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सोमवार, 27 अगस्त 2012

A week of enlightenment - Short story by M.Bulgakov


शिक्षा सप्ताह
(एक सीधी-सादी कहानी)                          
                           -मिखाइल बुल्गाकोव
                                         अनुवाद: ए. चारुमति रामदास

शाम को हमारी टुकड़ी में मिलिट्री कमिसार आया और मुझसे कहने लगा:
”सिदोरोव!”
और मैंने जवाब दिया: “यस सर!”
उसने तीखी नज़रों से मेरी ओर देखा और पूछने लगा:
 “तुम”, कहने लगा, “क्या?”
 “मैं”, मैंने कहा, “ठीक ठाक हूँ...”
 “तुम,” पूछता है, “अनपढ़ हो?”
 मैंने तपाक से जवाब दिया, “सही फरमाया, कॉम्रेड कमिसार, अनपढ़ हूँ.”
 अब उसने एक बार फिर मेरी ओर देखा और कहने लगा:
” ठीक है, अगर तुम अनपढ़ हो तो आज शाम को मैं तुम्हें ‘त्रावियाता’ भेजूँगा!”
 “मेहेरबानी करके यह तो बताइए,” मैंने कहा, “किसलिए? अगर मैं अनपढ़ हूँ, तो इसकी वजह हम तो नहीं हैं. पुरानी सरकार के ज़माने में हमें पढ़ाया ही नहीं गया.”
और उसने जवाब दिया:
 “बेवकूफ! डर क्यों गया? ये तुम्हें सज़ा के तौर पर थोड़ी ना भेज रहे हैं, बल्कि ये तुम्हारे ही फ़ायदे के लिए है. नाटक देखोगे, और तुम्हें ख़ुशी भी होगी.”
मगर हमने तो अपनी टुकड़ी के पान्तेलेयेव के साथ शाम को सर्कस जाने का प्रोग्राम बनाया था.
इसलिए मैंने कहा, “कॉम्रेड कमिसार , क्या मैं थियेटर के बदले सर्कस नहीं जा सकता?”
उसने एक आँख सिकोड़कर पूछा:  “सर्कस?... वो किसलिए?”
“हाँ,” मैं कहता हूँ, “बहुत ही दिलचस्प होता है... पढ़े लिखे हाथी को लाते हैं, और फिर जोकर, फ्रांसीसी लड़ाई...”
उसने उँगली से धमकाया.  “मैं तुझे दिखाता हूँ पढ़ा लिखा हाथी! नासमझ चीज़! जोकर...जोकर! तू खुद ही गँवार-जोकर है! हाथी तो पढ़े-लिखे हैं, मगर तुम लोग, मेरी मुसीबत, अनपढ़ हो! सर्कस से तुम्हारा क्या फ़ायदा होने वाला है? हाँ? और थियेटर में तो तुम्हें ज्ञान मिलेगा...प्यारा लगेगा, अच्छा लगेगा... तो, एक लब्ज़ में, तुझसे ज़्यादा बात करने के लिए मेरे पास वक़्त नहीं है...टिकट लो और मार्च!”
कुछ नहीं किया जा सकता था – मैंने टिकट ले लिया. पान्तेलेयेव को , वह भी अनपढ़ है, टिकट दिया गया और हम चल पड़े.  तीन गिलास पॉपकॉर्न के खरीदे और ‘फर्स्ट सोवियत थियेटर” में आए.
 देखते क्या हैं कि जाली के पास, जहाँ से लोगों को अन्दर छोड़ते हैं, - गज़ब की धक्का-मुक्की हो रही है. लोगों की एक लहर सी थियेटर की ओर बढ़ रही है. और हम अनपढ़ लोगों के बीच पढ़े-लिखे भी हैं, और उनमें भी ज़्यादातर महिलाएं. एक तो टिकट चेकर पर चढ़ गई, और टिकट दिखाने लगी, और वह उससे पूछता है, “माफ़ कीजिए,” उसने कहा, “कॉम्रेड मैडम, आप पढ़ी-लिखी हैं?”
और वो तो ताव खा गई.
 “कैसा अजीब सवाल है! बेशक, पढ़ी-लिखी हूँ! मैंने हाईस्कूल में पढ़ा है!”
