अध्याय 2
रंगीन लहर
तो, प्रोफेसर ने बिजली का गोला जलाया और
चारों ओर नज़र डाली. प्रयोग वाली लम्बी मेज़ पर रेफ्लेक्टर जलाया, सफ़ेद एप्रन पहना,
मेज़ पर पड़े किन्हीं उपकरणों को खनखनाया...
सन् ’28 में मॉस्को की सड़कों पर दौड़ रहे
30 हज़ार स्वचालित वाहनों में से अधिकांश, लकड़ी के पुलों पर खड़खड़ाते हुए, गेर्त्सेन
रोड़ से ही गुज़रते थे, और शोर और कर्कशता के साथ हर मिनट गेर्त्सेन से मोखोवाया
जाने वाली 16, 22, 48 या 53 नंबर के रूट वाली ट्राम गाड़ी गुज़रती. अध्ययन कक्ष के
आईनों में रंगबिरंगी रोशनियों की चमक बिखेरता, दूर, ऊँचाई पर क्राईस्ट-चर्च की
अंधेरी और भारी-भरकम गुम्बद की बगल में कोहरे से ढंका, बदरंग चांद का हंसिया नज़र आ
रहा था.
मगर न तो वो, न ही बसंत के मॉस्को का शोरगुल
प्रोफेसर पेर्सिकोव का ध्यान अपनी ओर खींच रहे थे. वह तीन टांगों वाले रिवॉल्विंग
स्टूल पर बैठा था और तम्बाकू के कारण भूरी हो गईं उँगलियों से शानदार ज़ैस माईक्रोस्कोप
का स्क्रू घुमा रहा था, माइक्रोस्कोप के नीचे डिस्क में ताज़े अमीबा का रंगहीन
प्रिपैरटिव रखा था. उस क्षण, जब पेर्सिकोव ने मैग्नोफिकेशन को 5 से बढ़ाकर 10 हज़ार
किया, दरवाज़ा थोड़ा सा खुला, नुकीली दाढ़ी और चमड़े का जैकेट दिखाई दिया , और
असिस्टेंट ने पुकारा:
“व्लादीमिर इपातिच, मैंने आन्त्रयोजनी (आंत
के कुछ हिस्से और उदर की थैली के बीच की झिल्ली– अनु.) खोल दी है, देखना
चाहेंगे?”
अपने स्क्रू और प्रिपैरेटिव को आधे में ही
छोड़कर पेर्सिकोव फुर्ती से तिपाई से उतरा और हाथों में धीरे धीरे सिगरेट घुमाते
हुए असिस्टेंट की कैबिनेट में घुसा. वहाँ काँच की मेज़ पर प्रयोग वाले तख़्ते पर एक मेंढकी
तनी हुई पड़ी थी, आधा दम घुटी, दर्द और डर से अधमरी; और खून से लथपथ पेट से निकाले
हुए उसके पारदर्शक, चिपचिपे आंतरिक अवयव माइक्रोस्कोप के नीचे रखे थे.
“बहुत अच्छे,” पेर्सिकोव ने कहा और अपनी आँख
माइक्रोस्कोप की आईपीस पर गड़ा दी.
ज़ाहिर है कि मेंढकी की आन्त्रयोजनी में
कोई बहुत ही दिलचस्प चीज़ इतनी स्पष्ट दिखाई दे रही थी, मानो सब कुछ हथेली पर रखा
हो: उसकी रक्तवाहिनियों की नदियों में खून के गोले ग़ज़ब की तेज़ी से बह रहे थे.
पेर्सिकोव अपने अमीबा के बारे में भूल गया और अगले डेढ़ घंटे तक बारी बारी से अपने
असिस्टेंट के साथ माइक्रोस्कोप में नज़र गड़ाता रहा. इस दौरान दोनों वैज्ञानिक बड़े
जोश में अपनी वैज्ञानिक भाषा में बातें भी कर रहे थे जो हम साधारण लोगों को समझ
में नहीं आएंगी.
आख़िरकार पेर्सिकोव माइक्रोस्कोप से दूर
हटा और उसने घोषणा कर दी:
“खून जम रहा है, कुछ नहीं किया जा सकता.”
मेंढकी ने मुश्किल से अपना सिर हिलाया,
उसकी बुझती हुई आँखों में ये शब्द स्पष्ट थे : “पूरे सुअर हो तुम, और कोई नहीं...”
