मास्तर और मार्गारीटा – 07.2
स्त्योपा पलंग पर बैठ गया. जितनी फाड़ सकता था, उतनी अपनी खून जैसी लाल आँखें फाड़-फाड़कर उसने अजनबी को देखा.
अपनी मोटी भारी आवाज़ में, विदेशियों जैसे लहज़े से यह कहकर ख़ामोशी को अजनबी ने ही तोड़ा, “शुभ दिन, परम प्रिय स्तेपान बोग्दानोविच!”
कुछ रुककर भयंकर कोशिश के बाद स्त्योपा बोल पाया, “आपको क्या चाहिए?” और स्वयँ की अपनी आवाज़ न पहचान कर सकते में आ गया. उसने “क्या” तारसप्तक में, “आपको” मन्द सप्तक में कहा, जबकि “चाहिए” उसके मुख से निकल ही नहीं सका.
अजनबी दोस्ताना अन्दाज़ में हँसा. उसने हीरे की तिकोनी फ्रेम वाली सोने की घड़ी निकालकर ग्यारह बार बजाई और बोला, “ग्यारह! ठीक एक घण्टे से मैं आपके उठने का इंतज़ार कर रहा हूँ, क्योंकि आपने मुझे दस बजे यहाँ आने के लिए कहा था. लीजिए, मैं आ गया!”
स्त्योपा ने पलंग के पास तिपाई पर पड़ी अपनी पैंट को टटोला और फुसफुसाया, “माफ़ कीजिए...” जल्दी से पैंट पहनकर भर्राई हुई आवाज़ में बोला, “कृपया अपना नाम बताइए?”
उसे बोलने में बहुत कष्ट हो रहा था. प्रत्येक शब्द के साथ मानो दिमाग में कोई एक सुई चुभो रहा था, जिसके कारण उसे नारकीय यातनाएँ हो रही थीं.
“क्या? आप मेरा नाम भी भूल गए?” और अजनबी हँस पड़ा.
“माफ़ कीजिए...” स्त्योपा भर्राया. वह महसूस कर रहा था कि यह बोझिलपन उसे एक नया लक्षण उपहार में देने वाला है : उसे लगा, मानो पलंग के पास का फर्श कहीं ग़ायब हो गया है, और इसी क्षण वह सर के बल उड़कर शैतान की ख़ाला के पास पाताल पहुँच जाएगा.
“प्रिय स्तेपान बोग्दानोविच,” मेहमान भेदक मुस्कुराहट के साथ बोला, “किसी गोली-वोली से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला. पुरानी कहावत को याद कीजिए – जैसे को तैसा. सिर्फ एक ही चीज़ आपको जीवन तक वापस ला सकती है और वह है वोद्का के दो पैग और तीखा, चटपटा नाश्ता.”
स्त्योपा चालाक था और बीमार होने के बावजूद वह स्पष्ट समझ रहा था कि जब उसे इस हालत में पकड़ लिया गया है तो उसे सब कुछ साफ़-साफ़ कबूल कर लेना चाहिए.
“साफ़-साफ़ कहूँ तो,” उसने ज़ुबान की थोड़ी-थोड़ी हलचल करते हुए कहना शुरू किया, “कल मैं थोड़ी-सी...”
“बस, आगे एक भी शब्द नहीं!” मेहमान ने कहा और कुर्सी के साथ एक ओर को सरक गया.
स्त्योपा ने आँखें फाड़-फाड़कर देखा कि छोटी-सी टेबुल पर एक ट्रे रखी जा चुकी है, उसमें कटी हुई सफ़ेद डबल रोटी के टुकड़े, कटोरी में दबे हुए कैवियर, तश्तरी में मशरूम का अचार, बन्द डोंगे में कोई चीज़ और जवाहिरे की बीबी की बड़ी काँच की सुराही में वोद्का. स्त्योपा को इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ कि काँच की इस सुराही की ऊपरी सतह पर ठण्डक के कारण पानी की बूँदें जम रही थीं. मगर इसका कारण स्पष्ट था – सुराही बर्फ की तश्तरी में रखी थी.
अजनबी ने स्त्योपा के आश्चर्य को दिमागी बीमारी की हद तक बढ़ने नहीं दिया और फुर्ती से आधा पैग वोद्का उसके आगे बढ़ा दी.
“और आप?” स्त्योपा ने पूछा.
“शौक से!”
उछलते हुए हाथ से स्त्योपा ने प्याला होठों से लगाया और अजनबी एक ही घूँट में अपना पैग पी गया. कैवियर का ज़ायका लेते हुए स्त्योपा ने बड़ी कठिनाई से अपने मुख से शब्द निकाले, “आप...क्या...खाएँगे...?”
“माफ़ कीजिए, मैं कभी भी कुछ भी नहीं खाता,” अजनबी बोला और उसने दूसरा पैग ढाला. ढँका हुआ बर्तन खोलते ही उसमें टमाटर सॉस में लिपटे सॉसेज नज़र आए.
आँखों के सामने की वह शापित हरियाली पिघलने लगी, बोलने लगी, और खास बात यह हुई कि स्त्योपा को सब कुछ याद आ गया. यह, कि कल यह बात स्खोद्न्या में हुई थी, स्केच-चित्रकार खुस्तोव के दाचा में, जहाँ यही खुस्तोव टैक्सी में बैठाकर स्त्योपा को ले गया था. याद आया कि कैसे मेट्रोपोल के पास उन्होंने यह टैक्सी तय की थी, तब वहाँ कोई अभिनेता, नहीं, अभिनेता नहीं...अटैची में ग्रामोफोन लिए. हाँ,हाँ,हाँ दाचा में ही हुआ था यह सब! और याद आया, इस ग्रामोफोन के कारण कुत्ते चिल्लाने लगे थे. बस केवल वह महिला, जिसका स्त्योपा चुम्बन लेना चाहता था, पट नहीं पाई थी...शैतान जाने, कौन थी वह...शायद रेडियो पर काम करती है, शायद नहीं.
