अध्याय 8
सोव्खोज़ (सोवियत
फार्म) में काण्ड
कम से कम स्मोलेन्स्क प्रांत में
बीच-अगस्त के मौसम से शानदार कोई और मौसम हो ही नहीं सकता. सन् 1928 की गर्मियाँ,
जैसा कि ज्ञात है, सबसे शानदार थीं, बसंत की बारिश सही समय पर हुई थी, कड़ी धूप थी,
फ़सल भी बेहद बढ़िया हुई थी...शेरेमेत्येवों की भूतपूर्व जागीर में सेब पक रहे थे,
जंगलों पर हरियाली छा रही थी, चौकोर खेत सुनहरे-पीले हो चुके थे..प्रकृति की गोद
में इन्सान भी बेहतर हो जाता है. और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच भी उतना बदसूरत नहीं
लग सकता था, जैसा वह शहर में प्रतीत हो रहा था. वो घिनौना जैकेट भी अब उस पर नहीं
था. चेहरा तांबे जैसा चमक रहा था, खुली हुई फूलदार कमीज़ के भीतर से उसका घने काले
बालों से ढँका सीना दिखाई दे रहा था, उसने नई कैनवास की पतलून पहनी थी. और उसकी
आँखों से शांति और दया छलक रही थी.
स्तम्भों वाले पोर्च से निकल कर, जिस पर
सितारे के नीचे बैनर लगा था:
‘सोव्खोज़
(सोवियत फ़ार्म)’ ‘लाल किरण’
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच उत्तेजना से
ट्रक की ओर भागा, जो सुरक्षा-गार्डों की निगरानी में तीन काले चैम्बर्स लाए थे.
भूतपूर्व
शिशिर-उद्यान – शेरेमेत्येवों के ग्रीन-हाऊस - में चैम्बर्स फिक्स करने की गड़बड़
में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच अपने सहायकों के साथ पूरे दिन भागदौड़ करता रहा...
शाम होते-होते सब तैयार हो गया. काँच की छत के नीचे सफ़ेद मटमैला लैम्प जल उठा,
ईंटों पर चैम्बर्स रख दिए गए, और चैम्बर्स के साथ आए हुए मैकेनिक ने चमकदार
स्क्रूज़ को थपथपाकर, इधर-उधर घुमाकर काले डिब्बों के एस्बेस्टस के फर्श पर रहस्यमय
लाल किरण जला दी.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच भाग-दौड़ करता
रहा, सीढ़ी पर चढ़कर जाँच करता रहा कि तार ठीक से लगे हैं या नहीं.
दूसरे दिन वही ट्रक स्टेशन से लौटा और
बढ़िया प्लायवुड के तीन खोके उतारे, जिन पर तरह तरह के लेबल्स चिपके हुए थे और काली
पृष्ठभूमि पर सफ़ेद अक्षरों वाले नोटिस लगे थे:
VORSICHT: EIER!!
सावधान: अंडे!!
“ये इतने कम क्यों भेजे हैं?”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को अचरज हुआ, मगर वह फ़ौरन उन्हें खोलने में लग गया.
अण्डे बाहर निकालने का काम उसी ग्रीन-हाऊस में किया गया, और इसमें शामिल थे: ख़ुद
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, उसकी असाधारण रूप से मोटी बीबी मान्या, भूतपूर्व
शेरेमेत्येवों का भूतपूर्व काणा गार्डनर, जो अब सोव्खोज़ में हरफ़नमौला चौकीदार का काम करता था, और झाडू लगाने
वाली दून्या. ये मॉस्को नहीं था, और यहाँ हर चीज़ सीधी-सादी, दोस्ताना और पारिवारिक
भावना लिए हुए थी. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच प्यार से उन खोकों की ओर देखते हुए
निर्देश दे रहा था, जो ग्रीन-हाऊस की काँच की छत के नीचे फैले सूर्यास्त के
नर्म-मद्धिम प्रकाश में किसी ज़बर्दस्त उपहार जैसे प्रतीत हो रहे थे. चौकीदार,
जिसकी संगीन दरवाज़े के पास मीठी नींद ले रही थी, प्लायर्स की सहायता से धातु की
पट्टियाँ और क्लिप्स निकाल रहा था. चरमराहट हो रही थी...धूल गिर रही थी.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच अपने सैण्डिल्स खटखटाते हुए खोकों के पास भाग दौड़ कर रहा
था.
“धीरे से, प्लीज़,” वह चौकीदार से बोला. “और
ज़्यादा सावधानी से. क्या देख नहीं रहे हो – अण्डे हैं?...”
“कोई बात नहीं,” कस्बाई योद्धा चहकते हुए
भर्राया, “ बस, अभी हो जाता है...”
टर्-र्-र्... और धूल गिरने लगी.
अण्डे एकदम ‘सुपर’ तरीक़े से रखे गए थे:
लकड़ी के ढक्कन के नीचे मोमजामे वाले कागज़ की तह थी, इसके नीचे ब्लॉटिंग पेपर की,
इसके नीचे मोटी तह लकड़ी की छीलन की, फिर बुरादा, और उनके बीच से अण्डों के सफ़ेद
सिर झाँक रहे थे.
“विदेशों की पैकिंग है”, भूसे में हाथ डालते हुए
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने प्यार से कहा, “ हमारे जैसी नहीं. मान्या, ध्यान से,
तू उन्हें तोड़ देगी.”
“तुम तो, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, पगला गए
हो,” पत्नी ने जवाब दिया, “ कौनसा सोना भरा है इनमें. क्या मैंने कभी अण्डे देखे
नहीं हैं? ओय!...कितने बड़े-बड़े हैं!”
“विदेश,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने अण्डे
लकड़ी की मेज़ पर रखते हुए कहा, “क्या ये हमारे किसानों वाले अण्डे हैं...सब, शायद,
ब्रह्मपुत्रा के हैं, शैतान ले जाए! जर्मन...”
“सही बात है,” अण्डों की ओर प्यार से देखते हुए चौकीदार
ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा.
