लोकप्रिय पोस्ट

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

Discussion on Master & Margarita - Chapter 21


अध्याय 21

 यह अध्याय आरम्भ होता है मार्गारीटा की बिदाई से – उसके आलीशान भवन से, उसकी पुरानी ज़िन्दगी से; और समाप्त होता है - उसके वापस मॉस्को में, अनजान विदेशी के घर में आगमन से.
पिछले अध्याय में हम देख चुके हैं कि मार्गारीटा चुडैल बन चुकी है. ऊर्जा और उत्सुकता से भरपूर...वह अपने रास्ते की किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार है.
वह अभी तक विदेशी के घर में नहीं पहुँची है, मगर उसके आगमन की सारी औपचारिकताएँ, जैसे कि समारोह पूर्वक स्नान करवाना, चुड़ैलों द्वारा किया गया शानदार स्वागत-नृत्य, शानदार ऑर्केस्ट्रा पर बजाय गया संगीत आदि पूरी कर ली गई हैं. अब वह शारीरिक और मानसिक रूप से एक नये जीवन में प्रवेश करने के लिए तैयार है!

अभी शुक्रवार की रात ही चल रही है. ऐसा लगता है, मानो हम समय की गिनती ही भूल गए हों...इतने थोड़े समय में इतनी सारी घटनाएँ हो रही हैं....प्रकृति के रहस्य मार्गारीटा के सामने खुलते जाते हैं...

ब्रश पर सवार मार्गारीटा नदी की ओर प्रस्थान करते हुए कुछ स्थानों पर रुकती है. लातून्स्की के फ्लैट में घुसकर वह उसकी हर चीज़ नष्ट कर देती है. वह अदृश्य रूप से जो उड़ रही है...वह लेखकों और नाटककारों की इमारत के कई फ्लैट्स में घुसती है...उसका गुस्सा धीरे धीरे कम हो रहा है...ड्रामलिट की इमारत को पूरी तरह तहस-नहस करने के बाद उसे कुछ सुकून मिलता है...आख़िर 

उसने मास्टर को पीड़ा पहुँचाने वालों को दण्डित जो कर दिया था.

नदी की ओर जाते हुए रास्ते में उसकी मुलाक़ात नताशा से भी होती है, जो मार्गारीटा की ही तरह चुडैल बन चुकी है. वह एक सुअर पर सवार है, यह सुअर कोई और नहीं बल्कि निकोलाय इवानोविच था. निकोलाय इवानोविच मारारीटा की कमीज़ लौटाने ऊपर गया था, जो मार्गारीटा ने अपने फ्लैट से उड़ते हुए उसके मुँह पर फेंकी थी.

मार्गारीटा के शयन कक्ष में प्रवेश करते ही उसे विवस्त्र नताशा नज़र आई जो कमरे में उड़ रही थी. नताशा ने बची हुई क्रीम अपने बदन पर मल ली थी. निकोलाय इवानोविच उसे ‘वीनस’ कह कर संबोधित करता है, अपने प्यार का इज़हार करता है और शादी का प्रस्ताव रखता है. नताशा ने निकोलाय इवानोविच के गंजे सिर पर भी थोड़ी सी क्रीम मल दी थी. क्रीम मलते ही वह सुअर के रूप में परिवर्तित हो जाता है. नताशा उसकी पीठ पर सवार होकर उड़ चली. निकोलाय इवानोविच ने अपने मुँह में ब्रीफकेस पकड़ रखी है जिसमें उसके महत्त्वपूर्ण कागज़ात हैं...

मार्गारीटा नदी के किनारे पर पहुँचती है...उसका बड़े शानदार तरीक़े से स्वागत किया जाता है...और उसे एक कार में बैठाकर विदेशी के पास ले जाया जाता है!

बुल्गाकोव बड़ी ख़ूबसूरती से मार्गारीटा की मनोदशा के विभिन्न पहलुओं का चित्रण करते 
हैं...मार्गारीटा की उड़ान का वर्णन पाठकों को पूरी तरह सम्मोहित कर देता है...उसके साथ-साथ चलता हुआ पूनम का तनहा, पूरा चाँद... जादुई नदियाँ जो आसमान से देखने पर म्यान में रखी तलवारों की तरह प्रतीत होती हैं...मैपल वृक्षों के मदहोश करते जंगल....नदी का निस्तब्ध, ख़ामोश किनारा...इस पवित्र, शांत वातावरण को चीरती की नताशा की खिलखिलाह्ट और उसका तीखा जवाब कि उसे भी अपनी मालकिन की तरह उड़ने का हक है, इसीलिए उसने अपने शरीर पर क्रीम मल ली थी. मुस्कुराता, ख़ुशमिजाज़ , नग्न मोटा जो एनिसेई  से आया था मार्गारीटा को रानी मार्गो कहकर सम्बोधित करता है. उसीसे पाठकों को यह पता चलता है कि मार्गारीटा को ये सारी चुडैलें और एक दूसरी दुनिया के बाशिन्दे ‘महारानी मार्गो’ के रूप में जानते हैं. उसका बर्ताव भी गरिमामय और शाही हो जाता है.

रहस्यमय विदेशी से मार्गारीटा की मुलाक़ात अगले अध्याय में होगी और कई सारी अविश्वसनीय घटनाएँ होंगी...

हम मार्गारीटा के साथ साथ रहेंगे...

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

Discussion on Master&Margarita(Hindi) - Chapter20


अध्याय 20

तो, शुक्रवार की शाम है...

मार्गारीटा बड़ी बेसब्री से घड़ी की ओर देख रही है. उसके सामने अज़ाज़ेलो द्वारा दी गई क्रीम की डिबिया पड़ी है.

जैसे ही साढ़े नौ बजे, मार्गारीटा का दिल बुरी तरह धड़क उठा, जिससे वह एकदम डिब्बी न उठा सकी. अपने आप पर काबू पाते हुए उसने डिब्बी को खोला और देखा कि उसमें पीली, चिकनी क्रीम थी. उसे लगा कि उसमें से दलदली कीचड़ की गन्ध आ रही है. ऊँगली की नोक से मार्गारीटा ने थोड़ी-सी क्रीम निकालकर हथेली पर रखी, अब उसमें से दलदली घास और जंगल की तेज़ महक आने लगी. वह हथेली से माथे और गालों पर क्रीम मलने लगी.

क्रीम बड़ी जल्दी बदन पर मला जा रहा था. मार्गारीटा को ऐसा लगा कि वह तभी भाप बनकर उड़ रहा है. कुछ देर मलने के बाद मार्गारीटा ने शीशे में देखा और उसके हाथ से डिब्बी छूटकर घड़ी पर जा गिरी. घड़ी के शीशे पर दरारें पड़ गईं. मार्गारीटा ने आँखें बन्द कर लीं. फिर उसने अपने आपको दुबारा आईने में देखा और ठहाका मारकर हँस पड़ी.

