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बुधवार, 2 सितंबर 2015

Reading Master and Margarita (Hindi) - 13

अध्याय 13        
                     
हीरो का प्रवेश


कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे हैं कि इवान बेज़्दोम्नी उपन्यास का नायक है? तब तो आपको निराश होना पड़ेगा!

तेरहवाँ अध्याय नायक के बारे में है – हीरो का प्रवेश – यह है इस अध्याय का शीर्षक. और, वह कहाँ से आता है?

इवान को स्त्राविन्स्की के क्लीनिक के कमरा नं. 117 में रखा गया है...गुरुवार की शाम को, जब इवान की मनोदशा में परिवर्तन हो रहा है, जब अँधेरा छाने लगा है; जब इवान ऊँघ रहा है; जब उसे सपने में अपने क़रीब से गुज़रता हुआ मोटा बिल्ला दिखाई देता है तब एक रहस्यमय आकृति बालकनी से प्रविष्ट होती है और उँगली से धमकाते हुए इवान को ख़ामोश रहने के लिए कहती है.
इवान घबराता नहीं है. वह एक सफ़ाचट दाढी-मूँछ वाले व्यक्ति को देखता है जिसके बाल काले थे, नाक तीखी, बदहवास आँखों से वह कमरे में झाँक रहा है. उसकी आयु करीब 38 वर्ष की थी; बालों की लट माथे पर लटक रही थी.

आपने अनुमान लगा लिया होगा कि यह गोगोल की तस्वीर है. उम्र वही बताई गई है जितनी बुल्गाकोव की उस समय थी (जन्म 1991). आपको यह भी याद आ गया होगा कि गोगोल का भी मानसिक उपचार किया गया था. ..’मृत आत्माओं’ के बाद उन्हें शासकीय अधिकारियों द्वारा इतना सताया गया था कि वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे. निकोलाय गोगोल बुल्गाकोव के प्रिय लेखक थे, अतः हम कह सकते हैं कि बुल्गाकोव ने इस चित्रण के माध्यम से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है, यह दिखाकर कि सुयोग्य लेखकों को कितना कष्ट उठाना पड़ता था.

इस अध्याय के कथानक को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं:
1.   समकालीन साहित्य पर टिप्पणियाँ;
2.   नायक का जीवन;
3.   सोवियत समाज में सुयोग्य लेखकों को दी जा रही यातनाएँ.

हम हर पहलू पर विचार करेंगे.

तो, जब अजनबी कमरा नं. 117 में प्रवेश करता है तो वह इवान को बताता है कि उसने कैसे प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना का चाभियों का गुच्छा पार कर लिया और इस वजह से वह कैसे अपने पड़ोसी से मिल सकता है. मगर बाल्कनी की चाभियाँ हाथ में होने पर भी वह इस जगह से भागने के बारे में सोचता भी नहीं है क्योंकि उसका कोई ठौर-ठिकाना ही नहीं है. इसके बाद उनकी बातचीत शुरू हो जाती है. अजनबी इवान से पूछता है कि वह आक्रामक तो नहीं है, और जब इवान उसे बताता है कि कल उसने रेस्तराँ में एक आदमी का थोबड़ा तोड़ दिया तो मेहमान उसे चेतावनी देता है कि ऐसा नहीं चलेगा, इवान को यह आदत छोड़नी पड़ेगी...मगर उसे इवान के ‘थोबड़ा’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति थी. वह ज़ोर देकर कहता है कि आदमी के पास ‘चेहरा’ होता है, न कि ‘थोबड़ा’! यहाँ बुल्गाकोव फॉर्मेलिस्टस (रूपवादियों) के, विशेषतः फ्यूचरिस्ट्स (भविष्यवादियों) के शब्द प्रयोग पर ताना कस रहे हैं. उनका ख़ास निशाना है मायाकोव्स्की, जिसकी कविताओं में ‘थोबड़ा’ शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है.

और, जब इवान उसे बताता है कि वह एक कवि है, तो मेहमान दुखी हो जाता है. ज़ाहिर है कि उसे लेखक, कवि, आलोचक... अच्छे नहीं लगते...फिर इवान का उपनाम ‘बेज़्दोम्नी’ भी , जो तत्कालीन फैशन के अनुरूप था, उसे नाराज़ कर देता है.

जब इवान उससे पूछता है कि क्या उसे इवान की कविताएँ अच्छी लगती हैं, तो मेहमान इनकार कर देता है. इवान के इस प्रश्न पर कि “आपने मेरी कौनसी कविताएँ पढ़ी हैं?” वह कहता है, “एक भी नहीं. मगर मुझे बताओ, कि क्या वे औरों की कविताओं जैसी ही नहीं हैं?” यहाँ हम देखते हैं कि बुल्गाकोव का इशारा प्रचार-साहित्य की ओर है, जो किसी साँचे से ढला हुआ प्रतीत होता था...
तब इवान वादा करता है कि वह लिखना बिल्कुल छोड़ देगा.

जब मेहमान को पता चलता है कि इवान यहाँ पोंती पिलात के कारण आया है, तो वह इवान के साथ पत्रियार्शी पर हुई घटना को जानने के लिए उत्सुक हो उठता है. वह इवान को बताता है कि असल में पत्रियार्शी पर उसकी मुलाकात शैतान से हुई थी.

वह इवान को बतलाता है कि वह भी पोंती पिलात ही के कारण स्त्राविन्स्की के क्लीनिक में आया है और तब वह अपनी कहानी इवान को सुनाता है...

अजनबी अपनी कहानी इवान को सुनाता है जो किसी साधारण कहानी की तरह नहीं है.

इतिहास में शिक्षा पूरी करने के बाद उसने एक म्यूज़ियम में क़रीब दो वर्ष काम किया. वहाँ उसे एक लॉटरी का टिकट दिया गया, और संयोगवश इस टिकट पर उसने एक लाख रूबल्स जीत लिए. यह एक बहुत बड़ी धनराशि थी. एक लाख रूबल्स जीतने के बाद जो सबसे पहला काम उसने किया वो ये कि म्यास्नित्स्काया रास्ते वाला अपना कमरा छोड़ दिया और अर्बात पर एक मकान किराए पर लेकर रहने लगा.

यह एक बड़ा ख़ूबसूरत और आरामदेह मकान था. प्रवेश कक्ष, सिंक के साथ; एक छोटा कमरा जिसकी खिड़कियाँ बगीचे में खुलती थीं और एक बड़ा हॉल, फायरप्लेस के साथ. फायरप्लेस में हमेशा आग जलती रहती; घर में हमेशा गर्माहट रहती.

उसने कई सारी किताबें खरीद लीं और पोंती पिलात तथा येशुआ–हा-नोस्त्री के बारे में उपन्यास लिखने लगा (वही जो लाल किनारी वाले सफेद चोगे में पिलात के हिरोद के महल की छत पर प्रवेश से आरंभ होता है). उपन्यास तेज़ी से आगे बढ़ रहा था, पिलात अंत की ओर भाग रहा था...सर्दियाँ ख़त्म हो चुकी थीं; बहार के दिन आ गए और बगीचे में लिण्डन और लिली के वृक्षों ने हरियाली के वस्त्र पहन लिए.

लेखक ने (वह उपन्यास में कहीं भी अपना नाम अथवा उपनाम नहीं बताता) अपना नाम और उपनाम त्याग दिया है, ज़िन्दगी की और चीज़ों की तरह...अब वह है सिर्फ मास्टर  और उसके व्यक्तित्व की पहचान है काले रंग की वह टोपी जिस पर पीले रेशम से M अक्षर कढ़ा हुआ है. यह अक्षर उसकी प्रियतमा ने बनाया है. उसीने उसे यह नाम दिया था – मास्टर.

इस अध्याय में मास्टर की प्रियतमा का नाम भी नहीं बताया गया है. मास्टर उससे एक शाम को त्वेर्स्काया रास्ते पर मिला था जब वह हाथों में पीले घिनौने फूल लिए जा रही थी. यह घटना उसके लिए एक लाख रूबल्स का इनाम जीतने से भी बढ़कर थी.

इस पीले रंग के कारण वह उसके पीछे-पीछे चलने लगा. अचानक वह एक गली में मुड़ी और उसकी ओर देखा.