“बस, एक बात समझ नहीं पा रहा हूँ, कि ये इतने
गन्दे क्यों हैं,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने सोच में पड़ कर कहा. “मान्या, तुम ज़रा देखना. उन्हें और अण्डे बाहर
निकालने दो, और मैं फोन करके आता हूँ.”
और अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच आँगन से होकर
सोव्खोज़ के दफ़्तर में फोन करने गया.
शाम को प्राणि-विज्ञान संस्था की कैबिनेट
में टेलिफोन बजने लगा. प्रोफेसर पेर्सिकोव ने अपने बालों में ऊँगलियाँ फेरीं और
फोन की ओर आया.
“येस?” उसने पूछा.
“कस्बे से आपके लिए फोन है,” रिसीवर से
धीमी फुसफुसाहट में किसी जनानी आवाज़ ने कहा.
“ठीक है. सुन रहा हूँ,” कुछ हिकारत से पेर्सिकोव
ने टेलिफोन के काले मुँह में कहा... उसमें कुछ खट्-खट् हुई, और फिर दूर से आती हुई
मर्दानी आवाज़ ने उत्तेजना से कान में कहा:
“क्या अण्डे धोने हैं, प्रोफेसर?”
“क्या कहा? क्या? क्या पूछ रहे हैं?” प्रोफेसर
चिढ़ गया, “कहाँ से बोल रहे हैं?”
“निकोल्स्कोए से, स्मोलेन्स्क प्रांत से,”
रिसीवर ने जवाब दिया.
“कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. मैं किसी निकोल्स्कोए
को नहीं जानता. कौन बोल रहा है?”
“रोक्क,” रिसीवर ने संजीदगी से कहा.
“कौनसा रोक्क? आह, हाँ...ये आप हैं...तो, आप
क्या पूछ रहे थे?”
“क्या उन्हें धोना पड़ेगा?...मुझे विदेश से
मुर्गी के अण्डे भेजे गए हैं...”
“अच्छा?”
“...और वे किसी तरह की गन्दगी में लिपटे हैं...”
“आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है...उन पर ‘गन्दगी’
कैसे हो सकती है, जैसा कि आप कह रहे हैं? बेशक, हो सकता है, कि थोड़ा सा कचरा चिपक
गया हो...या कोई और चीज़...”
“तो धोने की ज़रूरत नहीं है?”
“बेशक, कोई ज़रूरत नहीं है... क्या आप चैम्बर्स
में अण्डे रखने भी लगे?”
“रख रहा हूँ. हाँ,” रिसीवर ने जवाब दिया.
“हुम्,” प्रोफेसर गुर्राया.
“ओके,” रिसीवर ने कहा और ख़ामोश हो गया.
“ठीक है,” बड़ी नफ़रत से प्रोफेसर ने प्राइवेट
सहायक-प्रोफेसर इवानोव की ओर देखते हुए दुहराया और पूछा, “आपको ये नमूना कैसे लगा,
प्योत्र स्तेपानोविच?”
इवानोव हँस पड़ा.
“ये ‘वो’ था? मैं कल्पना कर सकता हूँ कि वहाँ वो
इन अण्डों का क्या हाल करेगा.”
“हाँ...हाँ...हाँ...” पेर्सिकोव ने कटुतापूर्वक
कहना शुरू किया. “आप कल्पना कीजिए, प्योत्र स्तेपानोविच... ठीक है, बढ़िया
है...बहुत मुमकिन है, कि मुर्गियों के अण्डों के ड्यूटेरोप्लाज़्मा पर किरण का वैसा
ही प्रभाव हो जैसा कि मेंढ़कों के प्लाज़्मा पर होता है. काफ़ी मुमकिन है कि उसके
अण्डों से मुर्गियाँ निकल आएँगी. मगर न तो आप, न ही मैं बता सकते हैं कि वे
मुर्गियाँ कैसी होंगी...हो सकता है कि वे किसी भी काम की न हों. हो सकता है कि वे
दो दिनों में मर भी जाएँ. हो सकता है, कि उन्हें खाना नामुमकिन हो! और क्या मैं इस
बात की ग्यारंटी दे सकता हूँ कि वे अपने पैरों पर खड़ी भी हो पायेंगी या नहीं? हो
सकता कि उनकी हड्डियाँ भुरभुरी हों.” पेर्सिकोव तैश में आ गया, और अपनी हथेली
नचाने लगा, उँगलियाँ चटख़ाने लगा.
“बिल्कुल सही है,” इवानोव ने सहमति दर्शाई.
“क्या आप ग्यारंटी दे सकते हैं, प्योत्र
स्तेपानोविच कि उनमें प्रजनन क्षमता होगी? हो सकता है ये बांझ मुर्गियों की किस्म
हो. उन्हें कुत्ते जितना बड़ा कर लो और फिर अगली पीढ़ी का इंतज़ार प्रलय तक करते
रहो.”
“ग्यारंटी नहीं दे सकते,” इवानोव की भी यही राय
थी.
“और कैसी बेतकल्लुफ़ी,” पेर्सिकोव गुस्से में आ
गया, “कैसी स्मार्टनेस! और मुलाहिज़ा फ़रमाईये, मुझे इस कमीने को निर्देश देना हैं,”
पेर्सिकोव ने रोक्क द्वारा दिए गए कागज़ की ओर इशारा किया (वह प्रयोगों वाली मेज़ पर
पड़ा था)...और मैं कैसे उस बेवकूफ़ को निर्देश दूँगा, जबकि मैं ख़ुद ही इस बारे में
कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ.”
“क्या मना करना संभव नहीं था?” इवानोव ने पूछा.
पेर्सिकोव लाल हो
गया, उसने कागज़ उठाया और इवानोव को दिखाया. उसने उसे पढ़ा और व्यंग्य से मुस्कुरा
दिया.
“हुँ..हाँ,” उसने गहरे अंदाज़ में कहा.
“और, ज़रा मुलाहिज़ा फ़रमाईये...मैं अपने ऑर्डर का
दो महीने से इंतज़ार कर रहा हूँ, उसके बारे में कोई ख़बर ही नहीं है. मगर इसे फ़ौरन
अण्डे भी भेज दिए और हर तरह की मदद भी मिल गई...”
