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रविवार, 12 अगस्त 2012

Discussion on M&M(Hindi) - 14


अध्याय – 14

काले जादू के ‘शो’ के बाद हम वेरायटी की तरफ गए ही नहीं हैं, चलिए, देखें कि वहाँ क्या हो रहा है.
वित्तीय डाइरेक्टर रीम्स्की काले जादू के जादूगर से और उसके ‘शो’ से बहुत अप्रसन्न है. सिप्म्लेयारोव का भण्डाफोड़ होने के बाद वह अपने तनाव पर काबू न कर सका और ‘शो’ के बाद की औपचारिकताएँ पूरी किए बगैर अपने कक्ष में लौट आया. मेज़ पर पड़े जादुई नोटों की ओर देखते हुए वह विचारमग्न हो गया.
अचानक उसे पुलिस की कर्कश सीटी की आवाज़ सुनाई दी जो किसी प्रसन्नता का प्रतीक नहीं होती.
वह सादोवाया की ओर खुलने वाली खिड़की की तरफ गया और सड़क पर झाँकने लगा...लोग थियेटर से निकल रहे थे...एक जगह कुछ मनचले सीटियाँ बजा रहे थे, ठहाके लगा रहे थे, ताने कस रहे थे और एक महिला को छेड़ रहे थे. महिला बिचारी, जिसने फागोत की दुकान से बढ़िया फैशनेबुल ड्रेस पाई थी, अपने आप को बचाने की भरसक कोशिश कर रही थी, उसकी ड्रेस गायब हो चुकी थी और वह केवल अंतर्वस्त्रों में थी. कुछ दूर पर एक और ऐसा ही नज़ारा दिखाई दिया. कुछ मनचले महिला को अपनी इच्छित जगह पर ले जाने के लिए तत्पर थे.
घृणा से थूकते हुए रीम्स्की खिड़की से दूर हट गया और वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया. ज़िम्मेदारी का कड़वा घूँट पीने का क्षण आ गया था. उसे उन्हें  सूचित करना था : स्त्योपा के गायब होने के बारे में, इसके तुरंत बाद वारेनूखा के लापता हो जाने के बारे में; करेंसी नोटों की बरसात के बारे में; बेंगाल्स्की के साथ हुए दर्दनाक हादसे के बारे में; और सिम्प्लेयारोव वाले लफ़ड़े के बारे में.
मगर जैसे ही उसने टेलिफोन की तरफ हाथ बढ़ाया, वह खुद ही बजने लगा और एक कामुक आवाज़ ने रीम्स्की को धमकी देते हुए कहा कि वह कहीं भी फोन न करे.
अब कहीं फोन करने का सवाल ही नहीं उठता था, वह बैठा रहा – मगर तभी की-होल में चाभी अपने आप घूमने लगी, दरवाज़ा खुला और वारेनूखा भीतर आया.  
ख़ैर, इसके बाद क्या हुआ यह तो आपने पढ़ ही लिया होगा: वारेनूखा ने, जो वाक़ई में वारेनूखा था ही नहीं, बल्कि वारेनूखा के भेस में कोई शैतानी रूह थी, रीम्स्की को मार डालने की कोशिश की; कैसे एक नग्न औरत वित्तीय डाइरेक्टर के कमरे में पिछली खिड़की से घुसने की कोशिश कर रही थी और कैसे उसे और वारेनूखा को, मुर्गे की बाँग सुनते ही हवा में तैरते हुए वहाँ से भाग जाना पड़ा...और कैसे रीम्स्की जो अचानक 80 साल के बूढे जैसा हो चुका था, अपने सफेद बालों वाले, हिलते हुए सिर को सम्भाले रेल्वे स्टेशन की ओर भागा और मॉस्को से गायब हो गया...
एक नज़र रीम्स्की के चरित्र पर डालें:
रीम्स्की बहुत अकलमन्द था. उसकी निरीक्षण शक्ति ग़ज़ब की थी; वह बेहद संवेदनशील था...बुल्गाकोव तो यहाँ तक कहते हैं कि उसकी संवेदनशीलता की विश्व के सर्वोतम सेस्मोग्राफ से तुलना की जा सकती है...उसे दरवाज़े के नीचे से कमरे में प्रवेश करती सड़ानयुक्त गंध का अनुभव हो रहा था; वह खिड़की से भीतर प्रवेश करने की कोशिश करती हुई नग्न महिला के सड़े हुए वक्ष को देख सकता था; उसे यह भी महसूस हो रहा था कि वह औरत भी सड़ानयुक्त गंध में लिपटी हुई है; उसने इस बात को भाँप लिया था कि कुर्सी में बैठे हुए वारेनूखा की परछाईं फर्श पर नहीं पड़ रही है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका था कि यह वारेनूखा नहीं बल्कि कोई प्रेतात्मा है जो आधी रात के समय केवल स्त्योपा के दुःसाहस के किस्से सुनाने ही नहीं आया है, उसके दिमाग में ज़रूर कोई ख़तरनाक ख़याल है!
मैं फिर से दुहराऊँगी कि बुल्गाकोव एक बार फिर हमें मानो किसी 3D फिल्म में ले गए हैं, जहाँ हम सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं; केवल कल्पना ही नहीं करते हैं, बल्कि रीम्स्की के कमरे में हो रहे हर कार्यकलाप में भाग लेते हैं .
हम रीम्स्की के साथ-साथ एक जासूस की तरह विश्लेषण करते हैं कि वारेनूखा इतनी देर से, चोरों की तरह रीम्स्की के कमरे में क्यों घुसा जबकि वह यह सोच रहा था कि रीम्स्की घर जा चुका है? वह स्त्योपा लिखोदेयेव के बारे में झूठ पर झूठ क्यों बोले जा रहा था; वह टेबल लैम्प की छाँव से बाहर क्यों नहीं आ रहा था; वह रीम्स्की से अपना चेहरा क्यों छुपा रहा था; उसे चटखारे लेने और सिसकारियाँ भरने की गन्दी आदत कैसे पड़ गई थी; उसके गाल पर चोट का निशान कैसे आ गया था?
हम रीम्स्की के भीतर के मानसिक तनाव को, उसके भीतर हो रही  उथल-पुथल को महसूस करते हैं; हम महसूस करते हैं कि अपनी जान पर मंडलाते खतरे का अनुभव करते हुए उसके मस्तिष्क की नसें बस फटने ही वाली हैं; और हम राहत की साँस लेते हैं जब मुर्गा बाँग देता है और प्रेतात्माएं हवा में बिखर जाती हैं, घुल जाती हैं.
बुल्गाकोव ने इस उपन्यास ने कई बार कहा है कि पूरब से उजाला मॉस्को में आ रहा था...क्या ऐसा आभास नहीं होता कि पूरबी प्रज्ञा के बारे में उनकी कोई विशिष्ठ राय थी?
संक्षेप में यह एक अद्भुत अध्याय है, साँस रोके पढ़ता रहता है पाठक; अध्याय पूरा किए बिना उपन्यास छोड़ ही नहीं सकता!

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