किनारों पर धागे की तरह पतली होती गई उसकी भवें क्रीम के कारण मोटी-मोटी हो गई थीं और हरी-हरी आँखों पर विराजमान थीं. पतली-सी झुर्री जो नाक की बगल में तब, अक्टूबर में, बन गई थी, जब मास्टर गुम हो गया था, अब बिल्कुल दिखाई नहीं दे रही थी. कनपटी के निकट के पीले साये भी गायब हो गए थे. साथ ही आँखों के किनारों पर पड़ी जाली भी अब नहीं थी. गालों की त्वचा गुलाबी हो गई थी. माथा साफ़ और सफ़ेद हो गया था, बाल खुल चुके थे.
तीस वर्षीया मार्गारीटा को आईने से देख रही थी काले, घुँघराले बालों वाली, दाँत दिखाकर बेतहाशा हँसती हुए एक बीस साल की छोकरी.

हँसना ख़त्म करके मार्गारीटा ने एक झटके से गाऊन फेंक दिया और अपने पूरे बदन पर जल्दी-जल्दी क्रीम मलने लगी. बदन गुलाबी होकर चमकने लगा. फिर मानो किसी ने सिर में चुभी हुई सुई बाहर निकाल फेंकी हो. उसकी कनपटी का दर्द गायब हो गया जो कल शाम से अलेक्सान्द्रोव्स्की पार्क में शुरू हुआ था. हाथों-पैरों के स्नायु मज़बूत हो गए, फिर मार्गारीटा का बदन हल्का हो गया.

वह उछली और पलंग से कुछ ऊपर हवा में तैरने लगी. फिर जैसे उसे कोई नीचे की ओर खींचने लगा और वह नीचे आ गई.

 क्या क्रीम है! क्या क्रीम है! मार्गारीटा कुर्सी में बैठते हुए बोली.

इस लेप से उसमें केवल बाहरी परिवर्तन ही नहीं हुआ था. अब उसके समूचे अस्तित्व में, शरीर के हर कण में प्रसन्नता हिलोरें ले रही थी, जिसका वह हर क्षण अनुभव कर रही थी, मानो बुलबुलों के रूप में यह खुशी उसके बदन से फूटी पड़ रही थी. मार्गारीटा ने अपने आपको स्वतंत्र अनुभव किया, सब बन्धनों से मुक्त. इसके अलावा वह समझ गई, कि वह हो गया है, जिसका आभास उसे सुबह हुआ था, और अब वह ख़ूबसूरत घर और अपनी पुरानी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए छोड़ देगी.
मगर इस पुरानी ज़िन्दगी से एक ख़याल उसका पीछा कर रहा था, वह यह कि एक आख़िरी कर्त्तव्य पूरा करना है इस नए, अजीब, ऊपर, हवा में खींचते हुए कुछ के घटित होने से पहले. और वह, वैसी ही निर्वस्त्र अवस्था में, शयनगृह से हवा में तैरते-उतरते हुए अपने पति के कमरे में पहुँची और टेबुल लैम्प जलाकर लिखने की मेज़ की ओर लपकी. सामने पड़े राइटिंग पैड से एक पन्ना फ़ाड़कर उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में पेंसिल से लिखा:

मुझे माफ़ करना और जितनी जल्दी हो सके, भूल जाना. मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़कर जा रही हूँ. मुझे ढूँढ़ने की कोशिश मत करना, कोई फ़ायदा नहीं होगा. मैं हमेशा सताने वाले दुःखों और मुसीबतों के कारण चुडैल बन गई हूँ. अब मैं चलती हूँ. अलबिदा! मार्गारीटा.

इस अध्याय में दो पात्र और हैं: मार्गारीटा की नौकरानी नताशा, और मार्गारीटा के आलीशान घर की निचली मंज़िल पर रहने वाला निकोलाय इवानोविच.

मार्गारीटा का नताशा के साथ काफ़ी दोस्ताना किस्म का बर्ताव है. वह उससे कहती है कि उसकी सभी पोशाकें अपने लिए उठा ले.

मगर निकोलाय इवानोविच काफी ‘बोर’ किस्म का आदमी है. वह काफ़ी महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहा था. उसे रोज़ सुबह दफ़्तर की गाड़ी घर से ले जाती थी और शाम को वापस घर छोड़ जाती थी.

अज़ाज़ेलो दस बजे फोन करके उसे बताता है कि उसे किस तरह से उड़ना है. मार्गारीटा उड़ने के लिए तैयार है!

तभी कमरे साफ़ करने का ब्रश, जो एक डण्डे पर लगा हुआ था, नाचता हुआ कमरे में आया. मार्गारीटा उड़ चली...अपनी नई-नई आज़ादी का लुत्फ उठाने...अपने प्यार से मिलने की उम्मीद लिए...

हम मार्गारीटा के साथ-साथ ही रहेंगे....

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

Discussion on Master&Margarita(Hindi)- Chapter 19


अध्याय 19

इस अध्याय से उपन्यास का दूसरा भाग प्रारम्भ होता है. पहले भाग में वोलान्द और उसके साथियों का मॉस्को में आगमन होता है. थियेटर जगत और हाउसिंग सोसाइटी से जुड़े लोगों को वे किस प्रकार दण्डित करते हैं यह दिखाया गया है; साहित्य जगत की एक घिनौनी तस्वीर प्रदर्शित की गई है. दूसरा भाग मास्टर और मार्गारीटा के भाग्य के बारे में है.
ह्म इस अध्याय के केवल कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे.
अध्याय का आरम्भ बुल्गाकोव इस बात पर ज़ोर देते हुए करते हैं कि ‘सच्चा प्यार’ वाक़ई में होता है और वह पाठकों को इस प्यार के दर्शन करवाने वाले हैं.
अधिकांश साहित्यिक रचनाओं की तरह बुल्गाकोव अपने नायक को उपन्यास के आरंभ में ही नहीं दिखाते हैं ; मास्टर से पाठकों का परिचय तेरहवें अध्याय से ही होता है, वह भी तब, जब मास्टर का जीवन लगभग समाप्त हो चुका है (उसकी अपनी राय में)! मास्टर की कहानी से हमें उसकी प्रियतमा के बारे में जानकारी होती है. मास्टर, जो उसे पागलपन की हद तक प्यार करता था, उसका नाम ज़ाहिर नहीं करता; हमें मास्टर की प्रियतमा का नाम बस उन्नीसवें अध्याय में ही ज्ञात होता है.
उसका नाम था मार्गारीटा निकोलायेव्ना. वह बेहद ख़ूबसूरत और अक्लमन्द थी; उसका पति काफ़ी असरदार, जाना माना विशेषज्ञ था, वह उसकी पूजा करता था; उसने शासकीय महत्व की एक ज़बर्दस्त खोज की थी. मार्गारीटा साझे के फ्लैट में रहने की झंझटों से नावाक़िफ़ थी, उसने कभी स्टोव को हाथ तक नहीं लगाया था. वह बेहद अमीर थी. उसकी आयु तीस वर्ष की थी. बुल्गाकोव पूछते हैं, ‘क्या वह ख़ुश थी?’ और स्वयँ ही जवाब भी दे देते हैं, “नहीं, एक मिनट के लिए भी नहीं! कभी नहीं. जब से, वह उन्नीस वर्ष की आयु में शादी के बाद इस घर में आई, सुख क्या है, यह उसने जाना ही नहीं.”      
आइए, हम कुछ देर रुककर इस जानकारी पर गौर करते हैं.