“उससे कुछ होने वाला नहीं है, व्लादीमिर इपातिच.
आख़िर में आपके चैम्बर्स आपको लौटाने पडेंगे. “
“बस, जल्दी से लौटा दें, वर्ना मेरे सारे प्रयोग
रुके पड़े हैं.”
“हाँ, ये बड़ी ख़राब बात है. मैंने सारी तैयरियाँ पूरी
कर ली हैं.”
“क्या आपको सुरक्षा-सूट मिल गए हैं?”
“हाँ, आज आ गए हैं”
पेर्सिकोव कुछ शांत हुआ और उसकी आँखों में
कुछ चमक आ गई.
“हुँ...मेरा ख़याल है कि हम ऐसा करेंगे.
प्रयोगशाला के दरवाज़े कस के बन्द कर देंगे और खिड़की हम खोल देंगे...”
“बेशक,” इवानोव ने सहमति दर्शाई.
“तीन हेल्मेट्स हैं?”
“तीन. हाँ.”
“तो, ऐसा करेंगे...आप तो हैं ही, मैं और
विद्यार्थियों में से किसी एक को बुलाया जा सकता है. उसे तीसरा हेल्मेट दे देंगे.”
“ग्रीनमुत को बुला सकते हैं.”
“ये वो तो नहीं, जो आपके साथ सैलामैंडर्स पर काम
कर रहा है? हुम्...वो ठीक है...मगर, ग़ौर फ़रमाईये, बसंत की परीक्षा में वह ये नहीं
बता पाया था कि प्स्युडोटाइफ्लोप्स के एयर-ब्लैडर की संरचना कैसी होती है,” पेर्सिकोव
ने कड़वाहट से आगे कहा.
“नहीं, वह ठीक ही है, वह अच्छा स्टूडेंट है,”
इवानोव ने उसकी तरफ़दारी करते हुए कहा.
“एक रात बिना नींद के गुज़ारनी पड़ेगी,” पेर्सिकोव
कहता रहा, “बस, एक बात है, प्योत्र स्तेपानोविच, आप गैस चेक कर लेना, वर्ना शैतान
जाने, उनके ये वालंटीयर-केमिस्ट कैसे हैं. न जाने क्या भेज दें.”
“नहीं, नहीं,” और इवानोव ने हाथ हिलाते हुए कहा,
“मैंने कल ही ट्रायल ले लिया था. उनकी तारीफ़ करनी पड़ेगी, व्लादीमिर इपातिच,
बेहतरीन किस्म की गैस है.”
“आपने किस पर ट्रायल लिया था?”
“साधारण मेंढकों पर. जैसे ही गैस की फ़ुहार छोड़ते
हो – फ़ौरन मर जाते हैं. हाँ, व्लादीमिर इपातिच, हम एक काम और कर सकते हैं. आप
गेपेऊ को लिखिए कि आपको इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर भेजा जाए.”
“मगर मुझे तो उसका इस्तेमाल करना आता ही नहीं
है...”
“ये आप मुझ पर छोड़ दीजिए,” इवानोव ने जवाब दिया,
“हमने क्ल्याज़्मा में उससे फ़ायर किए थे, बस, यूँ ही मज़ाक में...वहाँ मेरी बगल में
एक गेपेऊ वाला रहता था...बढ़िया चीज़ है. एकदम बेहतरीन...सौ क़दम की दूरी से बिना
आवाज़ के मार गिराती है. हमने कौओं पर चलाई थी...मेरे ख़याल में तो गैस की भी ज़रूरत
नहीं है.”
“हुम्...ये ब्रिलियंट आइडिया है...बेहद...”
पेर्सिकोव कोने में गया, रिसीवर उठाया और चहका...
“मुझे वो दीजिए...क्या कहते
हैं...लुब्यान्का...”
****
दिन बेहद गर्म थे. खेतों के ऊपर घनी,
पारदर्शक गर्मी वातावरण में घुलती हुई साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी. मगर रातें ग़ज़ब की
थीं, छलावे जैसी, हरी-हरी. चान्द चमक रहा था और शेरेमेत्येवों की भूतपूर्व जागीर
पर ऐसी ख़ूबसूरती बिखेर रहा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता. महल-सोव्खोज़ ऐसे
चमक रहा था, मानो शक्कर का हो, परछाईयाँ थरथरा रही थीं, और पोखर मानो दो रंगों में
बँट गए हों – एक तिरछा चाँद का स्तम्भ और दूसरा आधा अंतहीन अंधेरा. चांद के प्रकाश
में आसानी से ‘इज़्वेस्तिया’ पढ़ा जा सकता था, शतरंज वाले स्तम्भ को छोड़कर, जो बहुत
छोटी लिखाई में था. मगर ऐसी रातों में, ज़ाहिर है, कोई भी ‘इज़्वेस्तिया’ नहीं
पढ़ता...दून्या, सफ़ाई करने वाली, सोव्खोज़ के पीछे वाली बगिया में थी, और, संयोगवश,
सोव्खोज़ के ख़स्ताहाल ट्रक का लाल मूंछों वाला ड्राइवर भी वहीं पर था. वे वहाँ क्या
कर रहे थे – पता नहीं. वे एल्म की अस्थिर छाया में, सीधे ड्राइवर के बिछाए गए चमड़े
के कोट पर दुबके बैठे थे. किचन में लैम्प जल रहा था, वहाँ दो माली खाना खा रहे थे,
और मैडम रोक्क, सफ़ेद गाऊन में, स्तम्भों वाले बरामदे में बैठी, ख़ूबसूरत चाँद की ओर
देखते हुए सपने देख रही थी.
