लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

Master aur Margarita-07.2


मास्तर और मार्गारीटा 07.2
स्त्योपा पलंग पर बैठ गया. जितनी फाड़ सकता था, उतनी अपनी खून जैसी लाल आँखें फाड़-फाड़कर उसने अजनबी को देखा.
अपनी मोटी भारी आवाज़ में, विदेशियों जैसे लहज़े से यह कहकर ख़ामोशी को अजनबी ने ही तोड़ा, शुभ दिन, परम प्रिय स्तेपान बोग्दानोविच!
कुछ रुककर भयंकर कोशिश के बाद स्त्योपा बोल पाया, आपको क्या चाहिए? और स्वयँ की अपनी आवाज़ न पहचान कर सकते में आ गया. उसने क्या तारसप्तक में, आपको मन्द सप्तक में कहा, जबकि चाहिए उसके मुख से निकल ही नहीं सका.
अजनबी दोस्ताना अन्दाज़ में हँसा. उसने हीरे की तिकोनी फ्रेम वाली सोने की घड़ी निकालकर ग्यारह बार बजाई और बोला, ग्यारह! ठीक एक घण्टे से मैं आपके उठने का इंतज़ार कर रहा हूँ, क्योंकि आपने मुझे दस बजे यहाँ आने के लिए कहा था. लीजिए, मैं आ गया!
स्त्योपा ने पलंग के पास तिपाई पर पड़ी अपनी पैंट को टटोला और फुसफुसाया, माफ़ कीजिए... जल्दी से पैंट पहनकर भर्राई हुई आवाज़ में बोला, कृपया अपना नाम बताइए?
उसे बोलने में बहुत कष्ट हो रहा था. प्रत्येक शब्द के साथ मानो दिमाग में कोई एक सुई चुभो रहा था, जिसके कारण उसे नारकीय यातनाएँ हो रही थीं.
 क्या? आप मेरा नाम भी भूल गए? और अजनबी हँस पड़ा.
 माफ़ कीजिए... स्त्योपा भर्राया. वह महसूस कर रहा था कि यह बोझिलपन उसे एक नया लक्षण उपहार में देने वाला है : उसे लगा, मानो पलंग के पास का फर्श कहीं ग़ायब हो गया है, और इसी क्षण वह सर के बल उड़कर शैतान की ख़ाला के पास पाताल पहुँच जाएगा.
 प्रिय स्तेपान बोग्दानोविच, मेहमान भेदक मुस्कुराहट के साथ बोला, किसी गोली-वोली से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला. पुरानी कहावत को याद कीजिए जैसे को तैसा. सिर्फ एक ही चीज़ आपको जीवन तक वापस ला सकती है और वह है वोद्का के दो पैग और तीखा, चटपटा नाश्ता.
स्त्योपा चालाक था और बीमार होने के बावजूद वह स्पष्ट समझ रहा था कि जब उसे इस हालत में पकड़ लिया गया है तो उसे सब कुछ साफ़-साफ़ कबूल कर लेना चाहिए.
 साफ़-साफ़ कहूँ तो, उसने ज़ुबान की थोड़ी-थोड़ी हलचल करते हुए कहना शुरू किया, कल मैं थोड़ी-सी...
 बस, आगे एक भी शब्द नहीं! मेहमान ने कहा और कुर्सी के साथ एक ओर को सरक गया.
स्त्योपा ने आँखें फाड़-फाड़कर देखा कि छोटी-सी टेबुल पर एक ट्रे रखी जा चुकी है, उसमें कटी हुई सफ़ेद डबल रोटी के टुकड़े, कटोरी में दबे हुए कैवियर, तश्तरी में मशरूम का अचार, बन्द डोंगे में कोई चीज़ और जवाहिरे की बीबी की बड़ी काँच की सुराही में वोद्का. स्त्योपा को इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ कि काँच की इस सुराही की ऊपरी सतह पर ठण्डक के कारण पानी की बूँदें जम रही थीं. मगर इसका कारण स्पष्ट था सुराही बर्फ की तश्तरी में रखी थी.
अजनबी ने स्त्योपा के आश्चर्य को दिमागी बीमारी की हद तक बढ़ने नहीं दिया और फुर्ती से आधा पैग वोद्का उसके आगे बढ़ा दी.
 और आप? स्त्योपा ने पूछा.
 शौक से!
उछलते हुए हाथ से स्त्योपा ने प्याला होठों से लगाया और अजनबी एक ही घूँट में अपना पैग पी गया. कैवियर का ज़ायका लेते हुए स्त्योपा ने बड़ी कठिनाई से अपने मुख से शब्द निकाले, आप...क्या...खाएँगे...?
 माफ़ कीजिए, मैं कभी भी कुछ भी नहीं खाता, अजनबी बोला और उसने दूसरा पैग ढाला. ढँका हुआ बर्तन खोलते ही उसमें टमाटर सॉस में लिपटे सॉसेज नज़र आए.
 आँखों के सामने की वह शापित हरियाली पिघलने लगी, बोलने लगी, और खास बात यह हुई कि स्त्योपा को सब कुछ याद आ गया. यह, कि कल यह बात स्खोद्न्या में हुई थी, स्केच-चित्रकार खुस्तोव के दाचा में, जहाँ यही खुस्तोव टैक्सी में बैठाकर स्त्योपा को ले गया था. याद आया कि कैसे मेट्रोपोल के पास उन्होंने यह टैक्सी तय की थी, तब वहाँ कोई अभिनेता, नहीं, अभिनेता नहीं...अटैची में ग्रामोफोन लिए. हाँ,हाँ,हाँ दाचा में ही हुआ था यह सब! और याद आया, इस ग्रामोफोन के कारण कुत्ते चिल्लाने लगे थे. बस केवल वह महिला, जिसका स्त्योपा चुम्बन लेना चाहता था, पट नहीं पाई थी...शैतान जाने, कौन थी वह...शायद रेडियो पर काम करती है, शायद नहीं.