मार्गारीटा की आयु कितनी थी? तीस वर्ष. उपन्यास, उसकी कथा वस्तु का आरम्भ हुआ था सन् 1928 में. अध्याय 13 में हम देखते हैं कि मास्टर की आयु बुल्गाकोव की उस समय की आयु जितनी ही थी. मार्गारीटा तीस वर्ष की है, मगर इस बात पर गौर कीजिए कि वह इस आलीशान भवन में रहने के लिए जब आई, तब उसकी आयु थी 19 वर्ष, अर्थात् वह यहाँ आई थी सन् 1917 में; शायद हम ये कह सकते हैं कि मार्गारीटा क्रांति के साथ उत्पन्न हुई; एक अत्यंत प्रभावशाली सर्वहारा वर्ग के इंजीनियर के साथ रहती है और एक बुद्धिजीवी से प्यार करती है. बाद के एक अध्याय में यह दिखाया गया है कि मार्गारीटा की रगों में शाही खून है. यह एक दिलचस्प संयोग बन जाता है: शाही वर्ग, सर्वहारा वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग का आपसी सम्बन्ध! इसीसे हमें इस बात का जवाब मिलता है कि वह खुश क्यों नहीं थी और वह अपनी खुशी को कहाँ ढूँढ रही थी.

चलिए, वापस इस अध्याय की ओर लौटते हैं. इस अध्याय की घटनाएँ शुक्रवार को होती हैं, जब मॉस्को में हर तरह की अकल्पित घटनाएँ हो रही हैं.

मार्गारीटा, जो मास्टर के अचानक गायब होने के बाद काफ़ी दुख उठा चुकी है, अपने आलीशान भवन में सुबह बहुत देर से उठी.

 उसने अपने आप को बहुत कोसा था कि उसने उस रात मास्टर को अकेला छोड़ा ही क्यों था. मगर बुल्गाकोव पाठकों को फ़ौरन यह भी बता देते हैं कि यदि वह उस रात मास्टर के पास रुक भी जाती तो भी कुछ बदलने वाला नहीं था...क्योंकि आधी रात वाली खटखटाहट केवल दुर्भाग्य ही लेकर आती है, और इस दुर्भाग्य को कोई भी टाल नहीं सकता था.

मार्गारीटा के पास मास्टर की पासबुक थी, पोंती पिलात वाले उपन्यास का वह हिस्सा था जो जलने से बच गया था, और एक सूखा हुआ गुलाब था. मास्टर की एक तस्वीर भी थी. उसने इन चीज़ों को बहुत सम्भालकर रखा था.

शुक्रवार को भी उसने कुछ समय इन चीज़ों के साथ बिताया. उसकी नौकरानी नताशा ने उसे कल शाम को वेरायटी थियेटर में हुए अजीबोगरीब जादू के ‘शो’ के बारे में बताया; इसके बाद मार्गारीटा घूमने के लिए निकल पड़ी.

ट्रॉलीबस से अलेक्सान्द्र पार्क की ओर जाते हुए उसने कुछ लोगों की बातें सुनीं, वे किसी अंतिम यात्रा के बारे में बातें कर रहे थे, और यह जानकर हैरान थे कि ताबूत में से मृतक का सिर चोरी हो गया है. मार्गारीटा ने उनकी बातों की ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया.

आज वह कुछ उत्तेजित अवस्था में थी. रात को उसे एक अजीब सपना आया था. किस बारे में था यह सपना? शायद, आपने पढ़ा ही होगा, मगर चलिए, उसके बारे में फिर से बता देते हैं:

इस रात मार्गारीटा ने जो सपना देखा था, वह अद्भुत था. बात यह थी कि अपनी पीड़ा भरे सर्दी के दिनों में उसने मास्टर को कभी भी सपने में नहीं देखा. रात में वह उसे छोड़ देता और वह सिर्फ दिन में ही घुलती रहती. और अब सपने में भी आ गया.

मार्गारीटा ने सपने में एक अनजान जगह देखी उजाड़, निराश, आरम्भिक बसंत के धुँधले आकाश तले. देखा वह टुकड़ों वाला, उड़ता आकाश और उसके नीचे चिड़ियों का ख़ामोश झुण्ड. एक ऊबड़-खाबड़ पुल, जिसके नीचे छोटी-सी मटमैली बसंती नदी; उदास, दयनीय, अधनंगे पेड़; इकलौता मैपल का वृक्ष वृक्षों के बीच, किसी बाड़ के पीछे, लकड़ी का मकान, शायद रसोईघर था, या शायद स्नानगृह, शैतान ही जाने क्या था वह! आसपास सब उनींदा-सा, बेजान-सा, इतना उदास कि पुल के पास वाले उस मैपल के वृक्ष से लटक जाने को जी चाहे. न हवा की हलचल, न बादल की सरसराहट, न ही जीवन का कोई निशान. यह तो नरक जैसी जगह है ज़िन्दा आदमी के लिए!

और सोचिए, उस लकड़ी वाले घर का दरवाज़ा खुलता है और उसमें से निकला, वह. काफ़ी दूर है, मगर वही था. साफ़ दिख रहा था. कपड़े इतने फटे हैं कि पहचाना नहीं जा सकता कि उसने क्या पहन रखा है. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई. आँखें बीमार, उत्तेजित. हाथ के इशारे से उसे बुला रहा था. उस ठहरी हुई हवा में छटपटाती मार्गारीटा ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर उसकी ओर भागी, और तभी उसकी आँख खुल गई.

 इस सपने का दो में से एक ही मतलब हो सकता है, मार्गारीटा निकोलायेव्ना अपने आपसे तर्क करती रही, अगर वह मर चुका है, और मुझे बुला रहा है, तो इसका मतलब यह हुआ कि वह मेरे लिए आया है, और मैं शीघ्र ही मर जाऊँगी. यह बहुत अच्छा होगा, क्योंकि तब मेरी पीड़ा का अंत हो जाएगा. यदि वह जीवित है, तो इस सपने का केवल एक ही मतलब है, वह मुझे अपने बारे में याद दिला रहा है. वह कहना चाहता है कि हम फिर मिलेंगे. हाँ, हम मिलेंगे, बहुत जल्दी.

सपनों में देखे गए रसोईघर या स्नानघर अक्सर नर्क की ओर इंगित करते हैं (‘डेमोनोलोजी’ के अनुसार). इससे मार्गारीटा को मास्टर की परिस्थिति के बारे में कुछ अन्दाज़ तो ज़रूर हुआ, मगर वह तय नहीं कर पाई कि वह जीवित है अथवा नहीं.

