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रविवार, 26 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 11


अध्याय 11
युद्ध और मृत्यु

मॉस्को में बिजली की वहशी रात दहक रही थी. सारी बत्तियाँ जल रही थीं और फ्लैट्स में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ बिना लैम्प शेड्स के लैम्प न जल रहे हों. मॉस्को के एक भी फ्लैट में, जिसकी आबादी 4 मिलियन थी, एक भी आदमी नहीं सोया था, सिवाय नासमझ बच्चों के. फ्लैट्स में, जो भी मिलता वही खा-पी रहे थे, फ्लैट्स में कोई चीख-पुकार होती, और हर पल, हर मंज़िल से भय से विकृत चेहरे आसमान में नज़रें लगाए खिड़कियों से झाँकते, जिसे सभी दिशाओं से प्रोजेक्टर्स की प्रखर रोशनी चीर रही थी. आसमान में रह रहकर सफ़ेद आग भभक उठती, जो लुप्त होने से पहले मॉस्को पर धुंधले शंकु बना देते. आकाश कम ऊँचाई पर उड़ते हुए हवाई जहाज़ों की घरघराहट से लगातार गूंज रहा था. त्वेर्स्काया-याम्स्काया मार्ग पर विशेष रूप से भय का माहौल था. अलेक्सान्द्रोव्स्की स्टेशन पर हर दस मिनट में एक रेलगाड़ी आती - मालगाड़ी, या विभिन्न दर्जों की पैसेंजर गाड़ी, और टैंक्स से लदी हुई गाड़ी भी आती, और भय से पगला गए लोग उनसे चिपक जाते, त्वेर्स्काया-याम्स्काया पर भारी भीड़ भागे जा रही थी, लोग बसों में जा रहे थे, ट्रामगाड़ियों की छतों पर जा रहे थे, एक दूसरे को धक्का दे रहे थे और पहियों के नीचे आ रहे थे. स्टेशन पर रह रहकर भीड़ के ऊपर से गोलियों की कड़कड़ाहट सुनाई पड़ जाती, ये सेना की टुकड़ियाँ थीं, जो, रेल की पटरियों पर स्मोलेन्स्क प्रांत से मॉस्को दौड़े चले आ रहे, पागल हो चुके लोगों के भय को रोकने की कोशिश कर रही थीं. स्टेशन पर बार-बार हल्की सी वहशी चीख़ के साथ खिड़कियों के शीशे उड़ रहे थे और सारे इंजिन विलाप कर रहे थे. सभी सड़कें फेंके और कुचले गए पोस्टरों से अटी पड़ी थीं, और ये ही पोस्टर्स रेफ्लेक्टर्स की तेज़ लाल रोशनी में दीवारों से झाँक रहे थे. अब वे सभी को अच्छी तरह मालूम हो चुके थे, और कोई भी उन्हें नहीं पढ़ रहा था. उनमें मॉस्को में युद्ध की स्थिति घोषित कर दी गई थी. उनमें दहशत फ़ैलाने के लिए लोगों को धमकाया गया था और यह सूचित किया गया था कि स्मोलेन्स्क प्रांत में एक के बाद एक ज़हरीली गैस से लैस लाल-फ़ौज की टुकड़ियाँ जा रही हैं. मगर ये पोस्टर्स विलाप करती रात को नहीं रोक पाए. फ्लैट्स में काँच के बर्तन और फूलदान गिरते रहे और टूटते रहे, लोग भाग-दौड़ करते रहे, चीज़ों से, ओनों-कोनों से टकराते रहे, गठरियाँ और सूटकेस खोलते-बन्द करते रहे, इस उम्मीद में कि किसी तरह जल्दी से जल्दी कालान्चेव्स्काया चौक, या यारोस्लाव्स्की, या फिर निकोलायेव्स्की स्टेशन पर पहुँच जाएँ. मगर अफ़सोस, उत्तर और पूर्व  की ओर वाले सारे स्टेशन्स के चारों ओर पैदल सेना का बड़ा भारी घेरा था, और भारी-भारी ट्रक्स, जंज़ीरों को हिलाते और खड़खड़ाते हुए, ऊपर तक बक्सों से लदे हुए, जिनके ऊपर नुकीले हेल्मेट्स पहने चारों दिशाओं में संगीनें लिए तैयार फ़ौजी सिपाही बैठे थे, वित्त-मंत्रालय के वॉल्ट्स से सोने के सिक्कों का स्टॉक और भारी-भरकम बक्से ले जा रहे थे जिन पर लिखा था :’सावधान. त्रेत्याकोव गैलरी’. पूरे मॉस्को में मोटर-गाड़ियाँ चिंघाड़ रही थीं और भाग रही थीं.
दूर आसमान में आग की रोशनी थरथरा रही थी और अगस्त के घने अंधेरे को चीरते हुए तोप के गोलों की आवाज़ें निरंतर सुनाई दे रही थी.
सुबह होते-होते पूरी तरह निद्राहीन मॉस्को में, जिसमें एक भी बत्ती बुझाई नहीं गई थी, सामने आती हर चीज़ को धकेलते हुए, जो प्रवेश द्वारों और दुकानों की शो-केसेस से चिपक गई थी, शीशों को दबाते हुए लकड़ी के फट्टों के फर्श पर अपनी टापों से खट्-खट् करते त्वेर्स्काया पर हज़ारों घुड़सवारों की फ़ौज का साँप चला जा रहा था. लाल टोपियों के लम्बे-लम्बे कान भूरी-भूरी पीठों पर झूल रहे थे, और संगीनों की नोकें आसमान को छेद रही थीं. पागलपन की, उन्माद की लहर को चीरकर आगे बढ़ी हुई फौज को देखकर भागती हुई, विलाप करती हुई भीड़ में जैसे जान आ गई. अब फुटपाथ पर खड़ी भीड़ में उत्साहवर्धक नारे लगने लगे:
”घुड़सवार फौज – ज़िन्दाबाद!” औरतों की उन्मादयुक्त चीखें सुनाई दीं.
“ ज़िन्दाबाद!” आदमियों ने जवाब दिया.
 “कुचल देंगे!!! दबा देंगे!” – कहीं से रोना सुनाई दिया.
 “मदद करो!” फुटपाथ से लोग चिल्लाए.
सिगरेटों के पैकेट्स, चाँदी के सिक्के, घड़ियाँ फुटपाथ से क़तार में फेंके जा रहे थे, कुछ औरतें भयानक ख़तरा उठाते हुए उछल कर पुल पर आ गईं और लगामों को पकड़ कर उन्हें चूमने लगीं. टापों की निरंतर हो रही खटखटाहट में कभी कभी कमाण्डरों की आवाज़ें सुनाई देतीं:
”लगाम खींचो.”
कहीं से कोई मस्तीभरा, छिछोरा गीत सुनाई दे रहा था, और इश्तेहारों की नियोन लाईट्स की थरथराती रोशनी में मुड़ी हुई टोपियों वाले चेहरे अपने घोड़ों से देख रहे थे. कभी कभी खुले चेहरे वाले घुड़सवारों की क़तार को चीरते हुए कुछ विचित्र व्यक्ति जा रहे थे, जो घोड़ों पर सवार थे, अजीब से मास्क पहने जिन पर पानी के होज़ पाईप चिपके थे और उनकी पीठ पर कोई सिलिण्डर्स पट्टियों से बंधे थे. उनके पीछे लम्बे लम्बे पाईप लगे, जैसे कि अग्नि-शामक मशीनों में लगे होते हैं, भारी-भरकम टैंक-ट्रक्स, जो पूरी तरह सीलबन्द थे, पतले-पतले छेदों से झाँकते हुए, अपने पट्टेवाले दांतेदार पहियों पर धीरे धीरे सरक रहे थे. घुड़सवारों की कतारें तोड़ कर भूरी, हथियारबन्द, पूरी तरह सीलबन्द कारें गुज़र रही थीं, उन पर भी बाहर की ओर निकलते हुए वैसे ही पाईप लगे हुए थे और दोनों ओर सफ़ेद रंग से खोपड़ियों की तस्वीरें  थीं और लिखा था ‘गैस. दोब्रोखिम.’
“मदद करो, भाईयों,” फुटपाथों से लोग चिल्ला रहे थे, “मार डालो साँपों को...मॉस्को को बचाओ!”
“माँ...माँ...” कतारों में यह शब्द फैल रहा था. सिगरेट्स के पैकेट रात की प्रकाशित हवा में उछल रहे थे, और घोड़ों से उन्मत्त भीड़ पर सफ़ेद दाँत भिंच रहे थे. कतारों में एक भारी और दिल को छू लेने वाला गीत गूँज रहा था:
 ... ना हुकुम, ना रानी, ना ही गुलाम,
   मारेंगे साँपों को बेशक हम,
   चारों दिशाओं से – करेंगे ख़तम...