वह उसके पीछे-पीछे चलता रहा, अचानक वह रुकी और उससे पूछने लगी कि क्या उसे ये फूल पसन्द हैं. मास्टर के इनकार करने पर उसने वे फूल नाली में फेंक दिए. वे ख़ामोश चलते रहे, फिर उसने अपने खूबसूरत हाथ में मास्टर का हाथ ले लिया और वे साथ-साथ चलने लगे...क्रेमलिन की मॉस्को नदी वाली दीवार तक पहुँचे और दूसरे दिन फिर मिलने का वादा करके जुदा हुए.

शीघ्र ही वह औरत उसकी पत्नी बन गई, खुले आम नहीं बल्कि गुप्त रूप में. मास्टर को यकीन था कि उसके बारे में किसी को भी कुछ भी पता नहीं था.

वह  शादी-शुदा थी; मास्टर भी अपनी पत्नी से अलग हो गया था.

वह प्रतिदिन सुबह उसके पास आती, नाश्ता बना लेती; उसकी किताबों की धूल साफ करती; उसके लिखे पन्नों को पढ़ती रहती; ख़ाली समय में यह टोपी बनाती रहती. यह उपन्यास  उसे बहुत पसन्द था, इससे उसे बड़ी आशाएँ थीं. तभी से उसने उसे मास्टर कहना शुरू कर दिया.

उपन्यास पूरा हो चुका था. उसे टाइप कर दिया गया और वह उपन्यास को लेकर अपनी आरामगाह से निकल पड़ा, उसे किसी प्रकाशक को देने; और यही था उसकी ज़िन्दगी का अंत.

बुल्गाकोव प्रकाशन जगत की बड़ी घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं.

प्रकाशक उससे उसके पूर्वानुभव के बारे में पूछते; उसके परिवार के बारे में पूछते और अंत में यह पूछ लेते कि इस ख़तरनाक विषय पर उपन्यास लिखने के लिए उसे किसने उकसाया है.

वे उससे साफ़-साफ़ नहीं कहते कि उपन्यास नहीं छापा जा सकता; वे कोई न कोई बहाना बनाकर उसे बार-बार आने के लिए कहते. अंत में उससे कह दिया गया कि प्रकाशन गृह के पास दो वर्ष के लिए पर्याप्त सामग्री है अतः उसका उपन्यास प्रकाशित नहीं किया जा सकता.

किसी और सम्पादक ने उपन्यास का एक बड़ा अंश अपनी पत्रिका में छाप दिया और इसके पश्चात् पूरे साहित्य जगत में ऐसा हंगामा हुआ जिसने मास्टर को पूरी तरह नष्ट कर दिया.

यह इस तरह हुआ...

उपन्यास के एक बड़े अंश के एक पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद विभिन्न अख़बारों में लेखक विरोधी लेखों की मानो बरसात होने लगी – वे सभी लेखक को कोस रहे थे जिसने येशू के औचित्य को सिद्ध करने की जुर्रत की थी.

दिन प्रतिदिन ऐसे लेखों की संख्या बढ़ती जाती थी और वे अधिकाधिक तीव्र निषेधात्मक, अधिकाधिक ज़हरीले, अधिकाधिक तीखे होते जाते थे...(अगर आपको बोरिस पास्तरनाक के उपन्यास  ‘डॉ. झिवागो’ से सम्बन्धित घटनाओं की याद है, तो आप शीघ्र ही इस प्रसंग को समझ जाएँगे).

पहले तो मास्टर इन लेखों पर हँस देता, उन्हें अनदेखा कर देता; मगर फिर उसे इन पर आश्चर्य होने लगा. वह समझ रहा था कि इन लेखों के लेखक वह नहीं कह रहे हैं जो वे कहना चाहते हैं. वे अधिकाधिक आक्रामक होते जा रहे थे, उनकी शैली अधिकाधिक धमकाने वाली होती जा रही थी; हर कोई मास्टर की कड़ी निन्दा कर रहा था.

तीसरी अवस्था थी भय की. मास्टर को हर चीज़ से डर लगने लगा. उसे अँधेरे से डर लगने लगा. उसे ऐसा लगता मानो अँधेरे में कोई ऑक्टोपस उसकी ओर बढ़ा आ रहा है जो अपने तंतुओं से उसे पकड़ने की कोशिश कर रहा है. संक्षेप में यह मानसिक रोगी की अवस्था थी.

मास्टर की प्रियतमा भी बहुत बदल गई थी; वह बड़ी दुखी थी – अपने आप को कोसती रहती कि न वह उपन्यास के एक अंश को छपवाने की ज़िद करती और न ही मास्टर पर यह कहर टूट पड़ता.