 “ओह,” वह बोला, “ हाईस्कूल में. बड़ी ख़ुशी हुई. तब मुझे आपको अलबिदा कहने की इजाज़त दीजिए!”
और उससे टिकट वापस ले लिया.
 “किस आधार पर,” महिला चीखी, “ऐसा कैसे कर सकते हो?”
 “वो इसलिए,” वह जवाब देता है, “कि सीधी सी बात है, क्योंकि सिर्फ अनपढ़ लोगों को ही अन्दर छोड़ रहे हैं.”
 “मगर मैं भी ऑपेरा या कन्सर्ट सुनना चाहती हूँ.”
 “अगर आप,” वह कहता है, “चाहती हैं तो मेहेरबानी करके काव्सयूज़ (यहाँ तात्पर्य कॉकेशस सयूज़ नामक थियेटर से है – अनु.) में जाइए. वहाँ आपके सारे पढ़ लिखे लोगों को इकट्ठा किया गया है – वहाँ डॉक्टर हैं, कम्पाउण्डर हैं, प्रोफेसर हैं. बैठते हैं और दनादन चाय पे चाय पिये जाते हैं, क्योंकि उन्हें बिना शक्कर की चाय दी जाती है, और कॉम्रेड कुलीकोव्स्की उनके लिए प्रेम-गीत (रोमान्स) गाता रहता है.”
महिला चली गई.
तो, मुझे और पान्तेलेयेव को बेधड़क अन्दर जाने दिया गया और सीधे स्टाल में दूसरी पंक्ति में बिठा दिया गया.
बैठ गए.
शो अभी शुरू नहीं हुआ था, इसलिए बोरियत के मारे पॉपकॉर्न का एक-एक ग्लास साफ कर दिया. इस तरह हम क़रीब डेढ़ घण्टा बैठे रहे, आख़िरकार थियेटर में अँधेरा हो गया.
देखता हूँ कि मुख्य जगह पर, जो कठघरे जैसी थी, कोई चढ़ा. सील मछली की खाल की टोपी और ओवर कोट पहने. मूँछें, दाढ़ी से झाँकती सफ़ेदी, और बड़ा सख़्त मालूम हो रहा था. चढ़ा, बैठ गया और सबसे पहले उसने चश्मा चढ़ा लिया.
मैं पान्तेलेयेव से पूछता हूँ (वो, हाँलाकि अनपढ़ है, मगर सब जानता है):
 “ये कौन है?”
और वो जवाब देता है:
 “ ये डाइ,” कहता है, “रेक्टर है. ये इनमें सबसे खास है. संजीदा महाशय!”
 “तो फिर,” मैं पूछता हूँ, “इसे सबको दिखाने के लिए कठघरे में क्यों बिठाते हैं?”
 “इसलिए,” वो जवाब देता है, “क्यों कि ये इनके ऑपेरा में सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा है. इसे, मतलब,  हमारे लिए मिसाल के तौर पर बिठाते हैं.”
 “तो फिर इसे हमारी ओर पीठ करके क्यों बिठाया है?”
 “”आ S,” वो कहता है, “इस तरह इसे ऑर्केस्ट्रा को चलाना आसान होता है!...”
और इस डाइरेक्टर ने अपने सामने कोई किताब खोल ली, उसमें देखा और सफ़ेद छड़ी घुमाई, और फ़ौरन फर्श के नीचे से वायलिन बजने लगे. रोतली, पतली आवाज़ में; एकदम रोने को जी चाहने लगा.
हाँ, ये डाइरेक्टर वाक़ई में काफ़ी पढ़ा-लिखा मालूम होता था, क्योंकि वो दो-दो काम एक साथ कर रहा था – किताब भी पढ़ता है और छड़ी भी घुमाता है. और ऑर्केस्ट्रा गर्मा रहा था. जैसे-जैसे समय बीत रहा था, और ज़्यादा तैश में आ रहा था! वायलिनों के पीछे बांसुरियों के पीछे पड़ जाता, और बाँसुरियों के बाद ड्रम के पीछे. पूरे थियेटर में कड़कड़ाहट फैल गई. इसके बाद दाईं ओर से कैसे रेंकने की आवाज़ आई...मैंने ऑर्केस्ट्रा की ओर देखा और चीखा:
 “पांतेलेयेव, ये तो, मुझ पर ख़ुदा की मार पड़े, लोम्बार्द है, जो हमारी फौज में राशन देता है!”
