लोकप्रिय पोस्ट

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

The Fateful Eggs - 10

अध्याय 10
विनाश

‘इज़्वेस्तिया’ अख़बार के रात के एडिटोरियल ऑफिस में तेज़ रोशनी हो रही थी, और मोटा ड्यूटी-एडिटर सीसे की मेज़ पर टेलिग्राम्स के आधार पर दूसरा कॉलम ‘’संघीय रिपब्लिक्स में’ तैयार कर रहा था. उसकी नज़र एक गैली पर पड़ी, उसने अपने आले से उसे देखा और ठहाका मार कर हँस पड़ा, प्रूफ-रीडर्स और कोम्पोज़िटर्स को बुलाया और सबको ये गैली दिखाई. गीले कागज़ पर एक छोटी पट्टी में टाइप किया गया था:
 “ग्राचेव्का, स्मोलेन्स्क प्रान्त. कस्बे में एक मुर्गी प्रकट हुई है, जो घोड़े जितनी बड़ी है, और घोड़े जैसी ही दुलत्ती मारती है. पूँछ के बदले उसके बुर्झुआ महिलाओं के पर हैं.”
कोम्पोज़िटर्स ने ज़ोर से ठहाका लगाया.
 “मेरे ज़माने में,” ड्यूटी-एडिटर ज़ोर से खी-खी करते हुए कहने लगा, “जब मैं वान्या सीतिन के पास  ‘रूस्कोए स्लोवो’ में काम करता था, इतना पी जाते थे कि उन्हें हाथी नज़र आने लगते थे. ये सही है. और अब, शायद, उन्हें ऑस्ट्रिच नज़र आने लगे हैं.
कोम्पोज़िटर्स ठहाके लगाते रहे.
 “सही कहा, ऑस्ट्रिच,” कोम्पोज़िटर ने कहा, “इसको रखना है, इवान वोनिफ़ात्येविच?”
 “क्या तू पागल हो गया है,” ड्यूटी-एडिटर ने जवाब दिया, “मुझे ताज्जुब है कि सेक्रेटरी की नज़र इस पर कैसे नहीं पड़ी, बिल्कुल पियक्कड टेलिग्राम है.”
 “मस्ती कर रहे थे, ये सही है,” कोम्पोज़िटर्स ने सहमत होते हुए कहा, और मेकर-अप ने मेज़ से ऑस्ट्रिच वाली सूचना हटा ली.
इसलिए अगले दिन का ‘इज़्वेस्तिया’ हमेशा की तरह दिलचस्प ख़बरों को समेटे निकला, ग्राचेव्का के ऑस्ट्रिच का कोई ज़िक्र किए बगैर. प्राइवेट- सहायक प्रोफेसर इवानोव ने, जो अपने कैबिन में बड़े ग़ौर से ‘इज़्वेस्तिया’ पढ़ रहा था, पन्ना पलटा, उबासी ली और बुदबुदाया ‘कोई दिलचस्प ख़बर नहीं है’, और सफ़ेद एप्रन पहनने लगा. कुछ समय बाद उसकी कैबिन में बर्नर्स जल उठे और मेंढक टर्-टर् करने लगे. प्रोफेसर पेर्सिकोव के कमरे में तो मानो भूचाल आ गया था. भयभीत पन्क्रात अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा था.
 “समझ गया, सुन रहा हूँ,” वह कह रहा था.
पेर्सिकोव ने उसे एक सीलबन्द लिफ़ाफ़ा दिया और कहा:
 “सीधे पशुपालन डिपार्टमेन्ट में जा, इस प्ताखा के पास और उससे सीधे कह दे कि वो – सूअर है. कह दे कि मैंने, प्रोफेसर पेर्सिकोव ने, ऐसा ही कहा है. और ये पैकेट उसे दे दे.”
 'बहुत बढ़िया काम है, बस, करते रहो...' डर से पीले पड़ गए पन्क्रात ने सोचा और पैकेट लेकर चला गया.
पेर्सिकोव गुस्से से उबल रहा था.