रात के दस बजे, जब सोव्खोज़ के पीछे वाले कोन्त्सोव्का गाँव में सारी आवाज़ें शांत हो गईं, तो यह अप्रतिम वातावरण बन्सी की
शानदार, नाज़ुक स्वरलहरियों से भर गया. वे बागों के और शेरेमेत्येवों के महल के
भूतपूर्व स्तम्भों के ऊपर कितनी भली प्रतीत हो रही थीं, इसका बखान करने से कोई लाभ
नहीं है. ‘ हुक्म की बेगम’ की नाज़ुक लीज़ा जोशीली पोलिना के साथ अपनी आवाज़ मिलाकर
चाँद की ऊँचाई तक यूँ ले जा रही थी, मानो प्राचीन, मगर फिर भी सदा प्यारे, आँसुओं
की हद तक सम्मोहित करने वाले जीवन की छवि हो.
बुझते हैं...बुझते
हैं...
आहें भरते हुए, बन्सी स्वर-लहरियाँ बिखेर
रही थी.
बगिया मानो जम गई, और दून्या, वन-देवी
जैसी लचीली, ड्राइवर के खुरदुरे, लाल, सोमर्दाने गाल पर अपना गाल टिकाए सुन रही
थी.
“ये, कम्बख़्त, बन्सी अच्छी बजाता है,” दून्या की
कमर में अपना मर्दाना हाथ डालते हुए ड्राइवर ने कहा.
बन्सी ख़ुद सोव्खोज़ का डाइरेक्टर
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच रोक्क बजा रहा था, और मानना पड़ेगा कि बेहद अच्छी बजा रहा
था. बात ये थी कि बन्सी ही अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की विशेषता थी. सन् 1917 तक
वह निर्देशक पेतूखोव के प्रसिद्ध कॉन्सर्ट ग्रुप में काम करता था, जो ओडेसा के ‘जादुई
सपने’ नामक सिनेमा के प्रवेश-हॉल में हर शाम अपनी स्वर लहरियाँ बिखेरता था. मगर
अनेक लोगों के कैरियर को चौपट करने वाला महान सन् 1917 अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच
को भी नई राहों पर ले चला. उसने ‘जादुई सपने’ और प्रवेश-हॉल का धूल भरा सितारों
जड़ा सैटिन छोड़ दिया और युद्ध एवम् क्रांति के समन्दर में कूद पड़ा, बन्सी के बदले
मौत बिखेरने वाले रिवॉल्वर को अपना लिया. लहरों के थपेड़ो ने उसे कई बार उछालकर ला
पटका कभी क्रीमिया में, कभी मॉस्को में, तो कभी तुर्किस्तान में, यहाँ तक कि
व्लादीवोस्तोक में भी. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की सम्पूर्ण योग्यता को प्रकट
होने के लिए, कि ये आदमी वाक़ई में महान है, और, बेशक, ‘सपनों’ का प्रवेश-हॉल इसके
लिए नहीं है, क्रांति की ही ज़रूरत थी. ज़्यादा विस्तार में न जाते हुए ये कहेंगे कि
सन् 1927 के अंत और सन् 1928 के आरंभ में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने अपने आप को
तुर्किस्तान में पाया, जहाँ पहले, वह एक बड़े राजनैतिक-साहित्यिक अख़बार का संपादन
करता था, और इसके बाद सर्वोच्च आर्थिक कमिशन के स्थानीय सदस्य के रूप में
तुर्किस्तान में सिंचाई से संबंधित अपने आश्चर्यजनक कामों के कारण प्रसिद्ध हो
गया. सन् 1928 में रोक्क मॉस्को आया और उसे थोड़ी छुट्टी मिली, जिसका वह वाक़ई में
हक़दार था. उस संस्था की सर्वोच्च कमिटी ने जिसका पहचान-पत्र बड़े सम्मान से यह
पुराने फ़ैशन का प्रांतीय व्यक्ति लिये-लिये घूमता था, उसकी योग्यता को पहचाना और
उसे एक सुकूनभरी और सम्माननीय ज़िम्मेदारी सौंप दी. हाय! हाय! रिपब्लिक की
बदकिस्मती से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच का खदखदाता दिमाग़ शांत नहीं हुआ, मॉस्को
में रोक्क का सामना पेर्सिकोव के आविष्कार से हो गया, और त्वेर्स्काया वाले 'लाल
पैरिस’ हॉटेल के कमरे में अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के दिमाग में इस ख़याल ने जन्म
लिया कि पेर्सिकोव की किरण की सहायता से एक महीने के भीतर रिपब्लिक में
मुर्गी-पालन को पुनर्जीवित किया जाए. क्रेमलिन ने अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की बात
सुनी, क्रेमलिन उसकी बात से सहमत हो गया और रोक्क सनकी प्राणी-वैज्ञानिक के पास
पक्का ऑर्डर लेकर आ गया.
शीशे जैसे पारदर्शी जल, क्यारियों और
पार्क पर झूमता हुआ यह संगीत अंत की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने
उसे बीच ही में रोक दिया. ख़ास तौर से कोन्त्सोव्का में कुत्ते, जिन्हें अब तक सो जाना चहिए था, अचानक बेतहाशा भौंकने लगे,
जो क्रमशः एक सामूहिक दर्दभरे रुदन में परिवर्तित हो गया. यह रुदन बड़ा होते-होते
खेतों पर तैर गया, और रुदन का जवाब पोखरों के मेंढकों की लाखों आवाज़ों ने अपनी
टर्राहट वाले संगीत से दिया. यह सब इतना डरावना था कि एक पल को ऐसा लगा जैसे
रहस्यमयी जादुई रात बुझ गई है.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने बन्सी रख दी
और बाहर बरामदे में आया.
“मान्या. तुम सुन रही हो? ये नासपीटे
कुत्ते...क्या सोचती हो, ये, ऐसे पगला क्यों रहे हैं?”
“मुझे कहाँ से मालूम?” मान्या ने चाँद की ओर
देखते हुए जवाब दिया.
“चलो, मानेच्का, चलकर अण्डों को देखते हैं,”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने कहा.
“ऐ ख़ुदा, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच, तुम अपने
अण्डों और मुर्गियों के कारण एकदम पागल हो गए हो. थोड़ा आराम कर लो!”
“नहीं, मानेच्का, चल, जाएँगे.”
