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रविवार, 17 नवंबर 2024

Theatrical Novel - 07

 

 

 

अध्याय – 7 


ऐसी अजीब परिस्थितियों में सबसे ज़्यादा अक्लमंदी का काम होता यह सब भूल जाना और रुदल्फी के बारे में सोचना बंद किया जाए, और उसके साथ पत्रिका के अंक के गायब होने के बारे भी न सोचा जाए. मैंने ऐसा ही किया.

मगर इससे मुझे आगे जीने की क्रूर ज़रुरत से राहत नहीं मिली. मैंने अपनी पिछली ज़िंदगी पर नज़र डाली.

‘तो,’ मार्च के बर्फानी तूफानों में, केरोसिन लैम्प के पास बैठकर, मैंने अपने आप से कहा,  - ‘मैं इन जगहों पर जा चुका हूँ.

पहली दुनिया : यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला, जिसमें मुझे फ्यूम हुड’ तथा “ट्रायपोड्स पर रखी कुप्पियों की याद है. ये दुनिया मैंने गृहयुद्ध के दौरान छोड़ दी थी. इस बात पर बहस नहीं करेंगे कि मैंने परिणामों का विचार किये बिना ये काम किया. अविश्वसनीय साहसिक कारनामों के बाद (हाँलाकि, वैसे, अविश्वसनीय क्यों? – आखिर गृहयुद्ध के दौरान किसने अविश्वसनीय कारनामों का सामना नहीं किया था?), संक्षेप में, इसके बाद मैं “शिपिंग कंपनी” में पहुँच गया. किस वजह से? छुपाऊँगा नहीं. मैं मन में लेखक बनने का सपना संजोये था. तो, इससे क्या? मैंने ‘शिपिंग कंपनी’ की दुनिया भी छोड़ दी. और, वाकई में, जिस दुनिया में जाने का मैं प्रयत्न कर रहा था, वह दुनिया मेरे सामने खुल गई, और वहाँ ऐसी घटना हुई कि वह मुझे फ़ौरन असहनीय लगने लगी. जैसे पैरिस की कल्पना करते  ही मेरे भीतर सिहरन दौड़ जाती है और मैं दरवाज़े के भीतर नहीं घुस सकता. और ये शैतान वसीली पित्रोविच! तित्यूषी में बैठा रहता! और इस्माईल अलेक्सान्द्रविच चाहे कितना ही प्रतिभावान क्यों न हो, पैरिस में सब कुछ बहुत घिनौना है. तो, इसका मतलब, मैं किसी शून्य में रह गया हूँ? बिल्कुल ठीक.

तो फिर क्या, जब तूने ये काम हाथ में ले ही लिया है तो, बैठ और दूसरे उपन्यास की रचना कर ले, और पार्टियों में नहीं भी जा सकता है. बात पार्टियों की नहीं है, बल्कि असल बात तो ये है, कि मैं वाकई में नहीं जानता था कि ये दूसरा उपन्यास किस बारे में होना चाहिए? मानवता को क्या दिखाना है? यही तो सारी समस्या है.

वैसे, उपन्यास के बारे में. सच का सामना करें. उसे किसीने नहीं पढ़ा था. पढ़ भी नहीं सकता था, क्योंकि ज़ाहिर है, किताब को वितरित करने से पूर्व ही रुदल्फी गायब हो गया था. और मेरे दोस्त ने भी, जिसे मैंने एक प्रति भेंट में दी थी, उसने भी नहीं पढ़ा था. यकीन दिलाता हूँ.

हाँ, वैसे: मुझे यकीन है, कि इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद कई लोग मुझे बुद्धिजीवी और न्यूरोटिक (विक्षिप्त) कहेंगे. पहले के बारे में तो बहस नहीं करूंगा, मगर दूसरे के बारे में पूरी संजीदगी से आगाह करता हूँ, कि ये झूठ है. मुझमें तो न्यूरेस्थेनिया (विक्षिप्तता) का लेशमात्र भी नहीं है. और वैसे, इस शब्द को इधर-उधर फेंकने से पहले, सही तरह से यह जानना होगा, कि न्यूरेस्थेनिया आखिर है क्या, और इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की कहानियाँ सुनना होगा. मगर ये एक अलग बात है. सबसे पहले तो ज़िंदा रहना ज़रूरी था, और इसके लिए पैसे कमाना था.

तो, मार्च की बकवास बंद करके, मैं काम पर गया. यहाँ तो ज़िंदगी जैसे मुझे गर्दन से पकड़कर पथभ्रष्ठ बेटे की तरह वापस ‘शिपिंग कंपनी में ले आई. मैंने सेक्रेटरी से कहा, कि मैंने उपन्यास लिखा है. इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ. संक्षेप में, मैं इस बात पर राजी हो गया, कि हर महीने चार लेख लिखूंगा. इसके लिए मुझे नियमानुसार मेहनताना प्राप्त होगा. इस तरह, कुछ आर्थिक आधार का जुगाड़ तो हो गया. प्लान ये था कि जितनी जल्दी हो सके, इन लेखों का बोझ कन्धों से उतार दूँ और रातों को फिर से लिखूं.

पहला भाग तो मैंने पूरा कर लिया, मगर दूसरे भाग के साथ शैतान जाने क्या हुआ. सबसे पहले मैं किताबों की दुकानों में गया और आधुनिक लेखकों की रचनाएं खरीदीं. मैं जानना चाहता था, कि वे किस बारे में लिखते हैं, इस कला का जादुई रहस्य क्या है.

क़िताबें खरीदते समय मैंने पैसे की फ़िक्र नहीं की, बाज़ार में उपलब्ध सबसे बढ़िया चीज़ें खरीदता रहा. सबसे पहले मैंने इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की रचनाएं, अगाप्योनव की किताब, लिसासेकव के दो उपन्यास, फ़्लविआन फिआल्कोव के दो कथा संग्रह और भी बहुत कुछ खरीदा.

सबसे पहले, बेशक, मैं इस्माईल अलेक्सान्द्रविच की ओर लपका. जैसे ही मैंने आवरण पर नज़र डाली, एक अप्रिय भावना मुझे कुरेदने लगी. किताब का शीर्षक था “ पैरिस के अंश”. आरंभ से अंत तक वे सभी मुझे जाने-पहचाने लगे. मैंने नासपीटे कन्द्यूकोव को पहचाना, जिसने ऑटोमोबाईल प्रदर्शनी में उल्टी कर दी थी, और उन दोनों को भी, जो शान-ज़िलीज़ पर हाथा-पाई कर बैठे थे (एक था, शायद, पमाद्किन, दूसरा – शिर्स्त्यानिकव), और उस बदमाश को भी जिसने ‘ग्रांड ओपेरा में अभद्र रूप से मुट्ठी दिखाई थी. इस्माईल अलेक्सान्द्रविच असाधारण प्रतिभा से लिखता था, उसकी तारीफ़ करनी ही चाहिए, और उसने पैरिस के बारे में मेरे मन में एक भय की भावना पैदा कर दी.

अगाप्योनव ने, लगता है, अपना कथा-संग्रह – ‘त्योतुशेन्स्काया गमाज़ा’ - पार्टी के फ़ौरन बाद प्रकाशित कर दिया. यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था, कि वसीली पित्रोविच कहीं भी रात बिताने का इंतज़ाम नहीं कर पाया था, वह अगाप्योनव के यहाँ रात गुजारता था, जिसे खुद को ‘बेघर देवर’ की कहानियों का इस्तेमाल करना पडा. सब कुछ समझ में आ रहा था, सिवाय पूरी तरह आगामी शब्द ‘गमाज़ा के.

मैंने दो बार लिसासेकव के उपन्यास ‘हंस को पढ़ना शुरू किया, दो बार पैंतालीसवें पृष्ठ तक पढ़ा गया और फिर से शुरू से पढ़ने लगा, क्योंकि भूल गया कि आरंभ में क्या था. इससे मैं सचमुच घबरा गया। मेरे दिमाग़ में कुछ गड़बड़ हो रही थी – या तो मैं गंभीर बातें समझना भूल गया था या अभी तक उन्हें समझ नहीं पाया था. और मैंने लिसासेकव को हटा कर फ़्लाविआन को पढ़ना शुरू किया और लिकास्पास्तव को भी, और इस अंतिम लेखक ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया. खासकर, उस कहानी को पढ़ते हुए, जिसमें किसी विशिष्ट पत्रकार का वर्णन किया गया था ( कहानी का शीर्षक था ‘ऑर्डर पर किराएदार), मैंने फटे हुए सोफे को पहचान लिया, जिसके भीतर से स्प्रिंग बाहर उछल आई थी, मेज़ पर सोख्ता...मतलब, कहानी में वर्णन किया था...मेरा!

पतलून भी वही, कन्धों के बीच खींचा हुआ सिर और भेडिये जैसी आंखें...मतलब, एक लब्ज़ में, मैं ही था! मगर, हर उस चीज़ की, जो मुझे ज़िंदगी में प्रिय थी, कसम खाकर कहता हूँ, कि मेरा वर्णन ईमानदारी से नहीं किया गया था. मैं बिल्कुल भी चालाक नहीं हूँ, लालची नहीं हूँ, शरारती नहीं हूँ, झूठा नहीं हूँ, पदलोलुप नहीं हूँ, और ऐसी बकवास, जैसी इस कहानी में है, मैंने कभी भी नहीं की!

लिकास्पास्तव की कहानी को पढ़कर मुझे अवर्णनीय दुःख हुआ. और मैंने खुद को निष्पक्ष भाव से और कठोरता से देखने का निर्णय कर लिया, और इस निर्णय के लिए मैं लिकास्पास्तव का अत्यंत आभारी हूँ.

मगर मेरे दुःख और अपनी अपरिपूर्णता के बारे में मेरे विचारों का मूल्य, खासकर, कुछ भी नहीं था, उस भयानक आत्मज्ञान के मुकाबले में, कि मैं सर्वश्रेष्ठ लेखकों की पुस्तकों से कुछ भी हासिल नहीं कर पाया था, कोई रास्ता, जैसा कहते हैं, नहीं खोज पाया, अपने सामने कोई रोशनी नहीं देख पाया, और मैं हर चीज़ से बेज़ार हो गया. और एक घृणित विचार किसी कीड़े की तरह मेरे दिल को कुरेदने लगा, कि मैं कभी भी लेखक नहीं बन पाऊंगा. और तभी एक और भयानक विचार से टकराया, कि ...तो फिर लिकास्पास्तव जैसे लेखक कैसे बनते हैं? हिम्मत करके कुछ और भी कहूंगा: और अचानक वैसे, जैसा अगाप्योनव है? गमाज़ा? गमाज़ा क्या है? और काफ़िर किसलिए? ये सब बकवास है, आपको यकीन दिलाता हूँ!    

निबंधों से परे मैंने बहुत सारा समय अलग-अलग तरह की किताबें पढ़ते हुए, सोफे पर बिताया, जिन्हें जैसे-जैसे मैं खरीदता गया, लंगडी किताबों की शेल्फ में और मेज़ पर और बस कोने में रखता गया. मेरी अपनी रचना के साथ मैंने ऐसा किया कि बची हुई नौ प्रतियों और पांडुलिपि को मेज़ की दराजों में रख दिया, उन्हें चाभी से बंद कर दिया और फैसला कर लिया कि ज़िंदगी में उनकी ओर कभी नहीं लौटूंगा.

एक बार बर्फानी बवंडर ने मुझे जगा दिया. मार्च तूफ़ानी था और चिंघाड़ रहा था, हांलाकि समाप्त होने को था, और फिर से, जैसे तब, मैं आंसुओं तर जाग गया! कैसी कमजोरी, आह, कैसी कमजोरी है! और फिर से वे ही लोग, और फिर से दूरस्थ शहर, और पियानो का किनारा, और गोलीबारी, और फिर से कोई बर्फ़ में गिरा हुआ.

ये लोग सपनों में पैदा होते, सपनों से बाहर आते और मेरी कोठरी में बस जाते. ज़ाहिर था कि उनसे इस तरह अलग होना संभव नहीं था. मगर उनके साथ किया क्या जाए?

शुरू में तो मैं सिर्फ बातें करता रहा, मगर फिर भी उपन्यास तो मुझे दराज़ से बाहर निकालना ही पडा, अब मुझे शाम को ऐसा प्रतीत होने लगा, कि सफ़ेद पृष्ठ से कोई रंगीन चीज़ उभर रही है. गौर से देखने पर, आंखें सिकोड़ कर देखने पर, मुझे यकीन हो गया की यह एक चित्र है. और ऊपर से ये चित्र समतल नहीं है, बल्कि तीन आयामों वाला है. जैसे कोई डिब्बा हो, और उसमें पंक्तियों के बीच से दिखाई दे रहा है: रोशनी जल रही है और उसमें वे ही आकृतियाँ घूम रही हैं जिनका उपन्यास में वर्णन किया गया है. आह, ये कितना दिलचस्प खेल था, और मैं कई बार पछताया कि बिल्ली अब इस दुनिया में नहीं है और यह दिखाने के लिए कोई नहीं था कि छोटे से कमरे में पृष्ठ पर लोग कैसे घूम रहे हैं. मुझे यकीन है कि जानवर अपना पंजा निकाल कर पृष्ठ को खरोंचने लगता. मैं कल्पना कर सकता हूँ, कि बिल्ली की आंख में कैसी जिज्ञासा चमक रही होगी, कैसे उसका पंजा अक्षरों को खरोंच रहा होगा!

समय के साथ किताब वाला कमरा आवाज़ करने लगा. मैंने स्पष्ट रूप से पियानो की आवाज़ सुनी. सही है, कि अगर मैं किसी से इस बारे में कहता, तो यकीन कीजिये, मुझे डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी जाती. कहते, कि फर्श के नीचे पियानो बजा रहे हैं, और ये भी कहते, संभव है, कि निश्चित रूप से बजा रहे हैं. मगर मैं इन शब्दों पर ध्यान नहीं देता. नहीं, नहीं! मेरी मेज़ पर पियानो बजा रहे हैं, यहाँ कुंजियों की शांत झंकार हो रही है. मगर ये तो कम ही है. जब घर शांत हो जाएगा और नीचे कुछ भी नहीं बजा रहे होंगे, मैं सुनूंगा, कि कैसे बवंडर के बीच से व्याकुल और डरावना हार्मोनियम चिघाड रहा है, और क्रोधित और दयनीय आवाजें हार्मोनियम के साथ मिलकर कराह रही हैं, कराह रही हैं. ओह, नहीं, ये फर्श के नीचे नहीं है. कमरा बुझ क्यों रहा है, पन्नों पर द्नेप्र के ऊपर वाली शीत ऋतु की शाम क्यों छा रही है, घोड़ों के थोबड़े, और उनके ऊपर टोपियाँ पहने लोगों के चेहरे. और मैं देखता हूँ तेज़ तलवारें, और सुनता हूँ, आत्मा को चीरती हुई सीटी. ये, हांफते हुए एक छोटा-सा आदमी भाग रहा है. तम्बाकू के धुएँ के बीच मैं उसका पीछा करता हूँ, मैं अपनी आंखों पर ज़ोर डालता हूँ और देखता हूँ: आदमी के पीछे एक चमक हुई, गोली चली, वह हांफते हुए पीठ के बल गिर जाता है, जैसे किसी तेज़ चाकू से उसके दिल पर सामने से वार किया गया हो. वह निश्चल पडा है, और सिर से काला पोखर फ़ैल जाता है. और ऊंचाई पर चाँद है, और दूर पर बस्ती की उदास, लाल रोशनियों की श्रृंखला.

पूरी ज़िंदगी ये खेल खेला जा सकता था, पन्ने की तरफ देखते हुए...मगर इन आकृतियों को कैसे पक्का करके रखेंगे? इस तरह, कि वे कहीं और न भाग जाएं?

और एक रात को मैंने इस जादुई डिब्बे का वर्णन करने का निश्चय कर लिया. कैसे करूँ उसका वर्णन?

बिल्कुल आसान है. जो देखते हो, वही लिखो, और जो नहीं देखते, उसका वर्णन करने की ज़रुरत नहीं है. यहाँ: चित्र रोशन होता है, चित्र चमकता है. क्या वह मुझे अच्छा लगता है? बेहद. तो, मैं लिखता हूँ: पहला चित्र. मैं देखा रहा हूँ शाम का मंज़र, लैम्प जल रहा है. पियानो पर नोट्स खुले पड़े हैं. ‘फ़ाऊस्ट बजा रहे हैं. अचानक ‘फ़ाउस्ट खामोश हो जाता है, मगर गिटार बजने लगता है. कौन बजा रहा है? वो हाथ में गिटार लिए दरवाज़े से बाहर निकलता है. सुन रहा हूँ – वह गुनगुना रहा है. लिखता हूँ – गुनगुना रहा है.

हाँ, लगता है की यह एक आकर्षक खेल है! पार्टियों में जाने की ज़रुरत नहीं है, न ही थियेटर में जाने की कोई ज़रुरत है.

तीन रातें मैंने पहली तस्वीर से खेलते हुए बिताईं, और इस रात के अंत में मैं समझ गया की मैं नाटक लिख रहा हूँ.

अप्रैल के महीने में, जब आँगन से बर्फ गायब हो चुकी थी, पहला अंक तैयार हो गया था. मेरे नायक हलचल कर रहे थे, घूम रहे थे, और बातें कर रहे थे.

अप्रैल के अंत में ईल्चिन  का पत्र आया.

और अब, जब पाठक को उपन्यास का इतिहास ज्ञात है, मैं अपना कथन वहां से जारी रख सकता हूँ, जब मैं ईल्चिन  से मिला था.

रविवार, 29 सितंबर 2024

White Guards (Complete)

 

मिखाइल बुल्गाकोव

 

श्वेत गार्ड्स

 

 

 

 

 

 

हिन्दी अनुवाद

आ. चारुमति रामदास

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

The White Guards (Russian) by Mikhail Afanasevich Bulgakov.

 

Hindi Translation@ A. Charumati Ramdas, 2024

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

दो शब्द

 

 

प्रसिद्ध रूसी लेखक मिखाइल बुल्गाकव (1891- 1940) पेशे से डॉक्टर थे. वे लेखक एवँ नाटककार भी थे.

मेडिकल की पढाई पूरी करने के बाद वे प्रैक्टिस करते रहे. साथ ही कुछ सृजनात्मक कार्य भी चलता रहा.

मिखाइल बुल्गाकव को उनके सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘मास्टर और मार्गारीटा’ के लिए जाना जाता है.

सन् उन्नीस सौ बीस में वे मॉस्को आ गए, अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत उन्होंने अखबारों में छोटे लेखों से की.

अपने डॉक्टरी जीवन के अनुभवों को उन्होंने “नौजवान डॉक्टर के नोट्स” नामक पुस्तक में संग्रहित किया है.

“श्वेत गार्ड्स” उनका पहला उपन्यास था, जो पहली बार रूसी साहित्यिक पत्रिका ‘रशिया में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था. मगर उसके पूरा होने से पूर्व ही पत्रिका बंद हो गयी. पूरा उपन्यास पैरिस में सन् 1927 में प्रकाशित हुआ. उसके बाद सन् 1966 में ही वह सोवियत संघ में प्रकाशित हो सका.

“श्वेत गार्ड्स” सन् 1918 के कीएव की पृष्ठभूमि को प्रदर्शित करता है, जब वहां अनेक फौजों के बीच कीएव पर अधिकार करने के लिए युद्ध हो रहा था.

उपन्यास बहुत कुछ लेखक के वास्तविक जीवन पर आधारित है. तुर्बीन का परिवार मिखाइल बुल्गाकव का ही परिवार था. सभी घटनाएं एवम् स्थान वास्तविक हैं.

 

 

 

ल्युबोव एव्गेन्येव्ना बिलाज़्योर्स्काया को समर्पित

हल्की बर्फ गिरने लगी,

और अचानक बड़े-बड़े

फाहे गिरने लगे.

हवा चिंघाड़ने लगी; 

बर्फीला तूफ़ान आ गया.

पल भर में काला आकाश बर्फ के समुन्दर में बदल गया.

सब कुछ लुप्त हो गया.

“ओह, मालिक,” गाडीवान चिल्लाया,
“मुसीबत: बर्फीला तूफ़ान!”

“कप्तान की बेटी”

और ग्रंथों में जो लिखा है,

उसके मुताबिक़

अपने कर्मों के अनुसार

मृतकों का भी न्याय किया गया.

 

भाग – एक

 

1.

 

महान था यह साल, और .क्रिसमस के बाद, तथा द्वितीय क्रान्ति के आरंभ से ही भयानक था सन् 1918 का साल. गर्मियों में प्रचुर धूप, और सर्दियों में बेहद बर्फबारी, और विशेष रूप से ऊंचे आसमान में दो तारे चमक रहे थे: चरवाहे का तारा – शाम का शुक्रतारा, और लाल, थरथराता मंगल.  

मगर दिन तो शान्ति और युद्ध के दिनों में तीर की तरह लपक कर गुज़र जाते हैं, और नौजवान तुर्बीनों को पता ही नहीं चला कि कैसे कडाके की बर्फीली ठण्ड में सफ़ेद झबरा दिसंबर आ पहुँचा. ओ, बर्फ और सुख से दमकते, क्रिसमस ट्री वाले हमारे दद्दू! मम्मा, ओजस्वी महारानी, कहाँ हो तुम?

बेटी एलेना की कैप्टन सिर्गेइ इवानविच ताल्बेर्ग से शादी के एक साल बाद, और उस  सप्ताह, जब बड़ा बेटा अलेक्सेई वसील्येविच तुर्बीन कठिन अभियानों, सेवा और मुसीबतों के बाद युक्रेन लौटा था, अपने शहर , अपने प्यारे घोसले में, सफ़ेद ताबूत में माँ के जिस्म को पदोल स्थित अलेक्सेव्स्की की  सीधी ढलान से नीचे, छोटे से निकलाय दोब्री चर्च ले जाया गया, जो व्ज्वोज़ में है.

जब माँ को दफनाया जा रहा था. तो मई का महीना था, चेरी और अकासिया के वृक्षों ने लेंसेट खिड़कियों को पूरी तरह कस कर ढांक दिया था. फ़ादर अलेक्सान्द्र दुःख और परेशानी से लड़खड़ाते हुए, सुनहरी रोशनी में चमक रहे थे और जगमगा रहे थे, और डीकन, जिसका चेहरा और गर्दन बकाइन जैसे नज़र आ रहे थे, जूतों की नोक तक सोने में मढा हुआ, जिनके तलवे चरमरा रहे थे, उदासी से चर्च के बिदाई-सन्देश को माँ के पास खडा बुदबुदा रहा था, जो अपने बच्चों को छोड़कर जा रही थी.                

अलेक्सेई, एलेना, ताल्बेर्ग और अन्यूता, जो तुर्बीनो के घर में पली-बढ़ी थी, और माँ की मृत्यु से सुन्न हो गया निकोल्का, जिसकी दाईं भौंह पर एक लट झुक आई थी, बूढ़े, भूरे सेंट निकोला के पैरों के पास खड़े थे. निकोल्का की नीली आंखें, जो उसकी लम्बी, पंछी जैसी नाक के दोनों ओर स्थित थीं, बदहवासी से, आहत भाव से देख रही थीं. बीच बीच में वह वेदी की ओर, आधे अँधेरे में डूबते हुए अल्टार के आर्क को, देख लेता जहाँ दयनीय, रहस्यमय, बूढा खुदा, चढ़ा हुआ था, आंखें झपकाता. 

किसलिए ऐसा अपमान? अन्याय? माँ को छीन लेने की क्या ज़रुरत थी, जब सब इकट्ठा हुए थे, जब कुछ राहत के दिन लौटे थे?

काले, छितरे आसमान में उड़ते हुए खुदा ने जवाब नहीं दिया, और खुद निकोल्का भी अभी नहीं जानता था, कि जो कुछ भी हो रहा है, हमेशा ऐसे ही होता है, जैसे होना चाहिए, और सिर्फ अच्छे के लिए ही होता है.

फ्यूनरल सर्विस समाप्त हुई, पोर्च के गूंजते हुए स्लैब्स पर बाहर निकले और मम्मा को पूरे विशाल शहर  से कब्रिस्तान ले गए, जहाँ काले संगमरमर के सलीब के नीचे काफी पहले पापा दफनाये गए थे. मम्मा को भी दफनाया. एह...एह...

 

****

 

उसकी मृत्यु से पहले, बहुत सालों तक सेंट अलेक्सेई पहाडी पर स्थित मकान नं. 13 में टाईल्स वाली भट्टी दहकती रहती और छोटी एलेन्का को, बड़े अलेक्सेई को और बिलकुल नन्हें निकोल्का को गरमाती. दहकती भट्टी के पास कितनी ही बार ‘सर्दाम का बढ़ई’ उपन्यास पढ़ते, घड़ी अपना संगीत बजाती, और हमेशा दिसंबर के अंत में चीड के नुकीले काँटों की खुशबू आती, और हरी-हरी टहनियों पर रंगबिरंगी मोमबत्तियाँ जलती रहतीँ.

ताँबे की, संगीत वाली, घड़ी के जवाब में, जो मम्मा के, और अब एलेन्का के शयन कक्ष में हैं, डाइनिंग रूम में काली दीवार घड़ी घंटाघर जैसे घंटे बजाती. उन्हें पापा ने काफी पहले खरीदा था, जब औरतें कन्धों पर फूली-फूली बाहों वाली ड्रेस पहनती थीं. वैसी बाहें गायब हो गईं, देखते-देखते समय बीत गया था. पापा – प्रोफ़ेसर, गुज़र गए, सब बड़े हो गए, मगर घड़ी वैसी ही रही और वैसे ही घंटे बजाती रहीं. उनकी इतनी आदत हो गई थी, कि मान लो, अगर वे कभी दीवार से गायब हो गईं, तो इतना दुःख होता, जैसे कोई अपनी आवाज़ मर गई हो और उस खाली जगह को किसी भी तरह से भरना नामुमकिन होता. मगर, खुशकिस्मती से घड़ी पूरी तरह से अमर है, ‘सर्दाम का बढ़ई’ भी अमर है, और टाईल्स वाली डच-भट्टी भी, किसी बुद्धिमान चट्टान की तरह, कठिन से कठिन समय में भी जीवन और गर्माहट देने के लिए. 

ये टाईल्स वाली भट्टी, और पुराने लाल मखमल वाला फर्नीचर, और चमकती मूठों वाले पलंग, तस्वीरों वाले कार्पेट, शोख और लाल, हाथ में बाज़ लिए अलेक्सेई मिखाइलविच, लुदविक XIV, जन्नत के बाग़ में रेशम जैसे तालाब के किनारे झुका हुआ, पूर्वी शैली में बने हुए अद्भुत डिजाइनों वाले तुर्की कार्पेट, जिनके सपने लाल ज्वर के प्रलाप में नन्हें निकोल्का को आते थे, शेड वाला ताँबे का लैम्प. किताबों से भरी दुनिया की सबसे अच्छी अलमारियाँ, जिनसे रहस्यमय चॉकलेट की खुशबू आती, नताशा रस्तोवा के साथ, कप्तान की बेटी के साथ, सुनहरे प्याले, चांदी का सामान, पोर्ट्रेट्स, - सभी धूल भरे और सामान से खचाखच भरे सातों कमरे, जिनमें जवान तुर्बींन बड़े हुए थे, यह सब अत्यंत कठिन समय में मम्मा बच्चों के लिए छोड़ गई और, रुकती हुई साँस से, निढाल होते हुए, रोती हुई एलेना का हाथ पकड़कर बोली:

“प्यार से...रहना.”

 

****

 

मगर कैसे जिएँ? जिएँ तो कैसे जिएँ?

बड़ा, अलेक्सेई वसील्येविच तुर्बींन – नौजवान डॉक्टर अट्ठाईस साल का था. एलेना – चौबीस की. उसका पति, कैप्टन ताल्बेर्ग – इकतीस का, और निकोल्का – साढ़े सत्रह का.  

उनके जीवन में तो दिन निकलते ही अन्धेरा हो गया था. काफी पहले से उत्तर से क्रान्ति की हवा चल रही थी, और दिनों दिन अधिकाधिक तीव्र होती जा रही है, समय के साथ हालात बदतर होते जा रहे हैं. बड़ा तूर्बिंन पहले ही विस्फोट के बाद, जिसने द्नेप्र के ऊपर वाले पहाड़ों को हिला दिया था, अपने पैतृक शहर  में लौट आया. सोच रहे थे, कि जल्दी ही यह सब रुक जाएगा, वह ज़िंदगी शुरू हो जायेगी जिसके बारे में चॉकलेट की खुशबू वाली किताबों में लिखा जाता है, मगर सिर्फ वह शुरू नहीं हो रही थी, बल्कि चारों और हालात और भी भयानक होते जा रहे हैं. उत्तर में बर्फीला बवंडर चिंघाड़े जा रहा है और यहाँ, पैरों तले भयानक गडगडाहट होती है, धरती की उत्तेजित कोख कराह रही है. सन् अठारह अंत की ओर भाग रहा है, और दिन पर दिन अधिकाधिक भयानक और खतरनाक प्रतीत हो रहा है.

दीवारें गिर जायेंगी, सफ़ेद आस्तीन से उत्तेजित बाज़ उड़ जाएगा, ताँबे के लैम्प में लौ बुझ जायेगी, और ‘कप्तान की बेटी’ को भट्टी में जला देंगे. मम्मा ने बच्चों से कहा था:

“जीते रहो.”

मगर उन्हें तो तड़पना और मरना पडेगा.

माँ को दफनाने के कुछ समय बाद, एक बार, सांझ के झुटपुटे में अलेक्सेई तुर्बीन फादर अलेक्सांद्र के पास आया और बोला, .

“बहुत दुखी हैं हम, फादर अलेक्सांद्र. मम्मा को भूलना बहुत कठिन है, और ऊपर से समय इतना कठिन है...ख़ास बात ये है, कि मैं अभी-अभी लौटा हूँ, सोचता था कि ज़िंदगी को ठीक-ठाक कर लूँगा, और ये...”

वह खामोश हो गया और, मेज़ के पास बैठे हुए शाम के धुन्धलके में दूर कहीं देखते हुए सोचता रहा.

चर्च के कम्पाउंड में टहनियों ने प्रीस्ट के छोटे से घर को भी ढांक दिया था. ऐसा लग रहा था, कि उस तंग कमरे की दीवार के पीछे, जो किताबों से ठसाठस भरा था, अभी बसंत का, रहस्यमय, बेतरतीब जंगल शुरू हो जाएगा. शहर  शाम की तरह दबी-दबी आवाज़ में शोर मचा रहा था, बकाइन की खुशबू आ रही थी.        

“क्या करोगे, क्या करोगे,” पादरी परेशानी से बुदबुदाया. (जब लोगों से बात करने का मौक़ा आता तो वह हमेशा परेशान हो जाता था.) “खुदा की मर्जी.”

“ हो सकता है, यह सब कभी ख़तम हो जाएगा? आगे – बेहतर ही होगा?” न जाने किससे तुर्बींन ने पूछा.

पादरी कुर्सी में कसमसाया.

मुश्किल, बेहद मुश्किल समय है, क्या कहें,” वह बुदबुदाया, “मगर हिम्मत न हारो...”  

फिर अचानक अपने सफ़ेद हाथ को चोगे की काली आस्तीन से निकाल कर, किताबों की गड्डी पर रख दिया और सबसे ऊपर वाली किताब को उस जगह पर खोला, जहाँ कढ़े हुए रिबन का बुक-मार्क था.

“ निराशा को पास फटकने नहीं देना है,” उसने परेशानी से, मगर, जैसे काफी विश्वास से कहा. “महान पाप है निराशा...हाँलाकि, मुझे लगता है कि अभी और भी इम्तेहान होंगे. हाँ, बिलकुल, बड़े इम्तिहान,” वह अधिकाधिक विश्वास से कह रहा था.

“पिछले कुछ समय से मैं, पता है. किताबों के, विशेष किताबों के साथ समय बिताता हूँ, बेशक, थियोलॉजी की किताबों के साथ...”

उसने किताब कि इस तरह से कुछ ऊपर उठाया, कि खिड़की से आती हुई अंतिम किरण पृष्ठ पर पड़े, और पढ़ा:

“तीसरे फ़रिश्ते ने अपना गिलास नदी में और पानी के झरनों में उंडेल दिया; और वह खून बन गया.”

 

2.

 

तो, सफ़ेद झक्, झबरा दिसंबर था. वह निश्चयपूर्वक आधा होने की दिशा में चल रहा था. बर्फ से ढंके रास्तों पर क्रिसमस की चमक महसूस हो रही थी. सन् अठारह जल्दी ही समाप्त होने वाला था.

दो मंजिला मकान नं. 13 के ऊपर, जो अजीब सा था, (रास्ते पर तुर्बीनों का क्वार्टर दूसरी मंजिल पर था, मगर छोटे से, ढलवां, आरामदेह आँगन में – पहली मंजिल पर), जो बगीचे में एकदम खड़ी पहाड़ी से चिपका हुआ था, पेड़ों की सारी टहनियां मुरझा गई थीं, और झुक गई थीं.

पहाडी बर्फ से ढँक गई थी, कम्पाउंड के शेड्स भी पूरी तरह ढंक गए थे – और शक्कर का खूब बड़ा सिर खडा हो गया. घर को श्वेत जनरल की टोपी ने ढांक दिया, और निचली मंजिल पर (सड़क से पहली, कम्पाउंड में तुर्बीनों के बरामदे के नीचे – गोदाम वाली) पीली, मरियल रोशनी में चमक रहा था, इंजीनियर और डरपोक, बुर्जुआ, और अप्रिय, वसीली इवानविच लीसविच, और ऊपर की मंजिल पर – प्रखरता और प्रसन्नता से तुर्बीनों की खिड़कियाँ दमक रही थीं.   

शाम के धुंधलके में अलेक्सेई और निकोल्का लकडियाँ लाने शेड में गए.

“एह, एह, लकडियाँ तो कितनी कम हैं. आज फिर चुरा कर ले गए, देख.”

निकोल्का के इलेक्ट्रिक लैम्प से नीली रोशनी की लकीर निकली,  और उसमें साफ़ दिखाई दिया कि दीवार की चौखट स्पष्ट रूप से उखाड़ ली गई थी और जल्दबाजी में बाहर से ठोंक दी गई थी.

“शैतानों को गोली मार देना चाहिए! ऐ-खुदा. चल, ऐसा करते हैं : आज रात चौकीदारी करें? मुझे मालूम है – ये ग्यारह नंबर वाले चमार हैं. कैसे बदमाश हैं! उनके पास हमसे ज़्यादा लकडियां हैं,

“उनकी तो...चल जायेंगे. उठा.”

जंग लगा ताला गा उठा, भाइयों के ऊपर लकड़ियों का ढेर गिरने लगा, उन्होंने कुछ लकडियाँ खींची. नौ बजते-बजते सर्दाम की टाईल्स को छूना नामुमकिन था.     

अपनी चकाचौंध करती सतह पर लाजवाब भट्टी कुछ ऐतिहासिक विवरण और चित्र समेटे हुए थी, जिन्हें सन् अठारह के विभिन्न कालखंडों में निकोल्का ने स्याही से बनाया था और जिनका बड़ा गहरा अर्थ और महत्त्व था:

“ अगर कोई तुमसे कहे कि ‘मित्र हमें बचाने के लिए आ रहे हैं, - तो विश्वास न करो.

‘मित्र – कमीने हैं,

वह बोल्शेविकों से सहानुभूति रखता है.”

 

चित्र: मोमुस का थोबड़ा.

हस्ताक्षर: “उलान लिअनिद यूरेविच”.

“अफवाहें डरावनी, भयानक.

आ रहे हैं गिरोह लाल!”

रंगबिरंगा चित्र : लटकती हुई मूंछों वाला चित्र, नीली रिबन वाली हैट में.

नीचे लिखा था:

“मार पेत्ल्यूरा को!”

एलेना और तुर्बीनों के पुराने, प्यारे बचपन के दोस्तों – मिश्लायेव्स्की, करास, शिर्वीन्स्की – के हाथों से रंगों से, पेंट से, स्याही से, चेरी के रस से लिखा था:

“एलेना वसील्येव्ना  हमसे बेहद प्यार करती है,

किसी को – हाँ, और किसी को – ना.”

“लेनच्का, मैंने ‘आइदा की टिकट ली है.

बॉक्स नं. 8, दाईं ओर.”

“सन् 1918 में 12 मई के दिन मुझे प्यार हो गया.”

“आप मोटे और बदसूरत हैं.”

“ऐसे लब्जों के बाद मैं अपने आप को गोली मार लूँगा.”

(सचमुच की ब्राउनिंग जैसी तस्वीर बनाई गई थी.)

“रूस - जिंदाबाद!

साम्राज्य – जिंदाबाद!”

“जून. बर्कारोला (नाविक का गीत – अनु.)”

“यूँ ही नहीं याद रखता रूस

बरोदिनो का दिन.”

निकोल्का के हाथ से, बड़े-बड़े अक्षरों में:

“मैं हुक्म देता हूँ, कि भट्टी पर बेकार की बातें न लिखे, हर कॉमरेड के गोली मार दिए जाने और अधिकारों से वंचित कर दिए जाने का खतरा है.

पदोल्स्की डिस्ट्रिक्ट कमिटी का कमिसार.

  लेडीज़, जेंटलमेन और महिला टेलर अब्राम प्रुझिनेर,

30 जनवरी, सन् 1918.” 

 

चित्रों वाली टाईल्स गर्मी के कारण दमक रही थीं, काली घड़ी उसी तरह चल रही है, जैसे तीस साल पहले चलती थी : टोंक-टांक. बड़ा तुर्बीन, सफाचट दाढी, भूरे बालों वाला, जो 25 अक्टूबर 1917 से बूढ़ा और उदास हो गया था, बड़ी-बड़ी जेबों वाली जैकेट, नीली पतलून और नए नरम जूतों में अपने पसंदीदा अंदाज़ में – आराम कुर्सी पर बैठा था. उसके पैरों के पास बेंच पर निकोल्का था माथे पर बालों की लट, करीब-करीब अलमारी तक पैर फैलाए, - डाइनिंग रूम छोटा था. पैरों में बकल्स वाले जूते.     

निकोल्का की सहेली, गिटार, हौले से और दबे-दबे सुर में : ट्रिन् ...अस्पष्ट ट्रिन्...क्योंकि अभी, देख रहे हैं ना, कुछ भी पता नहीं है. शहर  में चिंता का वातावरण है, धुंधला. बुरा...

निकोल्का के कन्धों पर नॉनकमीशंड-ऑफिसर वाले सफ़ेद धारियों वाले फीते हैं, और बाईं आस्तीन पर तीन रंगों वाला नुकीला बैज है. (पहली स्क्वाड, पैदल, तीसरा विभाग. शुरू हो चुकी घटनाओं को देखते हुए चार दिनों से बन रही है.)     

मगर, इन सारी घटनाओं के बावजूद, डाइनिंग रूम में, सच कहें तो, बहुत अच्छा है. गर्माहट है, आरामदेह है, दूधिया रंग के पर्दे खिंचे हुए हैं. भट्टी भाइयों को गर्मा रही है, अलसाहट पैदा कर रही है.

बड़े ने किताब फेंकी, हाथ-पैर खींचे.

“तो, चल, “शूटिंग” बजा....   

ट्रिंग-ता-ताम...ट्रिंग-ता-ताम...

फैशनेबल जूते,

बिन-फुंदे की कैप.

आ रहे हैं इंजीनियर कैडेट्स! 

बड़ा गुनगुनाने लगता है. उसकी आंखें उदास हैं, मगर उनमें चिनगारी सुलग उठती है – नसों में – गर्मी. मगर धीमे, महाशय, धीमे, धीमे.

हैलो, दाच्निकी *(* दाच्निक - समर कॉटेज के निवासी – अनु,)

हैलो, दाच्नित्सी ...(समर कॉटेज की लड़कियां – अनु,)

गिटार मार्च कर रही है, तारों से कंपनी अवतरित होती है, इंजीनियर चल रहे हैं – आत् , आत् !

निकोल्का की आंखें याद कर रही हैं:

कॉलेज. प्लास्टर उखड़े अलेक्सांद्र के स्तम्भ, तोपें.

एक खिड़की से दूसरी खिड़की तक पेट के बल रेंगते हुए कैडेट्स, गोलियां चलाते हैं. खिड़कियों में मशीनगन्स.

सैनिकों के बादल ने कॉलेज को घेर लिया है, वर्दियों का बादल. क्या कर सकते हैं.

जनरल बगारोदित्स्की घबरा गया और उसने आत्मसमर्पण कर दिया, कैडेट्स के साथ आत्मसमर्पण कर दिया. श-र्म-ना-क...      

नमस्ते, दाच्निकी,

नमस्ते, दाच्नित्सी,

शूटिंग तो हमारे यहाँ कब की शुरू हो गई.

 

निकोल्का की आंखें धुंधला गईं.

युक्रेन के लाल खेतों के ऊपर गर्मी के स्तम्भ हैं.

धूल में जा रही हैं धूल से सने कैडेट्स की कम्पनियाँ. था, यह सब था और अब नहीं रहा. शर्मिन्दगी. बकवास. 

एलेना ने परदे हटाये, और अँधेरे अंतराल में उसका लाल सिर प्रकट हुआ. भाईयों पर स्नेहभरी नज़र डाली और घड़ी पर - बेहद परेशान.

बात समझ में आ रही थी. तालबेर्ग, वाकई में कहाँ है? बहन परेशान हो रही है.

चाहती थी कि अपनी परेशानी छुपाये, भाईयों के साथ गाये, मगर अचानक रुक गई और अपनी उंगली उठाई.

“रुको, सुन रहे हो?”

कंपनी ने सातों तारों पर कदम रोक दिए : रु-को! तीनों गौर से सुनाने लगे और उन्हें यकीन हो गया – तोप के गोले. भारी, दूर और घुटी-घुटी आवाज़. एक और बार: बू-ऊ...: निकोल्का ने गिटार रख दी और फ़ौरन उठा, उसके पीछे-पीछे, कराहते हुए अलेक्सेई भी उठा.

ड्राइंग रूम में, प्रवेश कक्ष में बिलकुल अन्धेरा था. निकोल्का कुर्सी से टकराया. खिड़कियों से दिखाई दे रहा था वास्तविक ओपेरा – “क्रिसमस की पूर्व संध्या” – बर्फ और रोशनियाँ. थरथरा रही हैं और टिमटिमा रही हैं. निकोल्का खिड़की पर झुका. आंखों से गर्म धुंध और कॉलेज गायब हो गए, आंखों में – अत्यंत तनाव भरी आवाज़ परावर्तित हो रही है. कहाँ? अपने अंडर-ऑफिसर वाले कंधे उचकाए.

“शैतान जाने. लगता तो ऐसा है, जैसे स्वितोशिनो के पास गोली-बारी हो रही है.

अजीब बात है, इतने नज़दीक तो नहीं हो सकती.”

अलेक्सेई अँधेरे में, और एलेना खिड़की के पास, और दिखाई दे रहा है कि उसकी आंखें काली-भयभीत हैं. इसका क्या मतलब है, कि ताल्बेर्ग अभी तक नहीं आया है? बड़ा भाई उसकी परेशानी को समझ रहा है और इसलिए एक भी लब्ज़ नहीं कहता, हाँलाकि उसका दिल बेतहाशा कुछ कहना चाह रहा है. स्वितोशिनो में. इसमें संदेह की कोइ बात हो ही नहीं सकती.

शहर  से बारह मील की दूरी पर गोलियां चल रही हैं, उससे दूर नहीं. बात क्या है?

निकोल्का ने खिड़की का हैंडल पकड़ा, दूसरे हाथ से कांच दबाया, जैसे उसे दबाकर बाहर निकलना चाहता है, और उस पर अपनी नाक दबाई.

“मैं वहाँ जाना चाहता हूँ. पता करना चाहता हूँ, कि बात क्या है...”

“वहाँ पर बस तुम्हारी ही कमी थी...”

एलेना परेशानी से बोल रही है. “कैसा दुर्भाग्य है. पति को लौटना था, सुन रहे हो, - ज़्यादा से ज़्यादा, आज दिन के तीन बजे तक, और अब दस बज गए हैं.”

चुपचाप डाइनिंग रूम में लौट आये. गिटार उदासी से खामोश है. निकोल्का किचन से खींचते हुए समोवार लाता है, जो गुस्से से गा रहा है और थूक रहा है. मेज़ पर बाहर से नाज़ुक फूलों वाले और भीतर से सुनहरे कप हैं, विशेष, लहरियेदार स्तंभों जैसे. माँ, आन्ना व्लदीमिरव्ना के ज़माने में यह ख़ास अवसरों पर निकाला जाने वाला ‘सेट था, मगर अब बच्चे हर रोज़ उसका इस्तेमाल करते. मेज़पोश, गोलियों और इस सारी थकावट, परेशानी और बकवास के बावजूद, सफ़ेद और कलफ किया हुआ था.

ये एलेना के कारण था, जो किसी और तरह से कर ही नहीं सकती थी, ये था अन्यूता के कारण, जो तुर्बीनों के घर में बड़ी हुई थी. मेज़पोश की किनार चमक रही थी, और दिसंबर में भी, अभी, मेज़ पर, मटमैले, स्तम्भ जैसे फूलदान में नीले हायड्रेन्जिया के फूल और दो उदास और मरियल गुलाब थे, जो जीवन की सुन्दरता और चिरंतनता में विश्वास प्रकट कर रहे थे, बावजूद इसके कि शहर  की ओर आने वाले रास्तों पर चालाक दुश्मन है, जो, शायद, इस बर्फीले, ख़ूबसूरत शहर  के टुकड़े-टुकड़े कर दे और चैन के टुकड़ों को अपने जूतों तले कुचल दे. फूल. फूल – भेंट थी एलेना के वफादार प्रशंसक, गार्ड्स के लेफ्टिनेंट लिअनीद यूरेविच शेर्वीन्स्की की, मशहूर कन्फेक्शनरी की दुकान ‘मार्कीज़ की सेल्सगर्ल के दोस्त की, फूलों की आरामदेह दुकान ‘नाईस फ्लोरा की सेल्सगर्ल के मित्र की. हायड्रेन्जिया की छाया में नीले डिजाइन वाली प्लेट में कुछ सॉसेज के टुकडे, पारदर्शी प्लेट में मक्खन, टोस्ट वाली ट्रे में एक चिमटा और लम्बी सफ़ेद ब्रेड.

कुछ खाना और चाय की चुस्कियां लेना कितना अच्छा होता, अगर ये उदास परिस्थितियाँ न होतीं...

ऐह...

केतली के ऊपर ऊन का शोख रंगों वाला पंछी है, और चमचमाते समोवार के किनारे पर तुर्बीनों के तीन विकृत चहरे परावर्तित हो रहे हैं, और निकोल्का के मोमून जैसे गाल. 

एलेना की आंखों में पीड़ा है. और आग के कारण लाल प्रतीत होती लटें, झूल रही थीं.

अपनी गेटमन की कैश-ट्रेन में ताल्बेर्ग कहीं फंस गया था और पूरी शाम बर्बाद कर दी . शैतान जाने, कहीं उसके साथ, कुछ हो तो नहीं गया?...

भाई सुस्ती से ब्रेड खा रहे हैं. एलेना के सामने ठंडी हो चुकी चाय का कप और “सैनफ्रांसिस्को के महाशय” पड़े थे. धुंधलाई आंखें, बिना देखे, शब्दों पर नज़र डालती हैं:

“...अन्धेरा, महासागर, बवंडर.”

एलेना पढ़ नहीं रही है.

निकोल्का से, आखिरकार, रहा नहीं गया:

“मैं जानना चाहूंगा कि इतने निकट क्यों गोलियां चल रही हैं? ऐसा तो नहीं हो सकता, कि...”

उसने खुद ही अपनी बात काटी और हाव-भाव करते हुए समोवार में विकृत रूप में नज़र आया.

अंतराल. घड़ी की सुई दसवें मिनट को पार कर रही है और – टोंक-टांक – सवा दस की ओर जा रही है.

“गोलियां इसलिए चल रही हैं, क्योंकि जर्मन - कमीने हैं,” बड़ा वाला अचानक बुदबुदाया.

एलेना सिर उठाकर घड़ी की ओर देखती है और पूछती है:

“कहीं, कहीं, वे हमें किस्मत के भरोसे तो नहीं छोड़ देंगे?” उसकी आवाज़ में पीड़ा थी.

भाई, जैसे किसी कमांड से, सिर घुमाते हैं और झूठ बोलने लगते हैं.

“कुछ भी पता नहीं है,” निकोल्का कहता है और एक टुकड़ा चबाता है.

“यही तो मैंने कहा, हुम्...अंदाज़ से. अफवाहें.”

“नहीं, अफवाहें नहीं हैं,” एलेना ने ज़िद्दीपन से जवाब दिया, “ये अफवाह नहीं, बल्कि हकीकत है; आज शिग्लोवा को देखा, और उसने बताया कि बरद्यान्का से दो जर्मन बटालियंस वापस लौटाई गई हैं.”

“बकवास.”

“खुद ही सोचो,” बड़ा भाई शुरुआत करता है, “ क्या इसमें कोई मतलब है कि जर्मन इस बदमाश को शहर  के पास आने देंगे? सोचो, आँ? ज़ाती तौर पर मैं इस बात की कल्पना नहीं कर सकता, कि वे उसके साथ उसके साथ एक मिनट भी कैसे रहेंगे. पूरी तरह बकवास. जर्मन और पित्ल्यूरा. वे खुद ही तो उसे डाकू के अलावा कुछ और नहीं कहते. क्या मज़े की बात है.”

“आह, तुम क्या कह रहे हो. अब मैं जर्मनों को जान गई हूँ. खुद ही कुछेक को देख चुकी हूँ लाल फीतों के साथ. और अन्डर-ऑफिसर, नशे में धुत, किसी औरत के साथ. औरत भी नशे में धुत  थी.

“तो, इससे क्या? अनैतिकता के कुछ नमूने जर्मन फ़ौज में भी हो सकते हैं.”

“तो, आपके हिसाब से, पेत्ल्यूरा नहीं आयेगा?

“हुम्...मेरे हिसाब से, ऐसा नहीं हो सकता.”

बिलकुल. मुझे एक प्याली और चाय दो, प्लीज़. तुम परेशान न हो. जैसा कहते हैं, शान्ति बनाए रखो.”

“मगर, ऐ खुदा, सिर्गेइ कहाँ है? मुझे पक्का यकीन है कि उनकी ट्रेन पर हमला हुआ है और...”

“और क्या? अरे, बेकार में क्या सोच रही हो? वह लाईन पूरी तरह खाली है.”

“फिर वह क्यों नहीं आया?

“ओह, खुदा! तुम खुद ही जानती हो कि कैसा सफ़र है. हर स्टेशन पर, शायद, चार-चार घंटे खड़े रहे होंगे.”

“क्रान्तिकारी सफ़र. एक घंटा चले - दो घंटे रुके.”

एलेना ने गहरी सांस लेकर घड़ी की तरफ देखा, कुछ देर खामोश रही, फिर बोली:

“खुदा, खुदा! अगर जर्मनों ने यह नीच हरकत न की होती, तो सब कुछ बढ़िया होता. उनकी दो रेजिमेंट्स ही काफी थीं, तुम्हारे इस पेत्ल्यूरा को मक्खी की तरह मसलने के लिए. नहीं, मैं देख रही हूँ कि जर्मन कोई दुहरी घिनौनी चाल चल रहे हैं. और फिर वे  शेखी मारने वाले अलाईज़ (सहयोगी-अनु.) कहाँ हैं? ऊ-ऊ, कमीने. वादा करते रहे, करते रहे...”

समोवार, जो अब तक खामोश था, अकस्मात् गा उठा, और भूरी राख से ढंके कोयले, बाहर ट्रे में गिर गए. भाईयों ने अनिच्छा से भट्टी की तरफ देखा.

जवाब – ये रहा. फरमाइए:

“सहयोगी – कमीने है,

घड़ी की सुई पन्द्रहवें मिनट पर रुकी, घड़ी ने जोरदार आवाज़ में घर्र-घर्र की एक घंटा बजाया, और तभी प्रवेश कक्ष की छत के नीचे एक जोरदार, बारीक आवाज़ ने घड़ी को जवाब दिया.

“ थैंक्स गॉड, ये सिर्गेइ है,” – बड़े वाले ने खुशी से कहा.

“ये तालबेर्ग है,” निकोल्का ने पुष्टि की और दरवाज़ा खोलने के लिए भागा.

एलेना गुलाबी हो गई, उठकर खड़ी हो गई.

 

****

 

मगर ये तालबेर्ग नहीं निकला. तीन दरवाज़े भड़भड़ाये, और सीढ़ियों पर निकोल्का की चकित आवाज़ खोखलेपन से सुनाई दी. जवाब में एक आवाज़. आवाजों के पीछे-पीछे सीढ़ियों पर नाल जड़े जूते और राईफल के कुंदे की आवाज़ आने लगी.

प्रवेश कक्ष का दरवाजा ठण्ड को भीतर लाया, और अलेक्सेई और एलेना के सामने ऊँची, चौड़े कन्धों वाली, एडियों तक लंबा ओवरकोट पहनी और कंधे की सूती पट्टियों पर स्याही से बनाए गए तीन सितारों वाली लेफ्टिनेंट की आकृति प्रकट हुई. हुड को बर्फ ने ढांक लिया था, और कत्थई संगीन वाली भारी राइफल ने पूरे प्रवेश कक्ष को घेर लिया.       

“नमस्ते,” आकृति भर्राई आवाज़ में गा उठी और उसने अकड़ी हुई उँगलियों से हुड को खींचा.

 “वीत्या!”

निकोल्का ने आकृति को सिरे खोलने में मदद की, हुड नीचे फिसल गया, हुड के नीचे ऑफिसर वाली कैप का फीता दिखाई दिया, जिस पर काला पड गया बैज था, और विशाल कन्धों पर लेफ्टिनेंट विक्तर विक्तरविच मिश्लायेव्स्की का सिर दिखाई दिया. ये सिर बेहद ख़ूबसूरत था, प्राचीन, असली प्रजाति के विचित्र और दुखी और आकर्षक सौन्दर्य और उसके विनाश का प्रतीक. खूबसूरती विभिन्न रंगों की, साहसी आंखों में, लम्बी पलकों में. नाक तोते जैसी, होंठ गर्वीले, माथा सफ़ेद और साफ़, बिना किसी विशेष निशान के. मगर मुँह का एक कोना दयनीय रूप से लटका हुआ था, और ठोढ़ी इस तरह तिरछी कटी हुई थी, मानो किसी शिल्पकार पर, जो सामंती चेहरा गढ़ रहा हो, अचानक एक जंगली कल्पना सवार हो जाए मिट्टी की सतह को काटने और साहसी चेहरे पर छोटी सी, अजीब जनाना ठोढ़ी बनाने की.

“तुम जहाँ से आ रहे हो?

“कहाँ से?

“सावधानी से,” कमजोर आवाज़ में मिश्लायेव्स्की ने जवाब दिया, “झटको नहीं. उसमें वोद्का की बोतल है.”

निकोल्का ने सावधानी से भारी ओवरकोट टांग दिया, जिसकी जेब से अखबार में लिपटी बोतल का सिर झाँक रहा था. इसके बाद हिरन के सींगों वाले रैक को हिलाते हुए लकड़ी के खोल में रखी हुई भारी पिस्तौल टांगी. सिर्फ तभी मिश्लायेव्स्की एलेना की ओर मुडा, उसका हाथ चूमा और बोला:

“ ‘रेड टेवर्न’ से. ल्येना, आज की रात गुजारने की इजाज़त दो. घर तक नहीं जा पाऊंगा.”

“आह, माय गॉड , बेशक.”

मिश्लायेव्स्की अचानक कराहा, उँगलियों पर फूंक मारने की कोशिश करने लगा, होंठ उसका साथ नहीं दे रहे थे. सफ़ेद भौहें और तुषार के कारण सफ़ेद पड गया, कटी हुई मूछों का मखमल पिघलने लगा, चेहरा गीला हो गया. बड़े तुर्बीन ने उसका फ़ौजी कोट खोला, सिलाई पर हाथ फेरते हुए गंदी कमीज़ बाहर खीची.

“ओह, बेशक...भरा है...जुएँ रेंग रही हैं.”

“ तो,” घबराई हुई एलेना परेशान हो गई, पल भर के लिए ताल्बेर्ग को भूल गई, “निकोल्का, वहाँ किचन में लकडियाँ हैं. फौरन बॉयलर गरम करो, अफसोस है, कि अन्यूता को छुट्टी दे दी. अलेक्सेई उसका कोट निकालो, जल्दी से.

डाइनिंग हॉल में खूब कराहते हुए मिश्लायेव्स्की टाईल्स वाली भट्टी के पास कुर्सी पर लुढ़क गया.

एलेना भागी और चाभियाँ खनखनाने लगी. तुर्बीन और निकोल्का घुटनों के बल खड़े होकर मिश्लायेव्स्की के पैरों से तंग फैशनेबल, पिंडलियों पर बकल्स वाले जूते, निकाल रहे थे.

“आराम से...ओह, आराम से...”

गंधाती हुई पैरों की धब्बेदार पट्टियां खोली गईं. उनके नीचे बैंगनी रंग के रेशमी मोज़े. ट्यूनिक को निकोल्का ने फ़ौरन ठन्डे बरामदे में डाल दिया – मर जाने दो जुओं को. मिश्लायेव्स्की सर्वाधिक गंदी  कमीज़ में जिस पर काले ब्रेसिज़ बंधे हुए थे, पट्टी वाली नीली ब्रीचेस में, दुबला और काला, बीमार और दयनीय लगने लगा. नीली पड़ गईं हथेलियाँ टाइल्स पर घूम रही थीं, उन्हें थपथपा रही थीं.

अफ...भया...

आया...गिरो...

प्यार कर बैठा...मई के...

“ये कमीने क्या कर रहे हैं?” तूर्बीन चीखा. “क्या वे आपको फेल्ट बूट और भेड़ की खाल का कोट नहीं दे नहीं दे सकते थे?’”

“फे...ल्ट  बूट,” रोते हुए मिश्लायेव्स्की ने उसे चिढ़ाया, “फेल...”

गर्माहट में हाथों-पैरों को असहनीय दर्द काटे जा रहा था. किचन में एलेना के पैरों की आहट थम गई है, यह सुनकर मिश्लायेव्स्की आंसुओं के बीच तैश से चीखा:

बेतरतीब शराबखाना!

सिसकियाँ लेते हुए और कराहते हुए, वह नीचे गिर पडा और, मोजों पर उंगली गडाते हुए कराहा:

“निकालिए, निकालिए, निकालिए...”

मिथाइल की गंदी बू आ रही थी, बेसिन में बर्फ का पहाड़ पिघल रहा था, वोद्का के एक ही गिलास से लेफ्टिनेंट मिश्लायेव्स्की फौरन धुत् हो गया, आंखों में धुंद छा गई. 

“कहीं काटना तो नहीं पडेगा? गॉड...” आराम कुर्सी में डोलते हुए उसने कड़वाहट से कहा.

“अरे, क्या कह रहे हो, थोड़ा रुको. कोई बात नहीं...ऐसे...अंगूठा ठण्ड के मारे सुन्न हो गया है. ऐसे...

ठीक हो जाएगा. ये भी गुज़र जाएगा.”

निकोल्का उकडूं बैठकर साफ़, काले मोज़े उतारने लगा, और मिश्लायेव्स्की की लकड़ी जैसे सख्त हाथ, जो मुड़ भी नहीं रहे थे, रोएंदार स्वीमिंग गाऊन की आस्तीनों में घुस गए. गालों पर लाल धब्बे प्रकट हुए, और, मुँह बनाते हुए, साफ़ अंतर्वस्त्रों में बर्फ से जम गया लेफ्टिनेंट मिश्लायेव्स्की जैसे जीवित हो उठा.

कमरे में भयानक माँ की गालियाँ उछलने लगीं, जैसे खिड़की की सिल से ओले टकरा रहे हों.

दोनों आंखों को तिरछा करके नाक की ओर देखते हुए रेल के पहले दर्जे के डिब्बों में मौजूद हेडक्वार्टर्स के स्टाफ को गंदी-गंदी गालियाँ देता रहा, खासकर कर्नल श्योत्किन को, बर्फ को, पित्ल्यूरा को, और जर्मनों को, और बर्फीले तूफ़ान को और गालियों की बौछार ख़त्म हुई पूरे उक्रेन के चीफ कमांडर पर आकर जिस पर उसने अश्लील, सड़कछाप शब्दों की मार की.          

अलेक्सेई और निकोल्का देख रहे थे, कि कैसे लेफ्टिनेंट गर्म होते हुए दांत किटकिटा रहा था, और बीच-बीच में चिल्लाते: “अच्छा-अच्छा”.

“चीफ कमांडर,? तेरी माँ!” – मिश्लायेव्स्की गरजा. – “घुड़सवार गार्ड? महल में? आ? और हमें भगाया, जैसे थे. आ? चौबीस घंटे बर्फ में और पाले में...खुदा! मैं सोच रहा था – सब ख़त्म हो जायेंगे...माँ के पास! दो-दो सौ गज की दूरी पर अफसर – इसे श्रृंखला कहते हैं? बिलकुल मुर्गियों की तरह, बस काट ही दिए जाते!

“रुको,” गालियों से बौखला गए तुर्बीन ने पूछा, “तुम बताओ, टेवर्न के पास कौन था?”

“आह!” मिश्लायेव्स्की ने हाथ हिलाया. “कुछ भी नहीं समझोगे! क्या तुम जानते हो, कि टेवर्न के पास हम कितने लोग थे? चालीस आदमी.            

ये बदमाश आता है – कर्नल श्योत्किन और कहता है (मिश्लायेव्स्की मुँह टेढा करता है, कर्नल श्योत्किन को प्रदर्शित करने की कोशिश करते हुए, जो उसकी घृणा का पात्र था, और घिनौनी, पतली और तुतलाती हुई आवाज़ में बोलने लगा):

“अफसर महाशयों, सारा शहर  हमसे उम्मीद लगाए है. रूसी शहरों की मरती हुई माँ के विश्वास को सही साबित कीजिये, यदि दुश्मन प्रकट होता है, तो आक्रमण कीजिये, खुदा आपके साथ है! छह घंटे बाद डीटेचमेंट भेजूंगा. मगर विनती करता हूँ. कि कारतूस बचाइये...” – और अपने सहायक के साथ कार में भाग गया. और अन्धेरा, जैसे ज....में! बर्फ. सुईयों जैसी चुभ रही थी.”

“मगर वहाँ था कौन, या खुदा! पेत्ल्यूरा तो रेड टेवर्न में नहीं हो सकता था?”

“शैतान ही जाने! यकीन करोगे, कि सुबह तक हम बस पागल ही नहीं हुए. आधी रात से इंतज़ार कर रहे थे हम...डीटेचमेंट का...कोई अता-पता नहीं.  डीटेचमेंट का नाम नहीं. अलाव, ज़ाहिर है, जला नहीं सकते, गाँव बस दो मील की दूरी पर. टेवर्न – एक मील. रात को ऐसा आभास होता है : खेत सरसरा रहा है. लगता है – रेंग रहे हैं...तो, सोचता हूँ, कि हम क्या करेंगे?...क्या? राईफल फेंक देते हो, सोचते हो – गोली चलाएं या न चलाएं? एक लालच था. खड़े रहे, भेड़ियों जैसे विलाप करते हुए. चिल्लाते हो, - कतार में कहीं कोई जवाब देता है.

आखिर में मैं बर्फ खोदने लगा, बन्दूक के हत्थे से अपने लिए एक गढ़ा खोदा, बैठ गया और कोशिश करता रहा कि आँख न लग जाए : अगर सो गए तो – काम तमाम. और सुबह होते-होते मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ, ऐसा लग रहा था – कि ऊंघने लगा हूँ. पता है, किस चीज़ ने बचाया? मशीनगन्स ने. सुबह-सुबह सुनता हूँ, करीब डेढ़ मील की दूरी पर शुरू हो गया था! और वाक़ई में, सोचो, उठने का मन नहीं हो रहा था. मगर, तभी तोप गरजी.

उठा, पैर मन-मन भारी हो रहे थे, और सोच रहा था:

“मुबारक हो, पित्ल्यूरा आ गया है.” एक छोटा-सा घेरा बनाया, जिससे एक दूसरे को आवाज़ दे सकें.

ये फैसला किया : अगर कुछ हो जाता है, तो एक झुण्ड बनायेंगे, गोलियां चलाते रहेंगे और शहर  की ओर पीछे हटेंगे. मारेंगे, तो मारेंगे. कम से कम सब एक साथ तो रहेंगे. और, सोचो, - सब शांत हो गया. सुबह तीन-तीन के गुटों में टेवर्न जाने लगे – गरमाने के लिए.

पता है, बदली वाली डीटेचमेंट कब आई? आज दोपहर में दो बजे. पहली स्क्वैड से करीब दो सौ कैडेट्स.

और, सोचो, बढ़िया ड्रेस पहने, - फर कैप पहने, फेल्ट के जूतों में, और मशीन गन स्क्वैड के साथ.  कर्नल नाइ-तूर्स की कमांड में.”

“आ! हमारा, हमारा!” निकोल्का चीखा.

“रुको ज़रा, कहीं वह बेलग्राद का हुस्सार तो नहीं?” अलेक्सेई ने पूछा.

“हाँ, हाँ, हुस्सार... पता है, उन्होंने हमें देखा और बेहद घबरा गए:

बोले, “हम सोच रहे थे, कि आप लोगों की यहाँ दो कम्पनियां हैं, मशीन गन्स के साथ, आप डटे कैसे रहे?

पता चला कि वो फायरिंग, वो सिरिब्र्यान्का पर करीब एक हज़ार लोगों के गिरोह ने हमला कर दिया था. किस्मत से, उन्हें पता नहीं था कि वहाँ हमारी टुकड़ी थी, वर्ना सोचो, शहर  का ये पूरा गिरोह यहाँ आ धमकता. किस्मत से, उनका वलीन्स्की-पोस्ट से संबंध था, - उन्हें बताया गया, और वहाँ से किसी बैटरी ने छर्रों की मार से उन्हें भगा दिया, तो, उनका जोश ठंडा पड़ गया, समझ रहे हो, हमला पूरा किये बगैर वे कहीं जहन्नुम में भाग गए.”

“मगर वो थे कौन? कहीं पेत्ल्यूरा तो नहीं? ये नहीं हो सकता.”

“आ, खुदा ही जाने. मेरा ख़याल है कि कोई दस्तयेव्स्की के स्थानीय किसान-ईश्वरीय पुरुष ही थे!...ऊ-ऊ...तेरी माँ!”

“अरे बाप रे!”

“हाँ..” सिगरेट चूसते हुए मिश्लायेव्स्की भर्राया, “खुदा की मेहेरबानी से हमें छोड़ दिया गया. गिना: हम अड़तीस आदमी थे.

आदाब अर्ज़ है : दो पाले की मार से मर गए थे.

काम तमाम. और दो को उठाया, टांगें काटनी पड़ेंगी...”

“क्या! मर गए?

“तो तुमने क्या सोचा? एक कैडेट और एक ऑफिसर. और पपेल्युखा में, जो टेवर्न के पास ही है, और भी ज़्यादा कमाल हो गया. मैं लेफ्टिनेंट क्रासिन के साथ वहाँ स्लेज लेने गया, ताकि पाला खा गए जवानों को ले जा सकें. गाँव तो जैसे बिलकुल मर गया था – एक भी इंसान नहीं.

तलाश करते रहे, आखिरकार, कोई बूढा, भेड़ की खाल का कोट पहने छड़ी के सहारे घिसटता हुआ आया.

ज़रा सोचो, उसने हमारी ओर देखा और खुश हो गया. मैंने फ़ौरन भांप लिया कि दाल में कुछ काला है.  सोचने लगा, ‘क्या हो सकता है?’ ये ईश्वरीय-बूढा क्या चिल्लाया: “लड़कों...जवानों...” मैंने भी उसी तर्ज़ पर जवाब दिया:

“नमस्ते, दद्दू. जल्दी से स्लेज दे.” उसने जवाब दिया: “नहीं है. अफसर पहले ही स्लेज पोस्ट पर भगा ले गया.”

मैंने क्रासिन को आंख मारी और पूछा: “अफसर? अच्छा. और तेरे सारे लडके कहाँ हैं?”

और बूढ़े ने बक दिया : “कब के पेत्ल्यूरा के पास भाग गए”.

? कैसी रही?

अंधेपन के कारण वह नहीं देख सका कि हमारी टोपियों के नीचे शोल्डर स्ट्रैप्स हैं, और हमें भी पेत्ल्यूरा के आदमी समझ बैठा. मगर, अब, समझ रहे हो, मैं अपने आप को रोक नहीं पाया....बर्फ...तैश में आ गया...लपक कर बूढ़े की कमीज़ इतनी ताकत से पकड़ ली कि उसकी रूह ही उछलकर बाहर निकलने को हो गई, और चीखा:

“पेत्ल्यूरा के पास भाग गए? और, अब मैं तुझे गोली मारता हूँ, तब तू समझेगा कि कैसे पेत्ल्यूरा के पास भागते हैं! तू भागेगा खुदा के पास, कुत्ते!”

“तो फिर, ज़ाहिर है, पवित्र किसान, बोने वाला और रक्षक ( मिश्लायेव्स्की ने भयानक गालियों की बौछार शुरू कर दी), दो ही पल में समझ गया.

बेशक, पैरों पर गिर कर चीखने लगा, “ओय, युवर ऑनर, मुझ बूढ़े को माफ़ कीजिये, मैं अंधा हूँ, बेवकूफ हूँ, घोड़े दूँगा, अभ्भी देता हूँ, सिर्फ मुझे मारिये नहीं!”

घोड़े भी मिल गए और स्लेज भी.

तो, शाम को पोस्ट पर पहुंचे. वहाँ क्या हो रहा था – कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

पटरियों पर चार फ़ौजी बैटरियां देखीं, वैसी ही, बिना तैनात किये खड़ी थीं, लगता है, उनके पास गोले  ही नहीं थे. स्टाफ-ऑफिसर्स अनगिनत थे. मगर कोई भी कुछ भी नहीं जानता था. और ख़ास बात – मृतकों के लिए कोई जगह ही नहीं थी! आखिर में एक ‘फर्स्ट-एड’ वैगन दिखाई दी, यकीन करो, ज़बरदस्ती मुर्दों को उसमें ठेल दिया, वे नहीं ले जाना चाहते थे: “आप इन्हें शहर  ले जाईये”.

अब तो हम बिफर गए. क्रासिन तो किसी ऑफिसर को गोली मारना चाहता था.

उसने कहा, “ये तो पेत्ल्यूरा वालों जैसी हरकतें हैं.” और भाग गया.

सिर्फ देर शाम को ही श्योत्किन की वैगन ढूंढ पाए. पहले दर्जे की, इलेक्ट्रिक...और, क्या सोचते हो? कोई एक बेवकूफ, अर्दली जैसा खड़ा है और किसी को भी अन्दर नहीं जाने दे रहा है. आ? “ कहता है, वे सो रहे हैं, किसी को भी भीतर छोड़ने की इजाज़त नहीं है.”

मैंने बन्दूक के हत्थे से उसे दीवार की तरफ सरकाया, और मेरे पीछे मेरे सभी साथी शोर मचाने लगे. सभी सभी डिब्बों से लोग मटर के दानों की तरह उछल कर बाहर आ गए.

श्योत्किन बाहर निकला और हमें शांत करने की कोशिश करने लगा: “आह, माय गॉड. ओह, बेशक. अभ्भी. ऐ अर्दली, सूप और कन्याक लाओ. हम अभी आपकी बदली करते हैं. पूरी छुट्टी. शानदार वीरता. आह, कितना नुक्सान हुआ, मगर क्या कर सकते हैं – निछावर हो गए महान कार्य के लिए. मैं इतना परेशान था...”    

और उसके मुँह से एक मील की दूरी तक कन्याक की बू आ रही थी. आ-आ-आ!” मिश्लायेव्स्की ने अचानक उबासी ली और उसका सिर झुक गया. जैसे नींद में बडबडा रहा हो:

“हमारी टुकड़ी को एक डिब्बा दिया और भट्टी भी...ओ-ओ! मैं खुशकिस्मत था. ज़ाहिर है, इस हंगामे के बाद उसने खुद को मुझसे अलग करने का निश्चय किया. “लेफ्टिनेंट, मैं तुम्हें शहर  जाने का हुक्म देता हूँ. जनरल कर्तूज़ोव के स्टाफ में. वहाँ रिपोर्ट करें”. ए-ए-ए ! मैं रेलगाड़ी में...जम गया...तमारा फोर्ट...वोद्का...”

मिश्लायेव्स्की के मुँह से सिगरेट गिर गई, वह कुर्सी की पीठ से टिक गया और फ़ौरन खर्राटे लेने लगा.

“क्या बात है,” परेशान निकोल्का ने कहा.

“एलेना कहाँ है?” बड़े ने फ़िक्र से पूछा. “इसे तौलिया देना होगा, तुम उसे नहाने के लिए ले जाओ.”

एलेना इस समय किचन के पीछे वाले कमरे में रो रही थी, जहाँ छींट के परदे के पीछे, जस्ते के टब के पास, बॉयलर में बर्च की सूखी टहनियां जल रही थीं.

किचन की भर्राई हुई घड़ी ने ग्यारह बार घंटे बजाये. उसे मृत ताल्बेर्ग दिखाई दे रहा था. बेशक, धन राशि ले जा रही ट्रेन पर हमला हो गया था. पूरा रक्षक दल मारा गया और बर्फ पर खून और अवयव बिखरे पड़े हैं. एलेना आधे अँधेरे में बैठी थी, उलझे हुए बालों के मुकुट से लपटें गुज़र रही थीं, गालों पर आँसू बह रहे थे. मार डाला. मार डाला...

और घंटी की पतली थरथराहट पूरे घर में फ़ैल गई. एलेना तूफ़ान की तरह किचन से, अँधेरी लाइब्रेरी से, डाइनिंग हॉल में आई. रोशनी तेज़ हो गई. काली घड़ी ने घंटे बजाये, लड़खड़ाई और फिर से चलने लगी.               

मगर खुशी के पहले दौर के बाद निकोल्का और बड़ा भाई फ़ौरन ठंडे पड गए.

हाँ, खुशी तो एलेना के लिए ही ज़्यादा थी. तालबेर्ग के कन्धों पर लगे गेटमन की वार-मिनिस्ट्री के नुकीले बैजों ने भाइयों पर बुरा असर डाला था.

वैसे, इन बैजेस से भी पहले, एलेना की शादी के दिन से ही तुर्बिनों के जीवन के फूलदान में एक दरार पड़ गई थी, और अनजाने ही उसमें से काफी पानी बह गया था. बर्तन सूखा था. इसका प्रमुख कारण था जनरल स्टाफ के कैप्टन सिर्गेइ इवानविच तालबेर्ग की दुहरी परत वाली आंखों में....

एह-एह... चाहे जो भी हो, अभी पहली परत को आसानी से पढ़ा जा सकता था.

ऊपरी परत में थी मासूम मानवीय प्रसन्नता, गर्माहट, रोशनी और सुरक्षा में आने के कारण. मगर गहराई में – स्पष्ट चिंता दिखाई दे रही थी, और तालबेर्ग उसे अभी अभी अपने साथ लाया था. सबसे गहरी परत, बेशक, हमेशा की तरह छुपी हुई थी. मगर किसी भी हाल में, सिर्गेइ इवानविच के चेहरे से कुछ भी प्रकट नहीं हो रहा था.          

बेल्ट चौड़ी और मज़बूत. दोनों बैज – अकादमी का और विश्वविद्यालय का – एक जैसे चमक रहे हैं. काली घड़ी के नीचे दुबली-पतली आकृति पेंडुलम की भाँति घूम रही है.

तालबेर्ग बेहद ठण्ड खा गया था, मगर सबकी तरफ देखकर भलमनसाहत से मुस्कुराया. और इस भलमनसाहत में भी परेशानी स्पष्ट दिखाई दे रही थी.

निकोल्का ने अपनी लम्बी नाक से सूंघकर पहले इस बात पर गौर किया. तालबेर्ग, शब्दों को खींचते हुए, धीरे धीरे और प्रसन्नता से बता रहा था, कि कैसे उस ट्रेन पर जो प्रांत में धन ले जा रही थी, और जिसके स्टाफ में वह था, बरद्यान्का के पास, शहर  से चालीस मील दूर – न जाने किसने हमला कर दिया था!

एलेना ने डर के मारे आंखें सिकोड़ लीं, उसके बैजेस से चिपक गई, भाई फिर से चिल्लाए “ओह-ओह”, मिश्लायेव्स्की मुर्दे की तरह पडा था, और अपने तीन सुनहरे दांत दिखाते हुए खर्राटे ले रहा था.

“आखिर कौन थे वे? पेत्ल्यूरा?

“अगर पेत्ल्यूरा होता,” मेहेरबानी से और साथ ही चिंता से मुस्कुराते हुए तालबेर्ग ने फरमाया, “तो मैं यहाँ खडा बातें न कर रहा होता...ए...आप लोगों के साथ. मालूम नहीं, कौन थे. हो सकता है, सिर्द्युकों का झुण्ड हो. डिब्बों में घुस गए, संगीनें घुमाने लगे, चिल्लाने लगे! किसकी ट्रेन है?” मैंने जवाब दिया: “सिर्द्युकों की,” वे पैर पटकते रहे, पटकते रहे, फिर मुझे कमांड सुनाई दी:

“उतर जाओ, लड़कों!” और सब गायब हो गए.

मेरा ख़याल है कि वे ऑफिसर्स को ढूंढ रहे थे, शायद, वे सोच रहे थे कि ट्रेन युक्रेन की नहीं, बल्कि ऑफिसर्स की है,” तालबेर्ग ने अर्थपूर्ण ढंग से निकोल्का की आस्तीन के फीते को देखा, घड़ी पर नज़र डाली और अचानक आगे कहा,

“एलेना, तुमसे कुछ बात करनी है...चलो...’   

एलेना जल्दी-जल्दी उसके पीछे तालबेर्ग वाले आधे हिस्से के शयनकक्ष में गई, जहाँ पलंग के पीछे वाली दीवार पर सफ़ेद दस्ताने पर बाज़ बैठा था, जहाँ एलेना की लिखने की मेज़ पर हरा लैम्प खामोशी से जल रहा था और लाल महोगनी के स्टैंड पर घड़ी को सहारा देते हुए, ताँबे के चरवाहे खड़े थे, जो हर तीन घंटे बाद फ्रांसीसी नृत्य की धुन बजाती थी.           

बड़ी कोशिश से निकोल्का ने मिश्लायेव्स्की को उठाया. वह चलते हुए लड़खड़ा रहा था, दो बार धडाम से दरवाज़े से चिपक गया और टब में सो गया. निकोल्का उसकी रखवाली कर रहा था, ताकि वह डूब न जाए.

बड़ा तुर्बीन, खुद भी न समझ पाते हुए अँधेरे ड्राइंगरूम में घूमता रहा, खिड़की से चिपक कर सुनता रहा: फिर से कहीं दूर, खोखलेपन से, जैसे रूई में लिपटे हों, और बिना नुक्सान पहुंचाए गोले गरजते रहे, कभी-कभी और दूर.

लाल बालों वाली एलेना फ़ौरन बूढ़ी हो गई और पगला गई. आंखें लाल. हाथ लटकाए वह अफसोस के साथ तालबेर्ग की बात सुन रही थी. स्टाफ की परेड की भाँति वह सूखेपन से उसके सामने खडा निष्ठुरता से कह रहा था:

“एलेना और कोई रास्ता नहीं है.”

तब एलेना ने अवश्यंभावी से समझौता करते हुए कहा:

“ठीक है, मैं समझ रही हूँ. तुम, बेशक सही हो. पाँच-छः दिन बाद, हाँ? हो सकता है हालात अभी भी बेहतर हो जाएँ?”

अब तालबेर्ग के लिए कठिन हो गया. उसने अपनी हमेशा की ख़ास मुस्कराहट को चेहरे से दूर हटा दिया. चेहरा बूढ़ा हो गया, और हर बिंदु एक सम्पूर्ण निर्णय को प्रकट कर रहा था. एलेना...एलेना...आह, अविश्वसनीय, कमजोर सी आशा...पांच...छः दिन...

और तालबेर्ग ने कहा:

“इसी पल जाना है. ट्रेन रात के एक बजे छूटेगी...”

आधे घंटे बाद बाज़ वाले कमरे में सब कुछ ऊपर-नीचे हो गया था. सूटकेस फर्श पर और उसका भीतरी ढक्कन खडा था. अचानक कमजोर हो गई, गंभीर एलेना, होठों के पास झुर्रियां लिए चुपचाप सूटकेस में कमीजें, अंतर्वस्त्र और तौलिये रख रही थी.

अलमारी के निचले खाने के पास घुटनों पर बैठा तालबेर्ग चाभी से खुडखुड कर रहा था. और फिर...फिर कमरे में इतना घिनौना लगने लगा, जैसे हर उस कमरे में लगने लगता है, जहाँ सामान पैक किये जाने की बेतरतीबी हो, और इससे भी बदतर, जब लैम्प का शेड खीच लिया गया हो. कभी नहीं. कभी भी लैम्प से शेड न खींचना! शेड पवित्र होता है. कभी भी चूहे की तरह खतरे से दूर अज्ञात की ओर न भागना. शेड के पास ऊंघो, पढो, - बवंडर को चिंघाड़ने दो, - इंतज़ार करो, जब तक कोई तुम्हारे पास नहीं आता.

मगर तालबेर्ग तो भाग रहा था.

बंद किये हुए भारी सूटकेस के पास बिखरे कागज़ के टुकड़ों को कुचलते हुए, अपने लम्बे ओवरकोट में  वह उठ खडा हुआ, कानों में सलीके से काले हेडफोन, गेटमन का भूरा नीला बैज और कमर में तलवार थी.      

शहर  के दूर जाने वाली गाड़ियों के स्टेशन- 1 की पटरियों पर ट्रेन आकर खड़ी हो गई है – अभी बिना इंजन के, बिना सिर के कैटरपिलर (कमले) जैसी. ट्रेन में नौ डिब्बे हैं सफ़ेद इलेक्ट्रिक लाईट में चकाचौंध करते हुए. रात के एक बजे ट्रेन में जनरल वॉन बुसोव का हेडक्वार्टर स्टाफ जर्मनी जा रहा है. तालबेर्ग को ले जा रहे हैं : तालबेर्ग के संबंध निकल आये हैं... गेटमन की मिनिस्ट्री – एक फूहड़ और अश्लील छोटा-सा ऑपेरा है (तालबेर्ग को तुच्छता से, मगर दृढ़ता से व्यक्त करना अच्छा लगता था, जैसा कि, खुद गेटमन भी करता था). इसलिए भी फूहड़, क्योंकि...

“समझो ( फुसफुसाहट), जर्मन गेटमन को किस्मत के भरोसे पर छोड़ देंगे, और बहुत, बहुत मुमकिन है, कि पेत्ल्यूरा घुस आयेगा...और ये, पता है ना...” 

, एलेना जानती थी! एलेना अच्छी तरह जानती थी. सन् 1917 के मार्च में तालबेर्ग पहला था, - समझ रहे हैं, पहला , - जो मिलिट्री स्कूल में बांह पर चौड़ा लाल फीता बाँध कर आया था. यह आरंभिक दिनों में हुआ था, जब शहर  के सारे ऑफिसर्स पीटर्सबुर्ग से प्राप्त समाचारों के बाद काष्ठवत् हो गए थे और कहीं दूर, अँधेरे गलियारों में चले गए थे, ताकि कुछ भी न सुनें. तालबेर्ग ने, कोई और नहीं, अपितु क्रांतिकारी कमिटी के सदस्य की हैसियत से प्रसिद्ध जनरल पित्रोव को गिरफ्तार कर लिया था. जब उल्लेखनीय वर्ष के अंत में शहर  में अनेक अद्भुत् और विचित्र घटनाएं हुईं और उसमें कोई अजीब से लोग प्रकट हुए, जिनके पास जूते नहीं थे, मगर जिनकी पतलूनें काफ़ी चौड़ी थीं, जो भूरे फ़ौजी ओवरकोट के नीचे से दिखाई दे रही थीं. और इन लोगों ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी हालत में शहर  से फ्रंट पर नहीं जायेंगे, क्योंकि फ्रंट पर उन्हें करने के लिए कुछ नहीं है, कि वे यहीं, शहर  में,  रहेंगे, तो तालबेर्ग चिढ़ गया और उसने रुखाई से कहा, कि ये वो नहीं है, जिसकी ज़रुरत है, घटिया ऑपेरा है. और वह काफ़ी हद तक सही साबित हुआ: वाकई में ये ऑपेरा ही निकला, मगर सीधा सादा नहीं, बल्कि बेहद खूनखराबे वाला. चौड़ी पतलून वालों को भूरी असंगठित फौजों ने दो मिनट में शहर  से बाहर भगा दिया, जो कहीं जंगलों के पीछे से, मॉस्को की तरफ जाने वाले समतल मैदानों से आए थे. तालबेर्ग ने कहा था कि चौड़ी पतलूनों वाले लोग – साहसी थे, और उनकी जड़ें मोस्को में थीं, हाँलाकि ये जड़ें बोल्शेविकों की थीं.

मगर एक बार, मार्च में, शहर  में भूरी पलटनों वाले जर्मन आये, और उनके सिरों पर धातु के कत्थई टोप थे, जो उनकी भालों से रक्षा करते थे, और हुस्सार ऐसी फर वाली टोपियों में थे, और ऐसे शानदार घोड़ों पर थे कि उन्हें देखते ही तालबेर्ग फ़ौरन समझ गया कि उनकी जड़ें कहाँ हैं. शहर  के निकट जर्मन गोलों के कुछ भारी प्रहारों के बाद मॉस्को वाले कहीं भूरे जंगलों के पीछे मारे हुए जानवरों का मांस खाने गायब हो गए, और चौड़ी पतलून वाले जर्मनों के पीछे-पीछे वापस चले गए. ये बड़े आश्चर्य की बात थी. तालबेर्ग परेशानी से मुस्कुराया, मगर किसी से नहीं डरा, क्योंकि चौड़ी पतलूनों वाले जर्मनों की मौजूदगी में बेहद शांत थे, किसीको मारने की हिम्मत नहीं करते थे और खुद भी रास्तों पर कुछ झिझक के साथ ही चलते थे, और ऐसे मेहमानों की तरह प्रतीत होते थे, जिनको खुद पर विश्वास न हो. तालबेर्ग ने कहा कि उनकी कोई जड़ें नहीं हैं, और उसने करीब दो महीने कहीं भी काम नहीं किया.

एक बार निकोल्का तुर्बीन तालबेर्ग के कमरे में जाते हुए मुस्कुराया. वह बैठा था और एक बड़े कागज़ पर व्याकरण के कुछ सवाल लिख रहा था, और उसके सामने एक पतली, सस्ते भूरे कागज़ पर छपी हुई किताब पड़ी थी:

“इग्नाती पिर्पीला” – यूक्रेनी व्याकरण.

सन् 1918 के अप्रैल में, ईस्टर पर, सर्कस में धुंधले इलेक्ट्रिक बल्ब खुशी से भनभना रहे थे. और गुम्बद तक लोगों के कारण काला नज़र आ रहा था. एक चुस्त, फ़ौजी कतार में तालबेर्ग अरेना में खडा था और हाथों की गिनती कर रहा था – चौड़ी पतलून वालों का खात्मा - रहेगा उक्राईना, मगर उक्रेन ‘गेटमन का” – पूरे उक्रेन के गेटमन को चुना जा रहा था.    

“हम मॉस्को के खूनी कॉमिक ऑपेरा से सुरक्षित हैं,” तालबेर्ग ने कहा, वह घर के प्यारे, पुराने वालपेपर्स की पृष्ठभूमि में, गेटमन के विचित्र यूनिफ़ॉर्म में चमक रहा था. तिरस्कार से घड़ी का दम घुट गया: टोंक-टांक, और बर्तन से पानी बह गया.

निकोल्का और अलेक्सेई को तालबेर्ग से कुछ नहीं कहना था. और बोलना भी बहुत मुश्किल होता, क्योंकि पोलिटिक्स के बारे में हर बात पर तालबेर्ग बहुत गुस्सा हो जाता और, ख़ास तौर से, उस समय, जब निकोल्का पूरी सादगी से पूछता, “मगर तुमने, सिर्योझा, मार्च में कहा था...”

फ़ौरन तालबेर्ग के ऊपरी, छितरे हुए, मगर मज़बूत और सफ़ेद दांत दिखाई देते, आंखों में पीली चिनगारियाँ दिखाई देतीं, और तालबेर्ग परेशान होने लगता.                                       

इस तरह अपने आप ही बातचीत का सिलसिला ही ख़त्म हो गया.

हाँ, कॉमिक ओपेरा...एलेना जानती थी की फूले-फूले बाल्टिक होठों पर इस शब्द का क्या मतलब था. मगर अब यह कॉमिक ओपेरा बुरे लोगों को धमका रहा था, न केवल चौड़ी पतलून वालों को, न मॉस्को के बोल्शेविकों को, न किसी ऐरे-गैरे इवान इवानविच को, बल्कि वह खुद सिर्गेइ इवानविच तालबेर्ग को धमका रहा था. हर इंसान का अपना सितारा होता है, यूँ ही नहीं मध्य युग में दरबारों के ज्योतिषी जन्मपत्रिकाएँ बनाया करते थे, भविष्य बताया करते थे. ओह, कितने बुद्धिमान थे वे! तो तालबेर्ग, सिर्गेइ इवानविच का सितारा अनुपयुक्त था, दुर्भाग्यपूर्ण था. तालबेर्ग के लिए अच्छा होता, यदि सब कुछ सीधे-सीधे, किसी विशेष रेखा में चलता रहता, मगर इस समय शहर  की घटनाएं सीधी रेखा में नहीं चल रही थीं, वे खतरनाक मोड़ ले रही थीं, और बेकार ही में तालबेर्ग बूझने की कोशिश कर रहा था, कि क्या होगा. वह नहीं समझ पाया.

शहर  से दूर, करीब डेढ़ सौ, या हो सकता है, दो सौ मील की दूरी पर सफ़ेद रोशनी से प्रकाशित पटरियों पर – एक सैलून-वैगन खड़ी है. वैगन में सफाचट दाढ़ी वाला फल्ली में दाने की तरह डोल रहा है, अपने क्लर्कों और एड्ज्युटेंट्स को डिक्टेशन लिखवा रहा है. अगर यह आदमी शहर  में आता है, तो तालबेर्ग के लिए मुसीबत हो जायेगी, और वह आ सकता है! मुसीबत.

‘वेस्ती अखबार के उस अंक से सब परिचित हैं, कैप्टेन तालबेर्ग के नाम से भी, जिसने गेटमन को चुना था. अखबार में लेख था, सिर्गेइ इवानविच का, और लेख में थे ये शब्द:

“पेत्ल्यूरा – साहसी है, जो अपने कॉमिक ओपेरा से इस इलाके को विनाश की धमकी दे रहा है...”

“तुम्हें, एलेना, तुम खुद ही समझती हो, मैं तुम्हें भटकन और अनिश्चितता में नहीं ले जा सकता. है ना ?”

एलेना ने एक भी शब्द नहीं कहा, क्योंकि वह स्वाभिमानी थी.

“मेरा ख़याल है कि मैं बगैर किसी रुकावट के रुमानिया से होकर क्रीमिया और दोन तक पहुँच जाऊंगा. वोन बूसव ने मुझसे सहयोग करने का वादा किया है. मेरी सराहना की जाती है. जर्मनों का कब्ज़ा एक कॉमिक ओपेरा में बदल गया है. जर्मन जा रहे हैं. (फुसफुसाते हुए) मेरे हिसाब से, पेत्ल्यूरा भी जल्दी ही गिर जाएगा. वास्तविक ताकत दोन से आ रही है. और तुम जानती हो, कि जब अधिकारों और व्यवस्था की फ़ौज की रचना हो रही हो, तो मुझे अवश्य वहाँ होना चाहिए. वहाँ न  होने का मतलब – अपने ‘करियर को बर्बाद करना, तुम तो जानती हो कि देनीकिन मेरी डिवीजन का प्रमुख था. मुझे यकीन है, कि तीन महीने भी नहीं बीतेंगे, हद से हद – मई में, हम शहर  आ जायेंगे. तुम किसी बात से न घबराना. तुम्हें किसी भी हाल में कोई नहीं छुएगा, और, बुरी से बुरी परिस्थिति में भी, तुम्हारे पास विवाह से पहले वाले कुलनाम का पासपोर्ट है. मैं अलेक्सेई से कहूंगा कि तुम्हें अपमानित न होने दे.

एलेना हडबडा गई.

“ठहरो,” उसने कहा, - “आखिर भाईयों को अभी इस बारे में आगाह करना होगा कि जर्मन हमें धोखा दे रहे हैं ?”

तालबेर्ग लाल हो गया.

“बेशक, बेशक, मैं अवश्य...वैसे, तुम खुद ही उनसे कह देना. हाँलाकि इससे परिस्थिति में कोई ख़ास फर्क नहीं पडेगा.”

पल भर के लिए एलेना के मन में एक अजीब ख़याल कौंध गया, मगर उस पर विचार करने के लिए समय नहीं था : तालबेर्ग पत्नी का चुम्बन ले रहा था, और पल भर के लिए उसकी दो परतों वाली आँखों में कौंध गई – सिर्फ कोमलता.

एलेना बर्दाश्त न कर पाई और रो पडी, मगर चुपचाप, खामोशी से, - वह एक दृढ़ महिला थी, यूँ ही आन्ना व्लदीमिरव्ना की बेटी नहीं थी. फिर मेहमानखाने में भाईयों से बिदा ली गई. ताँबे के लैम्प से गुलाबी रोशनी निकल रही थी, जिसने पूरे कोने को भर दिया था.        

पियानो अपने ख़ूबसूरत दांत और फ़ाऊस्ट के नोट्स वहाँ दिखा रहा था, जहाँ संगीत की घनी काली लहरें उछल रही हैं, और रंगबिरंगा लाल दाढी वाला वलेन्तीन गा रहा है:

 

“बहन के लिए तुझसे विनती करता हूँ,

दया करो,, दया करो तुम उस पर!

तुम उसकी रक्षा करो.

तालबेर्ग को भी, जो भावनिक रूप से संवेदनशील नहीं था, इस पल काले तारों की और शाश्वत फाऊस्ट की याद आ गई. एह, एह...तालबेर्ग फिर कभी सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रशंसा में प्रार्थना नहीं सुन पायेगा, नहीं सुन पायेगा एलेना को शेर्विन्स्की के साथ बजाते हुए! फिर भी, जब तुर्बीन और तालबेर्ग दुनिया में नहीं रहेंगे, फिर से पियानो के सुर बजेंगे और रंगबिरंगा वलेन्तीन स्टेज पर आयेगा, बॉक्स में सेंट की खुशबू महक रही होगी, और घर में महिलाएं संगत करेंगी, रंगबिरंगी रोशनी से सजी, क्योंकि फाऊस्ट, सार्दाम के बढ़ई की तरह – पूरी तरह शाश्वत है.

तालबेर्ग ने वहीं, पियानो के पास सब कुछ कह दिया. भाई विनम्रता से खामोश रहे, वे कोशिश कर रहे थे कि त्योरी न चढ़ाएं. छोटा – स्वाभिमान के कारण, और बड़ा इसलिए, कि वह घटिया इन्सान था. तालबेर्ग की आवाज़ थरथराई:

“आप लोग एलेना की हिफाज़त करना,” तालबेर्ग की आंखों की पहली पर्त विनती से और परेशानी से देख रही थीं.     

वह हिचकिचाया, परेशानी से जेबी घड़ी पर नज़र डाली और बेचैनी से बोला: “समय हो गया.”

एलेना ने गर्दन में हाथ डालकर पति को अपनी ओर खीचा, जल्दी-जल्दी और टेढ़े ही उस पर सलीब का निशान बनाया और उसका चुम्बन लिया. तालबेर्ग ने दोनों भाइयों के गालों पर अपनी काली, ब्रश जैसी कटी हुई मूंछें चुभाईं. तालबेर्ग ने अपने पर्स में देखकर, बेचैनी से कागजों का बण्डल जांचा, छोटे वाले खाने में उक्रेनियन नोट्स और जर्मन स्टैम्प्स गिने, और मुस्कुराते हुए, तनाव से मुस्कुराते हुए मुड़ कर, निकल गया.

जिंग...जिंग...प्रवेश कक्ष में रोशनी हुई, फिर सीढ़ियों पर सूटकेस की खडखड़ाहट. एलेना ने रेलिंग पर झुककर आख़िरी बार टोपी का नुकीला सिरा देखा.

रात के एक बजे, पांचवे ट्रैक से, खाली मालगाड़ियों के कब्रिस्तानों से अटे अँधेरे से एक भूरी, मेंढक जैसी, बख्तरबंद ट्रेन निकली और फ़ौरन तेज़ गति पकड़कर, राखदानी में लाल रोशनी फेंकते हुए वहशीपन से चीखी. उसने सात मिनट में आठ मील पार कर लिए, वलीन्स्की पोस्ट पर आई, अपने हुड़दंग में खडखडाते, गरजते, और चकाचौंध करती रोशनियों से, गति को कम किये बिना, उछलते सिग्नलों से होकर मुख्य लाईन से एक किनारे को मुडी और, ठण्ड से जम गए कैडेट्स और अफसरों के मन में, जो पोस्ट पर ही डिब्बों में घुसे बैठे थे, या ड्यूटी कर रहे थे, धुंधली आशा और गर्व का भाव जगाते हुए, साहस से, किसी से भी डरे बिना, जर्मन सीमा की ओर चली गई. उसके पीछे दस मिनट बाद दर्जनों खिड़कियों से जगमगाती, भारी भरकम इंजिन वाली पैसेंजर ट्रेन पोस्ट से गुज़री.             

खंभों जैसे, भारी भरकम, आंखों तक ढंके हुए जर्मन-संतरियों की झलक दिखाई दी, उनकी काली, चौड़ी संगीनें चमक उठीं.

ठंड से ठिठुरते हुए स्विचमैन, देख रहे थे कि कैसे देर तक लम्बे डिब्बे जोड़ों पर खड़खड़ाते हैं,  कैसे खिड़कियां स्विचमैनों पर प्रकाश पुंज फेंक रही हैं. इसके बाद सब लुप्त हो गया, और कैडेट्स के दिल ईर्ष्या, कड़वाहट, और परेशानी से भर गए.

“ऊ...क..क..कमीने!...” सिग्नल के पास कोई कराहा, और डिब्बे पर दहकता हुआ बर्फीला तूफ़ान टूट पडा. उस रात पोस्ट उड़ गई.

इंजिन से तीसरे डिब्बे में, धारियों वाले परदों से ढंके कूपे में, जर्मन लेफ्टिनेंट के सामने विनम्रता और कृतज्ञतापूर्वक मुस्कुराते हुए तालबेर्ग बैठा था और जर्मन में बात कर रहा था.                 

“ओह, हाँ,” बीच बीच में मोटा लेफ्टिनेंट खींचता और सिगरेट चबाता.

जब लेफ्टिनेंट सो गया, सभी कूपे के दरवाज़े बंद हो गए और गर्म और चकाचौंध करते डिब्बे में रास्ते की एकसार घरघराहट आने लगी. तालबेर्ग बाहर कॉरीडोर में आया,  हल्का पीला परदा हटा दिया जिस पर “द. प. रे, मा.” और बड़ी देर तक अँधेरे में देखता रहा. वहाँ बेतरतीबी से चिंगारियां उछल रही थीं, बर्फ उछल रही थी, और सामने इंजिन इतनी भयानकता से चिंघाड़ रहा था, कि तालबेर्ग भी परेशान हो गया.

 

 

 

 

3

 

रात की उस घड़ी में मकान मालिक, इंजीनियर वसीली इवानविच लीसविच के नीचे वाले फ़्लैट में पूरी शान्ति थी, सिर्फ छोटे से डाइनिंग रूम में चूहा उसे बार-बार भंग कर रहा था. चूहा पूरे मनोयोग से और व्यस्तता से, इंजीनियर की बीबी, वांदा मिखाइलव्ना की कंजूसी को शाप देते हुए, अलमारी में रखे हुए पुराने ‘चीज़’ की पपड़ी कुतर रहा था. शापित हडीली और ईर्ष्यालु वान्दा ठन्डे और नम क्वार्टर के छोटे से शयन कक्ष में गहरी नींद सो रही थी. खुद इंजीनियर इस समय अपने ठसाठस भरे हुए, परदों से ढंके हुए, किताबों से खचाखच भरे हुए, और इस कारण बेहद आरामदेह छोटे से अध्ययन कक्ष में जाग रहा था. खड़ा लैम्प, जो हरी फूलदार छतरी से ढँकी इजिप्ट की राजकुमारी को प्रदर्शित कर रहा था, पूरे कमरे को नज़ाकत और रहस्यमय ढंग से आलोकित कर रहा था, और खुद इंजीनियर भी चमड़े की गहरी कुर्सी में रहस्यमय नज़र आ रहा था. अस्थिर समय का रहस्य और दुहारापन सबसे पहले इस बात से प्रदर्शित हो रहा था कि कुर्सी में बैठा हुआ आदमी बिलकुल भी वसीली इवानविच लीसविच नहीं, बल्कि वसिलीसा था...मतलब, वह खुद तो अपने आप को – लीसविच कहता था, बहुत सारे लोग, जिनसे वह मिलता था, उसे वसीली इवानविच कहते थे, मगर ख़ास तौर से सामने से. पीठ पीछे तो कोई भी इंजीनियर को वसिलीसा के अलावा किसी और नाम से नहीं पुकारता था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गृह स्वामी ने सन् 1918 की जनवरी से, जब शहर  में खुल्लमखुल्ला अजीब घटनाएं होने लगीं, अपनी स्पष्ट लिखाई बदल दी, और विशिष्ट ‘वी. लीसविच के स्थान पर किसी भावी जवाबदेही के डर से फॉर्म्स में, प्रमाणपत्रों में, आदेशों में, सर्टिफिकेट्स में, और कार्ड्स पर “वास. लीस.” लिखने लगा.

निकोल्का को, सन् 1918 की जनवरी में, वसीली इवानविच के हाथों से शकर का कार्ड प्राप्त होने के बाद क्रेश्चातिक पर शकर के बदले पीठ पर पत्थर की भयानक मार मिली, और वह दो दिनों तक खून थूकता रहा. ( गोला शकर प्राप्त करने वालों की कतार पर फूटा था, जिसमें निडर लोग खड़े थे.) दीवारों का सहारा लेकर, हरा पड़ गया, निकोल्का घर पहुंचकर भी मुस्कुराया, जिससे एलेना घबरा न जाए, पूरा तसला भर खून थूकता रहा, और एलेना की चीख:

“माय गॉड! ये क्या हुआ?” पर बोला:

“ये वसिलीसा की शक्कर, शैतान उसे उठा ले!” और इसके बाद सफ़ेद पड़कर किनारे पर लुढ़क गया. निकोल्का दो दिनों बाद उठा, और वसील्री इवानाविच का अस्तित्व समाप्त हो गया. आरम्भ में तो तेरह नंबर के निवासी और बाद में पूरा शहर  इंजीनियर को वसिलीसा के नाम से बुलाने लगा, और सिर्फ यह महिला-नाम धारक ही अपना परिचय देता : प्रेसिडेंट ऑफ़ दि हाउसिंग कमिटी लीसविच. 

यह यकीन कर लेने के बाद कि सड़क आखिरकार पूरी तरह शांत हो गई है, इक्का-दुक्का स्लेजों की फ़िसलन भी सुनाई नहीं दे रही थी, पत्नी के शयनकक्ष से आती सीटी को ध्यान से सुनने के बाद, वसिलीसा प्रवेश कक्ष में गया, ध्यान से ताले, बोल्ट, ज़ंजीर, और कुंदे को हाथ लगाकर इत्मीनान कर लिया और अध्ययन कक्ष में लौट आया. अपनी भारी भरकम मेज़ की दराज़ से उसने चार चमचमाती सेफ्टी पिनें निकालीं, इसके बाद वह अँधेरे में दबे पाँव गया और एक चादर और कम्बल लेकर लौटा. एक बार फिर आहट ली और होठों पर उंगली भी रखी. जैकेट उतारी, आस्तीनें ऊपर चढ़ाईं, शेल्फ से गोंद का डिब्बा, वॉल पेपर का रोल, और कैंची ली. फिर खिड़की से चिपककर हथेली की ओट  से सड़क पर देखने लगा. बाईं खिड़की पर आधी ऊंचाई तक चादर टांग दी, और दाईं खिड़की पर पिनों की सहायता से कम्बल टांग दिया. सावधानी से देखा कि कोई दरार तो नहीं रह गई. कुर्सी ली, उस पर चढ़ गया और शेल्फ पर रखी किताबों की ऊपरी कतार के ऊपर हाथों से कुछ टटोलने लगा, चाकू से वॉल पेपर पर खड़ा चीरा लगा दिया, और उसके बाद समकोण बनाते हुए किनारे तक चीर दिया, चाकू को इस कटाव के नीचे घुसाया और एक सही, छोटा-सा, दो ईंट गहरा गुप्त आला खोला, जिसे उसने ही पिछली रात को बनाया था. जस्ते की पतली चादर के दरवाज़े को हटाया, नीचे उतारा, डर से खिड़कियों की तरफ देखा, चादर को छुआ. निचले दराज़ की गहराई से, जिसे चाभी को दो बार खनखनाते हुए घुमाकर खोला गया था, अखबारी कागज़ में  बंधा हुआ सीलबंद पैकेट निकाला. वसिलीसा ने उसे गुप्त आले में रखकर छोटा सा दरवाज़ा बंद कर दिया. मेज़ के लाल कपड़े पर वह बड़ी देर तक वॉलपेपर के टुकड़े काट-काट कर जमाता रहा, जब तक कि वे डिजाइन के अनुसार व्यवस्थित न हो गए. गोंद से चिपकाए हुए ये टुकड़े कटे हुए वॉलपेपर पर बड़ी खूबसूरती से बैठ गए: आधे गुलदस्ते से आधा गुलदस्ता, वर्ग से वर्ग भली प्रकार चिपक गए. जब इंजीनियर कुर्सी से नीचे उतरा, तो उसे यकीन हो गया था, कि दीवार पर गुप्त आले का कोई निशान नहीं है. वसिलीसा ने उत्साह से अपनी हथेलियाँ रगड़ी, फ़ौरन छोटी-सी भट्टी में वॉलपेपर के बचे-खुचे टुकड़े जला दिए, राख को हिला दिया और गोंद छुपा दिया.

निर्जन काली सड़क पर एक फटेहाल, भूरी, भेड़िये जैसी, आकृति बिना आवाज़ किये अकासिया की डाल से उतरी, जहाँ वह आधे घंटे से, बर्फबारी को बर्दाश्त करते हुए, मगर ललचाई आंखों से चादर की ऊपरी किनार पर, विश्वासघाती दरार से इंजीनियर के काम को देख रही थी, जिसने हरे रंग की खिड़की पर चादर लगाकर मुसीबत को आकर्षित किया था.  स्प्रिंग की तरह बर्फ के टीले पर कूद कर, आकृति रास्ते पर ऊपर की और चली गई, और आगे भेड़िये जैसी चाल से गलियों में गुम हो गई, और बर्फीला तूफ़ान, अन्धेरा, बर्फ के टीले उसे खा गए और उसके सारे निशान मिटा दिए.

रात का समय है. वसिलीसा आराम कुर्सी में बैठा है. हरे रंग की छाया में बिल्कुल तरास बुल्बा लग रहा है. घनी, लटकती हुई मूंछें – ये कहाँ से वसिलीसा हुई! – ये तो मर्द है. दराजों में हौले से आवाज़ हुई, और वसिलीसा के सामने लाल कपडे पे प्रकट हुई लम्बे कागजों की गड्डियां – हरे निशानों वाले ताश के ख़ास पत्ते, जिन पर यूक्रेनी भाषा में लिखा था:

“ शासकीय बैंक का सर्टिफिकेट

मूल्य - 50 रुबल्स

क्रेडिट कार्ड के समकक्ष.”  

सर्टिफिकेट पर एक ओर – लटकती हुई मूंछों वाला एक किसान, हाथ में फ़ावड़ा लिए, और गाँव की औरत हंसिया लिए. पिछली तरफ, अंडाकार फ्रेम में, बड़े आकार में, इसी किसान और औरत के लाल चेहरे थे. यहाँ भी मूंछें नीचे ही थीं, युक्रेनी स्टाइल में. और सबके ऊपर एक चेतावनी :

“जालसाज़ी के लिए जेल की सज़ा होगी”.

सत्यापित हस्ताखर

डाइरेक्टर राजकीय कोषागार  लेबिद-यूर्चिक”.

ताँबे का घुड़सवार, अलेक्सांद्र द्वितीय छितरे हुए लोहे के कल्लों में, घोड़े पर जाते हुए, चिड़चिड़ाहट से लेबिद-यूर्चिक की रचना पर और प्यार से राजकुमारी वाले लैम्प को देख रहा था. दीवार से स्तानिस्लाव का मैडल लगाए ऑइलपेंट से बना कर्मचारी – वसिलीसा का पूर्वज, भय से नोटों की ओर देख रहा था.     

हरी रोशनी में गंचारोव और दस्तयेव्स्की की किताबों के पुट्ठे कोमलता से चमक रहे थे और ब्रॉकहोस-एफ्रोन के विश्वकोश के सुनहरे-हरे ग्रंथ परेड कर रहे अश्वारोहियों की भाँति मज़बूती से खड़े थे. आरामदेह.

पाँच प्रतिशत वाले स्टेट-बॉन्ड वॉलपेपर के पीछे गुप्त आले में छिपाए गए थे। वहीं पर पंद्रह ‘कैथेरीन’, नौ ‘पीटर’, दस ‘निकलाय प्रथम’, तीन हीरे की अंगूठियाँ, ब्रोच, आन्ना और स्तानिस्लाव मेडल्स भी थे. 

दूसरे गुप्त आले में – बीस ‘कैथरीन दस ‘पीटर , पच्चीस चांदी के चम्मच, चेन वाली सोने की घड़ी, तीन सिगरेट केस (“प्रिय सहकर्मी को”, हालांकि वसिलीसा सिगरेट नहीं पीता था), दस-दस रूबल वाले सोने के पचास सिक्के, नमकदानियाँ, छः लोगों के लिए चांदी की कटलरी वाला केस, और चांदी की छन्नी, (बड़ा गुप्त आला लकड़ी की सराय में था, दरवाज़े से सीधे दो कदम, एक कदम बाएं, दीवार की शहतीर पर बने चाक के निशान से एक कदम. सब कुछ ऐनम बिस्कुटों के डिब्बों में,  मोमजामे में, तारकोल के धागों की सिलाई, दो गज की गहराई में.)

तीसरा गुप्त आला – अटारी पर: पाईप से दो चौखाने उत्तर-पूर्व को मिट्टी की शहतीर के नीचे: शक्कर की चिमटियां, दस-दस रूबल्स के एक सौ तिरासी सोने के सिक्के, पच्चीस हज़ार के सिक्यूरिटीज़ वाले बॉन्ड पेपर्स.

लेबिद-यूर्चिक – रोज़मर्रा के खर्चों के लिए था.

वसिलीसा ने चारों तरफ देखा, जैसा वह पैसे गिनते समय हमेशा करता था, और उंगली में थूक लगाकर यूक्रेनी नोटों को गिनने लगा. उसके चेहरे पर दिव्य प्रेरणा थी. फिर वह अचानक पीला पड़ गया.

“जाली, जाली,” सिर हिलाते हुए वह कड़वाहट से बुदबुदाया, “खतरनाक बात है. आ?

वसिलीसा की नीली आंखें बेहद उदास हो गईं. दस-दस की तीसरी गड्डी में – एक बार. चौथी गड्डी में – दो, छठी में – दो , नौवीं में – लगातार तीन नोट बेशक ऐसे थे जिनके लिए लेबिद-यूर्चिक जेल की धमकी दे रहा है. कुल एक सौ तेरह नोट हैं, और, गौर फरमाइए, आठ पर जालसाजी के पक्के निशान  हैं. गाँव वाला कुछ उदास सा है , जबकि उसे प्रसन्न होना चाहिए, और गड्डी पर रहस्यमय, उलटा अल्पविराम और दो बिंदु (कोलन) नहीं हैं, और कागज़ भी लेबिद वाले कागज़ से बेहतर है. वसिलीसा ने रोशनी में देखा, और पिछली तरफ से लेबिद वाकई में जाली रूप से चमक रहा था.

“कल शाम को गाडीवान को एक,” वसिलीसा ने अपने आप से कहा, “जाना तो पडेगा ही, और, बेशक, बाज़ार में.”

उसने सावधानी से जाली नोटों को, जिन्हें गाड़ीवान के लिए और बाज़ार में इस्तेमाल करने वाला था, एक ओर रखा और गड्डी को खनखनाते ताले के पीछे रख दिया. थरथरा गया. सिर के ऊपर छत पर भागते हुए पैरों की आवाज़ आ रही थी, और मृत खामोशी को हंसी और अस्पष्ट आवाजों ने भंग कर दिया. वसिलीसा ने अलेक्सांद्र द्वितीय से कहा:

“गौर फरमाइए : कभी भी शान्ति नहीं है...”

ऊपर सब कुछ शांत हो गया. वसिलीसा ने उबासी ली, खुरदुरी मूंछों पर हाथ फेरा, खिड़की से कम्बल और चादर हटाई, ड्राइंग रूम में, जहाँ फोनोग्राम का भोंपू टिमटिमा रहा था, छोटा सा लैम्प जलाया. दस मिनट बाद क्वार्टर में पूरी खामोशी छा गई. वसिलीसा बीबी के पास नम शयन कक्ष में सो गया. चूहों की, फफूंद की, बोरियत भरी नींद की बू आ रही थी. और लो, सपने में लेबिद- यूर्चिक घोड़े पर सवार होकर आया और किन्हीं तुशिनो के डाकुओं ने ‘मास्टर-की से गुप्त कोष को खोला. पान का गुलाम कुर्सी पर चढ़ गया, उसने वसिलीसा की मूंछों पर थूका और बिल्कुल नज़दीक से गोली चला दी. ठन्डे पसीने में चीख मारते हुए वसिलीसा उछला और पहली आवाज़ उसने सुनी – चूहे की, जो डाइनिंग रूम में अपने खानदान के साथ, ब्रेड के टुकड़ों की थैली पर टूट पडा था, और उसके बाद असाधारण नज़ाकत वाली गिटार की आवाज़ जो छत से और कालीनों से होकर आ रही थी, हंसी...

छत के पीछे असाधारण रूप से सशक्त और भावपूर्ण आवाज़ गा रही थी और गिटार मार्च की धुन बजा रही थी.

“एक ही उपाय है – उनसे क्वार्टर खाली करवाया जाए,” वसिलीसा ने अपने आप को चादरों से लपेट लिया, “ये बकवास है, न दिन में चैन है, न रात में.”

 

जा रहे हैं और गा रहे हैं

कैडेट्स गार्ड्स स्कूल के

 

“हाँलाकि, वैसे, अगर कोई मुसीबत आती है...बात सही है , वक़्त तो - खतरनाक चल रहा है.

किसे रखोगे, पता नहीं, मगर ये लोग फ़ौजी अफ़सर हैं, कुछ हो जाए तो – सुरक्षा तो है...”

“भाग!” वसिलीसा गुस्साए चूहे पर चीखा.

गिटार...गिटार...गिटार...

 

****

 

ड्राइंग रूम के झुम्बर में चार रोशनियाँ हैं. नीले धुएँ के बैनर्स. दूधिया रंग के परदों ने शीशा लगे बरामदे को ढांक दिया है. घड़ी की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है. मेज़पोश की सफेदी पर ग्रीन हाउस के ताज़े गुलाबों के गुलदस्ते, वोद्का की तीन बोतलें और सफ़ेद वाईन की तंग जर्मन बोतलें. ऊंचे, नुकीले जाम, फूलदानों की चमचमाती तहों में सेब, नीबू के टुकडे, ब्रेड के टुकडे-टुकडे, चाय...

कुर्सी पर हास्य-समाचारपत्र “शैतान की गुड़िया” का गुड़ी-मुड़ी किया हुआ कागज़ पडा था. दिमागों में तूफ़ान डोल रहा है, कभी एक तरफ बेवजह खुशी वाले सुनहरे द्वीप की ओर ले जाता है, कभी परेशानियों की गंदी खाई में फेंक देता है. असंबद्ध शब्द तूफ़ान की ओर ताकते हैं:

नंगे बदन से साही पर नहीं बैठते!

“ये है खुशमिजाज़ कमीना....और गोलाबारी तो रुक गई है. म-ज़ा-क, शैतान मुझे ले जाए! वोद्का, वोदका और धुंध.  आ-रा-ता-ताम ! गिटार.

 

तरबूज को नहीं भूनते साबुन पर,

जीत गए अमेरिकन्स. 

मिश्लायेव्स्की, कहीं धुएँ के परदे के पीछे हंस पडा. वह नशे में है.

 

ब्रैटमैन के व्यंग्य तीखे हैं,

मगर सेनेगाल की कम्पनियां कहाँ हैं?

“कहाँ हैं? वाक़ई में? हैं कहाँ?” धुंधले मिश्लायेव्स्की ने पूछा.

जनती हैं भेड़ें टेंट के नीचे,

होगा रद्ज्यान्का प्रेसिडेंट.   

“मगर, होशियार हैं, कमीने, कुछ नहीं कर सकते!”

एलेना, जिसे तालबेर्ग के जाने के बाद संभलने का मौक़ा ही नहीं दिया गया...सफ़ेद वाईन से दर्द पूरी तरह ख़त्म नहीं होता, बल्कि कुंद हो जाता है, मेज़ के संकरे कोने पर एलेना मेज़बान वाली जगह पर बैठी थी. विपरीत दिशा में – मिश्लायेव्स्की, बिना हजामत के, सफ़ेद, ड्रेसिंग गाऊन में, भयानक थकान तथा वोद्का से चेहरे पर धब्बे उभर आये थे. आंखों में लाल-लाल छल्ले – बेहद ठण्ड से, महसूस किये गए डर से, वोद्का से, गुस्से से. मेज़ के लम्बे किनारों पर , एक तरफ अलेक्सेई और निकोल्का, और दूसरी तरफ – लिअनिद यूरेविच शिर्वीन्स्की, जो उलान रेजिमेंट के भूतपूर्व लाइफ-गार्ड्स का लेफ्टिनेंट, और वर्तमान में राजकुमार बेलारूकव के स्टाफ-हेडक्वार्टर्स में एड्जुटेंट था, और उसकी बागल में सेकण्ड लेफ्टिनेंट स्तिपानव, फ़्योदर निकलायेविच, तोपची, जिसे अलेक्सांद्र जिम्नेज़ियम में – ‘करास’ ‘कार्प के नाम से पुकारते थे.

छोटा सा, गठीले बदन का और वाक़ई में ‘करास से काफी मिलता-जुलता, तालबेर्ग के जाने के क़रीब बीस मिनट बाद, करास शिर्वीन्स्की से तुर्बीनों के प्रवेश द्वार पर टकरा गया था. दोनों के पास बोतलें थीं. शिर्वीन्स्की के पास था पैकेट – सफ़ेद वाईन की चार बोतलें, करास के पास – वोद्का की दो बोतलें.

शिर्वीर्न्स्की के पास इसके अलावा एक बहुत बड़ा गुलदस्ता भी था, कागज़ की तिहरी पर्त में लिपटा हुआ – साफ़ समझ में आ रहा था कि गुलाब हैं एलेना वसील्येव्ना के लिए. करास ने वहीं, प्रवेश द्वार के पास ही ख़बर सुनाई: उसकी शोल्डर स्ट्रेप्स पर सुनहरी तोपें हैं – धैर्य समाप्त हो चुका है, सबको लड़ाई पर जाना चाहिए, क्योंकि यूनिवर्सिटी की पढाई से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है, और अगर पेत्ल्यूरा शहर  में घुस आता है, - तब तो और भी कोई फ़ायदा नहीं है. सबको जाना चाहिए, मगर तोपचियों को निश्चित रूप से मोर्टार डिविजन में. कमांडर – कर्नल मलीशेव, डिविजन – लाजवाब है : यही नाम है – स्टूडेंट्स डिविजन. करास परेशान है कि मिश्लायेव्स्की इस बेवकूफ स्क्वैड में चला गया. बेवकूफी है. हीरोगिरी करता था, जल्दबाजी कर ली. शैतान ही जाने कि अब वह कहाँ है. हो सकता है, कि शहर  के पास उसे मार भी डाला हो...

आह, मिश्लायेव्स्की तो यहीं था, ऊपर! सोनपरी एलेना ने शयनकक्ष के आधे अँधेरे में, चांदी की पत्तियों की फ्रेम में जड़े अंडाकार आईने के सामने चेहरे पर जल्दी से पावडर लगाया और गुलाब के फूल लेने के लिए बाहर आई. हुर्रे! सभी यहाँ हैं. सिलवटों वाले शोल्डर स्ट्रैप्स पर करास की सुनहरी तोपें, शिर्वीन्स्की  के घुड़सवार दस्ते के पीले शोल्डर स्ट्रैप्स और उसकी इस्त्री की हुई नीली ब्रीचेस के सामने फीकी लग रही थीं. तालबेर्ग के ग़ायब होने की ख़बर से छोटे से शिर्वीन्स्की  की बेशर्म आँखों में खुशी नाच उठी. छोटा सा भालाधारी फ़ौरन महसूस करने लगा कि उसकी आवाज़ में और गुलाबी ड्राइंग रूम में सचमुच आवाजों का आश्चर्यजनक बवंडर हिलोरें ले रहा है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था, शिर्वीन्स्की  विवाह-देवता की स्तुति में गा रहा था, और क्या गा रहा था! हाँ, दुनिया में सब बेकार है, सिवाय ऐसी आवाज़ के, जैसी शिर्वीन्स्की  की है. बेशक, फिलहाल आर्मी हेडक्वार्टर्स, ये फ़ालतू लड़ाई, बोल्शेविक, और पेत्ल्यूरा, और फ़र्ज़, मगर बाद में, जब सब कुछ सामान्य हो जाएगा, वह फौजी नौकरी छोड़ देगा, अपने पीटर्सबुर्ग के संबंधों के बावजूद, पता है, कैसे कैसे संबंध हैं उसके – ओ-हो-हो...और स्टेज पर चला जाएगा. वह ‘ला स्काला में गायेगा और मॉस्को के बल्शोय थियेटर में, जब बोल्शेविकों को मॉस्को के थियेटर स्क्वेयर पर बिजली के खम्भों पर लटका दिया जाएगा. जब उसने झ्मेरिन्को में दूल्हा-दुल्हन का गीत गाया था, तो काउंटेस लेन्द्रिकोवा उससे प्यार कर बैठी थी, क्योंकि उसने ‘सा के बदले ‘ध लिया और उसे पाँच मिनट तक पकडे रहा. ‘पांच – कहने के बाद शिर्वीन्स्की  ने खुद ही अपना सिर थोड़ा झुका लिया और परेशानी से चारों तरफ देखने लगा, जैसे किसी और ने इस बारे में उसे सूचित किया हो, न कि उसने खुद ने.

“च्, पाँच. चलो, ठीक है, खाना खाने चलें.”

और बैनर्स, धुआँ ...

“और सेनेगाल की पाँच कम्पनियां कहाँ हैं? जवाब दो, स्टाफ ऑफिसर, जवाब दो. लेनच्का, वाईन पियो, सोनपरी, पियो. सब कुछ ठीक हो जाएगा. उसने अच्छा ही किया, जो चला गया. दोन तक पहुंचेगा और देनिकिन की फ़ौज के साथ यहाँ आयेगा.”

“आयेंगी!” शिर्वीन्स्की  झनझनाया, “आयेंगी. मुझे एक महत्वपूर्ण समाचार कहने की इजाज़त दें: आज मैंने खुद क्रेश्चातिक पर सर्बियन क्वार्टरमास्टर्स को देखा, और परसों तक, ज़्यादा से ज़्यादा, दो दिन बाद. शहर  में दो सर्बियन रेजिमेंट्स आ जायेंगी.”

“सुनो, क्या ये सच है?

शिर्वीन्स्की  लाल हो गया.

“हुम्, अजीब बात है. जब मैं कह रहा हूँ, कि मैंने खुद देखा है, तो मुझे यह सवाल बेतुका लगता है.”  

“दो कम्पनियाँ ...कि दो कम्पनियाँ....”

“ठीक है, तो क्या पूरी बात सुनेंगे? खुद राजकुमार ने आज मुझसे कहा, कि ओडेसा के बंदरगाह पर फ़ौजी उतारे जा रहे हैं: ग्रीक्स आ चुके हैं और सिनेगालों के दो डिविजन. हमें एक हफ़्ता सब्र करना होगा, - और फिर जर्मन जाएँ भाड़ में.”

“विश्वासघाती!”

“खैर, अगर ये सच है, तो पेत्ल्यूरा को पकड़ कर लटका देना चाहिए! बिल्कुल लटका देना चाहिए!”

“अपने हाथों से गोली मार दूँगा.”

“और एक-एक घूँट. आपकी सेहत के नाम, अफसर महाशयों!”

एक घूँट – और आख़िरी धुंध! धुंध, महाशयों.

निकोल्का, जिसने तीन जाम पी लिए थे, अपने कमरे की ओर भागा रूमाल लेने के लिए और प्रवेश कक्ष में (जब कोई नहीं देख रहा हो, अपने आप में आ सकते हो) हैंगर से टकरा गया. शिर्वीन्स्की  की मुड़ी हुई तलवार, चमचमाती सुनहरी मूठ वाली. पर्शियन राजकुमार ने भेंट दी थी. तलवार का फल दमास्कस का. न तो किसी प्रिंस ने भेंट दी थी, और फल भी दमास्कस का नहीं था, मगर ये सही है – ख़ूबसूरत और महंगी है. बेल्ट से बंधे होल्स्टर में उदास पिस्तौल, करास की ‘स्टेयर - नीले नालमुख वाली. निकोल्का ने होल्स्टर की ठण्डी लकड़ी को छुआ, पिस्तौल की खुरदुरी नाक को उँगलियों से छुआ और उत्तेजना से लगभग रो पडा. दिल चाह रहा था कि फ़ौरन, इसी पल, बर्फीले मैदानों में पोस्ट पर जाए और युद्ध में शामिल हो जाए. वाकई में शर्मनाक है! अटपटा लगता है...यहाँ वोद्का और गर्माहट है, और वहाँ अन्धेरा, बर्फ, तूफ़ान, कैडेट्स जम जाते हैं. वहाँ स्टाफ हेडक्वार्टर्स में वे क्या सोचते होंगे? ऐ, स्क्वैड अभी तैयार नहीं है, स्टूडेंट्स की ट्रेनिंग पूरी नहीं हुई है,  और सिनेगालों का अता-पता नहीं है, शायद, वे, जूतों जैसे, काले...मगर वे तो यहाँ सूअरों जैसे जम जायेंगे? उन्हें तो गर्म जलवायु की आदत है ना?

“मैं तो तुम्हारे गेटमन को,” बड़ा तुर्बीन चीखा, “सबसे पहले लटका देता! छः महीने से वह हम सबको चिढ़ा रहा है. रूसी फ़ौज के गठन को किसने रोका था? गेटमन ने. और अब. जब बिल्ली को पेट से पकड़ लिया है, तो रूसी फ़ौज बनाने चले हैं? दुश्मन दो कदम पर है, और वे स्क्वैड्स, स्टाफ हेडक्वार्टर्स?

देखिये, ओय, ज़रा देखिये!”

“घबराहट फैला रहे हो,” करास ने ठंडेपन से कहा.

“मैं? घबराहट? आप तो मुझे समझना ही नहीं चाहते. घबराहट नहीं फैला रहा, बल्कि मैं वह सब बाहर उंडेल देना चाहता हूँ, जो मेरी आत्मा में खदखदा रहा है. घबराहट? परेशान न हो. कल, मैंने फैसला कर लिया है, मैं इसी डिविजन में जाऊंगा, और अगर आपका मलीशेव मुझे डॉक्टर की हैसियत से नहीं लेता, तो मैं सामान्य फ़ौजी की तरह जाऊंगा. मैं उकता गया हूँ! घबराहट नहीं,” - खीरे का टुकड़ा उसके गले में अटक गया, वह ज़ोर-ज़ोर से खांसने लगा, और निकोल्का जोर से उसकी पीठ थपथपाने लगा.                       

सही है!” करास ने मेज़ थपथपा कर सहमति दर्शाई. “जहन्नुम में जाएँ सामान्य फ़ौजी – तुम्हें डॉक्टर के रूप में ही लेंगे.”

“कल सब एक साथ जायेंगे,” नशे में धुत मिश्लायेव्स्की बडबड़ाया, “सब एक साथ. पूरा अलेक्सान्द्रोव्स्की इम्पीरियल हाई स्कूल. हुर्रे!”

“कमीना है वो,” तुर्बीन ने घृणा से आगे कहा, “वो खुद तो इस भाषा में बात नहीं करता है! आ? मैंने परसों इस डॉक्टर कुरीत्स्की से पूछा, वह, गौर फरमाइए, पिछले साल के नवम्बर से रूसी बोलना भूल गया है. पहले कुरीत्स्की था, और अब कुरीत्सकी हो गया है...तो, मैंने पूछा:

‘ उक्रेनी भाषा में ‘कोत’ (बिल्ली – अनु.) को क्या कहते हैं? वह बोला ‘कीत’ (व्हेल – अनु.). फिर मैंने पूछा और ‘कीत को (व्हेल को – अनु.) . वह रुक गया, आंखें फाडीं और खामोश हो गया. और अब वह मेरा अभिवादन भी नहीं करता है.

निकोल्का ने ज़ोर से ठहाका लगाया और बोला:

“उनके पास ‘कीत शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि युक्रेन में व्हेल मछलियाँ नहीं होतीं, मगर रूस में बहुत हैं. श्वेत सागर में व्हेलें हैं...     

“लामबंदी,” कटुता से तुर्बीन ने आगे कहा, “अफसोस, कि आप लोगों ने नहीं देखा कि कल आस-पास के इलाकों में क्या हुआ. “सभी सट्टेबाजों को ऑर्डर आने से तीन दिन पहले ही लामबंदी के बारे में पता चल गया था. बढ़िया है ना? और हरेक को या तो हर्निया हो गया या दायें फेफड़े पर धब्बा निकल आया, और अगर किसी को धब्बा नहीं आया तो वह बस यूँ ही गायब हो गया, जैसे धरती में समा गया. और, ये, भाइयों, ये खतरनाक लक्षण है. अगर कॉफी हाउस में लामबंदी से पूर्व फुसफुसाहट होती है, और एक भी नहीं जाता है – तो मामला खतरनाक है! ओ, कमीने, कमीने! अगर वह अप्रैल से ही ‘ऑफिसर्स कोर’ का गठन शुरू कर देता, तो अब तक हम मॉस्को ले चुके होते. आप समझ रहे हैं, कि यहाँ, शहर  में, वह पचास हज़ार की फ़ौज बना लेता, और वह भी कैसी फ़ौज! चुनी हुई, बेहतरीन, इसलिए कि सारे कैडेट्स, सारे स्टूडेंट्स, हाई स्कूलों के छात्र, अफसर, और शहर  में वे हज़ारों में हैं, सभी खुशी से जाते. न सिर्फ पेत्ल्यूरा का उक्रेन से नामोनिशान मिट जाता, बल्कि हमने  मॉस्को में त्रोत्स्की को भी मक्खी की तरह मसल दिया होता.

यही सही समय था, क्योंकि, वहाँ, कहते हैं कि बिल्लियाँ भून कर खा रहे हैं. वो, कमीना, रूस को बचा लेता.”

तुर्बीन के चहरे पर धब्बे छा गए और उसके मुँह से शब्द थूक के पतले फव्वारों के साथ उड़ रहे थे. आंखें जल रही थीं.

“तुम...तुम...तुम्हें तो, पता है, डॉक्टर नहीं, बल्कि रक्षा मंत्री होना चाहिए था, सही में,” करास ने कहा. वह व्यंग्य से मुस्कुरा रहा था, मगर तुर्बीन की बात उसे अच्छी लगी थी, और उसमें जोश भर गया था.

“अलेक्सेई मीटिंग्स का आवश्यक व्यक्ति है, बेहतरीन वक्ता,” निकोल्का ने कहा.

“निकोल्का, मैं दो बार तुझसे कह चुका हूँ, कि तुम कोई हाज़िर जवाब नहीं हो,” तुर्बीन ने उसे जवाब दिया, “बेहतर है कि तुम वाईन पियो.”          

“तुम समझने की कोशिश करो,” करास ने कहा, “कि जर्मन फ़ौज नहीं बनाने देते, वे फ़ौज से डरते हैं.”

“गलत है!” – तुर्बीन ने पतली आवाज़ में कहा, “सिर्फ थोड़ी अक्ल होनी चाहिए और तब गेटमन से कभी भी कोई समझौता किया जा सकता था. जर्मनों को समझाना चाहिए था, कि उन्हें हमसे कोई ख़तरा नहीं है. बेशक, हम युद्ध हार चुके हैं! हमारे सामने तो अब दूसरी ही समस्या है, युद्ध से, जर्मनों से, दुनिया की हर चीज़ से भी ज़्यादा भयानक.

हमारे पास – त्रोत्स्की है. जर्मनों से ये कहना चाहिए था: क्या आपको शक्कर, ब्रेड चाहिए?

“ले लो, खाओ, सैनिकों को खिलाओ. गले-गले तक खाओ, मगर सिर्फ मदद करो. फ़ौज बनाने दो, ये आपके लिए बेहतर होगा, हम उक्रेन में व्यवस्था बनाए रखने में आपकी सहायता करेंगे, ताकि हमारे ईश्वरीय दूतों को मॉस्को की बीमारी न लग जाए. और अगर अभी शहर  में रूसी फ़ौज होती तो फ़ौलादी दीवार से हमारी सुरक्षा करती. और पेत्ल्यूरा को...ख-ख...” तुर्बीन ज़ोर-ज़ोर से खांसने लगा.

“रुको!” शिर्वीन्स्की उठा, “थोड़ा ठहरो. मुझे गेटमन के बचाव में कुछ कहना है. ये सच है, कि गलतियाँ हुई हैं, मगर गेटमन का प्लान सही ही था. ओह, वह डिप्लोमैट है. सबसे पहले उक्रेन-स्टेट... इसके बाद गेटमन ठीक वही करता, जैसा तुम कह रहे हि : रूसी फ़ौज,  और कोई बहस नहीं. ठीक है ना?

शिर्वीन्स्की ने समारोह पूर्वक हाथ से कहीं इशारा किया. “व्लादिमीर्स्काया स्ट्रीट पर तीन रंग वाले झंडे फहरा रहे हैं.”

“झंडों के साथ देर कर दी.!”

“हुम्, हाँ. ये सच है. थोड़ी देर हो गई, मगर राजकुमार को विश्वास है कि गलती सुधारी जा सकती है.”

“ईश्वर करे, ईमानदारी से चाहता हूँ,” और तुर्बीन ने कोने में रखी वर्जिन मेरी की आकृति पर सलीब का निशान बनाया.    

“प्लान ऐसा था,” खनखनाती आवाज़ में समारोहपूर्वक शेर्वींस्की  ने कहा, - “जब युद्ध समाप्त हो जाता, जर्मन संभल जाते और बोल्शेविकों के विरुद्ध संघर्ष में सहायता करते. जब मॉस्को पर कब्ज़ा हो जाता तो गेटमन समारोहपूर्वक उक्रेन को महान सम्राट निकलाय अलेक्सान्द्रविच के कदमों पे रख देता.”

इस सूचना के बाद डाइनिंग रूम में मौत जैसा सन्नाटा छा गया. निकोल्का दुःख से विवर्ण हो गया.

“सम्राट को मारा डाला गया है,” वह फुसफुसाया.

“क्या, निकलाय अलेक्सान्द्रविच को?” तुर्बीन अवाक् रह गया, और मिश्लायेव्स्की ने हिलते हुए, कनखियों से पड़ोसी के जाम की तरफ देखा. ज़ाहिर था : हिम्मत जुटा रहा था, जुटा रहा था और पी गया, छतरी की तरह.

हथेलियों पर चेहरा रखे एलेना ने भय से लांसर की ओर देखा.

मगर शिर्वीन्स्की  बहुत ज़्यादा नशे में नहीं था, उसने हाथ उठाया और जोर देकर कहा:

“जल्दी न मचाइए, और सुनिए. तो, विनती करता हूँ, अफसर महाशयों (निकोल्का लाल हो गया और विवर्ण हो गया) जो सूचना मैं दूंगा, उसके बारे में फिलहाल चुप रहें. तो - आपको पता है कि सम्राट विलियम के महल में क्या हुआ था, जब उसके सामने गेटमन के अनुचर प्रस्तुत हुए थे?

“ज़रा सी भी कल्पना नहीं है,” करास ने दिलचस्पी से कहा.

“अच्छा..., मगर मुझे मालूम है.”

“फु:! उसे सब पता है,” मिश्लायेव्स्की ने अचरज से कहा, “तुम तो नहीं ना गए.....”

“महाशयों! उसे कहने दो.”

“जब सम्राट विलियम ने प्यार से अनुचरों से बातें की, तब उन्होंने कहा: “ अब मैं आपसे बिदा लेता हूँ, महाशयों, और आगे से आपसे बात करेंगे....: पार्टीशन खुल गया और हॉल में प्रवेश किया हमारे सम्राट ने. उन्होंने कहा, “अफसर महाशयों, उक्रेन जाईये और वहाँ अपनी रेजिमेंट्स बनाईये. जैसे ही समय आयेगा, मैं स्वयँ फ़ौज का नेतृत्व करूंगा और उसे रूस के हृदय में – मॉस्को में ले जाऊंगा,” और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे.” 

शिर्वीन्स्की  ने प्रसन्नता से सब पर नज़र दौडाई, जाम से एक घूँट पिया और आंखें सिकोड़ीं. दस आंखें उस पर टिकी हुई थीं, और खामोशी तब तक छाई रही, जब तक कि उसने बैठ कर हैम का टुकड़ा नहीं खा लिया.

सुनो...ये दन्तकथा है,” दुःख से नाक-भौं चढ़ाकर तुर्बीन ने कहा. “ये किस्सा मैं पहले ही सुन चुका हूँ.”

“सब मारे जा चुके हैं,” मिश्ल्यायेव्स्की ने कहा, “– सम्राट भी, सम्राज्ञी भी, और उनका वारिस भी.”

शिर्वीन्स्की  ने भट्टी की और देखा, गहरी सांस ली और कहा:

“आप बेकार ही में अविश्वास दिखा रहे हैं. महान सम्राट की मृत्यु की खबर...”

“कुछ अतिशयोक्ति से बताई गई है,” मिश्लायेव्स्की ने नशे में फ़ब्ती कसी.

एलेना गुस्से से थरथराई और मानो धुंध से बाहर आई.

“वीत्या, तुम्हें शर्म आनी चाहिए. तुम ऑफिसर हो.”

मिश्लायेव्स्की धुंध में डूब गया.

“... जानबूझकर खुद बोल्शेविकों द्वारा फैलाई गई थी. सम्राट अपने विश्वसनीय गवर्नर की...मतलब, माफ़ी चाहता हूँ, राजकुमार के गवर्नर, मिस्यो झिल्यार और कुछ अफसरों की की सहायता से बच गए, जो उन्हें ले गए...इ... एशिया. वहाँ से वे सिंगापुर गए और समुद्र के रास्ते यूरोप पँहुचे. और आजकल महाराज सम्राट विलियम के मेहमान हैं.”

“मगर, विलियम को भी तो भगा दिया गया था?” करास ने कहा.          

“ वे दोनों डेनमार्क में हैं, उन्हींके साथ सम्राट की श्रद्धेय माँ मरीया फ्योदरव्ना भी हैं. अगर आपको मुझ पर विश्वास नहीं है, तो, सुनिए: यह स्वयँ राजकुमार ने मुझे बताया है.

संभ्रम से व्याप्त निकोल्का की आत्मा कराह उठी. उसका दिल चाहा कि विश्वास कर ले.

“अगर ऐसा है,” वह अचानक जोश से बोला और माथे से पसीना पोंछते हुए बोला, “तो मैं सुझाव देता हूँ, ये जाम महान सम्राट के स्वास्थ्य के नाम!” उसने अपना गिलास चमकाया और क्रिस्टल ग्लास से होते हुए सुनहरे तीरों ने सफ़ेद जर्मन वाईन को छेद दिया. जूतों की एड़ कुर्सियों से टकराकर खनखना उठीं. झूलते हुए और मेज़ का सहारा लिए मिश्लायेव्स्की उठा. एलेना उठी. उसका सुनहरा जूडा खुल गया, और लटें कनपटियों पर झूलने लगीं.

जाने दो! जाने दो! चाहे मार ही क्यों न डाला हो,” टूटी-फूटी और भर्राई हुई आवाज़ में वह चीखी, “एक ही बात है. मैं पिऊँगी, मैं पिऊँगी.”

“द्नो स्टेशन पर जब वह राज-त्याग करके चला गया, उसके लिए उसे कभी भी माफ़ नहीं किया जा सकता. कभी नहीं. मगर कोई बात नहीं, अब हमने कटु अनुभव से सीख ली है और हम जानते हैं, कि सिर्फ राज-तंत्र ही रूस की रक्षा कर सकता है. इसलिए, अगर सम्राट मर गया है, तो सम्राट दीर्घायु हो!” तुर्बीन चिल्लाया और उसने जाम उठाया.            

“हुर्रे! हु-र्रे! हुर-र्रे!!” डाइनिंग रूम में तीन बार गडगडाहट के साथ गूंज उठा.

नीचे वसिलीसा ठन्डे पसीने में उछला. वह एक हृदय विदारक चीख के साथ उठा और उसने वांदा मिखाइलव्ना को उठाया.

“ओह माय गॉड ....गॉ...गॉ...वांदा उसके कमीज़ से चिपकते हुए बुदबुदाई.

“ये क्या हो रहा है? रात के तीन बजे हैं!” काली छत की ओर इशारा करके, रोते हुए वसिलीसा चिल्लाया. “अब तो मैं शिकायत कर ही दूँगा!”

वान्दा रिरियाई. और अचानक वे मानो पत्थर हो गये. ऊपर से स्पष्टता से, छत से रिसती हुई, मक्खन जैसी घनी लहर तैरते हुए बाहर आई, और उसके ऊपर प्रमुखता से थी शक्तिशाली, घंटी जैसी खनखनाती हुई गहरी आवाज़:       

श-क्तिशाली, स-म्राट

शासन करो महान...

वसिलीसा के दिल की धड़कन बंद हो गई, और पैरों से भी पसीने की धार बह निकली. लड़खड़ाती जुबान से वह बड़बड़ाया:

“नहीं...वे, याने, पागल हो गए हैं...वे हमें ऐसी मुसीबत में डाल सकते हैं, कि बाहर आना मुश्किल हो जाएगा. इस गीत पर तो रोक लगी है! हे, ईश्वर, वे कर क्या रहे हैं? रा-स्ते पर, रास्ते पर भी सुनाई दे रहा है!!”

मगर वांदा पत्थर की तरह फ़िसल गई थी और फिर से सो गई थी.

वसिलीसा सिर्फ तभी सो सका, जब शोर गुल के बीच अस्पष्टता से आख़िरी सुर तैर गया.  

“रूस में सिर्फ एक ही संभव है : ऑर्थोडोक्स चर्च और एकतंत्र!” मिश्लायेव्स्की झूलते हुए चिल्लाया.  

“एकदम सही!”

“मैं ‘पॉल प्रथम' देखने गया था...एक हफ़्ता पहले...” लड़खड़ाती जुबान से मिश्लायेवस्की बुदबुदाया, “ और जब आर्टिस्ट ने ये शब्द कहे, तो मैं खुद को रोक नहीं पाया और चीखा: “सह-ह-ही !” और आप क्या सोचते हैं, चारों तरफ लोग तालियाँ बजाने लगे. सिर्फ अपर सर्कल में एक सूअर चीखा,“बेवकूफा!” 

य-हू-दी!,” नशे में धुत्त करास उदासी से चिल्लाया.

धुंध. धुंध. धुंध. टोंक-टांक...टोंक-टांक...वोद्का पीने में भी अब कोई तुक नहीं है, वाईन पीने में भी कोई तुक नहीं है, आत्मा के भीतर जाती है और वापस लौट आती है.

छोटे से शौचालय की संकरी दरार में, जहाँ छत पर लैम्प उछल रहा था और नृत्य कर रहा था,मानो किसी ने उस पर जादू कर दिया हो, सब कुछ धुंधला था और गोल-गोल घूम रहा था. विवर्ण,दयनीय मिश्लायेव्स्की बुरी तरह उल्टी कर रहा था. तुर्बीन, जो खुद भी नशे में था, भयंकर, फड़कते गाल, माथे पर चिपके गीले बालों के साथ मिश्लायेव्स्की को सहारा दे रहा था.      

“आ-आ...”

वह, आखिरकार, कराहते हुए, बेसिन से दूर हटा और अपनी बुझती हुई आंखों को दर्द से घुमाते हुए तुर्बीन के हाथों में खाली बोरे की तरह लटक गया.

“नि-कोल्का,” धुंध और अँधेरे में किसी की आवाज़ आई और कुछ पलों के बाद ही तुर्बीन समझ पाया, कि ये उसकी अपनी ही आवाज़ है.

“निकोल्का!” उसने दुहराया. शौचालय की सफ़ेद दीवार झूली और हरे रंग में बदल गई. “गॉ-ऑ-ड, गॉ-ऑ-ड. कितना उबकाई भरा और घिनौना है. कभी नहीं, कसम खाता हूँ, कभी भी वोद्का और वाईन को नहीं मिलाऊंगा निकोल...”

“आ-आ,” फर्श पर बैठते हुए मिश्लायेव्स्की भर्रा रहा था.

काली दरार चौड़ी हुई, और उसमें निकोल्का सिर और उसका बैज प्रकट हुआ.

“निकोल...मदद कर, इसे पकड़ो. ऐसे पकड़ो, हाथ से.”

“त्स...त्स...त्स...एख,एख,” दयनीयता से सिर हिलाते हुए निकोल्का बुदबुदाया और तन गया. अधमरा शरीर हिल रहा था, पैर, घिसटते हुए, विभिन्न दिशाओं में जा रहे थे, मानो धागे से लटके हों, निर्जीव सिर लटक रहा था. टोंक-टांक. घड़ी दीवार से फिसली और वापस वहीं जाकर बैठ गई. प्यालों में फूलों के गुच्छे नाच रहे थे. एलेना का चेहरा धब्बों से जल रहा था, और बालों की लट दाईं भौंह के ऊपर नाच रही थी.

“ऐसे. लिटाओ उसे.”

“कम से कम गाऊन तो पहनाओ उसे. अच्छा नहीं लगता, मैं यहाँ हूँ. नासपीटे शैतान. पीना तो आता नहीं. वीत्का! वीत्का! क्या हुआ है तुझे? वीत्...”

“छोडो. कोई फ़ायदा नहीं होगा,निकोलुश्का, सुनो. मेरे ऑफिस में...शेल्फ पर एक बोतल है, जिस पर लिखा है ‘लिकर अमोनिया', और लेबल का कोना फटा हुआ है, समझ रहे हो ना...अमोनिया की गंध आती है.”

“अभी...अभी...एह-एह.”
“और तुम
, डॉक्टर, अच्छे ...”

“अच्छा, ठीक है, ठीक है.”

“क्या? नब्ज़ नहीं है?

“नहीं, बकवास, ठीक हो जाएगा.”

“बेसिन! बेसिन!”

“बेसिन लीजिये.”

“आ-आ-आ...”

“एख, आप भी!”

अमोनिया की तेज़ गंध आई. करास और एलेना ने मिश्लायेव्स्की का मुँह खोला. निकोल्का उसे थामे रहा, और तुर्बीन ने दो बार उसके मुँह में मटमैला सफ़ेद पानी डाला.

“आ...खर्र...ऊ-उह..त्फु ...फे...”

“बर्फ, बर्फ...”

“ओ माय गॉड, ये ऐसा करना पड़ता है...”

गीला कपड़ा माथे पर पड़ा था, उससे चादर पर बूँदें टपक रही थीं, कपड़े के नीचे सूजी हुई पलकों के पीछे लाल-लाल आंखें दिखाई दे रही थीं, और नुकीली नाक के पास नीली परछाइयां दिखाई दे रही थीं. करीब पंद्रह मिनट, एक दूसरे को कोहनियों से धकेलते हुए, भागदौड़ करते हुए, निढाल ऑफिसर की तब तक खिदमत करते रहे, जब तक कि उसने आंखें नहीं खोलीं, और भर्राई आवाज़ में नहीं बोला:

“आह...छोडो...”

“अच्छा, चलो ठीक है, इसे यहीं सोने दो.”

सभी कमरों में रोशनियाँ जल उठीं,बिस्तरों का इंतज़ाम करते हुए भाग-दौड़ करते रहे.

“लिअनिद यूरेविच, आप यहाँ सो जाईये,निकोल्का के कमरे में.”

“जी, सुन रहा हूँ.”

शिर्वीन्स्की , लाल-ताँबे जैसा, मगर चौकन्ना, अपनी एडियाँ खटखटाईं और झुक कर बिदा ली. एलेना के गोरे हाथ दीवान के ऊपर तकियों पर दिखाई दिए.

“आप परेशान न हों...मैं खुद कर लूँगा.”

“आप दूर हटिये. तकिया क्यों खीच रहे हैं? आपकी मदद की ज़रुरत नहीं है.”

“आपका हाथ चूमने की इजाज़त दीजिये...”

“किसलिए?

“परेशानी के लिए शुक्रिया कहना चाहता हूँ.”

“अभी इंतज़ार कीजिये...निकोल्का, तुम अपने कमरे में बिस्तर पर. तो, कैसा है वो?

“ठीक है,खतरे की कोई बात नहीं, सो जाएगा, तो बिलकुल ठीक हो जाएगा.”

निकोल्का के कमरे से पहले वाले कमरे में भी, किताबों से भरी दो अलमारियों के पीछे,जिन्हें चिपका कर रखा गया था, दो दिवानों पर सफ़ेद चादरें बिछा दी गईं. प्रोफ़ेसर के परिवार में इसे किताबों का कमरा कहते थे.  

 

***

 

और बत्तियां बुझ गईं. किताबों वाले कमरे में, निकोल्का के कमरे में, डाइनिंग रूम में. एलेना के शयन कक्ष से, परदों के बीच की दरार से होकर डाइनिंग रूम में गहरे लाल रंग के प्रकाश की पट्टी बाहर रेंग रही थी. रोशनी उसे बेज़ार कर रही थी, इसलिए पलंग के पास वाले स्टूल पर रखे लैम्प को उसने थियेटर में पहनने वाला गहरा लाल बोनट (टोप) डाल दिया. कभी इसी बोनट को पहनकर एलेना थियेटर जाती थी, जब हाथों से,फर-कोट से और होठों से इत्र की खुशबू आती थी, और चेहरे पर हल्का-सा पाउडर लगा होता, और टोप  से एलेना इस तरह देखती जैसे “हुकुम की बेगम” की लीज़ा देखती है. मगर पिछले एक साल में टोप बहुत जर्जर हो गया, बड़ी शीघ्रता से और अजीब तरह से, उसमें सिलवटें पड़ गईं, वह बदरंग हो गया, रिबन्स घिस गए. “हुकुम की बेगम” की लीज़ा के समान लाल बालों वाली एलेना, घुटनों पर हाथ लटकाए, हाउसकोट पहने तैयार किये हुए बिस्तर पर बैठी थी. उसके पैर नंगे थे, पुराने, बदरंग भालू की खाल में घुसे हुए थे. हल्के-से नशे का खुमार पूरी तरह उतर गया, और एलेना के दिमाग को भयानक, गहरी निराशा ने टोप की तरह घेर लिया. बगल वाले कमरे से, दरवाज़े से होकर, जिसे अलमारी ने उड़का दिया था, दबी-दबी, निकोल्का की सीटी की आवाज़ और शिर्वीन्स्की  के ज़ोरदार,दमदार खर्राटे सुनाई दे रहे थे. किताबों वाले कमरे में मुर्दे जैसे मिश्लायेव्स्की की और करास की खामोशी छाई थी. एलेना अकेली थी और इसलिए वह अपने आप को न रोक पाई और कभी दबी आवाज़ में, तो कभी खामोशी से, मुश्किल से होठों को हिलाते हुए बातें कर रही थी – बोनट से, जो रोशनी से सराबोर था, और खिड़कियों के काले धब्बों से. 

“चला गया...”

वह बुदबुदाई, सूखी आंखों को सिकोड़ा और खयालों में खो गई. अपने विचारों को वह खुद ही नहीं समझ पा रही थी. चला गया, और ऐसे समय में. मगर माफ़ कीजिये, वह बहुत समझदार व्यक्ति है, और उसने बहुत अच्छा किया, जो चला गया... आखिर ये अच्छे के लिए ही तो है...

“मगर ऐसे समय में...” एलेना बुदबुदाई और उसने गहरी सांस ली.

“कैसा आदमी है वह ?” जैसे वह उससे प्यार करती थी और अपनापन भी महसूस करती थी. और अब है भयानक अवसाद इस कमरे के अकेलेपन में, इन खिड़कियों के पास, जो आज ताबूतों जैसी लग रही हैं. मगर इस समय नहीं, पूरे समय नहीं – डेढ़ साल, - जो उसने इस आदमी के साथ बिताया है, मगर दिल में वह बात नहीं थी जो सबसे मुख्य है, जिसके बिना, किसी भी हाल में ऐसी गरिमामय शादी भी चल नहीं सकती – ख़ूबसूरत, लाल बालों वाली, सुनहरी एलेना और जनरल स्टाफ के करियरवादी के बीच, बोनट्स के, इत्र की खुशबू, खनखनाती एड़ों की गहमागहमी के बीच, और खुशनुमा, फिलहाल बच्चों की चिंता के बिना. जनरल स्टाफ के, अत्यंत सावधान, बाल्टिक प्रदेश के आदमी के साथ शादी. और कैसा है ये आदमी? ऐसी कौनसी मुख्य बात की कमी है, जिसके बिना मेरी आत्मा खोखली है?

“जानती हूँ मैं, जानती हूँ,” एलेना ने खुद से कहा. “सम्मान नहीं है. पता है, सिर्योझा, मेरे दिल में तुम्हारे प्रति सम्मान की भावना नहीं है,” उसने अर्थपूर्ण ढंग से लाल बोनट से कहा और उंगली ऊपर उठाई. और अपने कथन से स्वयँ ही भयभीत हो गई, अपने अकेलेपन से भयभीत हो गई, कामना करने लगी कि वह उसके पास हो, इसी पल. बिना किसी सम्मान के, बिना इस मुख्य बात के, मगर सिर्फ ये कि वह यहाँ हो इस मुश्किल घड़ी में. चला गया. और भाइयों ने भी चूम कर उसे बिदा किया था. क्या ऐसा करना ज़रूरी है? हाँलाकि, फरमाइए, मैं ये क्या कह रही हूँ? और वे करते भी क्या? उसे रोकते? बिलकुल नहीं. अच्छा ही है कि ऐसे कठिन समय में वह नहीं है, और ज़रुरत भी नहीं है, बस, सिर्फ रोकना नहीं है. किसी भी हालत में नहीं. जाने दो. चूमने को तो उन्होंने चूम लिया, मगर दिल की गहराई में वे उससे नफ़रत करते हैं. ऐ-खुदा. बस, अपने आप से झूठ बोल रही हो, झूठ बोल रही हो, मगर जब सोचती हो, तो सब कुछ साफ़ है – नफ़रत करते हैं. निकोल्का तो अभी तक भला है, मगर बड़ा...हाँलाकि नहीं. अल्योशा भी भला है, मगर वह ज़्यादा नफ़रत करता है.

खुदा, ये मैं क्या सोच रही हूँ ? सिर्योझा, तुम्हारे बारे में मैं ये क्या सोच रही हूँ? और अगर अचानक संपर्क काट दें तो... वह वहीं रह जाएगा, मैं यहां...

“मेरा पति,” उसने गहरी सांस लेकर कहा, और हाउसकोट उतारने लगी. “मेरा पति...”

बोनेट दिलचस्पी से सुन रहा था, और उसके गाल गहरी लाल रोशनी में चमक रहे थे.

उसने पूछा;

“और किस तरह का इन्सान है तुम्हारा पति?

 

***

 

“बदमाश है वो. और कुछ नहीं!” एलेना के कमरे से प्रवेश कक्ष के उस पार तुर्बीन अकेले में अपने आपसे कह रहा था. एलेना के विचार उस तक पहुँच गए थे और उसे कई मिनटों तक सताते रहे. “बदमाश, और मैं, वाकई में चीथड़ा हूँ. अगर अब तक उसे भगा न दिया होता, तो कम से कम चुपचाप निकल जाता. जहन्नुम में जाओ. इसलिए नहीं कि कमीना है, जो ऐसी घड़ी में एलेना को छोड़कर भाग गया, ये, बेशक, छोटी सी, बकवास बात है, बल्कि किसी और ही कारण से. मगर क्यों? आह, शैतान, मैं उसे अच्छी तरह समझ गया हूँ. ओह, शैतानी गुड़िया, ज़रा सी भी आत्मसम्मान की भावना नहीं है! जो कुछ भी वह कहता है, बिना तार के बलालायका की तरह...और ये रूसी मिलिटरी अकादमी का अफसर है. इसे  रूस का सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है...

अपार्टमेंट खामोश हो गया. एलेना के शयन कक्ष से बाहर आ रहा रोशनी का पट्टा बुझ गया.        

वह सो गई, और उसके ख़याल बुझ गए, मगर तुर्बीन अपने छोटे से कमरे में, लिखने की मेज़ के पास बैठा बड़ी देर तक तड़पता रहा. वोद्का और जर्मन वाईन ने उस पर बुरा प्रभाव डाला था. वह सूजी आंखों से बैठा हुआ, जो भी किताब मिली, उसके पहले पन्ने को देख रहा था और पढ़ रहा था, बेमतलब एक ही बात पर बार-बार लौट रहा था:

‘रूसी आदमी के लिए सम्मान – सिर्फ एक अनावश्यक बोझ है...’

सिर्फ सुबह होते-होते उसने वस्त्र उतारे और सो गया, और सपने में उसके सामने आया नाटे कद का भयानक आदमी, बड़े-बड़े चौखानों वाली पतलून में और व्यंग्य से बोला:

“नंगे बदन से साही पर नहीं बैठते ना?...पवित्र रूस – काठ का देश है, गरीब और...खतरनाक, और रूसी आदमी के लिए सम्मान – सिर्फ एक अनावश्यक बोझ है.”

“आह, तू!” तुर्बीन सपने में चीखा, “के-केंचुए, मैं अभ्भी तुझे.” तुर्बीन सपने में मेज़ की दराज़ के पास ब्राउनिंग निकालने के लिए रेंग गया, नींद में ही ब्राउनिंग निकाली, नाटे पर गोली चलानी चाही, उसके पीछे भागा, और भयानक नाटा गायब हो गया.

दो घंटों तक धुंधली, काली, बिना किसी सपने की नींद चलती रही, और जब कांच जड़े बरामदे में खुलती कमरे की खिड़कियों के पीछे धुंधली और मुलायम रोशनी फ़ैलने लगी, तो तुर्बीन को शहर  का सपना आने लगा.

 

 

 

4

 

अनेक पर्तों वाले मधुमक्खी के छत्ते की भाँति शहर  धुआँ छोड़ रहा था, भिनभिना रहा था और अपनी ज़िंदगी जी रहा था. द्नेप्र के ऊपर पहाड़ों पर बर्फ और कोहरे में सुन्दर प्रतीत होता था. अनगिनत चिमनियों से पूरे-पूरे दिन धुएँ के वलय आसमान की ओर जाते रहते. रास्ते धुआँ छोड़ते रहते, और बर्फ के भारी भरकम ढेर पैरों के नीचे चरमराते रहते. पाँच, छः और सात मंजिलों वाली बिल्डिंग्स में अपार्टमेंट्स की भीड़ थी. दिन के समय उनकी खिड़कियाँ काली नज़र आतीं, और रात को गहरी-नीली ऊंचाई पर चमकतीं. जहाँ तक नज़र पहुंचे, ऊंचे-ऊंचे भूरे स्तंभों पर हुकों से लटकाए गए बिजली के बल्ब मूल्यवान पत्थरों की भांति चमकते. दिन में प्यारी-सी घरघराहट के साथ, विदेशी मॉडेल पर बनाई गईं पीली भूसा भरी गुदगुदी सीटों वाली ट्रामगाड़ियां दौड़तीं. पहाड़ियों पर गाड़ीवान चिल्लाते हुए जाते, और गहरे रंग की कॉलरें – चांदी जैसे और काले मखमल से बनीं – औरतों के चेहरों को रहस्यमय और खूबसूरत बनातीं.   

बगीचे खामोश और शांत थे, सफ़ेद, अनछुई बर्फ के बोझ से दबे हुए. और शहर में इतने ज़्यादा बगीचे थे, जितने दुनिया के किसी भी शहर में नहीं हैं. वे बड़े-बड़े धब्बों जैसे चारों और बिखरे हुए थे, तरुमंडित गलियारों, शाहबलूत के साथ, गड्ढों के साथ, मैपल और लिंडन वृक्षों के साथ.

द्नेप्र के ऊपर उभरती ख़ूबसूरत पहाड़ियों पर बाग़ शोभायमान हो रहे थे, और, सबसे शानदार था सदाबहार इम्पीरियल गार्डन, जो क्रमशः ऊपर उठता, और फैलता हुआ, कभी लाखों सूरज के धब्बों से चकाचौंध करता, कभी शाम के नाज़ुक धुंधलके में चमकता. मुंडेर की पुरानी सड़ी हुई, काली बल्लियाँ उस भयानक ऊंचाई पर सीधे चट्टानों के रास्ते को अवरुद्ध नहीं करती थीं.                     

 बर्फीले तूफानों की चपेट में आकर खड़ी दीवारें दूर की नीची छतों पर गिरतीं, और वे, आगे, और चौडाई में बिखर जातीं, किनारों के कुंजों में जातीं, मुख्य मार्ग पर जातीं, जो महान नदी के किनारे से बल खाता हुआ गुज़रता था, और काला, जंजीर जैसा पट्टा, दूर धुंध में समा जाता, जहाँ शहर की ऊंचाइयों से मनुष्य की नज़र तक नहीं पहुँच सकती, जहाँ भूरे उतारों पर है जापरोझ्ये ‘सिच, और खेर्सोनेस, और दूर का समुद्र.

सर्दियों में ऊपरी शहर के रास्तों पर और गलियों, पहाड़ों पर, और जमी हुई द्नेप्र के घुमाव पर फैले हुए निचले शहर में ऐसी खामोशी छा जाती, जैसी दुनिया के किसी और शहर  में नहीं होती, और मशीनों का सारा शोर-गुल पत्थर की इमारतों के भीतर चला जाता, धीमा पड़ जाता और काफी नीची आवाज़ में भुनभुनाता. शहर  की सारी ऊर्जा, जो धूप और तूफानी गर्मी में एकत्रित हुई थी, रोशनी के रूप में बहने लगती. दोपहर के चार बजे से घरों की खिड़कियों में, बिजली के गोल बल्बों में, गैस-बत्तियों में, घरों की लालटेनों में, जगमगाते मकान-नंबरों में और इलेक्ट्रिक स्टेशनों की विशाल खिड़कियों में, जो मानवता के भयानक, अस्पष्ट, इलेक्ट्रिक भविष्य का विचार मन में जगाती थीं, उनकी ठोस खिड़कियों में, निरंतर अपने बदहवास पहिये घुमाती, धरती की नींव को झकझोरती हुई मशीनें दिखाई दे रही थीं. पूरी रात शहर रोशनी से खेलता, झिलमिलाता, चमकता और नृत्य करता और सुबह बुझ जाता, धुआं और कोहरा ओढ़ लेता. 

मगर सबसे बढ़िया चमकता था व्लदीमिर  पहाडी पर विशालकाय व्लदीमिर  के हाथों का सफ़ेद सलीब, वह दूर तक दिखाई देता और अक्सर गर्मियों में, काले धुंधलके में, बूढ़ी नदी के उलझन भरे अप्रवाही जल और मोड़ों से, विलो वृक्षों के झुरमुट से, नौकाएं उसे देखती और उसकी रोशनी में पानी में शहर  को जाने वाला, उसके घाटों का रास्ता ढूँढतीं. सर्दियों में सलीब घने काले बादलों में चमकता और ठंडेपन और खामोशी से मॉस्को वाले अँधेरे, ढलवां किनारे पर राज करता, जहाँ से दो विशाल पुल जाते थे, एक भारी भरकम, जंजीरों वाला, निकलायेव्स्की पुल जो उस पार की बस्ती की ओर जाता था, दूसरा – ऊंचा, तीर जैसा, जिस पर वहाँ से आने वाली रेलगाड़ियाँ दौड़ती थीं, जहाँ बहुत-बहुत दूर, अपनी रंगबिरंगी, शोख टोपी फैलाए बैठा था रहस्यमय मॉस्को.     

 

***   

 

तो, सन् 1918 की सर्दियों में शहर, एक अजीब सी, कृत्रिम ज़िंदगी जी रहा था, जो, बहुत संभव है, बीसवीं शताब्दी में दुहराई नहीं जायेगी. पत्थरों की दीवारों के पीछे सभी अपार्टमेंट्स खचाखच भरे थे. उनके पुराने, मूल निवासी सिकुड़ गए और सिकुड़ते रहे, चाहे-अनचाहे नए आगंतुकों को, जो शहर में आये थे, रहने की इजाज़त देते रहे. और वे इसी तीर जैसे पुल से, वहाँ से आये थे, जहाँ रहस्यमय नीली धुंध थी.

सफ़ेद बालों वाले बैंकर्स अपनी पत्नियों के साथ भागे, होशियार व्यवसायी भागे, अपने विश्वासपात्र सहयोगियों को मॉस्को में छोड़कर, जिन्हें यह निर्देश दिया गया था की उस नई दुनिया से संबंध न तोड़ें, जो मॉस्को के साम्राज्य में जन्म ले रही थी, मकानों के मालिक, जिन्होंने अपने विश्वासपात्र हरकारों के भरोसे घर छोड़े थे, उद्योजक, व्यापारी, एडवोकेट्स, सामाजिक कार्यकर्ता भी भागे. पत्रकार भागे – मॉस्को के और पीटर्सबुर्ग के, भ्रष्ट, लालची, कायर. वेश्याएं. कुलीन परिवारों की ईमानदार महिलाएं. उनकी नाज़ुक बेटियाँ, लाल रंग के होठों वाली पीटर्सबर्ग की विवर्ण, बदचलन औरतें भागीं. डिपार्टमेंट्स के डाइरेक्टरों के सेक्रेटरी भागे, जवान, निष्क्रिय लौंडेबाज़ भागे. राजकुमार भागे, कंजूस भागे, कवि और सूदखोर, पुलिस वाले और शाही थियेटरों की अभिनेत्रियाँ भागीं. ये सारे लोग दरार से निकालकर शहर  की ओर जा रहे थे.   

गेटमन के चुनाव से लेकर बसंत का पूरा मौसम वह निरन्तर शरणार्थियों से भरता रहा. क्वार्टरों में लोग दीवानों और कुर्सियों पर सोते थे. अमीर क्वार्टरों में मेजों पर बैठकर बड़े-बड़े समूहों में खाते थे. अनगिनत फ़ूड-स्टाल्स खुल गए, जो देर रात तक व्यापार करते थे, जहाँ कई सारे कैफ़े खुल गए, जहाँ कॉफी दी जाती और जहाँ औरत भी खरीदी जा सकती थी, नए-नए मिनी-थियेटर्स, जिनके स्टेजों पर अनेक मशहूर एक्टर्स, जो दोनों राजधानियों से उड़कर आये थे, मुँह बनाते और लोगों को हंसाते, प्रसिद्ध थियेटर “दि पर्पल नीग्रो” खुल गया और विशाल, क्लब “प्राख” – (कवि – डाइरेक्टर्स – आर्टिस्ट्स – कलाकार) भी निकलायेव्स्काया स्ट्रीट पर खुल गया, जो श्वेत सुबह तक तश्तरियां खनखनाता. नए अखबार भी शुरू हो गए, और रूस के बेहतरीन कलमकार उनमें विविध प्रकार के लेख लिखते, और इन लेखों में बोल्शेविकों को बदनाम करते. गाडीवान पूरे-पूरे दिन एक रेस्तरां से दूसरे रेस्तरां में सवारियां ले जाते, और रातों को कैबरे में तंतुवाद्य बजाये जाते और तम्बाकू के धुएँ में सफ़ेद, थकी हुई, कोकीन पिलाई गईं वेश्याओं के चेहरे अद्भुत सुन्दरता से दमकते.  

शहर  फूल रहा था, फ़ैल रहा था, खमीर की तरह उफन रहा था. जुए के क्लबों में सुबह तक सरसराहट होती रहती, और उसमें खेलतीं पीटर्सबर्ग की हस्तियाँ और शहर  की हस्तियाँ, महत्वपूर्ण और गर्वीले जर्मन लेफ़्टिनेंट्स और मेजर्स. जिनसे रूसी डरते थे और जिनकी वे इज्ज़त करते थे. मॉस्को के क्लबों के बदमाश पत्तेबाज़ खेलते थे, और उक्रेनी-रूसी ज़मींदार भी, जिनकी ज़िन्दगी बाल से लटक रही थी. कैफे ‘मक्सिम में एक ख़ूबसूरत, भरा-भरा रोमानियन वॉयलिन पर सीटी बजा रहा था, और उसकी आंखें गज़ब की थीं, दुखी, बोझिल, श्वेतपटल नीलापन लिए था, और बाल – मखमली. लैम्प, जिन पर जिप्सी शालें डाली गईं थीं, दो रंग के प्रकाश फेंक रहे थे – नीचे सफ़ेद बिजली का, और ऊपर – नारंगी. भूरे नीले रेशम से बना सितारा छत पर अपनी आभा बिखेर रहा था, धुंधले कोनों में नीले दीवानों पर बड़े-बड़े हीरे दमक रहे थे और भूरे लाल साइबेरियन फ़र चमक रहे थे. भुनी हुई कॉफ़ी की, पसीने की, स्प्रिट की और फ्रेंच पर्फ्यूम की गंध फ़ैली थी. सन् अठारह की पूरी गर्मियां निकलायेव्स्काया पर रूई के अस्तर वाले कफ्तानों में फूले-फूले, लापरवाह ड्राइवर्स घूमते रहते, और पौ फटने तक शंकु के आकार में कारों की बत्तियाँ जलती रहतीं. दुकानों की खिड़कियों से जैसे फूलों के जंगल झाँक रहे थे, सुनहरी चर्बी के स्लैब्स की तरह नमकीन स्टर्जन मछलियाँ लटक रही थीं, दो मुँह वाले उकाब और सीलों से सजीं शानदार शैम्पेन “अब्राऊ” की बोतलें सुस्ती से चमक रही थीं.

और पूरी गर्मियां, और पूरी गर्मियां नये-नये लोग आते रहे. मुलायम-गोरे, चेहरों पर भूरी, कटी हुई मूंछों, और चमचमाते जूतों और धृष्ठ आँखों वाले ऑपेरा के एकल-गायक, राजकीय ड्यूमा के सदस्य नाक पकड़ चश्मे पहने, ब... खनखनाते कुलनामों वाली, बिलियार्ड के खिलाड़ी...लड़कियों को दुकानों में ले जाते लिपस्टिक और खतरनाक काट वाली महिलाओं की कैम्ब्रिक पतलून खरीदने. लड़कियों के लिए नेल-पॉलिश खरीदते.

वे एक ही मुक्ति-द्वार को पत्र भेजते, अस्पष्ट, अशांत पोलैंड के रास्ते ( वैसे, किसी भी शैतान को मालूम नहीं था, कि वहाँ क्या हो रहा है, और ये पोलैंड – कौन सा नया देश है), जर्मनी को, ईमानदार टयूटनों के महान देश को, वीज़ा के लिए प्रार्थना करते हुए, धनराशि भेजते हुए, ये महसूस करते हुए कि, हो सकता है, और भी आगे जाना पड़ जाए, वहाँ, जहाँ किसी भी हालत में बोल्शेविकों के लड़ाकू रेजिमेंट्स की गरज और खौफनाक लड़ाई उन तक नहीं पहुँच पायेगी. सपने देखते फ्रांस के, पैरिस के, इस ख़याल से दुखी होते कि वहाँ पहुँचना, बेहद मुश्किल, लगभग असंभव है. कभी-कभी अत्यंत भयावह और एकदम अस्पष्ट विचारों से इतना ज़्यादा दुखी होते, कि अचानक पराये दीवानों पर जागते हुए रातें काटते.

‘और अचानक? और यदि अचानक? अचानक ? ये फौलादी घेरा टूट जाए तो...और भूरे झुण्ड आ जाएँ, ओह, भयानक...’

ऐसे विचार उन हालात में आते, जब दूर, कहीं दूर से गोलों की हल्की मार सुनाई देती – शहर  के पास, न जाने क्यों, पूरी शानदार और तपती गर्मियों में गोलियां चलाते रहे, जब फौलादी जर्मन चारों ओर शान्ति बनाए हुए थे, और खुद शहर  में, सीमाओं पर निरंतर गोलियां चलाने की दबी-दबी आवाजें सुनाई देतीं : पा-पा-पाख.

कौन किस पर गोलियां चला रहा था – किसी को पता नहीं था. ये रातों को होता. और दिन में शांत हो जाते, देखते कि कैसे कभी-कभी प्रमुख पथ, क्रेश्चातिक पर, या व्लादीमिर्स्काया पर जर्मन हुसारों की रेजिमेंट गुज़रती थी. आह, और कैसी थी रेजिमेंट! गर्वीले चेहरों पर रोएँदार टोपियाँ, पत्थर जैसी ठोढ़ियों को बांधते परतदार बेल्ट, लाल नुकीली मूंछें तीर की तरह ऊपर को उठी हुईं. स्क्वैड्रन के घोड़े चार-चार की पंक्तियों में अनुशासनबद्ध तरीके से चल रहे थे. सत्रह बालिश्त ऊंचे लाल घोड़े, और छः सौ सवारों पर थे भूरे नीले जैकेट्स, जैसे बर्लिन के शक्तिशाली जर्मन लीडरों के स्मारकों के फौलादी कोट.  

उन्हें देखकर खुश होते, और राहत महसूस करते और विदेशी नुकीले तारों की बॉर्डर के पीछे से दूर के बोल्शेविकों को दाँत दिखारे हुए चिढ़ाते:

“तो, हिम्मत है, तो आ के दिखाओ!”

बोल्शेविकों से नफ़रत करते, मगर यह नफ़रत खुल्लम खुल्ला नहीं थी, जब नफ़रत करने वाला झगड़ा करना और मारना चाहता है, बल्कि ये डरपोक किस्म की नफ़रत थी, जो नुक्कड़ से, अँधेरे से फुफ़कारती थी. नफ़रत करते थे रात में, अस्पष्ट चिंता से सो जाते, दिन में रेस्टारेंट्स में, अखबार पढ़ते हुए, जिनमें लिखा होता था कि कैसे बोल्शेविक ऑफिसर्स की, बैंकर्स की गर्दन में पीछे से पिस्तौल से गोलियां मारते हैं और कैसे मॉस्को में दुकानदार घोड़े का सडा हुआ मांस बेचते हैं. सभी नफ़रत करते थे – व्यापारी, बैंकर्स, उद्योजक, एडवोकेट्स, एक्टर्स, मकान मालिक, अभिसारिकाएं, स्टेट काउन्सिल के सदास्य, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स और लेखक....

 

***      

 

 

ऑफिसर्स थे. वे भी भाग कर आये थे – भूतपूर्व फ्रंट-लाइन - उत्तर से और पश्चिम से, और वे सभी शहर जा रहे थे, उनकी संख्या बहुत ज़्यादा थी और बढ़ती ही जा रही थी. उनकी जान जोखिम में थी, क्योंकि उनके लिए, जिनमें अधिकांश निर्धन थे और उन पर अपने पेशे की अमिट छाप थी, झूठे डॉक्यूमेंट्स प्राप्त करके सीमा पार करना सबसे कठिन था. फिर भी किसी तरह पहुँच गए और शहर  में प्रकट हो गए, दयनीय अवतार में, बदहाल, बिना दाढी बनाए, बिना शोल्डर-स्ट्रैप्स के, और उसके अनुरूप बनने की कोशिश करने लगे, जिससे खाने और रहने की व्यवस्था हो सके. उनके बीच इस शहर के मूल निवासी भी थे, जैसे अलेक्सेई तूर्बिन, जो युद्ध से अपने घोंसले में वापस लौट रहे थे, इस ख़याल से कि – आराम करेंगे, और आराम करेंगे और फिर से जीवन शुरू करेंगे, फ़ौजी का नहीं, बल्कि साधारण मनुष्य का जीवन, और सैंकड़ों अनजान लोग थे, जिनके लिए न तो पीटर्सबुर्ग में, न ही मॉस्को में रहना संभव था. उनमें कुछ क्युरेस्सिएर (चर्म कवचधारी अश्वारोही – अनु. ), कैवेलरी गार्ड्स, हॉर्स गार्ड्स और हुस्सार्स थे, जो अशांत शहर के मटमैले फ़ेन में आसानी से तैर रहे थे. गेटमन का रक्षक दल शानदार शोल्डर स्ट्रैप्स लगाए घूमता था, और गेटमन की खाने की मेजों पर करीब दो सौ, बालों में तेल चुपड़े लोगों के बैठने की व्यवस्था थी, जो अपने सड़े हुए, पीले, सोना जडे दांत चमकाते. जिन्हें इस रक्षक दल में जगह नहीं मिलती, उन्हें ऊदबिलाव की कॉलर के महंगे ओवरकोट वाली महिलायें आधे अँधेरे, ओक वृक्ष की नक्काशी वाले बढ़िया अपार्टमेन्ट्स में – जो शहर  के बेहतरीन भाग – लीप्की में थे, रख लेतीं, या फिर वे रेस्टोरेंट्स अथवा होटल के कमरों में चले जाते

दूसरे, ख़त्म हो गईं या भंग कर दी गईं फौजों के स्टाफ-कैप्टेन्स, लड़ाकू सेना के हुस्सार, जैसे कर्नल नाय-तूर्स, सैंकड़ों ध्वजवाहक और सेकण्ड लेफ्टिनेंट्स, भूतपूर्व स्टूडेन्ट्स, जैसे स्तिपानव – करास, जो युद्ध और क्रान्ति के कारण जीवन की धुरी से छिटक गए थे, और लेफ्टिनेंट्स, वे भी भूतपूर्व स्टूडेंट्स थे, मगर विश्वविद्यालय के लिए हमेशा के लिए ख़त्म हो चुके थे, जैसे विक्तर विक्तरविच मिश्लायेव्स्की. वे भूरे, घिसे-पिटे ओवरकोट में, अभी तक ठीक न हुए ज़ख्मों के साथ, कन्धों पर उधेड़े हुए शोल्डरस्ट्रेप्स की परछाईं के साथ शहर आये थे, और या तो अपने परिवारों के साथ या अपरिचित परिवारों के साथ कुर्सियों पर सोते, ओवरकोटों से खुद को ढांक लेते, वोद्का पीते, भाग-दौड़ करते, कोशिश करते और कड़वाहट से खदबदाते. ये अंतिम लोग ही बोल्शेविकों से बेहद और खुल्लम खुल्ला नफ़रत करते थे, ऐसी नफ़रत, जो मारपीट तक पहुँच जाती थी. 

कैडेट-ऑफिसर्स भी थे. क्रान्ति के आरम्भ में शहर में चार कैडेट-स्कूल्स बचे थे – इंजीनियरिंग, आर्टिलरी, और दो इन्फैंट्री ऑफिसर्स के लिए. सैनिकों की गोलाबारी की गरज में वे ढह गए और ख़त्म हो गए, और हाल ही में स्कूल से निकले, अभी-अभी दाखिला पाए स्टूडेंट्स अपंग, ज़ख़्मी हालत में बाहर फेंक दिए गए, न तो वे बच्चे थे, न वयस्क, न फ़ौजी थे, न ही नागरिक, बल्कि वैसे, जैसे सत्रह साल का निकोल्का तुर्बीन....

 

***  

 

“ये सब, बेशक, बहुत प्यारा है, और सबके ऊपर शासन कर रहा है गेटमन. मगर, खुदा की कसम, मैं अब तक नहीं जानता, और शायद ज़िंदगी भर नहीं जान पाऊंगा, कि ये अभूतपूर्व शासक है कौन, जिसका नाम सत्रहवीं शताब्दी का है, बनिस्बत बीसवीं शताब्दी के.”

“हाँ, वह है कौन, अलेक्सेई वसील्येविच?

“घुड़सवार रक्षक, जनरल, खुद बहुत अमीर ज़मींदार है, और उसका नाम है पावेल पित्रोविच...

किस्मत का और इतिहास का अजीब मज़ाक देखिये कि उसका चुनाव, जो उल्लेखनीय वर्ष के अप्रैल में हुआ था, सर्कस में सम्पन्न हुआ. भावी इतिहासकारों को, शायद, यह काफी व्यंग्यात्मक सामग्री देगा. मगर नागरिकों के लिए, जो ख़ास तौर से, शहर में बसे हुए हैं, और गृहयुद्ध के आरंभिक विस्फोटों को झेल चुके हैं, व्यंग्य से कोई मतलब नहीं था, और आम तौर से इसमें विचार करने का कोई कारण भी नज़र नहीं आता था. चुनाव चौंकाने वाली शीघ्रता से हुआ – और खुदा की महरबानी.

गेटमन ने राज किया – और अच्छी तरह राज किया. काश, डबल रोटी होती, और सडकों पर गोलीबारी न होती, खुदा के लिए, बोल्शेविक न होते, और सामान्य जनता लूटपाट न करती. गेटमन के शासन में कमोबेश यह संभव हो गया था. कम से कम, भाग कर आए हुए मॉस्कोवासी और पीटर्सबुर्ग वाले और अधिकाँश नागरिक, हाँलाकि गेटमन के विचित्र देश पर हंसते थे, जिसे वे, कैप्टेन तालबेर्ग की तरह ‘कॉमिक ओपेरा’, अवास्तविक राज्य कहते थे, गेटमन की दिल से तारीफ़ करते... और... “खुदा करे, ये हमेशा चलता रहे.”

मगर क्या ये हमेशा चल सकता था, कोई भी नहीं कह सकता था, और खुद गेटमन भी नहीं. हाँ.

बात ये थी कि शहर  - शहर  था. उसमें पुलिस - सुरक्षा यंत्रणा थी, और मिनिस्ट्री थी, और फ़ौज भी थी, और अलग अलग नामों से अखबार निकलते थे, मगर चारों और क्या हो रहा है, उस असली उक्रेन में, जो क्षेत्रफल में फ्रांस से भी बड़ा है, जिसमें लाखों लोग रहते हैं, इस बारे में कोई कुछ नहीं जानता था. नहीं जानता था, कुछ भी नहीं जानता था, न केवल दूर दराज़ की जगहों के बारे में, बल्कि – कहने में हंसी आती है – गाँवों के बारे में भी, जो शहर से सिर्फ तीस मील की दूरी पर थे. नहीं जानते थे, मगर तहे दिल से नफ़रत करते थे. और जब रहस्यमय प्रदेशों से, जिन्हें - गाँव कहा जाता है, अस्पष्ट समाचार प्राप्त होते, इस बारे में कि जर्मन किसानों को लूट रहे हैं, और बेरहमी से उन्हें सज़ा दे रहे हैं, गोलियों से भून रहे हैं, तो न केवल उक्रेनी किसानों के पक्ष में आक्रोश का एक भी शब्द न निकलता, बल्कि कई बार, ड्राइंग रूम्स में, रेशमी लैम्प-शेड की रोशनी में, भेड़िये के समान दांत भींचते और बुदबुदाहट सुनाई देती:

“उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए! ऐसा ही होना चाहिए; यह तो कम है! मैं तो उनके साथ और भी कड़ाई से पेश आता. याद रखेंगे क्रान्ति को. जर्मन उन्हें सबक सिखायेंगे – अपनों को नहीं चाहते थे, गैरों को अपनाने चले हैं!”   

“ओह, कैसी बेतुकी हैं आपकी बातें, ओह, कितनी बचकानी.”

“क्या कह रहे हैं, अलेक्सेई वसील्येविच!...ये लोग इतने कमीने हैं. ये एकदम जंगली जानवर हैं. ठीक है. जर्मन्स उन्हें दिखाएँगे.

जर्मन्स !!

जर्मन्स !!

और हर तरफ :

जर्मन्स !!

जर्मन्स !!

ठीक है: यहाँ जर्मन्स हैं, और वहाँ, दूर के सुरक्षा घेरे के पीछे, जहाँ भूरे जंगल हैं, बोल्शेविक है. सिर्फ दो ही ताकतें हैं. 

 

 

5

 

तो, विशाल शतरंज की बिसात पर अप्रत्याशित – अबूझ रूप से तीसरी ताकत प्रकट हो गई. तो एक बुरा और बेवकूफ खिलाड़ी, खतरनाक पार्टनर से बचने के लिए प्यादों का सुरक्षा घेरा बनाता है (वैसे, प्यादे तसले पहने जर्मनों से काफी मिलते-जुलते हैं), अपने सारे ऑफिसर्स को खेल के राजा के चारों ओर इकट्ठा करता है, मगर विरोधी की कपटी रानी अचानक किनारे से रास्ता निकालकर, पृष्ठ भाग में पंहुच जाती है और पीछे से प्यादों और घोड़ों को मारना शुरू कर देती है और भयानक ‘शह देती है, और रानी के पीछे फुर्तीला हाथी ऑफिसर आता है, और छल से टेढ़े-मेढ़े रास्तों से घोड़े लपकते हैं, और, कमज़ोर और बेवकूफ खिलाड़ी मर जाता है – उसका काठ का राजा चेकमेट हो जाता है.  

यह सब बहुत जल्दी हो गया, मगर अचानक नहीं, और जो हुआ, उससे पहले कुछ संकेत प्राप्त हुए थे.

एक बार, मई के महीने में, जब फीरोज़े में जड़े हुए मोती की भाँति चमचमाता हुआ शहर जागा, और सूरज गेटमन के साम्राज्य को प्रकाशित करने के लिए निकला, जब नागरिक चींटियों की तरह अपने-अपने काम पर जा रहे थे, और उनींदे नौकरों ने दुकानों के खड़खड़ाते परदे खोलना शुरू कर दिया, शहर में एक खतरनाक और डरावनी गड़गड़ाहट होने लगी. वह इतनी ऊँची थी, जैसी पहले कभी नहीं सुनी थी – और ये न तो गोले की आवाज़ थी और न ही तूफ़ान की गड़गड़ाहट, - मगर इतनी शक्तिशाली थी, कि कई खिड़कियाँ अपने आप खुल गईं और सारे कांच झनझनाने लगे. इसके बाद दुबारा वही आवाज़ आई, पूरे ऊपरी शहर में फ़ैल गई, लहरों की भांति निचले शहर – पदोल में लुढ़कने लगी, और ख़ूबसूरत, नीली द्नेप्र से होकर दूरस्थ मॉस्को की ओर चली गई. शहरवासी जाग गए, और रास्तों पर भगदड़ मच गई. भगदड़ तुरंत ही फ़ैल गई, क्योंकि ऊपरी शहर – पिचेर्स्क से ज़ख़्मी, लहुलुहान लोग चीखते-चिल्लाते हुए भाग रहे थे. और आवाज़ तीसरी बार भी आई और ऐसी भयानक, कि पिचेर्स्क के घरों के कांच झनझनाते हुए गिरने लगे, और पैरों के नीचे ज़मीन हिलने लगी.

कई लोगों ने औरतों को देखा, जो सिर्फ एक कमीज़ में, भयानक आवाजों में चिल्लाते हुए भाग रही थीं. जल्दी ही पता चल गया कि आवाज़ कहाँ से आ रही थी. वह शहर से बाहर, द्नेप्र के ठीक ऊपर वाले ‘गंजे पहाड़ से आई थी, जहाँ गोला-बारूद के विशाल गोदाम थे, ‘गंजे पहाड़ पर विस्फोट हुआ था.

इसके बाद पाँच दिनों तक शहर इस खौफ़ में जीता रहा कि गंजे पहाड़ से ज़हरीली गैसें फैलेंगी. मगर विस्फोट रुक गए, ज़हरीली गैसें नहीं फैलीं, लहुलुहान लोग गायब हो गए, और शहर के सभी भागों में शान्ति छा गई, पिचेर्स्क के कुछ भागों को छोड़कर, जहाँ कई घर ढह गए थे. कहने की ज़रुरत नहीं कि शहर को विस्फोटों के कारणों का कुछ भी पता नहीं चला. कई तरह की बातें होती रहीं.

“विस्फोट फ्रांसीसी जासूसों के करवाए थे.”

“नहीं, विस्फोट बोल्शेविकों के जासूसों ने करवाए.”

यह सब इस तरह ख़त्म हुआ कि विस्फोटों के बारे में बिल्कुल भूल गए.

दूसरा संकेत गर्मियों में आया, जब शहर  भरपूर धूलभरी हरियाली से आच्छादित था, गरज और गड़गड़ाहट हो रही थी, और जर्मन लेफ्टिनेंट बेतहाशा सोडा गटक रहे थे. दूसरा संकेत वाक़ई में राक्षसी था!

भरी दोपहर में, निकलायेव्स्काया स्ट्रीट पर, ठीक वहीं, जहाँ टैक्सी-ड्राइवर्स खड़े रहते हैं, उक्रेन में जर्मन आर्मी के प्रमुख कमांडर – फील्डमार्शल एखगोर्न को मार डाला गया, जिसके आसपास कोई  फटक भी नहीं सकता था, जो गौरवान्वित और अपनी असीम शक्ति के कारण भयानक था, स्वयँ सम्राट विलियम का दाहिना हाथ था. उसे मारने वाला, ज़ाहिर है, मज़दूर था और, ज़ाहिर है, सोशलिस्ट था. अपने फील्ड मार्शल की मृत्यु के बाद जर्मनों ने चौबीस घंटे में न सिर्फ हत्यारे को, बल्कि उस गाडीवान को भी, जो उसे घटनास्थल तक लाया था, फांसी पर लटका दिया. ये सही है, कि इससे सुप्रसिद्ध जनरल पुनर्जीवित तो नहीं हुआ, मगर अकलमंद लोगों के मन में इस घटना से कई महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न हुए.

तो, शाम को खुली हुई खिड़की के पास अपनी टसर की कमीज के बटन खोलकर सुस्ताते हुए, लेमन टी की चुसकियाँ लेते हुए वसीलीसा ने अलेक्सेई वसील्येविच तुर्बीन से रहस्यमय ढंग से फुसफुसाते हुए कहा:

“इन सब घटनाओं की तुलना करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकता, कि हम अत्यंत अस्थिर परिस्थिति में रह रहे हैं. मुझे ऐसा लगता है कि जर्मनों के पैरों तले कुछ (वसिलीसा ने हवा में छोटी-छोटी उंगलियाँ हिलाईं) खिसक रहा है. खुद की सोचिये...एखगोर्न को...और कहाँ?? (वसिलीसा की आंखों में भय तैर गया.)

तुर्बीन उदासी से सुनता रहा, उदासी से उसने अपना गाल हिलाया और चला गया.

एक और शगुन अगली ही सुबह प्रगट हुआ और सीधे उसी वसिलीसा से टकराया. सुबह, सुबह, जब सूरज ने उदास, तहखाने वाले रास्ते पर, जो आँगन से वसिलीसा के क्वार्टर को जाता था, अपनी प्रसन्न किरण भेजी, तो बाहर देखते हुए, उसने किरण में छाया को देखा. अपने तीस वर्षों में वह अभूतपूर्व रूप से चमक रही थी, रानी एकातेरिना जैसी गर्दन में पड़े नेकलेस की चमक में, सुडौल, नंगे पैरों में, भरपूर, कसे हुए वक्षस्थल में. उसके दांत चमक रहे थे, और पलकों से गालों पर बैंगनी छाया पड़ रही थी.

आज पचास है,” छाया ने दूध के डिब्बे की ओर इशारा करते हुए जादुई आवाज़ में कहा.

“क्या कह रही हो, इव्दोखा?” वसिलीसा दयनीय आवाज़ में चहका, “खुदा से डरो. परसों – चालीस, कल – पैंतालीस, आज – पचास. ऐसा तो नामुमकिन है.”

“मैं क्या कर सकती हूँ? महँगा हो गया है,” जादुई आवाज़ ने जवाब दिया, “कहते हैं, कि बाज़ार में तो सौ हो गया है.”

उसके दांत फिर चमके. पल भर को वसिलीसा पचास के बारे में भूल गया और सौ के बारे में भी, हर चीज़ के बारे में भूल गया, और उसके पेट में एक मीठी और धृष्ठ ठंडक दौड़ गई. जैसे ही सूरज की किरण में यह सुन्दर छाया उसके सामने प्रगट होती, हर बार वसिलीसा के पेट में मिठास भरी ठण्डक दौड़ जाती थी. (वसिलीसा अपनी पत्नी से पहले उठ जाता था.) वह हर चीज़ के बारे में भूल गया, न जाने क्यों उसकी कल्पना में जंगल का मैदान घूम गया, चीड़ के पेड़ों की खुशबू महसूस होने लगी. एख, एख...

“देखो, इव्दोखा”, वसिलीसा ने अपने होंठ चाटते हुए और तिरछी आंखों से देखते हुए (कहीं बीबी तो बाहर नहीं आई है) कहा, “इस क्रान्ति से आप लोग बहुत बहक गए हो. देखो, जर्मन तुमको अच्छा सबक सिखायेंगे.” उसके कंधे को थपथपाये या न थपथपाये – वसिलीसा ने मायूसी से सोचा और वह कोई फैसला न कर पाया.

खडिया जैसे दूध की चौड़ी धार ‘जग में गिरी और झाग ऊपर आ गया.

“वो हमें क्या सिखायेंगे, और हम उनसे क्या सीखेंगे,” अचानक छाया ने जवाब दिया, वह चमकी, चमकी, दूध का बर्तन खड़खड़ाया, अपनी कांवड़ के साथ झूलते हुए, तहखाने से धूप भरे आँगन में ऊपर जाने लगी, मानो किरण में किरण समा रही हो. ‘टा-टागें तो – आ-आह!!’ वसिलीसा के दिमाग में टीस उठी.

इसी समय बीबी की आवाज़ आईं और, मुड़ते ही वसिलीसा उससे टकरा गया.

“ये तुम किससे?” जल्दी से नज़र ऊपर उठाकर बीबी ने पूछा.

“इव्दोखा से,” वसिलीसा ने उदासीनता से जवाब दिया, “ज़रा सोचो, आज दूध पचास का हो गया.”

“क-क्या?” वान्दा मिखाइलव्ना चहकी. “ये तो बेहूदगी है! कैसी बेशर्मी! किसान पूरी तरह से पगला गए हैं...इव्दोखा! इव्दोखा!” खिड़की से बाहर झुकते हुए वह चीखी, - “इव्दोखा!”

मगर परछाईं गायब हो गई और वापस नहीं लौटी.

वसिलीसा ने बीबी के टेढ़े जिस्म को, पीले बालों को, हडीली कुहनियों और सूखी हुई टांगों को गौर से देखा, और दुनिया में रहने के ख़याल से उसका जी इस कदर मिचलाया, कि उसने वान्दा के स्कर्ट पर करीब-करीब थूक ही दिया. अपने आप को संयत करके उसने गहरी सांस ली और आधे-अँधेरे, ठन्डे कमरे में चला गया, खुद भी न समझ पाते हुए कि उसे कौन सी चीज़ परेशान कर रही है. या तो वान्दा – उसने अचानक बीबी की कल्पना की, और उसकी बाहर को निकली हुईं हँसुली की हड्डियों की, जैसे जुडी हुई डंडियाँ हों – या कोई अजीब सी बात जो मोहक परछाई के शब्दों में थी.

“हम उन्हें सिखायेंगे?? ये आपको कैसा लग रहा है?” वसिलीसा अपने आप से बडबडाया. _ “ओह, ये बाज़ार की औरतें भी! नहीं , आप इस बारे में क्या कहेंगे? अगर वे जर्मनों से डरना बंद कर देंगे...तो, काम ही तमाम. सिखायेंगे. आ? मगर, उसके दांत तो – शानदार...”    

अचानक उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि अँधेरे में इव्दोखा उसके सामने पहाड़ की चुड़ैल के समान पूरी तरह निर्वस्त्र खडी है.

‘कैसी धृष्ठता...सिखायेंगे? और सीना...’

और ये सब इतना हैरान करने वाला था कि वसिलीसा की तबियत बिगड़ने लगी, और वह ठन्डे पानी से नहाने के लिए चला गया.

तो, हमेशा की तरह, चुपचाप, शरद ऋतू आ गई.  भरपूर सुनहरे अगस्त के पीछे-पीछे आया उजला और धूल भरा सितम्बर, और सितम्बर में संकेत नहीं, बल्कि खुद घटना ही हुई, और पहली नज़र में वह पूरी तरह महत्वहीन थी.

सितम्बर की उजली शाम को, कहीं और नहीं, बल्कि शहर की जेल में गेटमन के संबंधित शासकीय अधिकारी का हस्ताक्षर किया हुआ कागज़ आया, जिसमें यह आदेश दिया गया था कि कोठरी नं.          666 से कैदी को रिहा कर दिया जाए. बस, इतना ही.

बस, इतना ही! और इसी कागज़ की वजह से, - बेशक, उसी की वजह से! – इतनी मुसीबतें आईं और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं, कैसे-कैसे अभियान, नरसंहार, अग्निकांड और विनाश, निराशा और भय...आय, आय, आय! 

कैदी, जिसे छोड़ा गया था, अत्यंत सीधे-सादे और मामूली नाम वाला था – सिम्योन वसील्येविच पित्ल्यूरा. वह अपने आप को, और दिसंबर 1918 से फरवरी 1919 के कालखण्ड के अखबार कुछ फ्रांसीसी तर्ज पर उसे – सिमोन कहते थे. सिमोन का भूतकाल अत्यंत घने अँधेरे में डूबा था.  

कहते थे, कि जैसे वह अकाऊंटेंट था.

“नहीं, रोकडिया.”

“नहीं, स्टूडेंट.”

क्रेश्चातिक और निकलायेव्स्काया स्ट्रीट के नुक्कड़ पर तम्बाकू के उत्पादों की एक बड़ी और शानदार दुकान थी. लम्बे बोर्ड पर कॉफी वाले तुर्क की बहुत बढ़िया तस्वीर थी, जो फुंदेदार टोपी पहने हुक्का पी रहा था. तुर्क के पैरों में मुड़ी हुई नोक वाले नरम पीले जूते थे.

तो, ऐसे भी लोग निकल आये, जो क़सम खाकर कह रहे थे, कि उन्होंने अभी हाल ही में सिमोन को इसी दुकान में, बड़ी शान से काउंटर के पीछे खड़े होकर सोलोमन कोहेन की फैक्ट्री के तम्बाखू उत्पाद बेचते हुए देखा था. मगर वहीं कुछ और भी लोग निकल आये, जो कहते थे:

“ऐसी कोई बात नहीं है. वह नगरों के संघ का प्रतिनिधि था.”

“नगरों के संघ का नहीं, बल्कि ज़ेम्स्त्वा-संघ का – पक्का ज़ेमगुसार.”

चौथे (शरणार्थी), आंखें बंद करके, जिससे अच्छी तरह याद कर सकें, बुदबुदाते:

“माफ़ कीजिये...माफ़ कीजिये...”

और कहते, जैसे उन्होंने दस साल पहले...माफ़ कीजिये...ग्यारह साल पहले, उसे मॉस्को में मालाया ब्रोन्नाया स्ट्रीट पर एक शाम को जाते हुए देखा था, उसकी बगल में काले छींट में लिपटी हुई गिटार थी. और ये भी जोड़ते, कि वह अपने देशवासियों के पास किसी पार्टी में जा रहा था, इसीलिये गिटार छींट में लिपटी थी. जैसे वह बहुत बढ़िया पार्टी में जा रहा था, जहाँ मुस्कुराती हुई, गुलाबी गालों वाली उसके देश की लड़कियां – स्टूडेंट्स – थीं, प्लम-ब्रांडी के साथ, जो सीधे उपजाऊ उक्रेन से लाई गई थी, जहाँ गीत-संगीत था, लाजवाब ग्रीशा के साथ...   

ओय ...तू – ना...जा...

 

फिर उसके रूप-रंग का वर्णन करने में, तारीखों के बारे में, जगह के बारे में गड़बड़ा जाते...

“आप कह रहे हैं, सफाचट दाढी?

“नहीं, लगता है...माफ़ कीजिये...दाढी थी.”

“माफ़ कीजिये , क्या वह मॉस्कोवासी है?

“अरे नहीं, वहाँ स्टूडेंट था...वह...”

“ऐसा कुछ भी नहीं है. इवान इवानविच उसे जानता है. वह तराश्चा में लोकप्रिय शिक्षक था...”

छि: तुम भी...और हो सकता है, वह ब्रोन्नाया पर नहीं भी जा रहा था. मॉस्को बड़ा शहर है, ब्रोन्नाया पर कोहरा, पाला, परछाईयाँ...कोई गिटार...तुर्क धूप में... हुक्का...गिटार – ज़िन्-ट्रिन्...धुंधला, कोहरा, आह, कितना कोहरा है, और कितना भयानक है चारों ओर.

....मार्च कर रहे हैं और गा रहे हैं...

जा रही हैं, गुज़र रही हैं पास से खून से लथपथ परछाईयाँ, भाग रहे हैं दृश्य, लड़कियों की बिखरी हुई चोटियाँ, जेल, गोलीबारी, और तुषार, और आधी रात का चमकता हुआ व्लदीमिर  का सलीब.

मार्च करते, गा रहे हैं

गार्ड्स स्कूल के कैडेट्स ...

झनझनाती हैं तश्तरियां

बजती हैं तुरहियाँ और नगाड़े.

तोर्बानों (एक उक्रेनी वाद्य – अनु.) को कुचलते हैं, गोलियां कोयल जैसी चीखती हैं, लोगों को लोहे की छड़ों से मरते दम तक मारते हैं, काली पोशाक वाला घुड़सवार दस्ता गर्म घोड़ों पर जा रहा है, जा रहा है.

भविष्यसूचक स्वप्न गडगड़ाता है, लुढ़कता हुआ अलेक्सेई तुर्बीन के पलंग के पास आता है. तुर्बीन सो रहा है, गर्माहट में डूबी बालों की लट के साथ, और गुलाबी लैम्प जल रहा है. पूरा घर सो रहा है. किताबों वाले कमरे से करास के खर्राटे, निकोल्का के कमरे से शिर्वीन्स्की की सीटी...धुंध...रात...अलेक्सेई के पलंग के पास फर्श पर आधा पढ़ा गया दस्तयेव्स्की पडा है, और “शैतान” निराश शब्दों से चिढ़ा रहे हैं... एलेना शान्ति से सो रही है.

तो, मैं आपसे कहूंगा: नहीं था. नहीं था! यह सिमोन दुनिया में बिल्कुल नहीं था. ना तो तुर्क, ना ही ब्रोन्नाया पर स्ट्रीट लैम्प के नीचे गिटार, न ही कोई ज़ेम्स्त्वा-संघ...कुछ भी नहीं. बस, एक कपोल=कल्पना है, जिसने भयानक सन् अठारह के कोहरे में उक्रेन में जन्म लिया.  

... और दूसरी ही बात थी – भयानक घृणा. चार लाख जर्मन्स थे, और उनके चारों और थे किसान - चार लाख के चौगुने के चालीस गुना, जिनके दिल अथाह कड़वाहट से धधक रहे थे. ओह, इन दिलों में कितना कुछ भरा था. चेहरों पर लेफ्टिनेंट  के चाबुकों के वार, अड़ियल गाँवों पर छर्रों द्वारा तेज़ी से की गई गोलीबारी, गेटमन के कज़ाकों द्वारा छड़ों से छीली गई पीठें, और कागज़ के टुकड़ों पर जर्मन सेना के मेजर्स और लेफ्टिनेंट्स द्वारा लिखी गईं रसीदें:

“रूसी सुअर को उससे खरीदे गए सुअर के बदले में पच्चीस मार्क्स दिए जाएँ.”

और शहर के जर्मन स्टाफ हेडक्वार्टर में ऐसी रसीद लाने वालों पर तिरस्कारपूर्ण ठहाके.

और बलपूर्वक छीन लिए गए घोड़े, छीन ली गई ब्रेड, और मोटे चेहरों वाले ज़मींदार, जो गेटमन के शासन में अपनी-अपनी जागीरों को लौट रहे थे, - “ऑफिसर” शब्द सुनते ही होने वाली कंपकंपी.

ये सब था, जनाब.

और ज़मीन संबंधी सुधारों के बारे में अफवाहें थीं, जो गेटमन महाशय लागू करने वाले थे.

हाय,हाय ! सिर्फ सन् अठारह के नवम्बर में, जब शहर के ऊपर तोपें गरज रही थीं, बुद्धिमान लोगों ने, जिनमें वसिलीसा भी था, अंदाज़ लगाया कि किसान इस गेटमन महाशय से नफ़रत करते हैं, जैसे वह पागल कुत्ता हो – और किसानों की राय है, कि इस महाशय के हरामी सुधारों की कोई ज़रुरत नहीं है, बल्कि किसानों के पसंदीदा, सच्चे सुधारों की ज़रुरत है:

-    सारी ज़मीन किसानों को.

-    हरेक को सौ-सौ एकड़.

-    ज़मींदारों का नामो-निशान न रहे.  

-    और इस सौ-सौ एकड़ भूमि के लिए विश्वसनीय मुहर लगा हुआ दस्तावेज़ दिया जाए – जो यह प्रमाणित करे कि यह ज़मीन हमेशा के लिए दी गई है, वंशानुगत, दादा से पिता को, पिता से बेटे को, पोते को इत्यादि...

-    शहर का कोई भी ‘महाशय’ ब्रेड की मांग करने न आये. ब्रेड किसान की है, उसे किसी को नहीं दिया जाएगा, और जो हम खुद नहीं खायेंगे, उसे ज़मीन में गाड़ देंगे.

-    शहर से केरोसिन मंगवाया जाए.

तो, ऐसे सुधार तो कोई भी सम्मानित गेटमन नहीं कर सकता. और कोई शैतान भी नहीं कर सकता.

कुछ निराशाजनक अफवाहें थीं, कि गेटमन और जर्मन रूपी दुर्भाग्य से सिर्फ बोल्शेविक ही निपट सकते हैं, मगर बोल्शेविकों का भी अपना ही दुर्भाग्य है:

-    यहूदी और कमिसार.

-    तो, उक्रेनी किसान मुसीबत में हैं! कहीं से भी राहत नहीं!!

दसियों हज़ारों लोग थे, जो युद्ध से लौटे थे और जिन्हें बन्दूक चलाना आता था....

-    और अपने वरिष्ठ अधिकारियों के कहने पर अफसरों ने खुद ही गोली चलाना सीखा था!

-    सैंकड़ों हज़ारों राईफलें धरती में गाड़ी हुई थीं, झुरमुटों और खलिहानों में छुपाई गई थीं, और जिन्हें वापस नहीं दिया गया था, जर्मनों के शीघ्र-कोर्ट-मार्शल के बावजूद, छड़ों की मार के बावजूद, छर्रों की बारिश के बावजूद, लाखों गोलियां उसी धरती में गाड़ी गई थीं, और हर पांचवें गाँव में तीन इंची बंदूकें, हर दूसरे गाँव में मशीनगन्स, हर छोटे शहर में गोलियों के ढेर, फ़ौजी ग्रेट कोट और टोपियों से भरे गुप्त गोदाम.   

और इन्हीं छोटे शहरों में थे शिक्षक, कम्पाउंडर्स, एक ही बिल्डिंग में रहने वाले, उक्रेन की पादरियों की संस्था के विद्यार्थी, जो किस्मत से छोटे अफसर बन गए थे, मधुमक्खियाँ पालने वालों के तंदुरुस्त लडके, उक्रेनी नामों वाले स्टाफ-कैप्टेन...सभी उक्रेनी भाषा में बोलते हैं, सभी जादुई उक्रेन से प्यार करते हैं, काल्पनिक उक्रेन की, जिसमें ज़मींदार नहीं हैं,        मॉस्को के फौजी अफसर नहीं हैं, - और हजारों भूतपूर्व उक्रेनी कैदी हैं, जो गैलिशिया से लौटे थे.

ऊपर से दसियों हज़ारों किसान भी?...ओ-हो-हो!

ये सब था. मगर कैदी...गिटार...

 

अफवाहें भयानक, खतरनाक....

टकराती हैं हमसे...

 

ज़िन...ट्रीन...एख, एख, निकोल्का.

तुर्क, ज़ेमहुसार, सिमोन. वह नहीं था, नहीं था. बस, बकवास, कपोल कथा, भ्रम.

और बेकार ही, बेकार ही होशियार वसिलीसा, सिर पकडे चहका था: ‘खुदा जिसे मारना चाहता है, पहले उसकी अक्ल छीन लेता है.’ – और उसने गालियाँ दीं गेटमन को, इसलिए कि उसने पित्ल्यूरा को शहर की गंदी जेल से रिहा कर दिया.

“बकवास.., बकवास है ये सब. वो नहीं – दूसरा. दूसरा नहीं – तीसरा.

तो, सारे संकेत समाप्त हो गए और घटनाएं आ धमकीं...दूसरी कोई खोखली नहीं थी, किसी पौराणिक व्यक्ति की जेल से रिहाई की खबर जैसी, - ओह नहीं! – वह इतनी महान थी कि उसके बारे में पूरी मानव जाति, शायद, और सौ साल तक कहती रहेगी...सुदूर पश्चिमी यूरोप में लाल पतलूनों वाले गैलिक (यहाँ गैलिक से तात्पर्य है – फ्रांसीसी – अनु.) मुर्गों ने मोटे, फौलादी जर्मनों को चोंच मार-मारकर अधमरा कर दिया. ये बड़ा भयानक दृश्य था: नुकीली फ्रीजियन टोपियों वाले मुर्गे, बुरी तरह चीखते हुए बख्तरबंद ट्यूटनों पर झपटे और उनके कवच के साथ मांस के टुकड़े भी तोड़ने लगे. जर्मन बदहवासी से लड़ रहे थे, परों से ढंके सीनों में चौड़ी संगीने घुसाते रहे, दांतों से उन्हें कुतरते रहे, मगर टिक न सके, - और जर्मन! जर्मन! उन्होंने दया की भीख मांगी.

अगली घटना का इस घटना से गहरा संबंध था और वह इसी से निकली थी, जैसे कारण से परिणाम निकलता है. पूरी दुनिया स्तब्ध और चकित रह गई यह जानकर, कि वह आदमी, जिसका नाम और जिसकी छह इंची कीलों जैसी कॉर्कस्क्रू मूंछें पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थीं, और जो, शायद, इतना धातुई था, जिसमें लकड़ी का एक भी कण नहीं था, उसे हरा दिया गया था. वह धूल में मिल गया था – वह सम्राट नहीं रह गया था. उसके बाद शहर में सभी के मन में खतरनाक भय की लहर दौड़ गई: उन्होंने देखा, खुद अपनी आंखों से देखा कि कैसे जर्मन लेफ्टिनेंट बदरंग हो गए और कैसे उनके भूरे-आसमानी यूनिफ़ॉर्म का रंग संदिग्ध चीथड़ों के रूप से बदल गया. और यह फ़ौरन हुआ, देखते-देखते, कुछ ही घंटों में, कुछ ही घंटों में आंखें निस्तेज हो गईं, और लेफ्टिनेंटों के एक कांच वाले चश्मे की खिड़कियों में रोशनी बुझने लगी, और शीशे की चौड़ी प्लेट से बदहवास गरीबी झांकने लगी.            

तब उनमें से कुछ के दिमाग़ों में करंट दौड़ गया, जो मज़बूत पीले सूटकेसों और अमीर औरतों के साथ कंटीले बोल्शेविक कैम्प को फांद कर शहर में घुसे थे. वे समझ गए कि उनका भाग्य पराजितों के साथ जुडा है, और उनके दिल खौफ़ से भर गए.

“जर्मन हार गए हैं,” कमीनों ने कहा.

“हम हार गए हैं,” अक्लमंद कमीनों ने कहा.

शहरवासी भी ठीक यही समझे.

ओह, सिर्फ वही, जो खुद हार गया हो, जानता है कि ये शब्द कैसा लगता है! वो उस घर में शाम के समान है, जिसमें बिजली खराब हो गई हो. वो उस कमरे के समान है, जिसमें वॉलपेपर पर हरी फफूंद है, जो विषाणुओं से संक्रमित हो. वह अत्यंत क्षीण, बीमार बच्चों के समान है, सड़े हुए वनस्पति तेल जैसा है, अँधेरे में औरतों की आवाज़ों में सुनाई दे रही माँ-बहन की गालियों के समान है. मतलब, वह मौत के समान है.

बेशक, जर्मन उक्रेन से चले जायेंगे. मतलब, मतलब – कुछ लोगों को भागना होगा, और कुछ को नए, आश्चर्यजनक, शहर में बिनबुलाए मेहमानों से मिलना पडेगा. और, इसलिए, कुछ लोगों को मरना पडेगा, वे, जो भाग जायेंगे, नहीं मरेंगे, तो फिर मरेगा कौन?

“मलना – मलने का खेल नई कलना,” अचानक तुतलाते हुए, न जाने कहाँ से सोये हुए अलेक्सेई तुर्बीन के सामने प्रकट हुए कर्नल नाय-तूर्स ने कहा.

वह विचित्र ढंग की पोशाक में था: सिर पर चमकता हुआ शिरस्त्राण था, और शरीर पर छल्लों की ड्रेस, और वह एक तलवार पर झुका हुआ था, इतनी लम्बी, जैसी ईसाईयों के धर्मयुद्ध के समय के बाद से किसी भी फ़ौज में नहीं है. नाय के पीछे स्वर्गीय आभा बादल की तरह तैर रही थी.

“क्या आप स्वर्ग में हैं, कर्नल?” एक मीठी सिहरन महसूस करते हुए, जिसे इंसान वास्तविकता में कभी महसूस नहीं करता, तुर्बीन ने पूछा.

“स्वल्ग में,” नाय-तूर्स ने, शहर के जंगलों में बहते झरने की तरह साफ़ और पूरी तरह पारदर्शी आवाज़ में जवाब दिया.

“कितना अजीब है, कितना अजीब है,” तुर्बीन कहने लगा, “मैं सोचता था, कि स्वर्ग...बस, मानव की कल्पना है. और कैसी अजीब पोशाक है. आप, पूछने की इजाज़त दें, कर्नल, क्या स्वर्ग में भी ऑफिसर ही हैं?

“वे अब क्रूसेडर ब्रिगेड में हैं, डॉक्टर महाशय,” सार्जेंट मेजर झीलिन ने जवाब दिया, जो ज़ाहिर है सन् 1916 में बेलग्राद हुस्सारों के साथ विल्ना की दिशा में आग के कारण ख़त्म हो गया था.  

सार्जेंट मेजर का कद किसी महान शूरवीर सामंत की तरह ऊंचा होने लगा, और उसके कवच से प्रकाश निकलने लगा. उसके भद्दे नाक नक्श, जिनसे अपने हाथों से झीलिन के खतरनाक घाव की मलहम पट्टी करने के कारण तुर्बीन अच्छी तरह परिचित था, अब पहचान में नहीं आ रहे थे, और सार्जेंट मेजर की आंखें भी पूरी तरह से नाय-तूर्स की आंखों जैसी दिखाई दे रही थीं – बिलकुल साफ़, अथाह, भीतर से प्रकाशित. 

दुनिया में सबसे ज़्यादा उदास मन वाले तुर्बीन को औरतों की आँखें पसंद थीं. आह, खुदा ने एक खिलौना बनाया – औरतों की आंखें!...मगर सार्जेंट मेजर की आंखों से उनका क्या मुकाबला!

“आप कैसे हैं?” उत्सुकता और असीम प्रसन्नता से डॉक्टर तुर्बीन ने पूछा, - ऐसा कैसे, कि आप स्वर्ग में भी जूते पहने हैं, एड भी है? आपके पास क्या घोड़े, गाड़ियों का काफिला, भाले हैं?

“मेरी बात का यकीन करें, डॉक्टर महाशय,” नीली आभा से, जिससे दिल को गर्माहट मिल रही थी, सीधे उसकी आंखों में देखते हुए सार्जेंट मेजर की वायलिन की झंकार जैसी गहरी आवाज़ गूँजी, “बिल्कुल पूरे स्क्वैड्रन के साथ, घुड़सवार दस्ते में, और चल पड़े. लयबद्ध तरीके से. मगर, ये सच है, कि वहाँ अटपटा लग रहा था...वहाँ, आप खुद ही जानते हैं, सफाई, चर्च के फर्श.”

“तो?” तुर्बीन चौंका.

शायद, ईश्वरदूत पीटर वहाँ है. सिविलियन बूढा, मगर महत्वपूर्ण, मिलनसार. मैं, बेशक, बता रहा था : ऐसा-ऐसा, बेलग्राद के हुस्सारों की दूसरी स्क्वैड्रन सही-सलामत स्वर्ग पहुँच गई है, कहाँ रखने का हुक्म देते हैं?

बताने को तो मैं बता रहा था, मगर खुद,” - सार्जेंट मेजर मुँह पर हाथ रखकर धीरे से खांसा, - “सोच रहा था, ईश्वर दूत पीटर क्या कहेंगे, जहन्नुम में जाओ आप लोग...क्योंकि, आप खुद ही समझ सकते हैं, कि कहाँ जायेंगें घोड़ों के साथ, और...(सार्जेंट मेजर ने परेशानी से सिर खुजाया) औरतें, चुपचाप बता रहा हूँ, कुछेक रास्ते में मिल गईं थीं. मैं ईश्वरदूत से ये कह रहा था, और अपनी प्लेटून से आंख मार कर कहा, थोड़ी देर के लिए औरतों को पीछे भेज दो, और वहाँ देखेंगे. फिलहाल, परिस्थिति स्पष्ट होने तक, उन्हें बादलों के पीछे बैठने दो. मगर ईश्वर दूत पीटर, हाँलाकि आदमी आज़ाद है, मगर, सकारात्मक है. उसने फ़ौरन आंखें घुमाईं, और मैंने देखा कि उसने काफिले में औरतों को देख लिया है. ज़ाहिर है, उनके सिरों के रूमाल चटकीले थे, मील भर की दूरी से दिखाई दे रहे थे.

बन गया मुरब्बा, सोच रहा था. पूरे स्क्वैड्रन के लिए....”

‘एह,” वह बोला, “आप क्या, औरतों के साथ हैं?” और सिर हिलाने लगा.  ,

“सही है,” मैं बोला, मगर, मैंने आगे कहा, “आप परेशान न हों, हम अभी गर्दन पकड़ कर उन्हें निकाल देंगे, महाशय ईश्वर दूत.”

ओह, नहीं,” बोला, “आप यहाँ हाथों का ज़ोर न आजमाएँ!”

? तो फिर करें क्या? भला बूढा था. वैसे, आप खुद ही समझते हैं, डॉक्टर महाशय, स्क्वैड्रन का बिना औरतों के अभियान पर जाना – असंभव है.”

और सार्जेंट मेजर ने शरारत से आंख मारी.

“ये सही है,” आंखें झुकाते हुए अलेक्सेई वसील्येविच को सहमत होना ही पडा. किसी की काली-काली आंखें और निस्तेज, दायें गाल पर तिल, उनींदे अँधेरे में अस्पष्टता से कौंध गईं. वह शर्मिन्दगी से गुर्राया, और सार्जेंट मेजर कहता रहा:

“तो, अब वो ही बोला -  ‘सूचित करेंगे’. चला गया, वापस आया, और बोला: “ठीक है. इंतज़ाम कर देंगे. और हम इतने खुश हो गए, कि वर्णन करना असंभव है. सिर्फ एक छोटी मुश्किल हुई.

ईश्वर दूत ने कहा, कि इंतज़ार करना पडेगा. मगर हमने एक मिनट से ज़्यादा इंतज़ार नहीं किया. देखता क्या हूँ, कि आ रहा है,” सार्जेंट मेजर ने खामोश और स्वाभिमानी नाय-तूर्स की ओर इशारा किया जो बिना कोई निशान छोड़े सपने से किसी अज्ञात अँधेरे में चला गया था, “देखता हूँ कि स्क्वैड्रन लीडर महाशय अपने घोड़े ‘तूशिनो के चोर’ पर तेज़ी से आ रहे हैं. और उनके पीछे कुछ देर बाद पैदल टुकड़ी का एक अजनबी कैडेट,”- अब सार्जेंट मेजर ने तुर्बीन को तिरछी नज़र से देखा और पल भर के लिए नज़र झुका ली, जैसे डॉक्टर से कुछ छुपाना चाहता है, मगर कोई दुखभरी बात नहीं, बल्कि, इसके विपरीत कोई खुशनुमा, शानदार भेद, फिर उसने अपने आप को सम्भाला और आगे बोला : पीटर ने हथेली के नीचे से उनकी ओर देखा और कहा: “तो, अब सब ठीक हो गया!” – और दरवाज़ा पूरा खोल दिया और कहा, दाईं और तीन-तीन की कतार में.”   

 

ऐ-एह, दून्का दून्का दून्का, मैं!

दून्का, मेरे बेर, -

 

अचानक, मानो सपने में, खनखनाती आवाजों का कोरस शोर करने लगा और इटालियन हार्मोनियम बजने लगा.

“पैरों के नीचे!” अलग-अलग आवाजों में प्लेटून चीखे.

ऐ-एह, दून्या, दून्या, दून्या, मैं!

प्यार करो, दून्या, मुझसे,-

 

और दूर कहीं कोरस मानो जम गया.”  

“औरतों के साथ? वैसे ही भीतर घुस गए?” तुर्बीन ने आह भरी.

सार्जेंट मेजर उत्तेजना से हँस पडा और उसने खुशी से हाथ हिलाए.

“माय गॉड, डॉक्टर महाशय. जगह का तो, जगह का - तो वहाँ अंत ही नहीं था. सफाई...पहली नज़र में देखने से लगता था, कि वहाँ पाँच और फ़ौजी ‘कोर समा सकते हैं और वो भी रिज़र्व स्क्वैड्रन के साथ, पाँच क्या – दस भी! हमारे निकट चर्च की इमारतें थीं, इतनी ऊंची, मेरे बाप, कि उनकी छतें ही नज़र नहीं आ रही थीं! मैंने कहा भी : “इजाज़त दीजिये, मैंने कहा, ये इतना सारा किसके लिए है?” क्योंकि बिल्कुल मौलिक है : सितारे लाल, बादल लाल हमारी पतलूनों के रंग जैसे...”

“और ये,” ईश्वर दूत पीटर ने कहा, “ये बोल्शेविकों के लिए हैं, जो पिरिकोप से हैं.”

“कौन से पिरिकोप से?” अपनी धरती वाली बुद्धि पर ज़ोर डालते हुए तुर्बीन ने पूछा.         

“वो, महाशय, उन्हें तो सब कुछ पहले से ही पता होता है ना. सन् बीस में, जब पिरिकोप पर हमला करते समय अनगिनत बोल्शेविक मारे गए. तो, शायद उन्हें रखने के लिए जगह बनाई गई हो.”

“बोल्शेविकों को?” तुर्बीन की रूह परेशान हो गई, “आप कुछ गड़बड़ कर रहे हो, झीलिन, ऐसा नहीं हो सकता. उन्हें वहाँ नहीं आने देंगे.”

“डॉक्टर महाशय, मैं खुद भी ऐसा ही सोचता था. मैं भी. परेशान हो गया और खुदा से पूछने लगा...”

“खुदा से? ओय, झीलिन!”

“शक न करें, डॉक्टर महाशय, सही कह रहा हूँ, झूठ बोलने की कोई वजह ही नहीं है, मैंने खुद ही उनसे बात की है, कई बार.”

“कैसा है वो?

झीलिन की आंखों से किरणें निकालने लगीं, और चहरे के नाक-नक्श तीखे हो गए. “चाहो तो मार डालो – समझा नहीं पाऊंगा. चेहरा दमकता है, मगर कैसा है – समझ नहीं पाओगे...

कभी ऐसा होता है, कि उसकी ओर देखते हो – और सर्द हो जाते हो. ऐसा लगता है, कि वह तुम्हारे ही जैसा है.

ऐसा खौफ दबोच लेता है, सोचने लगते हो, कि ये क्या है? मगर फिर, कुछ नहीं, गुज़र जाता है. चेहरा इतना विभिन्नता लिए हुए है, और बात कैसे करता है, ऐसी प्रसन्नता, ऐसी प्रसन्नता....

और अभी गुज़रेगा, नीला रंग गुज़रेगा... हम्...हाँ...नहीं, नीला नहीं (सार्जेंट मेजर ने कुछ देर सोचा), नहीं समझ सकता. हज़ारों मीलों तक और तुम्हारे भीतर से. तो, मैं कहने लगा, ऐसा कैसे हो सकता है, खुदा, तुम्हारे पोप तो कहते हैं, कि बोल्शेविक जहन्नुम में जायेंगे? तो, फिर ये सब क्या है? वो तो तुम पर विश्वास नहीं करते, और तुमने उनके लिए, देखो ना, कैसी बढ़िया बैरेक्स बनाई हैं?

“अच्छा, विश्वास नहीं करते?” उसने पूछा.

“सचमुच के ख़ुदा हो,” मैंने कहा, “मगर खुद ही, पता है, डर रहा था, गौर कीजिये. ख़ुदा से ऐसे शब्द! बस, देखा, वह तो मुस्कुरा रहा था. ये, सोचने लगा, मैं बेवकूफ, उससे क्या कह रहा हूँ, जबकि वह मुझसे बेहतर जानता है. मगर उत्सुकता थी, कि वो क्या कहेगा. उसने कहा:

“अच्छा, नहीं विश्वास करते तो ना करें, क्या कर सकते हैं. जाने दो. मुझे तो इससे ना गर्मी महसूस होती है, ना सर्दी. और, तुम्हें भी. और उन्हें भी...इसलिए कि आपके ‘विश्वास’ से न कोई लाभ होता है, ना हानि. एक विश्वास करता है, दूसरा नहीं करता, मगर सब के सब एक जैसा ही बर्ताव करते हैं : देखते-देखते एक दूसरे का गला पकड़ लेंगे, और जहाँ तक बैरेक्स का सवाल है, झीलिन, तो ये समझना चाहिए कि तुम सब मेरे लिए एक जैसे हो – युद्ध के मैदान में शहीद हुए. ये, झीलिन, समझना चाहिए, और हर कोई ये बात समझ नहीं सकता. और तुम, झीलिन, इन सवालों से तुम्हें परेशान होने की ज़रुरत नहीं है. जियो, घूमो-फिरो”.

“पूरी तरह समझाया, डॉक्टर महाशय? आँ? “पोप तो,” मैंने कहा...उसने हाथ हिलाया : बेहतर होगा, झीलिन, कि तुम मुझे पोप लोगों के बारे याद न दिलाओ. समझ नहीं पाता कि मैं उनका क्या करूँ. मतलब ऐसे बेवकूफ, जैसे आपके पोप हैं, दुनिया में कोई और नहीं हैं. चुपचाप बताता हूँ तुम्हें, झीलिन, वे कलंक है, न कि पोप”.

“हाँ, मैंने कहा, “तुम उन्हें निकाल दो, प्रभु, सबको निकाल दो! उन निठल्लों को खिलाने की ज़रुरत क्या है?

“बात ये हैं झीलिन, कि मुझे उन पर दया आती है.” वह बोला.

झीलिन के चारों ओर की चमक नीली हो गई, और सोने वाले का दिल एक अबूझ प्रसन्नता से भर गया. दमकते हुए सार्जेंट मेजर की और हाथ बढ़ाते हुए वह नींद में कराहा:

“क्या मैं किसी तरह तुम्हारी ब्रिगेड में डॉक्टर बन सकता हूँ?

झीलिन ने अभिवादन करते हुए हाथ हिलाया और प्यार से और सकारात्मक ढंग से सिर हिलाया.

फिर वह पीछे हटाने लगा और अलेक्सेई वसील्येविच को छोड़कर चला गया. वह जाग गया, और उसके सामने झीलिन के बदले सुबह के प्रकाश में कुछ कुछ मद्धिम होती हुई खिड़की की चौखट थी. डॉक्टर ने चहरे पर हाथ फेरा और उसे महसूस हुआ कि वह आंसुओं से भीगा हुआ है. सुबह के धुंधलके में वह बड़ी देर तक गहरी-गहरी सांस लेता रहा, मगर जल्दी ही फिर से सो गया, और अब नींद गहरी थी, बिना किसी सपने के...

हाँ-, मृत्यु धीमी नहीं हुई. वह उक्रेन के शरद और फिर शीत ऋतु के रास्तों पर उड़ती हुई सूखी बर्फ के साथ-साथ चल रही थी. मशीन गनों से जंगलों में दस्तक देती. वह खुद तो दिखाई नहीं देती थी, मगर उसके आने से पूर्व किसानों का एक अटपटा-सा रोष अवश्य प्रकट होता था. वह बर्फीले तूफानों और ठण्ड में भाग रहा था, छेद वाले नमदे के जूतों में, उलझे बालों वाले, बिना ढंके सिर से फिसल रही घास के साथ और चिंघाड़ रहा था. वह हाथों में भारी-भरकम डंडा लिए था, जिसके बगैर रूस में किसी भी बात का आरम्भ नहीं होता था. हल्के लाल मुर्गे फड़फड़ा रहे थे. इसके बाद अस्त होते लाल सूरज की रोशनी में जननांगों से लटकाया गया चायखाने का मालिक-यहूदी नज़र आया. और पोलैंड की ख़ूबसूरत राजधानी वारसा में एक नज़ारा देखने को मिला: हेनरिक सिन्केविच (पोलिश पत्रकार और उपन्यासकार – अनु.) बादल में खडा हो गया और ज़हरीले ढंग से खिलखिलाने लगा. इसके बाद तो बस जैसे शैतानियत ही शुरू हो गई, फूलने लगी और बुलबुलों के रूप में नाचने लगी. उत्तेजित चर्चों के हरे गुम्बदों के नीचे पादरी घंटे बजाने लगे, और बगल में, स्कूल की इमारत में, जिसके कांच बंदूकों की गोलियों से टूट गए थे, क्रांतिकारी गीत गाने लगे.   

नहीं, दम घुट जाएगा ऐसे देश में और ऐसे समय में. शैतान ले जाए! कपोल कल्पना. पित्ल्यूरा काल्पनिक है. वह कभी था ही नहीं. ये काल्पनिक कथा इतनी लाजवाब है, जैसी कि नेपोलियन के बारे में काल्पनिक कथा, जिसका कभी भी अस्तित्व नहीं था, मगर कुछ कम दिलकश. बात कुछ और ही हुई. किसानों के इसी रोष को किसी और रास्ते पर ले जाना चाहिए था, क्योंकि दुनिया में सब कुछ इतने तिलिस्मी ढंग से बना है, कि चाहे कितना ही भागे, दैवयोग से वह हमेशा एक ही चौराहे पर मिलता है.

बहुत आसान है. कहीं कोई गड़बड़ हुई नहीं कि लोग निकल आते हैं.

और लीजिये, न जाने कहाँ से कर्नल तरपेत्स प्रकट हुआ. पता चला कि वह कहीं और से नहीं बल्कि ऑस्ट्रियन आर्मी से आया था...

“क्या कह रहे हैं?

“यकीन दिलाता हूँ.”

इसके बाद प्रकट हुआ लेखक विनिचेन्का, जो दो बातों के लिए प्रसिद्ध था – अपने उपन्यासों के लिए और इस बात के लिए कि जैसे ही सन् अठारह में जादुई लहर ने उसे बदहवास उक्रेइनी समुद्र से बाहर फेंका, सेंट पीटर्सबुर्ग शहर की व्यंग्य-पत्रिकाओं ने उसे एक पल की भी देरी किए बिना देशद्रोही कह दिया.

“और ठीक ही है...”

“खैर, ये तो मैं नहीं जानता. और इसके बाद यही रहस्यमय कैदी शहर की जेल से बाहर आया.

सितम्बर में भी शहर में किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि ये तीन आदमी क्या कर सकते हैं, जिनमें सही समय पर प्रकट होने की योग्यता थी, ऐसी छोटी सी जगह पर भी, जैसे ‘बेलाया’ चर्च. अक्टूबर में इस बारे में तीव्रता से अनुमान लगाए गए, और सैंकड़ों प्रकाशित खिड़कियों वाली रेलगाड़ियाँ शहर के पैसेंजर स्टेशन-1 से जाने लगीं, नए, अभी एक चौड़ी खाई जैसे, नए प्रकट हुए पोलैंड से होकर और जर्मनी को. टेलीग्राम उड़ने लगे. हीरे-जवाहिरात, भागती हुई आंखें, कंघी किये हुए बाल, और पैसे चले गए. भाग रहे थे साऊथ को, साऊथ को, समुद्र किनारे पर बसे शहर ओडेसा को. नवम्बर के महीने में, हाय! – सब अच्छी तरह जान गए थे. शब्द:

-    पित्ल्यूरा!   

-    पित्ल्यूरा!!

-    पित्ल्यूरा! – दीवारों से उछल रहा था, टेलिग्राम्स की भूरी रिपोर्ट्स से कूद रहा था. सुबह वह अखबारों के पन्नों से कॉफी के प्याले में टपकता, और दिव्य उष्णकटिबंधीय पेय मुँह में फौरन अप्रिय धोवन में बदल जाता. वह ज़ुबानों पर टहलता और टेलिग्राफिस्टों की उँगलियों के नीचे मोर्स उपकरणों में खटखटाता. शहर में इस रहस्यमय शब्द से संबंधित चमत्कार होने लगे, जिसे जर्मन अपने ढंग से कहते थे :

- पेतुर्रा.

इक्का दुक्का जर्मन सैनिक, जिन्हें बाहरी इलाके में लड़खड़ाते हुए घूमने की बुरी आदत पड़ गई थी, रातों को गायब होने लगे. रात को वे गायब हो जाते और दिन में पता चलता कि उन्हें मार डाला गया है. इसलिए रात को जर्मन स्टील के हेल्मेट पहनकर गश्त लगाते. वे चलते और लालटेनें चमकतीं – गड़बड़ नहीं करना! मगर कोई भी लालटेन उस गंदगी को दूर नहीं कर सकती थी, जो उनके दिमागों में उबल रही थी.

विलियम. विलियम. कल तीन जर्मनों को मारा डाला गया. ओह गॉड, जर्मन जा रहे हैं, क्या आप जानते हैं? मॉस्को में कामगारों ने त्रोत्स्की को गिरफ़्तार कर लिया!! कुछ कुत्ते के पिल्लों ने बरद्यान्का के पास रेलगाड़ी रोक दी और उसे पूरी तरह लूट लिया. पित्ल्यूरा ने पैरिस में दूतावास भेजा है. फिर से विलियम. काले सिंहली ओडेसा में हैं.

अज्ञात रहस्यमय नाम -  कौंसुल एन्नो.

ओडेसा. ओडेसा. जनरल देनीकिन, फिर विलियम. जर्मन चले जायेंगे, फ्रांसीसी आयेंगे.

“बोल्शेविक आयेंगे, प्यारे!”

“ज़ुबान को लगाम दो, बुढऊ!”

जर्मनों के पास ऐसा उपकरण है, तीर लगा हुआ – उसे ज़मीन पर रखेंगे, और तीर बताएगा कि कहाँ हथियार गड़े हैं. ये हुई ना बात. पित्ल्यूरा ने बोल्शेविकों के पास दूतावास भेजा है. ये और भी अच्छी बात है. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा, पित्ल्यूरा.

 

****   

 

कोई भी, एक भी आदमी नहीं जानता था कि ये पेतुर्रा उक्रेन में क्या करना चाहता है, मगर ये तो सबको अच्छी तरह मालूम था कि वह, रहस्यमय और बिन चेहरे का (हालांकि, वैसे, अखबार समय-समय पर अपने पृष्ठों पर जो भी मिलता, उस कैथोलिक धर्माध्यक्ष की तस्वीर छाप देतें जो हर बार अलग होती थी, इस इबारत के साथ – साइमन पित्ल्यूरा), उसे, उक्रेन को, जीतना चाहता है, और उसे जीतने के लिए, वह शहर पर कब्ज़ा करना चाहता है.  

 

 

6.  

 

मैडम अंजू की बुटीक – ‘पैरिस-स्टाईल शहर के बिल्कुल बीचोंबीच, थियेटर स्ट्रीट पर, जो ऑपेरा थियेटर के पीछे से गुज़रती थी, एक विशाल, कई मंजिलों वाली बिल्डिंग में, और एकदम पहली मंज़िल पर थी. सड़क से तीन सीढ़ियाँ कांच के दरवाज़े से होकर बुटीक तक ले जाती थीं, और कांच के दरवाज़े के दोनों तरफ दो खिड़कियाँ थीं, जिन पर धूल भरे लेस के परदे टंगे हुए थे. किसी को भी पता नहीं था, मैडम अंजू कहाँ चली गई है और उसकी बुटीक का उपयोग गैर व्यापारिक उद्देश्यों के लिए क्यों किया जा रहा है. खिड़की पर रंगबिरंगी लेडीज़ कैप की तस्वीर थी, जिस पर सुनहरे अक्षरों में  ‘पैरिस स्टाईल लिखा था, और दाईं खिड़की के कांच के पीछे पीले पुट्ठे का एक बड़ा पोस्टर लगा था, जिस पर एक दूसरे को छेदती हुई सिवास्तोपल तोपें बनी हुई थीं, जैसी तोपचियों के कन्धों के फीतों पर बनी होती है, ऊपर की तरफ इस इबारत के साथ:

“ ‘हीरो तुम, शायद, न बन पाओ, मगर तुम्हें ‘वालंटियर’ अवश्य होना चाहिए.” 

तोपों के नीचे शब्द थे :

“कमांडिंग ऑफिसर की मोर्टार डिविजन में वालंटियर्स का पंजीकरण जारी है.”

स्टोर के प्रवेश द्वार के पास साइड कार के साथ एक गंदी मोटरसाइकल पडी थी, जिसके पेंच खुले हुए थे, और स्प्रिंग वाला दरवाज़ा हर मिनट बंद हो रहा था, और हर बार, जब वह खुलता, तो उसके ऊपर शानदार घंटी बजती – ब्रिन-ब्रीन, जो मैडम अंजू के हाल ही के अच्छे दिनों की याद दिलाती.      

पीने वाली रात के बाद तुर्बीन, मिश्लायेव्स्की और करास काफी देर से, दोपहर के क़रीब, लगभग एक ही समय पर उठे, और उन्हें अचरज हुआ कि उनके दिमाग एकदम तरो-ताज़ा हैं. पता चला कि निकोल्का और शिर्वीन्स्की जा चुके हैं.

निकोल्का ने सुबह-सुबह कोई लाल रहस्यमय गठरी लपेटी, - एह-एह बुदबुदाते हुए...और अपनी स्क्वैड में चला गया, और शिर्वीन्स्की अभी-अभी अपने कमांडिंग स्टाफ के दफ्तर में ड्यूटी पर निकल गया था.

मिश्लायेव्स्की ने किचन के पीछे, अन्यूता के प्यारे कमरे में जाकर, जहाँ परदे के पीछे गीज़र और बाथ टब था,  कमर तक अपने कपडे उतार दिए, अपनी गर्दन और पीठ और सिर पर बर्फीले पानी की धार छोड़ी और, भय तथा उत्तेजना से चीत्कार करते हुए :

“एह! ये ले! बढ़िया!” अपने चारों ओर गज भर की दूरी तक हर चीज़ गीली कर दी. इसके बाद रोएंदार तौलिये से बदन पोंछा, कपडे पहने. सिर पर ब्रिल क्रीम लगाया, बालों में कंघी की और तुर्बीन से कहा:

“अल्योशा, हुम्....दोस्ती की खातिर अपनी एड पहनने दो. घर तो मैं जाऊंगा नहीं, और बिना एडों के जाना अच्छा नहीं लगता.

“स्टडी रूम से ले लो, मेज़ की दाईं दराज़ में हैं.”

मिश्लायेव्स्की स्टडी रूम में चला गया, वहाँ कुछ खुड़खुड़ करता रहा और बाहर आ गया. काली आंखों वाली अन्यूता, जो अपनी आंटी के यहाँ छुट्टी मनाकर सुबह लौटी थी, परों वाला डस्टर कुर्सियों पर घुमा रही थी. मिश्लायेव्स्की खांसा, उसने तिरछी नज़र से दरवाज़े की ओर देखा, सीधी राह के बदले घूम कर अन्यूता के पास गया और हौले से बोला:

“नमस्ते, अन्यूतच्का....”

“”एलेना वसील्येव्ना से कह दूंगी,” फ़ौरन, बिना सोचे समझे अन्यूता ने फुसफुसाकर कहा और अपनी आंखें बंद कर लीं, किसी सज़ायाफ्ता मुजरिम की तरह जिसके ऊपर जल्लाद ने चाकू तान लिया हो.     

“बेवकूफ...”

तुर्बीन ने अचानक दरवाज़े के भीतर झांका. उसका चेहरा ज़हरीला हो गया.

“डस्टर, देख रहे हो, वीत्या? तो. ख़ूबसूरत है. बेहतर है, कि तुम अपने रास्ते चले जाओ,? और तुम, अन्यूता, याद रखना, अगर वह कभी इत्तेफ़ाक से कह भी दे, कि शादी करेगा, तो यकीन न करना, शादी नहीं करेगा.”

“ये क्या बात हुई, या खुदा, क्या इन्सान से दुआ-सलाम करना मना है?

इस आकस्मिक अपमान से मिश्लायेव्स्की लाल हो गया, उसने अपना सीना फुलाया और एडियाँ खटखटाते हुए ड्राइंग रूम से निकल गया. डाइनिंग रूम में वह लाल बालों वाली, गंभीर एलेना के पास पहुँचा, उसकी आंखें बेचैनी से भाग रही थीं.

“नमस्ते, ल्येना, मेरे फ़रिश्ते, सुप्रभात. एम्...(मिश्लायेव्स्की के गले से खनखनाती आवाज़ के बदले, भर्राई हुई आवाज़ निकली.)

“ल्येना, मेरे फ़रिश्ते,” – वह भावपूर्ण स्वर में बोला, “गुस्सा न करना. तुमसे प्यार करता हूँ, और तुम भी मुझे प्यार करो. कल जो मैंने बदमाशी की, उस पर ध्यान न दो. ल्येना, कहीं तुम ये तो नहीं सोच रही हो, कि मैं कोई बदमाश हूँ?

ऐसा कहते हुए उसने एलेना को अपनी बांहों में ले लिया और उसके दोनों गालों को चूम लिया.

ड्राइंग रूम में हल्की सी आवाज़ के साथ परों वाला डस्टर गिर गया. जैसे ही लेफ्टिनेन्ट मिश्लायेव्स्की तुर्बीनों के अपार्टमेंट में आता, अन्यूता के साथ हमेशा अजीब-अजीब बातें होने लगतीं. अन्यूता के हाथों से घरेलू चीज़ें गिरने लगतीं : अगर वह किचन में होती तो चाकू गिरने लगते, बुफे-काउंटर से प्लेटें गिरने लगतीं ; अन्नुश्का गड़बड़ा जाती, बिना बात के प्रवेश कक्ष में भागती और वहाँ जूते साफ़ करने लगती, उन्हें कपडे से तब तक पोंछती, जब तक कि एडियों पर जडी छोटी एड न खनखनाती और कटी हुई ठोढी, चौड़े कंधे और नीली ब्रीचेस न प्रकट होतीं. अन्नुश्का आंखें बंद कर लेती और एक किनारे से तंग, छुपने की जगह से निकलती. अभी भी ब्रश गिराने के बाद वह सोच में डूबी, छींट के परदों से परे बादलों से ढंके भूरे आसमान की ओर, कहीं दूर देखती रही.

“वीत्का, वीत्का,  थियेटर के साफ़ किये हुए मुकुट जैसे सिर को हिलाते हुए एलेना कह रही थी, “देखने में तो तुम तंदुरुस्त नौजवान लगते हो, कल इतने कमजोर क्यों हो गए थे? बैठो, थोड़ी चाय पियो, शायद कुछ अच्छा लगे.”

“और तुम, ल्येनच्का, आज बहुत शानदार लग रही हो. और ये गाऊन तुम पर जंचता है, बाय ऑनर, “मिश्लायेव्स्की ने खुशामद से, दर्पण में प्रतिबिंबित अलमारी की गहराइयों पर खोजती हुई, चंचल नज़र डालते हुए कहा, “करास देख, कैसा गाऊन है. एकदम हरा. नहीं, कितनी  अच्छी हो.”

“एलेना वसील्येव्ना  बहुत ख़ूबसूरत हैं,” करास ने संजीदगी और ईमानदारी से जवाब दिया.

“ये इलेक्ट्रिसिटी के कारण है,” एलेना ने समझाया, “तो, तुम, वीतेन्का,  फ़ौरन बताओ, बात क्या है?”

“पता है, ल्येना, मेरी प्यारी, कल के हंगामे के बाद मुझे माइग्रेन का दौरा पड़ सकता है, और माइग्रेन से लड़ना संभव नहीं है...”

“अच्छा, अलमारी में.”

“वो ही, वो ही...एक पैग... पिरामिदोन की सभी गोलियों से बेहतर.”

पीड़ित भाव से मिश्लायेव्स्की ने एक के बाद एक वोद्का के दो गिलास पी लिए और कल का नरम पड़ गया खीरा खा लिया. इसके बाद उसने घोषणा की, कि उसे ऐसा लग रहा है, जैसे वह अभी-अभी पैदा हुआ है, और लेमन-टी पीने की इच्छा प्रकट की.

“तुम, ल्येनाच्का,” भर्राई हुई आवाज़ में तुर्बीन ने कहा, “परेशान न होना और मेरा इंतज़ार करना, मैं जाकर अपना नाम लिखवाऊँगा और वापस घर आ जाऊंगा. फ़ौजी कार्रवाइयों के बारे में सोचकर परेशान न होना, हम शहर में बैठेंगे और इस प्यारे प्रेसिडेंट – इस सुअर के बारे में बातें करेंगे.”    

“ऐसा न हो, कि तुम्हें कहीं भेज दें?

करास ने तसल्ली देते हुए हाथ हिलाया.

“आप परेशान न हों, एलेना वसील्येव्ना. पहली बात, आपको बताना चाहूंगा, कि कम से कम दो हफ़्तों से पहले तो डिविजन किसी भी हालत में तैयार नहीं हो पायेगी, अभी तक घोड़े नहीं हैं और गोला-बारूद भी नहीं है. और जब वह तैयार होगी, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम शहर ही में रहेंगे. पूरी फ़ौज, जो अभी बन रही है, निश्चय ही शहर की रक्षा के लिए ही तैनात की जायेगी. भविष्य में, अगर मॉस्को पर चढ़ाई करते हैं...”

“खैर, ये अभी कहाँ से....हुम्...”

“पहले तो देनीकिन से मिलना पडेगा....”

“महाशय, आप लोग बेकार ही में मुझे तसल्ली दे रहे हैं, मैं बिल्कुल किसी भी चीज़ से नहीं डर रही हूँ, बल्कि, आपकी तारीफ़ कर रही हूँ.”

एलेना वाकई में हिम्मत से बोल रही थी, और उसकी आंखों में हर रोज़ के काम की चिंता थी. “कई दिनों तक ये फ़िक्र रहती है.”

“अन्यूता,” वह चिल्लाई, “प्यारी, वहाँ बरामदे में विक्तर विक्तरविच के अंतर्वस्त्र पड़े हैं. उसे उठा, बच्ची, अच्छी तरह ब्रश से साफ़ कर, और फिर फ़ौरन धो दे.”

एलेना को सबसे ज़्यादा सुकून का एहसास गठीले, नाटे करास को देखकर हो रहा था. आत्मविश्वास से भरपूर करास भूरी जैकेट में एकदम शांत था, सिगरेट पी रहा था और आंखें सिकोड़ कर देख रहा था.

प्रवेश कक्ष में उन्होंने बिदा ली.

“अच्छा, खुदा आपको सलामत रखे, महाशय,” एलेना ने सख्ती से कहा और तुर्बीन पर सलीब का निशान बनाया. वैसे ही उसने करास और मिश्लायेव्स्की पर भी सलीब का निशान बनाया. मिश्लायेव्स्की ने उसे गले लगाया, और करास ने, जिसके ओवरकोट की चौड़ी कमर पर कस कर बेल्ट बंधी थी, लाल होकर, नजाकत से उसके दोनों हाथों को चूम लिया.

 

 

***

 

 

 

“कर्नल, महाशय,” हौले से अपनी ऐड को खटखटाते हुए और कैप के ऊपर हाथ रखकर, करास ने कहा, “रिपोर्ट करने की इजाज़त देंगे? 

कर्नल महाशय दुकान की स्टेज जैसी ऊँची जगह पर, दाईं ओर, छोटी-सी लिखने की मेज़ के पीछे एक हरे रंग की नीची कुर्सी पर बैठे थे. उनके पीछे, डिजाइन वाले जालीदार परदे से ढंकी धूल भरी खिड़की से आते हुए प्रकाश को मद्धिम करते हुए नीले रंग के कार्डबोर्ड के डिब्बों का ढेर था, जिन पर लिखा था ‘मैडम अंजू. महिलाओं की टोपियाँ.’ कर्नल महाशय के हाथ में कलम थी और वह असल में कर्नल नहीं, बल्कि लेफ्टिनेंट कर्नल था, चौड़े, सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स वाला, जो दो पट्टियों और तीन सितारों वाले थे, साथ में उन पर एक दूसरे को छेदती हुई सुनहरी तोपें भी थीं. 

कर्नल महाशय खुद तुर्बीन से कुछ ही बड़े थे – उनकी उम्र करीब तीस साल थी, ज़्यादा से ज़्यादा बत्तीस. उनका चेहरा, खाया-पिया, और सफाचट दाढी वाला, काली, अमेरिकन स्टाईल में कटी छोटी-छोटी मूंछों से सजा था. बेहद जिंदादिल और अक्लमंद आंखें स्पष्ट रूप से थकी हुई थीं, मगर ध्यान से देख रही थीं. 

कर्नल के चारों ओर आदिम काल की बेतरतीबी थी.  उससे दो कदम दूर छोटी-सी काली भट्टी में आग चटचटा रही थी, गांठदार काले पाईपों से, जो पार्टीशन के पीछे जा रहे थे, और  दुकान के भीतर तक पहुँच रहे थे, कभी कभी काला द्रव टपक रहा था. स्टेज के और दुकान के बाकी हिस्से का फर्श, जिस पर गड्ढे पड गए थे, कागज़ के टुकड़ों और लाल-हरी कपड़ों की चिंधियों से भरा था. ऊपर ऊंचाई पर, कर्नल के सिर के ठीक ऊपर, बेताब पंछी की तरह टाईपराइटर चटचटा रहे थे, और जब तुर्बीन ने सिर ऊपर उठाया, तो उसने देखा कि पंछी मुंडेरों के पीछे गा रहा है, जो ठीक दुकान की छत के नीचे लटक रही थीं. इन मुंडेरों के पीछे से नीली ब्रीचेस में किसी के पैर और नितम्ब झाँक रहे थे, मगर सिर नहीं दिखाई दे रहा था, क्योंकि उसे छत काट रही थी. दूसरा टाईपराइटर बाईं और खटखटा रहा था, किसी अज्ञात गढ़े में, जहाँ से वालंटियर के चमकदार शोल्डरस्ट्रैप्स और सफ़ेद सिर नज़र आ रहा था, मगर न हाथ नज़र आ रहे थे, न पैर.

कर्नल के चारों ओर कई चहरे कौंध रहे थे, तोपों वाले सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स कौंध रहे थे, एक पीला बक्सा टेलीफोन के रिसीवरों और तारों से अटा था, और बगल में जैम के डिब्बों जैसे बक्सों के ढेर लगे हुए थे जिनमें हथगोले और मशीनगन्स की गोलियों के पट्टों के कई बल थे. कर्नल की बाईं कोहनी के नीचे पैदल सिलाई मशीन रखी थी, और दायें पैर के पास मशीनगन की नली झाँक रही थी. गहराई और आधे अँधेरे में, परदे के पीछे, चमकदार छड़ पर किसी की आवाज टूट रही थी, ज़ाहिर है, टेलीफ़ोन में:

“हाँ...हाँ...बोल रहा हूँ. बोल रहा हूँ : हाँ, हाँ. हाँ, मैं बोल रहा हूँ”. ट्रिंग-ट्रिंग...घंटी बजती रही....पी-ऊ, - कहीं दूर गढ़े में नाज़ुक पंछी गा उठा, और वहाँ से एक जवान गहरी आवाज़ बुदबुदाई:

“डिविजन...सुन रहा हूँ...हाँ...हाँ.”

“कहिये, मैं आपकी बात सुन रहा हूँ,’ कर्नल ने करास से कहा.

“कर्नल महाशय, लेफ्टिनेंट विक्तर मिश्लायेव्स्की और डॉक्टर तुर्बीन का आपसे परिचय कराने की इजाज़त दें. लेफ्टिनेंट मिश्लायेव्स्की फिलहाल दूसरी पैदल स्क्वैड में निचली रैंक का अफ़सर है, और अपनी विशेषता के आधार पर आपकी डिविजन में आना चाहता है. डॉक्टर तुर्बीन डिविजन के डॉक्टर के तौर पर नियुक्त करने की प्रार्थना करता है.”

यह सब कहने के बाद करास ने कैप से अपना हाथ हटाया, और मिश्लायेव्स्की ने सैल्यूट किया. डैम इट...फ़ौरन यूनिफ़ॉर्म पहनना होगा,” बिना कैप के और भेड़ की खाल के कॉलर वाले काले कोट में अपने आप को बौड़म समझते हुए तुर्बीन ने चिड़चिड़ाहट से सोचा. कर्नल ने उडी-उडी आंखों से डॉक्टर को देखा और और उसकी नज़र मिश्लायेव्स्की के ओवरकोट और उसके चे हरे पर जम गईं.

अच्छा,” उसने कहा, “यह तो अच्छी बात है. लेफ्टिनेंट आप कहाँ तैनात थे?

“हेवी आर्टिलरी डिविजन N में, कर्नल महाशय,” मिश्लायेव्स्की ने जर्मन युद्ध के दौरान अपनी सेवा का सन्दर्भ देते हुए जवाब दिया.

“हेवी आर्टिलरी? ये तो बहुत अच्छी बात है. शैतान ही उन्हें समझे : आर्टिलरी ऑफिसर्स को न जाने क्यों पैदल फ़ौज में डाल दिया. गड़बड़ हो गई.”

“बिलकुल नहीं, कर्नल महाशय,” हल्की खाँसी से अपनी जिद्दी आवाज़ को साफ़ करते हुए मिश्लायेव्स्की ने कहा, “मैंने खुद ही स्वेच्छा से इस बारे में प्रार्थना की थी, इस लिहाज़ से कि पोस्ट-वलीन्स्की पर फ़ौरन हमला करना था. मगर अब, जब स्क्वैड पर्याप्त मात्रा में सुसज्जित हो गई है...”

“आपके निर्णय की बेहद तारीफ़ करता हूँ...ठीक है,” कर्नल ने कहा और वाकई में काफी प्रशंसा के भाव से मिश्लायेव्स्की की आंखों में देखा. “आपसे मिल कर खुशी हुई...तो...आह, हाँ, डॉक्टर? आप भी हमारे पास आना चाहते हैं? हुम्... “

तुर्बीन ने चुपचाप सिर नीचे कर लिया, ताकि अपनी भेड की खाल के कॉलर में “बिलकुल सही” न कहना पड़े.      

“हुम्” कर्नल ने खिड़की से बाहर देखा, “पता है, यह विचार, बेशक, अच्छा है. ऊपर से, संभव है कि आने वाले दिनों में संभव है ...च्...” वह अचानक रुक गया, आंखों को कुछ सिकोड़ा और नीची आवाज़ में कहने लगा:

“सिर्फ...कैसे कहना चाहिए...यहाँ, आप देख रहे हैं, डॉक्टर, कि एक सवाल है...सामाजिक सिद्धांत और...हुम्...आप सोशलिस्ट हैं? सही है ना? सभी बुद्धिजीवियों की भाँति?” कर्नल की आंखें एक तरफ को फिसल गईं, और उसका पूरा शरीर, होंठ और मीठी आवाज़ ये तीव्र इच्छा प्रकट कर रहे थे, कि डॉक्टर तुर्बीन सोशलिस्ट ही निकले, कोई और नहीं. “आपकी डिविजन का नाम यही तो है ना, स्टूडेंट्स डिविजन,” आंख न दिखाते हुए कर्नल तहे दिल से मुस्कुराया. “बेशक, कुछ भावनात्मक, मगर, मैं खुद भी, पता है, यूनिवर्सिटी डिविजन का ही हूँ.”

तुर्बीन बहुत निराश हो गया और चकित रह गया.

“डैम...करास ने क्यों कहा था?...” उसने करास को अपने दायें कंधे के पास महसूस किया, और बगैर देखे, समझ गया, कि वह शिद्दत से उसे कुछ समझाना चाहता है, मगर क्या – यह पता करना असंभव था. 

“मैं,” अचानक अपना गाल खींचते हुए तुर्बीन फट पडा, “अफ़सोस है, कि सोशलिस्ट नहीं, बल्कि...मोनार्किस्ट (राजतन्त्रवादी – अनु.) हूँ. बल्कि, मुझे यह कहना पडेगा, कि मैं ‘सोशलिस्ट शब्द को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता. और सभी सोशलिस्टों में से मुझे अलेक्सांद्र फ्योदरविच केरेन्स्की से सख्त नफ़रत है.”

तुर्बीन के दायें कंधे के पीछे खड़े करास के मुँह से कोई आवाज़ फूटी.

‘करास और वीत्या से अलग होने का अफसोस हो रहा है,’ तुर्बीन ने सोचा, “मगर जोकर उसे ले जाए, इस सोशल डिविजन को.’

कर्नल की आंखें पल भर के लिए बाहर निकल आईं और उनमें कोई चिनगारी और चमक दिखाई दी. उसने हाथ हिलाया, मानो विनम्रता से तुर्बीन का मुँह बन्द करना चाहता हो, और कहने लगा:

“अफ़सोस की बात है. हुम्...बेहद अफ़सोस की बात है...क्रान्ति की उपलब्धियाँ इत्यादि...मुझे ऊपर से आदेश प्राप्त हुआ है: मोनार्किस्ट तत्वों को स्टाफ में लेने से बचें, इस तथ्य को देखते हुए कि जनता...ज़रूरी है, देख रहे हैं, संयम. इसके अलावा, गेटमन, जिसके साथ हमारे सीधे और घनिष्ठ संबंध हैं, जैसा कि आपको ज्ञात है...अफसोस,,,अफसोस...”

यह कहते हुए कर्नल की आवाज़ में कोई दुःख नहीं प्रदर्शित हो रहा था, बल्कि, इसके विपरीत, वह बेहद खुश प्रतीत हो रही थी, और आंखें उसके बिल्कुल विपरीत भाव प्रदर्शित कर रही थीं, जो वह कह रहा था. 

“ओहो-हो?” तुर्बीन ने अर्थपूर्ण ढंग से सोचा, “बेवकूफ हूँ मैं...और ये कर्नल बेवकूफ नहीं है. शायद कैरियरिस्ट है, उसके डील डौल को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है, मगर ये ठीक है.” 

“समझ नहीं पा रहा हूँ, कि क्या  करूँ...क्योंकि वर्तमान समय में,” कर्नल ने ‘वर्तमान’ शब्द पर काफ़ी ज़ोर देकर कहा, “तो, वर्तमान समय में, मैं कहता हूँ, हमारा अविलम्ब कार्य है शहर की और गेटमन की पेत्ल्यूरा की टुकड़ियों से रक्षा करना, और, संभवत: बोल्शेविकों से भी. और फिर...फिर देखेंगे...ये पूछने की इजाज़त दें, डॉक्टर, कि आपने अब तक कहाँ काम किया है?

“सन् 1915 में यूनिवर्सिटी की पढाई पूरी करने के बाद, वेनेरोलॉजी क्लिनिक में एक्स्टर्न के रूप में, फिर बेलग्रेड हुस्सार यूनिट में जूनियर डॉक्टर, और इसके बाद बड़े तीन-यूनिट वाले हॉस्पिटल में रेजिडेंट डॉक्टर. आजकल फ़ौज की नौकरी से मुक्त हूँ और प्राइवेट प्रैक्टिस करता हूँ.” 

“कैडेट!” कर्नल चहका, “सीनियर ऑफिसर को मेरे पास भेजो.”

नीचे गढ़े में किसी का सिर गायब हो गया, और इसके बाद कर्नल के सामने एक सांवला, जिंदादिल और दृढनिश्चयी नौजवान ऑफिसर प्रकट हुआ. वह मेमने की खाल की लाल टॉप वाली गोल टोपी में था, जिसके लम्बे कान गुंथे हुए थे, भूरे, लम्बे मिश्लायेव्स्की जैसे ओवरकोट में, जिस पर कस कर बंधी बेल्ट और रिवाल्वर था. उसके मुड़े-तुडे सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स प्रदर्शित कर रहे थे कि वह स्टाफ-कैप्टेन है.

“कैप्टेन स्तुद्ज़िन्स्की,” कर्नल उससे मुखातिब हुआ, “कृपया, कमांडर के हेडक्वार्टर में एक प्रार्थना पत्र भेजिए – मेरे पास फ़ौरन तबादला किया जाए, लेफ्टिनेंट ...अं...का...”

“मिश्लायेव्स्की,” मिश्लायेव्स्की ने सैल्यूट मारते हुए कहा.

“...मिश्लायेव्स्की का, विशेषता के आधार पर, दूसरे स्क्वैड से. साथ ही एक और प्रार्थना पत्र वहीं...कि डॉक्टर...अं...”

“तुर्बीन...”

“तुर्बीन की मुझे अत्यंत आवश्यकता है – डिविजन के डॉक्टर के रूप में. उनकी फ़ौरन नियुक्ति की प्रार्थना करते हैं.”

“सुन रहा हूँ, कर्नल महाशय,” गलत उच्चारण के साथ ऑफिसर ने जवाब दिया और सैल्यूट मारा. ‘पोलिश’ – तुर्बीन ने सोचा.

“ आप, लेफ्टिनेंट (ये मिश्लायेव्स्की से), अपनी स्क्वैड में वापस न जाएँ. लेफ्टिनेंट चौथी प्लेटून संभालेंगे (ऑफिसर से).”

“यस, कर्नल महाशय.”

“यस, कर्नल महाशय.”                                                  

“और आप, डॉक्टर, इसी पल से सर्विस पर हैं. कृपया आज एक घंटे बाद अलेक्सान्द्र जिम्नेशियम (हाई स्कूल-अनु.) के परेड ग्राउंड पर आयें.”

“यस, कर्नल महाशय.”

“डॉक्टर को फ़ौरन युनिफॉर्म दी जाए.”

“सुन रहा हूँ.”

“सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ!” नीचे गढ़े में नीची आवाज़ चिल्लाई.

“सुन रहे हैं? नहीं. मैं कह रहा हूँ : नहीं...नहीं, कह रहा हूँ,” पार्टीशन के पीछे से कोई चीखा.

ट्रिंग-न्ग...पी...पू-ऊ,” गढ़े में पंछी गा रहा था.

“सुन रहे हैं?...”

 

***

 

 

“आज़ाद समाचार”! “आज़ाद समाचार”! नया अखबार “आज़ाद समाचार!” भीड़ के ऊपर अखबार बेचने वाला लड़का चिल्ला रहा था, जिसने सिर पर औरतों का स्कार्फ बांधा हुआ था, “पेत्ल्यूरा की हार. ओडेसा में काली फौजें पहुँची.

“आज़ाद समाचार”!

घंटे भर में तुर्बीन घर जाकर आया. लिखने की मेज़ की दराज के अँधेरे से, जो ड्राइंग रूम से सटे हुए तुर्बीन के छोटे-से अध्ययन कक्ष में थी, चांदी के शोल्डर-स्ट्रैप्स बाहर निकले. वहाँ बालकनी में निकलते हुए कांच के दरवाज़े की खिड़की पर सफ़ेद परदे थे, किताबों और लेखन-सामग्री के साथ लिखने की मेज़ थी, दवाइयों और उपकरणों से भरी अलमारियां, साफ़ चादर से ढंका एक सोफा था. दयनीय और तंग, मगर आरामदेह.

“लेनच्का, अगर आज मुझे किसी वजह से देर हो जाए और अगर कोई आये, तो कहना – डॉक्टर नहीं देखेंगे. नियमित मरीज़ नहीं हैं. ..जल्दी करो, बच्ची.”

एलेना जल्दी-जल्दी, ट्यूनिक की कॉलर खीच कर उस पर शोल्डर स्ट्रैप्स सी रही थी...दूसरी जोड़ी, काली चमक वाले सुरक्षात्मक हरे, उसने ओवरकोट पर सी दिए थे.     

कुछ मिनटों के बाद तुर्बीन प्रमुख द्वार से बाहर निकला, सफ़ेद बोर्ड की और देखा:

 

डॉक्टर अ. व. तुर्बीन

यौन रोग और सिफलिस

606 – 914

मिलने का समय - 4 से 6 बजे तक.

उसने संशोधित सुधार चिपका दिया “ 5 से 7 बजे तक.” और अलेक्सांद्र ढलान पर ऊपर की ओर भागा.

“आज़ाद समाचार!”

तुर्बीन ने रुक कर अखबार वाले से अखबार खरीदा और चलते-चलते उसे खोला:

“निर्दलीय डेमोक्रेटिक अखबार.

दैनिक प्रकाशन.

13 दिसंबर 1918.    

विदेशी व्यापार और, विशेषकर जर्मनी के साथ व्यापार से संबधित प्रश्न हमें मजबूर करते हैं...”

“माफ़ कीजिये, मगर कहाँ?...हाथ ठिठुर रहे हैं.

हमारे संवाददाता की रिपोर्ट के अनुसार, ओडेसा में अश्वेत औपनिवेशकों की फौजों के दो डिविजनों को उतारने के बारे में बातचीत चल रही है. कौंसुल एन्नो इस बात पर विचार करना नहीं चाहता कि पित्ल्यूरा...”

“आह, कुत्ते की औलाद, छोकरे!”

“भगोड़ों ने, जो कल हमारी पोस्ट- वलीन्स्की के आर्मी हेडक्वार्टर में पहुंचे थे, पित्ल्यूरा की फौजों में बढ़ते असंतोष के बारे में सूचित किया है. तीन दिन पहले घुड़सवार दस्ते ने करोस्तेन प्रदेश में सिच रैफाला मैनों की पैदल सेना पर गोलीबारी की. पित्ल्यूरा की टुकड़ियों में शान्ति के प्रति तीव्र रुझान देखा जा रहा है. शायद, पित्ल्यूरा के दु:साहस का पतन होने वाला है. उसी भगोड़े की सूचना के अनुसार, कर्नल बलबतून जिसने पित्ल्यूरा के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, अपनी रेजिमेंट और चार बंदूकों के साथ किसी अज्ञात दिशा में चला गया है. बलबतून का झुकाव गेटमन की ओर है.

किसान अधिग्रहण के कारण पित्ल्यूरा से नफ़रत करते हैं. उसके द्वारा गाँवों में घोषित लामबंदी को कोई सफलता नहीं मिल रही है. किसान बड़ी मात्रा में उससे दूर भाग रहे हैं, भागकर जंगलों में छुप रहे हैं.”

“मान लेते हैं...आह, नासपीटी बर्फ...माफ़ कीजिये.”

“चचा, ये आप लोगों को क्यों दबा रहे हैं? अखबार घर में पढ़ना चाहिए....”

“माफ़ कीजिये...”

“हमने हमेशा जोर देकर कहा है कि पित्ल्यूरा का दु:साहस...”

“कमीना है! आह तुम, कमीने...

जो ईमानदार है, और भेदिया नहीं है, वो वालंटियर्स रेजिमेंट में जाता है....”

“इवान इवानविच, आज आप इतने उखड़े-उखड़े क्यों हैं?

“हाँ, बीबी ने पित्ल्यूरापन दिखाया. आज सुबह से बलबतूनियत दिखा रही है...”

इस व्यंग्य से तुर्बीन का चेहरा बदल गया, उसने गुस्से से अखबार को मरोड़ा और उसे फुटपाथ पर फेंक दिया. गौर से सुनने लगा.

‘बू-ऊ,’- गोले गा रहे थे. ‘ऊ-ऊ ऊ ख,’ कहीं से, धरती के गर्भ से शहर के बाहर आवाज़ गूँज गई.

“ये कौन शैतान है?

तुर्बीन फ़ौरन मुडा, उसने मुड़े-तुडे अखबार के गोले को उठाया और फिर से पहले पृष्ठ को गौर से पढ़ने लगा:

“इर्पेन क्षेत्र में हमारे स्काऊट्स और पित्ल्यूरा के डाकुओं के अलग-अलग गिरोहों से मुठभेड़ें हुईं.  

सिरिब्र्यान्स्क दिशा में शान्ति है.

‘क्रास्नी टेवर्न’ में कोई परिवर्तन नहीं.

बयार्का की दिशा में गेटमन के सिर्द्यूकों की रेजिमेंट ने डेढ़ हज़ार लोगों के समूह को तितर-बितर कर दिया. दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया.”    

“ गूं....गूं...गूं...बू...बू...बू...” सर्दियों की धूसर दूरी दक्षिण-पश्चिम में कहीं बुदबुदा रही थी. तुर्बीन ने अचानक मुँह खोला और पीला पड़ गया. उसने यंत्रवत् अखबार को जेब में घुसाया. मुख्य मार्ग से व्लदिमीर्स्काया स्ट्रीट पर काली नज़र आ रही भीड़ रेंग रही थी. काले ओवरकोट पहने बहुत सारे लोग रास्ते पर चल रहे थे... फुटपाथों पर औरतें दिखाई दे जातीं. इम्पीरियल गार्ड से एक घुड़सवार जा रहा था, जैसे कोई लीडर हो. ऊंचे घोड़े के कान ऐंठे हुए थे, वह तिरछी नज़र से देख रहा था, किनारे-किनारे चल रहा था. घुड़सवार के थोबड़े पर परेशानी थी. अनुशासन बनाए रखने के लिए वह बीच-बीच में चाबुक घुमाते हुए कुछ चीख रहा था, और उसकी चीखों को कोई भी नहीं सुन रहा था. भीड़ में, सामने की कतारों में पुजारियों के सुनहरे वस्त्र और दाढ़ियाँ झाँक जाती, एक ध्वज लहरा जाता. बच्चे सभी दिशाओं से भाग रहे थे.

“समाचार!” अखबार वाला छोकरा चिल्लाया और भीड़ की तरफ बढ़ा.

सफ़ेद, चपटे टोप पहने रसोइये, रेस्टारेंट ‘मेत्रोपोल की भीतरी दुनिया से उछल कर बाहर आ गए. भीड़ बर्फ पर बिखर गई जैसे कागज़ पर स्याही फैलती है.  

भीड़ के ऊपर लम्बे पीले बक्से हिल रहे थे. जब पहला बक्सा तुर्बीन के पास से गुज़र रहा था, तो उसने बगल वाले कोने पर इबारत देखी:

“एनसाईन यूत्सेविच.”

अगले बक्से पर : “एनसाईन इवानोव.”

तीसरे पर : “एनसाईन अर्लोव.”

भीड़ से अचानक एक चीख उठी. सफ़ेद बालों वाली औरत, सिर के पीछे खिसक गई हैट, लड़खड़ाते और कुछ पैकेट्स ज़मीन पर गिराते हुए, फुटपाथ से भीड़ में घुस गई.

“ये क्या है? वान्या?!” उसकी आवाज़ गूँजी. कोई विवर्ण चहरे से एक ओर को भागा. एक औरत बिलखने लगी, उसके पीछे दूसरी भी बिसूरने लगी.  

“ओह गॉड, जीज़स क्राइस्ट!” तुर्बीन के पीछे लोग बुदबुदा रहे थे. किसी ने उसकी पीठ दबाई और गर्दन पर सांस छोड़ी.

“खुदा...आख़िरी दिन. ये क्या हो रहा है, क्या लोगों को काट रहे हैं?...हाँ, ये आखिर क्या है...”

“काश, मैं कुछ भी न देखता, बजाय ये सब देखने के.”

“क्या? क्या? क्या? क्या? क्या हुआ? किसे दफ़ना रहे हैं?

“वान्या!” भीड़ में कोई विलाप कर उठा.

“उन ऑफिसर्स को जिन्हें पपिल्यूखा में काट दिया था,” जल्दी से, पहले बताने की नीयत से एक आवाज़ भिनभिनाई , “पपिल्यूखा में गए थे, पूरी स्क्वैड के साथ रात वहीं बिताई, और रात को पित्ल्यूरा के लोगों के साथ किसानों ने उन्हें घेर लिया, और सबको सफ़ाई से काट दिया. सबको...आंखें बाहर निकाल लीं, शोल्डर स्ट्रिप्स चीर दिए. पूरी तरह विकृत कर दिया.”

“ऐसा हुआ? आह, आह, आह....”

“एनसाइन करोविन”, “एन्साइन गेर्ड्ट” , - पीले ताबूत तैर रहे थे.

“क्या दिन आ गए हैं...ज़रा सोचिये.”

“आपसी युद्द.”

“ऐसा कैसे?...”

“सो गए, कहते हैं...”

“उनके साथ ऐसा ही...” अचानक भीड़ में किसीने तुर्बीन की पीठ के पीछे सीटी बजाई, काली आवाज़, और उसकी आँखों के सामने हरियाली तैर गई,. पल भर में ही चेहरे, टोपियाँ तैरती चली गईं. दो गर्दनों के बीच से चिमटे की तरह हाथ घुसाकर काले ओवरकोट की बाहों से उस आवाज़ को पकड़ लिया. आवाज़ मुड़ी और खौफ से घिर गई.

“क्या कहा था आपने?” फुफ़कारती हुई आवाज़ में तुर्बीन ने पूछा और फ़ौरन ढीला पड़ गया.
“मेहेरबानी करें
, ऑफिसर महाशय”, भय से कांपते हुए आवाज़ ने जवाब दिया, “मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूँ. मैं खामोश हूँ. आप क्या कर रहे हैं?” आवाज़ उछली.

बत्तख जैसी नाक पीली पड़ गई, और तुर्बीन फ़ौरन समझ गया कि उससे गलती हो गई है, उसने उस आदमी को नहीं पकड़ा है, जिसे पकड़ना चाहिए था. मेमने की खाल के कोट और बत्तख जैसी नाक के नीचे से एक बेहद भली आकृति प्रकट हुई. वह इस तरह की कोई बात कह ही नहीं सकती थी, और उसकी गोल-गोल आंखें डर के मारे घूम रही थीं.

तुर्बीन ने उसकी आस्तीन छोड़ दी और ठन्डे तैश में आंखों से अपने चारों ओर उमड़ती टोपियों, खोपड़ियों और कॉलरों के बीच ढूँढने लगा. बाएं हाथ से वह कुछ पकड़ने को तैयार था, और दायें हाथ में जेब में रखी पिस्तौल का हत्था पकडे था. पादरियों का दयनीय गान बगल से तैर रहा था, और पास ही में, स्कार्फ पहनी महिला हिचकियाँ लेते हुए विलाप कर रही थी. पकड़ने जैसा वाकई में कोई था ही नहीं, आवाज़, जैसे धरती में गड़प हो गई थी. आख़िरी ताबूत गुज़रा,

“एनसाईन मर्स्कोय”,

कोई स्लेज गाड़ी गुज़री. 

“समाचार!” अचानक तुर्बीन के ठीक कान के नीचे ऊँची आवाज़ गूँजी.

तुर्बीन ने जेब से गुडीमुडी किया हुआ अखबार निकाला और, बदहवासी से, दो बार बच्चे के चेहरे पर चुभोते हुए दांत भींच कर कहा:

“ये ले तेरे समाचार! ये ले. ये ले तेरे समाचार. कमीने!”

इतने से उसका तैश उतर गया. बच्चे ने अखबार गिरा दिए, वहाँ से फिसल गया और बर्फ के ढेर पर बैठ गया. उसका चेहरा पल भर में झूठ मूठ रोने से तिरछा हो गया, और आंखें झूठी नहीं, बल्कि सचमुच की भयंकर घृणा से भर गईं.  

“ये क्या...आप क्या...मुझे क्यों?” वह फुफकारा और बर्फ पर पैर पटकते हुए बिसूरने की कोशिश करने लगा. किसी का अचरज भरा चेहरा तुर्बीन की ओर मुड़ा, मगर कुछ कहने से डर गया. शर्म और बेकार की बेहूदगी महसूस करते हुए तुर्बीन ने कन्धों के बीच सिर झुकाया और, फ़ौरन मुड़कर गैस बत्ती की बगल से, म्यूज़ियम की विशाल, गोल बिल्डिंग के सफ़ेद किनारे से, पतली बर्फ से ढंके ईंटों भरे गड्ढों की बगल से गुज़रते हुए भागा विशाल, परिचित ग्राउंड – अलेक्सान्द्रोव्स्की जिम्नेशियम के पार्क की ओर.

“समाचार”! “दैनिक डेमोक्रेटिक अखबार”! सड़क से आवाज़ आई.

 

*** 

 

तुर्बीन के प्रिय जिम्नेशियम की एक सौ अस्सी खिड़कियों वाली, चार मंजिला विशाल इमारत ग्राउंड के किनारे पर थी. तुर्बीन ने उसमें आठ साल बिताये थे, आठ सालों के दौरान, बसंत की छुट्टियों में वह इस परेड ग्राउंड पर भागा करता, और सर्दियों में, जब कक्षाएं दमघोंटू धूल से भरी होतीं, और ग्राउंड पर ठंडी, शानदार बर्फ पडी होती, वह ग्राउंड को खिड़की से देखता. आठ साल तक ईंटों की इस इमारत ने तुर्बीन को और छोटे – करास और मिश्लायेव्स्की को संभाला और पढ़ाया था.

और ठीक आठ साल पहले तुर्बीन ने अंतिम बार जिम्नेशियम का पार्क देखा था. न जाने क्यों उसका दिल भय से सिहर गया. उसे अचानक ऐसा लगा, कि काले बादल ने आसमान को ढांक दिया है, कि कोई बवंडर आकर पूरा जीवन उड़ा ले गया, जैसे भयानक लहर घाट को बहा ले जाती है. ओह, आठ साल की पढ़ाई! किसी बच्चे की आत्मा के लिए उसमें कितना बेतुकापन, दुख और हताशा थी, मगर साथ ही कितनी प्रसन्नता भी थी. धूसर दिन, धूसर दिन, धूसर दिन, लैटिन की वाक्य रचना, जूलियस सीज़र, एस्ट्रोनॉमी में ‘एक और इस ‘एक वाले दिन से एस्ट्रोनॉमी के प्रति हमेशा के लिए नफ़रत हो गई थी. मगर फिर बसंत, बसंत और कमरों में हंगामा, स्कूल की लड़कियां हरे पिनाफोर में वृक्षाच्छादित रास्तों पर, बलूत और मई, और, सबसे ख़ास, आगे शाश्वत प्रकाशस्तंभ – यूनिवर्सिटी, मतलब, आज़ाद ज़िंदगी, - क्या आप समझते हैं, कि यूनिवर्सिटी का मतलब क्या होता है? द्नेप्र पर सूर्यास्त, आज़ादी, पैसा, ताकत, प्रसिद्धि.

और वह इस सबसे गुज़रा था. अध्यापकों की सदा रहस्यमय आंखें, और भयानक, अब तक सपनों में दिखाई देते स्वीमिंग पूल्स जिनमें से लगातार पानी निकलता रहता है, और कभी भी पूरी तरह नहीं निकल जाता. और जटिल बहस इस बारे में कि लेन्स्की अनेगिन से किस प्रकार भिन्न है, और कैसा असभ्य था सुकरात, और जेसूइट का ऑर्डर कब प्रस्थापित हुआ था, और पोम्पेइ का अभियान कब हुआ था, और कोई और कब हुआ था, और कब हुआ था, और पिछले दो हज़ार वर्षों में कौन-कौन से अभियान हुए थे....  

ये तो कम है. जिम्नेशियम के आठ सालों के बाद, बगैर किन्हीं स्वीमिंग पूल्स के, एनाटोमी थियेटर के मुर्दे, सफ़ेद वार्ड्स, ऑपरेशन थियेटर्स की कांच जैसी पारदर्शी खामोशी, और उसके बाद तीन साल काठी में घूमना, पराये ज़ख्म, अपमान और पीड़ा, - ओह, युद्ध का शापित तालाब...और अब फिर वहीं, इसी परेड ग्राउंड पर, इसी बाग़ में. और वह परेड ग्राउंड में दौड़ रहा था काफी बीमार और पस्त, जेब में पिस्तौल भींच रहा था, भाग रहा था, शैतान जाने कहाँ और किसलिए. संभवत: उसी ज़िंदगी की रक्षा करने के लिए – भविष्य, जिसके कारण तालाबों के मारे दुखी होता रहा और उन नासपीटे पैदल चलने वालों के कारण, जिनमें से एक स्टेशन A से जा रहा है, और दूसरा उससे मिलने के लिए स्टेशन B से.

अंधेरी खिड़कियाँ सम्पूर्ण और उदास शान्ति प्रदर्शित कर रही थीं. पहली नज़र में ही समझ में आ रहा था, कि ये शान्ति मृतवत् है. अजीब बात है, शहर के केंद्र में, पतन, उफ़ान और गहमागहमी के बीच, चार स्तरों वाला जहाज़ मृतवत् खड़ा है, जो कभी खुले समुन्दर में दसियों हज़ारों जिंदगियों को ले जाया करता था. ऐसा लग रहा था, कि अब कोई उसकी रक्षा नहीं कर रहा है, खिड़कियों में और दीवारों के नीचे जो पीले निकोलायेव रंग में रंगी हुई थीं, ना कोई आवाज़ थी, ना कोई हलचल. बर्फ छतों पर अनछुई पर्त के रूप में पडी थी, टोपियों के समान बलूत के पेड़ों पर बैठी थी. बर्फ समान रूप से परेड ग्राउंड पर पडी हुई थी, और सिर्फ कुछ ही पैरों के निशान प्रदर्शित कर रहे थे कि उसे अभी-अभी कुचला गया है.

और ख़ास बात : न सिर्फ कोई नहीं जानता था, बल्कि किसी को भी इस बात में दिलचस्पी नहीं थी, कि सब कुछ कहाँ चला गया? इस जहाज़ में अब कौन पढ़ता है? और अगर कोई नहीं पढ़ता, तो क्यों? चौकीदार कहाँ हैं? क्यों भयानक, चपटी नाक वाली तोपें बलूत की कतारों के नीचे जाली के पास दिखाई दे रही हैं, जो भीतरी प्रवेश द्वार के पास भीतरी बगीचे को अलग करती है? जिम्नेशियम में हथियारों का स्टोर-रूम क्यों है? किसका? कौन? किसलिए?

कोई इस बारे में नहीं जानता, वैसे ही, जैसे कोई नहीं जानता था, कि मैडम अंजू कहाँ चली गई और उसकी दूकान में खाली डिब्बों के पास बम क्यों पड़े थे?...

 

***  

 

“शुरू- क-र!” आवाज़ चीखी. मोर्टार तोपें हिलीं और रेंगने लगीं. करीब दो सौ लोग हिले, इधर से उधर भागने लगे, बैठने लगे और लोहे के विशाल पहियों के करीब उछलते रहे. पीले भेड की खाल के कोट, भूरे ओवरकोट, और हैट्स, फ़ौजी और सुरक्षात्मक, और नीली स्टूडेंट्स वाली टोपियाँ अस्पष्ट रूप से दिखाई दे जातीं.

जब तुर्बीन ने भव्य परेड ग्राउंड पार किया, तो चार तोपें एक कतार में खड़ी, जबड़े खोले उसकी तरफ देख रही थीं. मोर्टार्स के पास वाली शीघ्र ट्रेनिंग पूरी हो चुकी थी, और दो पंक्तियों में डिविजन का नवगठित दल खडा था.

“महाशय कै-प्ट-न,” मिश्लायेव्स्की की आवाज़ गूँजी, “प्लेटून तैयार है.”

स्तुद्ज़िन्स्की कतारों के सामने आया, एक कदम पीछे हटा और चिल्लाया:

“बायाँ कंधा आगे, कदम मार्च!”

संरचना सरसराई, हिली और, अव्यवस्थित ढंग से बर्फ को रौंदते हुए, तैर गई.              

तुर्बीन के सामने से कई परिचित और ख़ास विद्यार्थियों के चेहरे कौंध गए. तीसरी प्लेटून के आगे करास कौंध गया. अभी भी न जानते हुए कि वह कहाँ और किसलिए जा रहा है, तुर्बीन प्लेटून की बगल में चरमराते हुए चलने लगा...

करास संरचना से बाहर हो गया और, परेशान, पीछे-पीछे चलते हुए, गिनने लगा :

“लेफ्ट. लेफ्ट, आत्. आत्.”

जिम्नेशियम के तहखाने के रास्ते के काले जबड़े में संरचना सांप की तरह खिंचती गई, और जबड़ा एक के बाद एक कतारों को निगलता गया.

बाहर की अपेक्षा जिम्नेशियम के अन्दर और भी ज़्यादा नीरस और उदास था. परित्यक्त इमारत की पाषाणवत् खामोशी और शाम के अस्थिर धुंधलके को फ़ौजी कदमों की गूँज ने जगा दिया. कमानों के नीचे कुछ् आवाजें तैरने लगीं, मानो शैतान जाग गए हों. भारी कदमों में सरसराहट और पतली चीखें सुनाई दे रही थी -  ये भयभीत चूहे थे जो अँधेरे कोनों में भाग रहे थे. संरचना तहखाने के अंतहीन और अंधेरे कॉरीडोर्स से गुज़री, जिनका फर्श ईंटों का था, और एक विशाल हॉल में आई, जहाँ जालियों वाली खिड़कियों की पतली झिरी से, मकडी के मृत जालों से कृपणता से प्रकाश आ रहा था.          

 हथौड़ों की नारकीय गर्जना सन्नाटे को तोड़ रही थी. कारतूसों वाले लकड़ी के डिब्बे तोड़े जा रहे थे, ल्यूइस मशीनगनों के लिए कारतूसों के अंतहीन पट्टे और केक जैसे गोल निकाल रहे थे. दुष्ट मच्छरों जैसी काली और भूरी मशीनगनें बाहर निकलीं. नट्स खडखडा रहे थे, चिमटे फाड़ रहे थे, कोने में सीटी जैसी आवाज़ से आरा कुछ काट रहा था. कैडेट्स ठंडी टोपियों के गट्ठे, लोहे जैसी सिलवटें पड़े ओवरकोट, सख्त बेल्ट, कारतूसों के पाउच और कपड़ों में लिपटे फ्लास्क निकाल रहे थे.

“फु-उ-र्ती से,” स्तुद्ज़िन्स्की की आवाज़ गूँजी.        

करीब छः ऑफिसर्स, धुंधले सुनहरे शोल्डर बेल्ट्स में, पानी पर काई की तरह गोल-गोल घूम रहे थे. मिश्लायेव्स्की की ऊँची आवाज़ कुछ न कुछ गा रही थी.

“डॉक्टर महाशय!” स्तुद्ज़िन्स्की अँधेरे से चिल्लाया, “पैरामेडिक्स की टीम का चार्ज लें और उन्हें निर्देश दें.” 

तुर्बीन के सामने फ़ौरन दो स्टूडेन्ट्स प्रकट हो गए. उनमें से एक के, जो छोटे कद का और परेशान नज़र आ रहा था, स्टूडेंट-ओवरकोट पर लाल क्रॉस था. दूसरा - भूरे फौजी कोट में था, और उसकी टोपी बार-बार आंखों पर फिसल रही थी, इसलिए वह पूरे समय उसे उंगलियों से ठीक कर रहा था.

“वहाँ दवाइयों वाले बक्से हैं,” तुर्बीन ने कहा, उसमें से पट्टों वाले झोले निकालो, और मुझे उपकरणों के साथ डॉक्टर की बैग दो. हर तोपची को दो-दो पैकेट्स दो, संक्षेप में समझाते हुए कि ज़रुरत पड़ने पर उन्हें कैसे खोलना चाहिए.

भिनभिनाते हुए भूरे झुण्ड के ऊपर मिश्लायेव्स्की का सिर उभरा. वह एक बक्से पर चढ़ गया, बन्दूक हिलाई, बोल्ट खटखटाया, झटके से कारतूसों का पट्टा उसमें डाला, खिड़की पर निशाना साधते हुए,और झनझनाते हुए, झनझनाते हुए और निशाना साधते हुए, कैडेट्स की ओर खाली कारतूस फेंकता रहा. इसके बाद तो मानो तहखाने में फैक्ट्री जैसी खटखट होने लगी. खटखटाते और झनझनाते हुए कैडेट्स बदूकों में कारतूस भरते रहे.

“जो नहीं कर सकता,ज़्यादा सावधान रहे, कैडे-ट्स,” मिश्लायेव्स्की गा रहा था, “स्टूडेंट्स को समझाइये.”

सिरों के ऊपर से पाउच के साथ कारतूसों वाले बेल्ट और फ्लास्क सिरों के ऊपर से फिसल गए.

चमत्कार हो गया. विभिन्न प्रकार के लोगों का समूह एक जैसी, सुगठित संरचना में बदल गया, जिसके ऊपर नुकीले ब्रश की तरह, संगीनों का ब्रश असंगठित रूप से सरसराते हुए लहरा रहा था.

“अफसर महाशयों से विनती है, कि मेरे पास आयें,” कहीं से स्तुद्ज़िन्स्की की आवाज़ आई.

कॉरीडोर के अंधेरे में, एड़ों की लाल, हल्की आवाज के बीच, स्तुद्ज़िन्स्की धीमी आवाज़ में बोल रहा था.

“अनुभव?

एड़ें खटखटाईं.मिश्लायेव्स्की, लापरवाही और चतुराई से कैप के बैंड में उंगलियाँ गड़ाते हुए स्टाफ-कैप्टेन के पास आया और बोला:

“मेरी प्लेटून में पंद्रह ऐसे आदमी हैं,जो राईफल के बारे में कुछ नहीं जानते. मुश्किल है.”

स्तुद्ज़िन्स्की, किसी प्रेरणा से, कहीं ऊपर को देखते हुए, जहाँ से प्रकाश की धुंधली, भूरी, अंतिम किरण कांच से होकर भीतर आ रही थी, बोला:       

“मनस्थिति?

फिर से मिश्लायेव्स्की बोला:

“हुम्....हम्...ताबूतों ने बिगाड़ दी. स्टूडेंट्स परेशान हो गए. उन पर बुरा असर पड़ता है. जाली से देख लिया था.”

स्तुद्ज़िन्स्की ने अपनी काली, जिद्दी आंखें उस पर गड़ा दीं.

“मनोबल ऊंचा करने की कोशिश करो.   

और जब वे जाने लगे, तो एड़ें खनखनाईं.

“कैडेट पाव्लव्स्की!” “अईदा” में रदामेस की भाँती कार्यशाला में मिश्लायेव्स्की गरजा.

“पाव्लव्स्की...स्की!...स्की!...स्की!!” कार्यशाला ने पथरीली गूँज और कैडेट्स की आवाजों की गरज से जवाब दिया.

“हाज़िर हूँ!”

“अलेक्सेयेव्स्की अकाडेमी से ?”

“सही फरमाया, लेफ्टिनेंट महाशय.”

“चलो, एक जोशीला गीत गाओ. ताकि पित्ल्यूरा मर जाए, उसकी रूह सड़ती रहे...”

एक आवाज़, ऊँची और स्पष्ट, पत्थर की मेहराबों के नीचे गूँज उठी :

“ पैदा हुआ तोपची के रूप में....”

राइफलों के घने जंगल से ऊँची आवाजों ने जवाब दिया:

“ब्रिगेड के परिवार में पला-पढ़ा.”

स्टूडेंट्स का पूरा समूह थरथरा गया, धुन से फ़ौरन मतलब को पकड़ लिया, और अचानक, सहज नीची आवाज़ में तोप के गोलों जैसी कोरस की गरज से कार्यशाला गूँज उठी:

 

 

“छर्रों की बौछार ने किया बप्तिज्मा

आक्रामक मखमल में लि-प–अ-अ-टा.

तोपों की आवाज़ से...”

गूज रहा था गीत कानों में, कारतूसों के बक्सों में, उदास शीशों में, दिमागों में, और खिड़कियों की ढलवां चौखटों पर कुछ लावारिस धूल भरे गिलास थरथरा गए और खनखनाने लगे...

“और ब्रेक की रस्सियों के पीछे

झुलाया मुझे तोपचियों ने.”

स्तुद्ज़िन्स्की ने ओवरकोटों, संगीनों और मशीनगनों की भीड़ से दो गुलाबी एन्साइन को बाहर खींचा और उन्हें हुक्म दिया:

“ वेस्टिब्यूल में...पेंटिंग का परदा हटाओ...फुर्ती से...”

और एन्साइन फ़ौरन कहीं चले गए.

“जाते हैं और गाते हैं

कैडेट्स गार्ड स्कूल के!

बजती हैं तुरहियाँ, ड्रम्स,

तश्तरियां झनझनाती हैं!!”

 

जिम्नेशियम का वीरान पत्थर का बक्सा अब गरज रहा था और भयानक मार्च से चिंघाड़ रहा था, और चूहे गहरे बिलों में बैठे थे, डर के मारे गूंगे हो गए थे.  

“राईट... राईट!...” गरज को तीखी आवाज़ में भेदते हुए करास चीखा.

“जोश से!...” साफ़ आवाज़ में मिश्लायेव्स्की चिल्लाया. “अलेक्सेयेव्स्की वालों, किसे दफना रहे हो?...”

धूसर, बिखरा हुआ कैटरपिलर नहीं, बल्कि

हैट बनाने वाली! रसोइनें! नौकरानियां! धोबिनें!!

देख रही हैं जाते हुए कैडेट्स को!!!

 

नुकीली संगीनों से सजी कतार कॉरीडोर में घुस गई, और पैरों की धमधमाहट से फर्श झुक गया और मुड़ गया. कैटरपिलर अंतहीन कॉरीडोर से होते हुए और दूसरी मंजिल पर विशाल, कांच के गुम्बद से आती हुई रोशनी से नहाए वेस्टिब्यूल को देखते हुए जा रहा था, और अचानक सामने वाली पंक्तियाँ जैसे पगला गईं. 

लाल रंग के अर्गमाक पर सवार, जो मोनोग्राम्स वाले शाही कपड़े से ढंका था, अर्गमाक को पिछली टांगों पर ऊपर उठाते हुए, मुस्कराहट से दमकते, सफ़ेद परों वाली मुडी हुई तिकोनी टोपी पहने, जो एक ओर को खिसक गई थी,कुछ गंजा,और दमकता हुआ अलेक्सान्द्र तोपचियों के सामने उड़ रहा था. कैडेट्स को छलावे भरी मुस्कानें भेजते हुए, अलेक्सान्द्र ने अपनी चौड़ी तलवार लहराते हुए उसकी नोक से बरदिनो रेजिमेंट्स की और इशारा किया. बरदिनो का मैदान तोप के गोलों और संगीनों के काले बादल से ढंका था.

हुए थे...

ऐसे भी युद्ध?!

 

“हाँ, कहते हैं....” पाव्लव्स्की की आवाज़ खनखनाई.

“हाँ, कहते हैं, और कैसे, कैसे!!” गहरे, नीचे सुर गूंजे.

“नहीं यूँ—ऊ–ऊ–ऊ--ही याद करता है, रूस

बरदिनो का दिन!!”

चकाचौंध करता अलेक्सान्द्र आसमान की ओर लपक रहा था, और फाड़ी गई मलमल, जो साल भर उसे ढांके हुए थी, चीथड़ा बनी उसके घोड़े की टापों के पास पड़ी थी.

“क्या धन्य सम्राट अलेक्सान्द्र को कभी देखा नहीं है? सीधे, सीधे! आत्. आत्. लेफ्ट. लेफ्ट!” मिश्लायेव्स्की चीखा, और कैटरपिलर ऊपर उठने लगा, अलेक्सान्द्र की पैदल सेना की भाँति भारी कदमों से सीढ़ियों को दबाते हुए. विजेता नेपोलियन को पार करके बाईं ओर से डिविजन दो रंगों वाले विशाल असेम्बली हॉल में पहुँची और गाना रोक कर, संगीनें ऊपर उठाकर घनी कतारों में खड़ी हो गई. हॉल में शाम का सफ़ेद प्रकाश फैला था, और, अंतिम सम्राटों के कस कर बांधे हुए पोर्ट्रेट्स मृतवत्, फीके धब्बों के समान झाँक रहे थे. एक कैडेट भाग कर भीतर आया और उससे फुसफुसाकर कुछ कहा.                  

“डिविजन कमाण्डर,” पास खड़े लोगों ने सुना.

स्तुद्ज़िन्स्की ने अफसरों को इशारा किया. वे कतारों के बीच भागे और उन्हें व्यवस्थित किया. स्तुद्ज़िन्स्की कमाण्डर से मिलने के लिए कॉरीडोर में निकला.   

एड़ें खनखनाते हुए, सीढ़ियों पर, मुड़कर अलेक्सान्द्र की ओर देखते हुए, कर्नल मालिशेव हॉल के प्रवेश द्वार पर पहुँचा. उसके बाएं नितम्ब पर लाल पट्टे से बंधी टेढ़ी कॉकेशियन तलवार झूल रही थी. वह शानदार काली मखमली टोपी और पीछे से बड़ी काट वाले लम्बे ओवरकोट में था. उसका  चेहरा विचारमग्न था. स्तुद्ज़िन्स्की शीघ्रता से उसके पास गया और सैल्यूट करके रुक गया.  

मालिशेव ने उससे पूछा:

“सबको यूनिफ़ॉर्म मिल गए?

“यस,सर. सारे आदेश पूरे हो गए हैं.”

“तो, क्या खबर है?

“युद्ध तो करेंगे. मगर पूरी तरह अनुभवहीन हैं. एक सौ बीस कैडेट्स में अस्सी स्टूडेन्ट्स है, जो हाथ में राईफ़ल पकड़ना भी नहीं जानते.”

मालिशेव के चेहरे पर एक छाया तैर गई. वह खामोश रहा.

“बड़े सौभाग्य की बात है, कि अच्छे अफ़सर मिल गए हैं,” स्तुद्ज़िन्स्की ने आगे कहा, “ख़ास कर ये नया, मिश्लायेव्स्की. किसी तरह संभाल लेंगे.”

“अच्छा. तो, बात ये है: मेरे निरीक्षण के बाद, अफसरों और गार्ड ड्यूटी के सबसे बढ़िया और अनुभवी कैडेट्स को छोड़कर, जिन्हें आप शस्त्रों के पास, स्टोर-रूम में, और बिल्डिंग की सुरक्षा के लिए तैनात करेंगे, डिविजन को घर जाने दें, इस निर्देश के साथ कि कल सुबह सात बजे पूरी डिविजन यहाँ हाज़िर हो.”    

स्तुद्ज़िन्स्की स्तब्ध रह गया, उसकी आंखें अशोभनीय ढंग से कर्नल महाशय को घूरने लगीं. मुँह खुला रह गया.

“कर्नल महाशय...” परेशानी के कारण स्तुद्ज़िन्स्की शब्दों का उच्चारण भी सही ढंग से नहीं कर पा रहा था, “मुझे कहने की इजाज़त दें. यह असंभव है. डिविजन को किसी हद तक युद्ध के लिए तैयार रखने का एक ही तरीका है – उसे रात में यहाँ रोक कर रखा जाए.”   

कर्नल महोदय ने फ़ौरन, अतिशीघ्रता से नया तरीका ढूंढ लिया – शानदार तरीके से गुस्सा होने का. उसकी गर्दन और गाल लाल हो गए और आंखें जलने लगीं.

“कैप्टेन,” उसने अप्रिय आवाज़ से कहा, “ मैं सिफारिश करूंगा कि आपको एक वरिष्ठ अधिकारी की नहीं, बल्कि एक व्याख्याता की तनख्वाह दी जाए, जो डिविजन के कमांडरों को लेक्चर देता है, क्योंकि आपके रूप में मुझे एक अनुभवी वरिष्ठ ऑफिसर मिलेगा, न कि कोई सिविलियन प्रोफ़ेसर. ठीक है, तो, मुझे लेक्चर नहीं सुनना है. कृपया मुझे सलाह न दें! सुनिए, याद रखिये. और याद करके – आदेशों का पालन करें!”

और दोनों एक दूसरे को घूरने लगे.

स्तुद्ज़िन्स्की के चेहरे पर समोवार जैसा रंग छा गया, और उसके होंठ थरथराने लगे. रुंधे गले से उसने किसी तरह कहा:

“यस,कर्नल महोदय.” 

“हाँ, आदेश का पालन करना है. उन्हें घर जाने दें. अच्छी तरह नींद पूरी करने का हुक्म दें, और बिना हथियारों के जाने दें, और कल सुबह सात बजे हाज़िर होने का हुक्म दें. जाने दें, और वो भी : छोटे-छोटे गुटों में,प्लेटून के बक्सों के बिना, बिना शोल्डर स्ट्रैप्स के, जिससे कि अपनी शान से देखने वालों का ध्यान आकर्षित न करें.”

स्तुद्ज़िन्स्की की आंखों में समझ की किरण कौंध गई, और अपमान का भाव बुझ गया.

“यस,कर्नल महोदय.”

अब कर्नल महोदय में फ़ौरन परिवर्तन हो गया.

“अलेक्सान्द्र ब्रनिस्लावाविच, मैं आपको हमेशा से एक अनुभवी और बहादुर ऑफिसर के रूप में जानता हूँ. और आप भी मुझे अच्छी तरह जानते हैं? मन में अपमान की भावना तो नहीं है? ऐसे समय में अपमान की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. मैंने अप्रियता से कहा – भूल जाइए, आखिर आप भी...”

स्तुद्ज़िन्स्की के मुख पर गहरी लाली छा गई.

“सही कहा,कर्नल महोदय,मैं कुसूरवार हूँ.”

“चलो, ठीक है. समय बर्बाद नहीं करेंगे, ताकि उन्हें हतोत्साहित न करें. एक शब्द में, सब कुछ कल पर. कल परिस्थिति ज़्यादा स्पष्ट हो जायेगी. वैसे, आपको पहले से कहता हूँ: हथियारों पर बिल्कुल ध्यान न दें, ध्यान रखें – घोड़े नहीं होंगे और गोले भी नहीं. तो, कल सुबह से ही राइफलों से फायरिंग, गोलीबारी और गोलीबारी. मुझे ऐसा परिणाम दीजिये कि कल दोपहर तक डिविजन, विजेता रेजिमेंट की तरह फायरिंग करे. और सभी अनुभवी कैडेट्स को – ग्रेनेड्स. समझ गए?

स्तुद्ज़िन्स्की के मुख पर उदासी छा गई. वह बेहद तनाव से सुन रहा था.

“कर्नल महोदय,कुछ पूछने की इजाज़त देंगे?”

“जानता हूँ कि आप क्या पूछना चाहते हैं, न पूछिए. मैं खुद ही बताता हूँ – हालत बहुत बुरी है, इससे बदतर भी होती है, मगर कभी-कभार. अब समझ में आया?

“बिल्कुल सही.”

“तो,बात ऐसी है,” मालिशेव ने बेहद नीची आवाज़ में कहा, “ये स्पष्ट है कि इस संदेह भरी रात में मैं इस पत्थर के बोरे में नहीं रुकना चाहता और,ऊपर से,दो सौ लड़कों को भी दफनाना नहीं चाहता,जिनमें से एक सौ बीस को तो गोली चलाना भी नहीं आता!”

स्तुद्ज़िन्स्की खामोश रहा.

“तो,ये बात है. बाकी शाम को. सब कर लेंगे. डिविजन के पास जाएँ.”

और वे हॉल में आये.              

“अटें-श- -न! “ऑ-फि-स-र्स!” स्तुद्ज़िन्स्की चिल्लाया.

“नमस्ते, तोपचियों!”

मालिशेव की पीठ के पीछे से, एक परेशान डाइरेक्टर की तरह, स्तुद्ज़िन्स्की ने हाथ हिलाया, और भूरी नुकीली दीवार इस तरह गरजी कि कांच थरथरा उठे…

“न...म...स्ते...म...हा...श...य... कर्नल...”

मालिशेव ने प्रसन्नता से कतारों को देखा, कैप से अपना हाथ हटाया और कहने लगा:

“अद्वितीय...तोपचियों! लब्ज़ बर्बाद नहीं करूंगा, बोलना मुझे आता नहीं है, क्योंकि मैं मीटिंग्स में कभी नहीं बोला, इसलिए संक्षेप में कहूंगा. मारेंगे हम उस कुत्ते के पिल्ले, पित्ल्यूरा को, और,इत्मीनान रखिये,हरा देंगे. आपके बीच व्लादीमीरव्त्सी, कन्स्तान्तीनव्त्सी, अलेक्सेयेव्त्सी छात्र हैं, उनके बाजों ने उनसे एक भी बार शर्मिन्दगी नहीं उठाई. और आपमें से अनेक इस विख्यात जिम्नेशियम के छात्र हैं. इसकी पुरानी दीवारें आपकी ओर देख रही हैं. और मुझे उम्मीद है, कि आप हमें शर्मिन्दा न होने देंगे. मोर्टार डिविजन के तोपचियों! हमारे महान शहर की उस डाकू की घेराबंदी से रक्षा करेंगे. अगर हम अपनी छह इंची तोप से इस प्यारे प्रेसिडेंट को लुढ़का दें, तो उसे आसमान अपने कच्छे से ज़्यादा बड़ा नज़र नहीं आयेगा, उसकी रूह को सात कफन!!!”

“हा...आ-आ...हां-आ...” कर्नल महाशय के उत्तेजनापूर्ण वक्तव्य से नुकीला झुण्ड बोल पडा.  

“कोशिश करो, तोपचियों!”       

स्तुद्ज़िन्स्की फिर से, नेपथ्य से किसी डाइरेक्टर की तरह, घबराहट से हाथ हिला रहा था, और फिर से भयानक गर्जना ने फिर से धूल के जमे हुए बादल उडाये:

“र्रर...र...र ...स्त्रा... र्रर...र...र..,”

 

****  

 

दस मिनट बाद असेम्बली हॉल में, बरदिनो के मैदान की भाँति करीने से रखे सैंकड़ों हथियार नज़र आये. संगीनों से अटे धूल भरे लकड़ी के मैदान के दोनों सिरों पर दो संतरी काले नज़र आ रहे थे. दूर कहीं, नीचे, आदेश के अनुसार शीघ्रता से बिखरते हुए नए तोपचियों के कदमों की आहट सुनाई दे रही थी. कॉरीडोर्स में कोई धातु में जड़ी चीज़ बजी और खड़खड़ाई, और ऑफिसर्स की चीखें सुनाई दीं, - स्तुद्ज़िन्स्की खुद संतरियों को व्यवस्थित कर रहा था. इसके बाद अप्रत्याशित रूप से कॉरीडोर्स में बिगुल की आवाज़ गूँज उठी. उसके टूटे हुए, ठहरे हुए सुरों में, जो पूरे जिम्नाशियम को व्याप्त कर रहे थे, खतरे का कोई आभास नहीं था, और स्पष्ट रूप से उत्तेजना और बनावटीपन था. कॉरीडोर में, लैंडिंग के ऊपर, जिसके दो तरफ से लॉबी को जाती हुई सीढियां थीं, एक कैडेट खडा था और गाल फुला रहा था. सेंट जॉर्ज ऑर्डर के धुंधले पड़ चुके रिबन्स ताँबे के पाईप से लटक रहे थे. कम्पास की सुईयों की तरह टांगें फैलाए, मिश्लायेव्स्की बिगुल बजाने वाले के सामने खडा होकर उसे सिखा रहा था.

“खींचो मत...अब ऐसे, ऐसे. उसे बाहर फूंको, बाहर फूंको. अम्मीजान काफी दिनों तक सुस्त पड़ी रहीं. तो,हो जाए, ‘जनरल अलार्म'.

“ता-ता-ताम-ता-ताम”, चूहों के बीच पीड़ा और भय फैलाते हुए बिगुल वादक बजाने लगा. 

अँधेरे-उजले हॉल में संध्याछायाएं तेज़ी से भीतर की रेंग रही थीं. राईफलों के ढेर के सामने मालिशेव और तुर्बीन रह गए. मालिशेव ने कुछ त्यौरी चढ़ाकर डॉक्टर की तरफ़ देखा, मगर फ़ौरन ही चेहरे पर दोस्ताना मुस्कान ओढ़ ली.

“तो, डॉक्टर, आपका क्या हाल है? मेडिकल सेक्शन में सब कुछ ठीक तो है?

“सही फरमाया,कर्नल महाशय.”

“आप,डॉक्टर,घर जा सकते हैं. और पैरामेडिक्स को भी छुट्टी दे सकते हैं. और इस तरह: पैरामेडिक्स कल सुबह सात बजे यहाँ आयें, और लोगों के साथ...और आप...(मालिशेव ने कुछ देर सोचा, त्यौरी चढ़ाई.) आपसे यहाँ दोपहर दो बजे पहुँचने की विनती करता हूँ. तब तक आपकी छुट्टी है. (मालिशेव ने फिर कुछ देर सोचा.) और एक बात : फिलहाल शोल्डर स्ट्रैप्स न लगाएं. मालिशेव नर्म पड़ गया. हमारी योजना में खासकर किसी का ध्यान आकर्षित करना शामिल नहीं है. एक लब्ज़ में, कल दो बजे यहाँ आने की विनती करता हूँ.”  

“जी, कर्नल महाशय!”

तुर्बीन  ने अपनी जगह पर ही सैल्यूट किया. मालिशेव ने अपनी सिगरेट केस निकाल कर उसे सिगरेट पेश की. जवाब में तुर्बीन ने माचिस की तीली जलाई. दो लाल सितारे जल उठे, और तभी फ़ौरन समझ में आ गया कि काफी अन्धेरा हो गया है. मालिशेव ने परेशानी से ऊपर की ओर देखा, जहाँ दो धुंधले आर्क लैम्प जल रहे थे, फिर वह बाहर कॉरीडोर में आया.

“लेफ्टिनेंट मिश्लायेव्स्की. यहाँ आइये. सुनिए: आपको इस बिल्डिंग की समूची प्रकाश व्यवस्था की ज़िम्मेदारी सौंपता हूँ. कम से कम समय में यहाँ प्रकाश की व्यवस्था करने की कोशिश कीजिये. इस काम में इतनी योग्यता प्राप्त करें कि किसी भी पल, आप उसे पूरी बिल्डिंग में न केवल जला सकें, बल्कि बुझा भी सकें. और प्रकाश व्यवस्था की पूरी ज़िम्मेदारी आपकी है.”

मिश्लायेव्स्की ने सैल्यूट किया, झटके से मुड़ा. बिगुलवादक चीखा और उसने बिगुल बजाना रोक दिया. मिश्लायेव्स्की एड़ें खटखटाते हुए – टॉप-टॉप-टॉप,- प्रमुख सीढ़ी से इतनी तेजी से फिसला मानो स्की पर फिसल रहा हो. एक मिनट के पश्चात कहीं नीचे उसकी मुक्के मारने की ज़ोरदार आवाज़ और कमांड्स की चीखें सुनाई दीं. और उनके जवाब में, प्रमुख प्रवेश द्वार में, जहाँ चौड़ा तिकोना गलियारा जाता था, अलेक्सान्द्र के पोर्ट्रेट को धुंधली चमक देकर , रोशनी भभक उठी. ख़ुशी के मारे मालिशेव का मुँह खुल गया और उसने तुर्बीन से कहा:

“ओह,नहीं, शैतान ले जाए...ये वाकई में ऑफिसर है. देखा?

और नीचे सीढ़ियों पर एक आकृति दिखाई दी जो धीरे धीरे सीढ़ियों पर ऊपर की ओर जा रही थी. जब वह पहले मोड़ पर मुडी,तो रेलिंग पर झुके हुए मालिशेव और तुर्बीन ने उसे देखा.  आकृति अपनी बीमार,कमजोर टांगों पर चल रही थी, और अपना सफ़ेद सिर हिला रही थी. आकृति पर चांदी के बटन और हरे रंग के बटनहोल वाला चौड़ा दो पल्लों वाला जैकेट था. उसके थरथराते हाथों में भारी-भरकम चाभी थी. मिश्लायेव्स्की पीछे से चढ़ रहा था और बीच-बीच में चिल्ला रहा था:

“जोश से,जोश से,बुढ़ऊ! ये क्या धागे पर लटकी जूँ की तरह क्या रेंग रहे हो?”

“जनाब...जनाब...” बूढा घिसटते हुए हौले से बुदबुदाया. अँधेरे से करास लैंडिंग पर अवतरित हुआ, उसके पीछे दूसरा, ऊंचा ऑफिसर, फिर दो कैडेट्स और,अंत में नुकीले सिरे वाली मशीनगन. आकृति भय से लड़खड़ाई, झुकी, झुकती गई और कमर तक मशीनगन के सामने झुक गई.    

“युवर ऑनर,” वह बुदबुदाई.

ऊपर आकृति ने थरथराते हाथों से, आधे अँधेरे में टटोलते हुए दीवार पर लगा हुआ एक लंबा बॉक्स खोला, और उसके भीतर से एक सफ़ेद धब्बा झांका. बूढ़े ने कहीं हाथ डाला, कुछ हिलाया, और पल भर में लॉबी का ऊपरी हिस्सा, असेम्बली हॉल का प्रवेश और कॉरीडोर रोशनी में नहा गया.

अन्धेरा मुड़ कर उसके आख़िरी छोरों तक भाग गया. मिश्लायेव्स्की ने चाभी फ़ौरन अपने हाथ में ले ली, और, बॉक्स में हाथ डालकर, खटखट करते हुए काले हैंडल्स से खेलने लगा. रोशनी, जो अब तक इतनी चकाचौंध कर रही थी,कि गुलाबी रंग में बदल रही थी, कभी जलने लगती, कभी बुझ जाती. हॉल में रोशनी के गोले चमक जाते और बुझ जाते. अप्रत्याशित रूप से कॉरीडोर के अंत में दो गोले जल उठे, और अन्धेरा, कलाबाजियां खाते हुए पूरी तरह भाग गया.

“कैसा है? ऐ!” मिश्लायेव्स्की चिल्लाया.

“बुझ गई,” नीचे, लॉबी के गहरे हिस्से से आवाजें आईं.

“है! जल रही है!” नीचे से चिल्लाए.

काफ़ी देर खेल चुकने के बाद, मिश्लायेव्स्की ने आखिरकार हॉल, कॉरीडोर, अलेक्सान्द्र के ऊपर वाले रिफ्लेक्टर में उजाला कर दिया, बॉक्स को बंद कर दिया और चाभी जेब में डाल दी.

“जा, बुढ़ऊ, जाकर सो जा,” उसने शांति से कहा, “सब कुछ बिल्कुल ठीक है.”

बूढ़े ने अपराध भाव से आधी अंधी आंखें झपकाते हुए पूछा:

“और चाभी? चाभी तो...युवर हाईनेस...कैसे? क्या,आपके पास रहेगी?

“चाभी मेरे पास रहेगी. मेरे ही पास.”

बूढा कुछ और थरथराया और धीरे धीरे जाने लगा.

“कैडेट!”

एक मोटा,लाल चहरे वाला कैडेट अपना स्टाक खड़खड़ाते हुए अटेंशन की मुद्रा में निश्चल खडा हो गया.

“बॉक्स के पास बटालियन कमांडर को, सीनियर ओफिसर को, और मुझे ही बेरोकटोक जाने देना. किसी और को नहीं. ज़रुरत पड़ने पर, तीनों में से किसी एक के हुक्म से,बॉक्स को खोल सकते हो,मगर सावधानी से, ताकि किसी भी हालत में स्विचबोर्ड को नुक्सान न पहुंचे.”

“जी, लेफ्टिनेंट महाशय.” 

मिश्लायेव्स्की ने तुर्बीन को पकड़ा और फुसफुसा कर कहा:

“ “मैक्सिम-तो...देखा?

“माय गॉड...देखा, देखा,” तुर्बीन फुसफुसाया.

बटालियन कमांडर असेम्बली हॉल के प्रवेश द्वार के पास खडा था,और उसकी तलवार की चांदी की नक्काशी पर हज़ारों रोशनियाँ झिलमिला रही थीं. उसने इशारे से मिश्लायेव्स्की को अपने पास बुलाया और कहा,

“तो,लेफ्टिनेंट, मुझे खुशी है कि आप हमारी बटालियन में आ गए. शाबाश.”

“कोशिश करके मुझे खुशी हुई, कर्नल महाशय.”

“आप यहाँ तापन (गरमाने का – अनु.) का इंतज़ाम भी कर दीजिये, ताकि कैडेट्स की शिफ्ट्स को गरमाहट मिले, और बाकी सारे इंतज़ाम मैं खुद कर लूँगा. आपको खिलाऊंगा और वोद्का भी लाऊंगा, थोड़ी सी मात्रा में, मगर जो गरमाने के लिए पर्याप्त होगी.”

मिश्लायेव्स्की ने कर्नल महाशय की ओर बड़ी प्यारी मुस्कान बिखेरी और प्रभावशाली ढंग से अपना गला साफ़ किया:

“एक्...क्म्...”

तुर्बीन  ने आगे कुछ नहीं सुना. रेलिंग के ऊपर झुककर, उसने सफ़ेद सिर वाली आकृति से नज़र नहीं हटाई, जब तक कि वह नीचे लुप्त नहीं हो गई. एक बेवजह उदासी ने तुर्बीन  को दबोच लिया. वहीं,ठंडी रेलिंग के पास अत्यंत स्पष्ट रूप से उसके सामने याद कौंध गई.    

...जिम्नेशियम के सभी उम्र के विद्यार्थियों का झुण्ड बड़े जोश में इसी कॉरीडोर में टूटा पड़ रहा था. हट्टाकट्टा मक्सिम, विद्यार्थियों का सीनियर केयरटेकर, दो काली आकृतियों को खींचते हुए तेज़ी से खींचते हुए सबके सामने लाया.

“ठीक है, ठीक है, ठीक है, ठीक है,” वह बड़बड़ा रहा था, “ट्रस्टी महाशय के आगमन के शुभ अवसर पर, इंस्पेक्टर महोदय तुर्बीन महाशय और मिश्लायेव्स्की महाशय को देखकर खुश हो जायेंगे. उनके लिए यह खुशी की बात होगी. गज़ब की खुशी वाली!”

सोचना पडेगा कि मक्सिम के अंतिम शब्दों में अत्यंत कटु व्यंग्य था. सिर्फ विकृत विचारों वाले व्यक्ति को ही तुर्बीन महाशय और मिश्लायेव्स्की महाशय का अवतार खुशी प्रदान कर सकता था, और वह भी ट्रस्टी महाशय के आगमन के प्रसन्न अवसर पर.    

मिश्लायेव्स्की महाशय का, जिसे मक्सिम ने बाएं हाथ से कसकर पकड़ रखा था, ऊपरी होंठ आरपार कट गया था, और बाईं आस्तीन धागे से लटक रही थी. तुर्बीन महाशय का,जिन्हें वह दायें हाथ से घसीट रहा था, बेल्ट ही गायब हो गया था, और न सिर्फ कमीज़ के, बल्कि पतलून की सामने वाली काट से सभी बटन उड़ गए थे, जिससे तुर्बीन महाशय का शरीर और अंतर्वस्त्र भी बेहूदे ढंग से सबके सामने दिखाई दे रहे थे.

“हमें छोड़ दो,प्यारे मक्सिम, डियर,” खून से लथपथ चेहरों पर बुझती हुई आंखों से बारी-बारी से मक्सिम की ओर देखते हुए तुर्बीन और मिश्लायेव्स्की उसे मना रहे थे.

“हुर्रे! खींच उसे, माक्स दि ग्रेट!” पीछे से उत्तेजित जिम्नेशियम के विद्यार्थी चिल्लाए. “ऐसा कोई क़ानून नहीं है, कि दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के चेहरे बिना सज़ा के बिगाड़े जाएँ! ”

‘आह, माय गॉड, माय गॉड! उस समय सूरज था, शोर और खड़खड़ाहट थी. और मक्सिम भी तब वैसा नहीं था, जैसा अब है, - सफ़ेद,दुखी और भूखा.   मक्सिम के सिर पर काला जूतों का ब्रश था, जिसे सिर्फ कहीं कहीं सफ़ेद धागे छू रहे थे, मक्सिम के हाथ फौलाद के चिमटों जैसे थे, और गर्दन में गाड़ी के पहिये जितना बड़ा मैडल था... आह, पहिया, पहिया. तू बस “B” गाँव से जा रहा था,N चक्कर लगाते हुए, और पहुँचा पत्थर के वीराने में. माय गॉड. कैसी ठण्ड है. अब सुरक्षा करनी चाहिए...मगर किसकी? वीराने की? कदमों की आहट  की?...क्या वाकई में तुम, तुम, अलेक्सान्द्र, बरदिनो रेजिमेंट से इस मरते हुए घर को बचा सकोगे? जागो, उन्हें कैनवास से बाहर लाओ! वे निश्चित ही पित्ल्यूरा को हरा देते.’

तुर्बीन के पैर अपने आप उसे नीचे की ओर ले चले.

“मक्सिम!” वह चीखना चाहता था, फिर वह बार-बार रुकने लगा और अंत में पूरी तरह रुक गया. उसने नीचे मक्सिम की कल्पना की,तहखाने वाले छोटे से क्वार्टर में,जहाँ चौकीदार रहते थे. शायद, भट्टी के पास कंपकंपा रहा है, सब कुछ भूल गया है और रोता रहेगा. और यहाँ और वहाँ दुःख तो गले-गले तक है. इस सब पर थूक देना चाहिए. बहुत हो चुकी भावुकता. पूरी ज़िंदगी भावुक बने रहे. बस हो गया.

*** 

मगर फिर भी,जब तुर्बीन ने चिकित्सा सहायकों को छुट्टी दे दी, तो उसने अपने आप को खाली, धुंधली कक्षा में पाया. कोयले के धब्बों जैसे ब्लैकबोर्ड दीवारों से देख रहे थे. डेस्कें कतारों में थीं. वह खुद को रोक न पाया, ढक्कन हटाया और बैठ गया. मुश्किल हो रही थी, कठिन और असुविधाजनक था. काला ब्लैकबोर्ड कितना नज़दीक था. हाँ, कसम खाता हूँ, कसम से कहता हूँ, वो ही कक्षा है, या बगलवाली, क्योंकि यहाँ, इस खिड़की से, शहर का वही नज़ारा है. ये रहा मृत विश्वविद्यालय का विशाल समुदाय. एवेन्यू दर्शाते हुए सफ़ेद तीर, घरों के डिब्बे, अँधेरे की खाईयां, दीवारें, आसमानी ऊंचाइयां...

और खिड़कियों में वास्तविक ऑपेरा “क्रिसमस की रात”, बर्फ और रोशनियाँ, थरथराती हुई, टिमटिमाती हुई... “काश, मैं जान पाता कि स्वितोशिनो में क्यों गोलियां चल रही हैं?” बिना नुक्सान पहुंचाए और कहीं दूर, गोले, जैसे रूई पर गिर रहे हैं, बू-ऊ, बू-ऊ...

“बस हो गया.”

तुर्बीन ने डेस्क का ढक्कन गिरा दिया, बाहर कॉरीडोर में आया और संतरियों की बगल से होते हुए लॉबी से होकर रास्ते पर आ गया. प्रमुख प्रवेश द्वार पर एक मशीन गन थी. रास्ते पर आने-जाने वाले बहुत कम थे, और तेज़ बर्फ गिर रही थी.

 

***

 

 

कर्नल महाशय की रात बहुत व्यस्त रही. उन्होंने जिम्नेशियम और उससे दो कदम दूर स्थित मैडम अंजू के बीच कई चक्कर लगाए. आधी रात के करीब सारी व्यवस्था अच्छी तरह और पूरी रफ़्तार से काम करने लगी. जिम्नेशियम में, हौले-हौले सनसनाते हुए गोलों वाले पोटाश लैम्प गुलाबी रोशनी बिखेर रहे थे. हॉल काफी गरम हो गया, क्योंकि पूरी शाम और पूरी रात हॉल के लाइब्रेरी वाले हिस्सों में पुरानी भट्टियों में आग जलती रही. मिश्लायेव्स्की के हुक्म से कैडेट्स ने साहित्यिक पत्रिकाओं “नोट्स फ्रॉम द फादरलैंड” और “लाइब्रेरी फॉर रीडिंग” के 1863  के अंकों से सफेद भट्टियां जलाईं, और फिर पूरी रात लगातार, कुल्हाड़ियों के शोर में पुराने डेस्कों से उन्हें गरमाते रहे. सुद्ज़िन्स्की और मिश्लायेव्स्की अल्कोहोल के दो-दो ग्लास लेकर (कर्नल महाशय ने अपना वादा पूरा किया था, ठीक - आधी बाल्टी), दो दो घंटे बारी-बारी से कैडेट्स की बगल में सोते रहे, ओवरकोट में, भट्टी के पास, और लाल-लाल लपटें और परछाइयां उनके चेहरों पर खेलती रहीं. फिर वे उठते रहे, पूरी रात एक संतरी से दूसरे संतरी के पास जाते रहे, पोस्ट्स का निरीक्षण करते रहे. और करास, मशीनगनर-कैडेट्स के साथ गार्डन के निर्गम द्वारों पर पहरा देता रहा. और भेड़ की खाल के ओवरकोटों में, हर घंटे ड्यूटी बदलते, मोटी नाली वाली तोपों के पास चार कैडेट्स तैनात थे.            

मैडम अंजू के यहाँ भट्टी पूरे जोश से जल रही थी, पाइपों में सनसनाहट हो रही थी और वे गरज रहे थे, एक कैडेट दरवाज़े के पास ड्यूटी पर खडा था, प्रवेश द्वार के पास खडी मोटरसाइकल से बिना आंख नहीं हटाए, पाँच कैडेट्स दुकान में अपने ओवरकोट बिछाकर मुर्दों की तरह सो रहे थे. आखिर रात के करीब एक बजे कर्नल महाशय मैडम अंजू  के यहाँ आराम करने आये, वह उबासियाँ ले रहे थे, मगर फोन पर किसी से बात करते हुए, अभी तक लेटे नहीं थे. और रात के दो बजे, साईरन बजाते हुए मोटरसाइकल आई, और उसमें से भूरे ओवरकोट में एक फ़ौजी उतरा.

“आने दो. ये मेरे पास आया है.”

उस आदमी ने कर्नल को रस्सी से अच्छी तरह बंधा हुआ, कपडे में लिपटा एक बड़ा भारी पैकेट दिया. कर्नल महाशय ने उसे अपने हाथ से दुकान के अंत में रखी हुई छोटी सी सेफ में रखा, और उस पर ताला लगा दिया. भूरा आदमी अपनी मोटर साइकल पर वापस चला गया, और कर्नल महाशय गैलरी में चले गए, वहाँ अपना ओवरकोट बिछाकर, सिर के नीचे चीथड़ों का ढेर रखकर लेट गए और, ड्यूटी वाले कैडेट को यह हिदायत देकर कि उन्हें ठीक साढ़े छह  बजे जगा दे, सो गए.                   

 

 

7

 

 

देर रात को दुनिया की सबसे अच्छी जगह – व्लदीमिर हिल्स – पर कोयले जैसा अन्धेरा छाया था. ईंटों की पगडंडियाँ और गलियाँ अनछुई बर्फ की फूली-फूली अनंत पर्त से ढंकी थीं.

शहर की एक भी रूह, एक भी पाँव सर्दियों में इस बहुमंजिला विशाल टीले को परेशान नहीं करता था. रात को हिल्स पर कौन जाएगा, और वह भी ऐसे समय में? बेहद डरावना है वहाँ पर! बहादुर आदमी भी नहीं जाएगा. और वहाँ करने के लिए भी कुछ नहीं है. सिर्फ एक प्रकाशित जगह: डरावने, भारी चबूतरे पर सौ सालों से फ़ौलाद का व्लदीमिर खड़ा है और हाथ में तीन साझेन ऊंचा क्रॉस (एक साझेन=7फुट अनु.) लिए खडा है. हर शाम, जब अन्धेरा बर्फ के ढेरों, ढलानों और छतों को ढांक देता है, क्रॉस जल उठता है और पूरी रात जलता रहता है. और दूर तक दिखाई देता है, चालीस मील दूर के अंधेरों में, जो मॉस्को की तरफ जाते हैं. मगर यहाँ, वह थोड़ा ही चमकता है, नीचे गिरते हुए, चबूतरे की हरी-काली किनार को दबाकर, बिजली की धुंधली रोशनी, कटघरे और बीच वाली छत से चिपके जाली के हिस्से को अँधेरे से बाहर निकालती है. बस, और कुछ नहीं. और आगे, आगे! ... पूरा अन्धेरा. अँधेरे में पेड़ विचित्र दिखाई देते हैं, मानो मलमल से ढंके झुम्बर बर्फ की टोपियाँ पहने खड़े हैं, और चारों तरफ बर्फ के ढेर – गले-गले तक ऊंचे. डरावना है. 

खैर, बात समझ में आती है, एक भी आदमी यहाँ नहीं फटकेगा. सबसे ज़्यादा बहादुर भी. सबसे महत्वपूर्ण बात - कोई ज़रुरत ही नहीं है. शहर में बात कुछ और ही है. रात बेचैन है, महत्त्वपूर्ण है, युद्ध की रात है. स्ट्रीट लैम्प मोतियों जैसे जल रहे हैं. जर्मन सो रहे हैं, मगर अधखुली आंखों से सो रहे हैं. सबसे अंधेरी गली में अचानक नीला प्रकाश कोन चमकता है.  

“Halt!”

कर्...कर्... सड़क के बीच में तसले जैसे हेलमेट पहने हुए पैदल सैनिक रेंग रहे हैं. कानों पर काले मफलर....कर्... बंदूकें कन्धों के पीछे नहीं,मगर तैयार हैं. जर्मनों के साथ मज़ाक नहीं करना चाहिए, कम से कम इस समय... चाहे जो भी हो, मगर जर्मन्स – संजीदा किस्म के होते हैं.

गोबर के भौंरों की तरह.

“डॉक्यूमेंट!”

“Halt!”

लालटेन से प्रकाश पुंज. एहे !...

और ये रही काली चमचमाती कार, चार हेडलाईट्स वाली. साधारण कार नहीं है, क्योंकि शीशे वाली गाडी के पीछे आराम से सुरक्षा दल चल रहा है – आठ घुड़सवार. मगर जर्मनों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता.

कार पर चिल्लाते हैं:

“Halt!”

“कहाँ? कौन है? किसलिए?

“कमांडर,घुड़सवार दस्ते का जनरल बिलारूकव.”

खैर, ये, बेशक, अलग ही बात है. ये, प्लीज़.

गाडी के शीशों में, भीतर, गहराई में, विवर्ण मुच्छड़ चेहरा. जनरल के ओवरकोट के कन्धों पर अस्पष्ट चमक.

और जर्मन तसलों ने सैल्यूट किया. असल में, दिल की गहराई में उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था, चाहे वह कमांडर बिलारूकव हो, या पित्ल्यूरा, या इस घटिया देश में ज़ुलू लोगों का नेता. मगर फिर भी...जब ज़ुलू लोगों के बीच जीना है, तो उन्हीं जैसा चिल्लाना होगा.

तसलों ने सैल्यूट किया. अंतर्राष्ट्रीय शिष्टाचार, जैसा कहते हैं.

 

 

*** 

 

रात महत्वपूर्ण है, युद्ध की रात है. मैडम अंजू की खिड़कियों से प्रकाश की किरणें आ रही हैं. किरणों में दिखाई देती हैं महिलाओं की टोपियाँ,और कौर्सेट्स, और पतलूनें, और सिवस्तोपल की तोपें. और घूम रहा है,घूम रहा है कैडेट-पेंडुलम, कंपकंपाता है, संगीन से शाही मोनोग्राम बनाता है. और वहाँ, अलेक्सान्द्रव्स्की जिम्नेशियम में, गोले इतना प्रकाश बिखेर रहे हैं, मानो बाल-नृत्य में हों. मिश्लायेव्स्की,वोद्का की पर्याप्त मात्रा से तरोताज़ा होकर घूम रहा है, घूम रहा है, महान अलेक्सान्द्र की ओर देख लेता है, स्विचों वाले बक्से की ओर देखता है. जिम्नेशियम में काफी प्रसन्न और गंभीर वातावरण है. आखिर आठ मशीनगन्स और कैडेट्स हैं – ये स्टूडेंट्स नहीं हैं!...वे, जानते हैं, युद्ध करेंगे. मिश्लायेव्स्की की आंखें, खरगोश की आंखों की तरह – लाल हैं. न जाने कौन सी रात है,और नींद कम है,और वोद्का ज़्यादा है, और चिंता काफ़ी है. खैर, शहर में, चिंता से निपटना आसान है. अगर आदमी निर्दोष है, तो प्लीज़, घूमो फिरो. ये सच है कि पांच बार रोकते हैं. मगर यदि डॉक्युमेन्ट्स साथ हों, तो जा सकते हो. अचरज की बात है कि रात को घूमते हो, मगर जा सकते हो         

मगर हिल्स पर कौन चढ़ेगा? सरासर बेवकूफी है. और वहाँ, उतनी ऊंचाई पर हवा...बर्फीले टीलों के गलियारों से गुज़रता है,तो शैतानी आवाजों का एहसास होता है. अगर कोई हिल्स पर चढ़ भी जाए, तो वह वाकई में कोई बहुत बहादुर व्यक्ति ही होगा, जो दुनिया के सभी शासनों के बीच अपने आप को कुत्तों के झुण्ड में भेड़िये की तरह महसूस करेगा. पूरी तरह से दयनीय, जैसे ह्यूगो का पात्र हो. ऐसा, जिसे शहर में दिखाई देना ही नहीं चाहिए, और अगर दिखाई भी देना हो, तो अपनी जोखिम और अपने बलबूते पर. अगर गश्ती दलों के बीच से फिसल जाते हो,तो – किस्मत अच्छी है, अगर न निकल सको, तो – अफ़सोस न करना. अगर ऐसा आदमी हिल्स पर पहुँच भी जाए, तो इंसानियत के नाते तहे दिल से उसके लिए अफसोस करना होगा.

खैर ऐसा तो आप कुत्ते के लिए भी नहीं चाहेंगे. हवा तो – बर्फीली है. पाँच मिनट भी वहाँ रहो तो घर जाने का मन होगा, और...

“कितने घंटों से पी रहे हो? एह...एह...जम जायेंगे!...”

ख़ास बात ये है कि उद्यानों और पानी के टॉवर की बगल से होकर ऊपरी शहर में जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है, वहाँ, मुलाहिज़ा फरमाइए, मिखाइलोव्स्की गली में, मोनेस्ट्री-हाउस में, प्रिन्स बिलारूकव का स्टाफ हेडक्वार्टर है. और हर मिनट – घुड़सवार दस्ते के साथ कार, या मशीनगनों वाली कार, या...

“ऑफिसर्स, आह, रूह निकल जायेगी!”

गश्त, गश्त, गश्त.

और छतों से नीचे-नीचे जाते हुए, निचले शहर - पदोल- में जाने का तो सवाल ही नहीं है, क्योंकि अलेक्सान्द्रव्स्काया स्ट्रीट पर, जो हिल्स की तलहटी का चक्कर लगाते हुए जाती है, पहली बात, स्ट्रीट लैम्प्स की पूरी कतार है, और दूसरी बात, जर्मन्स,जहन्नुम में जाएँ! गश्त पे गश्त! क्या सुबह तक? सुबह तक तो ठिठुर जायेंगे. बर्फीली हवा – गूं -ऊं ...- वृक्ष वीथियों से जाओ, तो ऐसा आभास होता है, जैसे जाली के पास बर्फीले टीलों में इंसानों की आवाज़ें बुदबुदा रही हैं.

“ठिठुर जायेंगे, किर्पाती!”

“बर्दाश्त करो, नेमलिका, बर्दाश्त करो. गश्ती दल सुबह तक सोने चला जाएगा. हम उछल कर किनारे पर पहुँच जायेंगे, सीचिखा के यहाँ गरमाएंगे.”

जाली के पास अँधेरे में हलचल होती है, और ऐसा प्रतीत होता है कि तीन काली परछाईयाँ मुंडेर से चिपक जाती हैं, कुछ फैलकर नीचे देखती हैं, जहाँ, अलेक्सान्दोव्स्काया स्ट्रीट ऐसी लगती है, मानो हथेली पर रखी हो. वो खामोश है, खाली है, मगर अचानक दो नीले प्रकाश पुंज भागते हैं – जर्मन कारें उड़ती हुई गुज़रती हैं या काले तसलों की पंखुड़ियां दिखाई देती हैं और उनसे छोटी-छोटी, नुकीली परछाईयाँ... और जैसे ये नज़ारा हथेली पर रखा हो...

हिल्स पर एक परछाई अलग होती है, और उसकी भेडिये जैसी तीखी आवाज़ भर्राती है:

“ए...नेमलिका...चल जोखिम उठाते हैं. हो सकता है. फांद जाएँ...”

हिल्स पर कुछ भी ठीक नहीं है.

 

 

***  

 

 

और महल में भी, ज़रा सोचिये, कुछ भी अच्छा नहीं था. एक अजीब-सी, रात में अशोभनीय सी हलचल हो रही थी. हॉल से होकर, जहाँ गहरी सुनहरी कुर्सियां हैं, लकड़ी के चमचमाते फर्श पर बूढा, कल्लों वाला सेवक चूहे की तरह भागा. कहीं दूर रुक रुक कर इलेक्ट्रिक बेल की आवाज़ आई, किसी की एड़ें खनखनाईं. शयन कक्ष में मुकुट वाली धुंधली फ्रेमों में जड़े आईने एक विचित्र अनैसर्गिक चित्र परावर्तित कर रहे थे. एक दुबला, सफ़ेद होते बालों वाला, लोमड़ी जैसे, चर्मपत्र के समान चहरे पर कटी हुई मूंछों वाला आदमी मूल्यवान चिर्केसी कोट में, जिस पर चांदी का गोलियों का पट्टा था, आईनों के पास घूम रहा था. उसके निकट तीन जर्मन और दो रूसी ऑफिसर्स मंडरा रहे थे. उनमें से एक चिर्केस में था, बीच वाले आदमी की तरह, दूसरा जैकेट और लेगिंग्स में था, जो घुड़सवार दस्ते को प्रदर्शित करते थे, मगर गेटमन वाले नुकीले शोल्डर स्ट्रैप्स में था. वे लोमड़ी जैसे आदमी को वस्त्र बदलने में सहायता कर रहे थे. चेर्केसियन कोट, चौड़ी पतलून, चमचमाते जूते पहनाये गए. उस आदमी को जर्मन मेजर की युनिफॉर्म पहनाई गई, और वह सैंकड़ों अन्य जर्मन मेजरों जैसा ही नज़र आ रहा था. इसके बाद दरवाज़ा खुला,महल के धूलभरे परदे दूर हुए और जर्मन सेना के फ़ौजी डॉक्टर वाले युनिफॉर्म में एक और आदमी ने प्रवेश किया. वह अपने साथ पैकेट्स का एक बड़ा गट्ठा लाया था, उन्हें खोलकर अपने सधे हुए हाथों से नवजात जर्मन मेजर के सिर पर इस तरह पट्टी बांधी कि सिर्फ लोमड़ी जैसी दाईं आंख और पतला मुँह ही दिखाई दे रहा था, जो उसके सुनहरे और प्लेटिनम जड़े दांतों को थोड़ा सा खोल रहा था.

महल में अशोभनीय हरकत कुछ देर और चलती रही. बाहर आकर जर्मन ने सुनहरी कुर्सियों वाले और उसके बगल वाले हॉल में इकट्ठा हुए किन्हीं ऑफिसर्स को जर्मन में बताया कि रिवाल्वर से गोलियां निकालते हुए गलती से मेजर वॉन श्राट्ट की गर्दन पर घाव हो गया और उन्हें फ़ौरन जर्मन अस्पताल में भेजना होगा. कहीं टेलीफोन बजा, कहीं और कोई पंछी गा उठा – पिऊ! इसके बाद महल के नक्काशी किये हुए मेहराबदार प्रवेश द्वार से होकर रेड क्रॉस वाली खामोश जर्मन कार बगल वाले प्रवेश द्वार के पास आई और बैंडेज बंधे, ओवरकोट में कसकर लपेटे हुए रहस्यमय जर्मन को स्ट्रेचर पर बाहर लाया गया, और उस विशेष कार का दीवार जैसा दरवाज़ा सरकाकर उसमें रख दिया गया. प्रवेश द्वार से बाहर निकलते हुए मोड़ पर दबी आवाज़ में हॉर्न बजाकर कार चली गई.

महल में सुबह तक भगदड़ और उत्सुकता बनी रही, पोर्ट्रेट्स वाले और सुनहरे हॉल में बत्तियां जलती रहीं, बार-बार टेलीफोन बजता, और सेवकों के चेहरे जैसे बेशर्म हो गए, और उनकी आंखों में खुशी की चमक दिखाई देती....

 

महल की पहली मंजिल पर एक छोटे से संकरे कमरे में टेलीफोन के पास आर्टिलरी कर्नल की यूनिफ़ॉर्म में एक आदमी दिखाई दिया. उसने सावधानी से सफ़ेदी किये हुए छोटे से कमरे का, जो बिलकुल भी महल का कमरा नहीं लगता था, दरवाज़ा बंद किया और तभी टेलीफोन का चोगा उठाया. उसने एक्सचेंज पर बैठी उन्निद्र महिला से 212 नंबर देने की प्रार्थना की. और उसे प्राप्त करके, कहा ‘धन्यवाद, और कठोरता और चिंता से भंवे सिकोड़कर आत्मीयता और खोखलेपन से पूछा;

“क्या ये मोर्टार डिविजन का हेडक्वार्टर है?

 

*** 

 

ओय, ओय! कर्नल मालिशेव को साढ़े छह बजे तक सोना नसीब नहीं हुआ, जैसा कि उसने सोचा था. रात के चार बजे मैडम अंजू की दुकान में पंछी बेहद जिद्दीपन से गाने लगा, और ड्यूटी पर तैनात कैडेट को कर्नल महाशय को जगाना ही पडा. कर्नल महाशय गज़ब की फुर्ती से उठे और फ़ौरन और स्पष्ट रूप से सोचने लगे, मानो कभी सोये ही नहीं थे. और नींद में बाधा डालने के लिए कर्नल महाशय को कैडेट से कोई शिकायत भी नहीं थी. चार बजने के कुछ ही देर बाद मोटरसाइकल उन्हें कहीं ले गई, और जब पाँच बजते-बजते कर्नल मैडम अंजू की दुकान में वापस लौटे, तो उन्होंने वैसी ही उत्तेजना और कठोरता से युद्ध की मनस्थिति  में त्यौरियां चढ़ाईं, जैसे महल के उस कर्नल ने चढ़ाईं थीं, जिसने कंट्रोल रूम से मोर्टार डिविजन को फोन किया था.          

              

   

  

***

 

 

 

सुबह सात बजे, गुलाबी गोलों से प्रकाशित बरदिनो के मैदान में  प्रात:पूर्व की ठण्ड में सिकुड़ता, गुनगुनाता,बुदबुदाता,वही लंबा कैटरपिलर खडा था,जो सीढ़ियों से अलेक्सान्द्र के पोर्ट्रेट की तरफ गया था. स्टाफ़ कैप्टेन उनसे कुछ दूर ऑफिसर्स के ग्रुप में खड़ा था और खामोश था. अजीब बात थी, कि उसकी आंखों में भी उत्तेजना की वैसी ही दबी-छुपी चमक थी, जो कर्नल मालिशेव की आंखों में सुबह चार बजे से थी.  मगर जिसने भी इस महत्वपूर्ण रात को कर्नल और स्टाफ-कैप्टेन को देखा होगा, फ़ौरन विश्वास के साथ कह सकता था कि उसमें क्या फर्क था: स्तुद्ज़िन्स्की की आंखों में – पूर्वाभास की उत्तेजना थी, और मालिशेव की आंखों में विशिष्ठ चमक थी, जब सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट होता है, समझ में आता है और घृणित प्रतीत होता है. स्तुद्ज़िन्स्की के ओवरकोट के कफ़ से डिविजन के तोपचियों की लम्बी सूची झाँक रही थी.          

स्तुद्ज़िन्स्की ने अभी-अभी रोल-कॉल लिया था और उसने इत्मीनान कर लिया था, कि बीस लोग कम हैं. इसलिए सूची पर स्टाफ-कैप्टेन की उँगलियों की तेज़ हरकत के निशान थे: वह कुचला हुआ था.

  

ठन्डे हॉल में धुँआ तैर रहा था – अफसरों के ग्रुप में धूम्रपान हो रहा था.

ठीक सात बजे संरचना के सामने कर्नल मालिशेव प्रकट हुआ, और, पिछले दिन की तरह ही हॉल में उसका स्वागत ज़ोरदार गर्जना से किया गया. पिछले दिन की तरह ही कर्नल महाशय की कमर में चांदी की तलवार थी, मगर किन्हीं कारणों से चांदी की नक्काशी पर हज़ारों बत्तियां नहीं खेल रही थीं. कर्नल महाशय के दायें कूल्हे पर होल्स्टर में रखा हुआ रिवॉल्वर था,और यह होल्स्टर, शायद, भुलक्कडपन के कारण खुला रह गया था, जो मालिशेव के स्वभाव में शामिल नहीं था.  

कर्नल डिविजन के सामने बोलने लगा, दस्ताने वाला बायाँ हाथ उसने तलवार की मूठ पर रखा, और दायाँ, बिना दस्ताने वाला हौले से होल्स्टर पर रखकर उसने ये शब्द कहे:

“मोर्टार डिविजन के ऑफिसर्स और तोपचियों को हुक्म देता हूँ, कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें! रातों रात हमारी स्थिति में, सेना की स्थिति में, और मैं तो कहूंगा, युक्रेन में शासकीय स्थिति में अचानक और तीव्र परिवर्तन हो गए हैं. इसलिए आपके सामने घोषणा करता हूँ कि डिविजन भंग की जाती है! आपमें से हरेक को सुझाव देता हूँ कि अपनी युनिफ़ॉर्म से सभी प्रतीकात्मक चिह्न हटा दें और इस कार्यशाला से जो चाहें उठा लें, अपने अपने घरों को चले जाएँ, उनके भीतर छुप कर बैठ जाएँ, खुद को किसी भी तरह से ज़ाहिर न होने दें और मेरे नए आह्वान का इंतज़ार करें!”

वह खामोश हो गया और जैसे इससे उस निपट खामोशी पर जोर दिया जो हॉल में विद्यमान थी. लालटेनों ने भी फुसफुसाना बंद कर दिया, तोपचियों की और ऑफिसर्स के ग्रुप की नज़रें हॉल में एक ही बिंदु, कर्नल की कटी हुई मूंछों पर केन्द्रित थीं.

उसने आगे कहा:

“जैसे ही स्थिति में कोई परिवर्तन होगा, ये आह्वान मेरी तरफ से फ़ौरन किया जाएगा. मगर आपको बताना होगा, कि इसकी उम्मीद बहुत कम है...फिलहाल स्वयँ मुझे भी मालूम नहीं है, कि परिस्थिति कैसा मोड़ लेती है, मगर मेरा ख़याल है कि जिस बेहतर बात की उम्मीद आपमें से हर कोई कर सकता है...अं...(कर्नल ने अचानक अगला शब्द चीख कर कहा) बेहतर! आपमें से – उसे दोन भेजा जा सकता है. तो: पूरी डिविजन को हुक्म देता हूँ, उन ऑफिसर्स और कैडेट्स को छोड़कर, जो आज रात पहरे पर थे, फ़ौरन अपने-अपने घरों को चले जाएँ!”

“आ?! आ?! हा, हा,हा!”_ पूरे विशाल समुदाय में सरसराहट होने लगी, और जैसे संगीनें उसमें धंस गईं. बदहवास चेहरे चमक उठे, और जैसे पंक्तियों में कई प्रसन्न आंखें चमक उठीं...

ऑफिसर्स के ग्रुप से निकलकर स्टाफ़ कैप्टेन स्तुद्ज़िन्स्की बाहर निकला,चेहरा कुछ नीला-  फक् पड़ गया था, आंखें तिरछी करते हुए, उसने कर्नल मालिशेव की ओर कुछ कदम बढाए, इसके बाद ऑफिसर्स की तरफ़ देखा. मिश्लायेव्स्की उसकी तरफ़ नहीं, बल्कि कर्नल मालिशेव की मूंछों की ओर ही देखे जा रहा था, मगर चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे अपनी आदत के अनुसार माँ-बहन की गालियाँ देना चाह रहा था. करास फूहड़पन से अपने हाथ कूल्हों पर रखे आंखें झपका रहा था. और नौजवान लेफ्टिनेंटों के छोटे से ग्रुप से अचानक असंबद्ध, विनाशकारी शब्द सरसराया: “अरेस्ट”!...

“क्या बात है? कैसे?” कैडेट्स की कतार में कहीं एक गहरी आवाज़ सुनाई दी.

“अरेस्ट!”

“विश्वासघात!”

स्तुद्ज़िन्स्की ने अप्रत्याशित रूप से और किसी प्रेरणा से सिर के ऊपर चमक रहे गोल को देखा, अचानक होल्स्टर के हत्थे की ओर देखा और चीखा:

“ ऐ, पहली प्लेटून!”

सामने वाली पंक्ति किनारे से टूट गई,उसमें से भूरी आकृतियाँ बाहर निकलीं,और एक अजीब सी भगदड़ मच गई.

“कर्नल महाशय!” पूरी तरह भर्राई आवाज़ में स्तुद्ज़िन्स्की ने कहा, “आपको गिरफ़्तार किया गया है.”

“उसे गिरफ़्तार करो!!” अचानक उन्मादित होकर खनखनाते हुए एक एन्साइन चीखा और कर्नल की ओर बढ़ा.

“रुकिए, महाशय!” स्थिति को समझते हुए करास धीरे से चीखा.

मिश्लायेव्स्की फुर्ती से ग्रुप से उछला,उसने उत्तेजित एन्साइन को उसके ओवरकोट की बांह से पकड़ा और उसे पीछे खींचा.

“मुझे छोडिये,लेफ्टिनेंट महाशय!” कटुता से मुँह टेढ़ा करते हुए एन्साइन चीखा.

“शांत!” कर्नल महाशय की अत्यंत आत्मविश्वासपूर्ण आवाज़ चीखी. हालांकि उसका मुँह भी एन्साइन जैसा ही टेढ़ा हो गया था, उसके चेहरे पर, सच में, लाल धब्बे उभर आये, मगर उसकी आंखों में ऑफिसर्स के पूरे ग्रुप से अधिक आत्मविश्वास था. और सब रुक गए.

“शांत!” कर्नल ने दुहराया. “हुक्म देता हूँ कि अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो जाएँ और मेरी बात सुनें!”

सन्नाटा छा गया, और मिश्लायेव्स्की की दृष्टि अत्यंत सतर्क हो गई. जैसे, उसके दिमाग में पहले ही कोई विचार आ चुका था, और वह कर्नल महाशय से महत्वपूर्ण और अधिक दिलचस्प बातों की प्रतीक्षा कर रहा था,उनसे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण, जो वह पहले ही सूचित कर चुका था.

“हाँ, हाँ,” कर्नल ने अपना गाल हिलाते हुए बोलना शुरू किया. “हाँ, हाँ...अच्छा होता, अगर मैं ऐसी फ़ौज के साथ युद्ध में जाता, जो मुझे खुदा ने भेजी है. बहुत ही अच्छा होता! मगर वो, जो एक स्वैच्छिक-विद्यार्थी के लिए, नौजवान-कैडेट के लिए, हद से हद, एन्साइन के लिए क्षम्य है, किसी भी हालत में आपके लिए क्षम्य नहीं है, स्टाफ-कैप्टेन महाशय!”

यह कहते हुए कर्नल ने स्तुद्ज़िन्स्की को अत्यंत तीक्ष्ण नज़र से देखा. स्तुद्ज़िन्स्की के प्रति कर्नल महाशय की आंखों में क्रोध की चिंगारियां बरस रही थीं. फिर से खामोशी छा गई.

“तो, बात ये है,” कर्नल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा. “ज़िंदगी भर मैंने कोई मीटिंग नहीं की, मगर, अब, लगता है, कि करनी पड़ेगी. ठीक है, मीटिंग करते हैं! तो, अपने कमांडर को गिरफ्तार करने की आपकी ये कोशिश आपके भीतर के देशभक्तों को उजागर करती है, मगर वह ये भी प्रदर्शित करती है कि आप लोग...अं...ऑफिसर्स, कैसे कहूं? अनुभवहीन हैं!

संक्षेप में : मेरे पास समय नहीं है, और, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ,” और अधिक कड़वाहट से और पर्याप्त जोर देते हुए कर्नल ने कहा, “कि आपके पास भी नहीं है. सवाल: आप किसकी रक्षा करना चाहते हैं?”

खामोशी.

“ मैं पूछता हूँ, किसकी रक्षा करना चाहते हैं?” कर्नल ने धमकी भरी आवाज़ में दुहराया.

आंखों में बेहद गर्मजोशी और दिलचस्पी की चिंगारियां लिए मिश्लायेव्स्की ग्रुप से निकलकर आगे आया, उसने सैल्यूट किया और कहा:

“गेटमन की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, कर्नल महाशय.”

“गेटमन की?” कर्नल ने फिर से पूछा. “बढ़िया. डिविजन,अटेंशन!” अचानक वह इस तरह चिंघाडा कि डिविजन थरथरा गई. “सुनो, भाग गया गेटमन आज सुबह करीब चार बजे, शर्मनाक तरीके से हम सब को किस्मत के भरोसे छोड़कर, भाग गया! आख़िरी बदमाश और कायर की तरह भाग गया! आज ही,गेटमन के एक घंटे बाद, वहीं, जहाँ गेटमन भागा था, मतलब,जर्मन ट्रेन में,हमारी फ़ौज का कमांडिंग ऑफिसर, घुड़सवार सेना का जनरल बिलारूकव भी भाग गया. कुछ ही घंटों में हम एक भयानक तबाही के साक्षी होंगे,जब धोखा दिए गए और साहसी कार्य में खींचे गए, आप जैसे लोग कुत्तों की तरह काट दिए जायेंगे. सुनिए: पित्ल्यूरा के पास शहर के बाहरी इलाकों में एक लाख से अधिक फ़ौजी तैनात हैं, और कल का दिन...ये मैं क्या कह रहा हूँ, कल का नहीं, बल्कि आज का,” कर्नल ने खिड़की की ओर हाथ से इशारा किया, जहाँ शहर के ऊपर का आवरण नीला होने लगा था, “स्टाफ़ के कमीनों और इन दो बदमाशों द्वारा, जिन्हें सूली पर लटका देना चाहिए था,फेंक दिए गए अभागे ऑफिसर्स और कैडेट्स की क्षत-विक्षत यूनिट्स पित्ल्यूरा की फौजों से मिलेंगी, जो इनसे बीस गुना ज़्यादा हैं,और हथियारों से सुसज्जित हैं....सुनों, मेरे बच्चों!” अचानक फट गई आवाज़ में कर्नल मालिशेव, जो उम्र में कदापि उनके पिता के समान नहीं, बल्कि वहाँ संगीनों के साथ खड़े सभी के बड़े भाई जितना था,चीखा, “सुनिए! मैं, कैडर ऑफिसर, जिसने जर्मनों के साथ युद्ध को झेला है, जिसके साक्षी हैं स्टाफ-कैप्टेन स्तुद्ज़िन्स्की, अपने विवेक से पूरी ज़िम्मेदारी लेता हूँ, पूरी ज़िम्मेदारी!..आपको चेतावनी देता हूँ! आपको अपने-अपने घर भेज रहा हूँ!! समझ में आया!” वह चीखा.

“हाँ...आ...आ...” समूह ने जवाब दिया और संगीनें हिलने लगीं. और इसके बाद दूसरी रैंक में ज़ोर से, और थरथराते हुए कोई कैडेट रो पडा.

स्टाफ-कैप्टेन स्तुद्ज़िन्स्की ने,पूरी डिविजन के लिए, और,शायद,स्वयँ अपने लिए भी अप्रत्याशित रूप से, एक विचित्र हाव भाव से, जो ऑफिसर्स के लिए अजीब था, दस्ताने वाले हाथ आंखों पर रख लिए, जिससे डिविजन के नामों वाली सूची फर्श पर गिर गई, और रो पडा.    

तब, उससे संक्रमित होकर, और भी बहुत सारे कैडेट्स हिचकियाँ लेने लगे, पंक्तियाँ फ़ौरन बिखर गईं , और रदामेस-मिश्लायेव्स्की की आवाज़ इस बेतरतीब हुड़दंग को दबाते हुए बिगुल वादक पर गरजी:

“कैडेट पाव्लाव्स्की! ‘बीटिंग रिट्रीटबजाओ.”

 

*** 

 

“कर्नल महाशय, क्या जिम्नेशियम की बिल्डिंग को आग लगाने की इजाज़त देंगे?” स्पष्टता से कर्नल की ओर देखते हुए मिश्लायेव्स्की ने पूछा.

“इजाज़त नहीं दूँगा,” नम्रता से और शान्ति से मालिशेव ने उसे जवाब दिया.

“कर्नल महाशय,” मिश्लायेव्स्की ने तहे दिल से कहा, “पित्ल्यूरा को मिल जायेंगे वर्कशॉप, हथियार, और सबसे महत्वपूर्ण” – मिश्लायेव्स्की ने हाथ से दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया, जहाँ लॉबी में सीढ़ियों के ऊपर से अलेक्सान्द्र का सिर दिखाई दे रहा था.

“मिलेगा,” नम्रता से कर्नल ने पुष्टि की.

“तो फिर क्या, कर्नल महाशय?...”

मालिशेव मिश्लायेव्स्की की ओर मुड़ा, ध्यान से उसकी तरफ़ देखते हुए उसने यह कहा:

“लेफ्टिनेंट महाशय, पित्ल्यूरा को तीन घंटे बाद सैकड़ों जीवित प्राणी मिलेंगे, और एक ही बात जिसका मुझे दुःख है, वो यह है कि मैं अपनी जान की और आपकी भी, जो और अधिक मूल्यवान है, कीमत देकर भी उनकी मृत्यु को नहीं रोक सकता. पोर्ट्रेट्स के, तोपों के और संगीनों के बारे में आप मुझसे कुछ भी न कहें.”

“कर्नल महाशय,” मालिशेव के सामने रुक कर स्तुद्ज़िन्स्की ने कहा, “मेरी तरफ से और ऑफिसर्स की तरफ़ से, जिन्हें मैंने बेहूदा ढंग से बर्ताव करने के लिए उकसाया, मेरी क्षमा याचना स्वीकार करें.”

“स्वीकार करता हूँ,” कर्नल ने नम्रता जवाब दिया.

 

***   

जब शहर के ऊपर सुबह का कोहरा छटने लगा तो चपटी नाक वाली तोपें अलेक्सान्द्रव्स्की परेड ग्राउंड पर बगैर तालों के खड़ी थी, स्क्रू निकली हुईं और टूटी हुई राइफलें और मशीनगनें अटारी के गुप्त स्थानों पर बिखरी थीं. बर्फ में, गड्ढों में और तहखानों के गुप्त ठिकानों में कारतूसों के ढेर फेंक दिए गए थे, और हॉल और कॉरीडोर्स में बल्ब रोशनी नहीं फैला रहे थे. मिश्लायेव्स्की के हुक्म से कैडेट्स संगीनों से स्विचों वाला सफ़ेद बोर्ड तोड़ रहे थे.

 

***  

 

खिड़कियों में पूरी तरह नीलाई थी. और इस नीलाई में परेड ग्राउंड पर दो लोग बचे थे, जो सबसे अंत में जा रहे थे – मिश्लायेव्स्की और करास.

“क्या कमांडर ने अलेक्सेई को आगाह कर दिया था?” मिश्लायेव्स्की ने चिंता से करास से पूछा.

“बेशक, कमांडर ने आगाह कर दिया,देख तो रहे हो, कि वह नहीं आया?” करास ने जवाब दिया.

“क्या आज दोपहर में तुर्बीनों के यहाँ चलें?

“नहीं, दोपहर में संभव नहीं है, चीज़ों को छुपाना होगा...ये, वो...अपने अपार्टमेंट में चलते हैं.”

खिड़कियों में नीलाई थी, मगर आँगन में उजाला हो गया था, और कोहरा ऊपर उठते हुए बिखर रहा था.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भाग – 2

 

8.

 

हाँ, दिखाई दे रहा था कोहरा. नुकीली बर्फ,बर्फ के झबरे पंजे,बिना चाँद की, अंधेरी,और फिर भोर से पूर्व की बर्फ, शहर के पार सुनहरे पत्तों जैसे सितारों से आच्छादित,चर्च के नीले गुम्बदों के बीच दूर, द्नेपर के मॉस्को वाले किनारे से आती हुई भोर तक न बुझने वाला, शहर के ऊपर अथाह ऊंचाई पर स्थित व्लादीमिर क्रॉस.

सुबह तक वह बुझ गया. और धरती के ऊपर की रोशनियाँ बुझ गईं. मगर दिन कोई ख़ास गर्म न हुआ, वह युक्रेन के ऊपर, कम ऊंचाई पर धूसर अभेद्य पर्दे जैसा रहने का वादा कर रहा था.

कर्नल कोज़िर-लिश्को शहर से पंद्रह मील दूर ठीक भोर में उठा, जब खट्टी भाप का प्रकाश पपेल्युखा गाँव में झोंपड़ी की धुंधली छोटी-सी खिड़की में घुसा.

शब्द ‘स्थिति के साथ ही कोज़िर जागा.

पहले तो उसे ऐसा लगा, जैसे उसने उसे बहुत गर्म सपने में देखा था और एक ठन्डे शब्द की तरह उसे हाथ से दूर हटाने की कोशिश भी की. मगर शब्द फूल गया, झोंपड़ी में घुस गया अर्दली के चेहरे की घिनौनी लाल फुंसियों और सिलवटें पड़े लिफ़ाफ़े के साथ. अभ्रक और जाली वाले बैग से कोज़िर ने खिड़की पास नक्शा निकाला, उसमें बर्खुनी गाँव ढूंढा, बर्खुनी के पीछे ढूंढा ‘बेली गाय’, उंगली के नाखून से रास्तों के जाल को तलाशते हुए, जिसके किनारों पर झाड़ियों के मक्खियों जैसे बिन्दु बिखरे हुए थे, और उसके बाद एक बड़ा काला धब्बा – शहर. लाल मुहांसों के मालिक से तंबाकू की गंध आ रही थी, जो ये समझता था कि कोज़िर के सामने भी धूम्रपान किया जा सकता है और इससे युद्ध को कोई नुक्सान नहीं होगा, और दूसरी श्रेणी की तीखी तम्बाकू की गंध भी आ रही थी, जो खुद कोज़िर भी पी रहा था.  

कोज़िर को इसी समय युद्ध करना था. उसने प्रसन्नता से प्रतिक्रया दी, लम्बी जम्हाई ली और कंधे पर पट्टियों को फेंकते हुए घोड़े के जटिल साज को खडखडाया. इस रात वह ओवरकोट पहने ही सो गया था,एड़ें भी नहीं उतारीं. महिला दूध का जार लिए घूम रही थी.

कोज़िर ने कभी भी दूध नहीं पिया था और अभी भी नहीं पीने वाला था. कहीं से रेंगते हुए कुछ छोकरे आ गए. और उनमें से एक, सबसे छोटा,पूरी तरह नंगा,कोज़िर की पिस्तौल की तरफ रेंगते हुए बेंच पर चढ़ गया. मगर नहीं पहुँच पाया, क्योंकि कोज़िर ने पिस्तौल को बेल्ट पर बाँध लिया था.

सन् 1914 तक पूरी ज़िंदगी कोज़िर ग्रामीण अध्यापक था. उन्नीस सौ चौदह में वह घुड़सवार रेजिमेंट में युद्ध में शामिल हुआ और सन् उन्नीस सौ सत्रह के आते-आते ऑफिसर के रूप में पदोन्नत किया गया. और चौदह दिसंबर उन्नीस सौ अठारह की सुबह ने कोज़िर को छोटी सी खिड़की के नीचे पित्ल्यूरा की फ़ौज के कर्नल के रूप में पाया, और दुनिया में कोई भी (और खुद कोज़िर भी) नहीं बता सका कि ये कैसे हो गया. मगर हुआ ये इसलिए कि उसके, कोज़िर के लिए, यह एक आह्वान था, और शिक्षक का पेशा सिर्फ लम्बी और बड़ी भारी गलती थी. खैर, ऐसा अक्सर हमारे जीवन में होता है. पूरे बीस साल तक आदमी कोई एक काम करता रहता है, जैसे, रोमन क़ानून पढ़ता है, और इक्कीसवें साल में – अचानक पता चलता है, कि रोमन क़ानून की कोई ज़रुरत नहीं है, वह तो इसे समझता ही नहीं है और पसंद भी नहीं करता, और असल में वह संवेदनशील माली है और उसे फूलों से गहरा प्यार है. ऐसा, शायद,  हमारी सामाजिक संरचना की अपूर्णता से होता है, जिसमें लोग अपनी ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव में ही अपने उद्दिष्ट को प्राप्त करते हैं. कोज़िर ने इसे प्राप्त किया पैंतालीस का होते-होते. और तब तक वह एक बुरा अध्यापक रहा, क्रूर और उकताऊ.

“ठीक है,छोकरों से कहो,कि झोंपड़ियों से बाहर आकर घोड़ों पर सवार हो जाएँ,” कोज़िर ने कहा और चरमराते बेल्ट को पेट पर कसने लगा.

पपेल्यूखा गाँव की सफ़ेद झोंपड़ियों से धुआँ उठ रहा था, और चार सौ तलवारों वाली कर्नल कोज़िर की टुकड़ी बाहर निकल रही थी. टुकड़ी के ऊपर तम्बाकू की गंध तैर रही थी, और कोज़िर का पाँच विर्शोक लंबा (1विर्शोक = 4.5 से.मी. – अनु.) भूरा घोड़ा निराशा से चल रहा था. रेजिमेंट के पीछे आधे मील तक फ़ैली, काफ़िले की गाड़ियां चरमरा रही थीं. रेजिमेंट घोड़ों की काठियों में हिल रही थी और फ़ौरन पपेल्यूखा से बाहर घुड़सवार दस्ते के आरम्भ में दो रंग की पताका दिखाई दी – डंडे पर नीले और पीले पट्टे वाली.

कोज़िर चाय बर्दाश्त नहीं कर पाता था और दुनिया में उसे सबसे अच्छा लगता था सुबह-सुबह वोद्का का एक घूँट. ‘इम्पीरियल वोद्का’ उसे पसंद थी. चार साल से वह मिल नहीं रही थी, मगर गेटमन के शासन काल में पूरे युक्रेन में पुनः प्रकट हो गई. वोद्का भूरे फ्लास्क से खुशनुमा लपट की तरह कोज़िर की नसों में मचलती. वोद्का रेजिमेंट की कतारों में भी बहती ‘बेलाया चर्च’ के गोदाम से लिए गए भूरे डिब्बों से होकर, और जैसे ही बहने लगती, कतारों के शीर्ष में तीन परतों वाला एकॉर्डियन बजने लगता और एक ऊंचा स्वर गाने लगा:

      

‘गाय’ के बाद, ‘गाय’ के बाद,

हरियाले ‘गाय’ के बाद...

और पांचवीं कतार में गहरी आवाजें गा उठीं:

 

चीख रही थी युवती

काले चेहरे से...

चीख रही थी...चीख रही थी,

मना न पाई बैल को.

ताय ने रखा कजाक को

वॉयलिन पर बजाने शोर को .

 

“फ्यू... आख! आख, ताख,ताख!...” पताका वाला घुड़सवार सीटी बजाते हुए खुशनुमा कोयल की तरह झूमने लगा. डंडे हिलने लगे, और ताबूत के रंग जैसी, चोटियों वाली काली टोपियाँ थरथराने लगीं. हज़ारों नाल जड़े जूतों के नीचे बर्फ चरमराने लगी. खुशनुमा तोर्बान (तोर्बान – यूक्रेनी तंतुवाद्य – अनु.) ने झंकार ली. 

“शाबाश! शरमाओ नहीं, छोकरों,” कोज़िर ने प्रशंसापूर्वक कहा. और स्प्रिंग जैसा खुलते हुए कोयल की भांति गीत युक्रेन के बर्फीले मैदानों पर उड़ चला.

‘बेली गायपार किया, कोहरे का परदा फट गया, और सभी रास्ते काले होने लगे,थरथराने लगे, करकराने लगे. ‘गाय के पास चौराहे पर अपने सामने डेढ़ हज़ार लोगों की पैदल टुकड़ी को जाने दिया. आगे की पंक्तियों के लोगों ने बढ़िया जर्मन कपडे के एक जैसे नीले ‘झुपान (झुपान- लम्बी ड्रेस – अनु.) पहने थे, वे पतले चेहरों वाले, ज़्यादा फुर्तीले, कुशलता से राईफलें संभाले – गैलिशियन्स थे.  और पिछली कतारों वाले पंजों तक लम्बे अस्पताल के गाऊन पहने थे, जिन पर पीले कच्चे चमड़े के बेल्ट थे. सभी के सिरों पर फ़र की टोपियों के ऊपर दचके हुए जर्मन हैलमेट थे. उनके नाल जड़े जूते बर्फ को रौंद रहे थे.

दबाव के कारण शहर की ओर जाने वाले सफ़ेद रास्ते काले होने लगे.

“हुर्रे!” गुज़रती हुई पैदल टुकड़ी ने पीले-नीले झंडे वाले एनसाइन से चिल्लाकर कहा.

“हुर्रे!” ‘गाय ने प्रतिध्वनित होते हुए जवाब दिया.

‘हुर्रे’ का जवाब पीछे से और बाईं तरफ से तोपों ने दिया. घेरा डाली हुई सेना के कमांडर, कर्नल तरोपेत्स ने, रात में ही दो बैटरियां शहर के पार्क की ओर भेज दी थीं. बर्फ के समुन्दर में तोपें आधा गोल बनाते हुए खड़ी थीं और सुबह से ही गोली बारी शुरू हो गई. छः इंची गरज की लहरों ने जहाज़ों जैसे बर्फ से ढंके चीड़ के पेड़ों को जगा दिया. विस्तृत गाँव पूश्शे-वदीत्से पर दो बार धमाके हुए, जिनकी तीव्रता से चार प्लॉट्स में बर्फ में बैठे घरों के सारे कांच एक ही बार में उड़ गए. अनेक चीड़ के पेड़ छिपटियों में बदल गए और कई हाथ ऊंचे बर्फ के फव्वारे उछाल दिए. मगर इसके बाद पूश्शे में आवाजें शांत हो गईं. जंगल मानो आधी नींद में ऊंघने लगा और सिर्फ उत्तेजित हो उठी गिलहरियाँ अपने पंजे सरसराते हुए सौ साल पुराने तनों पर भागती रहीं. इसके बाद तोपखाने की दो बैटरियां पूश्शे के पास से हटा ली गईं और उन्हें दाईं ओर भेज दिया गया. असीम कृषि योग्य भूमि, जंगल से घिरा उरोचिश्शे गाँव पार किया, संकरे रास्ते पर मुडीं, दोराहे तक पहुँचीं और वहाँ मुड़ गईं, शहर के दृष्टिक्षेप में. सुबह से ही पद्गरोद्नाया पर, साव्स्काया पर, शहर के उपनगरों पर , कुरेनेव्का पर बमों के गोले फूटने लगे.

निचले बर्फीले आसमान में खड़खड़ाहट की आवाज़ें आने लगीं, जैसे कोई खेल रहा हो. वहाँ,     घरों के निवासी सुबह से ही तहखानों में बैठ गए थे, और सुबह के झुरमुटे में नज़र आ रहा था कि कैसे ठण्ड से अकड़े हुए कैडेट्स की कतारें कहीं शहर के केंद्र के पास जा रही हैं. वैसे, गोलाबारी शीघ्र ही शांत हो गई और कहीं सरहद पर, उत्तर में, खुशनुमा खड़खड़ाती गोलीबारी में बदल गई.फिर वह भी शांत हो गई.

 

*** 

 

घेरा डाले हुए फ़ौजी दस्ते के कमांडर तरोपेत्स की रेलगाड़ी घने जंगल में बर्फ से ढंके और

गोलाबारी की गड़गड़ाहट से बहरे हो गए मृतप्राय गाँव स्वितोशिनो से करीब पाँच मील दूर जंक्शन पर खड़ी थी. पूरी रात छः कप्मार्टमेंट्स में बिजली नहीं बुझी, पूरी रात जंक्शन पर टेलीफोन की घंटियाँ बजती रहीं और कर्नल तरोपेत्स के गंदे सलून में फील्ड-टेलीफोन्स बीप-बीप करते रहे. जब बर्फीले दिन ने उस क्षेत्र को पूरी तरह प्रकाशित कर दिया, तो स्वितोशिनो से पोस्ट-वलीन्स्की वाले रेल-मार्ग पर आगे-आगे गोले गरजते रहे, और पीले बक्सों में पंछी गा उठे, और दुबले,बेचैन तरोपेत्स ने अपने एड्जुटेंट खुदिकोव्स्की से कहा:

“स्वितोशिनो ले लिया है. कृपया पता करें, एड्जुटेंट महाशय, क्या ट्रेन को स्वितोशिनो ले जा सकते हैं.”

तरोपेत्स की ट्रेन धीरे-धीरे सर्दियों के जंगल की दीवारों के बीच से चल पडी और रेल्वे लाईन को काटते हुए विशाल राजमार्ग के समीप पंहुची, जो तीर की तरह शहर को छेद रहा था. और यहाँ सलून में, कर्नल तरोपेत्स ने अपने प्लान पर काम करना आरंभ कर दिया, जिसे उसने इस खटमलों से भरे सलून नं. 4173 में दो रात जागकर पूरा किया था. 

चारों ओर से घिरा हुआ शहर कोहरे में आंखें खोल रहा था. उत्तर में शहर वाले जंगल और खेतों से,पश्चिम में अधिकार किये गए स्वितोशिनो से, दक्षिण-पश्चिम में अभागे पोस्ट-वलीन्स्की से,दक्षिण में उपवनों के, कब्रिस्तानों के, खुले मैदानों के और चांदमारी वाले मैदान के पीछे, जो रेलवे लाईन से घिरे हुए थे, चारों ओर पगडंडियों और रास्तों पर और बेधड़क केवल बर्फ के मैदानों पर काली पड़ती हुई घुड़सवार फौज रेंग रही थी और खनखना रही थी, भारी-भारी तोपें चरमरा रही थीं और एक महीने के घेरे से क्लांत पित्ल्यूरा की पैदल फ़ौज बर्फ में धंसती जा रही थी.        

गंदी, कपडे के फर्श वाली सैलून-कार में हर मिनट शांत-नाज़ुक पंछी गाते और टेलीफोन ऑपरेटर्स फ्रैंको और गेरास, जो पूरी रात सोये नहीं थे,पागल होने लगे.

“ति-ऊ...पि-ऊ...सुन रहा हूँ! पि-ऊ... ति-ऊ...”

तरोपेत्स का प्लान चालाकी भरा था, काली भंवों वाला,सफ़ाचट दाढी वाला,भयभीत कर्नल तरोपेत्स चालाक था. यूँ ही उसने दो बैटरियां शहर के जंगल के पीछे नहीं भेज दी थीं, यूँ ही नहीं बर्फीली हवा में गड़गड़ाते हुए झबरे पूश्चे-वोलिनो की ट्राम लाईन तोड़ दी थी. फिर यूँ ही नहीं खेतों की तरफ से मशीनगनें आगे बढ़ाई थीं,उन्हें बाएँ पार्श्व पर लाया था. तरोपेत्स शहर के रक्षकों को भुलावा देना चाहता था कि वह, तरोपेत्स, शहर को उसके, तरोपेत्स के बाएं पार्श्व से (उत्तर दिशा से) लेगा,कुरेन्योव्का की बाहरी सीमा से, इस उद्देश्य से कि शहर की फ़ौज को वहाँ खींच सके, और खुद शहर के ठीक माथे पर वार कर सके, सीधे स्वितोशिनो की तरफ से, ब्रेस्ट-लितोव्स्की मार्ग से, और, इसके अलावा,बिलकुल आख़िरी दायें पार्श्व से, दक्षिण से, दिमियोव्का गाँव की तरफ़ से.

तो, तरोपेत्स के प्लान को पूरा करने के लिए पित्ल्यूरा की फौजें बाएं पार्श्व से दायें पार्श्व की तरफ चल पडीं, और सीटी तथा एकोर्डियन के शोर में कोज़िर-लेश्को की काली टोपियों वाला दस्ता अपने कमांडिंग सार्जेंट्स के पीछे जा रहा था.     

“हुर्रे!”  ‘गाय के चारों ओर का जंगल गूँज उठा. “हुर्रे!”

नज़दीक आये, ‘गाय को एक तरफ़ छोड़ दिया और, लकड़ी के पुल से रेल्वे ट्रैक को पार करके, उन्हें शहर दिखाई दिया. वह अभी नींद की गर्माहट में था, और उसके ऊपर या तो कोहरा या धुँआ तैर रहा था. अपनी रकाबों में थोड़ा उठकर अपने जीस फील्ड ग्लासेस से कोज़िर ने उस तरफ़ देखा जहाँ बहुमंजिला इमारतों की छतें और प्राचीन चर्च सेंट सोफिया के गुम्बद दिखाई दे रहे थे.

कोज़िर के दाईं ओर युद्ध चल रहा था. करीब एक मील की दूरी पर तोपें गरज रही थीं और मशीनगनें खड़खड़ा रही थीं. वहाँ पित्ल्यूरा की पैदल सेना जंजीर बनाते हुए पोस्ट-वलीन्स्की की ओर भाग रही थी, और जंजीरों से ही, काफी हद तक भयानक गोलीबारी से स्तब्ध, विरल और असंगठित श्वेत गार्ड्स की पैदल सेना पोस्ट से बाहर भाग रही थी...

 

 

***  

 

 

 

शहर. नीचा, बादलों से ढंका आकाश. नुक्कड़. किनारे पर छोटे-छोटे घर, इक्का-दुक्का ओवरकोट.

“अभी-अभी रिपोर्ट आई है, कि जैसे पित्ल्यूरा के साथ समझौता हुआ है – सभी रूसी-यूनिट्स को हथियारों के साथ दोन में देनीकिन को सौंप दिया जाए...”

“तो?

गोलाबारी...गोलीबारी...बूख...बू-बू-बू...

और मशीनगन चिंघाड़ी.

कैडेट की आवाज़ में बदहवासी और अविश्वास:

“तो, गौर करो, तब तो प्रतिरोध रोक देना चाहिए?...”

कैडेट की आवाज़ में पीड़ा:

“शैतान ही जाने!”

 

*** 

 

कर्नल श्योत्किन सुबह से ही स्टाफ-हेडक्वार्टर में नहीं था, और स्पष्टत: इस कारण से नहीं था, क्योंकि इस स्टाफ-हेडक्वार्टर का अब अस्तित्व ही नहीं था. चौदह तारीख की रात को ही श्योत्किन का स्टाफ पीछे हट गया था, शहर के 1 रेल्वे स्टेशन पर, और यह रात उसने होटल “रोज़ा इस्ताम्बूल” होटल में बिताई, टेलीग्राफ कार्यालय की बगल में. वहाँ रात को श्योत्किन का टेलीफोन-पंछी कभी-कभार गा लेता, मगर सुबह होते-होते वह खामोश हो गया. और सुबह कर्नल श्योत्किन के दो एड्जुटेंट बिना कोई सुराग छोड़े ग़ायब हो गए. इसके एक घंटे बाद खुद श्योत्किन भी, न जाने क्यों कागज़ात के बक्से खंगालकर और उनमें से कुछ को चिंधियों में फाड़कर, गंदे “रोज़ा” से निकला, मगर शोल्डर-स्ट्रैप्स वाले भूरे ओवरकोट में नहीं, बल्कि सिविलियन फ़र-कोट और केक जैसी हैट में. वे कहाँ से आये – किसी को मालूम नहीं.

“रोज़ा” से एक ब्लॉक दूर गाडीवान को लेकर सिविलियन श्योत्किन लीप्की में गया, एक तंग, अच्छी तरह रखे गए, फर्नीचर से सुसज्जित क्वार्टर में आया, घंटी बजाई, एक भरी-पूरी, सुनहरे बालों वाली औरत का चुम्बन लिया और उसके साथ गुप्त शयन कक्ष में गया. और सीधे सुनहरे बालों औरत की भय से गोल हो गई आंखों में देखते हुए बोला:

“सब ख़त्म हो गया! ओह, मैं कितना थक गया हूँ...” कर्नल घिरौची में चला गया और वहाँ सुनहरे बालों वाली औरत के हाथों की बनी ब्लैक कॉफी पीकर सो गया.

 

*** 

 

 

इस बारे में पहली स्क्वैड के कैडेट्स को कुछ भी मालूम नहीं था. अफसोस! अगर वे जानते, तो, हो सकता है, उनमें कुछ प्रेरणा जागृत होती, और, पोस्ट-वलीन्स्की के पास छर्रों से भरे आसमान के नीचे गोल-गोल घूमने के बदले, वे लीप्का के आरामदेह क्वार्टर में जाते, वहाँ से सोए हुए कर्नल श्योत्किन को निकाल कर, घसीटते हुए लैम्प पोस्ट से लटका देते, जो सुनहरे बालों वाली औरत के क्वार्टर के सामने ही था.   

***  

 

ऐसा करना अच्छा होता,मगर उन्होंने नहीं किया,क्योंकि उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था,और वे कुछ भी नहीं समझते थे.

हाँ, और शहर में कोई भी कुछ भी नहीं समझ रहा था, और भविष्य में भी, शायद, जल्दी नहीं समझेंगे. असल में : शहर में फ़ौलादी, हालांकि, सचमुच में, कुछ बिगड़े हुए जर्मन्स थे, छोटी-छोटी मूंछों वाला दुबला-पतला लोमड़ी जैसा गेटमन था (रहस्यमय मेजर श्रात्त की गर्दन के घाव के बारे में सुबह बहुत कम लोग जानते थे), शहर में है हिज़ एक्सेलेंसी राजकुमार बिलारूकव, शहर में है जनरल कर्तुज़ोव, जो ‘रूसी शहरों की माँ’ की सुरक्षा के लिए फ़ौजी दस्ते तैयार कर रहे थे, शहर में किसी न किसी बहाने से स्टाफ़ हेडक्वार्टर्स में टेलिफ़ोनों की घंटियाँ  बज रही थीं, गा रही थीं (अभी तक किसी को मालूम नहीं था कि वे सुबह से ही भागने लगे हैं), शहर में भीड़-भाड़ थी. शहर में पित्ल्यूरा के नाम से तैश आ जाता है, और ‘वेस्ती अखबार के आज ही के अंक में पीटर्सबुर्ग के स्वच्छंद पत्रकार उस पर हँस रहे हैं, शहर में घूम रहे हैं कैडेट्स, और वहाँ, करवायेव्स्की उपनगर में रंगबिरंगा ख़ूबसूरत घुड़सवार दस्ता कोयल की तरह सीटियाँ बजाता है, और तेज़ तर्रार कज़ाक सवार हल्की चाल से बाएँ पार्श्व से दाएं पार्श्व को जा रहे हैं. अगर वे दो ही मील दूर से सीटियाँ बजा रहे हैं, तो पूछना होगा, कि गेटमन क्या उम्मीद लगाए है? आखिर उसीकी रूह के लिए तो सीटियाँ बजा रहे हैं! ओह, सीटियाँ बजा रहे हैं...हो सकता है, जर्मन्स उसकी सहायता के लिए आयें? मगर फिर भावहीन जर्मन फास्तोव स्टेशन पर क्यों उदासीनता से अपनी कटी हुई मूंछों में मुस्कुरा रहे हैं,जब उनके पास से पित्ल्यूरा की फौजों की टुकड़ियों के बाद टुकड़ियाँ शहर की ओर जा रही हैं? हो सकता है, पित्ल्यूरा के साथ समझौता हुआ हो कि उसे शान्ति से शहर में प्रवेश करने दिया जाएगा? मगर, तब क्यों श्वेत ऑफिसर्स के गोले पित्ल्यूरा पर बरस रहे हैं?

नहीं, कोई समझ नहीं पायेगा कि चौदह दिसंबर को दिन में शहर में क्या हुआ था.

स्टाफ हेडक्वार्टर के टेलीफ़ोन बजे जा रहे थे, मगर, ये सही है, कि रुक-रूककर बज रहे थे, और कभी कभार, और कभी कभार ...

कभी कभार!

कभी कभार!

ट्रिंग!...

“टिऊ...”

“तुम्हारे यहाँ क्या हो रहा है?

“टिऊ...”

“कर्नल को गोला-बारूद भेजो...

“स्तिपानव को...”

“इवानोव को...”

“अन्तोनव को!

“स्त्रतोनव को!...”

“दोन पर... दोन पर भाईयों..न जाने क्यों, हमारे यहाँ कुछ भी नहीं हो रहा है.”

“टि-ऊ...”

“स्टाफ़-हेडक्वार्टर के बदमाशों को जहन्नुम में...”

“दोन पर!...”

और अधिक बिरले, और दोपहर तक बिल्कुल ही नहीं के बराबर.

शहर के चारों ओर, कभी यहाँ, कभी वहाँ,गोलियों की खड़खड़ाहट बढ़ जाती, फिर थम जाती...मगर शहर दोपहर तक अपनी ज़िंदगी जी रहा था, खड़खड़ाहट के बावजूद, अपनी हमेशा की ज़िंदगी. दुकानें खुली थीं और व्यापार कर रही थीं. फुटपाथों पर आने जाने वालों की भीड़ भाग रही थी, दरवाज़े बज रहे थे, और ट्रामगाड़ियां घंटियाँ बजाते हुए चल रही थीं.

और दोपहर को पिचेर्स्क से खुशनुमा तोप ने अपना राग छेड़ा. पिचेर्स्क की पहाड़ियों ने आंशिक गर्जना को प्रतिध्वनित किया, और वह शहर के केंद्र को उड़ चली. गौर फ़रमाइए, ये तो बिल्कुल पास है!...क्या बात है? आने जाने वाले रुक जाते और हवा को सूंघने लगते. और कहीं कहीं फ़ुटपाथ फ़ौरन खाली हो गए.

“क्या? कौन?

“अर्र र र र्र र्र र र्र-पा-पा-पा-पा-पा! पा! पा! पा! र्र र र र्र र्र र र्र!!”

“कौन?”

“क्या कौन? भले आदमी, आप क्या नहीं जानते? ये कर्नल बल्बतून  है.”

 

*****  

 

हाँ, उसने पित्ल्यूरा के खिलाफ विद्रोह कर ही दिया!

कर्नल तरोपेत्स के जनरल-स्टाफ वाले उलझे हुए प्लान को पूरा करते-करते कर्नल बल्बतून , उकता गया, उसने घटनाओं में तेज़ी लाने का निर्णय लिया. बल्बतून  के घुड़सवार कब्रिस्तान के पीछे बिल्कुल दक्षिण में, जहाँ बर्फ से ढंकी हुई बुद्धिमान द्नेपर अत्यंत निकट थी, जम गए थे. खुद बल्बतून  भी जम गया था. और बल्बतून  ने भाला ऊपर उठाया, और उसका घुड़सवार दस्ता दाईं ओर तीन-तीन की पंक्तियों में चल पड़ा, रास्ते में फ़ैल गया और उस मैदान की ओर आया, जो शहर के बाहरी हिस्से को घेरता था. वहाँ कर्नल बल्बतून  का सामना किसी से नहीं हुआ. बल्बतून  की छह तोपें ऐसे चिंघाड़ रही थीं, कि पूरे निझ्न्याया तेलिच्का वाले मार्ग पर गड़गड़ाहट होने लगी. एक पल में बल्बतून  ने रेलवे लाईन को काट दिया और पैसेंजर ट्रेन को रोक दिया, जिसने अभी-अभी रेलवे ब्रिज का सिग्नल पार किया था और नए मॉस्कोवासियों तथा पीटर्सबुर्ग वासियों को अमीर औरतों और झबरे कुत्तों के साथ शहर लाई  थी. ट्रेन पूरी तरह स्तब्ध रह गई, मगर बल्बतून  के पास फ़िलहाल कुत्तों से खेलने के लिए समय नहीं था. मालगाड़ियों के भयभीत, खाली डिब्बे शहर के दो नंबर के - मालगाड़ियों वाले स्टेशन से शहर के एक नंबर वाले - यात्री-स्टेशन पर लाये गए, शंटिंग करते इंजिन सीटियाँ बजाने लगे, और बल्बतून  की गोलियों ने ट्रिनिटी स्ट्रीट के घरों की छतों पर आकस्मिक बौछार कर दी. और शहर में घुसा और चल पडा बल्बतून  रास्ते पर और बिना किसी बाधा के सीधे मिलिट्री अकादेमी तक, सभी गलियों में घुड़सवार दस्ते भेजते हुए. और बल्बतून  का प्रतिरोध किया गया सिर्फ प्लास्टर उखड़े स्तंभों वाले निकलायेव्स्काया-1 मिलिट्री अकादेमी में, जहां उसे मशीनगन और कुछ छुटपुट फौजियों की गोलियों का सामना करना पडा. बल्बतून  की प्रमुख टुकड़ी में पहली स्क्वाड्रन में कज़ाक बुत्सेन्का मारा गया, पाँच ज़ख़्मी हुए और दो घोड़ों की टांगें टूट गईं. बल्बतून  कुछ देर रुका. न जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि उसका मुकाबला कोई अज्ञात फौजें कर रही हैं. मगर असल में नीली कैप वाले बल्बतून  को तीस कैडेट्स और चार ऑफिसर्स एक तोपखाने के साथ सलामी दे रहे थे.

बल्बतून  के आदेश पर उसके घुड़सवार नीचे उतरे, लेट गए, अपने आप को ढांक लिया और कैडेट्स के साथ गोलीबारी करने लगे. पिचेर्स्क पूरी तरह गड़गड़ाहट से भर गया, गूंज दीवारों से टकराने लगी, और मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर रास्ते इस तरह उफनने लगे, जैसे केतली में उबल रहे हों.      

 

और बल्बतून  के कार्यकलापों का असर शहर में दिखाई देने लगा: एलिज़ाबेतिन्स्काया, विनोग्राद्नाया और लेवाशोव्स्काया स्ट्रीट्स पर लोहे के शटर्स खड़खड़ाने लगे. जिंदादिल दुकानें बुझ गईं. फुटपाथ फ़ौरन खाली हो गए और अप्रिय आवाजें गूंजने लगीं. चौकीदारों ने फुर्ती से द्वार बंद कर दिए.                     

           

शहर के केंद्र में भी प्रभाव दिखाई दिया: स्टाफ हेडक्वार्टर्स के टेलीफोनों में चहचहाहट शांत हो गई.

स्टाफ-डिविजन में गन-बैटरी द्वारा फोन किया जाता है. क्या मुसीबत है, जवाब नहीं दे रहे हैं! स्क्वैड द्वारा कमांडिंग स्टाफ को फोन किया जाता है, कुछ सफलता मिलती है. मगर जवाब में आवाज़ कुछ अर्थहीन सा बुदबुदाती है:

“क्या आपके ऑफिसर्स शोल्डर-स्ट्रैप्स पहने हैं?    

“तो, बात क्या है?

“टि-ऊ...”

“टि-ऊ...”

“फ़ौरन पिचेर्स्क पर दस्ता भेजो!”

“हुआ क्या है?

“टि-ऊ...”

रास्तों पर बुदबुदाहट होने लगी: बल्बतून , बल्बतून , बल्बतून , बल्बतून , बल्बतून ....   

कहाँ से पता चला कि यह बल्बतून  ही है, कोई और नहीं? पता नहीं, मगर जान गए. हो सकता है कि दोपहर से आने-जाने वालों और शहर के निठल्ले लोगों के बीच कुछ मेमने की कॉलर वाले ओवरकोट पहने कुछ अजनबी प्रकट हुए. वे चल रहे थे, ताक-झाँक कर रहे थे. कैडेट्स को, फ़ौजी अफसरों को, सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स वाले ऑफिसर्स को बड़ी देर तक, एकटक देखते रहते. फुसफुसाते:

“बल्बतून  आ गया है.”

और बिना किसी अफ़सोस के फुसफुसाते. बल्कि, उनकी आंखों में स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा था – “हुर्रे!”

““हु-र्रे-र्रे-उर्रे– र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे...” पिचेर्स्क के टीले गडगड़ा रहे थे.

बकवास तो जैसे हवा पे सवार थी:

“बल्बतून  – महान राजकुमार मिखाइल अलेक्सान्द्रविच है.”

“बल्कि, इसके विपरीत: बल्बतून  – महान राजकुमार निकलाय निकलायेविच है.”

“बल्बतून  – सिर्फ बल्बतून  है.”

“यहूदियों का कत्लेआम होगा.”

“इसके विपरीत – वे लाल रिबन्स वाले हैं.”

“बेहतर है, घर भागो.”

“बल्बतून  पित्ल्यूरा के खिलाफ़ है.”

“इसके विपरीत : वह बोल्शेविकों के साथ है.”

“एकदम विपरीत : वह त्सार के पक्ष में है, सिर्फ बिना ऑफिसर्स के.”

“ गेटमन भाग गया?

“ क्या सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच?

टि ऊ. टि-ऊ. टि-ऊ.

***  

 

बल्बतून  के जासूस सेंचुरियन गलान्बा के नेतृत्व में मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर गए, और मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर एक भी आदमी नहीं था. और तभी, सोचिये, एक प्रवेश द्वार खुला और पाँच कज़ाक घुड़सवारों के सामने कोई और नहीं, बल्कि मशहूर फ़ौजी कॉन्ट्रेक्टर याकव ग्रिगोरेविच फेल्दमन भागते हुए बाहर आया. क्या आप पागल हो गए हैं, याकव ग्रिगोरेविच, जो आपको ऐसे समय में भागने की ज़रुरत पड़ गई , जब यहाँ ऐसी घटनाएं हो रही हैं? हाँ, याकव ग्रिगोरेविच का हुलिया ऐसा था, जैसे वह पागल हो गया हो. सील की खाल वाली हैट सिर के पीछे खिसक गई थी और ओवरकोट के बटन खुले हुए थे. और आँखें बदहवास थीं.

याकव ग्रिगोरेविच की बदहवासी के पीछे बड़ा कारण था. जैसे ही मिलिटरी एकेडमी में गोलीबारी शुरू हुई, याकव ग्रिगोरेविच की बीबी के उजले शयनकक्ष से एक कराह उठी. वह दुहराई गई और शांत हो गई.

“ओय,” कराह के जवाब में याकव ग्रिगोरेविच ने कहा, उसने खिड़की से देखा और समझ गया कि बाहर हालत बेहद बुरी है. चारों और गड़गड़ाहट और वीरानी है.

मगर कराहने की आवाज़ बढ़ती गई और चाकू की तरह याकव ग्रिगोरेविच के दिल को चीरती चली गई. झुकी हुई बुढ़िया, याकव ग्रिगोरेविच की माँ, शयनकक्ष से सिर निकालकर चीखी:

“याशा! जानते हो? शुरू हो गया!”

और याकव ग्रिगोरेविच के ख़याल एक लक्ष्य की ओर भागे – मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर खाली जगह के पास नुक्कड़ पर, जहाँ कोने वाले छोटे से मकान पर सुनहरे अक्षरों वाला जंग लगा बोर्ड लटक रहा था:

 

मिडवाईफ़

ए. ते. शादुर्स्काया.

 

मिलिओन्नाया पर वैसे काफ़ी ख़तरा है, हाँलाकि वह तिरछी सड़क है, मगर पिचेर्स्काया चौक से कीव्स्की ढलान पर गोलीबारी कर रहे हैं.

अगर वह सिर्फ उछल कर जा सकता. सिर्फ...कैप पीछे की ओर खिसकी हुई, आंखों में भय, और दीवारों के नीचे-नीचे चिपक कर याकव ग्रिगोरेविच फेल्दमन जा रहा है.

“रुको! तुम कहाँ जा रहे हो?

गलान्बा ने  काठी से झुककर देखा. फेल्दमन का चेहरा काला पड़ गया, उसकी आंखें उछलने लगीं. आंखों में पित्ल्यूरा के कज़ाकों के हरे रिबन उछलने लगे.

“मैं,महाशय, शान्ति प्रिय नागरिक हूँ. बीबी बच्चा पैदा कर रही है. मुझे मिडवाईफ के पास जाना है.”

“मिडवाईफ के पास? तो तुम दीवार के नीचे क्या कर रहे हो?? या-यहूदी?...”

“मैं, महाशय...”

कोड़ा सांप के समान सील की कॉलर और गर्दन पर लपका. नरक यातना. फेल्दमन चिन्घाड़ा. अब वह काला नहीं, बल्कि सफ़ेद हो गया, और उन हरी पूँछों के बीच उसे बीबी का चेहरा दिखाई दिया.

“प्रमाण पत्र!”

फेल्दमन ने कागजात वाली फाईल निकाली, उसे खोला, पहला ही कागज़ निकाला और अचानक थरथराने लगा, उसे अचानक याद आया...आह, खुदा, मेरे खुदा! उसने क्या कर दिया था? याकव ग्रिगोरेविच, ये आपने कौन सा कागज़ निकाला? क्या घर से भागते समय, जब बीबी के शयनकक्ष से पहली कराह सुनाई दी थी, ऐसी छोटी-छोटी बातें याद रखना मुमकिन है? ओह, फेल्दमन पर मुसीबत टूट पडी! गलान्बा ने फ़ौरन कागज़ लपक लिया. एक पतली सी चिट पर सील लगी हुई थी – और इस चिट में थी फेल्दमन की मौत.

“इसके प्रस्तुतकर्ता फेल्दमन याकव ग्रिगोरेविच को, शहर की गैरिसन को अस्त्र-शस्त्रों की आपूर्ति के संबंध में, स्वतंत्रता से शहर में प्रवेश करने की और उससे बाहर जाने की अनुमति है , और शहर में रात के बारह बजे के बाद भी घूमने की अनुमति है.

आपूर्ति प्रमुख मेजर-जनरल इलरियोनव.

एड्जुटेंट – लेफ्टिनेंट लिशिन्स्की.”

फेल्दमन ने मानो जनरल कर्तूज़व के सामने चर्बी और वेसलीन – हथियारों के लिए सेमी-लुब्रिकेंट रख दिया था.

खुदा, चमत्कार कर!

“सेंचुरियन महाशय, ये सही डॉक्यूमेंट नहीं है!...इजाज़त दीजिये...”

“नहीं, वही है,” शैतानियत से हँसते हुए गलान्बा ने कहा, “परेशान न हो, हम पढ़े लिखे हैं, पढ़ लेंगे.”

खुदा! चमत्कार कर. ग्यारह हज़ार सिक्के है.... सब ले लो. मगर सिर्फ ज़िंदगी बख्श दो! दे दो! खुदा!”

नहीं दी.

ये भी अच्छा रहा कि फेल्दमन आसान मौत मर गया. सेंचुरियन गलान्बा के पास समय नहीं था. इसलिए उसने बस फेल्दमन के सिर पर तलवार चला दी.

 

 

 

 

9

 

 

कर्नल बल्बतून, सात मारे गए कज़ाकों, और नौ ज़ख़्मी कज़ाकों तथा सात घोड़ों को खोकर पिचेर्स्काया से रेज़्निकोव्स्काया स्ट्रीट पर आधा मील चलकर फिर रुक गया. यहाँ पीछे हट रही कैडेट्स की टुकड़ी के पास अतिरिक्त कुमक पहुँची. उसमें एक बख्तरबंद गाड़ी थी. बुर्जों वाला  भूरा बेढ़ब कछुआ मॉस्कोव्स्काया स्ट्रीट पर रेंग रहा था और उसने तीन बार पिचेर्स्क पर धूमकेतु की पूंछ जैसी तोप से वार किया, जो सूखे पत्तों के शोर की याद दिला रहा था (तीन इंची) . बल्बतून फ़ौरन घोड़े से उतरा. साईस घोड़ों को गली में ले गए, पिचेर्स्काया चौक से कुछ पीछे बल्बतून की रेजिमेंट कतारों में लेट गई, और एक सुस्त लड़ाई शुरू हो गई. कछुए ने मॉस्कोव्स्काया स्ट्रीट को घेर रखा था और वह बीच-बीच में गरज रहा था. इन आवाजों का जवाब सुवोरव्स्काया स्ट्रीट के मुहाने से रुक-रुक कर मरियल गोलीबारी से दिया जा रहा था. वहाँ बर्फ में पिचेर्स्काया से बल्बतून की गोलाबारी के कारण पीछे छूट गई टुकड़ी पडी थी, और उसकी कुमक भी जो इस तरह से प्राप्त हुई थी:

“ड्र-र्र-र्र-र्र-र्र-र्र- र्र-र्र-र्र-र्र-र्र-र्र-र्र ......

“पहली रेजिमेंट?

“हां, सुन रहा हूँ.”

“फ़ौरन दो ऑफिसर्स की कम्पनियां पिचेर्स्क भेजो.”

ड्र-र्र-र्र-र्र-र्र-र्र- टी–टी-टी-टी...

और पिचेर्स्क पँहुचे: चौदह ऑफिसर्स, तीन कैडेट्स, एक स्टूडेंट और एक लघु-थियेटर का एक्टर.

 

****

 

आह. एक तितर-बितर टुकड़ी, बेशक, काफ़ी नहीं है, एक कछुए की आपूर्ति करने के बाद भी. कम से कम चार कछुए तो होने ही चाहिए थे. और यक़ीन के साथ कहा जा सकता है, कि अगर वे आते, तो कर्नल बल्बतून को पिचेर्स्क से दूर हटना पड़ता. मगर वे नहीं पहुंचे.

ऐसा इसलिए हुआ, कि गेटमन के शस्त्र-विभाग में, जिसमें चार बेहतरीन मशीनें थीं, दूसरी मशीन के कमांडर के रूप में कोई और नहीं, बल्कि प्रसिद्ध एन्साइन मिखाइल सिमिनोविच श्पल्यान्स्की आया, जिसे सन् 1917 की मई में खुद अलेक्सान्द्र फ्योदरविच केरेन्स्की के हाथों से जॉर्जियन क्रॉस प्राप्त हुआ था.

मिखाइल सिमिनोविच काला और सफ़ाचट दाढ़ी वाला, मखमली कल्लों वाला था, यिव्गेनी अनेगिन से बेहद मिलता-जुलता था. सेंट पीटर्सबुर्ग शहर से आते ही मिखाइल सिमिनोविच जल्दी ही मशहूर हो गया. मिखाइल सिमिनोविच “प्राख” (प्राख का अर्थ है राख – अनु.) क्लब में अपनी खुद की कवितायेँ “सैटर्न की बूँदें” का सर्वोत्तम पठन करने के लिए और कवियों का सर्वोत्कृष्ट संचालन करने तथा शहर की काव्य-संस्था “मैग्नेटिक ट्रॉयलेट” के अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध हो गया. इसके अलावा, मिखाइल सिमिनोविच जैसे कोई वक्ता नहीं थे, इसके अलावा, वह मिलिटरी कारें, युद्ध की मशीनें, सिविलियन कारें चलाना जानता था, इसके अलावा, उसने ऑपेरा थियेटर की बैलेरीना मुस्या फोर्ड को, और एक और महिला को, जिसका नाम सज्जन होने के नाते मिखाइल सिमिनोविच ने किसी को नहीं बताया था, अपने यहाँ रखा था, इसके अलावा, उसके पास बहुत सारे पैसे थे और वह खुलकर “मैग्नेटिक ट्रॉयलेट” के सदस्यों को उधार दिया करता था;

 

सफ़ेद वाईन पीता,

‘चेमिन द’ फेर खेलता,

“नहाती हुई वेनिस की परी” तस्वीर खरीदी,

रात में क्रिश्चातिक में रहता,

सुबह कैफे ”बिल्बोके” में बिताता,

दिन में – बढ़िया होटल कॉन्टिनेंटल के अपने आरामदेह कमरे में,

शाम को – “प्राख” में,

सुबह शोधपूर्ण निबंध “गोगल की रचनाओं में अंतर्ज्ञान” लिखता.

गेटमन का शहर समय से तीन घंटे पहले ही ख़तम हो गया, सिर्फ इस कारण से कि मिखाइल सिमिनोविच ने 2 दिसंबर 1918 को शाम को “प्राख” में स्तिपानव से, शेएर से, स्लोनिख और चिरेम्शीन (“मैग्नेटिक ट्रॉयलेट” के शीर्ष) के सामने ऐलान कर दिया:

“सब बदमाश हैं. गेटमन भी और पित्ल्यूरा भी. मगर पित्ल्यूरा तो, इसके अलावा,यहूदियों का विरोधी भी है. मगर, सबसे ख़ास बात ये नहीं है. मैं उकता गया हूँ, क्योंकि मैंने काफ़ी समय से बम नहीं फेंका है.”

“प्राख” में डिनर के बाद,जिसका बिल मिखाइल सिमिनोविच ने चुकाया था,उसे,याने ऊदबिलाव की कॉलर वाले महंगे फ़र कोट और ऊँची हैट पहने मिखाइल सिमिनोविच को,पूरे “मैग्नेटिक ट्रॉयलेट” ने और पांचवें आदमी ने जो बकरी की खाल का कोट पहने था और कुछ नशे में था, बिदा किया. उसके बारे में श्पल्यान्स्की को थोड़ी-बहुत जानकारी थी: पहली बात, कि वह सिफलिस से पीड़ित है, दूसरी बात, कि उसने ईश्वर विरोधी कवितायेँ लिखी हैं, जिन्हें मिखाइल सिमिनोविच ने अपने अच्छे साहित्यिक संबंधों के कारण मॉस्को के एक संग्रह में छपवा दिया था, और, तीसरी बात, कि वह – रुसाकोव, लाइब्रेरियन का बेटा है. 

सिफलिस वाला आदमी क्रिश्चातिक पर लैम्प पोस्ट के नीचे अपनी बकरी की खाल पर रो रहा था और, श्पल्यान्स्की की ऊदबिलाव की आस्तीन की मोहरी को एकटक देखते हुए बोला:

“श्पल्यान्स्की, तुम सबसे ज़्यादा ताकतवर हो  इस शहर में, जो मेरी ही तरह सड़ रहा है. तुम इतने अच्छे हो कि अनेगिन से तुम्हारी खतरनाक समानता को भी माफ़ किया जा सकता है! सुनो, श्पल्यान्स्की...अनेगिन के जैसा होना असभ्यता है. तुम कुछ ज़्यादा ही तंदुरुस्त हो...तुममें वह महत्वाकांक्षा नहीं है, जो तुम्हें हमारे समय की प्रसिद्ध हस्ती बना सकती थी... देखो, मैं सड़ रहा हूँ, और मुझे इस पर गर्व है...तुम बेहद तंदुरुस्त हो, मगर तुम शक्तिशाली हो, स्क्रू की तरह, इसलिए स्क्रू की तरह घूम जाओ!...ऊपर की तरफ घूमो! ऊंचे!...ऐसे...

और सिफलिस के मरीज़ ने दिखाया कि ये कैसे करना चाहिए. लैम्प पोस्ट को पकड़ कर वह वाकई में उसके इर्द गिर्द घूमने लगा, किसी तरह से लंबा और पतला हो गया, सांप की तरह. नज़दीक से हरी, लाल, काली और सफ़ेद टोपियों में तवायफें जा रही थीं, गुड़ियों की तरह ख़ूबसूरत, और वे स्क्रू को देखकर खुशी से चहकीं:

पूरी तरह तर हो गया, - त-तेरी माँ को?

बहुत दूर कहीं से गोलाबारी हो रही थी, और मिखाइल सिमोनिच बिजली के रोशनी में उड़ती हुई बर्फ के नीचे वाक़ई में अनेगिन जैसा लग रहा था.  

“सोने के लिए जाओ,” थोड़ा सा चेहरा घुमाते हुए उसने सिफ़लिस-स्क्रू से कहा, ताकि वह उसके ऊपर न खांसे, “जाओ.”

उसने बकरी के फ़रकोट को सीने पर उँगलियों से धक्का देते हुए कहा. काले नाज़ुक दस्ताने पुराने रोएँदार ओवरकोट को छू गए, और धकेले जा रहे आदमी की आंखें पूरी तरह कांच जैसी थीं. वे जुदा हुए. मिखाइल सिमिनोविच ने गाड़ीवान को बुलाया, और उससे चिल्लाकर कहा: “माला-प्रवाल्नाया”, और चला गया, और बकरी का फ़रकोट, लड़खड़ाते हुए, पैदल अपने घर पदोल की ओर चल पडा.

 

***    

 

लाइब्रेरियन के क्वार्टर में, रात को, पदोल में, आईने के सामने, बुझी हुई मोमबत्ती लिए, कमर तक नंगा, बकरी के फ़र वाले ओवरकोट का स्वामी खडा था. उसकी आंखों में खौफ़ उछल रहा था, शैतान की तरह, हाथ थरथरा रहे थे, और सिफलिस का मरीज़ बोल रहा था, और उसके होंठ उछल रहे थे, जैसे बच्चे के उछलते हैं.

“माय गॉड, माय गॉड , माय गॉड... खतरनाक, खतरनाक, खतरनाक...आह, ये शाम! मैं अभागा हूँ. मेरे साथ शेयेर भी तो था, मगर वह तंदुरुस्त है, वह संक्रमित नहीं हुआ, क्योंकि वह भाग्यवान है. क्या, जाकर ल्येल्का को मार डालूँ? मगर क्या फ़ायदा? मुझे कौन समझाएगा कि इसका क्या फ़ायदा है? ओह, खुदा, खुदा...मैं चौबीस साल का हूँ, और मैं, हो सकता है...पंद्रह साल गुज़र जायेंगे, हो सकता है, और भी कम, और होंगी अलग-अलग तरह की आंखों की पुतलियाँ, झुकी हुई टांगें, फिर बेतुकी बेवकूफी भरी बातें, और फिर – मैं सड़ा हुआ, चिपचिपा मुर्दा.

कमर तक खुला दुबला-पतला शरीर धूल भरे ड्रेसिंग टेबल में परावर्तित हो रहा था, ऊपर उठे हुए हाथ में मोमबत्ती जल रही थी, और सीने पर नाज़ुक, पतले सितारों जैसे दाने बिखरे थे. मरीज़ के गालों पर बेतहाशा आंसू बह रहे थे, और उसका शरीर काँप रहा था और झूल रहा था.

“मुझे अपने आपको गोली मार लेना चाहिए. मगर मुझमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है, मेरे खुदा, मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा? मेरे प्रतिबिंब, मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा?

उसने छोटी-सी, नाज़ुक, लिखने की मेज़ की दराज़ से एक पतली किताब निकाली, जो बड़े फूहड़ भूरे कागज़ पर छपी थी. मुखपृष्ठ पर लाल अक्षरों में छापा था:

 

फंटोमिस्ट्स-फ्यूचरिस्ट्स   

 

कविताएं:

 

एम. श्पल्यान्स्की.

बी. फ्रीडमन.

वी. शार्केविच.

ई. रुसाकोव.

मॉस्को , 1918.

 

बेचारे मरीज़ ने किताब का तेरहवां पृष्ठ खोला और उस पर जानी-पहचानी पंक्तियाँ देखीं:

 

इव. रुसाकोव

 

खुदा की मांद      

ईश्वर विरोधी, पूरी तरह से वाहियात कविता पढ़ने के बाद, मरीज़ दांत भींचते हुए पीड़ा से कराहा: “आह-आ-आह” वह निरंतर पीड़ा से दुहराते जा रहा था: “आह-आह...”

विकृत चेहरे से उसने अचानक कविता वाले पृष्ठ पर थूका और किताब को फर्श पर फेंक दिया, फिर घुटनों के बल बैठा और जिस्म पर छोटे-छोटे, थरथराते सलीब के निशान बनाकर, ठन्डे माथे से धूलभरे फर्श को छूकर उदास, काली खिड़की से बाहर देखते हुए प्रार्थना करने लगा: 

“खुदा, मुझे माफ़ कर दे और ऐसी घिनौनी कविता लिखने के लिए मुझ पर दया कर. मगर तुम इतने कठोर क्यों हो? किसलिए? मैं जानता हूँ कि तुमने मुझे सज़ा दी है. ओह, कितनी भयानक सज़ा दी है तुमने मुझे! मेहेरबानी करके मेरी त्वचा की ओर देखो. सभी पवित्र आत्माओं की कसम खाता हूँ, दुनिया की सभी प्यारी चीज़ों की, स्वर्गवासी-माँ की याद की कसम खाता हूँ – मैं पर्याप्त सज़ा पा चुका हूँ. मैं तुम पर विश्वास करता हूँ ! अपनी आत्मा से, शरीर से, दिमाग़ के कण-कण से विश्वास करता हूँ. विश्वास करता हूँ और सिर्फ तुम्हारे ही पास भाग कर आता हूँ, क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई नहीं है, जो मेरी सहायता कर सके. तुम्हारे अलावा और किसी से मुझे कोई उम्मीद नहीं है. मुझे क्षमा करो, और कुछ ऐसा करो, कि दवाएं मुझे फ़ायदा पंहुचाएँ! मुझे माफ करो, कि मैंने ये फैसला कर लिया था, कि जैसे तुम हो ही नहीं: अगर तुम न होते, तो मैं अभी नाउम्मीद, दयनीय, जर्जर कुत्ते जैसा होता. मगर मैं इन्सान हूँ और ताक़तवर हूँ सिर्फ इसलिए कि तुम्हारा अस्तित्व है, और मैं किसी भी पल तुमसे सहायता के लिए प्रार्थना कर सकता हूँ. और मुझे विश्वास है कि तुम मेरी प्रार्थनाएँ सुनोगे, मुझे माफ़ करोगे और अच्छा कर दोगे. मुझे अच्छा कर दो, ओ खुदा, भूल जाओ उस घिनौनेपन के बारे में जो मैंने पागलपन के आवेश में, कोकीन के नशे में लिख दिया था. मुझे सड़ने से बचा लो, और मैं क़सम खाता हूँ, कि मैं फिर से इन्सान बन जाऊंगा. मेरी शक्ति बढ़ाओ, मुझे कोकीन से छुटकारा दिलाओ, आत्मा की कमज़ोरी से मुक्ति दिलाओ और मिखाइल सिमिनोविच श्पल्यान्स्की से छुटकारा दिलाओ!”

मोमबत्ती तैरने लगी, कमरे में ठंडक हो गई, सुबह तक मरीज़ की त्वचा बारीक फुंसियों से ढँक गई, और मरीज़ की आत्मा को काफ़ी राहत महसूस हो रही थी.

 

***   

 

मिखाइल सिमिनोविच श्पल्यान्स्की ने खुद बची हुई रात मालाया-प्रवाल्नाया स्ट्रीट पर नीची छत वाले बड़े कमरे में बिताई जिसमें पुरानी तस्वीर लगी थी, जिसमें चालीस के दशक के समय से धुंधले हो गए एपोलेट्स (स्कंधपट्ट – अनु.) झाँक रहे थे. मिखाइल सिमिनोविच, बगैर कोट के, सिर्फ एक हल्की सफ़ेद कमीज़ में, जिस पर गहरे काट वाली काली जैकेट थी, एक छोटी-सी कुर्सी में बैठा था और फीके मटमैले चेहरे वाली औरत से कह रहा था:

“तो, यूलिया, मैंने आखिर फैसला कर लिया और इस बदमाश – गेटमन के बख्तरबंद डिविजन में शामिल होने जा रहा हूँ.”

इसके बाद उस औरत ने, जो भूरे रोएँदार स्कार्फ में लिपटी थी, और आधे घंटे पहले अनेगिन के आवेगपूर्ण चुम्बनों से अधमरी हो चुकी थी, कहा:

“मुझे बेहद अफ़सोस है, कि मैं तुम्हारी योजनाओं को न कभी समझ पाई और नहीं समझ सकती.”

मिखाइल सिमिनोविच ने कुर्सी के सामने वाली छोटी-सी मेज़ से सुगन्धित कन्याक का जाम उठाया, एक घूँट लेकर बोला:

“ज़रुरत भी नहीं है.”

 

***  

 

 

 

इस बातचीत के दो दिन बाद मिखाइल सिमिनोविच पूरी तरह परिवर्तित हो गया. अब उसके सिर पर लम्बी हैट के बदले पैनकेक जैसी टोपी थी, अफसर के बैज सहित, सिविलियन ड्रेस के स्थान पर – छोटा, घुटनों तक पहुंचता कोट था और उस पर मुड़े-तुड़े सुरक्षात्मक शोल्डर-स्ट्रैप्स थे. हाथों में “ह्यूजेनोट्स” के मार्सेल की भाँति घंटियों वाले दस्ताने थे, पैरों में गैटर्स (घुटनों के नीचे कसी हुई पट्टियां – अनु.). पूरा मिखाइल सिमिनोविच सिर से पैर तक मशीन के तेल से  और न जाने क्यों काजल से पुता हुआ था (चेहरा भी). एक बार, और वह भी नौ दिसंबर को, शहर के पास दो वाहन युद्ध में उतरे और, कहना पडेगा कि बेहद कामयाब रहे. वे मुख्य मार्ग पर करीब बारह मील रेंगते हुए गए, और उनके पहले ही तीन इंची गोलों की मार और मशीनगनों की गरज से पित्ल्यूरा की कतारें भाग गईं. एन्साइन स्त्रश्केविच, लाल गालों वाले  उत्साही और चौथी मशीन के कमांडर, ने मिखाइल सिमिनोविच से दावे के साथ कहा कि यदि चारों मशीनों को एक साथ उतारा जाता, तो वे शहर की रक्षा कर सकती थीं.       

यह बातचीत नौ तारीख की शाम को हुई, और ग्यारह को श्श्यूर, कपीलव तथा अन्य लोगों के ग्रुप में ( बंदूकचियों, दो ड्राइवर और मेकैनिक) श्पल्यान्स्की ने, जो डिविजन में ड्यूटी-अधिकारी था, शाम के धुंधलके में ये कहा:

“आप जानते हैं, दोस्तों, असल में, बड़ा सवाल ये है कि क्या इस गेटमन की रक्षा करते हुए, हम सही काम कर रहे हैं? हम उसके हाथों में कुछ और नहीं, बल्कि एक महँगा और खतरनाक खिलौना हैं, जिसकी सहायता से वह बेहद खतरनाक प्रतिक्रिया स्थापित करना चाहता है. कौन जानता है, हो सकता है, कि पित्ल्यूरा और गेटमन के बीच का संघर्ष को ऐतिहासिक दृष्टी से अनिवार्य हो, और इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप एक तीसरी ऐतिहासिक ताकत पैदा हो जाए और, शायद, वही सही साबित हो.”

श्रोता मिखाइल सिमिनोविच को इसीलिये पसंद करते थे, जिसके लिए उसे “प्राख” में पसंद करते थे – असाधारण वाक्पटुता के लिए.

“ये कौन सी ताकत है?” कपीलव ने हाथ से बनाई चुरूट का धुआँ छोड़ते हुए पूछा.

अक्लमंद, हट्टे-कट्टे भूरे बालों वाले श्श्यूर ने चालाकी से आंखें बारीक करते हुए अपने साथियों को आंख मारते हुए कहीं उत्तर-पूर्व की ओर इशारा किया. ग्रुप कुछ और देर बातें करता रहा और फिर बिखर गया. बारह दिसंबर की शाम को उसी छोटे से ग्रुप में गाड़ियों के शेड्स के पीछे मिखाइल सिमिनोविच के साथ दूसरी बार बातचीत हुई. इस बातचीत का विषय तो अज्ञात रहा, मगर अच्छी तरह मालूम है, कि चौदह दिसंबर की पूर्व संध्या को, जब शेड्स में                श्श्यूर, कपीलव और चपटी नाक वाला पित्रूखिन ड्यूटी पर थे तो मिखाइल सिमिनोविच अपने साथ पैकिंग कागज़ में बंधा हुआ एक पैकेट लेकर प्रकट हुआ. संतरी श्श्यूर ने उसे सराय में आने दिया, जहाँ एक गंदा बिजली का बल्ब धुंधली लाल रोशनी फेंक रहा था, कपीलव ने काफ़ी अपनेपन से पैकेट को देखते हुए आंख मारी और पूछा:

“शक्कर?

“उहूं,” मिखाइल सिमिनोविच ने जवाब दिया.

सराय में गाड़ियों के पास लालटेन लाई गई, जो आंख की तरह टिमटिमा रही थी, और व्यस्त मिखाइल सिमिनोविच उन्हें कल के मिशन के लिए तैयार करते हुए मेकैनिक के साथ काम कर रहा था.

कारण : डिविजन कमांडर प्लेश्को का ऑर्डर – “चौदह दिसंबर को, सुबह आठ बजे, पिचेर्स्क पर चारों मशीनों से हमला करें.”

मशीनों को युद्ध के लिए तैयार करने की मिखाइल सिमिनोविच और मेकैनिक की कोशिशों का विचित्र परिणाम हुआ. अभी कल तक पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त तीन मशीनें (चौथी स्त्रश्केविच के नेतृत्व में युद्ध पर थी) चौदह दिसंबर की सुबह अपनी जगह से हिल भी नहीं सकीं, जैसे उन्हें लकवा मार गया हो. कोई भी समझ नहीं पाया कि उनके साथ क्या हुआ था. कार्बुरेटर्स के जेट्स में कोई गन्दगी फंस गई थी, और उसे टायर-पम्प्स की सहायता से निकालने की कितनी ही कोशिश क्यों न की गई, कुछ फ़ायदा नहीं हुआ. सुबह के धुंधले प्रकाश में तीनों मशीनों के निकट लालटेनों के साथ काफी भागदौड़ हो रही थी. कैप्टेन प्लेश्को का चेहरा विवर्ण हो गया था, वह भेडिये की तरह चारों ओर देख रहा था, और उसने मेकैनिक को तलब किया. तभी से विपत्तियाँ शुरू हो गईं. मेकैनिक गायब हो गया. पता चला, कि डिविजन में उसका पता, सभी नियमों के बावजूद , अज्ञात है. अफ़वाह फ़ैली कि मेकैनिक को अचानक टायफॉइड हो गया है. ये हुआ आठ बजे, और साढ़े आठ बजे कैप्टेन प्लेश्को को दिल का दूसरा दौरा पडा. एन्साइन श्पल्यान्स्की, जो मेकैनिक के साथ काम करने के बाद रात को चार बजे श्श्यूर द्वारा चलाई जा रही मोटरसाइकल पर पिचेर्स्क गया था, वापस नहीं लौटा. अकेला श्श्यूर लौटा और उसने दुखभरी दास्तान सुनाई. 

मोटरसाइकल ऊपरी तेलिच्का पर पहुँची, और श्श्यूर व्यर्थ ही में एन्साइन श्पल्यान्स्की को लापरवाह साहसिक कारनामे न करने के लिए मनाता रहा. ये श्पल्यान्स्की पूरी डिविजन में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्ध था, श्श्यूर को छोड़कर और कार्बाइन तथा हथगोला, लेकर अकेला ही अँधेरे में रेल्वेलाईन की ओर निकल पडा. श्श्यूर ने गोलियों की आवाजें सुनीं. श्श्यूर को पूरा यकीन है कि दुश्मन के अग्रिम गश्ती दल की, जो तेलिच्का पहुँच गया था, श्पल्यान्स्की से मुठभेड़ हुई और, उन्होंने, बेशक, इस असमान युद्ध में उसे मार डाला. श्श्यूर ने एन्साइन का दो घंटे तक इंतज़ार किया, हांलाकि उसने उसे सिर्फ एक घंटे तक उसका इंतज़ार करने और उसके बाद डिविजन में वापस लौट जाने के लिए कहा था, ताकि वह खुद को और सरकारी मोटरसाइकल नं. 8175 को खतरे में न डाले.

श्श्यूर की कहानी सुनकर कैप्टेन प्लेश्को का चेहरा और भी विवर्ण हो गया. गेटमन के और जनरल कर्तुज़ोव के स्टाफ हेडक्वार्टर्स से टेलीफोन के पक्षी एक दूसरे से होड़ लगाते हुए गाये जा रहे थे और मशीनों के बाहर निकालने की मागं कर रहे थे. नौ बजे लाल गालों वाला उत्साही स्त्रश्केविच चौथी मशीन पर मोर्चे से लौटा, और उसकी लाली का कुछ अंश डिविजन कमांडर के गालों पर छा गया. ये बहादुर मशीन को पिचेर्स्क ले गया था, और उसने, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, सुवारोव्स्काया स्ट्रीट को अवरुद्ध कर दिया था.

सुबह दस बजे प्लेश्को के चेहरे पर अपरिवर्तनीय पीलापन छ गया. दो गनर्स, दो ड्राइवर्स और एक मशीनगनर बिना कोई निशान छोड़े ग़ायब हो गए. मशीनों को आगे बढाने की सारी कोशिशें व्यर्थ गईं. श्श्यूर भी, जो कैप्टेन प्लेश्को के ऑर्डर से मोटरसाइकल पर गया था, अपनी पोज़िशन से वापस नहीं लौटा. ज़ाहिर है, कि मोटरसाइकल भी नहीं लौटी, क्योंकि वह अपने आप तो लौट नहीं सकती! टेलीफोनों में पक्षी धमकियां देने लगे. जैसे जैसे दिन गुज़रता रहा, डिविजन में और भी ज़्यादा अजूबे होने लगे. तोपची दुवान और माल्त्सेव ग़ायब हो गए और दो मशीनगनर्स भी. मशीनें कुछ रहस्यमय, परित्यक्त सी नज़र आने लगीं, उनके आसपास कुछ स्क्रू, चाभियाँ और कुछ बाल्टियां बिखरी थीं.

और दोपहर में, दोपहर में खुद डिविजन कमांडर प्लेश्को भी ग़ायब हो गया.

 

 

 

                                    10.   

 

 

तीन दिनों तक अजीब तरह के फेरबदल, स्थानान्तरण, के बीच, जो कभी आक्रामक हो जाते, कभी अर्दलियों के आगमन और स्टाफ हेडक्वार्टर्स के टेलीफोनों की पीं-पीं से संबंधित होते, कर्नल नाय तुर्स की यूनिट बर्फीले टीलों, और बर्फ के बहाव से होते हुए  दक्षिण में रेड-टेवर्न से सिरिब्र्यान्का तक और दक्षिण-पश्चिम में पोस्ट वलीन्स्की तक चलती रही. मगर चौदह दिसंबर की शाम इस यूनिट को वापस शहर में ले आई, गली में - परित्यक्त, आधे टूटे कांच की खिड़कियों वाली बैरेक्स की इमारत में ले आई.

कर्नल नाय तुर्स की यूनिट अजीब थी. और जो भी उसे देखता, उसके फेल्ट बूटों से आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहता. पिछले तीन दिनों में आरंभ में उसमें करीब डेढ़ सौ कैडेट्स और तीन एन्साइन थे.

पहली स्क्वैड के प्रमुख मेजर-जनरल ब्लोखिन के पास दिसंबर के आरम्भ में मझोले कद का, काला, सफ़ाचट दाढी-मूछों वाला, मातमी आंखों वाला, घुड़सवार अफसर आया, जो हुस्सार-कर्नल के शोल्डर स्ट्रैप्स में था और उसने अपना परिचय भूतपूर्व बेलग्राद हुस्सार रेजिमेंट के दूसरे स्क्वैड्रन के भूतपूर्व स्क्वैड्रन कमांडर नाय-तुर्स के रूप में दिया. नाय-तुर्स की मातमी आंखें कुछ ऐसी थीं, कि जो भी सैनिकों वाले खराब ओवरकोट पर जर्जर जॉर्जियन रिबन लगाए, लंगडाकर चलते हुए कर्नल से मिलता, बहुत ध्यान से नाय-तुर्स की बात सुनता. जनरल ब्लोखिन ने नाय से थोड़ी देर बातचीत करने के बाद उसे स्क्वैड की दूसरी यूनिट के गठन की ज़िम्मेदारी सौंपी, और उसे तेरह दिसंबर तक पूरा करने का आदेश दिया. गठन आश्चर्यजनक तरीके से दस दिसंबर को पूरा हो गया, और दस को ही कर्नल नाय-तुर्स ने, जो वैसे भी शब्दों के मामले में आम तौर से कंजूस था, संक्षेप में मेजर-जनरल ब्लोखिन से, जो चारों तरफ से स्टाफ-हेडक्वार्टर के टेलीफोन के पंछियों से बेज़ार हो चुका था, इस बारे में कहा कि, वह, नाय-तुर्स अपने कैडेट्स के साथ अभियान पर जाने के लिए तैयार है, मगर एक आवश्यक शर्त पर कि उसे एक सौ पचास लोगों की पूरी यूनिट के लिए फ़र कैप्स और फेल्ट बूट्स दिए जाएँ, जिसके बगैर वह, नाय-तुर्स, समझता है कि युद्ध पूरी तरह असंभव है. जनरल ब्लोखिन ने तोतले और संक्षिप्त कर्नल की बात सुनने के बाद उसे खुशी-खुशी आपूर्ति विभाग के लिए सिफारिशी ख़त दिया, मगर कर्नल को आगाह भी कर दिया कि इस ख़त पर शायद एक सप्ताह पहले कुछ भी नहीं मिलेगा, क्योंकि इन आपूर्ति विभागों में और स्टाफ-हेड क्वार्टर में अविश्वसनीय प्रकार की बकवास, भगदड़ और बेहूदगी है. तोतले नाय-तुर्स ने वह कागज़ ले लिया, अपनी आदत के अनुसार बाईं कटी हुई मूंछ पर ताव दिया और, सिर को न दायें, न बाएँ मोड़ते हुए (वह उसे मोड़ ही नहीं सकता था, क्योंकि ज़ख़्मी होने के बाद उसकी गर्दन ऐंठ गई थी, और किनारे पर देखने की ज़रुरत पड़ने पर उसे अपना पूरा जिस्म घुमाना पड़ता था), मेजर-जनरल के ऑफिस से निकल गया. ल्वोव्स्काया स्ट्रीट पर स्क्वैड की इमारत में नाय-तुर्स ने अपने साथ दस कैडेट्स (न जाने क्यों संगीनों के साथ) और दो पहियों वाली दो गाड़ियां लीं और उनके साथ आपूर्ति विभाग की ओर चल पडा.

आपूर्ति विभाग में, जो बुल्वार्ना-कुद्र्याव्स्काया स्ट्रीट पर सबसे ख़ूबसूरत हवेली में था, छोटे-से आरामदेह कार्यालय में, जहाँ रूस का नक्शा टंगा हुआ था और रेड-क्रॉस के ज़माने की बची हुई अलेक्सान्द्रा फ्योदरव्ना की तस्वीर थी, कर्नल नाय-तुर्स का स्वागत एक छोटे, गुलाबी, अजीब तरह से गुलाबी, भूरा जैकेट पहने, जिसके कॉलर के नीचे साफ़ कमीज़ झाँक रही थी, जो उसे अलेक्सान्द्र द्वितीय के मिनिस्टर मिल्यूतिन जैसी समानता प्रदान कर रही थी, लेफ्टिनेंट जनरल मकूशिन ने किया.

टेलीफ़ोन से हटकर, जनरल ने बच्चों जैसी आवाज़ में, जो चीनी मिट्टी की सीटी जैसी थी, नाय से पूछा:

“आपको क्या चाहिए, कर्नल?

“अभी अभियान पर जा रहे हैं,” नाय ने संक्षिप्त उत्तर दिया, “फ़ौरन दो सौ आदमियों के लिए कैप्स और फेल्ट बूट्स देने की विनती करता हूँ.”

“हुम्,” जनरल ने होंठ चबाते हुए और हाथों से नाय की मांग को कुचलते हुए कहा, “देखिये, कर्नल, आज तो नहीं दे सकेंगे. आज आपूर्ति की मांग का टाइम-टेबल बनाएंगे. तीन दिन बाद भेजने की विनती करूंगा. और इतनी बड़ी संख्या में तो दे ही नहीं सकता.”

उसने नाय-तुर्स का कागज़ एक नग्न औरत की शक्ल के पेपरवेट के नीचे इस तरह रखा कि वह दिखाई दे. 

“फेल्ट बूट्स,” नाय ने एकसुर में जवाब दिया और, नाक की ओर आंखें करके उस तरफ देखा, जहाँ उसके जूतों के पंजे थे.

“क्या?” जनरल समझ नहीं पाया और एकटक कर्नल की ओर देखने लगा.

“फेल्ट बूट्स फ़ौरन दीजिये.”

“ये क्या बात हुई? कैसे?” जनरल की आंखें बाहर निकलने को हो गईं.

नाय दरवाज़े की ओर मुड़ा, और उसे थोड़ा सा खोलकर हवेली के गर्माहट भरे कॉरीडोर में चिल्लाया:

“ऐय, प्लेटून!”

जनरल का चेहरा भूरी झलक से फ़क हो गया, उसने नाय के चेहरे से नज़र हटाकर टेलीफोन के रिसीवर की ओर देखा, वहाँ से कोने में, रखी वर्जिन मेरी की प्रतिमा की ओर, और उसके बाद फिर नाय के चेहरे की ओर.

कॉरीडोर में खड़खड़ाहट हुई, खटखटाहट हुई, और अलेक्सेयेव्स्की अकादमी के कैडेट्स की टोपियों के लाल बैंड्स और काली संगीनों की झलक दिखाई दी. जनरल अपनी फूली-फूली कुर्सी से उठाने लगा:

“मैं पहली बार ऐसी बात सुन रहा हूँ...ये विद्रोह है...”

“हमाले कागज़ पर दस्तखत कीजिये, युवल हाईनेस,” नाय ने कहा, “हमाले पास समय नहीं है, हमें एक घंटे में निकलना है. दुस्मन, कहते हैं, सहल के बिलकुल नज़दीक है.”            

“कैसे?...ये क्या है?...”

“जल्दी,” नाय-तुर्स ने मातमी आवाज़ में कहा.

जनरल ने, कन्धों में अपना सिर दबाकर, आंखें बाहर निकालते हुए, औरत के नीचे से कागज़ बाहर खींचा और उछलते हुए पेन से कोने में, स्याही उड़ाते हुए घसीटा: “दिए जाएँ”.

नाय ने कागज़ लिया, उसे आस्तीन के कफ़ के नीचे घुसा लिया और कालीन पर चढ़ गए कैडेट्स से कहा:

“फेल्ट-बूट गादियों में लखो. फ़ौलन.”

कैडेट्स, खटखटाते और गरजते हुए, बाहर निकलने लगे, और नाय रुका रहा. जनरल ने, लाल होते हुए उससे कहा:

“मैं अभी कमांडर स्टाफ-हेडक्वार्टर में फ़ोन करता हूँ और आपके कोर्ट-मार्शल के बारे में बात करता हूँ. ये त-तो कु-कुछ...”

“कोसिस कल लो,” नाय ने जवाब दिया और थूक निगला, “ कोसिस तो कलो. अले, उत्सुकता की खातिल कोसिस कल लो.” उसने खुले हुए होल्स्टर से झांकते हुए हत्थे को पकड़ा. जनरल के मुँह पर धब्बे छा गए और वह गूंगा हो गया.

“फोन तो कल, बेवकूफ बूधे,” नाय ने अचानक भावावेश में कहा, “मैं इस कोल्ट से तुम्हाले सिल में छेद कल दूँगा, तुम लम्बे हो जाओगे.”

जनरल कुर्सी में बैठ गया. उसकी गर्दन पर लाल बल पड़ गए, मगर चेहरा भूरा ही रहा. नाय मुड़ा और निकल गया.

जनरल कुछ मिनट चमड़े की कुर्सी में बैठा रहा, फिर उसने सलीब का निशान बनाया, टेलीफोन का रिसीवर उठाया, उसे कान के पास रखा और उसे दबी-दबी, जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी “स्टेशन”...अचानक उसने अपने सामने घुड़सवार दस्ते के तोतले कर्नल की मातमी आंखों को महसूस किया, रिसीवर वापस रख दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा. वह देख रहा था कि कैसे कंपाऊंड में सराय के पिछले दरवाज़े से फेल्ट बूटों के भूरे बंडल बाहर लाते हुए कैडेट्स भाग-दौड़ कर रहे हैं. काली पृष्ठभूमि में क्वार्टरमास्टर का फ़ौजी चेहरा, पूरी तरह अचंभित,दिखाई दे रहा था. उसके हाथों में कागज़ था. नाय दो पहियों वाली गाडी के पास पैर फैलाए खडा था,और उसकी तरफ देख रहा था. जनरल ने मरियल हाथ से मेज़ से ताज़ा अखबार उठाया, उसे खोला और पहले ही पृष्ठ पर पढ़ा:

“इर्पिन नदी के पास दुश्मन की डिटेचमेंट्स के साथ, जो स्वितोशिना में घुसने की कोशिश कर रहे थे, मुठभेड़ें हुईं.....”

उसने अखबार फेंक दिया और जोर से कहा:

“बुरा हो उस दिन और उस घड़ी का, जब मैं इस सबमें शामिल हुआ...”

दरवाज़ा खुला, और बिना पूंछ के नेवले जैसे कैप्टेन - आपूर्ति विभाग के प्रमुख के सहायक ने प्रवेश किया. उसने सार्थक नज़रों से जनरल की कॉलर के ऊपर लाल निशानों को देखा और बोला:

“रिपोर्ट करने की इजाज़त दें, जनरल महाशय.”

“ऐसा है, व्लादीमिर फ्योदरविच,” हांफते हुए और पीड़ा से आंखें घुमाते हुए जनरल ने उसे टोका, “ मेरी तबियत ख़राब हो गई ....हल्का सा दौरा पडा है...हम्...मैं अभी घर जाऊंगा, और आप कृपया मेरी अनुपस्थिति में यहाँ संभाल लीजिये.”

“सुन रहा हूँ,” उत्सुकता से देखते हुए नेवले ने जवाब दिया, “क्या हुक्म देते हैं? चौथी डिटेचमेंट से और हुस्सार-इंजिनीयर्स भी फेल्ट बूट्स की मांग कर रहे हैं. आपने दो सौ जोड़ी देने का हुक्म दिया है?”

“हाँ. हाँ!” जनरल ने चुभती हुई आवाज़ में जवाब दिया, “हाँ, मैंने हुक्म दिया! मैंने ! खुद! इजाज़त दी! उनकी परिस्थिती विशेष है! वे अभी अभियान पर जा रहे हैं. हां, मोर्चे पर. हाँ!!”

 

नेवले की आंखों में उत्सुकता की चिंगारियां नाचने लगीं.

“ कुल चार सौ जोडियाँ ही...”

“मैं क्या करूँ? क्या?” भर्राई हुई आवाज़ में जनरल चीखा, “क्या मैं पैदा करूँ?! क्या फेल्ट बूट पैदा करूँ? पैदा करूँ? अगर मांग करते हैं, तो दीजिये – दीजिये- दीजिये!!”

पाँच मिनट बाद जनरल माकुशिन को गाडी में घर ले जाया गया.

 

 

***   

 

तेरह दिसंबर की रात को ब्रेस्ट-लितोव्स्की गली में मृत बैरेक्स जीवित हो उठे. विशाल गंदे हॉल में खिड़कियों के बीच की दीवार पर इलेक्ट्रिक बल्ब जल उठा (कैडेट्स ने दिन में लैम्प पोस्ट्स और स्तंभों पर कुछ तार खींचकर बल्ब लटकाए थे). डेढ़ सौ बंदूकें अपने आधारों पर खड़ी थीं, और गंदी चारपाइयों पर कैडेट्स सोये थे.  

नाय-तुर्स लकड़ी की जर्जर मेज़ के पास, जिस पर ब्रेड के टुकडे, बचे हुए ठन्डे शोरवे के बर्तन, पाउचेस और क्लिप्स  पड़े थे, शहर का  बहुरंगी प्लान फैलाए बैठा था. किचन का छोटा सा लैम्प उस प्लान पर प्रकाश-पुंज फेंक रहा था, और उस पर द्नेपर अनेक शाखाओं वाले, सूखे और नीले पेड़ जैसी नज़र आ रही थी.

रात के लगभग दो बजे, नाय पर नींद हावी होने लगी. उसने नाक से गहरी सांस ली, वह कई बार प्लान पर झुका,जैसे उसमें कुछ ढूँढना चाहता हो. आखिरकार     
वह धीरे से चिल्लाया:

“कैदेत?!”

“जी, कर्नल महाशय,” दरवाज़े के पास से जवाब आया, और कैडेट, फेल्ट बूट चरमराते हुए लैम्प के पास आया. लेतूंगा,” नाय ने कहा, “औल तुम मुझे तीन घंते बाद जगा देना. अगल तेलिफोनग्लाम आये तो एन्साइन झागव को जगा देना, और उसकी इबालत के मुताबिक़ वह मुझे जगायेगा या नहीं जगायेगा.”

कोई टेलिफोनोग्राम नहीं आया. ..आम तौर से इस रात को स्टाफ-हेडक्वार्टर ने नाय की डिटेचमेंट  को  परेशान नहीं किया. डिटेचमेंट सुबह निकली तीन मशीनगन्स और दो पहियों वाली तीन गाड़ियों के साथ और रास्ते पर फ़ैल गई. बाहरी इलाके के घर मृतप्राय थे. मगर जब डिटेचमेंट पॉलिटेकनिक वाली सबसे चौड़ी सड़क पर आई, तो वहाँ हलचल दिखाई दी. सुबह के झुटपुटे में खड़खड़ाते हुए ट्रक, इक्का-दुक्का भूरी टोपियां नजर आ जातीं. ये सब शहर में वापस जा रहा था और कुछ भय से नाय की डिटेचमेंट से बचते हुए जा रहा था. धीरे-धीरे और विश्वासपूर्वक सुबह हो रही थी, और सरकारी समर-कॉटेजों के ऊपर तथा कुचले गए और गड्ढों वाले राजमार्ग पर कोहरा उठ रहा था और बिखर रहा था.

नाय इस सुबह से दोपहर तीन बजे तक पॉलिटेकनिक के पास ही था, क्योंकि दिन में उसके पास चौथी दो पहिये वाली गाड़ी पर उसकी डिविजन का एक कैडेट स्टाफ हेडक्वार्टर से पेन्सिल से लिखा हुआ ‘नोटलाया था.

“पॉलिटेकनिक राजमार्ग की सुरक्षा करें और, यदि दुश्मन प्रकट होता है तो युद्ध करें.”

इस दुश्मन को नाय-तुर्स ने पहली बार देखा दोपहर में तीन बजे, जब बाईं ओर, दूर, मिलिट्री बैरेक्स के परेड ग्राउंड पर अनेक घुड़सवार दिखाई दिए. ये कर्नल कोज़िर-लिश्को ही था, जो कर्नल तरोपेत्स के ‘प्लान के अनुसार राजमार्ग पर घुसने की और वहाँ से शहर के केंद्र में पहुँचने की कोशिश कर रहा था. सच कहें तो, पॉलिटेकनिक स्ट्रीट वाले भाग में कोई प्रतिरोध न पाकर कोज़िर-लिश्को ने शहर पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि वह उसके भीतर प्रवेश ही कर रहा था, विजेता के आविर्भाव में और पूरे तामझाम के साथ, अच्छी तरह जानते हुए कि उसके पीछे कर्नल सस्नेन्का की कज़ाक रेजिमेंट, दो रेजिमेंट ब्ल्यू डिविजन के, सिच राईफलमैनों की रेजिमेंट और छः बैटरीज़ हैं. जब परेड ग्राउंड पर बिन्दुओं की भाँति घुड़सवारों की आकृतियाँ प्रकट हुईं, तो बमों के टुकड़े घने, बर्फबारी का वादा करते आसमान की ओर, ऊंचे, सारस के समान लपकने लगे. घोड़ों के बिंदु रिबन बनाते हुए इकट्ठा हो गये और, पूरे राजमार्ग की चौडाई पर के कब्ज़ा करके फूलने लगे, काले होने लगे, बड़े होने लगे और नाय-तुर्स पर झपट पडे. कैडेट्स की कतारों में गरज के साथ खटखट होने लगी, नाय ने सीटी निकाली, कर्णभेदी सीटी बजाई और चीखा:

“सीधे कैवेलली पर! ....तेज़...फ़ा-यल !”

भूरी कतारों से चिंगारी फ़ैली, और कैडेट्स ने कोज़िर को पहली झड़ी भेजी. इसके बाद तीन बार आसमान से पॉलिटेकनिक इंस्टीट्यूट की दीवारों तक कैनवास को चीरते हुए गोलों के टुकड़े गुज़ारे, और तीन बार, नाय-तुर्स की बटालियन ने गरज को प्रतिध्वनित करते हुए गोलाबारी की. दूरी पर घुड़सवारों की काली रिबन्स टूट गईं, बिखर गईं और राजमार्ग से लुप्त हो गईं.

यही तो वह समय था जब नाय को कुछ हुआ. सच में कहा जाए, तो स्क्वैड में एक भी आदमी ने एक भी बार नाय को भयभीत नहीं देखा था, मगर अब कैडेट्स को ऐसा लगा, जैसे नाय ने आसमान में कहीं कोई खतरनाक चीज़ देख ली है, या कहीं दूर से कुछ सुन लिया है...एक लब्ज़ में, नाय ने शहर वापस लौटने का हुक्म दिया. एक प्लेटून पीछे रहकर , गरज के साथ राजमार्ग पर गोलियां चलाकर पीछे हटती हुई प्लेटून्स को सुरक्षा देती रही. इसके बाद खुद भी भाग गई. इस तरह करीब डेढ़ मील भागते रहे,गिरते-पड़ते, और उस महान मार्ग को गुंजाते हुए, जब तक कि राजमार्ग और उसी ब्रेस्त–लितोव्स्की गली के चौराहे पर नहीं पहुँच गए, जहाँ पिछली रात बिताई थी. चौराहा पूरी तरह शांत था, और कहीं भी, एक भी इंसान नहीं था.   

अब नाय ने तीन कैडेट्स को अलग बुलाकर हुक्म दिया:

“भाग कल पलेवाया और बग्शागव्स्काया पल जाओ, पता कलो कि हमाले यूनिट्स कहाँ हैं औल उनका क्या हो लहा है. अगर कोई ट्रक या बग्घी या आवागमन के साधन देखो, जो बेतलतीब ढंग से जा लहे हों, तो उन्हें ले लेना. अगल मुकाबला कलें तो पिस्तौल से दलाना, और फिर चला देना...”

कैडेट्स पीछे भागे, फिर बाएँ, और ओझल हो गए, और अचानक कहीं सामने से, स्क्वैड पर गोलियां चलने लगीं. वे  छतों से टकराने लगीं, बार-बार चलने लगीं, और पंक्ति में एक कैडेट मुँह के बल बर्फ पर गिर पडा और उसे खून से रंग दिया. उसके बाद दूसरा, कराहते हुए मशीनगन से दूर छिटक गया. नाय की कतारें बिखरने लगीं और शैतानी ताकत जैसी धरती से प्रकट होतीं दुश्मन की काली कतारों का सामना करते हुए, निरंतर हो रही गोलीबारी के कारण राजमार्ग पर लुढ़कने लगीं. ज़ख़्मी कैडेट्स को उठाया गया, सफ़ेद बैंडेज खुलने लगे. नाय के जबड़े भिंच गए. वह बार-बार शरीर को घुमाकर दूर, पार्श्व में देखने की कोशिश कर रहा था, और उसके चहरे से स्पष्ट दिखाई दे रहा था, कि वह बेताबी से भेजे गए कैडेट्स का इंतज़ार कर रह था. और वे, आखिरकार, भागते हुए, सीटियाँ बजाते, हांफते हुए आये, खदेड़े गए शिकारी कुत्तों की तरह. नाय सतर्क हो गया और उसका चेहरा काला पड़ गया. पहला कैडेट भागते हुए नाय के पास आया और हांफते हुए बोला:

“कर्नल महाशय, हमारी कोई भी यूनिट, न सिर्फ शुल्याव्का में, बल्कि कहीं भी नहीं है,” उसने सांस ली. “हमारे यहाँ पार्श्व भाग में मशीनगनों की फायरिंग हो रहै है, और दुश्मन का घुड़सवार दस्ता, अभी शुल्याव्का पर आगे बढ़ गया है, जैसे शहर में प्रवेश कर रहा हो...” 

     

कैडेट के शब्द नाय की कर्णभेदी सीटी में दब गये.

दो पहियों वाली तीन गाड़ियां ब्रेस्त-लितोव्स्की गली से बाहर निकलीं, खड़खड़ाते हुए उस पर चलीं, और फिर फनार्नाया पर ऊबड़-खाबड़ बर्फ से होते हुए चल पडीं. दो पहियों वाली गाड़ियाँ दो ज़ख़्मी कैडेट्स को, पंद्रह हथियारबंद और स्वस्थ कैडेट्स को और तीनों मशीनगनों को ले गईं. दो पहियों वाली गाड़ियाँ इससे ज़्यादा नहीं ले जा सकीं. और नाय-तुर्स कतारों की ओर मुडा और ज़ोर से और तुतलाते हुए ऐसा अजीब हुक्म दिया, जैसा उन्होंने कभी सुना नहीं था....

ल्वोव्स्काया स्ट्रीट पर भूतपूर्व बैरेक्स की पोपडे निकली हुई और खूब गर्माई हुई इमारत में पहली पैदल डिविजन की तीसरी स्क्वैड परेशान हो रही थी, जिसमें अट्ठाईस कैडेट्स थे. सबसे दिलचस्प बात इस परेशानी में यह थी कि इन बेज़ार कैडेट्स का कमांडर था निकोल्का तुर्बीन. डिविजन का कमांडर, स्टाफ-कैप्टेन बिज़रूकव, और उसके दो सहकारी – एन्साईन, जो सुबह ही स्टाफ-हेडक्वार्टर चले गए थे, वापस नहीं लौटे थे. निकोल्का – सबसे वरिष्ठ कार्पोरल, बैरेक में बेचैन हो रहा था, बार-बार टेलीफोन के पास चला जाता और उसकी तरफ देख लेता.

 

इस तरह दिन के तीन बज गए. आखिरकार कैडेट्स के चेहरों पर पीड़ा झलकने लगी...एह...एह...

तीन बजे फील्ड-टेलीफोन चहका.

“क्या यह डिविजन की तीसरी स्क्वैड है?

“हाँ.”

“कमांडर को फोन पर बुलाइए.”

“कौन बोल रहा है?

“स्टाफ हेड क्वार्टर से...”

“कमांडर वापस नहीं आये.”

“कौन बोल रहा है?

“अंडर-ऑफिसर तुर्बीन.”

“क्या आप सीनियर हैं?

“जी, सही फरमाया.”

“फ़ौरन अपने स्क्वैड को रूट पर ले जाइए.”

और निकोल्का ने अट्ठाईस लोगों को बाहर निकाला और उन्हें रास्ते पर ले चला.

 

***  

 

दिन के दो बजे तक अलेक्सेई वसील्येविच मुर्दों की तरह सोता रहा. वह जागा तो पसीने से तरबतर था, कुर्सी पर रखी छोटी सी घड़ी की ओर देखा, उसमें दो बजने में दस मिनट थे, और वह कमरे में इधर-उधर घूमने लगा. अलेक्सेई वसील्येविच ने फेल्ट-बूट चढ़ाए, जल्दबाजी में कभी एक, तो कभी दूसरी चीज़ भूलते हुए जेबों में माचिस, सिगरेट केस,रूमाल, ब्राउनिंग और दो कारतूस रखे, ओवरकोट कस कर बांधा,फिर कुछ याद किया, मगर हिचकिचाया, - उसे यह शर्मनाक और डरपोक लगा, मगर फिर भी उसने किया, - मेज़ की दराज़ से अपना सिविलियन डॉक्टर वाला पासपोर्ट निकाला. उसने हाथों में उसे घुमाया, अपने साथ लेने का फैसला किया, मगर इसी समय एलेना ने उसे आवाज़ दी, और वह उसे मेज़ पर ही भूल गया.

“सुनो, एलेना,” तुर्बीन ने बेल्ट कसते हुए और घबराते हुए कहा, उसका दिल किसी अप्रिय पूर्वाभास से डूबा जा रहा था, और वह इस ख़याल से परेशान था कि इतने बड़े, खाली क्वार्टर में एलेना अन्यूता के साथ अकेली रह जायेगी, - “कुछ नहीं किया जा सकता.

न जाना नामुमकिन है. खैर, मेरे साथ, मान लो कि कुछ नहीं होगा. डिविजन शहर की सीमा से बाहर नहीं जायेगी, और मैं किसी सुरक्षित जगह पर रहूँगा. खुदा निकोल्का की भी हिफाज़त करेगा. आज सुबह मैंने सुना कि परिस्थिति और भी गंभीर हो गई है,खैर,उम्मीद है कि हम पित्ल्यूरा को हरा देंगे. तो, कहता हूँ, अलबिदा...”

एलेना अकेली ही खाली ड्राइंग रूम में पियानो से, जहाँ, पहले ही की तरह, रंगबिरंगा वलेन्तीन (फाउस्ट के ऑपेरा से – अनु.)  खुला पडा था,अलेक्सेई के कमरे तक घूम रही थी. उसके           

पैरों के नीचे लकड़ी का फर्श चरमरा रहा था. उसका चेहरा दुखी था.

 

 

***   

अपनी घुमावदार सड़क और व्लादीमिर्स्काया के नुक्कड़ पर तुर्बीन गाडीवान को किराए पर ले रहा था. वह ले जाने को तैयार हो गया, मगर,उदासी से नाक बजाते हुए, खतरनाक किराया बता बैठा,और ज़ाहिर था, कि वह पीछे नहीं हटेगा. दांत भींचकर, तुर्बीन स्लेज में बैठा और म्यूज़ियम की दिशा में निकल पडा. बर्फ गिर रही थी.

अलेक्सेई वसील्येविच का मन बहुत व्याकुल था. वह जा रहा था और दूर पर हो रही मशीनगन की फायरिंग सुन रहा था, जो कहीं पॉलिटेकनिक इंस्टीट्यूट की तरफ़ से रेल्वे स्टेशन की दिशा में विस्फोटों की तरह आ रही थी. तुर्बीन यह सोच रहा था कि इसका क्या मतलब हो सकता है (बल्बतून की दोपहर के आगमन के समय वह सो गया था), और,सिर घुमाते हुए फुटपाथों को देख रहा था. उन पर हाँलाकि अफरा-तफरी और परेशानी भरी हलचल थी, मगर फिर भी काफी मात्रा में लोग आ जा रहे थे. 

“ठहर...ठ...”  नशे में धुत एक आवाज़ ने कहा.

“इसका क्या मतलब है?” तुर्बीन ने गुस्से से पूछा.

गाडीवान ने इस तरह लगाम खींची कि तुर्बीन के घुटनों पर गिरते-गिरते बचा. पूरी तरह लाल एक चेहरा शैफ्ट के पास डोल रहा था, लगाम पकड़कर उस पर से सीट पर पहुँचने की कोशिश कर रहा था. भेड़ की खाल के, भूरे छोटे ओवरकोट पर मुड़े-तुड़े एन्साइन के शोल्डर स्ट्रैप्स चमक रहे थे. तुर्बीन को गज भर की दूरी से ही जले हुए अल्कोहल और प्याज की बू ने दबोच लिया. एन्साइन के हाथों में राइफल झूल रही थी.   

“मो...मो...मोड़,” – लाल शराबी ने कहा, “उ...उतार पैसेंजर को...” अचानक लाल आदमी को ‘पैसेंजरशब्द हास्यास्पद लगा, और वह खिलखिलाया.

“इसका क्या मतलब है?” तुर्बीन ने गुस्से से पूछा, “क्या आप देख नहीं रहे हैं, कि कौन जा रहा है? मैं ड्यूटी पर जा रहा हूँ. कृपया गाडीवान को बख्श दें, चल!”

“नहीं, नहीं चलना...” लाल आदमी ने धमकाते हुए कहा और सिर्फ तभी, आंखें झपकाते हुए, उसने तुर्बीन के शोल्डर स्ट्रैप्स को देखा. “आह, डॉक्टर, तो, साथ में...मैं भी बैठूंगा...”

“हमारा वह रास्ता नहीं है...चल!”

“मे...ह...रबानी कीजिये...”

“चल!”

गाडीवान ने कन्धों में सिर खींचकर, लगाम खींचना चाहा, मगर फिर इरादा बदल दिया; मुड़कर, उसने गुस्से और भय से लाल आदमी की ओर देखा. मगर वह खुद ही अचानक रुक गया, क्योंकि उसने एक खाली गाडीवान को देख लिया था. खाली गाडीवान जाना चाहता था, मगर ऐसा न कर सका. लाल आदमी ने दोनों हाथों से बन्दूक उठाकर उसे धमकाया. गाडीवान वहीं जम गया, और लाल आदमी, लड़खड़ाते और हिचकियाँ लेते हुए, उसकी ओर झूमा.

“अगर जानता, तो, पाँच सौ में भी न जाता,” अपने बूढ़े टट्टू पर चाबुक बरसाते हुए गाडीवान गुस्से से बुदबुदाया, “पीठ में गोली मारेगा, क्या कर लोगे आप?

तुर्बीन उदासी से चुप रहा.

“यह है एक कमीना...ऐसे लोग पूरे उद्देश्य को शर्मसार करते हैं,” उसने कड़वाहट से सोचा.

 

ऑपेरा थियेटर के पास वाले चौराहे पर गहमा गहमी और भागदौड़ थी. ट्राम के रास्ते के ठीक बीचोंबीच एक मशीनगन रखी थी, जिसकी सुरक्षा काले ओवरकोट में और हेडफोन्स पहने एक छोटा सा ठिठुर गया कैडेट और भूरा ओवरकोट पहने एक अन्य कैडेट कर रहा था. आने जाने वाले, मक्खियों की तरह, झुंडों में फुटपाथ से चिपक कर उत्सुकता से मशीनगन को देख रहे थे. फार्मेसी के पास, नुक्कड़ पर, म्यूज़ियम के पास तुर्बीन ने गाड़ीवान को छोड़ दिया.

“बढ़ के किराया दीजिये, युअर ऑनर,” गाडीवान ने कड़वाहट और जिद्दीपन से कहा, “अगर पता होता, तो आता ही नहीं. देख रहे हैं न कि क्या हो रहा है!”

“दूँगा एक.”

“बच्चों को इसमें क्यों खींच लिया...” किसी महिला की आवाज़ सुनाई दी.

सिर्फ अभी तुर्बीन ने म्यूज़ियम के पास हथियारबन्द लोगों की भीड़ देखी. वह फ़ैल रही थी और घनी होती जा रही थी. फुटपाथ पर ओवरकोटों के पल्लों के बीच धुंधली सी मशीनगनें झाँक जाती थीं. और तभी पिच्योर्स्का पर दनादन गोलियां बरसने लगीं.

व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...

“कोई गड़बड़ तो, लगता है, शुरू हो गई है,” तुर्बीन ने परेशानी से सोचा और चाल तेज़ करके चौराहे से होकर म्यूज़ियम की ओर चल पडा.

“कहीं मुझे देर तो नहीं हो गई?...कैसा काण्ड हो रहा है...वे सोच सकते हैं, कि मैं भाग गया...”

एन्साईन्स, जूनियर और सीनियर कैडेट्स, थोड़े बहुत सैनिक परेशान थे,उत्तेजित थे और म्यूज़ियम के भारी-भरकम प्रवेश द्वार के पास और बगल वाले टूटे हुए दरवाजों के पास, जो अलेक्सान्द्रोव्स्की जिम्नेशियम के परेड ग्राउंड को जाते थे, भाग रहे थे. दरवाज़े के विशाल कांच हर पल थरथरा रहे थे, दरवाज़े कराह रहे थे, और म्यूज़ियम की गोल, सफ़ेद बिल्डिंग में, जिसके दर्शनीय भाग पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था:

‘रूसी जनता की अच्छी शिक्षा के लिए”,  हथियारबंद, अस्तव्यस्त और उत्तेजित कैडेट्स भाग रहे थे.   

“माय गॉड!” अनचाहे ही तुर्बीन चीखा, “ वे चले भी गए.”

तोपें चुपचाप तुर्बीन की ओर देख रही थीं और निपट अकेली और परित्यक्त, उसी जगह खडी थीं, जहाँ वे कल थीं.

“कुछ भी समझ  में नहीं आ रहा है... इसका क्या मतलब है?

कुछ भी समझ न पाते हुए तुर्बीन परेड ग्राउंड पर तोपों के पास भागा. जैसे जैसे वह आगे भाग रहा था, तोपों का आकार बड़ा होता गया और वे खौफ़नाक तरीके से उसकी तरफ देख रही थीं.  और ये किनारे वाली. तुर्बीन रुक गया और जम गया: उस पर ताला नहीं था. तेज़ी से दौड़ते हुए उसने वापस परेड ग्राउंड पार किया और फिर से सड़क पर आ गया. यहाँ भीड़ और  भी उफ़न रही थी, कई सारी आवाजें एक साथ चीख रही थीं, और संगीनें बाहर निकल रही थीं और उछल रही थीं.

“कर्तुज़ोव का इंतज़ार करना चाहिए! यही ठीक रहेगा!” एक उत्तेजित, खनखनाती आवाज़ चीखी. कोई एन्साइन तुर्बीन का रास्ता काटते हुए भागा, और तुर्बीन ने उसकी पीठ पर लटकती हुई रकाबों के साथ पीली काठी देखी.  

“पोलिश दस्ते को दे देना.”

“मगर वह कहाँ है?

“आह, शैतान जाने!”

“सब म्यूज़ियम में! सब म्यूज़ियम में!”

“दोन पर!”

एन्साइन अचानक रुक गया, उसने काठी को फुटपाथ पर फेंक दिया.

“ जहन्नुम में जाए! सब भाड़ में जाए,” वह तैश में चीखा, “आह, स्टाफ हेडक्वार्टर वाले!...”

न जाने किसे मुट्ठियों से धमकाता हुआ, वह एक किनारे को हट गया.

“ भयानक विपदा...अब मैं समझ रहा हूँ...मगर कितनी खतरनाक बात है – वे, शायद, इन्फैंट्री में चले गए हैं. हाँ, हाँ, हाँ...बेशक.

शायद, पित्ल्यूरा अकस्मात् प्रकट हो गया हो. घोड़े नहीं हैं, और वे बंदूकों के साथ गए हैं, बिना गोलियों के... आह तू, मेरे खुदा...अंजू की बुटीक तक भागना होगा...हो सकता है, वहाँ कुछ पता चले...ये भी हो सकता है, कि कोई रह गया हो?

तुर्बीन बवंडर जैसी भीड़ से बाहर उछला और, किसी पर भी ध्यान न देते हुए, वापस ऑपेरा थियेटर की ओर भागा. थियेटर की सीमा से लगे डामर के रास्ते पर सूखी हवा का झोंका आया और काली खिड़की के निकट, बगल वाले प्रवेश द्वार के पास वाली थियेटर की दीवार पर लगे, आधे फटे इश्तेहार की किनार को सहला गया. कारमेन. कारमेन.

   

और यह रही अंजू की बुटीक. खिड़कियों में तोपें नहीं थीं, खिड़कियों में सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स नहीं थे. खिड़कियों से आग की थरथराती, धुंधली चमक थी. क्या अग्निकांड? तुर्बीन के हाथ के नीचे दरवाज़ा चरमराया, लेकिन खुला नहीं. तुर्बीन उत्तेजना से खटखटाने लगा. और एक बार खटखटाया. एक भूरी आकृति दरवाज़े के कांच के पीछे दिखाई दी, और उसने दरवाज़ा खोला, और तुर्बीन बुटीक के भीतर गया. तुर्बीन ने चौंक कर उस अनजान आकृति को गौर से देखा. उसने स्टूडेंट्स वाला काला ओवरकोट पहना था, और सिर पर दीमक लगी, सिविलियन टोपी थी, लम्बे कानों वाली, जिन्हें सिर के ऊपर तक खींचा गया था.  चेहरा तो आश्चर्यजनक रूप से जाना-पहचाना था, मगर जैसे किसी चीज़ से बदरंग और विकृत हो गया था. कागज़ के कुछ पन्नों को खाते हुए भट्टी तैश से भुनभुना रही थी. पूरे फर्श पर कागज बिखरे थे. आकृति ने तुर्बीन को भीतर आने दिया, कुछ भी न कहते हुए उससे दूर भट्टी की तरफ छिटक गई और पालथी मार कर बैठ गई,लाल रोशनी उसके चेहरे पर नाच रही थी.

“मालिशेव? हाँ, कर्नल मालिशेव,” तुर्बीन ने पहचान लिया.

कर्नल के चहरे पर मूंछें नहीं थीं. उनके स्थान पर चिकनी, निलाई तक साफ़ की हुई जगह थी.  

मालिशेव ने झटके से अपना हाथ फैलाया, फर्श से कागज़ के पन्ने उठाये और उन्हें भट्टी में घुसाया.

“आहा...आ”.  

“ये क्या है? सब ख़त्म हो गया?” तुर्बीन ने सुस्ती से पूछा.

“ख़त्म हो गया,” कर्नल ने संक्षिप्त जवाब दिया, उछला, मेज़ की तरफ़ लपका, गौर से उस पर नज़र घुमाई, कई बार दराजें खोलीं-बंद कीं, जल्दी से झुका, फर्श से कागजों का आख़िरी पुलिंदा उठाया और उसे भट्टी में झोंक दिया. सिर्फ इसके बाद ही वह तुर्बीन की ओर मुड़ा और इत्मीनान से व्यंग्यपूर्वक बोला: “ थोड़ा सा युद्ध कर लिया – और बस!” उसने भीतर वाली जेब में हाथ डाला और जल्दी से एक बटुआ निकाला, उसमें रखे कागजात की जाँच की, किन्हीं दो पन्नों को तिरछा फाड़ दिया और उन्हें भट्टी में फेंक दिया. इस दौरान तुर्बीन गौर से उसे देखता रहा. मालिशेव अब किसी भी कर्नल जैसा नहीं लग रहा था. तुर्बीन के सामने काफी मोटा स्टूडेंट, फूले-फूले लाल होठों वाला शौकिया एक्टर खड़ा था.

“डॉक्टर? आप क्या कर रहे हैं?” मालिशेव ने परेशानी से तुर्बीन के कन्धों की ओर इशारा करते हुए कहा, “जल्दी से उतारिये. आप कर क्या रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? क्या आप कुछ भी नहीं जानते?

“मुझे देर हो गई, कर्नल,” तुर्बीन ने कहा.

मालिशेव प्रसन्नता से मुस्कुराया. फिर अचानक उसके चेहरे से मुस्कराहट लुप्त हो गई, उसने अपराध बोध से और चिंता से सिर हिलाया और कहा;

“आह तू, मेरे खुदा, मैंने ही तो आपको निराश किया है! आपको इस समय आने के लिए कहा...आप, ज़ाहिर है, दोपहर में घर से बाहर नहीं निकले? खैर, ठीक है. अब इस बारे में कहने को कुछ भी नहीं है. एक लब्ज़ में: अपने स्ट्रैप्स उतारिये और भागिए, छुप जाइए.”

“बात क्या है? क्या बात है, खुदा के लिए, बताइये?...”

“क्या बात है?” व्यंग्यपूर्वक मुस्कराहट से मालिशेव ने फिर से कहा, “ बात ये है कि पित्ल्यूरा शहर के भीतर है. पिच्योर्स्क पर, अगर अब तक क्रिश्चातिक पर न पहुँच गया हो तो. शहर पर कब्ज़ा कर लिया है.” मालिशेव ने अचानक अपने दांत भींचे, आंखें तिरछी कीं और फिर से अकस्मात् बोल पडा, शौकिया एक्टर की तरह नहीं, बल्कि पहले वाले मालिशेव की तरह: “स्टाफ हेडक्वार्टर्स ने हमें धोखा दिया. सुबह ही भाग जाना चाहिए था. मगर मुझे, खुशनसीबी से, कुछ भले लोगों की बदौलत, रात को ही सब पता चल गया था, और मैं डिविजन को भगाने में कामयाब हो गया. डॉक्टर, सोचने का समय नहीं है, अपने शोल्डर स्ट्रैप्स उतारो!”

...और वहाँ, म्यूज़ियम में, म्यूज़ियम में...”

मालिशेव का चेहरा स्याह हो गया.

“कोई मतलब नहीं है,” उसने गुस्से से जवाब दिया, “कोई मतलब नहीं है! अब मुझे किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं है. मैं अभी अभी वहाँ था, चीखा, आगाह किया, भाग जाने को कहा. इसके अलावा कुछ और नहीं कर सकता. अपने सब लोगों को मैंने बचा लिया. मरने के लिए नहीं भेजा! शर्मिन्दा नहीं किया!” मालिशेव अचानक उन्माद से चीखने लगा, ज़ाहिर था कि उसके भीतर कुछ जल गया था और टूट गया था और वह खुद पर काबू रखने में असमर्थ था. “वाह, जनरलों!” उसने मुट्ठियाँ भींची और किसी को धमकाने लगा. उसका चेहरा लाल हो गया.

इसी समय रास्ते से, कहीं ऊपर मशीनगन चिंघाड़ी, और ऐसा लगा कि वह पड़ोस के बड़े घर को झकझोर रही है.

मालिशेव थरथरा गया, फ़ौरन चुप हो गया.

“अच्छा, डॉक्टर, चलता हूँ! अलबिदा! भागिए! सिर्फ रास्ते पर न भागना, बल्कि यहाँ से, चोर दरवाज़े से, और वहाँ आंगनों से होकर. वो रास्ता अभी भी खुला है. जल्दी!”

मालिशेव ने स्तब्ध तुर्बीन से हाथ मिलाया, फ़ौरन पीछे मुड़ा और पार्टीशन के पीछे अंधेरी खाई की ओर भागा. बुटीक के भीतर फ़ौरन सब कुछ शांत हो गया. और रास्ते पर भी मशीनगन शांत हो गई.

अब अकेलापन था. भट्टी में कागज़ जल रहा था. मालिशेव की चीखों के बावजूद तुर्बीन सुस्ती से और धीरे-धीरे दरवाज़े के पास गया. कुंडी को टटोला, उसे हुक में डाला भट्टी के पास लौटा. चीख-चिल्लाहट के बावजूद, तुर्बीन आराम से काम कर रहा था, सुस्ती से चल रहा था, सुस्त, गड्डमड्ड खयालों में. अस्थिर आग कागज़ को खा रही थी, भट्टी का मुख खुशनुमा लपटों से खामोश लाल हो गया, और बुटीक में अचानक अन्धेरा हो गया. भूरी परछाईयों में दीवारों पर लगी अलमारियाँ चिपकी थीं. तुर्बीन ने उन पर नज़र डाली और सुस्ती से सोचा, कि मैडम अंजू के यहाँ अब तक सेंट की खुशबू महक रही है. हल्की सी, मरियल सी, मगर महक रही है.        

तुर्बीन के दिमाग में बेतरतीब विचारों का ढेर लग गया, और कुछ देर वह यूँ ही उस तरफ़ देखता रहा, जहाँ मूंछमुंडा कर्नल गायब हो गया था. फिर खामोशी में धीरे-धीरे गुत्थी सुलझने लगी. सबसे महत्वपूर्ण और ज्वलंत धागा सामने आया – पित्ल्यूरा यहाँ आ चुका है. “पेतुर्रा, पेतुर्रा”, तुर्बीन क्षीणता से दुहराता रहा और हँस पडा, खुद भी इसका कारण न समझते हुए. वह दीवार पर लगे शीशे की तरफ़ गया, जो मलमल की तरह धूल की पर्त से ढंका था.

कागज़ पूरा जल गया, और अंतिम लाल लपट, थोड़ा सा चिढाकर, फर्श पर बुझ गई. अन्धेरा छा गया.

“पित्ल्यूरा, ये कितना जंगली है...वाकई में देश पूरी तरह बरबाद हो चुका है,” दुकान के अँधेरे में तुर्बीन बडबडाया, मगर फिर उसने होश संभाल लिए: “ये मैं क्या सोच रहा हूँ? वाकई में, क्या कह सकते हैं, वे किसी भी समय यहाँ आ धमकेंगे?

अब वह दौड़ धूप करने लगा,जैसे मालिशेव जाने से पहले कर रहा था, और अपने शोल्डर स्ट्रैप्स उखाड़ने लगा. धागे चटचटाने लगे, और हाथों में जैकेट की दो काली पड़ चुकी चांदी की पट्टियां और ओवरकोट की दो हरी पट्टियां रह गईं. तुर्बीन ने उनकी ओर देखा, हाथों में घुमाया, यादगार की तरह जेब में छुपाना चाहा, मगर फिर सोचा और उसे समझ में आ गया कि यह खतरनाक है, उन्हें भी जलाने का निश्चय किया. जलती हुई सामग्री की कमी नहीं थी, हालांकि मालिशेव ने सारे कागजात जला दिए थे. तुर्बीन ने फर्श से सभी सिल्क के टुकड़ों का ढेर उठाया, उन्हें भट्टी में झोंका और आग लगा दी. फिर से फर्श पर और दीवारों पर आडी-तिरछी आकृतियाँ नाचने लगीं और कुछ देर के लिए मैडम अंजू की इमारत सजीव हो उठी. लपटों में चांदी की पट्टियां टेढ़ी-मेढ़ी हो गईं, उन पर बुलबुले आ गए, वे काली पड़ गईं, और फिर झुक गईं...

तुर्बीन के दिमाग में एक बेहद गंभीर विचार आया – दरवाज़े का क्या करे? क्या उसे हुक पर लगा रहने दे या खोल दे? मान लो,अचानक कोई वालन्टीयर, वैसे  ही,जैसे तुर्बीन, पीछे रह गया हो, भागते हुए आये  - छुपने के लिए तो कोई जगह ही नहीं होगी! तुर्बीन ने कुंडी खोल दी, फिर उसे दूसरा विचार सताने लगा : पासपोर्ट? उसने एक जेब टटोली, दूसरी टटोली – नहीं है. ऐसा ही है! भूल गया, आह, ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई. अचानक उनसे टकरा जाओ तो? ओवरकोट भूरा है. पूछेंगे – कौन? डॉक्टर...तो कागज़ात दिखाओ! आह, शैतानी भुलक्कडपन!

“जल्दी,” भीतर की आवाज़ फुसफुसाई.

तुर्बीन, आगे कुछ और न सोचते हुए, दुकान की गहराई में लपका और जिस रास्ते से मालिशेव गया था, उसीसे, छोटे से दरवाज़े से होकर अँधेरे कॉरीडोर में, और वहाँ से चोर दरवाज़े से आँगन में भागा.

 

 

                                  

11 

 

 टेलीफोन वाली आवाज़ की आज्ञा का पालन करते हुए गैर-कमीशन ऑफिसर निकलाय तुर्बीन अट्ठाईस कैडेट्स को बाहर लाया और तय मार्ग के अनुसार पूरे शहर से होते हुए उनका नेतृत्व  करता रहा. यह सुनिश्चित मार्ग तुर्बीन को कैडेट्स समेत एक चौराहे पर लाया, जो पूरी तरह मृत था. उस पर जीवन का कोई चिह्न नहीं था, मगर खूब गड़गड़ाहट थी. चारों ओर – आसमान में, छतों पर, दीवारों पर – मशीनगनें गरज रही थीं.     

दुश्मन को, ज़ाहिर है, यहाँ होना चाहिए था, क्योंकि टेलीफोन वाली आवाज़ के अनुसार यह अंतिम, समापन बिंदु था. मगर अभी तक कोई दुश्मन नहीं दिखाई दिया था, और निकोल्का थोड़ा उलझन में पड़ गया – आगे क्या करे? उसके कैडेट्स, कुछ पीले पड़ गए थे, मगर फिर भी बहादुर थे, अपने कमांडर ही की तरह, जंज़ीर बनाकर बर्फ से ढंके रास्ते पर लेट गए, और मशीनगनर इवाशिन फुटपाथ के किनारे मशीनगन के पास उकडूं बैठ गया. ज़मीन से सिर उठाकर कैडेट्स चौकन्नेपन से दूर देख रहे थे, इंतज़ार कर रहे थे, कि सचमुच में क्या होने वाला है?

उनका लीडर अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर विचारों में इतना मग्न था कि वह सुस्त हो गया और पीला पड़ गया. लीडर को सबसे पहले चौराहे पर उस सबकी अनुपस्थिति ने चौंकाया जिसका वादा आवाज़ ने किया था. यहाँ, चौराहे पर, निकोल्का को तीसरी स्क्वैड से मिलना था और उसे ‘सुदृढ़’ करना था. यहाँ कोई स्क्वैड नहीं थी. उसका कोई नामोनिशान तक नहीं था.

दूसरे, निकोल्का को यह बात चौंका रही थी कि मशीनगन की खडखडाहट कभी न सिर्फ सामने से सुनाई दे रही थी, बल्कि दायें से भी,और,कुछ पीछे से भी आ रही थी.

तीसरे, वह भयभीत होने से डर रहा था और पूरे समय अपने आप को जाँच रहा था:

“क्या डरावना है?” – “नहीं, डरावना नहीं है”, - दिमाग में एक साहसी आवाज़ जवाब देती, और निकोल्का, इस ख़याल से कि वह बहादुर है, और भी ज़्यादा पीला पड़ रहा था.

अभिमान इस विचार में परिवर्तित हो गया, कि यदि उसे, निकोल्का को मार डालेंगे, तो उसे संगीत के साथ दफनाया जाएगा. बिलकुल आसान: रास्ते पर एक सफ़ेद, चमचमाता हुआ ताबूत तैर रहा होगा, और ताबूत में युद्ध में शहीद हुआ गैरकमीशन-ऑफिसर तुर्बीन महान, मोम जैसा चेहरा लिए लेटा होगा, और अफ़सोस है कि आजकल सलीब नहीं देते हैं, वर्ना उसके सीने पर ज़रूर सलीब और सेंट जॉर्ज रिबन होता . औरतें दरवाजों खड़ी हैं. “किसे दफ़ना रहे हैं, प्यारों?” – “गैरकमीशन-ऑफिसर तुर्बीन को...” – “आह, कैसा ख़ूबसूरत...” और म्यूजिक. युद्ध में,पता है, अच्छा लगता है मरना. सिर्फ तड़पना न पड़े. म्यूजिक और रिबन्स के बारे में विचारों ने दुश्मन के अनिश्चित इंतज़ार को इतना रंगीन बना दिया, जो, ज़ाहिर है, टेलीफोन की आवाज़ की अवज्ञा करते हुए, प्रकट होने का विचार ही नहीं कर रहा था.

“यहीं इंतज़ार करेंगे,” निकोल्का ने कैडेट्स से कहा, यह कोशिश करते हुए कि उसकी आवाज़ विश्वासपूर्ण प्रतीत हो, मगर वह विश्वासपूर्ण नहीं निकली, क्योंकि चारों और सब कुछ वैसा नहीं था, जैसा होना चाहिए था, कुछ गड़बड़ नज़र आ रही थी. स्क्वैड कहाँ है? दुश्मन कहाँ है? अजीब बात है, जैसे पार्श्व में गोलियां चला रहे हों?

 

 

***   

 

 

और उनका लीडर अपनी टुकड़ी के साथ इंतज़ार करता रहा. एक छेदती हुई गली में, जो ब्रेस्त-लितोव्स्काया हाई-वे से जाती थी,अचानक गोलियों की आवाज़ गूंजने लगी और गली में बदहवासी से भागती हुई भूरी आकृतियाँ बिखर गईं. वे सीधे निकोल्का के कैडेट्स पर लपक रही थीं, और उनकी राईफल्स विभिन्न दिशाओं में केन्द्रित थीं.

“ घिर गए?” निकोल्का के दिमाग़ में जैसे हथोड़े बजने लगे, वह लपका, ये न जानते हुए, कि कौनसी कमांड देनी है. मगर अगले ही पल उसने भागते हुए कुछ लोगों के कन्धों पर सुनहरे धब्बे देखे और समझ गया, कि ये अपने ही हैं.

भारी-भरकम, ऊंचे, भागने के कारण पसीने से तर-बतर, टोपियाँ पहने कन्स्तान्तीन अकाडेमी के कैडेट्स अचानक रुक गए, एक घुटने पर बैठ गए और, हल्की-सी चमक के साथ उन्होंने गली की तरफ दो फ़ायर किये, जहाँ से भागते हुए वे आये थे. इसके बाद वे उछले और, राईफलें फेंकते हुए, निकोल्का की टुकड़ी की बगल से चौराहे से होते हुए भागे. रास्ते में उन्होंने अपने शोल्डर स्ट्रैप्स उखाड़ दिए, पाउच और बेल्ट भी उखाड़ कर फेंक दिए, उन्हें टूटी हुई बर्फ पर फेंक दिया. एक हट्टा-कट्टा, भूरा, भारी-भरकम कैडेट निकोल्का के पास से गुज़रते हुए, निकोल्का की टुकड़ी की तरफ़ सिर घुमाते हुए, हांफते हुए, जोर से चीखा:

“भागो, हमारे साथ भागो! अपने आपको बचाओ, जो बच सकता है!”

निकोल्का के कैडेट्स, जो कतार में पड़े हुए थे, चौंक कर उठने लगे. निकोल्का पूरी तरह पगला गया, मगर उसने खुद पर काबू कर लिया और, उसके दिमाग में विचार कौंध गया: “यही वो पल है, जब ‘हीरो बन सकते हो”, - वह अपनी पैनी आवाज़ में चिल्लाया:

“उठने की हिम्मत न करना! कमांड सुनो!!”

“ वे कर क्या रहे हैं?” निकोल्का ने तैश से सोचा.

कन्स्तान्तीन वाले कैडेट्स – वे करीब बीस थे, - चौराहे से उछल कर, बिना हथियारों के, उसे छेदती हुई फनार्नी गली में बिखर गए, और उनमें से कुछ पहले ही विशाल दरवाज़े की ओर लपके. लोहे के दरवाजों की भयानक खड़खड़ाहट हुई, और गूँजती हुई सीढ़ियों पर जूतों की धमधम सुनाई दी. दूसरा झुण्ड अगले दरवाज़े में घुसा. अब सिर्फ पाँच बचे थे, और वे, अपनी दौड़ को तेज़ करते हुए सीधे फनार्नी पर भागे और दूर जाकर ओझल हो गए.              

आखिरकार चौराहे पर अंतिम भागता हुआ आदमी उछल कर आया,कन्धों पर हल्के सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स थे. निकोल्का ने चौंकन्नी आँखों से फ़ौरन पहचान लिया कि वह पहली स्क्वैड के दूसरे दस्ते का कमांडर कर्नल नाय-तुर्स है.

“कर्नल महाशय!” निकोल्का उसे देखकर परेशानी और खुशी से चिल्लाया, “आपके कैडेट्स डर के मारे भाग रहे हैं.”

और तब एक भयानक बात हुई. नाय-तुर्स कुचले हुए चौराहे पर ओवरकोट में भागा, जो दोनों तरफ से मुड़ा हुआ था, जैसा फ्रांसीसी पैदल सैनिकों का होता है. मुडी-तुड़ी टोपी ठीक उसके सिर पर बैठी थी और ठोड़ी के नीचे बेल्ट से रुकी हुई थी. नाय-तुर्स के दायें हाथ में कोल्ट थी और खुला हुआ होल्स्टर उसके कूल्हे पर झूल रहा था और मार कर रहा था. न जाने कब से हजामत न किया हुआ उसका खुरदुरा चेहरा डरावना था, आंखें नाक की ओर टिकी हुईं, और अब निकट से कन्धों पर हुस्सार के लहरियेदार चिह्न दिखाई दे रहे थे, नाय-तुर्स उछलकर निकोल्का के बिल्कुल पास आया, खाली बायाँ हाथ हिलाया और निकोल्का का पहले बायाँ और फिर दायाँ शोल्डर स्ट्रैप उखाड़ फेंका. मोम लगे बढ़िया धागे चरचरा कर टूट गए, दायाँ शोल्डर स्ट्रैप ओवरकोट के कपड़े समेत उड़ गया. निकोल्का इतनी बुरी तरह हिल गया, कि उसे फ़ौरन यकीन हो गया कि नाय-तुर्स के हाथ ग़ज़ब के मज़बूत हैं. निकोल्का झटके के साथ किसी नरम चीज़ पर बैठ गया, और यह नरम चीज़ उसके नीचे से चीख के साथ उछली और मशीनगनर इवाशिन में बदल गई. इसके बाद चारों ओर कैडेट्स के आड़े-तिरछे चहरे डान्स करने लगे, और सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया. इस पल वह पगला नहीं गया, क्योंकि कर्नल नाय-तुर्स की हरकतें इतनी सधी हुई थीं कि निकोल्का के पास इसके लिए समय नहीं था. बिखरी हुई पलटन की ओर मुँह फेरकर, उसने असाधारण, अब तक न सुनी हुई तोतली आवाज़ में चिंघाड़ते हुए कमांड दी. निकोल्का को पूरा यकीन था कि ऐसी आवाज़ दस मील दूर तक सुनी जा सकती थी और,शायद, पूरे शहर में भी.

“कैदेत्स ! मेरा हुक्म सुनो : शोल्दल स्त्लैप्स फाड़ दो, कैप्स, गोलियों के पाउच, हथियाल फेंक दो! फनाल्नी चौक से आंगनों से होकर,लाज़ेज्झाया पर, पदोल पर! पदोल!! लास्ते में डॉक्यूमेंट फाल देना, छुप जाना, बिखल जाओ, लास्ते में जो भी मिले ले जाओ अप-अ-ने सा-आ-थ!”