 “शैतान ही जाने कि ये क्या है,” कैबिनेट में चक्कर लगाते हुए और अपने दस्तानों वाले हाथ मलते हुए उसने दाँत भींचे, “ये तो वे मेरा और प्राणिशास्त्र का मज़ाक उड़ा रहे हैं. इन नासपीटे मुर्गी के अण्डों के ढेर पर ढेर लाए जा रहे हैं, और मुझे दो महीनों में भी ज़रूरत का सामान नहीं मिला है. जैसे कि अमेरिका बहुत दूर है! हमेशा की झकझक! हमेशा की बदइंतज़ामी!" – वह अपनी उँगलियों पर गिनने लगा, - “इकट्ठा करने में...हुँ, हद से हद दस दिन, चलो, ठीक है, पन्द्रह...चलो, बीस ही सही और पैकिंग में दो दिन, लन्दन से बर्लिन तक - एक दिन. बर्लिन से यहाँ तक – छह घण्टे...कोई बेहद अजीब किस्म की गड़बड़ हो रही है...”
वह तैश में आकर टेलिफोन की ओर लपका और कहीं फोन करने लगा.
उसकी कैबिनेट में किन्हीं रहस्यमय और बेहद ख़तरनाक प्रयोगों की पूरी तैयारी हो चुकी थी, दरवाज़ों पर चिपकाने के लिए कटी हुई कागज़ की पट्टियों का ढेर पड़ा था, डाइवर्स के हेल्मेट पड़े थे ड्रेन-पाइप के साथ, और कई सिलिण्डर्स पड़े थे, पारे की तरह चमचमाते, जिन पर ‘दोब्रोखिम’ और ‘छूना मना है’, वाले लेबल्स और ‘खोपड़ी और हड्डियों’ की ड्राईंग थी.
प्रोफेसर को शांत होकर छोटे-छोटे कामों की ओर लौटने में कम से कम तीन घण्टे लग गए. ऐसा ही उसने किया. इन्स्टीट्यूट में उसने रात के ग्यारह बजे तक काम किया और इसलिए इन दूधिया-रंग की दीवारों के बाहर क्या हो रहा है इसका उसे ज़रा भी बात पता नहीं चला. न तो मॉस्को में फैल रही बेवकूफ़ी भरी अफ़वाह, किन्हीं साँपों के बारे में, न ही शाम के अख़बार में छपे अजीब टेलिग्राम के बारे में अख़बार बेचने वाले छोकरे की चिल्लाहट का उसे पता चला, क्योंकि असिस्टेण्ट-प्रोफेसर इवानोव आर्ट थियेटर में ‘फ़्योदोर इओन्नोविच’ देखने गया था, और इसलिए प्रोफेसर को इन बातों की ख़बर देने वाला कोई नहीं था.
आधी रात के क़रीब पेर्सिकोव प्रेचिस्तेन्को वापस आया और बिस्तर में ही लन्दन से आई ‘प्राणि-शास्त्र समाचार’ नामक पत्रिका में कोई अंग्रेज़ी लेख पढ़कर सो गया. वह सो रहा था, और देर रात तक चकरघिन्नी की तरह घूमता मॉस्को भी सो रहा था, बस, त्वेर्स्काया रोड पर स्थित भूरे रंग की एक विशाल बिल्डिंग भर नहीं सो रही थी, जहाँ भयानक शोर करते हुए ‘इज़्वेस्तिया’ की रोटरी-मशीनें पूरी बिल्डिंग को थर्राए दे रही थीं. ड्यूटी-एडिटर की कैबिन में भयानक शोर-गुल और परेशानी का आलम था. वह, पूरी तरह तैश में आकर, लाल-लाल आँखें लिए भाग-दौड़ कर रहा था, यह न जानते हुए कि क्या करना चाहिए, और सबको गालियाँ देते हुए शैतान की ख़ाला के पास भेज रहा था. मेकर-अप उसके पीछे ही था और साँस से शराब की गंध छोड़ते हुए बोला:
 “कोई बात नहीं, इवान वोनिफ़ात्येविच, कोई आसमान तो नहीं गिर पड़ा, चलिए, कल सुबह एक आपात-संस्करण निकाल देंगे. अब प्रेस से अंक तो बाहर नहीं ना खींचा जा सकता.”
कोम्पोज़िटर्स घर नहीं गए, बल्कि झुण्ड बनाए घूमते रहे, सामूहिक रूप से टेलिग्राम्स पढ़ते रहे, जो पूरी रात पन्द्रह-पन्द्रह मिनट बाद लगातार आते रहे, और वे एक से एक विचित्र और डरावने होते जा रहे थे. अल्फ्रेड ब्रोन्स्की की नुकीली हैट चकाचौंध करने वाले गुलाबी प्रकाश से आलोकित एडिटोरियल-ऑफ़िस में झलक जाती थी, और कृत्रिम पैर वाला मोटा भी सरसराहट करते और लंगड़ाते हुए यहाँ वहाँ दिखाई दे जाता था. पोर्च में दरवाज़े धड़ाम्-धड़ाम् किए जा रहे थे, और पूरी रात रिपोर्टर आते रहे. प्रिंटिंग-ऑफ़िस के सभी बारह टेलिफोन लगतार बजे जा रहे थे, और एक्स्चेंज ऑफ़िस से रहस्यमय रिसीवरों को यांत्रिक रूप से ‘व्यस्त है’ का सिग्नल मिल रहा था, और एक्स्चेंज में जागती हुई महिला-ऑपरेटर्स के सामने निरंतर सिग्नल्स बीप्-बीप् कर रहे थे....
कोम्पोज़िटर्स ने कृत्रिम पैर वाले मोटे को घेर लिया था, और समुद्री-यात्राओं का कैप्टेन उनसे कह रहा था:
 “उन्हें हवाई जहाज़ों में गैस भेजनी पड़ेगी.”
 “और कोई रास्ता ही नहीं है,” कोम्पोज़िटर्स ने जवाब दिया, “आख़िर ये क्या है?” इसके बाद माँ की एक भयानक गाली हवा में गूँज गई, और किसी की तीखी आवाज़ चिल्लाई:
 “इस पेर्सिकोव को तो गोली मार देनी चाहिए.”
 “इसमें पेर्सिकोव कहाँ से आ गया,” भीड़ में से किसीने जवाब दिया, “ सोव्खोज़ वाले उस कुत्ते के पिल्ले को – असल में उसे गोली मारनी चाहिए.”
 “सुरक्षा का इंतज़ाम करना चाहिए था,” कोई और चीखा.
 “हाँ, हो सकता है कि वो अण्डे ही नहीं हों.”
पूरी बिल्डिंग रोटरी-मशीनों के पहियों से गूँज रही थी और थरथरा रही थी, और कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि ये भूरी बदसूरत बिल्डिंग इलेक्ट्रिक आग में दहक रही है.
अगली सुबह भी ये हंगामा रुका नहीं, बल्कि ज़्यादा ही तेज़ हो गया, हालाँकि अब लाइट्स बुझ चुकी थीं. एक के बाद एक मोटरसाइकल सवार सिमेन्ट के कम्पाउण्ड में आते जा रहे थे, बीच बीच में कारें भी आ रही थीं. पूरा मॉस्को उठ गया था और अख़बारों के सफ़ेद पन्नों ने मानो पंछियों की तरह उसे ढँक दिया था. सभी के हाथों में अख़बार के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और सरसरा रहे थे, अख़बार बेचने वालों के पास ग्यारह बजते-बजते कोई अंक ही नहीं बचा, बावजूद इसके कि इस महीने में ‘इज़्वेस्तिया’ की ग्राहक-संख्या डेढ मिलियन हो गई थी. प्रोफेसर पेर्सिकोव प्रेचिस्तेन्को से निकल कर बस में इंस्टिट्यूट पहुँचा. वहाँ एक अच्छी ख़बर उसका इंतज़ार कर रही थी. लाउंज में सलीके से धातु की पट्टियाँ जड़े लकड़ी के डिब्बे रखे थे, इन तीन डिब्बों पर जर्मन भाषा में लेबल्स चिपके हुए थे, और उनके ऊपर एक छोटी सी रूसी इबारत झलक रही थी : ‘सावधान – अण्डे’
प्रोफेसर पर मानो खुशी का दौरा पड़ गया.
 “आख़िरकार,” वह चिल्लाया, “पन्क्रात, डिब्बों को धीरे से और सावधानी से खोल, जिससे कि टूट न जाएं. मेरे पास – कैबिनेट में.”
पन्क्रात ने फ़ौरन आज्ञा का पालन किया और पन्द्रह मिनट बाद प्रोफेसर की कैबिनेट में, जिसमें लकड़ी का बुरादा और कागज़ की कतरनें बिखरी पड़ी थीं, उसकी गुस्से भरी आवाज़ सुनाई दी:
  “वे, क्या, मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं,” मुट्ठियाँ तानते हुए और हाथों में अण्डे घुमाते हुए प्रोफेसर चिंघाड़ा, “ये कोई जानवर है, न कि प्ताखा. मैं अपना मज़ाक उड़ाने की इजाज़त नहीं दूँगा. ये क्या है, पन्क्रात?”
 “अण्डे हैं, जनाब,” पन्क्रात ने अफसोस से कहा.
 “मुर्गियों के, समझ रहे हो, मुर्गियों के, शैतान उन्हें ले जाए! किस शैतान के लिए मुझे उनकी ज़रूरत है? इन्हें भी उस निकम्मे के पास सोव्खोज़ में भेज दें!”
पेर्सिकोव कोने में रखे टेलिफोन की ओर लपका, मगर फोन नहीं कर पाया.
 “व्लादीमिर इपातिच! व्लादीमिर इपातिच!” इन्स्टीट्यूट के कॉरीडोर में इवानोव की आवाज़ गरजी.
पेर्सिकोव टेलिफोन से दूर हट गया, और असिस्टेंट-प्रोफेसर को जगह देते हुए पन्क्रात फ़ौरन एक कोने में हट गया. अपनी शराफ़त के बावजूद, बिना अपनी भूरी हैट उतारे, जो पीछे खोपड़ी पर खिसक गई थी, और हाथों में अख़बार का पन्ना लिए, वह भागते हुए कैबिनेट में घुसा.
 “आप जानते हैं, व्लादीमिर इपातिच, क्या हुआ है?” वह चीखा और पेर्सिकोव के चेहरे के सामने अख़बार का पन्ना नचाने लगा था, जिस पर यह शीर्षक था: ‘आपात-परिशिष्ठ’ जिसके मध्य में एक भड़कीला, रंगीन चित्र था.
 “नहीं, सुनिए, उन्होंने क्या कर दिया है,” – जवाब में उसकी बात सुने बिना पेर्सिकोव चिल्लाया, “वे मुर्गियों के अण्डों से मुझे आश्चर्यचकित करना चाहते हैं. ये प्ताखा, पूरा ईडियट है, देखिए!”
इवानोव पूरी तरह सकते में आ गया. भयभीत होकर वह खुले हुए डिब्बों की ओर देखने लगा, फिर अख़बार के पन्ने की ओर, फिर उसकी आँखें एकदम कपाल पर चढ़ गईं.
 “तो, ये बात है,” गहरी साँस लेते हुए वह बड़बड़ाया, “अब मैं समझ रहा हूँ...नहीं, व्लादीमिर इपातिच, आप सिर्फ देखिए,” – उसने फ़ौरन पन्ना पलटा और थरथराती उँगलियों से पेर्सिकोव को रंगीन चित्र दिखा दिया. उसमें अग्नि-शामक गाड़ी के डरावने पाईप जैसा, अजीब सी हरियाली से पुता हुआ, पीले धब्बों वाला ज़ैतूनी साँप झूम रहा था. उसकी तस्वीर ऊपर से ली गई थी, हलके विमान से, जो सावधानी से साँप के ऊपर फिसल रहा था, “आपकी राय में यह कौन है, व्लादीमिर इपातिच?”
पेर्सिकोव ने चश्मा माथे पर चढ़ाया, फिर उसे आँखों तक लाया, ग़ौर से चित्र को देखा और बेहद विस्मय से बोला:
 “ये कैसी शैतानियत है. ये...हाँ, ये अनाकोण्डा है, पानी का अजगर...”
इवानोव ने हैट फेंक दी, कुर्सी पर बैठ गया और एक-एक शब्द पर मुट्ठी से मेज़ बजाते हुए बोला:
 “व्लादीमिर इपातिच, ये स्मोलेन्क प्रान्त का अनाकोण्डा है. भयानक बात है. आप समझ रहे हैं, इस बेवकूफ़ ने मुर्गियों के बदले साँपों को पैदा कर दिया, और, आप ग़ौर कीजिए, वे भी वैसे ही अभूतपूर्व परिणाम दे रहे हैं, जैसे मेंढकों ने दिए थे!”
 “क्या कह रहे हो?” पेर्सिकोव ने जवाब दिया और उसका चेहरा लाल हो गया... “आप मज़ाक कर रहे हैं, प्योत्र स्तेपानोविच...कहाँ से?”
इवानोव एक पल को गूँगा हो गया, फिर उसकी बोलने की शक्ति वापस आई और, वह खुले हुए डिब्बे में, जहाँ पीले बुरादे में अण्डों सफ़ेद सिरे झाँक रहे थे, उँगली गड़ाकर बोला:
 “यहाँ से.”
 “क्या...आ?!” पेर्सिकोव चिंघाड़ा, उसे सब समझ में आने लगा था.
इवानोव पूरे विश्वास के साथ दोनों बन्द मुट्ठियाँ नचाते हुए बोला:
 “शांत रहिए. उन्होंने गलती से साँपों और ऑस्ट्रिच के अण्डों का आपका ऑर्डर सोव्खोज़ भेज दिया, और मुर्गियों वाला आपको.”
 “माय गॉड...माय गॉड,” पेर्सिकोव ने दुहराया और रिवॉल्विंग स्टूल पर बैठने लगा. उसका चेहरा हरा होने लगा.
दरवाज़े के पास खड़ा पन्क्रात जैसे बिल्कुल पागल हो गया, पीला पड़ गया, और गूँगा हो गया. इवानोव उछला, उसने अख़बार का पन्ना पकड़ा और अपने नुकीले नाखून से उस पंक्ति को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर के कान में चिल्लाया:
 “अब भयानक हंगामा होने वाला है!...आगे क्या होगा, मैं कल्पना नहीं कर सकता. व्लादीमिर इपातिच, आप देखिए,” और वह मुड़े-तुड़े अख़बार से, जहाँ नज़र पड़ी वही पंक्ति पढ़ते हुए चीत्कार कर उठा... “साँपों के झुण्ड मोझाइस्क की ओर बढ़े चले आ रहे हैं... अनगिनत अण्डे देते हुए. अण्डे दूखोव्स्की जिले में देखे गए...मगरमच्छ और ऑस्ट्रिच पैदा हो गए. विशेष सैन्य बल...और सुरक्षा विभाग की टुकड़ियों ने, शहर के बाहर वाला जंगल जला कर, रेंगने वाले प्राणियों को आगे बढ़ने से रोक कर दहशत पर काबू पा लिया...”
पेर्सिकोव चितकबरा, नीला-बदरंग हो गया, पागल जैसी आँखों से स्टूल से उठा और हाँफ़ते हुए चिल्लाने लगा:
 “अनाकोण्डा...अनाकोण्डा...पानी का अजगर! माय गॉड!” ऐसी हालत में उसे इवानोव और पन्क्रात ने आज तक नहीं देखा था.
प्रोफेसर ने एक झटके से टाई नोंच ली, कोट के बटन तोड़ दिए, चेहरा पैरेलिसिस जैसे भयानक लाल रंग का हो गया और, लड़खड़ाते हुए, संज्ञाहीन, काँच जैसी निर्जीव आँखों से कहीं लपका. उसका विलाप इंस्टीट्यूट की पत्थर की मेहराबों में गूंजने लगा.
 “अनाकोण्डा...अनाकोण्डा..” प्रतिध्वनि गूँजती रही.
 “प्रोफेसर को पकड़!” इवानोव ने चीत्कार करते हुए पन्क्रात से कहा, जो डर के मारे अपनी ही जगह पर उछल-कूद कर रहा था. “उन्हें पानी पिला...दौरा पड़ा है.”


*****

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.