इस तरह धीरे-धीरे कल की घटनाएँ स्पष्ट होती जा रही थीं, मगर स्त्योपा को अब इस बात में दिलचस्पी थी कि उसके शयनागार में यह अजनबी वोद्का और जलपान की सामग्री लेकर कैसे प्रकट हो गया. यह मालूम करना बेवकूफ़ी नहीं होगी!
 तो शायद अब आपको मेरा नाम याद आ गया होगा?
मगर स्त्योपा केवल झेंपकर मुस्कुराया और उसने दोनों हाथ हिला दिए.
 ख़ैर! मुझे लग रहा है कि आपने वोद्का के बाद पोर्टवाइन पी ली थी! क्या ऐसा करना उचित है?
 मैं आपसे अब अर्ज़ करना चाहता हूँ कि कृपया यह बात हम दोनों के बीच ही रहने दीजिए... स्त्योपा ने गहरी नज़रों से देखते हुए कहा.
 ओ, बेशक, बेशक! मगर मैं खुस्तोव के बारे में कुछ नहीं कर सकता.
 क्या आप खुस्तोव को जानते हैं?
 कल आपके दफ़्तर के कमरे में इस व्यक्ति की झलक देखी थी, मगर उसके चेहरे पर एक सरसरी नज़र डालते ही मालूम हो जाता है कि वह कैसा आदमी है: बदमाश, झगडालू, मौकापरस्त और चापलूस!
 बिल्कुल ठीक! इस सटीक, सही और संक्षिप्त परिभाषा से हकबकाए स्त्योपा ने सोचा.
हाँ, कल का दिन टुकड़ों-टुकड़ों में याद आ रहा था, मगर फिर भी वेराइटी के डाइरेक्टर की बेचैनी कम नहीं हुई थी. बात यह थी कि इस कल के दिन में एक बेहद बड़ा काला छेद था. इस चौड़ी टोपी वाले अजनबी को स्त्योपा ने अपने कमरे में कल नहीं देखा था.
 काले जादू का प्रोफेसर वोलान्द,...स्त्योपा की उलझन को देखते हुए मेहमान ने भारी आवाज़ में सब कुछ तरतीब से बताना शुरू किया.
कल दिन में वह विदेश से मॉस्को आया था और तुरंत ही स्त्योपा से मिलकर अपनी कलाकार मण्डली का वेराइटी में कार्यक्रम रखने का प्रस्ताव रखा. स्त्योपा ने मॉस्को की क्षेत्रीय दर्शक कमिटी को फोन करके प्रोफेसर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. (स्त्योपा के चेहरे का रंग पीला पड़ गया और वह आँखें झपकाने लगा.) प्रोफेसर के साथ सात कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने सम्बन्धी अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिए. (स्त्योपा का मुँह खुला रह गया.) यह तय किया कि अधिक जानकारी के लिए वोलान्द कल सुबह (यानी कि आज सुबह) दस बजे उसके घर आए...और वोलान्द आ गया है!
आते ही नौकरानी ग्रून्या से मिला, जिसने बताया कि वह अभी-अभी आई है, वह रोज़ आती-जाती रहती है, बेर्लिओज़ घर पर नहीं है, और यदि आगंतुक स्तेपान बोग्दानोविच से मिलना चाहे तो क़ःउद ही उसके शयनगृह में चला जाए. स्तेपान बोग्दानोविच इतनी गहरी नींद सोता है कि उसे उठाने की ज़िम्मेदारी वह नहीं ले सकती. स्तेपान बोग्दानोविच की हालत देखकर अभिनेता ने ग्रून्या को वोद्का, बर्फ और खाने की चीज़ें लाने के लिए पास की दुकान में भेजा...
 आपसे हिसाब करने की अनुमति चाहता हूँ, हारे हुए स्त्योपा ने दाँत भींचकर कहा और पर्स ढूँढ़ने लगा.
 ओह, क्या बेवकूफ़ी है! मेहमान कलाकार चहका और उसने आगे कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया.
इस तरह, वोद्का और जलपान सामग्री की बात तो समझ में आ गई, मगर फिर भी स्त्योपा की ओर देखने पर दया आती थी : उसे पक्का यक़ीन था कि उसने इस वोलान्द को कल देखा ही नहीं और चाहे मार डालो, उसके साथ अनुबन्ध की बात तो हुई ही नहीं. हाँ, खुस्तोव था, मगर वोलान्द नहीं था.
 कृपया अनुबन्ध दिखाइए, हौले से स्त्योपा ने कहा.
 लीजिए, लीजिए...
स्त्योपा ने उस कागज़ को देखा और मानो बुत बन गया. सब कुछ एकदम सही था. सबसे पहले, स्त्योपा के अपने, शैतान की बला से वाले अन्दाज़ में किए गए हस्ताक्षर! कोने से झाँकती वित्तीय संचालक की तिरछी लिखाई वाली अनुमति, जो कलाकार वोलान्द को सात कार्यक्रमों के लिए स्वीकृत 35,000 रूबल में से 10,000 रूबल देने की सिफारिश करती थी. उस पर तुर्रा यह है कि इसके पास ही वोलान्द की स्वीकृति थी, जो यह दर्शाती थी कि उसे ये 10,000 रूबल प्राप्त हो चुके हैं!
                                                              क्रमश:

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

Master aur Margarita-07.1


मास्टर और मार्गारीटा 07.1

बुरा मकान

अगर अगली सुबह स्त्योपा लिखोदेयेव से कोई कहता कि, स्त्योपा! अगर तुम इसी वक़्त नहीं उठे तो तुम्हें गोली मार दी जाएगी! तो स्त्योपा अपनी भारी, मुश्किल से सुनाई पड़ने वाली आवाज़ में कहता, मार दो, मेरे साथ जो जी में आए कर लो, मगर मैं उठूँगा नहीं!
बात यह नहीं कि वह उठना नहीं चाहता था - उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह आँखें ही नहीं खोल सकता, क्योंकि जैसे ही वह ऐसा करेगा, एक बिजली सी टूट पड़ेगी जो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देगी. इस मस्तक में भारी-भारी घण्टे बज रहे थे. आँखों की पुतलियों और बन्द पलकों के बीच सुनहरी हरी किनारी वाले कत्थई शोले तैर रहे थे. उसका जी मिचला रहा था, मगर यह भी समझ में आ रहा था कि इस मिचली का सम्बन्ध एक भद्दे, बेसुरे ग्रामोफोन से आती हुई आवाज़ से था.
स्त्योपा ने कुछ याद करने की कोशिश की, मगर उसे सिर्फ एक ही बात याद आई कि शायद कल, न जाने कहाँ, वह हाथ में रुमाल पकड़े खड़ा था और किसी स्त्री का चुम्बन लेने की कोशिश कर रहा था, जिसके बाद उसने उस महिला से वादा किया कि अगले दिन ठीक दोपहर को वह उसके घर आएगा. महिला ने इनकार करते हुए कहा : नहीं, नहीं, मैं घर पर नहीं रहूँगी! मगर स्त्योपा अपनी ही ज़िद पर अड़ा रहा : कुछ भी कहो, मगर मैं तो आऊँगा ही!
वह महिला कौन थी? इस वक़्त कितने बजे हैं? कौन सी तारीख है? कौन सा महीना है? स्त्योपा निश्चयपूर्वक नहीं जानता था और सबसे बुरी बात यह थी कि वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि इस वक़्त वह कहाँ है! उसने कम से कम आख़िरी गुत्थी को सुलझाने की दृष्टि से बाईं आँख की चिपकी हुई पलक को खोलने की कोशिश की. धुँधलके में कोई चीज़ मद्धिम रोशनी में चमक रही थी. आख़िरकार स्त्योपा ने आईने को पहचान लिया और वह समझ गया कि वह अपने पलंग पर, यानी कि भूतपूर्व जौहरी के पलंग पर पड़ा है. पलक खोलते ही सिर पर मानो हथौड़े पड़ने लगे, और उसने कराह कर जल्दी से आँख बन्द कर ली.
चलिए, हम समझा देते हैं: स्त्योपा लिखोदेयेव, वेराइटी थियेटर का डाइरेक्टर सुबह अपने उसी क्वार्टर में उठा, जिसमें वह मृतक बेर्लिओज़ के साथ रहता था. यह क्वार्टर सादोवाया रास्ते पर छहमंज़िली U आकार की इमारत में था.
यहाँ यह बताना उचित होगा कि यह क्वार्टर, 50 नम्बर वाला, बदनाम तो नहीं, मगर फिर भी विचित्र रूप से चर्चित था. दो वर्ष पहले तक इसकी मालकिन जौहरी दे फुझेर की विधवा थी. पचास वर्षीय अन्ना फ्रांत्सेव्ना दे फुझेर ने, जो बड़ी फुर्तीली और आदरणीय महिला थी, पाँच में से तीन कमरे किराए पर दे दिए थे. एक ऐसे व्यक्ति को जिसका कुलनाम, शायद, बेलामुत था; और एक अन्य व्यक्ति को जिसका कुलनाम खो गया था.
और पिछले दो सालों से इस घर में अजीब-अजीब घटनाएँ होनी शुरू हो गईं. इस घर से लोग बिना कोई सुराग छोड़े गायब होने लगे.
एक बार किसी छुट्टी के दिन घर में एक पुलिसवाला आया. उसने दूसरे किराएदार को (जिसका कुलनाम खो चुका था) बाहर ड्योढ़ीं पर बुलाया और कहा कि उसे एक मिनट के लिए किसी कागज़ पर दस्तखत करने के लिए पुलिस थाने बुलाया गया है. किराएदार ने अन्ना फ्रांत्सेव्ना की वफादार नौकरानी अनफीसा से कहा कि वह दस मिनट में लौट आएगा. इतना कहकर वह सफ़ेद दस्ताने पहने चुस्त-दुरुस्त पुलिसवाले के साथ चला गया. मगर वह न केवल दस मिनट बाद नहीं लौटा, बल्कि कभी भी नहीं लौटा. इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह हुई कि उसके साथ-साथ वह पुलिसवाला भी सदा के लिए लुप्त हो गया.
ईश्वर में विश्वास करने वाली, और स्पष्ट कहा जाए तो अंधविश्वासी, अनफीसा ने बेहद परेशान अन्ना फ्रांत्सेव्ना से साफ-साफ कहा, कि यह काला जादू है और वह अच्छी तरह जानती है कि किराएदार और पुलिसवाले को कौन घसीट कर ले गया है, मगर रात में उसका नाम नहीं लेना चाहती. मगर काला जादू यदि एक बार शुरू हो जाए तो फिर उसे किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता. दूसरा, बिना कुलनाम का किराएदार, जहाँ तक याद पड़ता है, सोमवार को ग़ायब हुआ था, और बुधवार को बेलामुत को माने ज़मीन गड़प कर गई, मगर भिन्न परिस्थितियों में. सुबह आम दिनों की तरह उसे काम पर ले जाने वाली कार आई और ले गई, मगर न उसे और दिनों की तरह वापस लाई और न ही फिर कभी इस तरफ दिखाई दी.
बेलामुत की पत्नी का दु:ख और भय अवर्णनीय है. मगर, अफ़सोस, दोनों ही अधिक दिनों तक नहीं रहे. उसी शाम अनफीसा के साथ दाचा (शहर से बाहर बनाई गई समर क़ॉटेज) से, जहाँ कि अन्ना फ्रांत्सेव्ना जल्दबाजी में चली गई थी, लौटने पर उन्हें बेलामुत की पत्नी भी घर में नज़र नहीं आई. यह भी कम है : बेलामुत के दोनों कमरों के दरवाज़े भी सीलबन्द पाए गए.
किसी तरह दो दिन गुज़रे. तीसरे दिन अनिद्रा से ग्रस्त अन्ना फ्रांत्सेव्ना फिर से जल्दबाजी में दाचा चली गई...यह बताना पड़ेगा कि वह वापस नहीं लौटी.
अकेली रह गई अनफीसा. जी भर कर रो लेने के बाद रात को दो बजे सोई. उसके साथ आगे क्या हुआ, मालूम नहीं, लेकिन दूसरे क्वार्टरों में रहने वालों ने बताया कि क्वार्टर नं. 50 में जैसे सुबह तक बिजली जलती रही और खटखटाहट की आवाज़ें आती रहीं. सुबह पता चला कि अनफीसा भी नहीं है.
ग़ायब हुए लोगों के बारे में और इस शापित घर के बारे में इमारत के लोग कई तरह के किस्से कहते रहे, जैसे कि दुबली-पतली, ईश्वर भीरु अनफीसा एक थैले में अन्ना फ्रांत्सेव्ना के पच्चीस कीमती हीरे ले गई; कि दाचा के लकड़ियाँ रखने के कमरे में उसी तरह के कई हीरे और सोने की कई मुहरें पाई गईं, और भी इसी तरह के कई किस्से; मगर जो बात हमें मालूम नहीं, उसे दावे के साथ नहीं कहेंगे.