अपने सुन्न हो गए पैरों को तान कर ठीक
करते हुए पेर्सिकोव उठा, अपनी कैबिनेट में आया, एक जमुहाई ली, सदा सूजी रहने वाली
पलकों पर उँगलियाँ फेरीं और, तिपाई पर बैठकर, माइक्रोस्कोप में देखा, उँगलियाँ
उसने स्क्रू पर रखीं और उसे घुमाने ही वाला था, मगर नहीं घुमाया. अपनी दाहिनी आँख
से पेर्सिकोव ने धुंधली सफ़ेद डिस्क देखी और उसमें रखे धुंधले सफ़ेद अमीबा, मगर
डिस्क के बीचोंबीच विराजमान थी एक रंगीन लहर, किसी औरत के घुंघराले बाल जैसी. इस
लहर को स्वयँ पेर्सिकोव और उसके सैंकडों विद्यार्थी अनेकों बार देख चुके थे, और
किसी को भी उसमें कभी कोई दिलचस्पी महसूस नहीं हुई, ज़रूरत ही नहीं थी. रंगीन लहर
सिर्फ़ निरीक्षण में बाधा डालती थी और यह दर्शाती थी कि प्रेपैरटिव फोकस में नहीं
है. इसलिए स्क्रू के एक घुमाव से उस हिस्से को सफ़ेद रंग के प्रकाश से आलोकित करके
उसे बेदर्दी से मिटा देते थे. प्राणी-शास्त्रज्ञ की लंबी लंबी उँगलियाँ स्क्रू की
नॉब पर जमी हुई थीं, मगर वे एकदम थरथराईं और नीचे गिर गईं. इसकी वजह थी पेर्सिकोव
की दाहिनी आँख. वह अचानक सतर्क हो गया, विस्मित हो गया, उत्तेजना से सराबोर भी हो
गया. माइक्रोस्कोप के पास ये कोई मामूली हस्ती नहीं थी, जो प्रांत को मुसीबत में
डालती. नहीं, ये बैठा था प्रोफेसर पेर्सिकोव! उसकी पूरी ज़िन्दगी, सारे विचार
दाहिनी आँख पर केन्द्रित हो गए. पाँच मिनट तक स्तब्ध ख़ामोशी में फोकस के बाहर वाले
प्रेपैरेटिव पर आँख फाड़े, उसे यातना देते हुए ऊपर का बेहतरीन जीव नीचे के निकृष्ट
जीवों को देखता रहा. चारों ओर की हर चीज़ ख़ामोश थी. पन्क्रात वेस्टीब्यूल के अपने
कमरे में सो चुका था, और सिर्फ एक बार दूर दरवाज़े के काँचों की हल्की सी, संगीतमय
आवाज़ सुनाई दी – ये इवानोव था जो जाते हुए अपनी कैबिनेट बन्द कर रहा था. उसके पीछे
प्रवेश द्वार कराहा. फिर सुनाई दी प्रोफेसर की आवाज़. वह किससे पूछ रहा था – पता
नहीं:
“ये क्या माजरा है? कुछ भी समझ नहीं पा रहा
हूँ...”
देर से लौटता हुआ एक ट्रक गेर्त्सेन
स्ट्रीट से गुज़रा और इंस्टीट्यूट की पुरानी दीवारों को हिला गया. मेज़ पर रखा चपटे
पेंदे वाला कांच का प्याला अपने उपकरणों समेत खनखनाया. प्रोफ़ेसर का मुख पीला पड़
गया और वह माइक्रोस्कोप पर अपने हाथ ले गया, ठीक उसी तरह जैसे एक माँ अपने बच्चे
के ऊपर हाथ रखती है जिस पर ख़तरा मंडरा रहा हो. अब इस बात का सवाल ही नहीं था कि
प्रोफेसर स्क्रू घुमाए, ओह, नहीं, बल्कि अब वह डर रहा था कि कोई बाहरी ताक़त नज़र के
दायरे से उसे हटा न दे जिसे उसने देखा था.
.
जब प्रोफेसर माइक्रोस्कोप के पास से हटा,
और अपने सुन्न पड़ चुके पैरों पर खिड़की की ओर गया तो साफ़, सफ़ेद झक् सुबह हो चुकी
थी, जो इंस्टीट्यूट की दूधिया रंग की ड्योढ़ी पर सुनहरी रोशनी का पट्टा बिखेर रही
थी. उसने थरथराती उँगलियों से बटन दबाया, और काले मोटे परदों ने सुबह को ढाँक
दिया, और कैबिनेट में फिर से बुद्धिमान वैज्ञानिक रात सजीव हो उठी. पीले और
उत्तेजित प्रोफेसर ने अपने पैर सीधे किए और पनीली आखों को फर्श पर गड़ाते हुए बोला:
“मगर, ये कैसे संभव है? ये तो अजूबा है!... ये
अजूबा है, महाशयों,” पिंजरों में बन्द अपने टोड्स से मुख़ातिब होते हुए उसने
दुहराया, मगर टोड्स सो रहे थे और उन्होंने उसे कोई जवाब नहीं दिया.
वह कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर बिजली के स्विच
की ओर गया, परदे उठा दिए, सारे लाइट्स बुझा दिए और माइक्रोस्कोप में देखा. उसके
चेहरे पर तनाव के लक्षण थे, उसने अपनी कंटीली पीली भौंहों को हिलाया.
“ऊ-हू, ऊ-हू,” वह बुदबुदाया, “गायब हो गया. समझ
गया. स-S-म—झ गया,” अपने
सिर के ऊपर बुझ गए बिजली के गोले की ओर देखते हुए पागल की तरह और अत्यंत उत्तेजित
स्वर में शब्दों को खींचते हुए वह बोला, “बड़ा आसान है.”
और उसने फिर से सनसनाते हुए परदे गिराए, और
फिर से बिजली का गोला जलाया. माइक्रोस्कोप में देखा, और खुशी से और कुछ हिंस्त्र
भाव से दाँत निकाल दिए.
“मैं उसे पकड़ लूँगा,” उँगली ऊपर उठाते हुए बड़े
शानदार अंदाज़ में उसने कहा, “ पकड़ लूँगा. हो सकता कि सूरज से भी पकड़ लूँ.”
परदे फिर से शोर मचाते हुए हट गए. सूरज अब
सामने था. अब उसने इन्स्टिट्यूट की दीवारों को धूप में नहला दिया और गेर्त्सेन रोड
के तख़्तों पर तिरछी रोशनी बिखेरने लगा. प्रोफेसर ने खिड़की में देखा, इस बात का
अंदाज़ लगाते हुए कि दिन में सूरज की स्थिति क्या होगी. वह कभी खिड़की के पास आता,
कभी उससे दूर हटता, अंत में वह खिड़की की सिल पर पेट के बल लेट गया.
उसने अपने महत्वपूर्ण और गुप्त कार्य का
आरंभ किया. काँच के टोप से माइक्रोस्कोप को ढाँक दिया. लैम्प की नीली लौ पर मोम
पिघलाई और टोप के किनारों को मेज़ से चिपका दिया, और मोम के धब्बों को अपनी बड़ी
उँगली से दबा दिया. गैस बन्द कर दी, बाहर निकला और अंग्रेज़ी ताले से कैबिनेट का
दरवाज़ा बन्द कर दिया.
इन्स्टीट्यूट के कॉरीडोर्स में आधी रोशनी
हो रही थी. प्रोफेसर पन्क्रात के कमरे तक पहुँचा और बड़ी देर तक उसे खटखटाता रहा.
आख़िरकार दरवाज़े के पीछे से ज़ंजीर से बंधे कुत्ते जैसी गुरगुराहट, खकारने की आवाज़
और बड़बड़ाहट सुनाई दी, और टखनों पर टंके धारियों वाले नाइट पजामे में रोशनी के
धब्बे में पन्क्रात प्रकट हुआ. उसकी आँखें जंगलीपन से प्रोफेसर पर टिक गईं, वह अभी
तक नींद में झूम रहा था.
“पन्क्रात,” चश्मे के ऊपर से उसकी ओर देखते हुए
प्रोफेसर ने कहा, “माफ़ करना कि मैंने तुम्हें उठा दिया. बात ये है, दोस्त, कि मेरी
कैबिनेट में कल सुबह कोई न जाने पाए. मैंने वहाँ अपना प्रयोग अधूरा छोड़ा है, जिसे
हिलाया नहीं जा सकता. समझ गए?”
“ऊ-ऊ-ऊ, स-स-समझ गया,” कुछ भी न समझते हुए
पन्क्रात ने जवाब दिया. वह लड़खड़ा रहा था और गुरगुरा रहा था.