और उसने भी देखा और बोला:
”हाँ, वही तो है! उसके अलावा कोई और इतने तैश में त्रोम्बोन नहीं बजा सकता!”
तो, मैं एकदम खुश हो गया और चिल्लाने लगा:
 “शाबाश, वन्स मोर, लोम्बार्द!”
मगर, न जाने कहाँ से, पुलिस वाला प्रकट हो गया और मेरी ओर लपका”
 “ प्लीज़, कॉम्रेड, शांति भंग न करें!”
हम खामोश हो गए.
इस बीच परदा भी खुल गया, और हम देखते हैं कि स्टेज पर – शोर, हल्ला-गुल्ला ! कोट पहने घुड़सवार दस्ते के जवान, औरतें बढ़िया पोषाकों में, नाच रही हैं, गा रही हैं. ख़ैर, बेशक, शराब-वराब भी थी, ताशों के जुए के खेल में भी वही सब कुछ चल रहा था.
एक लब्ज़ में कहूँ तो, पुराने ही तौर-तरीके चल रहे थे!
तो, वहाँ, मतलब, औरों के बीच अल्फ्रेड भी था. वह भी पी रहा है, खा रहा है.
और पता चलता है, मेरे भाई, कि वह इसी त्रावियाता से प्यार करता था. मगर लब्ज़ों में इसे बयान नहीं करता, बस गाए जाता है, गा-गाकर बताता है. और वो भी जवाब में गाए चली जाती है.  
और होता ये है कि वह उससे शादी करने से बच नहीं सकता, मगर, बस, पता चलता है कि इस अल्फ्रेड का एक बाप भी है, जिसका नाम है ल्युब्चेंको. और अचानक, न जाने  कहाँ से दूसरे अंक में वह अचानक स्टेज पर आ धमकता है.
कद तो छोटा है, मगर है बड़ा सजीला, बाल सफ़ेद, और आवाज़ खनखनाती हुई, भारी – गहरी
आते ही उसने गाते हुए अल्फ्रेड से कहना शुरू कर दिया:
  “ तू, क्या, ऐसा है – वैसा है, अपनी जनम भूमि को भूल गया?”
गाता रहा, गाता रहा और इस अल्फ्रेड का सारा मामला गुड़-गोबर कर दिया. गम का मारा अल्फ्रेड तीसरे अंक में पीता है, पीता है और, भाईयों, अपनी त्रावियाता के सामने हंगामा खड़ा कर देता है.
सबके सामने उस पर चिल्लाता है, जो मुँह में आए बके जाता है.
गाता है:
 “तू,” कहता है, “ऐसी है, -वैसी है, और मुझे,” कहता है, “तुझसे कोई वास्ता नहीं रखना है.”
तो, वह, ज़ाहिर है, आँसू बहाने लगी, हो-हल्ला, बदनामी!
और चौथे अंक में उस गम की मारी को तपेदिक हो जाती है. तो, ज़ाहिर है, डॉक्टर को बुलाया गया.
डॉक्टर आता है.
मगर, देखता क्या हूँ कि हाँलाकि उसने कोट पहना है, मगर सभी लक्षण तो हमारे भाई, मज़दूर-सर्वहारा-वर्ग के ही हैं. बाल लम्बे, और आवाज़ – खनखनाती, तन्दुरुस्त, जैसे किसी बैरेल से आ रही हो.
त्रावियाता के पास आता है और गाने लगता है:
”आप,” कहता है, “इत्मीनान रखिए, आपकी बीमारी ख़तरनाक है, और आप ज़रूर मर ही जाएँगी!”
उसने कोई पुर्जा भी लिखकर नहीं दिया, बस सीधे बिदा लेकर चला गया.
तो, देखती है त्रावियाता, कि कुछ भी नहीं किया जा सकता – मरना ही पड़ेगा.
मगर, वहाँ अल्फ्रेड और ल्युब्चेन्को आते हैं, उससे विनती करते हैं कि वह मरे नहीं. ल्युब्चेन्को ने शादी के लिए अपनी रज़ामन्दी भी दे दी. मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ!
 “माफ कीजिए,” त्रावियाता कहती है, “यह मुमकिन नहीं है, मरना ही होगा.”
और वाक़ई में, वे तीनों एक साथ गाते हैं, और त्रावियाता मर जाती है.
तब डाइरेक्टर ने अपनी किताब बन्द की, चश्मा उतारा और चला गया. और सब अपने-अपने रास्ते चले गए. बस, इतना ही.
मैं सोचने लगा, ‘तो, शिक्षा हासिल कर ली, और बस, बहुत हो गया! बोरियत है!’
और मैं पान्तेलेयेव से कहता हूँ, “तो, पान्तेलेयेव, चल, कल सर्कस चलते हैं!”
सो गया, मगर मुझे सारी रात यही सपना आता रहा कि त्रावियाता गा रही है और लोम्बार्द अपने त्रोम्बोन पर चिंघाड़ रहा है.
तो, दूसरे दिन मैं मिलिट्री कमिसार के पास आता हूँ और कहता हूँ:
 “आज शाम को, कॉम्रेड मिल्कमिसार, मुझे सर्कस जाने की इजाज़त दीजिए...”
और वह कैसे दहाड़ा:
 “अभी तक”, कहता है, “तेरे दिमाग में हाथी ही भरे हैं! कोई सर्कस-वर्कस नहीं! नहीं, भाई, आज तुम सोव्प्रोफ जाओगे कॉंन्सर्ट सुनने. वहाँ तुम्हें,” कहता है, “कॉम्रेड ब्लोख अपने ऑर्केस्ट्रा पर दूसरी राप्सोदी (लोकगीत) सुनाने वाला है!”
मैं वैसे ही बैठ गया और सोचने लगा, ‘देखते रहो अपने हाथी!’
 “तो ये क्या, फिर से लोम्बार्द अपने त्रोम्बोन पर दनादन मारने वाला है?”
 “बेशक,” वह कहता है.
ये खूब रही, भगवान बचाए, जहाँ मैं जाता हूँ वहीं वह अपना त्रोम्बोन लेकर आ जाता है!
मैंने इधर-उधर देखा और पूछा, “तो, कल जा सकता हूँ?”
 “और कल भी,” कहता है, “मैं तुम सबको ड्रामा देखने भेज रहा हूँ.”
 “तो, परसों?”
 “परसों, फिर से ऑपेरा!”
और, वैसे भी, कहता है, बहुत हो गया तुम लोगों का सर्कस जाना. शिक्षा-सप्ताह चल रहा है.
मैं तो उसकी बातों से तैश में आ गया! सोचने लगा, इस तरह तो पूरा कबाड़ा हो जाएगा. और पूछता हूँ, “तो क्या हमारी पूरी कम्पनी को ऐसे ही भगाते रहोगे?”
 “सबको क्यों!” कहता है, “ पढ़े-लिखे लोगों को नहीं भगाएँगे. पढ़ा-लिखा दूसरी राप्सोदी के बिना भी अच्छा ही है! ये तो सिर्फ तुम लोगों को: अनपढ़ शैतानों को. और पढ़ा-लिखा जहाँ चाहे वहाँ जा सकता है!”
मैं उसके पास से आ गया और सोचने लगा. देखता हूँ कि हालत तो बड़ी ख़तरनाक है! अगर तुम अनपढ़ हो तो तुम्हें सभी तरह के मनोरंजन से हाथ धोना पड़ेगा.
सोचता रहा, सोचता रहा और फैसला कर लिया.
मिल्कमिसार के पास गया और कहने लगा, “दरख़ास्त देनी है!”
 “कहो!”
 “मुझे,” कहता हूँ, “पढ़ाई के स्कूल में भेज दीजिए.”
 “शाबाश!” और उसने स्कूल में मेरा नाम लिख लिया.
तो, मैं स्कूल गया, और, सोच क्या रहे हैं, पढ़ाई कर ही ली! और अब शैतान मेरा भाई नहीं है, क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा हूँ!

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