जो कुछ भी हुआ हो, यह क्वार्टर सीलबन्द और खाली सिर्फ एक हफ़्ते तक रहा. उसके बाद उसमें रहने आए मृतक बेर्लिओज़ अपनी पत्नी के साथ और यही स्त्योपा अपनी बीबी के साथ. स्वाभाविक है कि जैसे ही वह इस घर में रहने लगे, उनके साथ भी शैतान जाने क्या-क्या होने लगा. केवल एक महीने के भीतर ही दोनों की पत्नियाँ ग़ायब हो गईं, मगर कुछ सुराग छोड़े बिना नहीं. बेर्लिओज़ की पत्नी के बारे में सुना गया कि वह खारकोव में किसी बैले प्रशिक्षक के साथ देखी गई; और स्त्योपा की पत्नी बोझेदोम्का में मिली, जहाँ, जैसी कि ख़बर है, वेराइटी थियेटर के डाइरेक्टर ने अपने असीमित प्रभाव के बल पर इस शर्त पर उसे कमरा दिलवा दिया कि सादोवाया रास्ते पर उसका नामोनिशान न रहे...

हाँ, तो स्त्योपा कराह रहा था. उसने नौकरानी ग्रून्या को बुलाकर उससे पिरामिदोन की गोली माँगनी चाही, मगर वह समझ सकता था कि ऐसा करना बेवकूफ़ी होगी...ग्रून्या के पास कोई गोली-वोली नहीं होगी. उसने मदद के लिए बेर्लिओज़ को पुकारने की कोशिश की. दो बार कराहकर पुकारा, मीशा... मगर आप समझ सकते हैं, उसे कोई जवाब नहीं मिला. क्वार्टर में पूरी शांति छाई थी.

पैरों की उँगलियों को थोड़ा हिलाते ही वह समझ गया कि वह मोज़े पहने ही सो गया था. काँपते हाथ कूल्हों पर फेरते हुए वह यह समझने की कोशिश करने लगा कि वह पैंट पहने है अथवा नहीं, मगर समझ नहीं पाया.

आख़िर में वह इस नतीजे पर पहुँचा कि उसे फेंक दिया गया है और वह बिल्कुल अकेला है; उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है. उसने उठने की कोशिश की. चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करना पड़े.

स्त्योपा ने चिपकी हुई पलकों को प्रयत्नपूर्वक अलग करते हुए आईने में झाँका. उसने स्वयँ के प्रतिबिम्ब को बिखरे बालों, सूजे हुए-काले-नीले पड़े चेहरे और तैरती आँखों वाले, गन्दी, मुड़ी-तुड़ी कमीज़, टाई, मोज़े और अण्डरवियर पहने व्यक्ति के रूप में देखा.

ऐसा उसने स्वयँ को आईने में पाया और आईने के पास ही काले सूट और काली टोपी पहने एक आदमी को देखा.

                                                                    क्रमश:

