स्की, और अदाल्बेर्त, और मेरे लिए कुछ अज्ञात व्यक्ति बैठे थे
और इवान वसील्येविच के आदेश “एक, दो, तीन”, पर अपनी जेबों से अदृश्य नोट निकाल रहे हैं, उनमें अदृश्य धन राशि को
गिनते हैं, और उन्हें वापस छुपा लेते हैं.
जब यह स्केच ख़तम
हो गया, (और इसका कारण, जैसा कि मैं समझ पाया, ये हुआ, कि पत्रिकेव इस दृश्य में पैसे गिन रहा था), तो दूसरा प्रसंग शुरू हो गया. एक
झुण्ड को इवान वसील्येविच द्वारा स्टेज पर बुलाया गया और, कुर्सियों पर बैठकर, ये झुण्ड अदृश्य हाथों से
अदृश्य कागज़ पर मेजों पर पत्र लिखने लगा और उन्हें सील करने लगा (फिर से
पत्रिकेव!). चाल ये थी कि वह प्रेम-पत्र होना चाहिए.
इस प्रसंग में
थोड़ी गलती हो गई: लिखने वालों में, गलती से प्रोप भी शामिल हो गया.
स्टेज पर आये
लोगों का उत्साह बढ़ाते हुए और इस साल प्रविष्ट हुए सहायक अभिनेताओं को ठीक से न
जानने के कारण इवान वसील्येविच ने इस
पत्रलेखन की प्रक्रिया में एक घुंघराले बालों वाले प्रोप को भी शामिल कर लिया, जो स्टेज के किनारे से गुज़र
रहा था.
“और आपको, क्या,” इवान वसील्येविच उस पर चिल्लाया, “अलग से निमंत्रण भेजना पडेगा?”
प्रोप कुर्सी पर
बैठ गया और सब के साथ हवा में लिखने लगा और उँगलियों पर थूकने लगा. मेरी राय में, वह औरों के मुकाबले में बुरा
नहीं कर रहा था, मगर संकोच से मुस्कुरा रहा था और लाल पड़ गया था.
इस बात ने इवान वसील्येविच
को चीख़ने पर मजबूर कर दिया:
“और, किनारे पर यह अजीब आदमी कौन है? उसका कुलनाम क्या है? वो, शायद, सर्कस में जाना चाहता है? ये कैसा ओछापन है?”
“वो प्रोप है!
प्रोप, इवान वसील्येविच !” फोमा कराहते हुए बोला, और इवान वसील्येविच खामोश हो गया, और प्रोप को शांतिपूर्वक जाने दिया गया.
और अथक परिश्रम
में दिन बीत गए. मैंने बहुत कुछ देखा. देखा, कि कैसे कलाकारों का झुण्ड, ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना के नेतृत्व में (जो वैसे, नाटक में भाग नहीं ले रही
थी), चीखते हुए स्टेज पर भाग रहा था और अदृश्य खिड़कियों की तरफ लपका.
बात ये है, कि यह सब उसी चित्र में है, जहाँ गुलदस्ता भी है, और ख़त भी, एक दृश्य था, जब मेरी नायिका, खिड़की में
दूर की चमक देखकर उसकी ओर भागी.
इसीने गहन अध्ययन
की नींव रखी. यह अध्ययन अविश्वसनीय रूप से विस्तृत होता गया और, साफ़-साफ़ कहूंगा, वह मुझे मन की अत्यंत
निराशाजनक अवस्था में ले आया.
इवान वसील्येविच ने, जिसके सिद्धांत में, अन्य
बातों के अलावा, यह खोज भी शामिल थी कि पाठ की रिहर्सल में कोई भूमिका नहीं होती, और नाटक में अपने स्वयं के
पाठ का अभिनय करते हुए, पात्रों की रचना करना चाहिए, सबको इस चमक को महसूस करने की
आज्ञा दी.
इसके परिणाम
स्वरूप खिड़की की ओर भागने वाला हर व्यक्ति वही चिल्ला रहा था, जो उसे उचित लग रहा था.
“आह, गॉड, माय गॉड!!” अधिकांश लोग
यह चिल्ला रहे थे.
“कहाँ जल रहा है? ये क्या है?” अदाल्बेर्त विस्मय से चीखा.
मैंने चीखते हुए
आदमियों और औरतों की आवाजें सुनीं:
“अपने आप को बचाओ!
पानी कहाँ है? ये एलिसेव जल रहा है!!
(शैतान जाने क्या
हो रहा है!)
बचाओ! बच्चों को
बचाओ! ये विस्फ़ोट है! अग्निशामक दल को बुलाओ! हम मर रहे हैं!”
इस सब हुड़दंग पर ल्युद्मिला
सिल्वेस्त्रव्ना की तीखी आवाज़ छाई थी, जो न जाने क्या बकवास चिल्ला
रही थी:
“ओह, मेरे खुदा! ओह, सर्वशक्तिमान खुदा! मेरे
संदूकों का क्या होगा?! और हीरे! और मेरे हीरे!!”
बादल की तरह काला
पड़ते हुए, मैं ल्युद्मिला
सिल्वेस्त्रव्ना की तरफ़ देख रहा था, जो अपने हाथ मरोड़ रही थी, और ये सोच
रहा था, कि मेरे नाटक की नायिका सिर्फ एक ही बात कहेगी:
“देखिये...लाली...” और वह भी शानदार तरीके
से, कि मुझे तब तक इंतज़ार करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, जब तक नाटक में भाग न ले रही ल्युदमिला
सिल्वेस्त्रव्ना इस चमक को महसूस नहीं करती. किन्हीं संदूकों के बारे में कुछ
जंगली चीखों ने, जिनका नाटक से कोई संबंध नही है, मुझमें इतनी
चिड़चिड़ाहट भर दी कि मेरा चेहरा ऐंठने लगा.
इवान वसील्येविच के साथ कक्षाओं के तीसरे
सप्ताह के अंत तक निराशा ने मुझे घेर लिया. इसके तीन कारण थे. पहला, मैंने गणितीय हिसाब लगाया और मैं बेहद भयभीत हो गया.
हम तीन सप्ताह से रिहर्सल कर रहे थे, और बस उसी एक चित्र की. नाटक में तो सात चित्र थे.
मतलब, अगर एक ही चित्र के लिए तीन हफ़्ते रखे जाएँ...
“ओह, गॉड!”
- घर के सोफे पर करवटें लेते हुए मैं
अनिद्रा की स्थिति में फुसफुसाया, “सात का तीन गुना...इक्कीस सप्ताह या पांच...हाँ,
पांच...या फिर छः महीने!! आखिर मेरा नाटक कब प्रदर्शित होगा?! एक सप्ताह बाद ‘ऑफ़-सीज़न’ शुरू हो
जाएगा, और सितम्बर तक कोई रिहर्सल नहीं होगी! मेहेरबानों!
सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर...”
रात तेज़ी से सुबह की ओर बढ़ रही थी. खिड़की
खुली थी, मगर ठंडक नहीं थी. मैं माइग्रेन के साथ रिहर्सल में
पहुंचा, पीला पड़ गया और बेहद मरियल लग रहा था.
निराशा का दूसरा
कारण और भी गंभीर था. अपना भेद इस नोटबुक को मैं विश्वासपूर्वक सौंप सकता हूँ:
मुझे इवान वसील्येविच के सिद्धांत पर संदेह था. हां! ये कहना खतरनाक है, मगर बात यही है.
पहले सप्ताह के
अंत तक मेरी आत्मा में डरावने संदेह रेंगने लगे. दूसरे सप्ताह के अंत में मैं जान
गया था, कि मेरे नाटक के लिए, ज़ाहिर है, यह सिद्धांत लागू नहीं हो सकता. पत्रिकेव ने न सिर्फ गुलदस्ता अच्छी तरह
पेश करना नहीं सीखा, पत्र लिखना या प्रेम प्रकट करना भी नहीं सीखा. नहीं! ऐसा लग रहा था, कि वह मजबूरी में अभिनय कर
रहा है और बिल्कुल भी मज़ाकिया नहीं लग रहा था. और सबसे महत्वपूर्ण बात, उसे अचानक ज़ुकाम हो गया.
जब इस अंतिम
स्थिति के बारे में मैंने अफसोस के साथ बम्बार्दव को बताया, तो वह हंस पड़ा और बोला:
“खैर, उसका ज़ुकाम जल्दी ही ठीक हो
जाएगा, अब वह पहले से बेहतर महसूस कर रहा है, और कल और आज क्लब में बिलियार्ड खेल रहा था. जब आप इस चित्र की रिहर्सल
पूरी कर लेंगे, तो उसका ज़ुकाम भी ख़त्म हो जाएगा. आप इंतज़ार कीजिये : अभी तो औरों को भी
ज़ुकाम होगा. और सबसे पहले, मेरा ख़याल है, एलागिन को.”
“आह, शैतान ले जाए!” बात को समझते
हुए मैं चीखा.
बम्बार्दव की
भविष्यवाणी यहाँ भी सही साबित हुई. एक दिन बाद एलागिन भी रिहर्सल से गायब हो गया, और अन्द्रेई अन्द्रेयेविच ने
प्रोटोकोल में उसके बारे में दर्ज किया:
“रिहर्सल से मुक्त
किया गया. ज़ुकाम”. वही आपदा अदाल्बेर्त पर भी आई. प्रोटोकोल में वैसा ही कारण दर्ज
हुआ. अदाल्बेर्त के बाद – विश्निकोव पर भी. मैं दांत पीसता रहा, अपनी गणना में एक और महीना
ज़ुकाम के लिए जोड़ दिया. मगर मैंने अदाल्बेर्त को दोष नहीं दिया, ना ही पत्रिकेव को. असल में,
चौथे चित्र में, डाकुओं का सरदार अस्तित्वहीन अग्निकांड के लिए समय व्यर्थ गंवाए, जबकि उसके
डाके और अन्य संबंधित काम, उसे तीसरे चित्र में काम की ओर आकर्षित करते हैं, और पांचवे चित्र में भी.
और फिलहाल, पत्रिकेव बीयर पीते हुए, अमेरिकन लड़की के साथ मार्कर
खेल रहा था, अदाल्बेर्त ‘क्रास्नाया प्रेस्न्या’ पर क्लब में, जहां वह एक थियेटर ग्रुप
का नेतृत्व करता है, शिलेर के “डाकू” की रिहर्सल कर रहा था.
हाँ, ये योजना, ज़ाहिर है, मेरे नाटक के लिए लागू नहीं
हो सकती थी, और स्पष्टत: उसके लिए हानिकारक थी. चौथे चित्र में दो अभिनेताओं के बीच
झगड़े से यह वाक्य उत्पन्न हुआ:
“मैं तुम्हें
द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारता हूँ !”
और रात में कई बार
मैंने अपने आप को हाथ काटने की धमकी दी, कि क्यों मैंने उस त्रिवार-अभिशप्त वाक्य
को लिखा.
जैसे ही उसे बोला
गया, इवान वसील्येविच बेहद उत्तेजित हो गया और उसने पतली तलवारें लाने का हुक्म
दिया. मैं पीला पड़ गया. मैं बड़ी देर तक देखता रहा, कि कैसे व्लादीचिन्स्की और ब्लगास्वेत्लव तलवारें खनखना रहे हैं, और इस
ख़याल से कांप रहा था कि व्लादीचिन्स्की ब्लगास्वेत्लव की आंख बाहर निकाल देगा.
इवान वसील्येविच इस समय यह बता रहा था, की कैसे कमारोव्स्की–बिआन्कूर
मॉस्को के मेयर के बेटे के साथ तलवार से लड़ रहा था.
मगर बात शहर के
प्रमुख के नासपीटे बेटे की नहीं थी, बल्कि यह थी, कि इवान वसील्येविच इस बात पर लगातार ज़ोर दे रहा था, कि मैं अपने नाटक में
तलवारों के द्वंद्व युद्ध का दृश्य लिखूं.
मैंने इसे खतरनाक
मज़ाक समझा, और मेरी भावनाएं कैसी थीं, जब चालाक और धोखेबाज़ स्त्रिझ ने कहा, कि एक सप्ताह के भीतर द्वंद्व
युद्ध के दृश्य की रूपरेखा तैयार हो जाना चाहिए.
अब मैं बहस करने
लगा, मगर स्त्रिझ अपनी ही बात पर अड़ा रहा. उसकी ‘निर्देशक की पुस्तिका’ में लिखी गयी टिप्पणी ने –
‘यहाँ द्वंद्व युद्ध होगा.” मुझे पूरी तरह उन्माद की स्थिति में भेज दिया.
और स्त्रिझ के साथ
रिश्ते खराब हो गए.
उदासी और आक्रोश
में मैं रातों को करवटें बदलता रहता, मैं स्वयँ को अपमानित महसूस कर रहा था.
‘काश, अस्त्रोव्स्की से द्वंद्व-युद्ध
न लिखा होता,’ मैं गुर्राया, ‘ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना को
संदूकों के बारे में चिल्लाने का मौक़ा न दिया होता!’
और अस्त्रोव्स्की
के प्रति सूक्ष्म ईर्ष्या की भावना नाटककार को पीड़ित करती रही. मगर यह सब, ख़ास तौर से, एक विशेष घटना से, मेरे नाटक से संबंधित था.
मगर उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण एक चीज़ थी.
‘स्वतन्त्र थियेटर’ के प्रति प्रेम से पूरी तरह अवशोषित, अब उससे चिपका हुआ, जैसे खटमल किसी कॉर्क से
चिपका रहता है, मैं हर शाम प्रदर्शन के लिए जाता था. और अब मेरे संदेह, आखिरकार, दृढ़ विश्वास में बदल गए. मैं
सरलता से तर्क करने लगा: अगर इवान वसील्येविच का सिद्धांत अचूक है, और उसके अभ्यास से अभिनेता
को पुनर्जन्म का उपहार मिल सकता है, तो स्वाभाविक है, कि हर प्रदर्शन में, हर अभिनेता को दर्शक के मन में सम्पूर्ण भ्रम पैदा
करना चाहिए. और इस तरह अभिनय करना चाहिए, कि दर्शक भूल जाए कि उसके सामने स्टेज है....’
********
(1936-1937)