‘हुर्रे’ की गूंज इस पूरे हुजूम पर लहर की तरह फैल रही थी, क्योंकि यह अफ़वाह फैल गई कि क़तार के आगे घोड़े पर, वैसी ही लाल टोपी में, जैसी कि सारे घुड़सवारों ने पहनी थी, दस वर्ष पूर्व मिसाल बन चुका, अब बूढ़ा और सफ़ेद बालों वाला, घुड़सवार फ़ौजों का कमाण्डर चल रहा है. भीड़ चिंघाड़ उठी, और आसमान में दिलों को कुछ राहत देते हुए ‘हुर्रे...हुर्रे...’ उड़ चला.

***

इन्स्टिट्यूट में मद्धिम रोशनी हो रही थी. बाहर हो रही घटनाएँ उसके भीतर अलग-अलग टुकड़ों में, अस्पष्ट और गहरी फुसफुसाहट से पहुँच रही थीं. एक बार मानेझ के पास, नियोन से आलोकित घड़ी के नीचे गोलियों की बौछार गूँज उठी, ये कुछ लुटेरों को, जिन्होंने वोल्खोन्का में एक फ्लैट लूटने की कोशिश की थी, फ़ौरन गोलियों से भून दिया गया था. गाड़ियों की आवाजाही इस स्थान पर कम थी, वे सब स्टेशनों की तरफ़ ही जा रही थीं. प्रोफेसर की कैबिनेट में, जहाँ मेज़ पर बस प्रकाश का एक धब्बा फेंकते हुए एक धुंधला लैम्प जल रहा था, पेर्सिकोव हाथों पर सिर रखे, ख़ामोश बैठा था. उसके चारों ओर धुएँ की परतें तैर रही थीं. चैम्बर में किरण बुझ चुकी थी. पिंजरों के मेंढक ख़ामोश थे, क्योंकि वे कभी के सो चुके थे. प्रोफेसर न तो काम कर रहा था, न ही पढ़ रहा था. एक ओर को, उसकी दाईं कोहनी के नीचे, एक छोटे कॉलम में टेलिग्राम्स का शाम का संस्करण पड़ा था, जिसमें यह बताया गया था कि पूरा स्मोलेन्स्क जल रहा है और तोपखाना मगरमच्छों द्वारा दिए गए अण्डों को निशाना बनाते हुए, जो कि सभी नम घाटियों में बिखरे पड़े थे, मोझाइस्क फॉरेस्ट के थोड़े-थोड़े हिस्से पर आग बरसा रहा है. यह सूचित किया गया था कि हवाई जहाज़ों के एक स्क्वैड्रन ने व्याज़्मा के निकट सफ़लतापूर्वक पूरे कस्बे पर  ज़हरीली गैस का छिड़काव कर दिया था, मगर इन हिस्सों में अनगिनत इन्सानों की जानें गईं हैं, क्योंकि जनता, कस्बों से नियंत्रित पलायन करने के बदले, दहशत के कारण, छोटे-छोटे समूहों में, अपनी मर्ज़ी से जहाँ सींग समाएँ वहीं भाग रही थी.  ये बताया गया था कि कॉकेशस के एक घुड़सवार डिविजन को, जो मोझाइस्क की ओर जा रहा था, ऑस्ट्रिचों के बहुत बड़े झुण्ड को ख़त्म करने, और उनके अण्डों के विशाल समूह को नष्ट करने में शानदार क़ामयाबी मिली है. ऐसा करते समय डिविजन को अत्यंत कम नुक्सान हुआ है. सरकार की ओर से सूचित किया गया था कि यदि साँपों को मॉस्को से 200 मील के दायरे से बाहर रोकना संभव नहीं हुआ, तो उसे पूरी तरह खाली करवाया जाएगा. कर्मचारियों और मज़दूरों से पूरी शांति बनाए रखने को कहा गया था. सरकार इस दिशा में अत्यंत कठोर कदम उठाएगी कि स्मोलेन्स्क वाले इतिहास की पुनरावृत्ति न हो, जहाँ रैटलस्नेक्स के अप्रत्याशित हमले से, जो हज़ारों की संख्या में प्रकट हो गए थे, मची भगदड़ के कारण शहर में उन सभी स्थानों पर आग लग गई थी, जहाँ लोग, व्यर्थ ही, जलती हुई भट्टियाँ छोड़-छोड़कर जान बचाने के लिए अपने घरों से भाग गए थे. ये सूचित किया गया था कि मॉस्को में छह महीने के लिए पर्याप्त खाने-पीने की सामग्री है, और कमाण्डर-इन-चीफ़ के नेतृत्व में एक कमिटी फ्लैट्स को बख़्तरबन्द करने की दिशा में आपात्-कदम उठा रही है, जिससे, यदि लाल फ़ौजों को और हवाई जहाज़ों को और तोपखानों को रेंगने वाले जंतुओं के आक्रमण को रोकने में सफ़लता न मिले, तो राजधानी की सड़कों पर साँपों से युद्ध किया जा सके.