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

Master aur Margarita-06.3


मास्टर और मार्गारीटा 06.3   
डॉक्टर, फुसफुसाकर घबराए हुए र्‍यूखिन ने पूछा, इसका मतलब यह सचमुच बीमार है?
 ओह, हाँ, डॉक्टर बोला.
 उसे हुआ क्या है? नम्रता से र्‍यूखिन ने पूछा.
थके हुए डॉक्टर ने उसकी ओर देखकर सुस्त आवाज़ में उत्तर दिया, चलन और वाणी प्रक्रियाओं का उन्माद...भ्रमात्मक निष्कर्ष...कारण, शायद, जटिल है... शिज़ोफ्रेनिया होने का अन्दाज़ लगाया जा सकता है. साथ ही शराब की लत भी है...
डॉक्टर के शब्दों से र्‍यूखिन कुछ भी समझ नहीं पाया. उसने अनुमान लगाया कि इवान निकोलायेविच की हालत बुरी है और एक आह भरकर उसने पूछा, और वह किसी सलाहकार के बारे में क्या कह रहा है?
 शायद उसने किसी को देखा है, जिसने उसके दिमाग़ को झकझोर दिया है. हो सकता है सम्मोहित कर दिया...
कुछ मिनटों बाद ट्रक र्‍यूखिन को वापस मॉस्को ले गया. उजाला हो रहा था, और सड़कों पर अभी तक जल रही ट्यूब लाइटों की रोशनी अप्रिय लग रही थी. ड्राइवर चिढ़ रहा था कि उसकी रात बर्बाद हो गई. पूरी ताकत से उसने ट्रक को छोड़ दिया और बार-बार इधर-उधर मोड़ने लगा.
और जंगल गायब हो गया. दूर कहीं पीछे छूट गया. नदी कहीं कोने में दुबक गई. ट्रक के सामने विभिन्नताएँ आती-जाती रहीं : कुछ जालियाँ चौकीदारों समेत, घास से लदी गाड़ियाँ, पेड़ों के ठूँठ, कोई मस्तूल, मस्तूल पर कुछ रीलें, बजरियों के ढेर, धरती-नन्हीं धारियों से सजी यूँ लगता था कि मॉस्को अब आया, अब आया; मॉस्को यहीं नुक्कड़ के पीछे है और अभी गाड़ी वहीं रुकेगी.
 र्‍यूखिन ज़ोर-ज़ोर से उछल रहा था, हिचकोले खा रहा था. कोई पेड़ का ठूँठ जिस पर वह बैठा था, बार-बार उसके नीचे से फिसल जाने की कोशिश कर रहा था. रेस्तराँ के तौलिए, जिन्हें पुलिस वाले और पेंतेलेय फेंककर ट्रालीबस से वापस चले गए थे पूरे ट्रक में बिखरे पड़ रहे थे. र्‍यूखिन ने उन्हें समेटने की कोशिश की मगर फिर कड़वाहट से सोचकर, भाड़ में जाएँ! मैं क्यों बेवकूफ की तरह चक्कर खाता रहूँ...? उसने टाँग से उन्हें दूर उछाल दिया. उनकी ओर देखना भी बन्द कर दिया.
मुसाफ़िर का मूड बहुत ज़्यादा ख़राब था. स्पष्ट था कि पागलखाने की सैर ने उसके दिल पर बड़ी गहरी छाप छोड़ी थी. र्‍यूखिन समझने की कोशिश कर रहा था कि उसे कौन-सी चीज़ तंग कर रही है. नीले बल्बों की रोशनी वाला गलियारा, जो उसके दिमाग़ में घर किए जा रहा था? यह ख़याल कि बुद्धिभ्रंश से बड़ा दुर्भाग्य संसार में कोई नहीं है? हाँ, हाँ, यह भी. मगर यह तो एक आम ख़्याल था. इसके अलावा भी कुछ था, वह क्या? अपमान? बिल्कुल ठीक, हाँ, अपमानजनक शब्द जो बेज़्दोम्नी ने सीधे उसके मुख पर फेंक मारे थे. मुसीबत की बात यह नहीं थी कि वे शब्द केवल अपमानजनक थे, बल्कि यह, कि वे सत्य थे.
कवि अब इधर-उधर नहीं देख रहा था. वह सिर्फ ट्रक के गन्दे फर्श को देखे जा रहा था. फिर उसने आपने-आप को कोसते हुए कुछ बड़बड़ाना शुरू कर दिया.
हाँ, कविताएँ...वह बत्तीस साल का है! आगे क्या होगा? आगे वह प्रतिवर्ष कुछ कविताएँ रचता रहेगा बुढ़ापे तक? हाँ, बुढ़ापे तक. इन कविताओं से उसे क्या लाभ होगा? प्रसिद्धि? क्या बकवास है! कम से कम अपने आप को तो धोखा न दो. जो ऊल-जलूल कविताएँ लिखता है उसे प्रसिद्धि कभी प्राप्त नहीं हो सकती. ऊल-जलूल क्यों? सच कहा, बिल्कुल सच! र्‍यूखिन ने अपने आपको प्रताड़ित करते हुए कहा जो कुछ भी लिखता हूँ, उनमें से किसी पर भी मैं विश्वास नहीं करता!
इन्हीं ख़यालों में डूबे कवि को एक झटका लगा. उसके नीचे का फर्श अब उछल नहीं रहा था. र्‍यूखिन ने सिर उठाया और देखा कि वह मॉस्को पहुँच चुका है, ऊपर से मॉस्को में पौ फट रही है, बादल सुनहरी रोशनी में नहा रहे हैं, तरुमंडित राजपथ के मोड़ पर अन्य कई वाहनों की लाइन में ट्रक खड़ा है और उससे कुछ ही दूर धातु का बना एक आदमी वृक्षों से आच्छादित गलियारे को उदासीनतापूर्वक देख रहा है.
बीमार कवि के मस्तिष्क में कुछ विचित्र से विचार रेंग गए: यह है वास्तविक सफलता का उदाहरण, र्‍यूखिन तनकर ट्रक में खड़ा हो गया और उसने हाथ उठाकर अलिप्त-से खड़े उस लौह-पुरुष पर आक्रमण करना चाहा: उसने जीवन में जो भी क़दम उठाया, उसके साथ जो कुछ भी घटित हुआ, सभी का उसे लाभ ही हुआ, सभी ने उसे प्रसिद्धि ही प्रदान की! मगर उसने किया क्या! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...तूफ़ानी धुंध...इन शब्दों में कुछ बात तो अवश्य है? समझ में नहीं आता!...किस्मत वाला है, किस्मत वाला! र्‍यूखिन ने कहा और तभी उसने महसूस किया कि उसके पैरों के नीचे का ट्रक सरक रहा है, मार डाला, गोली से उड़ा दिया इसे उस श्वेत सैनिक ने और अमर बना दिया...
वाहनों की कतार आगे बढ़ी. एकदम बीमार और बूढ़ा हो चला कवि दो मिनट के अन्दर ही ग्रिबोयेदव के बरामदे में पहुँचा. बरामदा ख़ाली हो चुका था. कोने में कुछ लोग अपनी शराब ख़त्म कर रहे थे, और उनके बीच में एक परिचित उदघोषक शैम्पेन का गिलास लिए भाग-दौड़ कर रहा था.
तौलियों में छिपे र्‍यूखिन से आर्चिबाल्द आर्चिबाल्दोविच टकराया और उसने तत्क्षण ही कवि को उन गन्दे तौलियों से मुक्त किया. अगर अस्पताल में और फिर ट्रक में र्‍यूखिन बहुत ज़्यादा परेशान न हो गया होता तो वह अवश्य ही मज़े ले-लेकर सुनाता कि अस्पताल में क्या हुआ और इस कहानी को अपनी कल्पना से सजाकर ही कहता. मगर इस समय वह इस मन:स्थिति में ही नहीं था. साथ ही, चाहे र्‍यूखिन की निरीक्षण शक्ति कितनी ही कमज़ोर क्यों न हो, इस समय, ट्रक के कष्टप्रद अनुभव के बाद, उसने जीवन में पहली बार इस समुद्री डाकू को तीखी नज़रों से देखा और वह समझ गया कि हालाँकि वह बेज़्दोम्नी के बारे में सवाल पूछता जा रहा था, साथ ही ओय-ओय-ओय! कहता जा रहा था, मगर वह बेज़्दोम्नी के भविष्य के बारे में पूरी तरह उदासीन था. उसे उस पर ज़रा भी दया नहीं आ रही थी. शाबाश! बिल्कुल ठीक! र्‍यूखिन ने उन्माद भरी, आत्मनाशक कड़वाहट से सोचा और पागलपन की कहानी को बीच ही में रोककर पूछा, र्चिबाल्द आर्चिबाल्दोविच, मुझे थोड़ी वोद्का...
समुद्री डाकू सहानुभूति का भाव चेहरे पर लाते हुए फुसफुसाया, मैं समझ सकता हूँ...अभी लो... और उसने बेयरे को हाथ के इशारे से बुलाया.
पन्द्रह मिनट बाद र्‍यूखिन पूरी तरह अकेला बैठकर मछली से खिलवाड़ करते हुए गिलास पर गिलास शराब पीता जा रहा था. वह समझ रहा था और स्वीकार भी कर रहा था कि उसके जीवन में कुछ भी सुधारना अब संभव नहीं है, सिर्फ भूलना ही बेहतर है.
कवि ने अपनी रात गँवा दी, जबकि अन्य व्यक्ति हर्षोल्लास में मग्न थे. अब वह समझ चुका था कि गुज़री हुई रात को वापस लौटाना असंभव है. सिर्फ लैम्प से दूर सिर उठाकर आकाश की ओर देखना ही बाकी था, यह समझने के लिए कि रात ढल चुकी थी, कभी न लौटने के लिए. बेयरे जल्दी-जल्दी मेज़ों पर से मेज़पोश समेट रहे थे. बरामदे के आसपास घूमती बिल्लियों पर सुबह का साया था. कवि पर अपने आपको थामने में असमर्थ सवेरा गिर पड़ा.
********

