अध्याय 20
तो, शुक्रवार की शाम है...
मार्गारीटा बड़ी बेसब्री से घड़ी की ओर देख रही
है. उसके सामने अज़ाज़ेलो द्वारा दी गई क्रीम की डिबिया पड़ी है.
जैसे ही साढ़े नौ बजे, मार्गारीटा का दिल बुरी
तरह धड़क उठा, जिससे वह एकदम डिब्बी न उठा सकी. अपने आप पर काबू पाते हुए उसने
डिब्बी को खोला और देखा कि उसमें पीली, चिकनी क्रीम थी. उसे लगा कि उसमें से दलदली
कीचड़ की गन्ध आ रही है. ऊँगली की नोक से मार्गारीटा ने थोड़ी-सी क्रीम निकालकर
हथेली पर रखी, अब उसमें से दलदली घास और जंगल की तेज़ महक आने लगी. वह हथेली से
माथे और गालों पर क्रीम मलने लगी.
क्रीम बड़ी जल्दी बदन पर मला जा रहा था.
मार्गारीटा को ऐसा लगा कि वह तभी भाप बनकर उड़ रहा है. कुछ देर मलने के बाद
मार्गारीटा ने शीशे में देखा और उसके हाथ से डिब्बी छूटकर घड़ी पर जा गिरी. घड़ी के
शीशे पर दरारें पड़ गईं. मार्गारीटा ने आँखें बन्द कर लीं. फिर उसने अपने आपको
दुबारा आईने में देखा और ठहाका मारकर हँस पड़ी.
किनारों पर धागे की तरह पतली होती गई उसकी भवें
क्रीम के कारण मोटी-मोटी हो गई थीं और हरी-हरी आँखों पर विराजमान थीं. पतली-सी
झुर्री जो नाक की बगल में तब, अक्टूबर में, बन गई थी, जब मास्टर गुम हो गया था, अब
बिल्कुल दिखाई नहीं दे रही थी. कनपटी के निकट के पीले साये भी गायब हो गए थे. साथ
ही आँखों के किनारों पर पड़ी जाली भी अब नहीं थी. गालों की त्वचा गुलाबी हो गई थी.
माथा साफ़ और सफ़ेद हो गया था, बाल खुल चुके थे.
तीस वर्षीया मार्गारीटा को आईने से देख रही थी
काले, घुँघराले बालों वाली, दाँत दिखाकर बेतहाशा हँसती हुए एक बीस साल की छोकरी.
हँसना ख़त्म करके मार्गारीटा ने एक झटके से गाऊन
फेंक दिया और अपने पूरे बदन पर जल्दी-जल्दी क्रीम मलने लगी. बदन गुलाबी होकर चमकने
लगा. फिर मानो किसी ने सिर में चुभी हुई सुई बाहर निकाल फेंकी हो. उसकी कनपटी का
दर्द गायब हो गया जो कल शाम से अलेक्सान्द्रोव्स्की पार्क में शुरू हुआ था.
हाथों-पैरों के स्नायु मज़बूत हो गए, फिर मार्गारीटा का बदन हल्का हो गया.
वह उछली और पलंग से कुछ ऊपर हवा में तैरने लगी.
फिर जैसे उसे कोई नीचे की ओर खींचने लगा और वह नीचे आ गई.
“क्या क्रीम है! क्या क्रीम है!” मार्गारीटा कुर्सी में बैठते हुए
बोली.
इस लेप से उसमें केवल बाहरी परिवर्तन ही नहीं
हुआ था. अब उसके समूचे अस्तित्व में, शरीर के हर कण में प्रसन्नता हिलोरें ले रही
थी, जिसका वह हर क्षण अनुभव कर रही थी, मानो बुलबुलों के रूप में यह खुशी उसके बदन
से फूटी पड़ रही थी. मार्गारीटा ने अपने आपको स्वतंत्र अनुभव किया, सब बन्धनों से
मुक्त. इसके अलावा वह समझ गई, कि वह हो गया है, जिसका आभास उसे सुबह हुआ था, और अब
वह ख़ूबसूरत घर और अपनी पुरानी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए छोड़ देगी.
मगर इस पुरानी ज़िन्दगी से एक ख़याल उसका पीछा कर
रहा था, वह यह कि एक आख़िरी कर्त्तव्य पूरा करना है इस नए, अजीब, ऊपर, हवा में
खींचते हुए ‘कुछ’ के घटित होने से पहले. और वह, वैसी ही निर्वस्त्र अवस्था में,
शयनगृह से हवा में तैरते-उतरते हुए अपने पति के कमरे में पहुँची और टेबुल लैम्प
जलाकर लिखने की मेज़ की ओर लपकी. सामने पड़े राइटिंग पैड से एक पन्ना फ़ाड़कर उस पर बड़े-बड़े
अक्षरों में पेंसिल से लिखा:
”मुझे माफ़ करना और जितनी जल्दी हो सके, भूल जाना. मैं तुम्हें हमेशा
के लिए छोड़कर जा रही हूँ. मुझे ढूँढ़ने की कोशिश मत करना, कोई फ़ायदा नहीं होगा. मैं
हमेशा सताने वाले दुःखों और मुसीबतों के कारण चुडैल बन गई हूँ. अब मैं चलती हूँ.
अलबिदा! मार्गारीटा.”
इस अध्याय में दो पात्र और हैं: मार्गारीटा की
नौकरानी नताशा, और मार्गारीटा के आलीशान घर की निचली मंज़िल पर रहने वाला निकोलाय
इवानोविच.
मार्गारीटा का नताशा के साथ काफ़ी दोस्ताना
किस्म का बर्ताव है. वह उससे कहती है कि उसकी सभी पोशाकें अपने लिए उठा ले.
मगर निकोलाय इवानोविच काफी ‘बोर’ किस्म का आदमी
है. वह काफ़ी महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहा था. उसे रोज़ सुबह दफ़्तर की गाड़ी घर से ले
जाती थी और शाम को वापस घर छोड़ जाती थी.
अज़ाज़ेलो दस बजे फोन करके उसे बताता है कि उसे किस तरह से उड़ना है. मार्गारीटा उड़ने के लिए तैयार है!
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