ग्रीन-हाऊस
में प्रखर रोशनी का बल्ब जल रहा था. तमतमाया हुआ चेहरा और चमकती आँखें लिए दून्या
भी आई. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने प्यार से निरीक्षण करने वाली खिड़की को खोला,
और सब चैम्बर्स के भीतर देखने लगे. सफ़ेद ऐस्बेस्टस के फर्श पर सही-सही क़तारों में
करीने से रखे थे धब्बों वाले चमकीले- लाल अण्डे, चैम्बर्स में निपट ख़ामोशी थी...और
ऊपर का 15,000 वाट वाला बल्ब हौले हौले सन्-सन् कर रहा था...
“ऐह, निकालूँगा मैं चूज़ों को!” जोश में
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने कभी किनारे से, निरीक्षण के लिए बनी झिरियों से, कभी
ऊपर से, वेंटीलेटर वाले बड़े-बड़े छेदों से, झाँकते हुए कहा, “देख ही लेना...क्या?
नहीं निकालूँगा?”
“आपको मालूम है, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,”
दून्या ने मुस्कुराते हुए कहा, “कोन्त्सोव्का के किसान कह रहे थे कि आप
एन्टीक्राईस्ट हैं. कहते हैं कि आपके अण्डे शैतानी हैं. मशीनों से चूज़े पैदा करना
गुनाह है. आपको ख़त्म करने की सोच रहे थे.”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच काँप गया और
बीबी की ओर मुड़ा. उसका चेहरा पीला पड़ गया था.
“ख़ैर, क्या कह सकते हैं? लोग हैं! ऐसे लोगों के
साथ आप कर भी क्या सकते हो? हँ? मानेच्का, उनकी एक मीटिंग बुलानी पड़ेगी...कल फोन
करके जिले से पार्टी-वर्कर्स को बुलाऊँगा. मैं ख़ुद भी भाषण दे दूँगा. यहाँ, थोड़ा
काम करना ही पड़ेगा...वर्ना तो, ये कैसा भालुओं जैसा उजाड़ कोना है...”
“अज्ञान का अंधकार,” ग्रीन-हाऊस के दरवाज़े
के पास अपने ओवरकोट पर बैठा गार्ड बुदबुदाया.
अगले दिन की शुरूआत ही अत्यंत विचित्र और
अनाकलनीय घटनाओं से हुई. सुबह, सूरज की पहली किरण के साथ ही बगिया, जो अक्सर
सूरज का स्वागत पक्षियों की निरंतर चहचहाहट से करतीं थीं, उससे पूरी निःशब्दता से मिलीं.
इस बात को सभी ने महसूस किया. ये, जैसे तूफ़ान से पहले की शांति थी. मगर किसी भी
तूफ़ान का कोई नामोनिशान नहीं था. सोव्खोज़ में कुछ अजीब तरह की और अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच के लिए दुहरे अर्थ की बातें हो रही थीं, और ख़ास तौर से इसलिए भी कि
कोन्त्सोव्का के उपद्रवी एवम् विद्वान, जिसे ‘बकरे की दाढ़ी’ के नाम से जाना जाता था,
के अनुसार अगर सारे पंछी झुण्ड बनाकर सुबह होते ही शेरेमेत्योव से कहीं दूर, उत्तर
की ओर, चले गए हैं, तो ये बड़ी बेवकूफ़ी भरी बात है. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच बेहद
परेशान हो गया और उसने पूरा दिन फ़ोन पर ग्राचेव में कमिटी से बात करने की कोशिश
में बिता दिया. वहाँ से अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच से वादा किया गया कि क़रीब दो दिन
बाद दो विषयों पर बोलने के लिए वक्ता भेजेंगे – अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति और ‘वालंटीयर मुर्गियों’ के प्रश्न पर.
शाम को भी अजीब-अजीब घटनाएँ होती रहीं.
अगर सुबह बगीचे ख़ामोश हो गए थे, पूरी शिद्दत से यह साबित करते हुए कि पेड़ों के बीच
की ख़ामोशी कैसी संदेहास्पद रूप से अप्रिय होती है; अगर दोपहर को सोव्खोज़ के
कम्पाऊण्ड से चिड़ियों के झुण्ड कहीं उड़ गए थे; तो शाम को शेरेमेत्योव्का का तालाब
भी ख़ामोश हो गया. ये वाक़ई में चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि चालीस मील के दायरे
में स्थित बस्तियों में रहने वाले सभी को शेरेम्त्योव के मेंढ़कों की टर्राहट
चिर-परिचित थी. मगर, अब मानो वे मर गए हों. तालाब से एक भी आवाज़ नहीं आ रही थी, और
घास के पौधे भी गुमसुम खड़े थे. मानना पड़ेगा कि अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच पूरी तरह
बेचैन हो गया था. इन घटनाओं के बारे में लोग अत्यंत अप्रिय तरीक़े से बहस करते रहे,
करते रहे – मतलब अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की पीठ के पीछे.
“वाक़ई में ये अचरज की बात है,” दोपहर के खाने पर
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने पत्नी से कहा, “मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इन
पंछियों को उड़ कर जाने की ज़रूरत क्या थी?”
“मुझे कैसे मालूम?” मान्या ने जवाब दिया. “हो
सकता है, तुम्हारी किरण की वजह से?”
“तू भी ना मान्या, बिल्कुल बेवकूफ़ है,”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने चम्मच फेंकते हुए जवाब दिया, “तू – किसानों जैसे ही
कह रही है. यहाँ किरण कहाँ से आ गई?”
“मुझे नहीं मालूम. मुझे तो तुम बख़्श ही दो.”
शाम को तीसरी आश्चर्यजनक घटना हुई –
कोन्त्सोव्का में फिर से कुत्ते रोने लगे, और वो भी कैसे! चाँद से प्रकाशित खेतों
पर निरंतर कराहें गूंजती रही, दुष्ट दयनीय कराहें.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच को एक आश्चर्य
का झटका और लगा, मगर यह सुखद था, और वह भी ग्रीन-हाऊस में. चैम्बर्स में लाल
अण्डों में लगातार खट्-खट् होने लगी. टोकी...टोकी...टोकी...टोकी – कभी एक अण्डे
में, तो कभी दूसरे में और कभी तीसरे में खटखटाहट होती.
अण्डों में हो रही खटखट अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच की जीत की दस्तक थी. बगीचे में और तालाब में हुई अजीब घटनाओं के बारे
में सब भूल गए. सभी ग्रीन-हाऊस में इकट्ठे हो गए : मान्या, और दून्या, और गार्ड,
और चौकीदार जिसने संगीन को दरवाज़े के पास छोड़ दिया था.
“तो, फिर? क्या कहते हैं?” विजयी मुद्रा से
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने पूछा. सभी उत्सुकता से पहले चैम्बर के दरवाज़े से कान
लगाए खड़े थे. “ये वे अपनी चोचों से खड़खड़ा
रहे हैं – चूज़े,” दमकते हुए अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच कहता रहा. “नहीं निकाल
पाऊँगा चूज़े, कहेंगे? नहीं, मेरे प्यारों,” और असीम भावावेग में उसने चौकीदार की
पीठ थपथपाई. “ऐसे चूज़े निकालूँगा, कि आप लोग आहें भरने लगेंगे. अब मुझे बहुत
सावधान रहना होगा,” उसने कड़ाई से कहा, “जैसे ही बाहर निकलने लगें, फ़ौरन मुझे ख़बर
करो.”
“ठीक है,” एक कोरस में गार्ड ने, दून्या ने और
चौकीदार ने जवाब दिया.
‘टकी...टकी...टकी...’ पहले चैम्बर के कभी एक, तो
कभी दूसरे अण्डे में खड़खड़ाहट हो रही थी. वाक़ई, आँखों के सामने पतली खोल से जन्म
लेते हुए नए जीवन की तस्वीर इतनी आकर्षक थी कि सारे लोग काफ़ी देर तक उलटे रखे खाली
डिब्बों पर बैठे रहे, ये देखते हुए कि उस झिलमिलाते रहस्यमय प्रकाश में लाल अण्डे
कैसे पक रहे हैं. देर रात गए सब लोग सोने चले गए, जब सोव्खोज़ और आसपास की बस्तियों
पर हरी रात बिखर चुकी थी. वह रहस्यमय थी, और,
कह सकते हैं, कि भयानक भी, शायद इसलिए कि उसकी निपट ख़ामोशी को बीच-बीच में शुरू हो
जाता कोन्त्सोव्का के कुत्तों का अकारण, दयनीय और टीस भरा रुदन भंग कर रहा था. ये
नासपीटे कुत्ते क्यों पागल हो रहे थे – बिल्कुल पता नहीं.
सुबह-सुबह एक अप्रियता अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच के सामने मुँह बाँए खड़ी थी. चौकीदार बेहद परेशान था, दिल पर हाथ रखकर
क़सम खा रहा था, ख़ुदा का वास्ता दे रहा था कि वह सोया नहीं था, मगर उसने कुछ नहीं
देखा.
“समझ में न आने वाली बात है,” चौकीदार यक़ीन दिला
रहा था, “मेरा इसमें कोई क़ुसूर नहीं है, कॉम्रेड रोक्क.”
“धन्यवाद और तहे दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ,”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उस पर बरसते हुए कहा, “आप सोचते क्या हैं, कॉम्रेड?
आपको यहाँ किसलिए रखा गया था? निगरानी रखने के लिए. तो, आप मुझे बताएँगे कि वे
कहाँ गुम हो गए? आख़िर बाहर तो निकले थे न वो? मतलब, चुरा लिया. मतलब, हमने दरवाज़ा
खुला छोड़ दिया और ख़ुद घर चले गए. मुझे अभ्भी चूज़े चाहिए!”
“मैं कहीं नहीं गया. मैं, क्या, अपना काम नहीं
जानता,” आख़िर फ़ौजी को गुस्सा आ ही गया, “आप बेकार में मुझे क्यों डाँट रहे हैं,
कॉम्रेड रोक्क?”
“फिर वो गए कहाँ?”
“मुझे कैसे मालूम,” फ़ौजी भी आख़िरकार तैश में आ
गया, “मैं क्या उन पर पहरा दूँ? मुझे यहाँ क्यों रखा गया है? ये देखने के लिए कि
कोई चैम्बर्स को उठाकर न ले जाए, अपनी ड्यूटी मैं कर रहा हूँ. ये रहे आपके
चैम्बर्स. और आपके चूज़ों को पकड़ना क़ानूनन मेरा काम नहीं है. किसे मालूम कि आपके
चूज़े कैसे निकलते हैं, हो सकता है, कि उन्हें साईकल पे भी पकड़ना मुश्किल हो!”
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच थोड़ा स्तब्ध रह
गया, वह कुछ और बुदबुदाया और आश्चर्य की स्थिति में आ गया. बात थी ही विचित्र.
पहले चैम्बर में, जिसमें सबसे पहले उपकरण फिट किए गए थे, दो अण्डे, जो किरण के
उद्गम के पास रखे थे, टूटे हुए पाए गए. और उनमें से एक तो एक किनारे को लुढ़क गया
था. छिलका एस्बेस्टोस के फर्श पर पड़ा था.
“शैतान ही जाने,” अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच
बड़बड़ाया, “खिड़कियाँ बन्द हैं, वे छत से तो उड़ नहीं गये हैं!”
उसने सिर को झटका दिया और उस ओर देखा जहाँ
छत पर लगे काँच में कुछ चौड़े-चौड़े छेद थे.
“क्या, आप भी, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,” बड़े
अचरज से दून्या ने कहा, “आपके चूज़े तो उड़ने भी लगे. वे यहीं कहीं
हैं...त्सिप्...त्सिप्...” वह चिल्लाने लगी और ग्रीन हाऊस के कोनों में देखने लगी,
जहाँ धूल भरे फ्लॉवर-पॉट्स, कुछ लकड़ी के बोर्ड और पुराना रद्दी सामान पड़ा था. मगर
किसी भी चूज़े ने प्रत्युत्तर नहीं दिया.
इन फुर्तीले चूज़ों की खोज में कर्मचारियों
की पूरी टीम क़रीब दो घंटे सोव्खोज़ के कम्पाउण्ड में भागती रही, और कहीं भी कुछ
नहीं मिला. दिन बड़ी उत्तेजना में बीता. चैम्बर्स की सुरक्षा बढ़ा दी गई, अब चौकीदार
भी साथ में पहरा दे रहा था, और उन्हें कड़ी हिदायत दी गई थी: हर पन्द्रह मिनट बाद
चैम्बर्स की खिड़कियों में झाँका जाए और, कोई बात हो, तो फ़ौरन अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच को बुलाया जाए. गार्ड घुटनों के बीच संगीन दबाए, मुँह चढ़ाकर, दरवाज़े
के पास बैठा था. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच पूरी तरह व्यस्त था और तब कहीं जाकर दो
बजे वह खाना खाने बैठा. खाने के बाद ठण्डी छाँव में शेरेमेत्योवों की भूतपूर्व
गद्देदार लम्बी चौकी पर वह क़रीब घंटा भर सोया, फिर सोव्खोज़ में बनाया गया क्वास
पीकर ग्रीन हाऊस गया और उसने इत्मीनान कर लिया कि अब वहाँ सब कुछ बिल्कुल ठीक ठाक
है. बूढ़ा गार्ड फूस की चटाई पर पेट के बल लेटकर आँखें मिचकाते हुए पहले चैम्बर के निरीक्षण
काँच से भीतर देख रहा था. गार्ड दरवाज़े से बिना हटे नज़र रख रहा था.
मगर कुछ तो हो रहा था : तीसरे चैम्बर के
अण्डे, जिन्हें सबसे बाद में रखा गया था, जैसे सिसकारियों ले रहे थे, फुफकार रहे
थे, मानो उनके भीतर कोई सिसकियाँ ले रहा हो.
“ऊह, चूज़े निकलने वाले हैं,” अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच ने कहा, “अब देख रहा हूँ कि वे तैयार हो रहे हैं. देखा?” वह गार्ड से
मुख़ातिब हुआ...
“हाँ, बड़ा लाजवाब काम है,” उसने सिर
हिलाते हुए और पूरी तरह दुहरा अर्थ दर्शाते लहज़े में कहा.
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच थोड़ी देर
चैम्बर्स के पास बैठा रहा, मगर उसके सामने अण्डे से कोई भी बाहर नहीं निकला. वह उठ
गया, थोड़ा अलसाते हुए बोला कि वह सोव्खोज़ से दूर नहीं जा रहा है, सिर्फ तालाब तक तैरने
के लिए जाएगा और ज़रूरत पड़ने पर उसे फ़ौरन बुलाया जाए. वह महल के भीतर अपने शयन कक्ष
में भागा, जहाँ दो संकरे लोहे के पलंग पड़े थे, जिन पर मुड़ी-तुड़ी चादरें थीं, और
कोने में हरे सेबों का ढेर लगा था और था बाजरे का छोटा सा पहाड़, नवजात चूज़ों को
खिलाने के लिए, उसने रोंएदार तौलिया उठाया, और कुछ सोचकर, अपने साथ बन्सी भी ले
ली, जिससे ख़ामोश पानी पर फुर्सत से बजा सके. वह फुर्ती से महल से बाहर भागा,
सोव्खोज़ का आँगन पार किया, और विलो वृक्षों के गलियारे से होते हुए तालाब की ओर चल
पड़ा. रोक्क तेज़-तेज़ चल रहा था, तौलिए को हिलाते हुए, बगल में बन्सी दबाए. विलो
वृक्षों से छनकर आसमान ऊमस फैला रहा था, जिस्म टूट रहा था और पानी मांग रहा था.
रोक्क के दाएँ हाथ पर चौड़ी-चौड़ी पत्तियों वाली घनी झाड़ियाँ थीं, जिनमें उसने,
जाते-जाते, थूका. फ़ौरन चौड़े पंजों की उलझी हुई गहराई में कुछ सरसराहट हुई, जैसे
कोई लकड़ी के लट्ठे को खींच रहा हो. पल भर को लगा जैसे अचानक दिल डूब रहा है,
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने झाड़ियों की ओर सिर घुमाया और अचरज से देखा. तालाब से
पिछले दो दिनों से किसी तरह की आवाज़ें नहीं आ रही थीं. सरसराहट रुक गई, झाड़ियों के
ऊपर से तालाब के जल की चिकनी सतह और कपड़े बदलने वाली झोंपड़ी की भूरी छत आकर्षित
करते हुए कौंध गई. कुछ जंगली मक्खियाँ अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के सामने चक्कर
लगा रही थीं. वह लकड़ी के छोटे-से पुल की तरफ़ मुड़ने ही वाला था कि झाड़ियों में
दुबारा सरसराहट सुनाई दी और इस बार उसके साथ छोटी सी फुफकार भी थी, जैसे इंजिन से
तेल और भाप निकल रही हो. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच सतर्क हो गया और जंगली झाड़ियों
की घनी दीवार की ओर देखने लगा.
“अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच,” इसी समय रोक्क की
पत्नी की आवाज़ गूंजी, और रास्पबेरी की झाड़ियों में उसका सफ़ेद ब्लाउज़ कभी झलक जाता,
कभी छुप जाता. “रुको, मैं भी तैरने के लिए जाऊँगी.”
पत्नी तेज़ी से तालाब की ओर आ रही थी, मगर
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, जैसे झाड़ियों से चिपक गया
था. भूरा-ज़ैतूनी लट्ठा उसकी आँखों के सामने उस घने झुरमुट से ऊपर उठने लगा और
देखते-देखते बढ़ने लगा. कुछ गीले, पीले-पीले धब्बे, जैसा कि अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच
को प्रतीत हुआ, उस लट्ठे पर बिखरे थे. वह तनकर सीधा होने लगा, लचकते हुए और डोलते
हुए, और इतनी ऊँचाई तक तन गया कि एक छोटे विलो-वृक्ष से ऊँचा हो गया. फिर लट्ठे का शीर्ष टूट गया, थोड़ा झुका और
अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच के ऊपर मॉस्को के बिजली के खम्भे जैसी कोई चीज़ आ गई.
