अध्याय 11
मैं थियेटर से परिचित होता हूँ
तरपेत्स्काया को टाइपिंग में महारत हासिल
थी. मैंने इस तरह की प्रवीणता कभी नहीं देखी थी. उसे विराम चिह्न लिखवाने की ज़रुरत
नहीं थी, न ही उन निर्देशों
को दुहराने की, कि कौन बोल रहा है. मैं तो यहाँ तक पहुंचा, कि ड्रेसिंग रूम में आगे-पीछे घूमते हुए और लिखवाते हुए, रुक जाता, सोच में पड़ जाता,
फिर कहता: “नहीं, ठहरिये...” लिखे हुए को बदलता, पूरी तरह बताना भूल गया, कि कौन
बोल रहा है, बुदबुदाता और ज़ोर से बोलता, मगर मैं चाहे जो भी करता, तरपेत्स्काया के
हाथों से बिना मिटाए, एक-सा साफ़-सुथरा पृष्ठ निकलता, बिना किसी व्याकरण की त्रुटी के – चाहे तो उसे अभी प्रिंटर को दे दें.
मतलब, तरपेत्स्काया अपना काम जानती थी और उसे अच्छी तरह निभाती थी. हम टेलीफोन की
घंटियों की संगत में लिख रहे थे. पहले तो वे मुझे परेशान कर रही थीं, मगर बाद में मुझे
उनकी ऐसी आदत हो गयी, कि वे मुझे अच्छी लगने लगीं. पलिक्सेना फ़ोन करने वालों के साथ असाधारण
निपुणता से पेश आती. वह फ़ौरन चिल्लाती:
“यस. बोलिए, कॉमरेड, फौरन बोलिए, मैं
व्यस्त हूं! हां?”
ऐसे स्वागत से टेलीफ़ोन के दूसरे सिरे वाला
कॉमरेड गड़बड़ा जाता और हर तरह की बकवास करने लगता और उसे फ़ौरन ठीक कर दिया जाता.
तरपेत्स्काया के कार्यकलापों का घेरा
अत्यंत विस्तीर्ण था. इस बात पर मुझे टेलीफोन की घंटियों से विश्वास हो गया.
“हाँ,” तरपेत्स्काया कहती, “नहीं, आप गलत नंबर पर फ़ोन कर रहे हैं. मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं है...मैं
तुम्हें गोली मार दूंगी! (ये – मुझे, पहले लिखे गए वाक्य को दुहराते हुए.)
फिर घंटी.
“हाँ? स्वतन्त्र! मेरे पास कोई टिकट-विकट
नहीं है!...बालकनी बालकनी
“सारे टिकट बिक चुके हैं,” तरपेत्स्काया ने
कहा, “मेरे पास कोई
फ्री-पास नहीं है...इससे तुम कुछ भी साबित नहीं कर पाओगे. (मेरे लिए.)
‘अब मैं समझने लगा हूँ,’ मैंने सोचा, मॉस्को में कितने
लोग मुफ़्त में थियेटर जाने के शौकीन हैं. और, अजीब बात है: उनमें से कोई भी मुफ़्त में ट्राम में जाने की कोशिश नहीं
करता. फिर – उनमें से कोई भी डिपार्टमेंटल स्टोर में जाकर मुफ्त में मछलियों का
डिब्बा देने को नहीं कहेगा. वे ऐसा क्यों सोचते हैं, कि थियेटर में भुगतान नहीं करना पडेगा?’
“हाँ! हाँ!” तरपेत्स्काया फ़ोन में चीख रही
थी. “कलकत्ता, पंजाब, मद्रास, अलाहाबाद...नहीं, पता नहीं दे सकते! हाँ?” उसने मुझसे कहा.
“मैं इस बात की इजाज़त नहीं दूँगा, कि वह
मेरी मंगेतर की खिड़की के नीचे प्रेम गीत गाये,” – ड्रेसिंग रूम में भागते हुए मैं जोश से कह रहा था.
“मंगेतर की...” तरपेत्स्काया ने दुहराया.
टाइपराइटर हर मिनट घंटियाँ बजा रहा था.
फिर से टेलीफोन खनखनाया .
“हाँ! स्वतन्त्र थियेटर! मेरे पास कोई
टिकट-विकट नहीं हैं. मंगेतर की...”
“मंगेतर की!...” मैंने कहा. – “येर्माकोव
फर्श पर गिटार फेंक देता है और बाहर बाल्कनी में भागता है.
“हाँ? स्वतन्त्र! मेरे पास कोई टिकट-विकट नहीं हैं!...बाल्कनी.”
“आन्ना लपकती है....नहीं सिर्फ उसके पीछे
जाती है.”
“जाती है...हाँ? आह हाँ. कॉमरेड बूतविच, आपके लिए ऑफ़िस में फिली के पास रख दिए जाएंगे. शुभ
कामनाएँ.”
“आन्ना – वह खुद को गोली मार लेगा!”
बख्तीन – नहीं मारेगा!”
“हाँ. हैलो. हाँ, उसके साथ. फिर
अंदमान द्वीपसमूह. अफसोस है कि मैं पता नहीं दे सकती, अल्बर्त अल्बर्तोविच...खुद को गोली नहीं मारेगा!...”
पलिक्सेना
तरपेत्स्काया की तारीफ़ करनी ही पड़ेगी: अपना काम वह बखूबी जानती थी. वह दसों
उँगलियों से टाईप करती थी – दोनों हाथों से; जैसे ही टेलीफोन की घंटी बजती, एक हाथ से लिखती, दूसरे से रिसीवर उठाती, चिल्लाती: “कलकत्ता पसंद नहीं आया! तबियत अच्छी है...” दिम्यान कुज़्मिच
अक्सर आता, काऊंटर के पास जाता, कोई कागज़ देता.
तरपेत्स्काया दाईं आंख से उन्हें पढ़ती, सील लगाती, बाएँ हाथ से टाईप राइटर पर टाईप करती: “हारमोनियम प्रसन्नता से बज रहा है, मगर इससे...”
“नहीं, ठहरिये!” मैं चिल्लाया. – “नहीं, प्रसन्नता से नहीं, बल्कि कुछ धृष्ठता से...या नहीं...ठहरिये,” मैं बदहवासी से दीवार की ओर देख रहा था, न जानते हुए कि हार्मोनियम कैसे बजता है. इस दौरान तरपेत्स्काया चेहरे पर
पाउडर लगा रही थी, टेलीफोन पर किसी मिस्सी को बता रही थी कि कोर्सेट के लिए पैड अलबर्त
अलबर्तोविच वियेना में खरीदेंगे. ड्रेसिंग रूम में विभिन्न प्रकार के लोग आते, और शुरू में तो मुझे
उनके सामने लिखवाने में झिझक होती, ऐसा लगता, जैसे कपड़े पहने हुए लोगों के बीच मैं अकेला निर्वस्त्र हूँ, मगर मुझे जल्दी से
आदत हो गयी.
मीशा पानिन प्रकट होता और हर बार, करीब से गुज़रते हुए, मुझे प्रोत्साहित करने के लिए मेरा कंधा दबाता और अपने
दरवाज़े की तरफ़ चला जाता, जिसके पीछे, जैसा की मैं जानता था, उसकी विश्लेषणात्मक कार्यशाला है.