इस तरह धीरे-धीरे कल की घटनाएँ स्पष्ट होती जा रही थीं, मगर स्त्योपा को अब इस बात में दिलचस्पी थी कि उसके शयनागार में यह अजनबी वोद्का और जलपान की सामग्री लेकर कैसे प्रकट हो गया. यह मालूम करना बेवकूफ़ी नहीं होगी!
“तो शायद अब आपको मेरा नाम याद आ गया होगा?”
मगर स्त्योपा केवल झेंपकर मुस्कुराया और उसने दोनों हाथ हिला दिए.
“ख़ैर! मुझे लग रहा है कि आपने वोद्का के बाद पोर्टवाइन पी ली थी! क्या ऐसा करना उचित है?”
“मैं आपसे अब अर्ज़ करना चाहता हूँ कि कृपया यह बात हम दोनों के बीच ही रहने दीजिए...” स्त्योपा ने गहरी नज़रों से देखते हुए कहा.
“ओ, बेशक, बेशक! मगर मैं खुस्तोव के बारे में कुछ नहीं कर सकता.”
“क्या आप खुस्तोव को जानते हैं?”
“कल आपके दफ़्तर के कमरे में इस व्यक्ति की झलक देखी थी, मगर उसके चेहरे पर एक सरसरी नज़र डालते ही मालूम हो जाता है कि वह कैसा आदमी है: बदमाश, झगडालू, मौकापरस्त और चापलूस!”
‘बिल्कुल ठीक!’ इस सटीक, सही और संक्षिप्त परिभाषा से हकबकाए स्त्योपा ने सोचा.
हाँ, कल का दिन टुकड़ों-टुकड़ों में याद आ रहा था, मगर फिर भी वेराइटी के डाइरेक्टर की बेचैनी कम नहीं हुई थी. बात यह थी कि इस कल के दिन में एक बेहद बड़ा काला छेद था. इस चौड़ी टोपी वाले अजनबी को स्त्योपा ने अपने कमरे में कल नहीं देखा था.
“काले जादू का प्रोफेसर वोलान्द,”...स्त्योपा की उलझन को देखते हुए मेहमान ने भारी आवाज़ में सब कुछ तरतीब से बताना शुरू किया.
कल दिन में वह विदेश से मॉस्को आया था और तुरंत ही स्त्योपा से मिलकर अपनी कलाकार मण्डली का वेराइटी में कार्यक्रम रखने का प्रस्ताव रखा. स्त्योपा ने मॉस्को की क्षेत्रीय दर्शक कमिटी को फोन करके प्रोफेसर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. (स्त्योपा के चेहरे का रंग पीला पड़ गया और वह आँखें झपकाने लगा.) प्रोफेसर के साथ सात कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने सम्बन्धी अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिए. (स्त्योपा का मुँह खुला रह गया.) यह तय किया कि अधिक जानकारी के लिए वोलान्द कल सुबह (यानी कि आज सुबह) दस बजे उसके घर आए...और वोलान्द आ गया है!
आते ही नौकरानी ग्रून्या से मिला, जिसने बताया कि वह अभी-अभी आई है, वह रोज़ आती-जाती रहती है, बेर्लिओज़ घर पर नहीं है, और यदि आगंतुक स्तेपान बोग्दानोविच से मिलना चाहे तो क़ःउद ही उसके शयनगृह में चला जाए. स्तेपान बोग्दानोविच इतनी गहरी नींद सोता है कि उसे उठाने की ज़िम्मेदारी वह नहीं ले सकती. स्तेपान बोग्दानोविच की हालत देखकर अभिनेता ने ग्रून्या को वोद्का, बर्फ और खाने की चीज़ें लाने के लिए पास की दुकान में भेजा...
“आपसे हिसाब करने की अनुमति चाहता हूँ,” हारे हुए स्त्योपा ने दाँत भींचकर कहा और पर्स ढूँढ़ने लगा.
“ओह, क्या बेवकूफ़ी है!” मेहमान कलाकार चहका और उसने आगे कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया.
इस तरह, वोद्का और जलपान सामग्री की बात तो समझ में आ गई, मगर फिर भी स्त्योपा की ओर देखने पर दया आती थी : उसे पक्का यक़ीन था कि उसने इस वोलान्द को कल देखा ही नहीं और चाहे मार डालो, उसके साथ अनुबन्ध की बात तो हुई ही नहीं. हाँ, खुस्तोव था, मगर वोलान्द नहीं था.
“कृपया अनुबन्ध दिखाइए,” हौले से स्त्योपा ने कहा.
“लीजिए, लीजिए...”
स्त्योपा ने उस कागज़ को देखा और मानो बुत बन गया. सब कुछ एकदम सही था. सबसे पहले, स्त्योपा के अपने, ‘शैतान की बला से’ वाले अन्दाज़ में किए गए हस्ताक्षर! कोने से झाँकती वित्तीय संचालक की तिरछी लिखाई वाली अनुमति, जो कलाकार वोलान्द को सात कार्यक्रमों के लिए स्वीकृत 35,000 रूबल में से 10,000 रूबल देने की सिफारिश करती थी. उस पर तुर्रा यह है कि इसके पास ही वोलान्द की स्वीकृति थी, जो यह दर्शाती थी कि उसे ये 10,000 रूबल प्राप्त हो चुके हैं!
क्रमश: