लोकप्रिय पोस्ट

बुधवार, 8 अगस्त 2012

Discussion on Master&Margarita - 13.2


    अध्याय -13.2

अजनबी अपनी कहानी इवान को सुनाता है जो किसी साधारण कहानी की तरह नहीं है.

इतिहास में शिक्षा पूरी करने के बाद उसने एक म्यूज़ियम में क़रीब दो वर्ष काम किया. वहाँ उसे एक लॉटरी का टिकट दिया गया, और संयोगवश इस टिकट पर उसने एक लाख रूबल्स जीत लिए. यह एक बहुत बड़ी धनराशि थी. एक लाख रूबल्स जीतने के बाद जो सबसे पहला काम उसने किया वो ये कि म्यास्नित्स्काया रास्ते वाला अपना कमरा छोड़ दिया और अर्बात पर एक मकान किराए पर लेकर रहने लगा.

यह एक बड़ा ख़ूबसूरत और आरामदेह मकान था. प्रवेश कक्ष, सिंक के साथ; एक छोटा कमरा जिसकी खिड़कियाँ बगीचे में खुलती थीं और एक बड़ा हॉल, फायरप्लेस के साथ. फायरप्लेस में हमेशा आग जलती रहती; घर में हमेशा गर्माहट रहती.

उसने कई सारी किताबें खरीद लीं और पोंती पिलात तथा येशुआ–हा-नोस्त्री के बारे में उपन्यास लिखने लगा (वही जो लाल किनारी वाले सफेद चोगे में पिलात के हिरोद के महल की छत पर प्रवेश से आरंभ होता है). उपन्यास तेज़ी से आगे बढ़ रहा था, पिलात अंत की ओर भाग रहा था...सर्दियाँ ख़त्म हो चुकी थीं; बहार के दिन आ गए और बगीचे में लिण्डन और लिली के वृक्षों ने हरियाली के वस्त्र पहन लिए.
लेखक ने (वह उपन्यास में कहीं भी अपना नाम अथवा उपनाम नहीं बताता) अपना नाम और उपनाम त्याग दिया है, ज़िन्दगी की और चीज़ों की तरह...अब वह है सिर्फ मास्टर  और उसके व्यक्तित्व की पहचान है काले रंग की वह टोपी जिस पर पीले रेशम से M अक्षर कढ़ा हुआ है. यह अक्षर उसकी प्रियतमा ने बनाया है. उसीने उसे यह नाम दिया था – मास्टर.

इस अध्याय में मास्टर की प्रियतमा का नाम भी नहीं बताया गया है. मास्टर उससे एक शाम को त्वेर्स्काया रास्ते पर मिला था जब वह हाथों में पीले घिनौने फूल लिए जा रही थी. यह घटना उसके लिए एक लाख रूबल्स का इनाम जीतने से भी बढ़कर थी.

इस पीले रंग के कारण वह उसके पीछे-पीछे चलने लगा. अचानक वह एक गली में मुड़ी और उसकी ओर देखा.

वह उसके पीछे-पीछे चलता रहा, अचानक वह रुकी और उससे पूछने लगी कि क्या उसे ये फूल पसन्द हैं. मास्टर के इनकार करने पर उसने वे फूल नाली में फेंक दिए. वे ख़ामोश चलते रहे, फिर उसने अपने खूबसूरत हाथ में मास्टर का हाथ ले लिया और वे साथ-साथ चलने लगे. ..क्रेमलिन की मॉस्को नदी वाली दीवार तक पहुँचे और दूसरे दिन फिर मिलने का वादा करके जुदा हुए.

शीघ्र ही वह औरत उसकी पत्नी बन गई, खुले आम नहीं बल्कि गुप्त रूप में. मास्टर को यकीन था कि उसके बारे में किसी को भी कुछ भी पता नहीं था.

वह  शादी-शुदा थी; मास्टर भी अपनी पत्नी से अलग हो गया था.

वह प्रतिदिन सुबह उसके पास आती, नाश्ता बना लेती; उसकी किताबों की धूल साफ करती; उसके लिखे पन्नों को पढ़ती रहती; ख़ाली समय में यह टोपी बनाती रहती. यह उपन्यास  उसे बहुत पसन्द था, इससे उसे बड़ी आशाएँ थीं. तभी से उसने उसे मास्टर कहना शुरू कर दिया.

उपन्यास पूरा हो चुका था. उसे टाइप कर दिया गया और वह उपन्यास को लेकर अपनी आरामगाह से निकल पड़ा, उसे किसी प्रकाशक को देने; और यही था उसकी ज़िन्दगी का अंत.

बुल्गाकोव प्रकाशन जगत की बड़ी घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं.

प्रकाशक उससे उसके पूर्वानुभव के बारे में पूछते; उसके परिवार के बारे में पूछते और अंत में यह पूछ लेते कि इस ख़तरनाक विषय पर उपन्यास लिखने के लिए उसे किसने उकसाया है.

वे उससे साफ़-साफ़ नहीं कहते कि उपन्यास नहीं छापा जा सकता; वे कोई न कोई बहाना बनाकर उसे बार-बार आने के लिए कहते. अंत में उससे कह दिया गया कि प्रकाशन गृह के पास दो वर्ष के लिए पर्याप्त सामग्री है अतः उसका उपन्यास प्रकाशित नहीं किया जा सकता.

किसी और सम्पादक ने उपन्यास का एक बड़ा अंश अपनी पत्रिका में छाप दिया और इसके पश्चात् पूरे साहित्य जगत में ऐसा हंगामा हुआ जिसने मास्टर को पूरी तरह नष्ट कर दिया.

यह इस तरह हुआ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.