चिकनी दाढी, अवसादपूर्ण रोमन जैसी रूपरेखा,
जिद्दीपन से बाहर निकले हुए निचले होंठ वाला डाइरेक्टरों की कॉर्पोरेशन का अध्यक्ष
इवान अलेक्सान्द्रविच पल्तरात्स्की आया.
“माफ़ी चाहता हूँ. दूसरा अंक भी लिख रहे हैं? शानदार!” वह चहका और
दूसरे दरवाज़े से गया, अपने पैरों को हास्यपूर्ण ढंग से उठाते हुए, यह दिखाने के लिए कि वह शोर न मचाने की कोशिश कर रहा है. अगर दरवाज़ा
थोड़ा-सा खुलता, तो सुनाई देता कि वह टेलीफ़ोन पर कैसे बात कर रहा है:
“मुझे कोई फ़रक नहीं पड़ता...मैं कोई
पूर्वाग्रह नहीं रखता...ये भी अपने आप में मौलिक है – हम अंडरपैंट पहन कर दौड़ में
आए. मगर इण्डिया नहीं मानेगा...सभी के लिए एक जैसे सिलवाये – राजकुमार के लिए, पति के लिए, और
सामंत के लिए...बिल्कुल बढ़िया अंडरपैंट रंग में और फैशन में!...और आप कह रहे हैं, कि पतलून चाहिए.
मुझे कोई लेना-देना नहीं है! उन्हें फिर से बनाने दें. और आप उसे शैतानों के पास
भेज दें. कि वह झूठ बोल रहा है! पेत्या दीत्रिख ऐसी वेशभूषाओं की रूपरेखा नहीं बना
सकता! उसने पतलूनों के चित्र बनाए. रेखाचित्र मेरी मेज़ पर हैं! पेत्या परिष्कृत है
अथवा नहीं, वह खुद पतलून में
घूमता है! अनुभवी आदमी है! …”
दोपहर की गहमा-गहमी में, जब मैं अपने बालों
को पकड़े, कल्पना करने की
कोशिश कर रहा था, कि इस स्थिति को कैसे ठीक तरह से प्रदर्शित किया जाए, कि...आदमी गिर रहा
है...रिवॉल्वर गिरा देता है...खून बहता है या नहीं बहता?- ड्रेसिंग रूम में मामूली
कपड़े पहने हुए एक युवा अभिनेत्री ने प्रवेश किया और चहकी:
“नमस्ते, प्यारी, पलिक्सेना वसील्येव्ना! मैं आपके लिए फूल लाई हूँ!”
उसने पलिक्सेना को चूमा और काउंटर पर एस्टर
के चार पीले फूल रख दिए.
“क्या मेरे बारे में इंडिया से कुछ है तो
नहीं?”
पलिक्सेना ने जवाब दिया कि है, और उसने काउंटर से
फूला-सा लिफ़ाफ़ा निकाला.
ऐक्ट्रेस उत्तेजित हो गयी.
“विश्निकोवा से कहें,” तरपेत्स्काया ने
पढ़ा, कि मैंने क्सेन्या के पात्र की पहेली को सुलझा लिया है...”
“आह, अच्छा, अच्छा!” विश्निकोवा चीखी.
“मैं प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना के साथ गंगा
के किनारे पर था, और वहां मुझे इसका एहसास हुआ.
बात ये है, कि विश्निकोवा को बीच वाले दरवाज़े से बाहर नहीं निकलना चाहिए, बल्कि बगल वाले से, वहां, जहां पियानो है. वह
भूले नहीं कि उसने हाल ही में अपने पति को खोया है और वह किसी भी हालत में बीच
वाले दरवाज़े से निकलने की हिम्मत नहीं करेगी. वह मठवासियों जैसी चाल से चलती है, आंखें नीचे किये, हाथों में जंगली
डेज़ी के फूलों का गुलदस्ता पकड़े हुए, जो हर विधवा की विशेषता है...”
“माय गॉड! कितना सही है! कितनी गहराई से
सोचा है!” विश्निकोवा चीखी. “सही है! मुझे भी बीच वाले दरवाज़े में अटपटा लग रहा
था.”
“ठहरिये,” तरपेत्स्काया आगे बोली, “यहाँ और भी है,” और उसने आगे पढ़ा:
“मगर, विश्निकोवा जहां से चाहे, निकल सकती है! मैं आऊँगा, तब सब स्पष्ट हो जाएगा. मुझे गंगा अच्छी नहीं लगी, मेरे विचार से इस
नदी में किसी बात की कमी है...” मगर इसका आपसे ताल्लुक नहीं है,” पलिक्सेना ने
टिप्पणी की.
“पलिक्सेना वसील्येव्ना,” विश्निकोवा कहने
लगी, “अरिस्तार्ख
प्लतोनविच को लिखिए, कि मैं पागलपन की हद तक उनकी शुक्रगुज़ार हूँ!”
“अच्छा.”
“और क्या मैं खुद उन्हें नहीं लिख सकती?”
“नहीं,” पलिक्सेना ने जवाब दिया, _ “उन्होंने इच्छा प्रकट की है कि मेरे अलावा
उन्हें कोई और न लिखे. यह विचार प्रक्रिया के दौरान उन्हें थका देगा.”
“समझती हूँ, समझती हूँ!” विश्निकोवा चीखी
और तरपेत्स्काया को चूम कर, चली गई.
एक मोटा, अधेड़ आयु का, चुस्त व्यक्ति भीतर आया, और दमकते हुए, चहका:
“नया चुटकुला सुना? आह, आप लिख रही हैं?”
“कोई बात नहीं, हमारा मध्यांतर है,” तरपेत्स्काया ने कहा, और मोटा आदमी, ज़ाहिर है, चुटकुले से फूटते हुए, खुशी से दमकते हुए, तरपेत्स्काया की ओर झुका. साथ ही हाथों से आदमियों को बुला रहा था. चुटकुला
सुनने के लिए मीशा पानिन और पल्तरात्स्की और कोई और भी आया. सिर काउंटर के ऊपर
झुके. मैं सुन रहा था: “और इसी समय पति ड्राइंग रूम में लौटता है...” काउन्टर पर लोग हंसने लगे.
मोटा कुछ और
फुसफुसाया, जिसके बाद मीशा पानिन को हंसी का दौरा पड़ा “आह, आह, आह”.
पल्तरात्स्की चिल्लाया: “शानदार! “ और मोटा खुशी से ठहाके लगाने लगा और फ़ौरन
चिल्लाते हुए बाहर निकल गया:
“वास्या! वास्या!
ठहर! सुना? नया चुटकुला बेचूंगा!”
मगर वह वास्या को
चुटकुला नहीं बेच सका, क्योंकि उसे तरपेत्स्काया
ने वापस बुलाया.
पता चला कि
अरिस्तार्ख प्लतोनविच ने पूरी बात के बारे में लिखा था.
“येलागिन से कहिये,” तरपेत्स्काया पढ़ रही थी, “ कि सबसे ज़्यादा वह परिणाम खेलने से बचे, जिसकी तरफ वह हमेशा आकर्षित होता है.”
येलागिन का चेहरा
बदल गया और उसने पत्र में झांका.