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

Master aur Margarita-06.2


मास्टर और मार्गारीटा 06.2
मॉसोलित के सचिव बेर्लिओज़ को पत्रियार्शी के पास आज शाम को ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया.
 अगर तुम जानते नहीं हो, तो झूठ मत बोलो, इवान र्‍यूखिन पर गरजा, वहाँ तुम नहीं, बल्कि मैं था. उसने ज़बर्दस्ती ट्राम के नीचे उसका इंतज़ाम कर दिया.
 धक्का दिया?
 धक्का कैसा? इस बेसिर पैर के प्रश्न से इवान फिर क्रोधित हो गया, उस जैसे को तो धक्का देने की भी ज़रूरत नहीं है! वह ऐसे-ऐसे कारनामे कर सकता है, कि बस देखते ही रहो! वह पहले ही जानता था कि बेर्लिओज़ ट्राम के नीचे आने वाला है!
आपके अलावा इस सलाहकार को किसी और ने भी देखा है?
 यही तो मुसीबत है, सिर्फ मैंने और बेर्लिओज़ ने ही उसे देखा था.
 अच्छा उस खूनी को पकड़ने के लिए आपने क्या उपाय किए? डॉक्टर ने मुड़कर सफ़ेद एप्रन पहनी नर्स की ओर देखा जो एक कोने में मेज़ के पीछे बैठी थी. नर्स ने फॉर्म निकाला और वह ख़ाली स्थानों पर लिखने लगी.
 मैंने ये उपाय किए: रसोईघर से मोमबत्ती उठाई...
 यह? डॉक्टर ने टूटी हुई मोमबत्ती की ओर इशारा करते हुए पूछा, जो नर्स के सामने मेज़ पर ईसा की तस्वीर की बगल में पड़ी थी.
 यही, और...
 और यह तस्वीर किसलिए?
 अरे हाँ, ईसा की तस्वीर... इवान का चेहरा लाल हो गया, इस तस्वीर ने ही तो सबसे ज़्यादा डरा दिया, उसने फिर र्‍यूखिन की ओर इशारा करते हुए कहा, बात यह है, कि वह, सलाहकार, वह, मैं साफ-साफ कहूँगा...किन्हीं दुष्ट शक्तियों को जानता है...और उसे पकड़ा नहीं जा सकता.
स्वास्थ्य परिचारक न जाने क्यों हाथ लटकाए खड़े थे और इवान पर से नज़र नहीं हटा रहे थे.
 हाँ... इवान ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ज़रूर जानता है! यह एक अटूट सत्य है, वह खुद पोंती पिलात से बातें कर चुका है. हाँ, मेरी ओर इस तरह देखने की कोई ज़रूरत नहीं है! मैं सत्य ही कह रहा हूँ! सब देख चुका है बरामदा और चीड़ के पेड़...संक्षेप में यह कि वह पोंती पिलात के पास था, इस बात को मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ.
 और, और कहिए...
 तो, मैंने ईसा की तस्वीर को सीने से लगाया और भागने लगा...
इसी समय घड़ी ने दो बार घंटे बजाए.
 एहे-हें! इवान चहक कर बोला और सोफे पर से उठ खड़ा हुआ, दो बज गए और मैं आपके साथ समय नष्ट कर रहा हूँ. मैं माफी चाहता हूँ, टेलिफोन कहाँ है?
 टेलिफोन दिखाओ. डॉक्टर ने परिचारकों को आज्ञा दी.
इवान ने टेलिफोन का रिसीवर उठाया और महिला परिचारिका ने हौले से र्‍यूखिन से पूछा, क्या यह शादी-शुदा है?
 कुँवारा! र्‍यूखिन ने घबराकर उत्तर दिया.
 प्रोफसयूज़ (व्यावसायिक संघ) का सदस्य?
 हाँ, है.
 पुलिस? इवान टेलिफोन पर चिल्ला रहा था, पुलिस? ड्यूटी वाले साथी, फौरन पाँच मोटर साइकिल सवारों को मशीनगनों के साथ विदेशी सलाहकार को पकड़ने के लिए भेजिए...क्या? मेरे साथ आइए, मैं ख़ुद आपके साथ आऊँगा...मैं कवि बेज़्दोम्नी, पागलखाने से बोल रहा हूँ...आपका पता क्या है? रिसीवर पर हाथ रखकर इवान ने डॉक्टर से फुसफुसाकर पूछा, हैलो, आप सुन रहे हैं? बकवास! अचानक इवान फूट पड़ा और उसने रिसीवर दीवार पर दे मारा. फिर वह डॉक्टर की ओर मुड़ा, उसकी तरफ हाथ बढ़ाकर रुखाई से फिर मिलेंगे कहा, और चलने को तैयार हुआ.
 क्षमा करें, आप जाएँगे कहाँ? डॉक्टर ने इवान की आँखों में देखते हुए पूछा, घनी अँधेरी रात में, कच्छा पहनकर! आपकी तबीयत ठीक नहीं है, यहीं रुक जाइए!
 जाने दो ना, इवान ने परिचारकों से कहा जो दरवाज़ा रोके खड़े थे, छोड़ोगे या नहीं? डरावनी आवाज़ में कवि चिल्लाया.
 र्‍यूखिन काँप उठा और महिला परिचारिका ने मेज़ पर लगा एक बटन दबाया, जिसके साथ ही मेज़ की सतह पर एक चमदार डिब्बा और कीटाणुरहित इंजेक्शन की शीशी आ गई.
 अच्छा तो ये बात है! इवान ने जंगली और आहत स्वर में कहा, ठीक है! अलबिदा... और सिर उठाए वह खिड़की के परदे की ओर लपका. एक धमाका-सा हुआ, मगर परदे के पीछे लगे न टूटने वाले काँच ने उसे रोक लिया, अगले ही क्षण इवान परिचारकों के हाथों में पड़ा था. उसके गले से भर्राहट की आवाज़ आ रही थी. वह काटना चाह रहा था और चिल्ला रहा था :
कैसे-कैसे शीशे तुम लोगों ने लगा रखे हैं!...छोड़ो! छोड़ो, कहता हूँ!
डॉक्टर के हाथ में सुई चमकी. नर्स ने झटके से पुराने ढीले-ढाले कुरते की बाँह फाड़ दी और नरमी से इवान का हाथ पकड़ लिया. ईथर की गंध फैल गई. इवान चार आदमियों के हाथों में ढीला पड-अ गया. चपलता से डॉक्टर ने इस क्षण का फायदा उठाकर इवान के हाथ में सुई घोंप दी. इवान को वे कुछ क्षण और थामे रहे और फिर उसे सोफे पर डाल दिया.
 डाकू! इवान चिल्लाया और सोफे से उछला, मगर उसे फिर सोफे पर धकेल दिया गया. जैसे ही उसे फिर छोड़ा गया वह फिर उछलने को तत्पर हुआ, मगर फिर अपने आप ही वहीं बैठ गया. वह चुप हो गया. जंगलीपन से इधर-उधर देखता रहा, फिर उसने अचानक एक जम्हाई ली, फिर विकटतापूर्वक हँसा.
 पकड़ ही लिया, आख़िर में, एक और जम्हाई लेकर वह बोला. अचानक लेट गया, सिर तकिए पर रखकर मुट्ठी बच्चों के समान, गाल के नीचे रखकर उनींदे स्वर में बड़बड़ाने लगा, बिना किसी कड़वाहट के, बहुत अच्छा है...खुद ही इसकी कीमत चुकाओगे. मैंने आगाह कर दिया, अब जो चाहे कर लो! मुझे अब सबसे ज़्यादा फिक्र पोंती पिलात की है...पिलात... और उसने आँखें बन्द कर लीं.
 स्नान, एक सौ सत्रह नम्बर का स्वतंत्र कमरा और साथ में चौकीदार, डॉक्टर ने चश्मा पहनते हुए आदेश दिया. र्‍यूखिन फिर एक बार काँप गया : सफ़ेद दरवाज़े बिना आवाज़ किए खुल गए. उनके पीछे गलियारा धुँधला-सा प्रकाशित हो रहा था. गलियारे से रबड़ के चक्कों वाला स्ट्रेचर आया, जिस पर शांत पड़े इवान को डाला गया. वह वापस गलियारे में चला गया, उसके पीछे दरवाज़े बन्द हो गए.
                                                             क्रमशः

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

Master aur Margarita-06.1


मास्टर और मार्गारीटा 06.1
                                                                     छह

उन्माद, यही बताया गया
जब मॉस्को के बाहर, नदी के किनारे स्थित हाल ही में बनाए गए प्रख्यात मानसिक रुग्णालय के अतिथि-कक्ष में सफ़ेद कोट पहने तीखी दाढ़ी वाला एक व्यक्ति दाख़िल हुआ, तब रात का डेढ़ बज रहा था. तीन स्वास्थ्य कर्मचारी सोफ़े पर बैठे हुए इवान निकोलायेविच पर से दृष्टि नहीं हटा रहे थे. वहीं, बहुत परेशान कवि र्‍यूखिन भी था. जिन तौलियों से इवान निकोलायेविच को बाँधा गया था, वे अब उसी सोफ़े पर एक ढेर में पड़े थे. इवान निकोलायेविच के हाथ और पैर अब मुक्त थे.
अन्दर आने वाले व्यक्ति को देखते ही र्‍यूखिन का चेहरा पीला पड़ गया. वह खाँसा और नम्रता से बोला, नमस्ते डॉक्टर!
डॉक्टर ने झुककर र्‍यूखिन के अभिवादन का उत्तर दिया, मगर झुकते समय वह उसकी ओर न देखकर इवान निकोलायेविच की तरफ़ देख रहा था.
वह बिना हिले-डुले बैठा था, बुरा-सा मुँह बनाए, भौंहे ताने. डॉक्टर के आने पर भी ज़रा हिला तक नहीं.
 डॉक्टर, यह...न जाने क्यों... भयभीत दृष्टि से इवान निकोलायेविच की ओर देखकर रहस्यमय ढंग से र्‍यूखिन फुसफुसाया, प्रसिद्ध कवि इवान बेज़्दोम्नी...आप देख रहे हैं न...हमें डर है कि कहीं सफ़ेद बुखार न हो!
 क्या बहुत पी ली? डॉक्टर ने दाँतों को बिना हिलाए पूछा.
 नहीं, पी है, मगर इतनी नहीं कि एकदम...
 कहीं तिलचट्टे, चूहे, शैतान, भागे हुए कुत्ते तो नहीं पकड़ रहे थे?
 नहीं, काँपते हुए र्‍यूखिन ने जवाब दिया, मैंने इन्हें कल देखा था और आज सुबह. बिल्कुल स्वस्थ थे...
 फिर कच्छे में क्यों हैं? क्या सीधे बिस्तर से उठाकर लाए हैं?
 डॉक्टर, वह रेस्तराँ में इसी वेष में पहुँचे थे.
 अहा, अहा! बड़े संतुष्ट भाव से डॉक्टर बोला, यह चोट के निशान क्यों हैं? क्या किसी से झगड़ पड़े थे?
 वह जाली फाँदते हुए गिर पड़े, फिर रेस्तराँ में एक व्यक्ति को मारा भी...और भी किसी को...
 अच्छा, अच्छा, अच्छा, डॉक्टर ने कहा और मुड़कर इवान की ओर देखकर आगे बोला, नमस्ते!
 स्वस्थ रहो, शत्रु! क्रोध से इवान ज़ोर से बोला.
 र्‍यूखिन घबरा गया. उसने आँखें उठाकर सज्जन डॉक्टर की ओर देखने की हिम्मत नहीं की. मगर डॉक्टर ने ज़रा भी बुरा नहीं माना, बल्कि आदत के अनुसार सहज भाव से चष्मा उतारा, उसे अपने कोट के अगले पल्ले को उठाकर पैंट की पिछली जेब में खोंसा और फिर इवान से पूछा, आपकी उम्र क्या है?
 तुम सब मुझसे दूर हटो, जहन्नुम में जाओ, सचमुच जहन्नुम में जाओ! इवान रूखेपन से चिल्लाया और उसने मुँह फेर लिया.
 आप गुस्सा क्यों होते हैं? क्या मैंने आपसे कोई अप्रिय बात कह दी?
 मेरी उम्र तेईस वर्ष है, तैश में आकर इवान बोला, और मैं आप सबकी शिकायत करूँगा, और जूँ के अण्डे, तुम्हें तो मैं अच्छी तरह देख लूँगा! उसने र्‍यूखिन से अलग से कहा.
 आप किस बात की शिकायत करेंगे?
 यही कि आप सब, मुझको, एक स्वस्थ आदमी को ज़बर्दस्ती पागलखाने ले आए है! इवान ने क्रोधित होकर कहा.
अब र्‍यूखिन ने इवान को ग़ौर से देखा. उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गए : सचमुच, उसकी आँखों में पागलपन के कोई लक्षण नहीं थे. अब वे धुँधली के स्थान पर, जैसी कि ग्रिबोयेदव में थीं, पूर्ववत स्पष्ट पारदर्शी दिखाई देने लगी थीं.
 बाप रे! घबराहट से र्‍यूखिन ने सोचा, हाँ, यह तो बिल्कुल सामान्य है? ओह, क्या गड़बड़ हो गई! हम उसे, सचमुच, यहाँ क्यों घसीट लाए हैं? सामान्य है, एकदम सामान्य, सिर्फ कुछ खरोंचें हैं...
 आप इस समय... चमचमाते हुए स्टूल पर बैठते हुए डॉक्टर ने शांतिपूर्वक कहा, पागलखाने में नहीं, बल्कि चिकित्सालय में हैं, जहाँ आवश्यकता न होने पर कोई भी आपको ज़बर्दस्ती रोककर नहीं रख सकता.
  इवान निकोलायेविच ने अविश्वास से उसे देखा, मगर फिर भी बड़बड़ाता रहा.
 भगवान उनका भला करें. बेवकूफ़ों की भीड़ में एक सामान्य व्यक्ति तो मिला, उन बेवकूफ़ों में से पहला है मूढ़ और प्रतिभाशून्य साश्का!
 यह साश्का प्रतिभाशून कौन है? डॉक्टर ने जानना चाहा.
 यही र्‍यूखिन! इवान ने अपनी गन्दी उँगली से र्‍यूखिन की ओर इशारा करते हुए कहा.
वह अपमान से फट पड़ा.
 यह इनाम है मेरा, धन्यवाद के स्थान पर! उसने कड़वाहट से सोचा, इसलिए कि मैंने इस सबमें हिस्सा लिया! यह सब वास्तव में उलझन वाली स्थिति है!
 इसकी मानसिकता एकदम कुलाकों जैसी है, इवान निकोलायेविच ने आगे कहा, जिसे र्‍यूखिन का भंडाफोड़ करने की धुन सवार थी, ऐसा कुलाक, जिसने सर्वहारा वर्ग का नक़ाब पहन रखा है. इसके मरियल जिस्म को देखिए और उसे इसकी खनखनाती कविता से मिलाइए जो इसने पहली मई के उपलक्ष्य में लिखी थी : हा...हा...हा... ऊँचे उठो! और ‘बिखर जाओ!...और आप इसकी अंतरात्मा में झाँककर देखिए, वह क्या सोच रहा है...और आप चौंक पड़ेंगे! इवान निकोलायेविच भयंकर हँसी हँसा.
 र्‍यूखिन गहरी साँसें ले रहा था. उसका चेहरा लाल हो गया था. वह सिर्फ एक ही बात सोच रहा था उसने आप ही नाग को अपने सीने पर बुला लिया है, कि उसने उस व्यक्ति के मामले में टाँग अड़ाई है जो उसका कट्टर शत्रु साबित हुआ है. रोना तो इस बात का था कि अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था : पागल के ऊपर कौन गुस्सा कर सकता है?
 सिर्फ आप ही को यहाँ, हमारे पास, क्यों लाया गया? डॉक्टर ने बेज़्दोम्नी के आरोप ध्यान से सुनने के बाद पूछा.
 भाड में जाएँ वे मूर्ख! मुझे दबोच लिया, किन्हीं चिन्धियों से बाँध दिया और ट्रक में पटक दिया!
 कृपया यह बताइए कि आप सिर्फ कच्छा पहनकर रेस्तराँ क्यों गए थे?
 इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, इवान ने उत्तर दिया, मैं मस्क्वा नदी में तैरने के लिए कूदा, और किसी ने मेरे कपड़े चुरा लिए, सिर्फ यही कच्छा छोड़ दिया. अब मैं मॉस्को में निर्वस्त्र तो नहीं ना घूम सकता? जो था, वही पहन लिया, क्योंकि मुझे ग्रिबोयेदव के रेस्तराँ में पहुँचने की जल्दी थी.
डॉक्टर ने प्रश्नार्थक दृष्टि से र्‍यूखिन की ओर देखा. उसने नाक-भौंह चढ़ाकर उत्तर दिया, रेस्तराँ का नाम यही है.
 अहा, डॉक्टर बोला, और आपको इतनी जल्दी किस बात की थी? कोई ज़रूरी मीटिंग थी?
 मैं उस सलाहकार को पकड़ रहा हूँ, इवान निकोलायेविच ने उत्तर देकर बेचैनी से इधर-उधर देखा.
 किस सलाहकार को?
 आप बेर्लिओज़ को जानते हैं? इवान ने अर्थपूर्ण दृष्टि से पूछा.
 वह...संगीतज्ञ?
इवान को गुस्सा आ गया.
 कहाँ का संगीतज्ञ? ओह, हाँ, हाँ, नहीं. संगीतज्ञ मीशा बेर्लिओज़ का हमनाम है.
 र्‍यूखिन  कुछ भी बोलना नहीं चाह रहा था, मगर उसे डॉक्टर को समझाना ही पड़ा.
                                                                      क्रमश: