अध्याय २
न्यूरेस्थिनिया का दौरा
बात यह है कि, “शिपिंग
कंपनी” में ‘रीडर’ के मामूली पद
पर नौकरी करते हुए, मै इस ‘पद’ से नफ़रत करता था और रात को, कभी-कभी भोर
होने तक, अपनी अटारी में बैठकर उपन्यास लिखता
था.
वह अवतरित हुआ था एक रात को, जब एक निराश
सपने के बाद मेरी आंख खुली थी.
मुझे अपने पैतृक शहर का सपना आया था, बर्फ, जाडे का
मौसम, गृह युद्ध... सपने में मेरे सामने से
बर्फीला तूफ़ान गुज़र रहा था, और उसके बाद
प्रकट हुआ एक पुराना पियानो और उसके पास वे लोग जो अब दुनिया में नहीं हैं. सपने में
मेरा अकेलापन मुझे चौंका गया, मुझे खुद पर
दया आई. और मैं आंसुओं में जागा. मैंने बत्ती जलाई, धूल भरा लैम्प, जो मेज़ के
ऊपर टंगा था. वह मेरी निर्धनता को प्रकाशित कर रहा था – सस्ती दवात, कुछ किताबें, पुराने
अखबारों का गट्ठा. स्प्रिंग की वजह से बांया हिस्सा दर्द कर रहा था, दिल को भय ने दबोच लिया था. मुझे महसूस हुआ कि मैं अभी मेज़ पर ही मर
जाऊँगा, मृत्यु के दयनीय भय ने मुझे इतना गिरा दिया कि मैं कराहा, कोई सहायता और मृत्यु से सुरक्षा ढूँढते हुए उत्सुकता से चारों और देखने
लगा. और यह सहायता मुझे मिल गई. बिल्ली हौले से म्याँऊ–म्याँऊ करने लगी, जिसे मैं कभी फाटक से उठाकर लाया था. जानवर घबरा गया. एक पल के बाद
अखबारों के गट्ठे पर बैठा मेरी और गोल-गोल आंखों से देख रहा था, पूछ रहा था, - क्या हुआ?
धूसर रंग के दुबले-पतले जानवर को इस बात में दिलचस्पी थी कि कुछ न हुआ हो.
वाकई में इस बूढ़ी बिल्ली को कौन खिलाएगा?
“ ये न्यूरेस्थिनिया का दौरा है,” मैंने
बिल्ली को समझाया, “वह मेरे
भीतर शुरू हो चुका है, बढ़ता जाएगा
और मुझे खा जाएगा. मगर फिलहाल जिया जा सकता है.
बिल्डिंग सो रही थी. मैंने खिड़की में देखा. पांचों मंजिलों पर एक भी खिड़की
से रोशनी नहीं आ रही थी. मैं समझ गया कि यह कोई रिहायशी बिल्डिंग नहीं बल्कि अनेक
स्तरों वाला जहाज़ है, जो स्थिर काले आसमान के नीचे उड़ रहा है. गति के ख़याल से मैं
खुश हो गया. मैं शांत हो गया और बिल्ली ने, आँखे बंद कर लीं.
इस तरह मैंने उपन्यास लिखना शुरू किया. मैंने उनींदे बर्फीले तूफ़ान का
वर्णन किया. यह वर्णन करने की कोशिश की कि लैम्प-शेड के नीचे पियानो का कोना कैसे
चमक रहा है. यह मुझसे नहीं हो पाया. मगर मैं जिद पे उतर आया.
दिन में मैं एक बात की कोशिश करता – अपने ज़बरदस्ती के काम पर जहाँ तक संभव
हो, कम शक्ति खर्चा करूँ. मैं उसे यंत्रवत करता, इस तरह कि वह दिमाग पर बोझ न डाले. मौक़ा मिलते ही मैं बीमारी का बहाना
बनाकर काम से गायब हो जाता. लोग, बेशक, मुझ पर विश्वास नहीं करते, और मेरी
ज़िंदगी अप्रिय हो गई. मगर फिर भी मैं बर्दाश्त करता रहा और धीरे-धीरे खींचता रहा.
ठीक उसी तरह, जैसे एक बेसब्र छोकरा मिलन की घड़ी का इंतज़ार
करता है, मैं रात के एक बजे का इंतज़ार करता. इस वक्त नासपिटी बिल्डिंग शांत हो
चुकी होती. मैं मेंज़ पर बैठ जाता... उत्सुक बिल्ली अखबार पर बैठ जाती, मगर उपन्यास उसे बेहद आकर्षित कर रहा था, और वह अखबार के पन्ने से पूरी तरह लिखे हुए पन्ने पर बैठ जाती. और मैं
उसकी गर्दन पकड़कर उसे वापस उसकी जगह पर रख देता.
एक बार रात को मैंने सिर उठाया और चौंक गया. मेरा जहाज़ कहीं भी नहीं उड रहा
था, बिल्डिंग अपनी जगह पर ही थी, और पूरी तरह
उजाला हो चुका था. लैम्प कुछ भी प्रकाशित नहीं कर रहा था, बल्कि अप्रिय और चिड़चिड़ा लग रहा था. मैंने उसे बुझा दिया और मेरे सामने भोर
के प्रकाश में बदहवास कमरा प्रकट हो गया.
सीमेंट के आँगन में चोरों जैसी बेआवाज़ चाल से रंग बिरंगी बिल्लियाँ घूम रही थी.
पन्ने पर लिखा हर शब्द बगैर किसी लैम्प के देखा जा सकता था.
“खुदा! ये अप्रैल है!” न जाने क्यों घबराहट से मैं चहका, और मोटे-मोटे शब्दों में लिखा दिया: “ समाप्त.”
सर्दियाँ ख़त्म हो गई, बर्फीले तूफ़ान ख़त्म हो गए, ठंड ख़त्म हो गई. सर्दियों में मैंने अपने जो भी थोड़े बहुत परिचित थे, उन्हें खो दिया, बेहद
खस्ताहाल हो गया, जोड़ों के
दर्द से बीमार रहा और कुछ जंगली जैसा हो गया. मगर हजामत मैं रोज़ करता था.
इस सब के बारे में सोचते हुए मैंने बिल्ली को आँगन में छोड़ दिया, इसके बाद वापस
आया और सो गया - लगता है - सर्दियों में पहली बार – बिना किसी सपने के. उपन्यास को
लम्बे समय तक सुधारना पडेगा. कई स्थानों को हटाना होगा, सैंकड़ों शब्दों को दूसरे शब्दों से बदलना होगा. काफी बड़ा, मगर ज़रूरी काम है!
मगर मुझ पर लालच सवार हो गया, और, पहले छः पृष्ठों को सुधारने के बाद, मैं लोगों के बीच आया. मैंने
मेहमानों को बुलाया. उनमें “शिपिंग कंपनी” के दो पत्रकार थे, वैसे ही कामगार, जैसा मैं था, उनकी बीबियाँ और दो साहित्यकार थे. एक- जवान था, जिसने मुझे इस बात से चकित किया था कि वह लाजवाब आसानी से कहानियाँ लिखता
था, और दूसरा – अधेड उम्र का, दुनिया देख चुका आदमी, जो घनिष्ठ
परिचय के बाद खतरनाक रूप से हरामी साबित हुआ.
एक ही शाम को मैंने अपने उपन्यास का करीब एक चौथाई भाग पढ़ दिया. बीबियाँ तो
इस पठन से इतनी पस्त हो गईं कि मेरी आत्मा मुझे कचोटने लगी. मगर पत्रकार और
साहित्यकार धैर्यवान आदमी निकले. उनके निष्कर्ष भाईचारे की दृष्टी से ईमानदार, काफी गंभीर और, जैसा कि मैं
अब समझ रहा हूँ, उचित ही थे.
“भाषा!” साहित्यकार (जो, हरामी
निकला) चीखा, “भाषा, ख़ास बात है! भाषा किसी काम की नहीं है.” वह वोद्का का बडा पैग पी गया, सार्डीन गटक गया. मैंने उसे दूसरा पैग दिया. वह उसे पी गया, सोंसेज का टुकड़ा खाया.
“रूपक!” खाने के बाद चिल्लाया.
“हाँ,” नौजवान साहित्यकार ने शराफत से पुष्टि की, “भाषा कमजोर है.”
पत्रकारों ने कुछ नहीं कहा, मगर संवेदना
से सिर हिला दिए, पी गए. महिलाओं ने सिर नहीं हिलाए, वे कुछ नहीं बोलीं, ख़ास तौर से
उनके लिए खरीदी गई पोर्ट वाइन से इनकार कर दिया और वोद्का ही पी.
“कैसे नहीं होगी कमजोर,” अधेड़ आदमी चीखा, “ रूपक कोई कुत्ता तो नहीं है, कृपया इसे ‘नोट’ करें! उसके बिना सब ‘नंगा’ है! नंगा! एकदम नंगा! यह बात याद रख, बुढ़ऊ!”
ये “बुढ़ऊ” ज़ाहिर है, मेरे ही लिए
था. मैं जैसे जम गया.
बिदा लेते हुए ये तय किया कि मेरे यहां फिर आयेंगे. और एक हफ्ते बाद वे फिर
मौजूद थे.
मैंने दूसरा भाग पढ़ा. उस शाम की ख़ास बात ये थी कि अधेड़ साहित्यकार एकदम
अप्रत्याशित रूप से और मेरी मर्जी के खिलाफ मेरे साथ ‘बुदरशैफ्ट’ पी गया और मुझे
“लिओंतिच” कहने लगा/
“भाषा किसी काम की नहीं है! मगर दिलचस्प है. शैतान खा जाए ( ये मेरे लिए
था)! बेहद दिलचस्प!” दूस्या की बनाई जैली खाते हुए अधेड आदमी चीखा.
तीसरी शाम को एक नया आदमी प्रकट हुआ. वह भी साहित्यकार था – मेफिस्तोफिलीस जैसे
दुष्ट चेहरे वाला, बाईँ आंख
टेढ़ी, बिना हजामत के. बोला कि उपन्यास बुरा है, मगर उसने चौथा और अंतिम भाग सुनने की इच्छा प्रकट की. और, एक तलाकशुदा बीबी थी, और खोलबंद गिटार वाला एक आदमी. इस शाम को मैंने काफी
कुछ ज्ञान प्राप्त किया, जो मेरे लिए
उपयोगी था. “शिपिंग कंपनी” के मेरे विनम्र कोम्रेड्स को बढ़ते हुए समूह की आदत हो
गई और उन्होंने भी अपने विचार प्रकट किये. एक ने कहा, कि सत्रहवां अध्याय काफी लंबा खिंच गया है, दूसरे ने कहा कि वासेन्का के पात्र का चित्रण पर्याप्त स्पष्टता से नहीं
किया गया है. दोनों ही बातें सही थीं.
चौथी और अंतिम वाचन-संध्या का आयोजन मेरे यहाँ नहीं, बल्कि नौजवान साहित्यकार के घर हुआ, जो बड़ी कुशलता से कहानियाँ लिखता था.
यहाँ करीब बीस लोग थे, और
साहित्यकार की दादी से भी मेरा परिचय हुआ, जो बहुत प्यारी वृद्धा थी, मगर जिसे सिर्फ एक चीज़ बिगाड़ रही थी – भय का भाव, जो न जाने क्यों पूरी शाम उस पर हावी था. इसके अलावा मैंने “नर्स” को भी
देखा जो संदूक पर सो रही थी.
उपन्यास समाप्त हो गया था. और तभी विपदा आ टपकी. सभी श्रोताओं ने एक सुर
में कहा कि मेरा उपन्यास प्रकाशित नहीं हो सकता, क्योंकि सेन्सर उसे प्रमाणित नहीं करेगा.
मैंने यह शब्द पहली बार सुना था और तभी मैंने महसूस किया कि उपन्यास लिखते
समय मैंने एक भी बार इस बारे में नहीं सोचा कि सेन्सर उसे “पास” करेगा या नहीं.
शुरुआत एक महिला ने की (बाद में मुझे पता चला कि वह भी तलाकशुदा बीबी थी).
उसने यूं कहा:
“ये बताइये, मक्सूदव,
क्या आपका उपन्यास ‘पास’ कर देंगे?”
“ना-ना-ना!” अधेड़ उम्र का साहित्यकार चहका. “ किसी हालत में नहीं! ‘पास’
करने के बारे में तो बात ही नहीं हो सकती. इसकी तो, बस, कोई भी उम्मीद नहीं है. बुढऊ, परेशान न हो
- ‘पास’ नहीं करेंगे.”
“‘पास’ नहीं करेंगे!” मेज़ का छोटा सिरा कोरस में चिल्लाया.
“भाषा...” उसने शुरुआत की, जो गिटार वाले का भाई था, मगर अधेड़ उम्र वाले ने उसकी बात काटते हुए कहा:
“भाड़ में जाए भाषा!” अपनी प्लेट में सलाद रखते हुए वह चीखा, “बात भाषा की नहीं है. बुढऊ ने बुरा, मगर दिलचस्प उपन्यास लिखा है. तुझमें, बदमाश, निरीक्षण
शक्ति है. और ये सब कहाँ से आया! ज़रा भी उम्मीद नहीं थी, मगर!... विषयवस्तु!”
“हुम् ,
विषयवस्तु...”
“खास तौर से विषयवस्तु,” नर्स को परेशान करते हुए अधेड़ आदमी चिल्लाया,
“तुम्हें पता है कि किस चीज़ की माँग की जाती है? नहीं पता? अहा! वही तो
– वही तो!”
उसने आँख मारी. साथ ही पीता भी रहा. इसके बाद उसने मुझे गले लगा लिया और
चिल्लाते हुए चूम लिया:
“तुझमें कोई अप्रिय बात है, मेरा यकीन
कर! तू मुझ पर पक्का यकीन कर, मगर मैं तुझसे प्यार करता हूँ. प्यार करता हूँ, चाहे तू मुझे मार ही क्यों न डाले! शरारती है यह बदमाश! चालू इंसान है! आँ? क्या? क्या आपने
चौथे अध्याय पर गौर किया? वह नायिका
से क्या कह रहा था? वही - वही
तो!...”
“सबसे पहले, ये कैसी बात
कर रहे हैं,” उसकी घनिष्ठता से परेशानी महसूस करते हुए मैंने कहा.
“पहले तुम मुझे चूमो,” अधेड़
साहित्यकार चिल्लाया, “नहीं चाहता? देखते ही पता चल जाता है कि तू कैसा कॉम्रेड है! नहीं, भाई, तू सीधा आदमी नहीं है!”
“बेशक, सीधा नहीं है!” दूसरी तलाकशुदा बीबी ने उसका समर्थन किया.
“पहली बात,” मैंने फिर
से कडवाहट से शुरू किया, मगर इससे
कुछ भी हासिल न हुआ.
“कोई पहली-वहली बात नहीं!” अधेड़ साहित्यकार चीखा, “और तुझमें दस्तयेव्स्कियत बैठी है! हाँ---! चल, ठीक है, तू मुझसे
प्यार नहीं करता, इसके लिए
खुदा तुझे माफ करेगा, मैं तुझ पर
गुस्सा नहीं हूँ. मगर हम सब तुमसे सचमुच में प्यार करते हैं, और तेरा भला चाहते हैं!” अब उसने गिटार वाले के भाई और लाल चहरे वाले एक अन्य
व्यक्ति की और इशारा किया जो मेरे लिए अनजान था. जिसने आते ही देरी से आने के लिए
माफी मांगी थी, यह कहकर कि वह सेन्ट्रल बाथ-हाउस में गया था. “और मैं तुझसे
साफ-साफ कहता हूँ,” अधेड़ साहित्यकार
कहता रहा, “क्योंकि मैं सबके सामने खुल्लमखुल्ला कहता
हूँ , इस उपन्यास को लेकर तुम कहीं भी न जाना. अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लोगे और
हमें, तुम्हारे दोस्तों को तुम्हारी परेशानियों के खयाल से तकलीफ होगी. तू मेरा
यकीन कर! मैंने कई कड़वे अनुभव झेले हैं. ज़िंदगी को जानता हूँ! ये लो,” वह अपमान से चीखा और इशारे से सबको गवाही के लिए बुलाया, “देखिये : मेरी तरफ भेडिये जैसी आंखों से देख रहा है. ये है अच्छे बर्ताव
का उपहार! लिओंतिच!” वह इतनी जोर से चीखा कि परदे के पीछे सो रही नर्स संदूक से उठ
गई. “समझ ले! तू समझ ले कि तेरे उपन्यास की कलात्मक विशेषताएँ इतनी महान भी नहीं
हैं, (अब दीवान से गिटार का हल्का सुर सुनाई
दिया), कि उसके कारण तू सूली पर चढ़ जाए. समझ ले!”
“तू स-मझ, समझ, समझ!” गिटार वाला प्यारे सुर में गा उठा.
“और मैं तुझसे कहता हूँ,” अधेड उम्र
वाला चीखा, “अगर तुम फ़ौरन मुझे चूमोगे नहीं, तो मैं उठ जाऊँगा, चला जाऊँगा,
दोस्तों की महफ़िल से निकल जाऊँगा, क्योंकि तुमने मेरा अपमान किया है!”
अवर्णनीय पीड़ा का अनुभव करते हुए मैने उसे चूमा. कोरस इस समय बहुत बढ़िया गा
रहा था, और ऊँची सुरीली आवाज़ नजाकत से और सहजता से
अन्य आवाजों के ऊपर तैर रही थी:
तू-ऊ समझ ले, समझ ले...”
बगल में भारी पांडुलिपि दबाये, मैं बिल्ली
की तरह चुपके से क्वार्टर से बाहर निकल गया.
आंसुओं से भरी लाल-लाल आंखों से नर्स, झुककर, किचन में नल से पानी पी रही
थी.
न जाने क्यों मैंने नर्स की और एक रूबल बढ़ा दिया.
“चलो,” नर्स ने रूबल झपटते हुए कड़वाहट से कहा, “रात के तीन बज चुके हैं! ओह, ये दोज़ख
जैसी तकलीफ है.”
अब कोरस को चीरती हुई जानी पहचानी आवाज़ चीखी:
“वो है कहाँ? भाग गया? उसे पकड़ो! आप देख रहे हैं,
कॉम्रेड्स...”
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.