“उससे कहिये, कि जनरल के यहाँ पार्टी में उसे फ़ौरन जनरल की
पत्नी स्वागत नहीं करना चाहिए, बल्कि पहले मेज़
का चक्कर लगाए, परेशानी से
मुस्कुराते हुए. उसकी वाइन डिस्टिलरी है, और वह किसी हाल में फ़ौरन ‘हैलो!’ नहीं कहेगा, बल्कि...”
“समझ नहीं पा रहा
हूँ!” येलागिन ने कहा, “माफ़ कीजिये,
नहीं समझ पा रहा,” येलागिन ने कमरे
का चक्कर लगाया, जैसे किसी चीज़ से बचना चाहता हो, “मैं यह बात महसूस नहीं कर सकता. मुझे असहज लगता है!...जनरल की पत्नी उसके
सामने है, और वह कहीं और जा
रहा है...महसूस नहीं करता!”
“क्या आप ये कहना
चाहते हैं, कि आप इस दृश्य
को अरिस्तार्ख प्लतोनविच से ज़्यादा अच्छी तरह समझते हैं?” बर्फ़ीली आवाज़ में तरपेत्स्काया ने पूछा.
इस सवाल ने
येलागिन को परेशान कर दिया.
“नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ...” वह लाल हो गया.
“मगर, आप खुद ही फैसला कीजिये...” और उसने फिर से कमरे का चक्कर लगाया.
“मैं सोचती हूँ, कि
अरिस्तार्ख प्लतोनविच के पैरों में झुकना चाहिए, कि वह इंडिया से...”
“ये क्या पैरों में, पैरों में लगा रखा है,” येलागिन अचानक बुदबुदाया.
“एह, वह बहादुर है,” मैंने सोचा.
“आप, बेहतर सुनिए कि अरिस्तार्ख प्लतोनविच आगे क्या
लिखते हैं,” और वह पढ़ने लगी:
“ मगर, खैर वह जैसा चाहे, करने दो. मैं वापस आऊँगा, और नाटक सब को स्पष्ट हो जाएगा.”
येलागिन खुश हो
गया और ये कारनामा किया. उसने एक कान के पास हाथ हिलाया, फिर दूसरे कान के पास, और मुझे ऐसा लगा कि मेरी आंखों के सामने, देखते-देखते उसके गलमुच्छे उग आये हैं. इसके
बाद उसका कद छोटा हो गया, उसने धृष्ठता से
नथुने फुलाए और दांत भींचकर, अपने काल्पनिक
गलमुच्छों से बाल उखाड़ते हुए, वह सब कुछ बोल
गया, जो पत्र में उसके
बारे में लिखा था.
“क्या एक्टर है!”
मैंने सोचा. मैं समझ गया कि वह अरिस्तार्ख प्लतोनविच की नक़ल कर रहा है.
तरपेत्स्काया के
चेहरे पर खून उतर आया, वह जोर-जोर से सांस लेने लगी.
“मैं आपसे विनती
करती हूँ!...”
“वैसे,” दांत भींचकर येलागिन ने कहा, उसने कंधे उचकाए, अपनी साधारण आवाज़ में कहा: “समझ नहीं पा रहा हूँ!” और बाहर निकल गया. मैंने
देखा कि उसने बरामदे में एक और घेरा बनाया, हैरानी से कंधे उचकाये और गायब हो गया.
“ओह, ये औसत दर्जे के इंसान!” पलिक्सेना कहने लगी, “इनके लिए कुछ भी पवित्र नहीं है. आपने सुना, कैसे बात करते है?
“हुम्,” मैंने
जवाब दिया, यह न जानते हुए
कि क्या कहूं, और ख़ास बात, मुझे समझ में नहीं आ रहाथा की “औसत” शब्द का
क्या मतलब है.
पहला दिन समाप्त
होते-होते यह स्पष्ट हो गया कि ड्रेसिंग रूम में नाटक नहीं लिखा जा सकता.
पलिक्सेना को दो
दिनों के लिए उसके ज़रूरी कर्तव्यों से मुक्त कर दिया गया, और मुझे उसके साथ एक महिला ड्रेसिंग रूम में
भेज दिया गया. दिम्यान कुज्मिच हांफते हुए, खींचकर वहां टाईप राइटर ले गया.
‘इण्डियन समर’ ने
हारकर गीली शरद ऋतु को स्थान दे दिया. खिड़की में धूसर प्रकाश आ रहा था. मैं सोफे
पर बैठा था, कांच की अलमारी
में परावर्तित होते हुए, और पलिक्सेना
स्टूल पर बैठी थी. मैं स्वयं को दुमंजिला महसूस कर रहा था. ऊपर की मंजिल पर
उथल-पुथल और बेतरतीबी थी, जिसे व्यवस्थित
करना था. नाटक के सशक्त पात्र मन में असाधारण परेशानी पैदा कर रहे थे. हरेक आवश्यक
शब्दों की मांग कर रहा था, औरों को धकेलते हुए हरेक पहला स्थान प्राप्त करना चाह
रहा था.
नाटक का सम्पादन
करना – बेहद थकाने वाला काम है. ऊपर वाली मंजिल दिमाग़ में शोर मचा रही थी और निचली
मंजिल का आनंद उठाने में बाधा डाल रही थी, जहां चिर शांति का साम्राज्य था. छोटे से ड्रेसिंग रूम की दीवारों से, जो मिठाई के डिब्बे जैसा था, कृत्रिम रूप से मुस्कुराते हुए, बेहद फूले-फूले
होठों, और आंखों के नीचे परछाईयों वाली
महिलाएं देख रही थीं. ये महिलाएं क्रिनोलिन या हुप्स
पहने हुए थीं. उनके बीच हाथों में टोपियाँ लिए, चमकते दांतों वाले पुरुषों की तस्वीरे चमक रही थीं. नशे में धुत एक मोटी
नाक होंठों तक लटक रही थी, गर्दन और गर्दन पर सिलवटें पड़ी थीं. जब तक पलिक्सेना ने
नहीं बताया, मैं उस तस्वीर में
येलागिन को नहीं पहचान पाया.
मैं फोटोग्राफ्स को देख रहा था, सोफ़े से उठकर छू रहा
था, बिना जले लैम्प, खाली पाउडर का
डिब्बा. किसी पेंट की मुश्किल से महसूस हो रही गंध और पलिक्सेना की सिगरेट की
खुशबू को सूंघा. यहाँ शान्ति थी, और इस शान्ति को सिर्फ टाईप राइटर की टक-टक और उसकी शांत घंटियाँ, और कभी कभी लकड़ी का
फर्श हौले से चरमराता.
खुले दरवाज़े से कभी कभी कलफ़दार स्कर्टों का
ढेर लिए जा रही कुछ मुरझाई हुईं, बुज़ुर्ग महिलाओं को, पंजों के बल चलते देखा जा सकता था.
कभी कभी इस कॉरीडोर की महान खामोशी को कहीं
से आते हुए संगीत के दबे दबे विस्फोट, और दूर से आती भयानक चीखें भंग कर देतीं. अब
मैं जान गया था कि पुराने कॉरीडोर्स, ढलानों और सीढ़ियों के जाल के पीछे स्टेज पर,
“स्तिपान राज़िन” नाटक की रिहर्सल चल रही थी.
