मास्टर और मार्गारीटा – 06.3
“डॉक्टर,” फुसफुसाकर घबराए हुए र्यूखिन ने पूछा, “इसका मतलब यह सचमुच बीमार है?”
“ओह, हाँ,” डॉक्टर बोला.
“उसे हुआ क्या है?” नम्रता से र्यूखिन ने पूछा.
थके हुए डॉक्टर ने उसकी ओर देखकर सुस्त आवाज़ में उत्तर दिया, “चलन और वाणी प्रक्रियाओं का उन्माद...भ्रमात्मक निष्कर्ष...कारण, शायद, जटिल है... शिज़ोफ्रेनिया होने का अन्दाज़ लगाया जा सकता है. साथ ही शराब की लत भी है...”
डॉक्टर के शब्दों से र्यूखिन कुछ भी समझ नहीं पाया. उसने अनुमान लगाया कि इवान निकोलायेविच की हालत बुरी है और एक आह भरकर उसने पूछा, “और वह किसी सलाहकार के बारे में क्या कह रहा है?’
“शायद उसने किसी को देखा है, जिसने उसके दिमाग़ को झकझोर दिया है. हो सकता है सम्मोहित कर दिया...”
कुछ मिनटों बाद ट्रक र्यूखिन को वापस मॉस्को ले गया. उजाला हो रहा था, और सड़कों पर अभी तक जल रही ट्यूब लाइटों की रोशनी अप्रिय लग रही थी. ड्राइवर चिढ़ रहा था कि उसकी रात बर्बाद हो गई. पूरी ताकत से उसने ट्रक को छोड़ दिया और बार-बार इधर-उधर मोड़ने लगा.
और जंगल गायब हो गया. दूर कहीं पीछे छूट गया. नदी कहीं कोने में दुबक गई. ट्रक के सामने विभिन्नताएँ आती-जाती रहीं : कुछ जालियाँ चौकीदारों समेत, घास से लदी गाड़ियाँ, पेड़ों के ठूँठ, कोई मस्तूल, मस्तूल पर कुछ रीलें, बजरियों के ढेर, धरती-नन्हीं धारियों से सजी – यूँ लगता था कि मॉस्को अब आया, अब आया; मॉस्को यहीं नुक्कड़ के पीछे है और अभी गाड़ी वहीं रुकेगी.
र्यूखिन ज़ोर-ज़ोर से उछल रहा था, हिचकोले खा रहा था. कोई पेड़ का ठूँठ जिस पर वह बैठा था, बार-बार उसके नीचे से फिसल जाने की कोशिश कर रहा था. रेस्तराँ के तौलिए, जिन्हें पुलिस वाले और पेंतेलेय फेंककर ट्रालीबस से वापस चले गए थे पूरे ट्रक में बिखरे पड़ रहे थे. र्यूखिन ने उन्हें समेटने की कोशिश की मगर फिर कड़वाहट से सोचकर, ‘भाड़ में जाएँ! मैं क्यों बेवकूफ की तरह चक्कर खाता रहूँ...?’ उसने टाँग से उन्हें दूर उछाल दिया. उनकी ओर देखना भी बन्द कर दिया.
मुसाफ़िर का मूड बहुत ज़्यादा ख़राब था. स्पष्ट था कि पागलखाने की सैर ने उसके दिल पर बड़ी गहरी छाप छोड़ी थी. र्यूखिन समझने की कोशिश कर रहा था कि उसे कौन-सी चीज़ तंग कर रही है. नीले बल्बों की रोशनी वाला गलियारा, जो उसके दिमाग़ में घर किए जा रहा था? यह ख़याल कि बुद्धिभ्रंश से बड़ा दुर्भाग्य संसार में कोई नहीं है? हाँ, हाँ, यह भी. मगर यह तो एक आम ख़्याल था. इसके अलावा भी कुछ था, वह क्या? अपमान? बिल्कुल ठीक, हाँ, अपमानजनक शब्द जो बेज़्दोम्नी ने सीधे उसके मुख पर फेंक मारे थे. मुसीबत की बात यह नहीं थी कि वे शब्द केवल अपमानजनक थे, बल्कि यह, कि वे सत्य थे.
कवि अब इधर-उधर नहीं देख रहा था. वह सिर्फ ट्रक के गन्दे फर्श को देखे जा रहा था. फिर उसने आपने-आप को कोसते हुए कुछ बड़बड़ाना शुरू कर दिया.
’हाँ, कविताएँ...वह बत्तीस साल का है! आगे क्या होगा? आगे वह प्रतिवर्ष कुछ कविताएँ रचता रहेगा – बुढ़ापे तक? हाँ, बुढ़ापे तक. इन कविताओं से उसे क्या लाभ होगा? प्रसिद्धि? क्या बकवास है! कम से कम अपने आप को तो धोखा न दो. जो ऊल-जलूल कविताएँ लिखता है उसे प्रसिद्धि कभी प्राप्त नहीं हो सकती. ऊल-जलूल क्यों? सच कहा, बिल्कुल सच! र्यूखिन ने अपने आपको प्रताड़ित करते हुए कहा – जो कुछ भी लिखता हूँ, उनमें से किसी पर भी मैं विश्वास नहीं करता!
इन्हीं ख़यालों में डूबे कवि को एक झटका लगा. उसके नीचे का फर्श अब उछल नहीं रहा था. र्यूखिन ने सिर उठाया और देखा कि वह मॉस्को पहुँच चुका है, ऊपर से मॉस्को में पौ फट रही है, बादल सुनहरी रोशनी में नहा रहे हैं, तरुमंडित राजपथ के मोड़ पर अन्य कई वाहनों की लाइन में ट्रक खड़ा है और उससे कुछ ही दूर धातु का बना एक आदमी वृक्षों से आच्छादित गलियारे को उदासीनतापूर्वक देख रहा है.
बीमार कवि के मस्तिष्क में कुछ विचित्र से विचार रेंग गए: ‘यह है वास्तविक सफलता का उदाहरण,’ र्यूखिन तनकर ट्रक में खड़ा हो गया और उसने हाथ उठाकर अलिप्त-से खड़े उस लौह-पुरुष पर आक्रमण करना चाहा: ‘उसने जीवन में जो भी क़दम उठाया, उसके साथ जो कुछ भी घटित हुआ, सभी का उसे लाभ ही हुआ, सभी ने उसे प्रसिद्धि ही प्रदान की! मगर उसने किया क्या! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...तूफ़ानी धुंध...इन शब्दों में कुछ बात तो अवश्य है? समझ में नहीं आता!...किस्मत वाला है, किस्मत वाला!’ र्यूखिन ने कहा और तभी उसने महसूस किया कि उसके पैरों के नीचे का ट्रक सरक रहा है, ‘मार डाला, गोली से उड़ा दिया इसे उस श्वेत सैनिक ने और अमर बना दिया...’
वाहनों की कतार आगे बढ़ी. एकदम बीमार और बूढ़ा हो चला कवि दो मिनट के अन्दर ही ग्रिबोयेदव के बरामदे में पहुँचा. बरामदा ख़ाली हो चुका था. कोने में कुछ लोग अपनी शराब ख़त्म कर रहे थे, और उनके बीच में एक परिचित उदघोषक शैम्पेन का गिलास लिए भाग-दौड़ कर रहा था.
तौलियों में छिपे र्यूखिन से आर्चिबाल्द आर्चिबाल्दोविच टकराया और उसने तत्क्षण ही कवि को उन गन्दे तौलियों से मुक्त किया. अगर अस्पताल में और फिर ट्रक में र्यूखिन बहुत ज़्यादा परेशान न हो गया होता तो वह अवश्य ही मज़े ले-लेकर सुनाता कि अस्पताल में क्या हुआ और इस कहानी को अपनी कल्पना से सजाकर ही कहता. मगर इस समय वह इस मन:स्थिति में ही नहीं था. साथ ही, चाहे र्यूखिन की निरीक्षण शक्ति कितनी ही कमज़ोर क्यों न हो, इस समय, ट्रक के कष्टप्रद अनुभव के बाद, उसने जीवन में पहली बार इस समुद्री डाकू को तीखी नज़रों से देखा और वह समझ गया कि हालाँकि वह बेज़्दोम्नी के बारे में सवाल पूछता जा रहा था, साथ ही “ओय-ओय-ओय!” कहता जा रहा था, मगर वह बेज़्दोम्नी के भविष्य के बारे में पूरी तरह उदासीन था. उसे उस पर ज़रा भी दया नहीं आ रही थी. “शाबाश! बिल्कुल ठीक!” र्यूखिन ने उन्माद भरी, आत्मनाशक कड़वाहट से सोचा और पागलपन की कहानी को बीच ही में रोककर पूछा, “र्चिबाल्द आर्चिबाल्दोविच, मुझे थोड़ी वोद्का...”
समुद्री डाकू सहानुभूति का भाव चेहरे पर लाते हुए फुसफुसाया, “मैं समझ सकता हूँ...अभी लो...” और उसने बेयरे को हाथ के इशारे से बुलाया.
पन्द्रह मिनट बाद र्यूखिन पूरी तरह अकेला बैठकर मछली से खिलवाड़ करते हुए गिलास पर गिलास शराब पीता जा रहा था. वह समझ रहा था और स्वीकार भी कर रहा था कि उसके जीवन में कुछ भी सुधारना अब संभव नहीं है, सिर्फ भूलना ही बेहतर है.
कवि ने अपनी रात गँवा दी, जबकि अन्य व्यक्ति हर्षोल्लास में मग्न थे. अब वह समझ चुका था कि गुज़री हुई रात को वापस लौटाना असंभव है. सिर्फ लैम्प से दूर सिर उठाकर आकाश की ओर देखना ही बाकी था, यह समझने के लिए कि रात ढल चुकी थी, कभी न लौटने के लिए. बेयरे जल्दी-जल्दी मेज़ों पर से मेज़पोश समेट रहे थे. बरामदे के आसपास घूमती बिल्लियों पर सुबह का साया था. कवि पर अपने आपको थामने में असमर्थ सवेरा गिर पड़ा.
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