“नहीं, सुन, तू जाग, पन्क्रात,”
प्राणी-वैज्ञानिक ने उसे मनाते हुए कहा और हौले से पन्क्रात की पसलियों को गुदगुदा
दिया, जिससे उसके चेहरे पर डर की लकीर दौड़ गई और आँखों में कुछ समझदारी का भाव आ
गया.. “कैबिनेट मैंने बन्द कर दी है,” पेर्सिकोव कहता रहा, “तो, मेरे आने तक उसमें
सफ़ाई करने की कोई ज़रूरत नहीं है. समझ गया?”
“सुन रहा हूँ,” पन्क्रात भर्राई आवाज़ में बोला.
“बढ़िया, अब जाकर सो जा.”
पन्क्रात मुड़ा, दरवाज़े में गायब हो गया और
फ़ौरन पलंग पर लुढ़क गया, और प्रोफेसर वेस्टिब्यूल में अपने गरम कपड़े पहनने लगा.
उसने भूरा गर्मियों वाला कोट और नरम हैट पहनी, इसके बाद, माइक्रोस्कोप वाले दृश्य
को याद करके, वह अपने गलोश (ऊपरी जूता – अनु.) पहनने लगा, उसने कुछ
सेकंड उनकी ओर देखा, मानो उन्हें पहली बार देख रहा हो. फिर बाँई गलोश पहनी और बाँई
की ऊपर ही दाईं भी पहनने लगा, मगर वह जूते पर घुसी ही नहीं.
“कैसा अजीब इत्तेफ़ाक है कि उसने मुझे बुलाया,”
वैज्ञानिक ने कहा, “ वर्ना तो मैं इस पर ग़ौर ही नहीं करता. मगर ये किस बात का
इशारा है? शैतान ही जाने कि ये इशारा किस तरफ़ है!...”
प्रोफ़ेसर मुस्कुराया, उसने अपने गलोशों की
तरफ़ आँखें सिकोड़ कर देखा, और बाईं निकाल दी, और दाईं पहन ली.
“माय गॉड! इसके परिणामों के बारे में कल्पना भी
नहीं की जा सकती...” प्रोफेसर ने नफ़रत से अपनी बाईं गलोश निकाल फेंकी, जो दाएं
गलोश पर चढ़ने से इनकार करके उसे गुस्सा दिला रही थी, और एक ही गलोश में बाहर के
दरवाज़े की तरफ़ आया. यहाँ उसने अपना रूमाल खो दिया, और वह भारी दरवाज़े को धक्का
देकर बाहर निकला. ड्योढ़ी में वह बड़ी देर तक अपनी जेबों को थपथपाकर माचिस ढूँढ़ता
रहा, और उसे ढूँढ़ कर मुँह में बिना सुलगाई सिगरेट दबाए सड़क पर निकल पड़ा.
चर्च तक वैज्ञानिक को रास्ते में एक भी
आदमी नहीं मिला. वहाँ प्रोफेसर ने सिर को झटका देकर, सुनहरे गुम्बद पर आँखें गड़ा
दीं. सूरज बड़े प्यार से एक तरफ़ से उसे चूम रहा था.
“मैंने उसे पहले कैसे नहीं देखा, कैसा इत्तेफ़ाक
है?...फू, बेवकूफ़,” अपने अलग अलग तरह के जूतों की ओर देखते हुए प्रोफेसर झुका और
सोचने लगा. “...हुँ...अब क्या करें? पन्क्रात के पास वापस लौट जाऊँ? नहीं, उसे
उठाना संभव नहीं है. इस कमीनी को फेंकने में अफ़सोस हो रहा है. हाथों में ले जाना
पड़ेगा.” उसने गलोश उतारी और कुछ असंतोष से उसे हाथ में ले लिया.
एक पुरानी कार में प्रेचिस्तेन्को की ओर
से तीन व्यक्ति आ रहे थे. दो नशे में धुत थे, और उनके घुटनों पर बैठी थी सन् ’28 की
फ़ैशन के अनुरूप सिल्क की सलवार पहनी चटकदार मेकअप में एक जवान औरत.
“ऐख़,
पापा!” वह अपनी नीची भारी आवाज़ में चिल्लाई, “क्या दूसरी गलोश बेचकर पी गए?”
“ज़ाहिर
है कि बूढ़ा ‘अल्काज़ार’ गया था,” बाईं ओर वाला शराबी चीख़ा, दाईं ओर वाले ने गाड़ी से
सिर बाहर निकाला और चिल्लाया, “बाप, क्या वोल्खोन्का का नाईटक्लब खुला है? हम वहीं
जा रहे हैं!”
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