हमने बारह बजे लिखना शुरू किया था, और दो
बजे अंतराल हुआ. पलिक्सेना अपने कमरे में चली गयी, ताकि अपना काम देख सके, और मैं चाय के बुफे पर गया.
वहां जाने के लिए मुझे कॉरीडोर छोड़ कर
सीढ़ियों पर निकलना था. वहां खामोशी की मोहकता पहले ही भंग हो चुकी थी. सीढ़ियों पर
अभिनेता और अभिनेत्रियाँ ऊपर आ रहे थे, सफ़ेद दरवाजों के पीछे टेलीफ़ोन बज रहा था, कहीं नीचे से दूसरा टेलिफ़ोन जवाब दे रहा था. नीचे अव्गुस्ता मिनाझ्राकी का
प्रशिक्षित कुरियर ड्यूटी पर था. फिर मध्ययुगीन लोहे का दरवाज़ा, उसके पीछे रहस्यमयी
सीढियां और ऊंचाई पर कोई असीमित, जैसा कि मुझे लगा, ईंटों की खाई, गंभीर, आधी अंधेरी. इस खाई में, उसकी दीवारों की तरफ़ झुकी हुई, कई पर्तों में सफ़ेद
सजावट थी. उनकी लकड़ी की फ्रेमों में काले रंग से लिखी हुईं रहस्यमय लिखावट
थी: “I
बाएं पीछे”, “ग्राफ ज़ास्पिन.”, “शयन कक्ष –
III अंक”. चौड़े, ऊंचे, समय के कारण काला पड़ गया द्वार, उस पर खुदा हुआ दरवाज़ा, भारी भरकम ताले के साथ दाईं ओर था, और मैं जान गया कि सीढियां स्टेज की तरफ़ जाती हैं. वैसा ही द्वार बाई, ओर था, और वे सीढियां आँगन
में ले जाती हैं, और इन द्वारों से सरायों के श्रमिक सजावट का सामान दे रहे थे, जो खाई में नहीं समा रहा था. मैं हमेशा खाई में
रुक जाता था, ताकि अकेले में सपने देख सकूं, और ऐसा करना आसान था, क्योंकि सजावटी सामान के बीच संकरे गलियारे में कोई इक्का दुक्का ही मुसाफिर
मिल जाता, जहां एक दूसरे से
बचने के लिए बगल में घूमना पड़ता था.
लोहे के दरवाज़े पर लगे स्प्रिंग-सिलिंडर ने
हल्की सी सांप जैसी सीटी के साथ हवा को सोखते हुए मुझे बाहर निकलने दिया. पैरों के
नीचे आवाजें गायब हो गईं, मैं कालीन पर आया, तांबे के सिंह के सिर से मैंने गव्रीला स्तिपानविच के कार्यालय के प्रवेश
द्वार को पहचाना और उसी सैनिकों वाले कपडे से होता हुआ उस ओर चला, जहां लोगों की झलक
दिखाई दे रही थी, आवाजें सुनाई दे रही थीं, - चाय के बुफे में.
पहली चीज़, जिस पर ध्यान आकर्षित होता था, वह था काऊंटर के पीछे अनेक बाल्टियों वाला चमचमाता समोवार, और उसके बाद एक
छोटे कद का आदमी, अधेड़, लटकती हुई मूंछों वाला, गंजा और इतनी उदास आंखों वाला, कि हरेक के मन में, जो उसका अभ्यस्त नहीं था, उसके प्रति दया और करुणा उत्पन्न हो जाती थी. दुःख से आहें भरते हुए दयनीय
आदमी काउंटर के पीछे खड़ा था और कीटो कैवियार और पनीर चीज़ के सैंडविचेस के ढेर की
तरफ़ देख रहा था. एक्टर्स बुफे की तरफ जाते, इस खाद्य पदार्थ को लेते, और तब बारमैन की
आंखें आंसुओं से भर जातीं. उसे उन पैसों से खुशी नहीं होती थी, जो लोग सैण्डविच के
लिए देते थे, न ही इस बात का एहसास कि वह राजधानी की सबसे बढ़िया जगह, स्वतन्त्र थियेटर
में खड़ा है . उसे किसी बात से खुशी नहीं हो रही थी, उसकी आत्मा, ज़ाहिर है, इस खयाल से दुखी थी, कि लोग प्लेट में पडी हर चीज़ खा लेंगे, बिना कुछ छोड़े, पूरा भीमकाय समोवार पी जायेंगे.
दो खिड़कियों से पनीली शरद ऋतु का प्रकाश आ
रहा था, साइड बोर्ड के पीछे, दीवार पर, त्युल्पान के शेड में लैम्प जल रहा था, जो कभी नहीं बुझता
था, कोने चिर धुंधलके
में डूबे रहते.
मैं छोटी छोटी मेजों के पीछे बैठे अजनबी
लोगों से झिझक रहा था, हाँलाकि उनके पास जाने का जी कर रहा था. मेजों के पीछे से दबी दबी हंसी
सुनाई दे रही थी, हर जगह कुछ न कुछ किस्से सुनाए जा रहे थे.
चाय का एक प्याला पीकर और चीज़ सैंडविच खाकर
मैं थियेटर की अन्य जगहों पर चल पडा. सबसे ज़्यादा मुझे वह जगह पसंद थी, जिसका नाम था ‘ऑफिस’.
ये जगह थियेटर की अन्य जगहों से काफ़ी अलग
थी, क्योंकि यही एक
शोरगुल वाली जगह थी, जहां, अगर कहें तो, रास्ते से जीवन घुल मिल गया था.
ऑफिस में दो हिस्से थे. पहले वाले तंग कमरे
में, जहां आँगन से इतनी
जटिल सीढियां पहुँचती थीं, कि थियेटर में पहली बार आने वाला हर व्यक्ति ज़रूर गिरता था. पहले वाले छोटे
कमरे में दो कुरियर बैठे थे, कत्कोव और बक्वालिन. उनके सामने छोटी सी मेज़ पर दो टेलीफ़ोन रखे थे. और ये
टेलिफ़ोन लगभग हर समय, बिना खामोश हुए, बज रहे थे.
मैं बहुत जल्दी समझ गया, कि फोन पर एक ही
आदमी को बुलाया जा रहा है जो बगल में सटे हुए कमरे में बैठा है, जिसके दरवाजों पर
इबारत लटकी हुई थी:
आतंरिक मामलों के
प्रमुख
फिलिप फिलिपविच
तुलुम्बासव
पूरे मॉस्को में तुलुम्बासव से ज़्यादा
लोकप्रिय व्यक्ति कोई और व्यक्ति नहीं था, और, शायद, कभी भी नहीं होगा.
मुझे ऐसा लगा कि पूरा शहर, टेलिफोनों के माध्यम से तुलुम्बासव पर टूटा पड़ रहा था, और कभी कत्कोव, तो कभी बक्वालिन
फिलिप फिलिपविच से बात करने के इच्छुक लोगों का उनसे संपर्क करवा रहे थे.
क्या मुझसे किसी ने कहा था, या मुझे सपना आया था, कि जैसे जूलियस सीज़र
एक ही समय में कई विभिन्न प्रकार के काम करने की क्षमता रखता था, जैसे, कुछ पढ़ता, और किसी की बात
सुनता. यहाँ, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि यदि जूलियस सीज़र को फिलिप फिलिपविच की जगह
पर बिठा दिया जाता, तो वह अत्यंत दयनीय ढंग से परेशान हो जाता.
इन दो टेलीफोनों के अलावा, जो बक्वालिन और कत्कोव के हाथों के निकट गरज रहे
हैं, खुद फिलिप फिलिपविच
के सामने दो टेलीफोन थे. और एक पुराने स्टाईल का, दीवार पर लटक रहा था.
फिलिप फिलिपविच, बेहद गोरा, प्यारे से गोल चहरे वाला, असाधारण रूप से जीवंत आंखों वाला, जिनके भीतर किसी को भी न दिखाई देने वाली उदासी थी, छुपी हुई, शायद, शाश्वत, लाइलाज, एक कटघरे के पीछे, एक बेहद आरामदेह
कोने में बैठा था. बाहर आँगन में चाहे दिन हो या रात, फिलिप फिलिपविच के पास हमेशा शाम रहती थी, हरे शेड के नीचे जल रहे लैम्प के साथ. फिलिप फिलिपविच की लिखने की मेज़ पर
चार कैलेंडर्स थे, रहस्यमय लिखाई से खचाखच भरे हुए, जैसे: “प्र्यान. 2, पार्त. 4”, “13 सुबह. 2”, “मोन. 77727” और इसी तरह से.
वैसे ही प्रतीकों
से मेज़ पर पांच खुली हुई नोटबुक्स चिह्नित थीं. फिलिप फिलिपविच के ऊपर एक भरवां
भूरा भालू था, जिसकी आंखों में
इलेक्ट्रिक बल्ब फ़िट किये गए थे. फिलिप फिलिपविच कटघरे से बाहरी दुनिया से
सुरक्षित था, और दिन के किसी
भी समय इस कटघरे पर विभिन्न प्रकार की वेशभूषाओं में लोग पेट के बल लटके रहते थे.
यहाँ, फिलिप फिलिपविच
के सामने से पूरा देश गुज़रता था, यह दावे के साथ
कहा जा सकता है; यहाँ उसके सामने
थे सभी वर्गों के, गुटों के, स्तरों के, विश्वासों के, लिंगों के, आयु के प्रतिनिधि
होते थे. कुछ मामूली कपड़े, घिसीपिटी टोपियाँ पहनीं महिलाओं के स्थान पर अलग-अलग
रंग के बटनहोल वाले सैनिक आ जाते. सैनिक बीवर कॉलर वाले, और कडक स्टार्च की गई
कॉलर वाले अच्छे कपड़े पहने मर्दों को जगह देते. स्टार्च की हुई कॉलरों के बीच कभी
तिरछी कॉलर वाला सूती कसावरोत्का भी दिखाई दे जाता. उद्दाम लटों पर टोपी. शानदार
महिला महंगे फ़र का शॉल कंधों पर डाले हुए. कानों वाली टोपी, काली आंख. नाक पर
पाउडर लगाए एक किशोरी. दलदली जूतों में एक आदमी, लम्बे कोट पर बेल्ट बांधे एक आदमी. एक और फ़ौजी, एक डायमंड वाला. कोई एक सफ़ाचट दाढ़ी वाला, सिर
पर बैंडेज बांधे. थरथराते जबड़े वाली एक बुढ़िया, मृतप्राय आंखों वाली और न जाने
क्यों अपनी साथी से फ्रेंच में बात करती हुई, और उसकी साथी मर्दाने गलोशों(रबड़ के ऊपरी जूते – अनु.) में. भेड़ की
खाल का कोट.
वे जो कटघरे पर
पेट के बल नहीं लेट सकते थे, पीछे भीड़ बनाए
खड़े थे, कभी कभार मुडी
हुई चिटें ऊपर उठाते हुए, कभी डरते हुए
चिल्लाते: “फ़िलिप फ़िलिपविच!”
कभी-कभी कटघरे को
घेरी हुई भीड़ में बिना ऊपरी पोषाक में, सिर्फ ब्लाऊज या
जैकेट पहने पुरुष और महिलाएं घुस जातीं, और मैं समझ जाता कि ये ‘स्वतन्त्र थियेटर के अभिनेता और अभिनेत्रियाँ हैं.
मगर चाहे जो भी
कटघरे के पास जाता, इक्का दुक्का
अपवाद को छोड़कर, सभी के मुख पर
चापलूसी का भाव था, वे
कृतघ्नातापूर्वक मुस्कुराते. सभी आगंतुक फिलिप फिलिपविच से पूछते, सभी उसके उत्तर पर निर्भर रहते.
तीन टेलीफोन
निरंतर बज रहे थे, बिना खामोश हुए,
और कभी कभी तो एकदम तीनों गरजते हुए कार्यालय को बहरा कर देते. फिलिप फिलिपविच को
इससे ज़रा भी परेशानी नहीं हो रही थी.
दायें हाथ से वह
दाईं और के टेलिफ़ोन का रिसीवर उठाता, उसे कंधे पर रखता और गाल से चिपका लेता, बाएं हाथ में दूसरा रिसीवर उठाता और उसे बाएं
कान से सटा लेता, और दायें हाथ को
मुक्त करके, उससे उसकी तरफ दिए
जा रहे पुर्जे को लेता, तीनों टेलिफ़ोनों
से एक साथ बात करना शुरू करता – बाएँ, दायें टेलीफोन
में, फिर आगंतुक से, फिर दुबारा बाएँ टेलीफोन पर, दाएं पर, आगंतुक से. दायें, आगंतुक से, बाएँ, बाएँ, दाएं, बाएँ.
फ़ौरन दोनों फ़ोनोँ
को लीवर्स पर गिरा देता, और चूंकि दोनों हाथ खाली हो गए थे, दो पुर्जे ले लिए. उनमें से एक को अस्वीकार
करके उसने पीले टेलिफ़ोन का रिसीवर उठाया, पल भर के लिए सु ना, कहा, “कल तीन बजे फ़ोन कीजिये”, रिसीवर लटका दिया और
आगंतुक से कहा: “कुछ नहीं कर सकता”.
थोड़ी देर में मैं
समझने लगा, कि लोग फिलिप
फिलिपविच से क्या मांग रहे थे. वे उससे टिकट मांग रहे थे.
उससे अलग-अलग तरह
से टिकट मांग रहे थे. कुछ लोग ऐसे थे, जो कह रहे थे कि
इर्कुत्स्क से आये हैं और उन्हें रात को ही जाना है, मगर ‘दरिद्री दुल्हन’ देखे बिना नहीं
जा सकते. कोई एक आदमी कह रहा था, की वह याल्टा का
टूरिस्ट गाईड है. किसी डेलिगेशन का प्रतिनिधि. कोई, जो टूरिस्ट गाईड नहीं है, और न ही साइबेरिया का है, और न ही कहीं जा रहा है, बल्कि सिर्फ कहता है, “पेतुखोव, याद है?” अभिनेता और अभिनेत्रियाँ कह रहे थे, “फिल्या, अरे फिल्या, इंतज़ाम कर दो...” कोइ कह रहा था : “किसी भी
कीमत पर, कीमत की मुझे
परवाह नहीं...”
“इवान वसिल्येविच
को अठ्ठाईस साल से जानते हुए,” अचानक एक बुढ़िया बुदबुदाई, जिसकी टोपी पर दीमक ने एक छेद बना दिया था, - “मुझे यकीन है की वह मुझे इनकार नहीं
करेगा...”
“खड़ा होने दूंगा,”
फिलिप फिलिपविच ने अचानक कहा और, भौंचक्की रह गयी
बुढ़िया के आगे कुछ कहने से पहले, उसकी ओर कागज़ का
एक टुकड़ा बढ़ा दिया.
“हम आठ लोग हैं,” एक हट्टे कट्टे आदमी ने कहना शुरू किया, और फिर से उसके आगे के शब्द मुँह में ही रह गए, क्योंकि फ़िल्या ने पहले ही कह दिया:
“आपको फ्री
टिकट्स!” और उसकी तरफ़ कागज़ बढ़ा दिया.
“ मैं अर्नाल्द
अर्नाल्दविच की ओर से आया हूँ,” एक नौजवान कहने
लगा, जो शानो शौकत का
दिखावा करते कपड़े पहने था. ‘खड़ा होने दूंगा,’ मैंने ख़यालों में कहा और अंदाज़ा नहीं लगाया.
“कुछ नहीं कर सकता,” फ़िल्या ने, सिर्फ एक सरसरी नज़र नौजवान के
चेहरे पर डालकर अकस्मात् जवाब दिया.
“मगर अर्नाल्द
...”
“नहीं कर सकता!”
और नौजवान ऐसे
ग़ायब हो गया, मानो धरती
में समा गया हो.
“मैं बीबी के
साथ...” एक मोटा नागरिक कहने लगा.
“कल के लिए?”
फ़िल्या ने अचानक और जल्दी जल्दी पूछा.
“जी, सुन रहा हूँ.”
“कैश काउंटर पर!”
फ़िल्या चहका, और मोटा आगे खिंच
गया, हाथों में कागज़
का टुकड़ा पकड़े और फ़िल्या इस समय टेलिफ़ोन पर चिल्ला रहा था:
“नहीं! कल!” और
साथ ही बाईँ आंख से दिए गए कागज़ को पढ़ रहा था.
समय के साथ मैं
समझ गया की वह लोगों की वेशभूषा से प्रभावित नहीं होता था
और, बेशक उनके चीकट
कागज़ों से. साधारण, और, गरीबों जैसे कपड़े
पहने हुए लोग भी थे, जिन्हें, मेरे लिए भी अप्रत्याशित रूप से चौथी पंक्ति में दो मुफ़्त के टिकट मिल जाते, और बढ़िया कपड़े पहने
हुए लोग भी थे, जो खाली हाथ लौट जाते. लोग विशाल, अस्त्राखान से, येव्पतोरिया से, वलोग्दा से, लेनिनग्राद से ख़ूबसूरत
जनादेश लेकर आते, और या तो उनका कोई असर न होता, या सिर्फ पांच दिन बाद सुबह ही वे प्रभावशाली हो सकते थे, मगर कभी बेहद विनम्र
और शांत लोग आते और लगभग कुछ भी न कहते, बल्कि कठघरे से हाथ बढ़ा देते और फ़ौरन सीट प्राप्त कर लेते.
समझदार होने के बाद, मैं समझ गया, कि मेरे सामने ऐसा
इंसान है, जो लोगों को पूरी
तरह जानता है. ये समझने के बाद, मुझे दिल के नीचे उत्तेजना और ठंडक का एहसास हुआ. हाँ, मेरे सामने सबसे
महान, दिलों को जानने वाला व्यक्ति था. वह लोगों को उनके दिलों की गहराई तक जानता
था. वह उनकी गुप्त इच्छाएं भांप लेता था, उसे उनके जुनून का, उनकी बुराईयों का ज्ञान था, सब जानता था, कि उनके भीतर क्या छुपा है, साथ ही, उनकी अच्छाईयों से भी वाकिफ़ था. और सबसे महत्वपूर्ण बात, वह उनके अधिकार भी
जानता था. वह जानता था, कि किसे, कब थियेटर में आना चाहिए, किसे चौथी पंक्ति में बैठने का अधिकार है, और किसे निचली में सड़ना पडेगा, सीढ़ी पर बैठकर इस भ्रमपूर्ण आशा में कि किसी जादुई ढंग से उसके लिए अचानक
कोई जगह खाली हो जायेगी.
मैं समझ गया कि फ़िलिप फ़िलीपविच का स्कूल
सबसे महान स्कूल था.
और, वह लोगों को कैसे नहीं जानेगा, जब उसके सामने से, उसके सेवाकाल के पंद्रह वर्षों में दसियों हज़ार लोग गुज़र
चुके थे. उनमें थे इंजीनियर्स, सर्जन, कलाकार, महिला-आयोजक, गबन करने वाले, गृहिणियाँ, मशीनिस्ट, मोजो-सप्रानो गायक, रियल इस्टेट डेवलपर्स, गिटारिस्ट्स, जेब कतरे, डेन्टिस्ट्स, अग्निशामक, बिना किसी विशिष्ट व्यवसाय वाली लड़कियाँ,
फोटोग्राफर्स, प्लानर्स, पायलेट्स, पुश्किनवादी, सामूहिक फार्मों के अध्यक्ष, गुप्त छिछोरी लड़कियाँ, क्रॉस-कंट्री राइडर्स, फिटर्स, डिपार्टमेंटल स्टोर्स
की सेल्स गर्ल्स, विद्यार्थी, हेयरड्रेसर्स, डिज़ाइनर्स, गीतकार, अपराधी,
प्रोफेसर्स, भूतपूर्व मकान मालिक, पेंशनर्स, गाँवों के शिक्षक, वाईन निर्माता, वायलिन वादक, तलाकशुदा पत्नियाँ, कैफे प्रबंधक, पोकर खिलाड़ी, होमियोपैथ, संगत करने वाले, ग्राफोमैनियाक्स, कन्ज़र्वेटरी के टिकट कंट्रोलर्स, रसायनज्ञ, आयोजक, एथलीट्स, शतरंज के खिलाड़ी, प्रयोगशाला सहायक, बदमाश, अकाऊंटेंट्स, मनोरुग्ण, भोजन चखने वाले, मैनीक्यूरिस्ट, अकाउंटेंट्स, भूतपूर्व पादरी, सट्टेबाज, फोटोग्राफ़िक
टेक्नीशियन्स.
फ़िलिप फ़िलीपविच को कागज़ात की क्या ज़रुरत थी?
सामने प्रकट हुए आदमी की एक ही नज़र और पहले
ही शब्द काफी थे यह जानने के लिए, कि वह किस चीज़ का हकदार है, और फ़िलिप फिलिपविच जवाब देता, और ये जवाब हमेशा
अचूक होते.
“मैंने,” – परेशान होते हुए एक महिला ने
कहा, कल “डॉन कार्लोस” के
दो टिकट खरीदे, उन्हें पर्स में रखा, घर पहुँची...”
मगर
फिलिप फिलिपविच ने पहले ही घंटी बजा दी और, महिला की तरफ़ दुबारा न देखते हुए बोला:
“बक्वालिन! दो टिकट खो गए हैं...कौन सी
पंक्ति?”
“ग्यारहवीं...”
“ग्यारहवीं पंक्ति में. भीतर जाने दिया
जाए. बिठाया जाए... जांच करें!”
“जी, सुन रहा हूँ!”
बक्वालिन भौंका, और महिला गायब हो गयी, और कोई और कटघरे पर झुक रहा था, भर्रा रहा था, कि वह कल जा रहा है.
“ऐसा नहीं करना चाहिए!” महिला ने
गुस्से से ज़ोर देकर कहा, और उसकी आंखें चमकने लगीं. “वह सोलह साल का हो गया है! ये देखने की ज़रुरत
नहीं है, कि वह ‘शॉर्ट्स’ में है...”
“हम ये नहीं देखते, महोदया, कि किसने कैसी पतलून पहनी है,” फ़िल्या ने धातुई आवाज़ में जवाब दिया, “क़ानून के अनुसार पंद्रह वर्ष तक के बच्चों को इजाज़त नहीं है. यहाँ बैठो, अभी,” इस समय वह सफाचट
दाढी वाले अभिनेता के साथ घनिष्ठता से बात कर रहा था.
“माफ़ कीजिये,” लफड़ेबाज़ महिला चिल्लाई, “और यहीं बगल से, लंबे बेलबॉटम पहने तीन छोटे
बच्चों को अंदर छोड़ रहे हैं. मैं शिकायत करूंगी!”
“ये छोटे बच्चे, मैडम,” फ़िल्या ने जवाब दिया,” कस्त्रोमा के लिलिपुट थे.
एकदम सन्नाटा छा गया. महिला की आंखें बुझ गईं, तब फ़िल्या दांत निकालकर इस तरह मुस्कुराया, कि महिला काँप उठी. कठघरे के पास एक दूसरे को कुचल रहे लोग, दुर्भावना से खी-खी
कर रहे थे.
विवर्ण चहरे वाला अभिनेता, पीड़ित, धुंधली आंखों से, अचानक कठघरे के किनारे पर गिर गया, वह फुसफुसा रहा था:
“भयानक माइग्रेन...”
फ़िल्या ने आश्चर्यचकित हुए बिना, मुड़े बिना, हाथ पीछे बढाया, दीवार पर बनी छोटी अलमारी खोल दी, टटोलते हुए एक छोटा डिब्बा उठाया, उसमें से एक छोटा पैकेट निकाला, पीड़ित व्यक्ति की ओर बढाया, कहा:
“पानी के साथ ले लो...हाँ, आपकी बात सुन रहा हूँ, नागरिक.”
महिला की आंखों में आंसू निकल आये, टोपी कान पर खिसक गयी. महिला का दर्द महान था. उसने गंदे रूमाल में नाक
छिनकी. पता चला, कि कल, उसी “डॉन कार्लोस” से, घर आई, और पर्स तो नहीं था. पर्स में एक सौ पचाहत्तर रूबल्स, पाउडर का डिब्बा, और रूमाल था.
“बहुत बुरी बात है, नागरिक,” फ़िल्या ने गंभीरता से कहा, “पैसे बैंक में रखना चाहिए, न की पर्स में.”
महिला ने आंखें फाड़कर फ़िल्या की तरफ़ देखा, उसे उम्मीद नहीं थी, की उसके दुःख के
प्रति इतनी लापरवाही से पेश आयेंगे.
मगर फ़िल्या ने फ़ौरन खड़खड़ाते हुए मेज़ की दराज़ खोली और एक पल बाद मुड़ा-तुड़ा
पर्स, पीली धातुई पट्टी के साथ महिला के हाथों में था. उसने कृतज्ञता के शब्द कहे.
“मृतक आ पहुंचा है, फ़िलिप फ़िलीपविच,” बक्वालिन ने बताया.
उसी समय लैम्प बुझ गया, खड़खड़ाते हुए दराज़ें बंद हो गईं, फौरन ओवरकोट बदन पर डालकर, फिल्या भीड़ के
बीच से लपका और बाहर निकल गया. मंत्रमुग्ध सा मैं उसके पीछे तैर गया. सीढ़ी के मोड़
पर दीवार से सिर टकराकर, वह आँगन में आया. कार्यालय के दरवाजों के पास एक ट्रक खडा
था, लाल फीते से लिपटा
हुआ, और ट्रक में लेटा था, शरद के आकाश को बंद आंखों से देखता हुआ, एक अग्निशामक. उसके पैरों के पास हेल्मेट चमक रहा था, और सिर के पास
देवदार की शाखाएं पड़ी थीं. फ़िल्या, बिना टोपी के, गंभीर चेहरे के साथ, ट्रक के पास खडा था, और कुस्कोव, बक्वालिन और क्ल्यूकव को चुपचाप कुछ हिदायतें दे रहा था.
ट्रक ने हॉर्न बजाया और रास्ते पर निकल आया. वहीं, थियेटर के
प्रवेशद्वार से तुरही की तीक्ष्ण आवाजें सुनाई दीं. लोग अलसाए हुए आश्चर्य से ठहर
गए, ट्रक भी रुक गया.
थियेटर के प्रवेशद्वार के पास डाइरेक्टर की छड़ी हिलाता, ओवरकोट में एक दाढ़ीवाला दिखाई दिया. छड़ी के आदेशों का पालन करते हुए कई
चमचमाती तुरहियों ने तेज़ आवाज़ से रास्ते को भर दिया. फिर आवाज़ें उसी तरह अचानक रुक
गईं, जैसे वे आरंभ हुई
थीं, और सुनहरी तुरहियाँ और भूरी दाढ़ी प्रवेशद्वार में छुप गयी. कुस्कोव उछल कर
ट्रक में चढ़ गया, तीन अग्निशामक ताबूत के कोनों पर खड़े हो गए, ट्रक कब्रिस्तान चला गया, और फ़िल्या कार्यालय में लौट आया.
विशालतम शहर स्पंदित हो रहा है, और उसमें चारों ओर लहरें – उठती हैं और
गिरती हैं. कभी कभी बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के फ़िल्या के मुलाकातियों की लहर
कमज़ोर पड़ जाती, और फ़िल्या कुर्सी पर पीछे झुककर बैठ जाता, किसी किसी के साथ मज़ाक कर लेता, ढीला पड़ जाता.
“और उन्होंने मुझे आपके पास भेजा है,” किसी अन्य थियेटर का एक्टर बोला.
“चुन कर भेजा है, - लफड़ेबाज़ को,” फ़िल्या ने सिर्फ गालों से हँसते हुए जवाब दिया ( फ़िल्या की
आंखें कभी भी मुस्कुराती नहीं थी).
फ़िल्या के दरवाज़े में कन्धों पर काली-भूरी लोमड़ी की खाल वाले, बढ़िया ढंग से
सिले ओवरकोट में, एक बहुत ख़ूबसूरत महिला ने प्रवेश लिया. फ़िल्या प्यार से मुस्कुराया और
चीखा:
“गुड़ मॉर्निंग, मिस!”
जवाब में महिला खुशी से मुस्कुराई. महिला के पीछे पीछे आराम से चलते हुए, नाविकों की टोपी में
एक सात साल का बच्चा आया, असाधारण रूप से धृष्ठ, सोया-चॉकलेट से सना हुआ और आंख के नीचे तीन नाखूनों
के निशान वाला. बच्चा थोड़ी थोड़ी देर बाद हिचकियाँ ले रहा था. बच्चे के पीछे एक
मोटी और परेशान महिला भीतर आई.
“ओफ्फ, अल्योशा!” वह जर्मन लहज़े में चहकी.
“अमालिया इवान्ना!” छोटे ने चुपके से अमालिया इवानव्ना को मुट्ठी दिखाते हुए
धीरे से और धमकी भरे स्वर में कहा.
“ओफ्फ़, अल्योश!” अमालिया इवानव्ना ने धीमे से कहा.
“ओह, बढ़िया!” छोटे की ओर
हाथ बढ़ाते हुए फ़िल्या चहका. वह, हिचकी लेकर, झुका और पाँव घसीट दिया.
“ओफ्फ़, अल्योश!” अमालिया इवानव्ना फुसफुसाई.
“ये तुम्हारी आँख के नीचे क्या है?” फ़िल्या ने पूछा.
“मैंने,” हिचकियां लेते हुए, सिर लटकाकर बच्चा फुसफुसाया, “जॉर्ज के साथ झगड़ा किया था...”
“ओफ्फ़, अल्योशा,” सिर्फ होठों से और पूरी तरह यंत्रवत् अमालिया इवानव्ना फुसफुसाई.
“अफ़सोस की बात है!” फ़िल्या गरजा और उसने मेज़ से
एक छोटी सी चॉकलेट निकाली.
धुंधली हुई बच्चे की आंखों में चॉकलेट से एक मिनट के लिए चमक आई, उसने चॉकलेट ले ली.
“अल्योशा, आज तूने चौदह खाई हैं,” अमालिया इवानव्ना सकुचाते हुए फुसफुसाई.
“झूठ मत बोलो, अमालिया इवानव्ना,” ये सोचते हुए की वह धीमी आवाज़ में बोल रहा है, बच्चा गूंज उठा.
“ओफ्फ़, अल्योशा!...”
“फ़िल्या, आप मुझे बिल्कुल भूल गए हैं, शैतान!” महिला हौले से चहकी.
“नहीं, मैडम, ये नामुमकिन है, मगर काम के मारे!”
महिला बुदबुदाते हुए हंसी, फिल्या के हाथ पर दस्ताना मारा.
“पता है,” महिला ने जोश में कहा, “मेरी दार्या ने आज पाईज़ बनाई हैं, डिनर के लिए आना. आँ?”
“खुशी से!” फ़िल्या चहका और उसने महिला के सम्मान में भालू की आखें जला दीं.
“तुमने मुझे कितना डरा दिया, शैतान फिल्या!” महिला चहकी.
“अल्योशा! देख, कैसा भालू है,” अमालिया इवानव्ना कृत्रिम ढंग से अचरज प्रकट करने लगी, “जैसे ज़िंदा हो!”
“छोडिये,” बच्चा चीखा और छिटक कर काउंटर की तरफ़ भागा.
“ओफ्फ़, अल्योशा...”
“अपने साथ अर्गूनिन को लेते आना,” महिला उत्साह से चहकी.
“वह शो में अभिनय कर रहा है!”
“शो के बाद आ जाए,” महिला ने अमालिया इवानव्ना की तरफ़ पीठ फ़ेरते हुए कहा.
“मैं उसे ले आऊँगा.”
“ठीक है, प्यारे, ये अच्छा है. हाँ, फिलेन्का, तुमसे एक प्रार्थना है. क्या एक बूढ़ी महिला को “डॉन कार्लोस” में कहीं बिठा
सकते हो? आँ? कम से कम किसी कतार
में? आँ, सोनू?”
“टेलर? सब समझने वाली नज़रों से महिला की ओर देखते हुए फ़िल्या ने पूछा.
“कितने घिनौने हो तुम!” महिला चहकी. “टेलर ही क्यों? वह प्रोफ़ेसर की
विधवा है और अब...”
“अंतर्वस्त्र सीती है,” अपनी नोटबुक में लिखते हुए फ़िल्या ने मानो सपने में
कहा:
“बेलाश्वेय. मी. किनारे पर, कतार. 13 तारीख.”
“आपने कैसे भांप लिया!” खुश होते हुए महिला चहकी.
“फ़िलिप फिलिपविच, आपके लिए डाइरेक्टरेट में टेलीफ़ोन है,” बक्वालिन भौंका.
“तब तक मैं अपने शौहर को फ़ोन कर लेती हूँ,” महिला ने कहा. फिल्या उछल कर कमरे से बाहर गया, और महिला ने रिसीवर उठाया, नंबर घुमाया.
“मैनेजर का ऑफिस. तो, कैसे हो? और आज मैंने अपने यहाँ फ़िल्या को बुलाया है ‘पाई’ खाने के लिए. ओह, कोई बात नहीं. तुम
एक घंटा सो जाओ. हाँ, और अर्गूनिन ने भी विनती की है...खैर, मुझे अटपटा लगता...खैर, अलविदा, प्यारे. और ये तुम्हारी आवाज़ कुछ परेशान-सी क्यों है? अच्छा, चूमती हूँ.”
मैं ऑइलक्लोथ वाले सोफ़े की पीठ से टीककर बैठा था, और आंखें बंद करके सपने देख रहा था. “ओह, कैसी दुनिया है...आनंद की, चैन की दुनिया...” मैंने इस अज्ञात महिला के
क्वार्टर की कल्पना की. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगा, कि ये एक बहुत बड़ा क्वार्टर है, कि विशाल सफ़ेद बरामदे में दीवार पर सुनहरी फ़्रेम में तस्वीर टंगी है, कि कमरों में फ़र्श
चमचमा रहा है. कि बीच वाले कमरे में पियानो है, कि विशाल काली...
मेरी कल्पना को अचानक हल्की सी कराह और पेट की गुड़गुड़ाहट ने भंग कर दिया.
मैंने आंखें खोलीं.
छोटा बच्चा, मुर्दों जैसा सफ़ेद पड़ गया था, उसने आंखें माथे पर चढ़ा ली, सोफ़े पर बैठा था, फर्श पर पैर फैलाए. महिला और अमालिया इवानव्ना उसकी ओर लपकीं. महिला का
चेहरा विवर्ण हो गया.
“अल्योशा!” महिला चीखी, “तुझे क्या हुआ है?!”
“ओफ्फ़, अल्योशा! तुझे क्या हुआ है?!” अमालिया इवानव्ना भी चीखी.
“सिर दर्द कर रहा है,” क्षीण, थरथराती आवाज़ में बच्चे ने जवाब दिया, और उसकी टोपी आंख पर फिसल गई. उसने अचानक गाल फुलाए, तथा और भी ज़्यादा
विवर्ण हो गया.
“ओह, गॉड!” महिला चीखी.
कुछ मिनटों बाद आँगन में एक खुली टैक्सी उड़ती हुई आई, जिसमें खड़े होकर, बक्वालिन उड़ा जा रहा
था.
रूमाल से छोटे बच्चे का मुंह पोंछकर, हाथों से सहारा देते हुए उसे कार्यालय से ले गए.
ओ, कार्यालय की
आश्चर्यजनक दुनिया! फ़िल्या! अलबिदा! जल्दी ही मैं नहीं रहूँगा. तब आप भी मुझे याद
करना.