चर्च-गीत
लेखक: मिखाइल बुल्गाकोव
अनुवाद: आ.चारुमति रामदास
पहले तो ऐसा लगा जैसे कोई चूहा दरवाज़ा खुरच रहा हो. मगर एक बड़ी शराफ़त
भरी मानवीय आवाज़ सुनाई दी:
“अन्दर आ सकता हूँ?”
“बिल्कुल, आइए.”
दरवाज़े के कब्ज़े गाते हैं.
“आ जा और दीवान पर बैठ जा!”
(दरवाज़े से) – “और मैं लकदी के फल्स पर चलूँगा कैसे?”
“तू धीरे-धीरे आना, फिसलते
हुए मत चलना. तो...क्या ख़बर है?”
“कुस नई.”
“माफ़ कीजिए, और आज सुबह
कॉरीडोर में कौन चीख रहा था?”
(बोझिल ख़ामोशी) – मैं चिल्ला
रहा था.”
“क्यों?”
“मुज़े मम्मा ने ज़ापड मारा था.”
“किसलिए?”
(तनावभरी ख़ामोशी) – “मैंने सूर्का का कान कात लिया.”
“तभी.”
“मम्मा कहती है कि सूर्का –
बदमास है. वो मुझे चिढ़ाता है; पैसे छीन लिए.”
“चाहे जो भी हो, ऐसा कोई
कानून नहीं है कि पैसों की वजह से लोगों के कान काट लिए जाएँ. तुम, ऐसा लगता है,
कि बेवकूफ़ बच्चे हो.”
(अपमान) – “मैं तुम्हारे साथ
नहीं रहूँगा.”
“ज़रूरत भी नहीं है.”
(अंतराल) – “पापा आएँगे, मैं उन्हें बताऊँगा. (अंतराल) वो
तुम्हें गोली मार देंगे.”
“आह, तो ऐसी बात है. तो फिर
मैं चाय भी नहीं बनाऊँगा.”
“नहीं, तुम साय बनाओ.”
“और, तुम मेरे साथ पिओगे?”
“चॉकलेट के सात? हाँ?”
“बेशक.”
“पिऊँगा.”
पालथी मारे दो मानवीय आकृतियाँ बैठी हैं – बड़ी और छोटी. संगीतमय आवाज़
में केटली उबल रही है, और गरम प्रकाश का एक शंकु जेरोम वाले पृष्ठ पर पड़ रहा है.
“कविता तो तुम, शायद, भूल गए
होगे?”
“नई, नई भूला.”
“तो, सुनाओ.”
“ख...खरीदूँगा अपने लिए
जूते...”
“फ्रॉक-कोट के लिए”
“फ्रॉक-कोत के लिए और गाऊँगा
लातों में...”
“चर्च-गीत”
“चर्च-गीत...और
पालूँगा....अपने लिए कुत्ता...”
“को...”
“को...ई...बात...नई...”
“किसी तरह जी लेंगे”
“किसी तलह, जी...लें...गे.”
“बिल्कुल ठीक. चाय उबलेगी, पी
लेंगे. जी लेंगे. (गहरी साँस) – जी...ले...लें...गे.”
घंटी. जेरोम. भाप. शंकु. चमकता फर्श.
“तुम अकेले हो.”
जेरोम फर्श पर गिर जाता है. पन्ना बुझ जाता है. (अंतराल) – “ये तुमसे
आख़िर कहा किसने?”
(शांतिपूर्ण स्पष्टता) – “मम्मा ने.”
“कब?”
“तुम्हाली बतन जब सी लई थी.
सी लई है, सी लई है, सी लई है और नतास्का से कह लई है...”
“च् च्. रुको, रुको, घूमो मत,
वर्ना मैं तुम पर चाय गिरा दूँगा...ऊफ!”
“गलम है, ऊफ!”
“चॉकलेट जोनसी चाहिए वोनसी ले
लो.”
“ये, मैं ये बली वाली लूँगा.”
“फूंक मार, फूँक़ मार, और पैर
मत हिला.”
(स्टेज के पीछे से महिला की आवाज़)- “स्लाव्का!”
दरवाज़ा खटखटाता है. कब्ज़े प्रसन्नता से गाते हैं.
“ये फिर तुम्हारे पास आ गया.
स्लाव्का, घर चलो!”
“नई, नई, हम इसके साथ साय पी
रहे हैं!”
“इसने थोड़ी देर पहले ही तो पी
है.”
(शांत भण्डाफोड़) – “मैंने नई पी.”
“वेरा इवानोव्ना, आइए चाय
पीने.”
“धन्यवाद, मैंने थोड़ी ही देर
पहले...”
“आइए, आइए, मैं आपको छोडूँगा नहीं...”
“हाथ गीले हैं...मैं कपड़े
सुखा रही हूँ...”
(बिनबुलाया रक्षक) – “मेरी
मम्मा को छूने की हिम्मत न करना.”
“अच्छा, ठीक है, खींचूँगा
नहीं...वेरा इवानोव्ना, बैठिए...”
“रुकिए, मैं कपड़े फैला दूँ,
फिर आऊँगी.”
“बढ़िया. मैं लैम्प नहीं
बुझाऊँगा.”
“और तू, स्लाव्का, जब चाय पी
ले, तो घर आ जाना. सोने का टाइम हो गया. ये आपको तंग करता है.”
“मैं तंग नई कलता. मैं सलालत
नई कलता.”
कब्ज़े बेसुरी आवाज़ में गाते हैं. शंकु अलग-अलग दिशाओं में. केतली
गुमसुम है.
“तुम सोना चाहते हो?”
“नई, मैं नई साहता. तुम मुजे
कहानी सुनाओ.”
“मगर तुम्हारी आँखें तो
छोटी-छोटी हो गई हैं.”
“नई. सोती-सोती नई, कहो.”
“अच्छा, इधर आओ. सिर यहाँ
रखो. ऐसे. कहानी? कौन-सी कहानी सुनाऊँ? हाँ?”
“लड़के की, उस वाले...”
“लड़के की? ये तो दोस्त,
मुश्किल कहानी है. खैर, तुम्हारे लिए मुश्किल ही सही. तो, ऐसा था, कि एक लड़का रहता
था. हाँ...छोटा-सा बच्चा, करीब चार साल का. मॉस्को में. मम्मा के साथ. और इस बच्चे
का नाम था स्लाव्का.”
“हूँ, हूँ...जैसे की मेला है?”
“काफी ख़ूबसूरत था, मगर अफ़सोस
की बात ये थी कि वह बड़ा झगडालू-मरखणा था. और वह हर चीज़ से मारता था; मुक्कों से,
और पैरों से, और गलोशों से. और एक बार उसने सीढ़ियों पर 8 नम्बर वाली लड़की के, बहुत
अच्छी लड़की थी, ख़ामोश, खूबसूरत, तो उस लड़की के सिर पर किताब दे मारी.”
“वह ख़ुद ही झगड़ती है...”
“रुको, ये तुम्हारे बारे में
बात नहीं हो रही है.”
“दूसरा स्लाव्का है?”
“बिल्कुल दूसरा है. तो मैं कहाँ
रुका था? हाँ...तो, ज़ाहिर है कि इस स्लाव्का की हर रोज़ धुलाई होती थी, क्योंकि झगड़ा
करने की इजाज़त तो नहीं ना दी जा सकती. मगर स्लाव्का के झगड़े कम ही नहीं होते थे.
और बात यहाँ तक पहुँची कि एक दिन स्लाव्का शूर्का से लड़ पड़ा, जो ऐसा ही बच्चा था,
और, बिना कुछ सोचे-समझे दाँतों से उसका कान पकड़ कर खींचा, और आधा कान ही गायब हो
गया. कितना हँगामा हो गया...शूर्का चीख रहा है; स्लाव्का की पिटाई हो रही है, वह
भी चिल्ला रहा है...किसी तरह से शूर्का का कान सिंथेटिक मरहम से चिपकाया गया और
स्लाव्का को, ज़ाहिर है, कोने में खड़ा कर दिया गया...और अचानक – घण्टी. और अचानक एक
अनजान आदमी, बड़ी-भारी लाल दाढ़ी वाला, नीला चश्मा पहनकर आता है और मोटी आवाज़ में पूछता
है: “माफ़ कीजिए, यहाँ कोई स्लाव्का रहता है?” स्लाव्का जवाब देता है, “ये मैं हूँ –
स्लाव्का.” “अच्छी बात है,” वह कहता है, “स्लाव्का, मैं – मैं सारे मरखणे बच्चों
का इंस्पेक्टर हूँ, और मुझे तुमको, आदरणीय स्लाव्का को, मॉस्को से निकाल देना पड़ेगा.
तुर्किस्तान में.” स्लाव्का देखता है कि बात तो बिगड़ गई है, और सच्चे दिल से माफ़ी
माँगता है. “कबूल करता हूँ,” वह कहता है, “कि मैंने मार-पीट की, और सीढ़ियों पर
पैसों से खेला था, और मम्मा से झूठ भी बोला – कहा कि नहीं खेला था...मगर आगे से यह
सब नहीं होगा, क्योंकि मैं नई ज़िन्दगी शुरू कर रहा हूँ.”
“ठीक है,” इंस्पेक्टर बोला,
“ये और बात है. तब तो तुम्हें सच्चे दिल से गुनाह कबूल करने के लिए इनाम देना
चाहिए.” और वह फ़ौरन स्लाव्का को इनामों वाले गोदाम में ले गया. और स्लाव्का देखता
है कि वहाँ तो बहुत सारी नई-नई चीज़ें हैं: वहाँ गुब्बारे हैं, और मोटर गाड़ियाँ हैं,
और हवाई जहाज़ हैं, और धारियों वाली गेन्दें हैं, और साइकिलें हैं, और ड्रम्स हैं.
और इंस्पेक्टर कहता है, ‘जो तुम्हारा दिल चाहे वो ले लो.’ मगर स्लाव्का ने कौन सी
चीज़ उठाई ये मैं भूल गया.”
(मीठी, उनींदी, गहराई आवाज़) – “साइकिल!”
“हाँ, हाँ, याद आया, -
साइकिल. और स्लाव्का फौरन साइकिल पर बैठ गया और सीधे भागा कुज़्नेत्स्की पुल की ओर...भाग
रहा है, और भोंपू बजा रहा है, और लोग खड़े हैं फुटपाथ पर, अचरज कर रहे हैं: ‘वाह,
लाजवाब इंसान है, ये स्लाव्का. और, वह बस के नीचे कैसे नहीं आ रहा ?” मगर स्लाव्का
सिग्नल मारता है और गाड़ीवानों पर चिल्लाता है, “सीधे, सम्भल के!” गाड़ीवान उड़ते
हैं, कारें उड़ती हैं, स्लाव्का जोश में है, और सामने से आते हैं सिपाही – मार्च की
धुन बजाते हुए, ऐसी कि कानों में झनझनाहट होने लगती है...”
“अभी से?...”
कब्ज़े गाते हैं. कॉरीडोर. दरवाज़ा, गोरे-गोरे हाथ, कुहनियों तक खुले
हुए.
“हे भगवान. लाइए, मैं इसके
कपड़े उतार दूँ.”
“आइए ना. मैं इंतज़ार कर रहा
हूँ.”
“देर हो गई.”
“नहीं, नहीं...मैं कुछ सुनना
नहीं चाहता.”
“अच्छा, ठीक है.”
प्रकाश के शंकु. घंटियाँ बजने लगती हैं. बत्ती के ऊपर. जेरोम की ज़रूरत
नहीं – वह फर्श पर पड़ा है. केरोसीन लैम्प की माइका की खिड़की में छोटा-सा,
प्यारा-सा नर्क है. रातों को चर्च-गीत गाया करूँगा. किसी तरह जी लेंगे. हाँ, मैं
अकेला हूँ. चर्च-गीत नैराश्यपूर्ण है. मैं जीना नहीं जानता. जीवन में सर्वाधिक पीड़ादायक
चीज़ है – बटन. वे टूट जाती हैं, गिर जाती हैं, जैसे सड़ जाती हों. कल जैकेट की एक
गिर गई. आज एक गिरी कोट की, और एक पैण्ट की – पिछली वाली. मैं बटनों के साथ जीना
नहीं जानता, फिर भी जिए जाता हूँ और सब समझता हूँ. वह नहीं आएगा. वह मुझे गोली
नहीं मारेगा. वह तब कॉरीडोर में नताश्का से कह रही थी: “जल्दी ही पति वापस लौटेगा
और हम पीटर्सबुर्ग चले जाएँगे.” वह कोई आने-वाने वाला नहीं है. वह वापस नहीं आएगा,
मेरा यकीन कीजिए. सात महीनों से वह नहीं है, और तीन बार मैंने यूँ ही देखा कि वह
रो रही है. आँसू, जानते तो हैं, छुपा नहीं सकते. मगर उसने बहुत कुछ खो दिया है,
क्योंकि वह इन गोरे-गोरे, गर्माहटभरे हाथों को छोड़कर चला गया. ख़ैर, ये उसका मामला
है, मगर मैं समझ नहीं पाता कि वह स्लाव्का को कैसे भूल सकता है...
कितनी प्रसन्नता से गा उठे कब्ज़े...
शंकु नहीं है. माइका की खिड़की में है काली धुँध. चाय की केटली कब की
खामोश हो गई है.
लैम्प की रोशनी हज़ारों छोटी-छोटी आँखों से विरल, मोटे, चमकीले लैम्प-शेड
से झाँक रही है.
“आपकी उँगलियाँ बड़ी शानदार हैं.
आपको पियानो-वादक होना चाहिए.”
“हाँ, जब पीटर्सबुर्ग जाऊँगी,
तो फिर से बजाऊँगी...”
“आप पीटर्सबुर्ग नहीं जाएँगी.
स्लाव्का की गर्दन पर वैसे ही घुँघराले बाल हैं, जैसे आपके हैं. और मुझे बहुत दुःख
है, जानती हैं. इतनी उकताहट है, भयानक उकताहट.”
जीना नामुमकिन है. चारों ओर बटन्स हैं, बटन्स, बट...
“मत चूमिए मुझे...मत चूमिए...मुझे
जाना है. देर हो गई है.”
“आप नहीं जाएँगी. आप वहाँ
रोने लगेंगी. आपकी ये आदत है.”
“गलत. मैं रोती नहीं हूँ.
आपसे किसने कहा?”
“मैं खुद ही जानता हूँ. मैं देखता
हूँ. आप रोती रहेंगी, और मेरे लिए है पीड़ा...पीड़ा...”
“मैं क्या कर रही हूँ....आप
क्या करेंगे...”
शंकु नहीं हैं. विरल सैटिन के बीच से लैम्प नहीं चमक रहा है. धुँध. धुँध.
बटन्स नहीं हैं. मैं स्लाव्का के लिए साइकिल खरीदूँगा. अपने फ्रॉक-कोट
पर अपने लिए जूते नहीं खरीदूँगा, रातों को चर्च-गीत नहीं गाऊँगा. कोई बात नहीं,
किसी तरह जी लेंगे.
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