पार्क में उसकी मुलाक़ात अज़ाज़ेलो से होती है जो उसके लिए एक विदेशी का निमंत्रण लाया है.

किसी भी सोवियत नागरिक की ही भाँति मार्गारीटा भी विदेशियों के प्रति असहज है, मगर अज़ाज़ेलो उसे यक़ीन दिलाता है कि वह इस मौक़े का फ़ायदा ही उठाएगी. वह तैयार हो जाती है, यह कहते हुए कि वह केवल अपने प्यार की ख़ातिर जोखिम उठाने जा रही है.

अज़ाज़ेलो उसे खरे सोने से बनी हुई क्रीम की एक डिबिया देता है और कहता है रात को साढ़े नौ बजे उसे अपने पूरी शरीर पर मल ले और उसके निर्देशों का इंतज़ार करे.

अब मार्गारीटा के साथ कई अविश्वसनीय घटनाएँ होने जा रही हैं...

हमें मार्गारीटा के साथ ही रहना है जब शुक्रवार की रात को अज़ाज़ेलो उसे फोन पर बतलाने वाला है कि आगे क्या करना होगा!


बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

Discussion on Master&Margarita(Hindi) - Chapter 18


 अध्याय 18
इस अध्याय का शीर्षक है “अभागे मेहमान”. इस अध्याय में कुछ नए पात्रों से हमारा परिचय होता है और तत्कालीन सोवियत संघ की कुछ वास्तविकताओं का भण्डाफोड़ भी किया जाता है.
आपको शायद याद होगा कि अध्याय 3 में, जब बेर्लिओज़ पत्रियार्शी पार्क से बाहर निकलकर रहस्यमय प्रोफेसर के बारे में अधिकारियों को सूचित करने का निश्चय करता है, तो चौख़ाने वाला लम्बू उससे टकराता है और पूछता है कि क्या वह बेर्लिओज़ के चाचा को कीएव में तार भेज दे. यह लम्बा, पतला आदमी, जैसा कि आप जानते हैं, कोरोव्येव था और यह चाचा इस अध्याय का एक प्रमुख पात्र है.
बेर्लिओज़ के चाचा, मैक्समिलियन अन्द्रेयेविच पोप्लाव्स्की एक अर्थशास्त्री संयोजक था. वह कीएव के इंस्टिट्यूट रोड पर रहता था, वह कीएव के बुद्धिमान लोगों में गिना जाता था. पिछले कुछ सालों से वह मॉस्को जाकर बसने की सोच रहा था. उसने अपना कीएव वाला फ्लैट मॉस्को के किसी फ्लैट से बदलने की कोशिश की, मगर सफ़लता न मिली. अख़बारों में इश्तिहार भी दिए, मगर मॉस्को में फ्लैट नहीं ले पाया. और अब, अचानक उसे अपनी पत्नी के भतीजे का तार मिलता है, मुझे अभी-अभी ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया है पत्रियार्शी तालाब के पास. अंतिम संस्कार शुक्रवार को तीन बजे दोपहर आ जाओ -   बेर्लिओज़.      
पोप्लाव्स्की बड़ी देर तक इस टेलिग्राम के बारे में सोचता रहा: भेजने वाला तो बेर्लिओज़ है, वह कहता है उसे ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया है, फिर वह टेलिग्राम कैसे भेज रहा है? और यदि वह जीवित नहीं है तो वह यह बात कैसे जानता है कि अंतिम संस्कार शुक्रवार को तीन बजे होने वाला है?
चाचा, हमें मानना पड़ेगा कि, अपनी पत्नी के भतीजे की अचानक मृत्यु से ज़्यादा दुखी नहीं थे. एक ख़याल उनके दिमाग़ में कौंध गया: भतीजे के तीन कमरों को हथियाने का ये अच्छा मौका था; और ऐसा मौका फिर कभी नहीं आएगा; उसे भतीजे के अंतिम संस्कार में जाना चाहिए और यह सिद्ध करके कि वही बेर्लिओज़ का इकलौता वारिस है सादोवाया पर स्थित बिल्डिंग नं. 302 बी के 50 नं के फ्लैट के उन तीन कमरों पर अधिकार कर लेना चाहिए.    
पोप्लाव्स्की शुक्रवार को मॉस्को पहुँचता है. वह सीधा बिल्डिंग नं. 302 पहुँचकर हाउसिंग कमिटी के दफ़्तर में गया.
हम जानते हैं कि हाउसिंग कमिटी के प्रेसिडेण्ट निकानोर इवानोविच स्त्राविन्स्की के क्लिनिक में हैं, सेक्रेटरी भी ग़ायब है और कमिटी का बचा हुआ, परेशान और डर से मरा जा रहा इकलौता मेम्बर, जो वहाँ उपस्थित था, उसे भी किसी ने इशारे से बाहर बुलाया और वह भी ग़ायब हो गया.
पोप्लाव्स्की सीधे फ्लैट नं. 50 में जाता है जहाँ कोरोव्येव उसका स्वागत करता है. बेर्लिओज़ के साथ हुई दुर्घटना का वर्णन करते हुए कोरोव्येव इतना फूट फूट कर रोता है कि पोप्लाव्स्की को शक होने लगता है कि कहीं यह व्यक्ति उसके भतीजे का फ्लैट तो हथियाना नहीं चाहता.
पोप्लाव्स्की के इस सवाल के जवाब में कि उसे टेलिग्राम किसने भेजा था, बिल्ला बेगेमोत कहता है कि  टेलिग्राम उसने भेजा था. और वह पोप्लाव्स्की से पूछता है, ‘तो फिर क्या?’ वह पासपोर्ट दिखाने की मांग करता है और पोप्लाव्स्की थरथराते हाथों से पासपोर्ट उसे थमा देता है.