प्रोफेसर इसमें से कुछ भी नहीं पढ़ रहा था, वह बस, पथराई आँखों से अपने सामने देखते हुए कश लगा रहा था. इन्स्टीट्यूट में उसके अलावा बस दो लोग और थे : पन्क्रात और बात-बात पर आँसू बहाती मारिया स्तेपानोव्ना, जो लगातार तीसरी रात सोई नहीं थी. यह रात वह प्रोफेसर की कैबिनेट में गुज़ार रही थी, जो किसी भी क़ीमत पर अपने इकलौते, बुझे हुए चैम्बर को छोड़ने को तैयार नहीं था. अब मारिया स्तेपानोव्ना एक कोने में, छाया में, मोमजामा जड़े दीवान पर लेटी थी, और दुख भरे ख़यालों में डूबी, देख रही थी कि कैसे प्रोफेसर के लिए रखी चाय की केटली गैस वाले बर्नर पर उबल रही है. इन्स्टीट्यूट ख़ामोश थी, और सब कुछ अचानक हो गया.
फुटपाथ से अचानक ऐसी घृणित और खनखनाती चीखें सुनाई दीं, कि मारिया स्तेपानोव्ना उछल कर चीख़ पड़ी. रास्ते पर फ्लैश लाईट्स की रोशनियाँ घूमने लगीं, और प्रवेश-हॉल में पन्क्रात की आवाज़ गूंजी. प्रोफेसर को यह शोर ठीक से समझ में नहीं आया. उसने एक पल को अपना सिर उठाया, बड़बड़ाया: “आह, कैसी गुण्डागर्दी है...अब मैं क्या करूँगा?” और वह फिर से जड़ हो गया. मगर इस जड़ता को भंग कर दिया गया. गेर्त्सेन स्ट्रीट की ओर वाले इन्स्टिट्यूट के लोहे के दरवाज़े ज़ोर-ज़ोर से भड़भड़ाने लगे, और सारी दीवारें थरथराने लगीं. इसके बाद बगल की कबिनेट में आईने टूटने लगे. प्रोफेसर की कैबिनेट में शीशे झनझनाकर बिखरने लगे, और भूरे रंग का एक पत्थर खिड़की फाँद कर आया और शीशे की मेज़ को चूर-चूर कर गया. पिंजरों में मेंढक जाग गए और एक साथ टर्राने लगे. मारिया चीखते हुए भाग-दौड़ करने लगी, लपक कर प्रोफेसर के पास आई, उसका हाथ पकडकर चीख़ी: “भाग जाईये, व्लादीमिर इपातिच, भाग जाईये.” वह रिवॉल्विंग चेयर से उठा, सीधा हो गया, और अपनी ऊँगली टेढ़ी करके बोला, अब उसकी आँखों में पल भर को पहले वाली तेज़ चमक झाँक गई, जो पहले वाले उत्साही पेर्सिकोव की याद दिला रही थी :
 “मैं कहीं नहीं जाऊँगा,” उसने कहा, “ये सरासर बेवकूफ़ी है. वे पागलों के समान भाग रहे हैं...ख़ैर, अगर पूरा का पूरा मॉस्को पागल हो गया है, तो मैं भाग कर जाऊँगा कहाँ. और, कृपया, चिल्लाना बन्द कीजिए. इस सबमें मैं कैसे हूँ. पन्क्रात!” उसने पुकारा और घण्टी बजाई.
शायद, वह ये चाहता था कि पन्क्रात इस सारी भाग-दौड़ को बन्द करे, जो उसे कभी भी अच्छी नहीं लगती थी. मगर पन्क्रात अब कुछ नहीं कर सकता था. शोर-गुल इस तरह बन्द हुआ कि इन्स्टिट्यूट का गेट खुल गया, और दूर से गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनाई दी, और फिर पूरी पत्थर की इमारत दौड़ते हुए कदमों की आहट से, चीखों से, शीशों के टूटने की आवाज़ से गरज उठी. मारिया स्तेपानोव्ना पेर्सिकोव की आस्तीनों से लटक गई और उसे कहीं खींचने की कोशिश करने लगी, वह उससे छिटक गया, अपनी पूरी ऊँचाई में सीधा खड़ा हो गया और, वैसे ही, सफ़ॆद एप्रन में, बाहर कॉरीडोर में आया.
 “क्या है?”  दरवाज़े धड़ाम् से खुल गए, और पहली चीज़ जो दरवाज़े में प्रकट हुई, वो थी बाईं आस्तीन पर लाल, सितारा जड़े फ़ौजी गार्ड की पीठ. वह दरवाज़े की ओर पीठ किए दूर हटा, जिसे वहशी भीड़ धकेल रही थी और रिवॉल्वर से गोलियाँ चलाता रहा. फिर वह पेर्सिकोव के सामने से भागते हुए चीख़ा:
 “प्रोफेसर, अपने आपको बचाईये, अब और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा.”
उसके शब्दों का जवाब दिया मारिया स्तेपानोव्ना की चीख ने. फ़ौजी पेर्सिकोव के सामने से उछलते हुए भागा, जो किसी सफ़ेद बुत की तरह खड़ा था, और विपरीत दिशा के बल खाते कॉरीडोर्स के अंधेरे में कहीं छुप गया. लोग चिंघाड़ते हुए, दरवाज़ों से जैसे उड़ते हुए, आए:
 “मारो उसे! मार डालो...”
 “दुनिया के शैतान को!”
 “तूने साँप छोड़े हैं!”
विद्रूप चेहरे, फटे हुए कपडे कॉरीडोर्स में कूदने लगे, और किसी ने गोली चला दी. लाठियाँ चमक उठीं. पेर्सिकोव थोड़ा सा हटा, कैबिनेट का दरवाज़ा उड़का लिया, जहाँ मारिया स्तेपानोव्ना ख़ौफ़ से घुटनों के बल खड़ी थी, उसने हाथ फैलाए, जैसे सूली पर चढ़ा हो...वह भीड़ को भीतर नहीं आने देना चाहता था और तैश में आकर चिल्लाया:
 “ये सरासर पागलपन है...आप बिल्कुल जंगली जानवर हैं. आप लोगों को क्या चाहिए?” वह चिंघाड़ा, “भाग जाओ यहाँ से!” और उसने अपना वाक्य सबको परिचित तीखी चीख से ख़त्म किया:
 “पन्क्रात, इन्हें भगा यहाँ से.”
मगर पन्क्रात अब किसी को भी भगा नहीं सकता था. कुचला गया, टुकड़े-टुकड़े हो चुका पन्क्रात अपने टूटे हुए सिर को लिए प्रवेश-हॉल में पड़ा था, और उसके पास से अधिकाधिक भीड़ सड़क से हो रही मिलिट्री की फ़ायरिंग की ओर ध्यान न देते हुए बढ़ी चली आ रही थी.
एक छोटे क़द का आदमी, बन्दरों जैसी मुड़ी टाँगों वाला, एक ओर को सरक गए फटे हुए कोट और फटी हुई कमीज़ में, औरों को पीछे हटाते हुए पेर्सिकोव के निकट पहुँचा और लाठी के निर्मम प्रहार से उसकी खोपड़ी तोड़ दी. पेर्सिकोव लड़खड़ाया, एक किनारे को गिरने लगा, और उसका अंतिम शब्द था:
”पन्क्रात...पन्क्रात...”
बेक़ुसूर मारिया स्तेपानोव्ना को कैबिनेट में मार कर कुचल दिया गया, बुझी हुई किरण वाले चैम्बर के  भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले, मेंढकों के पिंजरों को चूर-चूर कर दिया, मतिहीन हो गये मेंढकों को मार डाला और पैरों से कुचल दिया, काँच की मेज़ों को चूर-चूर कर दिया, रेफ्लेक्टर्स के टुकड़े-टुकड़े कर डाले, और एक घण्टे बाद इन्स्टिट्यूट जल उठी, उसके निकट पड़े थे मृत शरीर, जिनके चारों ओर इलेक्ट्रिक रिवॉल्वर्स से लैस सैनिकों ने घेरा बना दिया था, और आग बुझाने वाली मशीनें, नलों से पानी खींच-खींच कर सारी खिड़कियों में पानी की बौछार कर रही थीं, जिनमें से ऊँची-ऊँची सनसनाती हुई लपटें निकल रहीं थीं.

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