मानसिक हताशा की ऐसी स्थिति में मास्टर ने एक दिन अपने उपन्यास को अँगीठी में झोंक दिया...मगर अचानक उसकी प्रियतमा रात को आ गई और उसने कुछ पन्नों को जलने से बचा लिया. उसने कहा कि वह अगली सुबह को अपने पति को सूचित करके उसके पास हमेशा के लिए आ जाएगी. तब तक के लिए वह मास्टर से विनती करती है कि वह कोई दुःस्साहस भरा कदम न उठाए.

यह हुआ अक्टूबर के मध्य में.

उसके जाने के बाद दरवाज़े पर टकटक हुई.

इसके पश्चात् मास्टर ने इवान को जो भी बताया वह पाठकों तक नहीं पहुँचा. वह इवान के कान में फुसफुसाकर कह रहा था...भय से काँप रहा था; उसकी आँखों में दहशत थी...

और जनवरी के मध्य में वह फिर अपने घर के आँगन में था, उसी कोट में जिसके बटन अब टूट चुके थे, ठण्ड से काँपते हुए.

अक्टूबर से मध्य जनवरी तक वह कहाँ रहा और उसकी हालत इतनी दयनीय कैसे हो गई, इस बारे में बुल्गाकोव कुछ नहीं कहते, मगर पाठक शायद समझ जायेंगे!!!

मगर अब उसके घर में कोई और रहने आ गया था. वह एक कुत्ते से डर गया जो उसके पैरों के बीच आ गया था; उसने ट्राम के नीचे अपनी जान दे देने का इरादा किया और ट्राम की पटरियों की ओर चल पड़ा. मगर वह निकट आती हुई ट्राम से भी डर गया और वहाँ से भाग निकला.

एक ट्रक ड्राइवर को, जो इसी तरफ आ रहा था, उस पर दया आ गई और वह उसे स्त्राविन्स्की क्लिनिक ले आया.

यहाँ उस पर उपचार किया गया, उसकी जमी हुई उँगलियों को ठीक कर दिया गया.

इस क्लिनिक में वह पिछले चार महीनों से है, और अब उसे यहाँ उतना बुरा नहीं लगता.

जब इवान ने पूछा कि उसने अपनी प्रियतमा को अपने बारे में खबर क्यों नहीं दी, तो मास्टर जवाब देता है कि वह उसे यह बताकर दुखी नहीं करना चाहता कि वह स्त्राविन्स्की के क्लिनिक में है और उस पर मानसिक उपचार किए जा रहे हैं.

अपने उपन्यास की याद से ही वह सिहर उठता है...

जब इवान उससे यह बताने की विनती करता है कि पोंती पिलात और येशुआ-हा-नोस्त्री का आगे क्या हुआ तो मास्टर जवाब देता है कि जो उसे पत्रियार्शी पार्क में मिला था वही इस सवाल का भली-भाँति जवाब दे सकता है.

जब वे बातें कर रहे थे तो अस्पताल के कॉरीडोर में दो बार गहमा-गहमी हुई. मास्टर जाकर देख आया और उसने बताया कि कमरा नं. 119 में एक लाल मोटे को लाया गया है जो रोशनदान में छुपाए गए किन्हीं नोटों के बारे में बात कर रहा है; और कमरा नं. 120 में एक व्यक्ति को लाया गया है जो अपना सिर लौटाने के बारे में प्रार्थना कर रहा है.

आधी रात गुज़र चुकी थी जब इवान को छोड़कर मास्टर वापस गया.

गुरुवार समाप्त हो गया है...मगर हमें अभी तक यह मालूम नहीं है कि उस रात मॉस्को में और क्या क्या हुआ.

जाते-जाते मास्टर ने यह कहा कि इन्सान को बड़ी बड़ी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए, “मैं पूरी दुनिया देखना चाहता था, मगर मैं यहाँ आ गया. दुनिया का यह हिस्सा बुरा तो नहीं है, मगर वह सबसे बेहतरीन भी नहीं है.”

असल में बुल्गाकोव स्वयँ सोवियत संघ से बाहर जाना चाहते थे, मगर उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी गई और उन्हें पूरी उम्र सोवियत संघ में ही रहना पड़ा.

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