बेगेमोत पूछता है, “किसने दिया है ये पासपोर्ट? ऑफिस नं. 412 ने? वहाँ वे हरेक को पासपोर्ट दे देते हैं...मैं तो तुम्हारे चेहरे को देखकर तुम्हें कभी भी पासपोर्ट नहीं देता!”
पोप्लाव्स्की से साफ़-साफ़ कह दिया जाता है कि अंतिम संस्कार में उसकी उपस्थिति को रद्द किया जाता है; वह कीएव वापस लौट जाए और मॉस्को में किसी फ्लैट का सपना देखना बन्द करे. उसका ब्रीफकेस सीढ़ियों से नीचे फेंक दिया जाता है और उसे भी फ्लैट से बाहर निकालकर सीढ़ियों से नीचे धकेल दिया जाता है.
पोप्लाव्स्की वाक़ई में बुद्धिमान था; वह ‘इन’ लोगों की ताक़त का अन्दाज़ लगा लेता है और भगवान को धन्यवाद देता है कि उसकी ज़िन्दगी तो बच गई.
उसे इतनी ज़ोर से सीढ़ियों से धक्का दिया गया था कि वह सीढ़ियों के मोड़ पर बनी खिड़की से बाहर फेंक दिया गया और उसने स्वयँ को इस बिल्डिंग के गोदाम के बाहर एक बेंच पर बैठा पाया.
अचानक एक बीमार सा, मरियल सा आदमी उससे पूछता है कि फ्लैट नं. 50 कहाँ है. पोप्लाव्स्की की उत्सुकता जाग उठती है, वह यह जानना चाहता है कि वे गुण्डे इस आदमी के साथ कैसा सलूक करते हैं ; यह सोचकर उसने उसके वापस लौटने तक वहीं बैठे रहने का निश्चय किया.
मगर अपेक्षा से अधिक इंतज़ार करना पड़ा कीएव निवासी को सीढ़ियाँ न जाने क्यों खाली थीं. बड़ी आसानी से सब कुछ सुनाई दे रहा था. आख़िरकार पाँचवीं मंज़िल का दरवाज़ा धड़ाम् से बन्द हुआ. पोप्लाव्स्की के दिल की धड़कन रुक गई. हाँ, उसके पैरों की आहट है. नीचे आ रहा है. चौथी मंज़िल पर इस फ्लैट के ठीक नीचे वाले घर का दरवाज़ा खुला. आहट रुक गई. स्त्री की आवाज़...दुःखी व्यक्ति की आवाज़...हाँ यह उसी की आवाज़ है...शायद कुछ इस तरह कह रहा था, छोड़ो, ईसा मसीह की ख़ातिर... पोप्लाव्स्की का कान टूटे शीशे से सट गया. इस कान ने सुनी एक स्त्री की हँसी, जल्दी-जल्दी नीचे आने वाले कदमों की निडर आहट; और उसी स्त्री की पीठ की झलक दिखाई दी. हाथ में रेक्ज़िन का हरा पर्स पकड़े वह स्त्री मुख्य दरवाज़े से निकलकर आँगन में गई और उस व्यक्ति के कदमों की आहट फिर से आने लगी. अचरज की बात है, वह वापस फ्लैट में जा रहा है. कहीं वह इस चौकड़ी में से एक तो नहीं? हाँ, वापस जा रहा है. फिर ऊपर का दरवाज़ा खुला. चलो, और इंतज़ार कर लेते हैं...
इस बार कुछ कम इंतज़ार करना पड़ा. दरवाज़े की आवाज़. कदमों की आहट. कदमों की आहट रुक गई. एक बदहवास चीख. बिल्ली की म्याऊँ-म्याऊँ. आहट तेज़, टूटी-फूटी, नीचे, नीचे, नीचे!
पोप्लाव्स्की का इंतज़ार पूरा हुआ. बार-बार सलीब का निशान बनाता और कुछ-कुछ बड़बड़ाता वह मुसीबत का मारा उड़ता हुआ आया, बिना टोपी के, चेहरे पर वहशीपन, गंजे सिर पर खरोंचें और गीली पतलून के साथ. वह घबराकर बाहर वाले दरवाज़े का हैंडिल घुमाने लगा, डर के मारे यह भी भूल गया कि वह बाहर की ओर खुलता है या अन्दर की ओर. आख़िरकार दरवाज़ा खुल ही गया और वह बाहर आँगन की धूप में रफू-चक्कर हो गया.
तो फ्लैट की जाँच पूरी हो चुकी थी, अपने मृत भांजे के बारे में, उसके फ्लैट के बारे में ज़रा भी न सोचते हुए  मैक्समिलियन अन्द्रेयेविच उस ख़तरे के बारे में सोच-सोचकर काँपने लगा जिससे वह दो-दो हाथ कर चुका था. वह सिर्फ इतना ही बड़बडा रहा था: सब समझ गया! सब समझ गया! और वह बाहर आँगन में भाग गया. कुछ ही मिनटों के बाद एक ट्रॉली बस अर्थशास्त्री संयोजक को कीएव जाने वाले रेल्वे स्टेशन की ओर ले गई.
यह दुबला-पतला मरियल, उदास आदमी कौन था? वह था अन्द्रेइ फोकिच, वेरायटी के रेस्तराँ का मैनेजर. वह वोलान्द से मिलने आया था. उसने वोलान्द से शिकायत की कि कल के काले जादू वाले ‘शो’ में जनता ने जो नोट इकट्ठा किए थे वे सब बोतलों के लेबलों में बदल गए हैं. रेस्तराँ ने इन नोटों को लेकर काफ़ी सारी चीज़ें दर्शकों को बेची थीं. उनके गायब हो जाने के कारण रेस्तराँ को काफ़ी नुक्सान हुआ है. मगर जब फोकिच ने जेब से निकालकर ये लेबल्स वोलान्द को दिखाए तो वे फिर से नोटों में बदल गए थे.
मगर वोलान्द फोकिच को खूब डाँटता है. वह कहता है कि उसके रेस्तराँ की हर चीज़ भयानक है: चाय तो बस गरम पानी ही है, पनीर इतना बासा था कि वह हरा हो गया था...वह ज़ोर देकर कहता है कि खाने-पीने की चीज़ें निहायत ताज़ा होनी चाहिए.
फोकिच को ताज़ा भुना हुआ माँस दिया जाता है, सोने की तश्तरी में रखकर, उस पर नींबू निचोड़ा जाता है; जब उसे बैठने के लिए कुर्सी दी गई तो फोकिच के बैठते ही उसकी टाँग टूट जाती है, मेज़ पर रखी वाइन का ग्लास टूट जाता है और उसकी पतलून पूरी भीग जाती है.
फोकिच को एक और बात के कारण भी डाँट पड़ती है: उसके कमरे में फर्श के नीचे छुपाकर रखे गए सोने के सिक्कों और करेन्सी नोटों के कारण. बेगेमोत कहता है कि यह सब उसके किसी काम नहीं आयेगा क्योंकि वह ठीक नौ महीने बाद मॉस्को के सरकारी अस्पताल में यकृत के कैन्सर से मरने वाला है.
फोकिच बाहर निकलता है, मगर तभी उसे याद आता है कि अपनी हैट तो वह वहीं भूल गया है. वह वापस जाता है; हैला उसे हैट दे देती है; जैसे ही वह हैट अपने सिर पर रखता है, वह बिल्ली के बच्चे में बदल जाती है, जो उसके सिर को खुरचकर वहाँ से भाग जाता है.
लहूलुहान सिर लिए फोकिच डॉक्टर के पास जाता है और विनती करता है कि किसी भी तरह उसे कैन्सर से बचा ले.
बुल्गाकोव ने इस अध्याय में दो डॉक्टर्स को भी दिखाया है: डा. बूरे और डा. कुज़्मिन.
डॉक्टरों को बड़े सम्मानपूर्वक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. डॉ. कुज़्मिन फोकिच से ज़्यादा फीस नहीं लेता; वह उसका अच्छी तरह परीक्षण करता है और कहता है कि इस समय उसके जिस्म में कैन्सर का कोई लक्षण उपस्थित नहीं है.
मगर डॉक्टरों को भी बुल्गाकोव थोड़ा बहुत सताते ही हैं...फोकिच जो नोट डॉक्टर की मेज़ पर छोड़ कर गया था, वह बिल्ली के पिल्ले में बदल जाते हैं और फिर एक चिड़िया के रूप में, जो एक टाँग पर नाच रही थी और डॉक्टर को आँख मार रही थी.
प्रोफेसर कुज़्मिन ने प्रोफेसर बूरे को टेलिफोन करने का प्रयत्न किया यह जानने के लिए कि इस सबका क्या मतलब हो सकता है.
 इस दौरान चिड़िया बड़ी-सी दवात पर बैठ गई, जो प्रोफेसर को उपहार में मिली थी, उसमें बीट कर दी , फिर ऊपर उड़कर हवा में तैर गई, एक झटके के साथ सन् 1894 में युनिवर्सिटी से निकले स्नातकों की तस्वीर फोड़ दी और फिर खिड़की से बाहर उड़ गई. प्रोफेसर ने टेलिफोन का नम्बर बदल दिया और बूरे के बदले जोंक बेचने वाले ऑफिस को फोन करके कह दिया, मैं प्रोफेसर कुज़्मिन बोल रहा हूँ. मेरे घर पर फौरन जोंके भेज दीजिए.
रिसीवर रखकर जैसे ही वह पीछे मुड़ा, प्रोफेसर फिर सकते में आ गया. टेबुल के पीछे नर्स जैसा रूमाल सिर पर टाँके एक महिला हाथ में बैग लिए बैठी थी, जिस पर लिखा था, जोंके. उसके मुँह की ओर देखते ही प्रोफेसर चीख पड़ा. वह आदमी का चेहरा था, टेढ़ा, कान तक मुँह से निकलता एक दाँत था. उस महिला की आँखें बेजान थीं.
 ये पैसे मैं ले लूँगी, मर्दों-सी आवाज़ में वह नर्स बोली, इन्हें यहाँ पड़े रहने की ज़रूरत नहीं है. फिर उसने पंछियों जैसी हथेली से लेबल उठा लिए और वह हवा में विलीन होने लगी.
दो घण्टे बीत गए, प्रोफेसर अपने शयन-कक्ष में पलंग पर बैठा था. उसकी भँवों पर, कानों के पीछे, गर्दन पर जोंकें चिपकी हुई थीं. कुज़्मिन के पैरों के पास जो मोटे रेशमी कम्बल के नीचे थे बूढ़ा, सफ़ेद मूँछों वाला प्रोफेसर बूरे बैठा था. वह बड़ी सहानुभूति से कुज़्मिन की ओर देख रहा था और उसे सांत्वना दे रहा था, कि यह सब बकवास है. खिड़की से रात झाँक रही थी.
बुल्गाकोव ने डॉक्टर्स को क्यों सज़ा दी, मुझे समझ में नहीं आ रहा. चिड़िया ने डॉक्टर्स का सन् ’94 का फोटो भी फोड़ दिया....शायद कीएव मेडिकल कॉलेज में उसके साथ कोई अप्रिय बात हुई हो? बुल्गाकोव ने वहीं से तो डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की थी...
अगर आपको कोई जानकारी हो तो अवश्य बताएँ.
तो, हमने देखा कि पोप्लाव्स्की को उसके लालच के कारण, मॉस्को में फ्लैट पाने की इच्छा के लिए सज़ा दी गई; फोकिच को खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट करने की सज़ा मिली. रेस्तराँ और होटेल्स की दुर्दशा के बारे में बुल्गाकोव ने कुछ अन्य रचनाओं में भी लिखा है.     
मॉस्को में उस रात और न जाने कितनी अजीब, ख़ौफ़नाक घटनाएँ हुईं.
हम कह सकते हैं कि वोलान्द और उसकी मंडली पूरे जोश में थी....
बुल्गाकोव उन सबका वर्णन नहीं करते, क्योंकि उन्हें मार्गारीटा से मिलने के लिए जाना है.
हम भी बुल्गाकोव के साथ चलेंगे...

सोमवार, 27 अगस्त 2012

A week of enlightenment - Short story by M.Bulgakov


शिक्षा सप्ताह
(एक सीधी-सादी कहानी)                          
                           -मिखाइल बुल्गाकोव
                                         अनुवाद: ए. चारुमति रामदास

शाम को हमारी टुकड़ी में मिलिट्री कमिसार आया और मुझसे कहने लगा:
”सिदोरोव!”
और मैंने जवाब दिया: “यस सर!”
उसने तीखी नज़रों से मेरी ओर देखा और पूछने लगा:
 “तुम”, कहने लगा, “क्या?”
 “मैं”, मैंने कहा, “ठीक ठाक हूँ...”
 “तुम,” पूछता है, “अनपढ़ हो?”
 मैंने तपाक से जवाब दिया, “सही फरमाया, कॉम्रेड कमिसार, अनपढ़ हूँ.”
 अब उसने एक बार फिर मेरी ओर देखा और कहने लगा:
” ठीक है, अगर तुम अनपढ़ हो तो आज शाम को मैं तुम्हें ‘त्रावियाता’ भेजूँगा!”
 “मेहेरबानी करके यह तो बताइए,” मैंने कहा, “किसलिए? अगर मैं अनपढ़ हूँ, तो इसकी वजह हम तो नहीं हैं. पुरानी सरकार के ज़माने में हमें पढ़ाया ही नहीं गया.”
और उसने जवाब दिया:
 “बेवकूफ! डर क्यों गया? ये तुम्हें सज़ा के तौर पर थोड़ी ना भेज रहे हैं, बल्कि ये तुम्हारे ही फ़ायदे के लिए है. नाटक देखोगे, और तुम्हें ख़ुशी भी होगी.”
मगर हमने तो अपनी टुकड़ी के पान्तेलेयेव के साथ शाम को सर्कस जाने का प्रोग्राम बनाया था.
इसलिए मैंने कहा, “कॉम्रेड कमिसार , क्या मैं थियेटर के बदले सर्कस नहीं जा सकता?”
उसने एक आँख सिकोड़कर पूछा:  “सर्कस?... वो किसलिए?”
“हाँ,” मैं कहता हूँ, “बहुत ही दिलचस्प होता है... पढ़े लिखे हाथी को लाते हैं, और फिर जोकर, फ्रांसीसी लड़ाई...”
उसने उँगली से धमकाया.  “मैं तुझे दिखाता हूँ पढ़ा लिखा हाथी! नासमझ चीज़! जोकर...जोकर! तू खुद ही गँवार-जोकर है! हाथी तो पढ़े-लिखे हैं, मगर तुम लोग, मेरी मुसीबत, अनपढ़ हो! सर्कस से तुम्हारा क्या फ़ायदा होने वाला है? हाँ? और थियेटर में तो तुम्हें ज्ञान मिलेगा...प्यारा लगेगा, अच्छा लगेगा... तो, एक लब्ज़ में, तुझसे ज़्यादा बात करने के लिए मेरे पास वक़्त नहीं है...टिकट लो और मार्च!”
कुछ नहीं किया जा सकता था – मैंने टिकट ले लिया. पान्तेलेयेव को , वह भी अनपढ़ है, टिकट दिया गया और हम चल पड़े.  तीन गिलास पॉपकॉर्न के खरीदे और ‘फर्स्ट सोवियत थियेटर” में आए.
 देखते क्या हैं कि जाली के पास, जहाँ से लोगों को अन्दर छोड़ते हैं, - गज़ब की धक्का-मुक्की हो रही है. लोगों की एक लहर सी थियेटर की ओर बढ़ रही है. और हम अनपढ़ लोगों के बीच पढ़े-लिखे भी हैं, और उनमें भी ज़्यादातर महिलाएं. एक तो टिकट चेकर पर चढ़ गई, और टिकट दिखाने लगी, और वह उससे पूछता है, “माफ़ कीजिए,” उसने कहा, “कॉम्रेड मैडम, आप पढ़ी-लिखी हैं?”
और वो तो ताव खा गई.
 “कैसा अजीब सवाल है! बेशक, पढ़ी-लिखी हूँ! मैंने हाईस्कूल में पढ़ा है!”
 “ओह,” वह बोला, “ हाईस्कूल में. बड़ी ख़ुशी हुई. तब मुझे आपको अलबिदा कहने की इजाज़त दीजिए!”
और उससे टिकट वापस ले लिया.
 “किस आधार पर,” महिला चीखी, “ऐसा कैसे कर सकते हो?”
 “वो इसलिए,” वह जवाब देता है, “कि सीधी सी बात है, क्योंकि सिर्फ अनपढ़ लोगों को ही अन्दर छोड़ रहे हैं.”
 “मगर मैं भी ऑपेरा या कन्सर्ट सुनना चाहती हूँ.”
 “अगर आप,” वह कहता है, “चाहती हैं तो मेहेरबानी करके काव्सयूज़ (यहाँ तात्पर्य कॉकेशस सयूज़ नामक थियेटर से है – अनु.) में जाइए. वहाँ आपके सारे पढ़ लिखे लोगों को इकट्ठा किया गया है – वहाँ डॉक्टर हैं, कम्पाउण्डर हैं, प्रोफेसर हैं. बैठते हैं और दनादन चाय पे चाय पिये जाते हैं, क्योंकि उन्हें बिना शक्कर की चाय दी जाती है, और कॉम्रेड कुलीकोव्स्की उनके लिए प्रेम-गीत (रोमान्स) गाता रहता है.”
महिला चली गई.
तो, मुझे और पान्तेलेयेव को बेधड़क अन्दर जाने दिया गया और सीधे स्टाल में दूसरी पंक्ति में बिठा दिया गया.
बैठ गए.
शो अभी शुरू नहीं हुआ था, इसलिए बोरियत के मारे पॉपकॉर्न का एक-एक ग्लास साफ कर दिया. इस तरह हम क़रीब डेढ़ घण्टा बैठे रहे, आख़िरकार थियेटर में अँधेरा हो गया.
देखता हूँ कि मुख्य जगह पर, जो कठघरे जैसी थी, कोई चढ़ा. सील मछली की खाल की टोपी और ओवर कोट पहने. मूँछें, दाढ़ी से झाँकती सफ़ेदी, और बड़ा सख़्त मालूम हो रहा था. चढ़ा, बैठ गया और सबसे पहले उसने चश्मा चढ़ा लिया.
मैं पान्तेलेयेव से पूछता हूँ (वो, हाँलाकि अनपढ़ है, मगर सब जानता है):
 “ये कौन है?”
और वो जवाब देता है:
 “ ये डाइ,” कहता है, “रेक्टर है. ये इनमें सबसे खास है. संजीदा महाशय!”
 “तो फिर,” मैं पूछता हूँ, “इसे सबको दिखाने के लिए कठघरे में क्यों बिठाते हैं?”
 “इसलिए,” वो जवाब देता है, “क्यों कि ये इनके ऑपेरा में सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा है. इसे, मतलब,  हमारे लिए मिसाल के तौर पर बिठाते हैं.”
 “तो फिर इसे हमारी ओर पीठ करके क्यों बिठाया है?”
 “”आ S,” वो कहता है, “इस तरह इसे ऑर्केस्ट्रा को चलाना आसान होता है!...”
और इस डाइरेक्टर ने अपने सामने कोई किताब खोल ली, उसमें देखा और सफ़ेद छड़ी घुमाई, और फ़ौरन फर्श के नीचे से वायलिन बजने लगे. रोतली, पतली आवाज़ में; एकदम रोने को जी चाहने लगा.
हाँ, ये डाइरेक्टर वाक़ई में काफ़ी पढ़ा-लिखा मालूम होता था, क्योंकि वो दो-दो काम एक साथ कर रहा था – किताब भी पढ़ता है और छड़ी भी घुमाता है. और ऑर्केस्ट्रा गर्मा रहा था. जैसे-जैसे समय बीत रहा था, और ज़्यादा तैश में आ रहा था! वायलिनों के पीछे बांसुरियों के पीछे पड़ जाता, और बाँसुरियों के बाद ड्रम के पीछे. पूरे थियेटर में कड़कड़ाहट फैल गई. इसके बाद दाईं ओर से कैसे रेंकने की आवाज़ आई...मैंने ऑर्केस्ट्रा की ओर देखा और चीखा:
 “पांतेलेयेव, ये तो, मुझ पर ख़ुदा की मार पड़े, लोम्बार्द है, जो हमारी फौज में राशन देता है!”
और उसने भी देखा और बोला:
”हाँ, वही तो है! उसके अलावा कोई और इतने तैश में त्रोम्बोन नहीं बजा सकता!”
तो, मैं एकदम खुश हो गया और चिल्लाने लगा:
 “शाबाश, वन्स मोर, लोम्बार्द!”
मगर, न जाने कहाँ से, पुलिस वाला प्रकट हो गया और मेरी ओर लपका”
 “ प्लीज़, कॉम्रेड, शांति भंग न करें!”
हम खामोश हो गए.
इस बीच परदा भी खुल गया, और हम देखते हैं कि स्टेज पर – शोर, हल्ला-गुल्ला ! कोट पहने घुड़सवार दस्ते के जवान, औरतें बढ़िया पोषाकों में, नाच रही हैं, गा रही हैं. ख़ैर, बेशक, शराब-वराब भी थी, ताशों के जुए के खेल में भी वही सब कुछ चल रहा था.
एक लब्ज़ में कहूँ तो, पुराने ही तौर-तरीके चल रहे थे!
तो, वहाँ, मतलब, औरों के बीच अल्फ्रेड भी था. वह भी पी रहा है, खा रहा है.
और पता चलता है, मेरे भाई, कि वह इसी त्रावियाता से प्यार करता था. मगर लब्ज़ों में इसे बयान नहीं करता, बस गाए जाता है, गा-गाकर बताता है. और वो भी जवाब में गाए चली जाती है.  
और होता ये है कि वह उससे शादी करने से बच नहीं सकता, मगर, बस, पता चलता है कि इस अल्फ्रेड का एक बाप भी है, जिसका नाम है ल्युब्चेंको. और अचानक, न जाने  कहाँ से दूसरे अंक में वह अचानक स्टेज पर आ धमकता है.
कद तो छोटा है, मगर है बड़ा सजीला, बाल सफ़ेद, और आवाज़ खनखनाती हुई, भारी – गहरी
आते ही उसने गाते हुए अल्फ्रेड से कहना शुरू कर दिया:
  “ तू, क्या, ऐसा है – वैसा है, अपनी जनम भूमि को भूल गया?”
गाता रहा, गाता रहा और इस अल्फ्रेड का सारा मामला गुड़-गोबर कर दिया. गम का मारा अल्फ्रेड तीसरे अंक में पीता है, पीता है और, भाईयों, अपनी त्रावियाता के सामने हंगामा खड़ा कर देता है.
सबके सामने उस पर चिल्लाता है, जो मुँह में आए बके जाता है.
गाता है:
 “तू,” कहता है, “ऐसी है, -वैसी है, और मुझे,” कहता है, “तुझसे कोई वास्ता नहीं रखना है.”
तो, वह, ज़ाहिर है, आँसू बहाने लगी, हो-हल्ला, बदनामी!
और चौथे अंक में उस गम की मारी को तपेदिक हो जाती है. तो, ज़ाहिर है, डॉक्टर को बुलाया गया.
डॉक्टर आता है.
मगर, देखता क्या हूँ कि हाँलाकि उसने कोट पहना है, मगर सभी लक्षण तो हमारे भाई, मज़दूर-सर्वहारा-वर्ग के ही हैं. बाल लम्बे, और आवाज़ – खनखनाती, तन्दुरुस्त, जैसे किसी बैरेल से आ रही हो.
त्रावियाता के पास आता है और गाने लगता है:
”आप,” कहता है, “इत्मीनान रखिए, आपकी बीमारी ख़तरनाक है, और आप ज़रूर मर ही जाएँगी!”
उसने कोई पुर्जा भी लिखकर नहीं दिया, बस सीधे बिदा लेकर चला गया.
तो, देखती है त्रावियाता, कि कुछ भी नहीं किया जा सकता – मरना ही पड़ेगा.
मगर, वहाँ अल्फ्रेड और ल्युब्चेन्को आते हैं, उससे विनती करते हैं कि वह मरे नहीं. ल्युब्चेन्को ने शादी के लिए अपनी रज़ामन्दी भी दे दी. मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ!
 “माफ कीजिए,” त्रावियाता कहती है, “यह मुमकिन नहीं है, मरना ही होगा.”
और वाक़ई में, वे तीनों एक साथ गाते हैं, और त्रावियाता मर जाती है.
तब डाइरेक्टर ने अपनी किताब बन्द की, चश्मा उतारा और चला गया. और सब अपने-अपने रास्ते चले गए. बस, इतना ही.
मैं सोचने लगा, ‘तो, शिक्षा हासिल कर ली, और बस, बहुत हो गया! बोरियत है!’
और मैं पान्तेलेयेव से कहता हूँ, “तो, पान्तेलेयेव, चल, कल सर्कस चलते हैं!”
सो गया, मगर मुझे सारी रात यही सपना आता रहा कि त्रावियाता गा रही है और लोम्बार्द अपने त्रोम्बोन पर चिंघाड़ रहा है.
तो, दूसरे दिन मैं मिलिट्री कमिसार के पास आता हूँ और कहता हूँ:
 “आज शाम को, कॉम्रेड मिल्कमिसार, मुझे सर्कस जाने की इजाज़त दीजिए...”
और वह कैसे दहाड़ा:
 “अभी तक”, कहता है, “तेरे दिमाग में हाथी ही भरे हैं! कोई सर्कस-वर्कस नहीं! नहीं, भाई, आज तुम सोव्प्रोफ जाओगे कॉंन्सर्ट सुनने. वहाँ तुम्हें,” कहता है, “कॉम्रेड ब्लोख अपने ऑर्केस्ट्रा पर दूसरी राप्सोदी (लोकगीत) सुनाने वाला है!”
मैं वैसे ही बैठ गया और सोचने लगा, ‘देखते रहो अपने हाथी!’
 “तो ये क्या, फिर से लोम्बार्द अपने त्रोम्बोन पर दनादन मारने वाला है?”
 “बेशक,” वह कहता है.
ये खूब रही, भगवान बचाए, जहाँ मैं जाता हूँ वहीं वह अपना त्रोम्बोन लेकर आ जाता है!
मैंने इधर-उधर देखा और पूछा, “तो, कल जा सकता हूँ?”
 “और कल भी,” कहता है, “मैं तुम सबको ड्रामा देखने भेज रहा हूँ.”
 “तो, परसों?”
 “परसों, फिर से ऑपेरा!”
और, वैसे भी, कहता है, बहुत हो गया तुम लोगों का सर्कस जाना. शिक्षा-सप्ताह चल रहा है.
मैं तो उसकी बातों से तैश में आ गया! सोचने लगा, इस तरह तो पूरा कबाड़ा हो जाएगा. और पूछता हूँ, “तो क्या हमारी पूरी कम्पनी को ऐसे ही भगाते रहोगे?”
 “सबको क्यों!” कहता है, “ पढ़े-लिखे लोगों को नहीं भगाएँगे. पढ़ा-लिखा दूसरी राप्सोदी के बिना भी अच्छा ही है! ये तो सिर्फ तुम लोगों को: अनपढ़ शैतानों को. और पढ़ा-लिखा जहाँ चाहे वहाँ जा सकता है!”
मैं उसके पास से आ गया और सोचने लगा. देखता हूँ कि हालत तो बड़ी ख़तरनाक है! अगर तुम अनपढ़ हो तो तुम्हें सभी तरह के मनोरंजन से हाथ धोना पड़ेगा.
सोचता रहा, सोचता रहा और फैसला कर लिया.
मिल्कमिसार के पास गया और कहने लगा, “दरख़ास्त देनी है!”
 “कहो!”
 “मुझे,” कहता हूँ, “पढ़ाई के स्कूल में भेज दीजिए.”
 “शाबाश!” और उसने स्कूल में मेरा नाम लिख लिया.
तो, मैं स्कूल गया, और, सोच क्या रहे हैं, पढ़ाई कर ही ली! और अब शैतान मेरा भाई नहीं है, क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा हूँ!

********