मगर, ये ‘कोई चीज़’ बिजली के खम्भे से तीन गुना मोटी थी और उसके मुक़ाबले काफ़ी
ख़ूबसूरत भी थी, छिलकों जैसे गोदने की वजह से. अभी तक कुछ भी न समझ पाते हुए, मगर
ठण्ड़े पड़ते हुए, अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच ने उस भयानक खम्भे के शिखर की ओर देखा,
और कुछ पलों के लिए उसके दिल की धड़कन रुक गई. उसे ऐसा लगा कि अगस्त के गर्म दिन
में अचानक बर्फ़बारी हो गई हो, और आँखों के आगे ऐसा अँधेरा छा गया, मानो वह
गर्मियों वाली पतलून से होकर सूरज को देख रहा हो.
लट्ठे के ऊपरी सिरे पर सिर था. वो चपटा
था, ज़ैतूनी पार्श्वभूमि पर एक गोल पीले धब्बे की सजावट ने उसे नुकीला बना दिया था.
सिर की छत पर पलक-रहित, खुली, सर्द और मिचमिची आँखें बैठी थीं, और इन आँखों में
ऐसी दुष्टता थी, जैसी अब तक कभी देखी नहीं थी. सिर इस तरह घूम रहा था, मानो हवा को
काट रहा हो, पूरा खम्भा झाड़ियों में वापस चला गया, बस सिर्फ आँखें रह गईं जो बिना
झपके अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच की ओर देख रही थीं. वो, चिपचिपे पसीने से लथपथ,
एकदम अविश्वसनीय और पागलपन की हद तक ले जाने वाले भय के कारण उत्पन्न बस चार शब्द
बोल पाया. ऐसी बढ़िया थी पत्तों के बीच से झाँकती ये आँखें.
“ये क्या मज़ाक है...”
उसे याद आया कि
फ़कीर...हाँ...हाँ...इण्डिया...बुनी हुई टोकरी और तस्वीर...सम्मोहित करते हैं.
सिर फिर से उठा और अब उसका धड़ भी बाहर आने
लगा. अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच बन्सी को अपने होठों पर ले गया, भर्राहट से फूँक
मारी और बजाने लगा, हर पल गहरी साँस लेते हुए वह ‘येव्गेनी ओनेगिन’ से वाल्ट्ज़
बजाने लगा. इस ऑपेरा के प्रति असीम नफ़रत से हरियाली वाली आँखें फ़ौरन जलने लगीं.
“तुम क्या, पगला गए हो, ऐसी गर्मी में बजाने के
लिए?” मान्या की प्रसन्न आवाज़ सुनाई दी, और आँखों के कोने से अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच ने सफ़ेद धब्बा देखा.
इसके बाद खून जमा देने वाली एक चीख़ पूरे
सोव्ख़ोज़ को चीरती चली गई, वह ऊँची हो गई और फैल गई, और वाल्ट्ज़ ऐसे उछला जैसे टूटे
पैर से उछल रहा हो. हरियाली से सिर बाहर झपटा, उसकी आँखों ने अलेक्सान्द्र
सिम्योनोविच की आत्मा को अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए छोड़ दिया. क़रीब
पन्द्रह हाथ लम्बा और एक आदमी जितना चौड़ा साँप किसी स्प्रिंग की तरह उछल कर
झाड़ियों से बाहर आया. रास्ते से धूल का बादल उछला, और वाल्ट्ज़ बन्द हो गया. साँप
सोव्खोज़ के डाइरेक्टर के सामने से होकर तेज़ी से उस तरफ़ लपका, जहाँ रास्ते पर सफ़ेद
ब्लाउज़ था. रोक्क ने साफ़-साफ़ देखा: मान्या पीली-सफ़ेद हो गई और उसके लम्बे बाल,
तारों जैसे सिर के ऊपर आधा हाथ उठ गए. साँप ने रोक्क की आँखों के सामने, एक पल को
अपना जबड़ा खोलकर, जिससे फोर्क जैसी कोई चीज़ बाहर लपलपाई, दाँतों से धूल में गड़ी जा
रही मान्या को कन्धे से उठा लिया, और झटके से ज़मीन से एक हाथ ऊपर उठा दिया. तब
मान्या ने मृत्युपूर्व की कर्कश चीख़ दुहराई. साँप ने पाँच हाथ ऊँची कुंडली बना ली,
उसकी पूँछ टॉर्नेडो बना रही थी, और वह मान्या को दबाने लगा. उसके मुँह से फिर कोई
आवाज़ नहीं निकली, और सिर्फ रोक्क ने उसकी हड्डियाँ टूटने की आवाज़ सुनी. ज़मीन से
काफ़ी ऊपर साँप के गाल पर प्यार से चिपका हुआ मान्या का सिर हिल रहा था. मान्या के
मुँह से ख़ून का फ़व्वारा निकला, टूटा हुआ हाथ उछला, और नाखूनों के नीचे से ख़ून के
फ़व्वारे निकलने लगे. इसके बाद साँप ने अपना जबड़ा खोला, और एकदम मान्या के सिर पर अपना
सिर पहना दिया और उस पर ऐसे चढ़ने लगा जैसे ऊँगली पर हाथमोज़ा चढ़ रहा हो. साँप से
चारों ओर ऐसी गरम-गरम साँस निकल रही थी कि उसने रोक्क के चेहरे को भी छू लिया, और
पूँछ ने उसे क़रीब-क़रीब रास्ते से दूर धूल में फेंक ही दिया. रोक्क के बाल वहीं पर
सफ़ेद हो गए. जूतों जैसे काले उसके बालों का पहले दाँया और फिर बायाँ भाग चांदी से
ढँक गया. मृत्यु जैसी उबकाई से वह आख़िरकार रास्ते से दूर हुआ और किसी भी ओर न
देखते हुए, जंगली चीत्कार से आसपास के वातावरण को भरते हुए, तीर की तरह भागा.
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