इसके बाद पिस्तौल लहराकर नाय-तुर्स चिंघाड़ा, जैसे घुड़सवार दस्ते का बिगुल हो:

“फनाल्ना से होकल! सिल्फ़ फनालना से! अपने-अपने घलों में छुप जाओ! युद्ध ख़तम हो गया है! दौलते हुए माल्च!”

कुछ पल तक तो प्लेटून संभल ही नहीं पाई. फिर कैडेट्स के चेहरे एकदम पीले पड़ गए. इवाशिन ने निकोल्का के सामने ही शोल्डर स्ट्रैप्स फाड़ दिए, पाउच बर्फ में उड़ने लगे, बन्दूक       खट् से फुटपाथ के बर्फ के ढेर से फिसलने लगी. आधे मिनट बाद चौराहे पर गोलियों के पाउच, बेल्ट्स,और किसी की कुचली हुई कैप पडी थी. फनार्नी चौक से होते हुए,राज़ेज्झाया पर जाते कंपाउंड्स में उड़ते हुए, कैडेट्स भाग रहे थे.  

नाय-तुर्स ने झटके से पिस्तौल खोल में रख दी, फुटपाथ के पास मशीनगन की तरफ़ उछला,सिकुड़ कर बैठ गया उसकी नोक, उस तरफ घुमा दी, जहाँ से भागता हुआ आया था, और बाएं हाथ से गोलियों के बेल्ट को ठीक किया. वैसे ही बैठे-बैठे निकोल्का की ओर मुड़कर वह वहशियत से गरजा:

“बहरा हो गया है क्या? भाग!”

निकोल्का के पेट से एक अजीब नशा-सा ऊपर उठा, और मुँह फ़ौरन सूख गया.

“नहीं चाहता, कर्नल महाशय,” उसने रुंधे हुए गले से कहा, उकडूं बैठ गया, दोनों हाथों से कारतूसों वाला बेल्ट पकड़ा और उसे मशीनगन में डाल दिया.

दूर, वहाँ, जहाँ से नाय-तुर्स की बची खुची डिविजन भाग कर आई थी, अचानक कई अश्वारोहियों की आकृतियाँ उछल कर बाहर आईं. अस्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था, कि उनके नीचे वाले घोड़े नाच रहे हैं, मानो खेल रहे हों, और उनके हाथों में भूरी तलवारें थीं.

नाय-तुर्स ने हैंडल घुमाए, मशीनगन गरजी – आर-रा-पा, रुक गई, फिर से गरजी और फिर बड़ी देर तक गरजती रही. सभी घरों की छतें मानो दायें-बायें उबलने लगीं. अश्वारोही आकृतियों में कुछ और आकृतियाँ मिल गईं, मगर फिर उनमें से एक किसी किनारे फेंक दी गई, किसी घर की खिड़की में, दूसरा घोड़ा सिर के बल खड़ा हो गया, भयानक रूप से लंबा नज़र आने लगा, करीब-करीब दूसरी मंजिल तक ऊँचा, और कई अश्वारोही बिल्कुल गायब हो गए. इसके बाद, बचे हुए अश्वारोही पल भर में गायब हो गए, मानो धरती में समा गए हों.  

नाय-तुर्स ने हैन्डल घुमाए, मुट्ठियों से आसमान को धमकाया,उसकी आंखों में चमक थी, फिर वह चीखा:

“बच्चों! बच्चों!....स्टाफ- हेडक्वाल्टल्स के कमीने!...”

निकोल्का की ओर मुड़ा और ऐसी आवाज़ में चिल्लाया, जो निकोल्का को घुड़सवार दस्ते के नाज़ुक बिगुल की तरह प्रतीत हुई:

“भाग, बेवकूफ छोकले! कह लहा हूँ – भाग जा!”

उसने पीछे के तरफ नज़र दौड़ाई और यकीन कर लिया कि सारे कैडेट्स गायब हो गए हैं, फिर दूर के चौराहे से ब्रेस्त-लितोव्स्काया की समांतर सड़क पर नज़र डाली, और दर्द तथा कड़वाहट से चीखा:

“आह,शैतान!”

निकोल्का उसके साथ ही मुड़ा और उसने देखा कि दूर, काफ़ी दूर कैडेट्स्काया स्ट्रीट पर, एक अवरुद्ध, बर्फ से ढंके मार्ग पर काली आकृतियों की कतारें प्रकट हुईं और ज़मीन पर गिरने लगीं. इसके बाद एक इश्तेहार, जो वहीं फनार्नी चौक के कोने में, नाय-तुर्स और निकोल्का के सिरों के ऊपर था:

“दांत का डॉक्टर

बेर्ता याकव्लेव्ना

प्रिंस- मेटल”

   टूट गया, और कांच के टुकड़े कहीं दरवाज़े के बाहर बिखर गए. निकोल्का ने फुटपाथ पर प्लास्टर के टुकड़े देखे. वे उछले और सरपट भागने लगे. निकोल्का ने कर्नल नाय-तुर्स पर प्रश्नार्थक दृष्टी गड़ा दी, यह जानने के लिए इन दूर जाती आकृतियों और प्लास्टर का क्या मतलब है. कर्नल नाय-तुर्स ने भी बड़ा अजीब व्यवहार किया. वह एक टांग पर उछला, दूसरी टांग को हिलाया, मानो वाल्ट्ज़ कर रहा हो, और बॉलरूम की तरह कृत्रिम मुस्कराहट बिखेरी. इसके बाद कर्नल नाय-तुर्स निकोल्का के पैरों के पास लेट गया. निकोल्का का दिमाग मानो काले कोहरे से झनझना गया, वह उकडूं बैठ गया और स्वयँ के लिए अनपेक्षित,सूखे, बिना आंसुओं के सिसकते गले से, कर्नल को उठाने की कोशिश में उसे कन्धों से खींचने लगा. अब उसने देखा कि कर्नल की बाईं आस्तीन से खून बहने लगा है, और उसकी आंखें आसमान तक चली गई हैं.          

“ कर्नल महाशय, महाशय...”

“अंदल-सल,” नाय-तुर्स ने कहा,मगर उसके मुँह से खून बह कर ठोढी पर गिरा, और आवाज़ भी जैसे बूँद-बूँद बहने लगी, हर शब्द के साथ कमज़ोर होती गई, “ हीलोगिली फेंको शैतान के पास, मैं मल लहा हूँ...माला-प्लवाल्नाया...”     

इससे आगे वह कुछ और समझाना नहीं चाहता था. उसका निचला जबड़ा हिलने लगा. ठीक तीन बार और कंपकंपाते हुए, जैसे नाय का दम घुट रहा हो, फिर वह निश्चल हो गया, और भारी हो गया, आटे के बड़े बोरे की तरह.

“क्या ऐसे मरते हैं?” निकोल्का ने सोचा. “ऐसा नहीं हो सकता. अभी-अभी तो ज़िंदा था. युद्ध में भयानक नहीं लगता, जैसा कि मैं देख सकता हूँ. न जाने क्यों गोलियां मुझे नहीं लगती हैं...”

    

“दांत...

...डॉक्टर”

 

उसके सिर के ऊपर दूसरी बार कुछ फड़फड़ाया, और कहीं और शीशे टूटे. “हो सकता है, वह सिर्फ बेहोश हो?” निकोल्का ने परेशानी के कारण बेवकूफ़ी से सोचा और उसने कर्नल को खींचा. मगर उसे उठाने की कोई गुंजाइश नहीं थी. “डर तो नहीं लग रहा है?” निकोल्का ने सोचा और महसूस किया कि उसे बेतहाशा डर लग रहा है. “किसलिए? किसलिए?” निकोल्का ने सोचा और फौरन समझ गया कि उदासी और अकेलेपन के कारण डर लग रहा है, कि, अगर अभी कर्नल नाय-तुर्स अपने पैरों पर खड़ा होता, तो कोई डर-वर नहीं लगता...मगर कर्नल नाय-तुर्स पूरी तरह निश्चल था, कोई भी कमाण्ड नहीं दे रहा था, उस तरफ़ भी ध्यान नहीं दे रहा था, कि उसकी आस्तीन के पास बड़ा लाल डबरा फैलता जा रहा है, उस तरफ़ भी नहीं, कि दीवारों के उभारों से प्लास्टर पागल की तरह टूट रहा था और चूर-चूर हो रहा था. निकोल्का इस बात से डर रहा था कि वह निपट अकेला है. अब किनारे से कोई और घुड़सवार उछलते हुए नहीं आ रहे थे, मगर, ज़ाहिर है, सब निकोल्का के सामने थे, और वह आख़िरी है , वह पूरी तरह अकेला है...और अकेलेपन ने निकोल्का को चौराहे से खदेड़ा. हाथों का सहारा लिए वह पेट के बल रेंगा, और दाईं कोहनी के बल, क्योंकि उसने हथेली में नाय-तुर्स की पिस्तौल पकड़ रखी थी. नुक्कड़ से दो कदम पर ही तो भयानक खतरा है. अभी टांग में गोली मार देंगे, और तब रेंग भी नहीं पाओगे, पित्ल्यूरा के आदमी हमला बोल देंगे और तलवारों से बोटी-बोटी काट देंगे. खौफनाक होगा, कि जब तुम लेते हो और तुम्हारे टुकड़े-टुकडे कर दिए जाते हैं...मैं गोलियां चलाऊंगा, अगर पिस्तौल में कारतूस हों तो...और, बस, डेढ़ कदम...खींचना है, खींचना है...एक बार...और निकोल्का दीवार के पीछे फनार्नी गली में पहुँच गया.           

“अचरज की बात है, भयानक अचरज की बात है कि मुझ पर हमला नहीं किया. सीधे-सीधे चमत्कार. ये खुदा का चमत्कार है,” निकोल्का उठते हुए सोच रहा था, “ये है चमत्कार. अब मैंने खुद ही देख लिया – चमत्कार. नोट्रे डेम केथेड्रल. विक्टर ह्यूगो. एलेना का क्या हो रहा होगा? और अलेक्सेई? अब ये साफ़ है – शोल्डर स्ट्रैप्स उखाड़ना है, मतलब, कोई आपदा हुई है”.

निकोल्का उछला, गर्दन तक बर्फ से ढंका हुआ, पिस्तौल जेब में घुसाई और गली में उड़ चला. दायें हाथ पर पहला ही दरवाज़ा कुछ खुला हुआ था, निकोल्का गूंजती हुई पुलिया पर भागा, एक उदास, एक गंदे आँगन में पहुँचा,जिसके दाएं हिस्से में लाल ईंटों के शेड और बाईं तरफ़ जलाऊ लकड़ी का ढेर था, उसने अनुमान लगाया कि बाहर निकलने का रास्ता बीच में है, फिसलते हुए वहाँ पहुँचा और भेड़ की खाल का कोट पहने एक आदमी से टकराया. बिल्कुल खुल्लमखुल्ला. लाल दाढी और छोटी-छोटी आंखें, जिनसे नफ़रत झाँक रही थी. चपटी नाक वाला, भेड़ की खाल की टोपी में, नीरो. उस आदमी ने, जैसे खेल रहा हो, निकोल्का को बाएं हाथ से पकड़ लिया और दाएं हाथ से उसका बायाँ हाथ पकड़कर उसे पीठ के पीछे मरोड़ने लगा. कुछ पलों के लिए निकोल्का स्तब्ध रह गया. “खुदा. उसने मुझे पकड़ लिया, मुझसे नफ़रत करता है!...पित्ल्यूरवेत्स...”      

“आह, तू,बदमाश!” लाल दाढ़ी वाला कर्कश आवाज़ में चिल्लाया और हांफने लगा, “किधर? ठहर जा!” फिर अचानक चीखा: “पकड़ो, पकड़ो,कैडेट्स को पकड़ो! शोल्डर स्ट्रैप्स फेंक दिए, समझते हो, कमीनों, पहचान नहीं पायेंगे? पकड़ो!”

सिर से पाँव तक निकोल्का को एक जूनून ने दबोच लिया. वह झटके से नीचे बैठ गया,फ़ौरन, जिससे ओवरकोट का पीछे वाला पट्टा टूट गया, मुड़ा और अप्राकृतिक शक्ति से लाल बालों वाले के हाथों से उड़ चला. पल भर उसने बूढ़े को नहीं देखा, क्योंकि वह उसकी पीठ के पीछे था, मगर फिर मुड़कर फिर से उसे देखा. लाल दाढ़ी वाले के पास कोई हथियार नहीं था, वह फ़ौजी भी नहीं था, वह चौकीदार था. निकोल्का की आंखों में पूरे लाल कम्बल की भाँति तैश तैर गया और अत्यधिक आत्मविश्वास में बदल गया. निकोल्का के गर्म मुँह में हवा और बर्फ बहने लगी, क्योंकि वह भेड़िये के पिल्ले की तरह दांत भींच रहा था. निकोल्का ने झटके से पिस्तौल जेब से बाहर निकाली यह सोचते हुए : ‘मार डालूँगा, केंचुए को, काश, मेरे पास कारतूस होते. उसकी आवाज़ इतनी भयानक और अनजान हो गई थी, कि वह खुद ही उसे पहचान नहीं पाया.

“मार डालूँगा,!” परिष्कृत पिस्तौल के ऊपर उंगलियाँ फेरते हुए , वह भर्राया, और फ़ौरन समझ गया कि वह भूल गया है, कि उसे कैसे चलाते हैं. पीला-लाल दरबान, यह देखकर, कि निकोल्का के पास हथियार है, बदहवासी और खौफ से घुटनों के बल गिर पडा और आश्चर्यजनक रूप से नीरो से सांप में बदलकर बिसूरने लगा:

“आह, युअर ऑनर ! युअर...”

फिर भी निकोल्का गोली चला ही देता, मगर पिस्तौल चलने का नाम ही नहीं ले रही थी. “खाली है, एह, क्या मुसीबत है!” बवंडर की भांति उसके दिमाग में विचार आया. दरबान,हाथ से मुँह को छिपाते हुए और धीरे धीरे पीछे सरकने लगा और पीछे गिरते हुए घुटनों से उकडूं बैठ गया, और निकोल्का की ओर मुँह करके पागलपन से चीखने लगा. यह न समझ पाते हुए कि ताँबे की दाढ़ी वाले इस विशाल जबड़े को कैसे बंद करे, न चलने वाले पिस्तौल के कारण बदहवास निकोल्का लड़ते हुए मुर्गे की तरह, दरबान पर उछला और दांतों में हैंडल दबाये, अपने आप पर गोली चलाने का खतरा मोल लेते हुए, उसे ज़ोर से मारा. निकोल्का का गुस्सा पल भर में काफ़ूर हो गया. दरबान अपने पैरों पर उछल कर, उसी पुलिया से, जहाँ से निकोल्का प्रकट हुआ था, उससे दूर भागा. भय से पगला गया दरबान अब चीख नहीं रहा था, वह भाग रहा था, बर्फ पर फिसलते हुए और लड़खड़ाते हुए,वह एक बार मुड़ा, और निकोल्का ने देखा कि उसकी आधी दाढ़ी लाल हो गई है. इसके बाद वह ग़ायब हो गया. निकोल्का नीचे की ओर लपका,सराय के सामने से होते हुए, राज़्येज्झाया की तरफ खुलने वाले दरवाज़े की तरफ़,  और, उनके पास आकर बदहवास हो गया. “ख़त्म हो गया. देर हो गई. फंस गया. खुदा, पिस्तौल भी नहीं चलती है.” बेकार ही में उसने बड़े भारी बोल्ट और ताले को झकझोरा. कुछ भी नहीं किया जा सकता था. लाल दरबान ने, जैसे ही नाय-तुर्स के कैडेट्स उछल कर भागे, राज़्येज्झाया वाले दरवाज़े को बंद कर दिया था, और निकोल्का के सामने पूरी तरह अभेद्य बाधा थी – ऊपर तक चिकनी, लोहे की अंधी दीवार.                                   

निकोल्का मुडा, उसने आसमान की ओर देखा, बेहद नीचे और घना था,सुरक्षा दीवार पर एक हल्की, काली सीढ़ी देखी, जो चार मंजिले घर की ठीक छत तक जा रही थी. “क्या चढ़ जाऊँ?” उसने सोचा, और तभी उसे बेवकूफी से रंग बिरंगी तस्वीर याद आ गई: पीला कोट पहने और चहरे पर लाल मास्क लगाए नैट पिन्कर्टन वैसी ही सीढ़ी चढ़ रहा है. “ऐ, नैट पिन्कर्टन, अमेरिका... और मैं, चढ़ भी जाऊँ तो आगे क्या? बेवकूफ़ की तरह छत पर बैठा रहूँगा, और इस बीच दरबान पित्ल्यूरा के सैनिकों को बुला लेगा. ये नीरो विश्वासघात करेगा. मैंने उसके दाँत तोड़े हैं माफ़ नहीं करेगा!”

और वैसा ही हुआ. फनार्नी गली वाले दरवाज़े से निकोल्का ने दरबान की बदहवास चीखें सुनीं: “इधर! इधर!” – और घोड़ों के टापों की आवाज़. निकोल्का समझ गया:

तो ये बात है – पित्ल्यूरा का घुड़सवार दस्ता पार्श्व से शहर में घुस गया. अभी वह फनार्नी गली में है. नाय-तुर्स भी तो यही चिल्ला रहा था....फनार्नी पर वापस लौटना नामुमकिन है.

यह सब उसने सोच लिया, न जाने कैसे बगल वाले घर की दीवार के नीचे, सराय की बगल में पड़े लकड़ियों के ढेर पर बैठे-बैठे. बर्फ बन चुकी लकडियाँ पैरों में अडमड़ा रही थें, निकोल्का लंगडा रहा था, वह गिर पड़ा और पतलून का एक पैर फाड़ बैठा, दीवार तक पहुँचा, उसमें से देखा और उसे ठीक वैसा ही आँगन नज़र आया. इतना समान कि वह भेड़ की खाल के कोट में लाल दाढी वाले नीरो के उछल कर बाहर आने का इंतज़ार करने लगा. मगर कोई भी नहीं उछला. पेट और कमर में भयानक दर्द हो रहा था, और निकोल्का ज़मीन पर बैठ गया, उसी पल उसके हाथ में पिस्तौल उछली और कानों को बहरा कर देने वाली आवाज़ के साथ गोली चल गई. निकोल्का को ताज्जुब हुआ, फिर वह समझ गया: “सेफ्टी-वाल्व तो बंद था, और अब मैंने उसे सरका दिया. संयोग.”

बकवास. राज़्येज्झाया वाला दरवाज़ा तो निश्चल है. बंद है. मतलब, फिर से दीवार की तरफ. मगर, ओह, लकडियाँ तो यहाँ नहीं हैं. निकोल्का ने सेफ्टी-वाल्व बंद कर दिया और पिस्तौल को जेब में घुसा दिया. टूटी ईंटों के ढेर पर चढ़ गया, और उसके बाद, एक सपाट दीवार पर मक्खी की तरह, पैरों को ऐसे छेदों में रखते हुए, कि जिनमें शांतिपूर्ण समय में एक कोपेक भी न समा सके, वह पंजों के बल दीवार पर चढ़ता रहा. उसके नाखून उखड़ गए, उंगलियाँ लहुलुहान हो गईं. दीवार पर पेट के बल लेते हुए उसने सुना कि पीछे, पहले आँगन में, कानों को बहरा कर देने वाली सीटी की और नीरो की आवाज़ सुनाई दी, और इस, तीसरे आँगन में, दूसरी मंजिल की अंधेरी खिड़की से भय से विकृत हुए महिला के चेहरे ने उसकी तरफ़ देखा और फ़ौरन गायब हो गया. दूसरी दीवार से गिरते हुए उसने लगभग सही अनुमान लगाया: बर्फ के टीले पर गिरा, मगर फिर भी गर्दन में मोच आ गई और खोपड़ी में कुछ टूट गया. सिर में झनझनाहट और आंखों में कौंधते तारे महसूस करते हुए निकोल्का दरवाज़े की तरफ़ भागा

ओह, खुशी की बात है! और लो,ये भी बंद है, क्या बेवकूफी है? डिजाइन वाली जाली का है, आरपार जा सकते हैं. निकोल्का, अग्निशामक दल के सदस्य की भाँती, उस पर चढ़ा, पार कर गया, नीचे उतरा और उसने अपने आप को राज़्येज्झाया स्ट्रीट पर पाया. देखा, कि वह एकदम सुनसान है, एक भी आदमी नहीं है. “ पंद्रह सेकण्ड रुक कर सांस ले लूं, ज़्यादा नहीं,वर्ना दिल टूट जाएगा,” – निकोल्का ने सोचा और उसने गर्म हवा निगल ली. “हाँ...डॉक्यूमेंट्स...” निकोल्का ने भीतरी जेब से चीकट हो गए कागज़ात निकाले और उन्हें फाड़ दिया. और वे बर्फ की तरह इधर-उधर उड़ गए. उसने सुना कि उस चौराहे की तरफ़ से, जहाँ उसने नाय-तुर्स को छोड़ा था, मशीनगन गरज उठी और उसका जवाब दिया गोलियों और मशीनगनों ने निकोल्का के सामने वाली दिशा से, वहाँ से, शहर से. तो ये बात है. शहर पर कब्ज़ा कर लिया है. शहर में युद्ध हो रहा है. विनाश. निकोल्का, अभी भी हांफते हुए, दोनों हाथों से बर्फ साफ़ कर रहा था. क्या पिस्तौल फेंक दे? नाय-तुर्स की पिस्तौल? नहीं, किसी हालत में नहीं. हो सकता है, यहाँ से निकल जाऊँ. वे सभी जगहों पर एकदम तो नहीं आ सकते?        

 गहरी सांस लेकर, निकोल्का, यह महसूस करते हुए कि उसके पैर काफी कमजोर हो गए हैं, और मुड़ गए हैं, मृतप्राय राज़्येज्झाया पर भागा और सही-सलामत चौराहे तक पहुँच गया, जहाँ से दो रास्ते जाते थे: ग्लूबोचित्स्काया से पदोल और लोव्स्काया, जो शहर के केंद्र को जाती थी. वहाँ उसने खंभे के पास खून का डबरा और खाद का ढेर, दो फेंकी हुई बंदूकें और स्टूडेंट की नीली कैप देखी. निकोल्का ने अपनी हैट फेंक दी और ये कैप पहन ली. वह उसके लिए छोटी थी और उसे पहन कर वह मस्त मौला, छैला और शहरी बाबू लगने लगा. किसी आवारा की तरह, जिसे जिम्नेशियम से निकाल दिया गया हो. निकोल्का ने कोने के पीछे से सावधानी से लोव्स्काया पर झांका और उसे उस पर बहुत दूर टोपियों पर नीले धब्बों के साथ, नाचता हुआ घुड़सवार दस्ता दिखाई दिया. वहाँ कुछ हलचल थी और छुटपुट गोलियां सुनाई दे रही थीं. वह ग्लुबोचित्स्काया पर आया. वहाँ पहली बार किसी जीवित व्यक्ति को देखा. सामने वाले फुटपाथ पर कोई औरत भाग रही थी, और काली किनार वाली टोपी एक किनारे सरक गई थी, और हाथों में भूरा पर्स हिल रहा था, उसके भीतर से बदहवास मुर्गा बाहर निकलने की कोशिश करते हुए जोर से चिल्ला रहा था: “पितुर्रा,पितुर्रा”. औरत के बाएं हाथ में बैग से, छेद  से फुटपाथ पर गाजर बिखर रही थी. औरत दीवार के साथ-साथ भागते हुए चीख रही थी और रो रही थी. बवंडर की तरह कोई दुकानदार फिसलते हुए आया, चारों ओर सलीब का निशान बनाया और चिल्लाया:

“जीज़स! वलोद्का, वलोद्का! पित्ल्यूरा आ रहा है!”      

लुबोचित्स्काया के अंत में कई लोग धक्कामुक्की कर रहे थे, भागदौड़ कर रहे थे और दरवाजों के भीतर भाग रहे थे. काले ओवरकोट में एक आदमी भय से थरथर काँप रहा था, वह दरवाज़े की ओर लपका, जाली में अपना डंडा घुसाया और झटके से उसे तोड़ दिया.

और समय तो इस बीच उड़ रहा था,उड़ रहा था, और ऐसा लगा कि शाम भी हो गई, और इसलिए, जब निकोल्का लुबोचित्स्काया से वोल्स्की ढलान पर उछला, तो नुक्कड़ पर इलेक्ट्रिक बल्ब भभक उठा और फुसफुसाने लगा. एक छोटी सी दूकान में परदा गिर पडा और उसने फ़ौरन ‘साबुन का पावडर लिखे रंगीन डिब्बों को छुपा दिया. गाड़ीवान ने बर्फ के ढेर पर स्लेज पूरी तरह पलट दी और बेरहमी से घोड़े पर चाबुक बरसाने लगा. निकोल्का की बगल से चार मंजिल का तीन प्रवेशद्वारों वाला घर उछल कर पीछे रह गया, और तीनों प्रवेशद्वारों में हर मिनट दरवाज़े भड़भड़ा रहे थे, और सील की खाल की कॉलर वाला कोई आदमी, निकोल्का के करीब से उछला और दरवाज़े में चिन्घाड़ा:

“प्योत्र! प्योत्र! पागल हो गया है क्या? बंद कर! दरवाज़े बंद कर!”

पोर्च में दरवाज़ा धडाम से बंद हुआ, और अंधेरी सीढ़ियों पर एक औरत की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी:

“पित्ल्यूरा आ रहा है. पित्ल्यूरा!”

जैसे जैसे निकोल्का नाय-तुर्स द्वारा बताए गए सुरक्षात्मक पदोल पर आगे भागता जा रहा था, उतने ही ज़्यादा लोग उमड़ते जा रहे थे, और रास्तों पर भाग दौड़ कर रहे थे, परेशान हो रहे थे, मगर अब भय कम हो गया था, और सभी एक ही दिशा में नहीं भाग रहे थे, बल्कि कुछ लोग तो विपरीत दिशा से भी भाग रहे थे.

पदोल की ठीक ढलान के पास, भूरे पत्थर के मकान के पोर्च से सुनहरे V अक्षर वाले सफ़ेद शोल्डर स्ट्रैप्स वाला भूरा ओवरकोट पहने गंभीरता से एक कैडेट बाहर निकला. कैडेट की नाक बटन जैसी थी. उसकी आंखें चंचलता से चारों ओर घूम रही थीं, और एक बड़ी राईफल पीठ पर बेल्ट से बंधी हुई थी. भाग दौड़ करने वाले लोग सशस्त्र कैडेट को भय से देखते और भाग जाते. और कैडेट कुछ देर फुटपाथ पर खड़ा रहा, ऊपरी शहर में हो रही गोली-बारी को एक ख़ास अंदाज़ में और खोजी अंदाज़ में सुनता रहा, नाक से सूंघता रहा और उसने कहीं जाने का निश्चय किया. निकोल्का तेज़ी से अपना रास्ता छोड़कर फुटपाथ पर गया, कैडेट को अपने सीने से दबाया और फुसफुसाते हुए बोला:

“राईफल फेंको और फ़ौरन छुप जाओ.”

कैडेट काँप गया, डर गया, लड़खड़ाया, फिर उसने धमकाते हुए राईफल पकड़ ली. निकोल्का पुराने, आज़माए हुए तरीके से, उसे दबाता रहा, दबाता रहा, पोर्च के भीतर लाया और वहाँ, दो दरवाजों के बीच, उसे प्रेरित किया;

“कह रहा हूँ आपसे, छुप जाओ. मैं – कैडेट हूँ. सर्वनाश हो गया है. पित्ल्यूरा ने शहर पर कब्ज़ा कर लिया है.”

“ऐसे कैसे कब्ज़ा कर लिया है?” कैडेट ने पूछा और उसका मुँह खुल गया, पता चला कि बाईं ओर का एक दांत गायब था.          

“ऐसे,” निकोल्का ने जवाब दिया और, ऊपरी शहर की ओर हाथ हिलाते हुए आगे कहा: “सुन रहे हो? वहाँ रास्तों पर पित्ल्यूरा की घुड़सवार फ़ौज है. मैं मुश्किल से भागा हूँ. घर भागो, राईफल छुपा दो और सबको आगाह कर दो.”

कैडेट सुन्न हो गया, और निकोल्का ने उसे वैसी ही हालत में पोर्च में छोड़ दिया, क्योंकि जब वह इतना नासमझ है, तो उससे बातें करने की फुर्सत नहीं थी.

पदोल में इतना तीव्र भय का वातावरण नहीं था, मगर भगदड़ थी, और काफी ज़्यादा थी. आने-जाने वाले अपनी चाल तेज़ कर रहे थे, अक्सर सिर उठाते, गौर से सुनते, भूरी शालों में खुद को लपेट कर अनेक रसोइये उछलकर पोर्च और दरवाजों में घुस जाते. ऊपरी शहर से लगातार मशीनगनों की खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी. मगर चौदह दिसंबर के इस शाम के धुंधलके में कहीं भी, न दूर, न पास, गोलों की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी.

निकोल्का का रास्ता लंबा था. जब तक उसने पदोल पार किया, अँधेरे ने बर्फीले रास्तों को पूरी तरह ढांक लिया था, और भगदड़ तथा भय को तेज़ी से गिरती हुई मुलायम बर्फ ने नरम बना दिया, जो स्ट्रीट लैम्पों के पास प्रकाश के धब्बों में उड़ रही थी. उसकी विरल जाली से प्रकाश कौंध जाता, टपरियों और दुकानों में खुशनुमा रोशनी थी, मगर सभी में नहीं: कुछ दुकानों में तो अन्धेरा हो गया था. ऊपर से अधिकाधिक बर्फ गिरने लगी थी. जब निकोल्का अपनी स्ट्रीट, खड़ी ढलान वाली अलेक्सेयेव्स्की स्ट्रीट के पास आया,और उस पर चढ़ने लगा, तो उसने मकान नंबर 7 के दरवाज़े के पास ये तस्वीर देखी: दो बच्चे, बुनी हुए जैकेट्स और हेल्मेट पहने अभी-अभी स्लेज से उतार से आए थे. उनमें से एक, छोटा और गोल मटोल, गेंद जैसा, बर्फ में लिपटा हुआ, बैठा था और ठहाके लगा रहा था. दूसरा, जो थोड़ा बड़ा था, दुबला-पतला और गंभीर, रस्सी की गाँठ खोल रहा था. दरवाज़े के पास भेड़ की खाल का कोट पहने एक लड़का खड़ा था और नाक में उंगली डाल रहा था. गोलीबारी की आवाज़ सुनाई देने लगी. वह वहाँ, ऊपर, विभिन्न स्थानों पर भड़क रही थी. “वास्का,वास्का, मैं खंभे से कैसे टकराया था!” छोटा वाला चिल्लाया.

“कैसे आराम से स्लेज पर घूम रहे हैं,’ निकोल्का ने अचरज से सोचा और लडके से प्यार से पूछा:

“प्लीज़, बताइये, ये ऊपर की तरफ गोलीबारी क्यों हो रही है?

लड़के ने नाक से उंगली निकाली, कुछ देर सोचा और नकीली आवाज़ में कहा:

“हमारे लोग ऑफिसर्स को मार रहे हैं.”

निकोल्का ने कनखियों से उसकी तरफ़ देखा और यंत्रवत् जेब में रखी पिस्तौल पर उंगलियाँ फेरीं. बड़े लडके ने गुस्से से कहा:

“अफसरों को सबक सिखा रहे हैं. ऐसा ही होना चाहिए. पूरे शहर में वे आठ सौ लोग हैं, और बेवकूफ बने घूम रहे थे. पित्ल्यूरा आया, और उसके पास दस लाख सैनिक हैं.

वह मुड़ा और स्लेज को खींचने लगा.

 

 

***  

 

बरामदे से छोटे से डाइनिंग रूम का दूधिया परदा फ़ौरन खुल गया.

घड़ी... टोंक-टांक...

क्या अलेक्सेई वापस आ गया?” निकोल्का ने एलेना से पूछा.

“नहीं,” उसने जवाब दिया और रोने लगी.

 

***

 

अन्धेरा. पूरे क्वार्टर में अन्धेरा है. सिर्फ किचन में लैम्प जल रहा है...अन्यूता मेज़ पर कोहनियाँ रखे बैठी है और रो रही है. बेशक, अलेक्सेई वसील्येविच के लिए....एलेना के शयन कक्ष में भट्टी में लकडियाँ दहक रही हैं. ढक्कन से बाहर धब्बे उछलते हैं और गर्मजोशी से फर्श पर नाचते हैं. एलेना स्टूल पर बैठी है,गाल को मुट्ठी पर टिकाये,अलेक्सेई के बारे में काफ़ी रो चुकी है, और निकोल्का उसके पैरों के पास आग के लाल धब्बे में, कैंची की तरह टांगें फैलाए.

                     

बल्बतून...कर्नल. आज दोपहर में शिग्लोवों के यहाँ कह रहे थे, कि वह कोई और नहीं, बल्कि महान राजकुमार मिखाइल अलेक्सान्द्रविच है.  आम तौर से यहाँ, आधे अँधेरे और लपटों की चमक के कारण निराशा है. अलेक्सेई  के बारे में क्यों रोना है? रोने से कोई फ़ायदा नहीं होगा. बेशक, उसे  मार डाला है. सब स्पष्ट है. वे अपने साथ कैदियों को नहीं लेते. जब वापस नहीं आया, तो इसका मतलब है कि डिविजन समेत पकड़ लिया गया, और उसे मार डाला गया. भयानक बात ये है कि, सुना है, पित्ल्यूरा के पास आठ लाख फ़ौजी हैं, बढ़िया और चुने हुए. हमें धोखा दिया गया, मरने के लिए भेज दिया गया...

ये खतरनाक फ़ौज आई कहाँ से? नीली नुकीली और धुंधलके की हवा में, बर्फीली धुंध से बुनी हुई.... अस्पष्ट...धुंधली...

एलेना ने उठाकर हाथ फैलाया.

“धिक्कार है, जर्मनों पर. खुदा की मार पड़े उन पर. मगर, मगर, यदि खुदा उन्हें सज़ा नहीं देता, तो इसका मतलब ये है कि उसके पास न्याय नहीं है. क्या ऐसा संभव है, कि उन्हें इसका जवाब न देना पड़े? उन्हें जवाब देना पडेगा. उन्हें भी उसी तरह तड़पना पडेगा, जैसे हम तड़प रहे हैं, तड़पेंगे.”

उसने जिद्दीपन से ‘तड़पेंगेशब्द दुहराया, मानो शाप दे रही हो. उसके चेहरे और गर्दन पर लाल रोशनी खेल रही थी, और खाली आंखें असीम घृणा से काली हो रही थीं. ऐसी चीखों से निकोल्का, पैर फैलाए, भय और शोक में डूब गया.

“हो सकता है, कि वह अभी भी ज़िंदा हो?” उसने घबराते हुए पूछा. “देखो,चाहे जो भी हो, वह तो डॉक्टर है...अगर उसे पकड़ भी लिया हो, तो हो सकता है, मारेंगे नहीं, बल्कि गिरफ्तार कर लिया हो.”

“बिल्लियाँ खायेंगे, एक-दूसरे को मार डालेंगे, जैसे कि हम,”  एलेना ने खनखनाती आवाज़ में कहा और नफ़रत से लपटों को उँगलियों से धमकाया.

“ऐह, ऐह... बल्बतून महान राजकुमार नहीं हो सकता. आठ लाख फ़ौजी नहीं हो सकते, और दस लाख भी नहीं... मगर, कोहरा. आ गया है, भयानक समय आ गया है. और तालबेर्ग तो, लगता है, अक्लमंद है, सही समय पर भाग गया. फर्श पर लपटें नृत्य कर रही हैं. वो था, शान्ति का समय और थे ख़ूबसूरत देश. उदाहरण के लिए, पैरिस और तस्वीरों वाली हैट में लुई, और क्लोपेन त्रुलेफू ने रेंगते हुए ऐसी ही आग तापी थी. और उसे, भिखारी को भी, अच्छा लगता था. मगर, कहीं भी, कभी भी, ऐसा घिनौना कमीना, जैसे लाल बालों वाला दरबान नीरो है, नहीं था. बेशक, सब, हमसे नफ़रत करते हैं, मगर वह तो यूनिफ़ॉर्म पहना सियार है! पीछे से हाथ मरोड़ता है.”          

  


*** 

 

और अब खिड़कियों से बाहर गोले गरजने लगे. निकोल्का उछला और घूमने लगा.

“तुम सुन रही हो? सुन रही हो? सुन रही हो? हो सकता है, ये जर्मन हों? हो सकता है, सहयोगी सहायता के लिए आये हों? कौन? आखिर वे शहर पर तो गोलियां नहीं चला सकते, यदि उन्होंने उसे ले लिया है.”

एलेना ने सीने पर हाथ रखे और बोली:

“निकोल, चाहे कुछ भी हो, मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगी. नहीं जाने दूंगी. विनती करती हूँ, कि कहीं मत जाओ. बेवकूफ़ न बनो.” 

“मैं सिर्फ अन्द्रेयेव्स्की चर्च के पास वाले चौक तक जाना चाहता था, और वहाँ से देखता और सुनता. वहाँ से तो पूरा पदोल दिखाई देता है.”

“अच्छा, जाओ. अगर ऐसे समय में तुम मुझे अकेला छोड़ सकते हो, तो जाओ.”

निकोल्का शर्मिन्दा हो गया.

“अच्छा, तो मैं सिर्फ आँगन में जाकर सुनूंगा.”

“मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी.”

“लेनच्का, और अगर अलेक्सेई वापस आया, तो सामने से घंटी नहीं सुन पायेंगे?

“हाँ,नहीं सुन पायेंगे. और इसके लिए कुसूरवार तुम होगे.”

“अच्छा, तब, लेनाच्का, मैं तुमसे वादा करता हूँ, कि आँगन से एक भी कदम आगे नहीं जाऊंगा.”

“वादा?

“वादा.”

 

“तुम गेट से बाहर नहीं जाओगे? पहाड़ी पर नहीं चढ़ोगे? आँगन में ही खड़े रहोगे?     

“वादा करता हूँ.”

“जाओ.”

**** 

 

संन् उन्नीस सौ अठारह की चौदह दिसंबर को बेहद घनी बर्फ ने शहर को पूरी तरह ढांक दिया. और ये विचित्र, अप्रत्याशित गोलीबारी रात के नौ बजे होने लगी. ये सिर्फ पंद्रह मिनट चली.

निकोल्का की कॉलर के पीछे बर्फ पिघल रही थी, और वह बर्फीली चोटियों पर चढ़ने के लालच से संघर्ष कर रहा था. वहाँ से न सिर्फ पदोल, बल्कि ऊपरी शहर का कुछ हिस्सा भी दिखाई देता, सेमिनरी दिखाई देती, ऊंचे-ऊंचे घरों की रोशनियों की सैंकड़ों कतारें, टीले और उनके ऊपर बने घर, जहाँ खिड़कियाँ रोशनी से झिलमिलाती हैं. मगर वादा तो किसी भी आदमी को नहीं तोड़ना चाहिए, क्योंकि दुनिया में रहना नामुमकिन हो जाएगा. निकोल्का यह सब सोच रहा था. दूर से आती हर भयानक गरज के साथ वह यह प्रार्थना करता: “खुदा, दो...”

मगर तोपें शांत हो गईं.

“ये हमारी तोपें थीं,” निकोल्का ने कड़वाहट से सोचा. गेट से वापस लौटते हुए उसने शिग्लोवों की खिड़की में झांका. आउट हाउस में, खिड़की का परदा ऊपर कर दिया गया था और दिखाई दे रहा था:  मारिया पित्रोव्ना पेत्का को नहला रही थी. नंगा पेत्का टब में बैठा था और बिना आवाज़ किये रो रहा था, क्योकि उसकी आँख में साबुन चला गया था, मारिया पित्रोव्ना पेत्का के ऊपर स्पंज निचोड़ रही थी. रस्सी पर अंतर्वस्त्र लटके हुए थे, और अंतर्वस्त्रों के ऊपर मारिया पित्रोव्ना की बड़ी परछाईं झुक रही थी. निकोल्का को ऐसा लगा, कि शिग्लोवों के यहाँ काफी गर्माहट है, आरामदेह है, और उसे अपने खुले हुए ओवरकोट में ठण्ड लग रही है.

 

****  

 

शहर की बाहरी सीमा से करीब पाँच मील दूर, उत्तर में, गहरी बर्फ में, एक गार्ड हाउस में, जो बर्फ की मोटी पर्त से ढंका था और जिसे चौकीदार छोड़कर चला गया था, स्टाफ-कैप्टेन बैठा था. छोटी सी मेज़ पर एक डबल रोटी पड़ीं थी, फ़ील्ड-टेलीफोन और तीन बत्तियों वाला, कालिख से ढंका, मोटे पेट जैसे कांच वाला लैम्प खड़ा था. भट्टी में धीमी-धीमी आग जल रही थी. कैप्टेन छोटे कद का, लम्बी नुकीली नाक वाला, बड़े कॉलर ओवरकोट में था. वह बाएं हाथ से पकड़ कर डबल रोटी की किनार तोड़ रहा था, और दायें हाथ से टेलीफोन के बटन दबा रहा था. मगर टेलीफोन तो जैसे मर गया था और उसे कोई जवाब नहीं दे रहा था.

कैप्टेन के चारों और,करीब तीन मील के दायरे में, कुछ भी नहीं था, सिवाय अँधेरे और उसमें घने कोहरे के. बर्फ के टीले थे.   

एक और घंटा बीता, और स्टाफ़-कैप्टेन ने टेलीफोन को अकेला छोड़ दिया. रात को करीब नौ बजे उसने नाक से सूंघा और न जाने क्यों जोर से कहा:

“पागल हो जाऊंगा. असल में तो अपने आप को गोली मार लेना चाहिए था. – और, जैसे उसे जवाब देते हुए टेलीफोन गाने लगा.

“क्या ये छठी बैटरी है?” दूर की आवाज़ ने पूछा.

“हाँ, हाँ,” कैप्टेन ने बेहद खुशी से जवाब दिया.

दूर से आती परेशान आवाज़ अत्यंत प्रसन्न और खोखली प्रतीत हो रही थी:

“फ़ौरन आसपास के ट्रैक्ट पर फायरिंग शुरू करो...” दूर से अस्पष्ट संभाषणकर्ता फोन पर भर्राया, “बवंडर...” आवाज़ कट गई.

“मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है...’ और आवाज़ फिर से कट गई.

“हाँ, सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ,” बदहवासी से अपने दांत भींचते हुए कैप्टेन स्पीकर में चीखा. लंबा अंतराल बीता.

“मैं फायरिंग नहीं कर  सकता,” कैप्टेन ने स्पीकर में कहा, अच्छी तरह महसूस करते हुए कि वह निपट शून्य में बात कर रहा है, मगर बिना कहे रह नहीं सकता था.

“मेरे सभी अर्दली और तीन एन्साईन भाग गए. बैटरी में मैं अकेला हूँ. कृपया ‘पोस्ट’ को सूचित करें.” 

स्टाफ-कैप्टेन एक और घंटा बैठा रहा, फिर बाहर निकला. बेहद तेज़ बर्फबारी हो रही थी. चार उदास और भयानक तोपों को बर्फ ने ढांक दिया था, और उनके हैंडल तथा तालों के पास पपड़ी जमने लगी थी. तेज़ बवंडर था, और बर्फीले तूफ़ान की ठंडी चिंघाड़ में कैप्टेन अंधे की तरह टटोल रहा था. इस तरह अंधेपन में वह बड़ी देर तक घूमता रहा, जब तक कि बर्फीले अँधेरे में उसने अंदाज़ से पहला ताला नहीं निकाल लिया. उसे गार्ड-हाऊस के पीछे कुंए में फेंकना चाहता था, मगर फिर उसने इरादा बदल दिया और गार्ड-हाउस में लौट आया. और तीन बार बाहर गया और तोपों से चारों ताले निकाल लिए और उन्हें फर्श के नीचे तहखाने में छुपा दिया, जहाँ आलू पड़े थे. इसके बाद लैम्प बुझाकर वह अँधेरे में निकल गया. करीब दो घंटे वह चलता रहा, बर्फ में डूबते हुए, पूरी तरह अदृश्य और काला, और शहर को जाने वाले राजमार्ग तक पहुँचा. राजमार्ग पे इक्का-दुक्का लालटेनें जल रही थीं. इनमें से पहली ही लालटेन के नीचे सिरों पर चोटियों वाले अश्वारिहियों ने उसे तलवारों से मार डाला, उसके जूते और घड़ी निकाल ली.    

वही आवाज़ गार्ड-हाउस से करीब चार मील दूर पश्चिम में एक ट्रेंच में प्रकट हुई.

“फायर करो...जंगल की तरफ,फ़ौरन. मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है, कि दुश्मन हमारे और आपके बीच से शहर की ओर गया है.”
“सुन रहे हैं
? सुन रहे हैं?” ट्रेंच से उसे जवाब दिया गया.

“हेडक्वार्टर से पता करो...,” आवाज़ कट गई.

आवाज़ बिना सुने रिसीवर में टर्राती रही:

“ जोरदार फायर करो जंगल की तरफ़ ...घोड़ों पर...”

और आवाज़ पूरी तरह कट गई.

ट्रेंच से भेड़ की खाल के ओवरकोट पहने, लालटेन लिए तीन ऑफिसर्स और तीन कैडेट्स बाहर आये. चौथा ऑफिसर और दो कैडेट्स लालटेन के निकट हथियारों के पास थे, जिसे बर्फीला तूफ़ान बुझाने की कोशिश कर रहा था. पाँच मिनट बाद अँधेरे में तोप के गोले भयानक रूप से उछलने और फूटने लगे. ताकतवर गरज से उन्होंने आसपास का क़रीब तेरह मील के घेरे को भर दिया, गरज अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर 13 नंबर के घर तक पहुंची...

खुदा, मेहेरबानी...

 बर्फीले तूफ़ान में गरागराते हुए सौ घुड़सवार स्ट्रीट लैम्प के पीछे अँधेरे से उछले और उन्होंने सभी कैडेट्स और चारों ऑफिसर्स को मार डाला. ट्रेंच में टेलीफोन के पास बैठे कमांडर ने अपने              मुँह में गोली मार ली.

कमांडर के अंतिम शब्द थे:

“स्टाफ हेडक्वार्टर के कमीने. अच्छी तरह समझता हूँ मैं बोल्शेविकों को.”

 

****   

 

रात को निकोल्का ने अपने कोने वाले कमरे में ऊपर वाली लाईट जलाई और कलम जैसे चाकू से अपने दरवाज़े पर बड़ा सा क्रॉस तराशा और उसके नीचे टूटी-फूटी इबारत लिखी:

 

“क. तुर्स. 14 दिसंबर. सन् 1918. दोपहर 4 बजे.”

गुप्तता की दृष्टी से ‘नाय निकाल दिया, यदि पित्ल्यूरा के आदमी तलाशी लेने आ जाएँ तो.

सोना नहीं चाहता था, जिससे घंटी की आवाज़ सुन सके, एलेना की दीवार पर खटखटा कर कहा:

“तुम सो जाओ,” मैं नहीं सोऊँगा.”

और फ़ौरन मुर्दे की भांति सो गया, कपडे पहने, पलंग पर. मगर एलेना सुबह तक नहीं सोई और कान देकर सुनाती रही कि कहीं घंटी तो नहीं बजी. मगर कोई घंटी नहीं बजी, और बड़े भाई अलेक्सेई  का कोई पता नहीं था.

 

****  

 

 

एक थके हुए, टूटे हुए आदमी के लिए सोना ज़रूरी है, और ग्यारह घंटे हो गए, वह सो ही रहा है....मस्ती से सो रहा है, मैं आपको बताता हूँ! जूते परेशान कर रहे हैं, बेल्ट पसलियों में चुभ रही है, कॉलर दम घोंट रही है, और सीने पर एक दु:स्वप्न बैठ गया, पंजे गड़ाए.

निकोल्का पीठ के बल बिस्तर पर धंस गया था,चेहरा लाल हो गया था, गले से सीटी की आवाज़...सीटी! बर्फ और कोई मकड़ी का जाला...ओह, चारों ओर मकड़ी का जाला, शैतान ले जाए! सबसे महत्वपूर्ण बात है इस जाल से बाहर निकलना, वरना, वो शैतान, बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा और चेहरे तक आ जाएगा. और, क्या कहें, आपको इस तरह लपेट ले कि बाहर ही न निकल सकोगे! वैसे ही दम तोड़ दोगे. मकड़ी के जाल के पीछे है एकदम साफ़ बर्फ, जितनी चाहो, पूरे-पूरे मैदान. इस बर्फ पर निकलना होगा, और जितनी जल्दी हो सके, क्योंकि किसी की आवाज़ जैसे कराही: “निकोल!” और अब, कल्पना कीजिये, कोई चंचल पंछी इस जाल में फंस गया और खटखटाने लगा....टि-की-टिकी, टिकी, टिकी,टिकी. फ्यू. फि-यू!  टिकी,टिकी. फू:, तू, शैतान! वह खुद तो दिखाई नहीं दे रहा है, मगर कहीं पास ही में सीटी बजा रहा है, और, कोई और भी अपनी किस्मत पे रो रहा है, और फिर आवाज़: “निक! निक! निकोल्का!!”

“एह!” निकोल्का गुर्राया, उसने मकडी का जाला फाड़ दिया और झटके से उठ बैठा, अस्त-व्यस्त, आहत, बैज किनारे को झुक गया था. सुनहरे बाल खड़े थे, जैसे कोई निकोल्का को बड़ी देर से सहला रहा हो.

“कौन? कौन? कौन?” कुछ भी न समझ पाते हुए निकोल्का ने खौफ़ से पूछा.

“कौन. कौन. कौन. कौन. कौन. कौन.  अच्छा!...फीती! फि-ऊ! फ्यूख!” – मकड़ी के जाले ने जवाब दिया, और भीतर ही भीतर आंसुओं से लबालब दर्दभरी आवाज़ ने कहा:

“हाँ, प्रेमी के साथ!”

निकोल्का डर के मारे दीवार से चिपक गया और उसने आकृति पर नज़र जमा दी. आकृति कत्थई जैकेट में थी, कत्थई रंग की ही घुड़सवारों वाली पतलून और जॉकियों के पीले जूतों में थी. आंखें धुंधली और उदास, छोटे-छोटे बालों वाले, अविश्वसनीय रूप से बड़े सिर के गहरे कोटरों से देख रही थीं. नि:संदेह वह जवान थी, आकृति, मगर चहरे की त्वचा बूढ़ी, भूरी थी, और दांत पीले और टेढ़े-मेढ़े दिखाई दे रहे थे. आकृति के हाथों में एक बड़ा पिंजरा था, काले रूमाल से ढंका हुआ, और खुला हुआ नीला ख़त....

“मैं अभी जागा नहीं हूँ,” निकोल्का ने अनुमान लगाया और हाथ घुमाकर मकड़ी के जाले की तरह आकृति को फाड़ने की कोशिश की और बड़े दर्द से उंगलियाँ सलाखों में घुसा दीं. काले पिंजरे में फ़ौरन, तैश में आकर, पंछी चिल्लाया और सीटी बजाने लगा, और फड़फड़ाने लगा.

“निकोल्का!” कहीं दूर-बहुत दूर एलेना की आवाज़ घबराहट से चिल्लाई.

“जीज़स क्राईस्ट,” निकोल्का ने सोचा, “नहीं, मैं जाग गया हूँ, मगर फ़ौरन पगला गया, और मुझे पता है क्यों – युद्ध की भीषण थकान के कारण. माय गॉड! और बेमतलब की चीज़ें देख रहा हूं...और उंगलियाँ ? खुदा! अलेक्सेई  वापस नहीं लौटा...आह, हाँ...वह वापस नहीं आया...मार डाला...ओय, ओय, ओय!”

“प्रेमी के साथ उसी दीवान पर,” आकृति ने दुःख से कहा, “ जिस पर बैठकर मैं उसे कवितायेँ सुनाता था.”

आकृति दरवाज़े की ओर मुडी, ज़ाहिर है किसी श्रोता की ओर, मगर फिर पूरी तरह से निकोल्का से मुखातिब हुई:

“हाँ-आ, उसी दीवान पर...अब वे बैठे हैं और एक दूसरे को चूम रहे हैं...पचहत्तर हज़ार के प्रॉमिसरी नोटों के पश्चात् जिन पर मैंने बिना सोचे-समझे, जेंटलमैन की तरह दस्तखत कर दिए. क्योंकि मैं जेंटलमैन था और हमेशा रहूँगा. चूमने दो उन्हें!”

“ओह, एय,एय,” निकोल्का ने सोचा. उसकी आंखें बाहर निकलने को हो रही थीं और पीठ में ठंडक दौड़ गई.                 

 

“खैर,माफ़ी चाहता हूँ,” अस्थिर,उनींदे कोहरे से बाहर निकल कर, वास्तविक मानव शरीर धारण करते हुए आकृति ने कहा, “आपको, शायद, बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई है? तो, ये ख़त लीजिये, - ये आपको सब समझा देगा. अपनी शर्मिन्दगी को मैं किसी से नहीं छुपाता, जेंटलमैन की तरह.”

इतना कहकर अजनबी ने निकोल्का के हाथ में नीला ख़त थमा दिया. पूरी तरह भौंचक्के निकोल्का ने ख़त ले लिया और जल्दबाजी में लिखे, परेशान, बड़े-बड़े अक्षरों को होंठ हिलाते हुए पढ़ने लगा. बिना किसी तारीख के, नाज़ुक आसमानी कागज़ पर लिखा था:

मेरी प्यारी-प्यारी लेनच्का! मैं आपके भले और उदार मन को जानती हूँ, और उसे सीधे आपके पास भेज रही हूँ, किसी अपने की तरह. वैसे, टेलीग्राम तो मैंने भेज दिया है, मगर वह, बेचारा अभागा बच्चा, खुद ही आपको सब कुछ बताएगा. लारिसच्का को बहुत गहरा आघात पहुँचा है, और मैं काफी दिनों तक डर रही थी, कि वह बर्दाश्त कर पायेगा या नहीं. मीलच्का रुब्त्सोवा, जिससे, जैसा कि आप जानती हैं, उसने साल भर पहले शादी की थी, आस्तीन का सांप निकली. उसे अपने यहाँ रख लीजिये, विनती करती हूँ, और ऐसा स्नेह दीजिये, जैसा आप देती हैं. मैं नियमित रूप से खर्चा भेजती रहूँगी, झितोमिर से उसे नफ़रत हो गई है और मैं इसे अच्छी तरह समझ सकती हूँ. खैर, ज़्यादा नहीं लिखूँगी, - मैं बेहद परेशान हूँ, और अभी एम्बुलेन्स–ट्रेन आने ही वाली है, वह खुद ही आपको सब कुछ बताएगा.

शिद्दत से आपको चूमती हूँ,

शिद्दत से ही सिर्योझा को भी!”

इसके बाद समझ में न आने वाले हस्ताक्षर थे.

“मैं अपने साथ पंछी पकड़ कर लाया हूँ,” अनजान व्यक्ति ने आह भरते हुए कहा, “ पंछी आदमी का सबसे अच्छा दोस्त है. हाँलाकि, ये भी सच है कि कई लोग इसे घर में फ़ालतू समझते हैं, मगर मैं एक बात कह सकता हूँ – पंछी, किसी भी हाल में किसी का बुरा नहीं करता.”

ये आख़िरी वाक्य निकोल्का को बहुत अच्छा लगा. कुछ भी समझने की कोशिश न करते हुए, उसने सकुचाहट से इस अगम्य पत्र से अपनी भौंह खुजाई और यह सोचते हुए पलंग से पैर उतारने लगा: “असभ्यता है....पूछना कि उसका कुलनाम क्या है?...

अजीब घटना है...”

“क्या यह कैनरी चिड़िया है? उसने पूछा.

“हाँ, मगर कैसी!” अनजान व्यक्ति ने उत्साह से जवाब दिया, “सच कहूं तो, ये कैनरी चिड़िया नहीं, बल्कि असली कैनार है. मर्द. और मेरे पास झितोमिर में ऐसी पंद्रह हैं. मैं उन्हें मम्मा के पास ले गया, वह उन्हें खिलाए. ये बदमाश तो, शायद उनकी गर्दनें मरोड़ देता. उसे पंछियों से नफ़रत है. क्या मुझे फिलहाल इसे अपनी लिखने की मेज़ पर रखने की इजाज़त देंगे?

“शौक से, प्लीज़,” निकोल्का ने जवाब दिया. “क्या आप झितोमीर से हैं?  

ओह, हाँ,” अजनबी ने जवाब दिया, “और, सोचिये, कैसा संयोग: मैं उसी समय आया, जब आपका भाई पहुँचा.”

“कौन सा भाई?

“कौनसा- क्या? आपका भाई मेरे साथ-साथ ही पहुँचा,” अजनबी ने अचरज से जवाब दिया.

“कौन सा भाई,” दयनीयता से निकोल्का चीखा, “कौन सा भाई? झितोमिर से?!”

“आपका बड़ा भाई...”

मेहमानखाने में एलेना की आवाज़ जोर से चीखी:

“निकोल्का! निकोल्का! इलरियोन  लरिओनिच! अरे जगाओ इसे! जगाओ!”

“त्रिकी, फित, फित, त्रिकी” पंछी देर तक चिल्लाया.

निकोल्का ने नीला ख़त गिरा दिया, और गोली की तरह लाइब्रेरी से होते हुए डाइनिंग रूम में भागा और वहाँ पहुंचकर, हाथ फैलाए, जम गया.

फटे अस्तर वाले पराये काले कोट, और पराई काली पतलून में अलेक्सेई तुर्बीन घड़ी के नीचे, दीवान पर निश्चल पड़ा था. नीलाई वाले फीकेपन से उसका चेहरा फीका पड़ा था, और दांत भिंचे हुए थे. एलेना उसके पास भागदौड़ कर रही थी, उसका गाऊन खुल गया था, और काली  स्टॉकिंग्स तथा अंतर्वस्त्रों की लेस दिखाई दे रही थी. “निकोल! निकोल!” चिल्लाते हुए वह कभी तुर्बीन  के सीने पर बटन पकड़ती, कभी उसके हाथ पकड़ती.

तीन मिनट बाद सिर पर पीछे की ओर खिंची स्टूडेंट्स वाली कैप में, खुले हुए भूरे ओवरकोट में ज़ोर-ज़ोर से हांफते हुए निकोल्का अलेक्सान्द्रोव्स्की चढ़ाई पर ऊपर की ओर भागा जा रहा था और बड़बड़ा रहा था: “और, अगर वह न मिला तो? ये है किस्सा पीले जॉकियों वाले जूतों का! मगर कुरीत्स्की को तो किसी भी हालत में नहीं बुलाना चाहिए, ये बिल्कुल स्पष्ट है...व्हेल और बिल्ली...” उसके दिमाग में पंछी की बहरा कर देने वाली आवाज़ टक टक कर रही थी – “व्हेल, बिल्ली, व्हेल, बिल्ली!”                    

एक घंटे बाद डाइनिंग रूम में फर्श पर तसला रखा था, जो पतले लाल द्रव से भरा था, फटे हुए बैंडेज के लाल टुकड़े और प्लेट के टुकड़े पड़े थे, जिसे जॉकियों के पीले जूतों वाले अजनबी ने गिलास निकालते समय बगल वाली अलमारी से गिरा दिया था. सभी उन टुकड़ों के ऊपर से चरमराते हुए आगे-पीछे चल रहे थे, भाग रहे थे. तुर्बीन विवर्ण, मगर अब नीलाई रहित, पहले ही की तरह तकिये पर सिर रखे लेटा था. वह होश में आ गया था और कुछ कहना चाहता था, मगर सुनहरा नाक-पकड़ चष्मा पहने, आस्तीनें ऊपर उठाए, नुकीली दाढी वाले डॉक्टर ने उसके ऊपर झुककर, जालीदार कपड़े से खून से लथपथ हाथों को पोंछते हुए कहा:  

“चुप रहिये, साथी...”

बड़ी-बड़ी आंखों और चाक जैसे सफ़ेद फक् चेहरे वाली अन्यूता और लाल, बिखरे बालों वाली एलेना ने मिलकर तुर्बीन को ऊठाया और उसके बदन से खून और पानी से तरबतर, कटी हुई बांह वाली कमीज़ उतारने लगीं.

“आप और आगे काटिए, अफ़सोस करने की बात नहीं है,” नुकीली दाढ़ी वाले ने कहा.

तुर्बीन  के दुबले-पतले बदन और बायें हाथ को नंगा करते हुए, जिसे अभी-अभी बैंडेज से कंधे तक कस कर बांधा गया था, उसकी कमीज़ को कैंची से छोटे-छोटे टुकड़ों में काटते हुए निकाला गया. बैंडेज के ऊपर और नीचे से पट्टियां झाँक रही थीं. निकोल्का ने घुटनों पर बैठकर सावधानी से बटन खोले और तुर्बीन  की पतलून उतारी.

“पूरे कपडे उतार दीजिये और फ़ौरन बिस्तर में सुला दीजिये,” नुकीली दाढ़ी वाले ने गहरी आवाज़ में कहा. अन्यूता जार से उसके हाथों पर पानी डाल रही थी, और साबुन के गुच्छे तसले में गिर रहे थे. अनजान आदमी एक किनारे खडा था, वह इस परेशानी और भागदौड़ में कोई भाग नहीं ले रहा था, और सिर्फ कभी-कभी टूटी हुई प्लेटों पर नज़र डाल लेता, या, शर्म से अस्तव्यस्त एलेना पर नज़र डाल लेता, जिसका गाऊन पूरी तरह सरक गया था. अजनबी की आंखें आंसुओं से नम थीं.

सब मिलकर तुर्बीन को डाइनिंग रूम से उसके कमरे में ले गए, वहाँ भी अजनबी ने हाथ बटाया:  उसने तुर्बीन के घुटनों के नीचे अपने हाथ घुसाए और उसके पैरों को उठाया.

मेहमानखाने में एलेना ने डॉक्टर की ओर पैसे बढ़ाए. उसने हाथ से उन्हें हटा दिया...

“आप क्या कर रही हैं, ऐ खुदा,” उसने कहा, “डॉक्टर से? यहाँ एक ज़्यादा महत्वपूर्ण सवाल है. असल में, हॉस्पिटल जाना ज़रूरी...”

“नहीं,” तुर्बीन की क्षीण आवाज़ आई,” “हॉस्पिटल न...”

“खामोश रहिये, सहयोगी,” डॉक्टर ने कहा, “हम आपके बगैर भी सब ठीक कर लेंगे. हाँ, बेशक, मैं खुद भी समझता हूँ...शैतान जाने इस समय शहर में क्या चल रहा है...” उसने खिड़की की तरफ इशारा किया. “हुम्...हाँ, वह सही कह रहा है: नहीं ले जाना चाहिए...अच्छा, फिर क्या, तो घर में ही...आज शाम को मैं आऊँगा.”

“क्या कोई खतरे की बात है, डॉक्टर?” एलेना ने व्यग्रता से पूछा.

डॉक्टर ने लकड़ी के फर्श पर नज़र जमा दी, मानो चमचमाते पीलेपन में ही निदान छुपा है, गला साफ़ किया और दाढी सहलाकर उसने जवाब दिया:

“हड्डी सही सलामत है...हुम्...प्रमुख रक्त वाहिनियाँ अनछुई हैं, नसें भी...मगर पीप आता रहेगा...ज़ख्म में ओवरकोट के ऊन के धागे गिर गए थे...” इन कुछ कम समझ में आने वाले विचारों को बाहर निकाल कर डॉक्टर ने आवाज़ ऊँची की और आत्मविश्वास से कहा: “पूरा आराम...मॉर्फीन, अगर बहुत दर्द हो तो...मैं खुद ही शाम को इंजेक्शन लगाऊँगा. खाने के लिए – तरल पदार्थ... अं, शोरवा दीजिये...ज़्यादा बात न करे...”

“डॉक्टर, डॉक्टर, मैं विनती करती हूँ...उसने कहा है, कि कृपया किसी को भी न बताएँ...”

डॉक्टर ने एलेना पर तिरछी नज़र डाली उदास और गहरी और बुदबुदाया:

“हाँ, मैं समझता हूँ...उसके साथ ये हुआ कैसे?....”

एलेना ने सिर्फ संयम से गहरी सांस ली और हाथ हिला दिए.

“ठीक है,” – डॉक्टर बुदबुदाया और किनारे से, भालू की तरह, प्रवेश कक्ष में रेंग गया.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भाग – 3 

 

 

12

 

तुर्बीन के छोटे से शयन कक्ष की दो खिड़कियों पर जो कांच लगे बरामदे में खुलती थीं काले परदे लग गए. कमरे में शाम का धुंधलका भर गया, और एलेना का सिर उसमें चमक रहा था. उसके जवाब में तकिये पर एक सफ़ेद धब्बा – तुर्बीन का चेहरा और गर्दन – चमक रहा था. प्लग में लगा तार सांप की भाँति रेंगते हुए कुर्सी की ओर गया था, और लैम्पशेड में गुलाबी बल्ब जल उठा और उसने दिन को रात में परिवर्तित कर दिया. तुर्बीन ने एलेना को दरवाज़ा बंद करने का इशारा किया.

“अन्यूता को फ़ौरन आगाह करना होगा कि चुप रहे...”

“जानती हूँ, जानती हूँ...तुम बोलो नहीं, अल्योशा, ज़्यादा.”

“मैं खुद भी जानता हूं...मैं हौले से...आह, अगर हाथ बेकार हो जाए तो!”

“अरे, क्या कह रहे हो, अल्योशा...लेटे रहो, चुप रहो...इस महिला का कोट तो फ़िलहाल हमारे पास रहेगा?

“हाँ, हाँ. निकोल्का उसे वापस लौटाने की कोशिश न करे. वर्ना, रास्ते पर...सुन रही हो? वैसे भी, खुदा के लिए, उसे कहीं बाहर न निकलने देना.”

“खुदा उसे तंदुरुस्त रखे,” एलेना ने तहे दिल से, कोमलता से कहा, “और, कहते हैं, कि दुनिया में भले लोग नहीं होते...”

ज़ख़्मी के गालों पर हल्की-सी लाली छा गई, और आंखें सफ़ेद, नीची छत पर टिक गईं, फिर उसने उन्हें एलेना की ओर घुमाया, और तेवर चढ़ाकर पूछा:

“हाँ, माफ़ करना, ये कौन मेंढक टर्रा रहा था?

एलेना गुलाबी किरण में कुछ झुकी और उसने कंधे उचका दिए.

“पता है, तुमसे ठीक पहले, करीब दो मिनट पहले, ज़्यादा नहीं, वह प्रकट हुआ: सिर्योझा का भतीजा, झितोमिर से. तुमने तो सुना है: सुर्झान्स्की...लरियोन...अरे, वही मशहूर लरिओसिक .”

“तो?

“हमारे यहाँ खत लेकर आया. उनके यहाँ कोई ड्रामा हुआ है. जैसे ही उसने बताना शुरू किया, वो तुम्हें ले आई.”

“कोई पंछी है, खुदा जाने...”

एलेना हँसते हुए और आंखों में भय के साथ बिस्तर की ओर झुकी:

“क्या पंछी!...वह हमारे यहाँ रहना चाहता है. मैं समझ नहीं पा रही हूँ, कि क्या किया जाए.”

“र-हना?...”

“हाँ, हाँ...सिर्फ तुम चुप रहो, और हिलो-डुलो नहीं, विनती करती हूँ, अल्योशा...माँ मिन्नत कर रही है, लिखती है, क्योंकि ये ही लरिओसिक उसका आदर्श है...मैंने तो ऐसा बेवकूफ, जैसा ये लरिओसिक  है, आज तक नहीं देखा. हमारे यहाँ उसने आते ही सारी प्लेटें तोड़ दीं. नीला सेट. सिर्फ दो प्लेटें बची हैं.”

“ओह, ये बात है. मुझे नहीं मालूम कि क्या करना चाहिए...”

गुलाबी छाया में बड़ी देर तक फुसफुसाहट होती रही. दूर दरवाजों और परदों के पीछे निकोल्का की और अप्रत्याशित मेहमान की दबी-दबी आवाजें सुनाई दे रही थीं. एलेना हाथ फैलाकर अलेक्सेई से कम बोलने की विनती कर रही थी. डाइनिंग हॉल में खडखडाहट सुनाई दे रही थी – गुस्साई अन्यूता झाडू से नीले सेट के टुकडे हटा रही थी. आखिरकार, फुसफुसाते हुए फैसला किया गया. इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शहर में आजकल शैतान जाने क्या हो रहा है और काफी संभव है कि कमरों की मांग करने आ जाएँ, इस बात को ध्यान में रखते हुए, कि पैसे नहीं हैं, और लरिओसिक  के लिए पैसे देने वाले हैं, - लरिओसिक  को रख लेंगे. मगर उसे तुर्बीन परिवार के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करना होगा. जहाँ तक पंछी का सवाल है – उसे कुछ दिनों तक देखा जाए. अगर पंछी घर में बर्दाश्त के बाहर हो जाए, तो उसे छोड़ देने की मांग की जाए, मगर उसके मालिक को रहने दिया जाए. जहाँ तक क्रॉकरी का सवाल है, ये देखते हुए कि, बेशक, एलेना की जुबान नहीं खुलेगी, और वैसे भी ये बदतमीजी और दादागिरी होगी, - क्रॉकरी के बारे में भूल जाएँ. लरिओसिक  को किताबों वाले कमरे में रखा जाए, वहाँ पलंग और स्प्रिंग वाला गद्दा और एक छोटी सी मेज़ रख दी जाए...

एलेना डाइनिंग रूम में आई. लरिओसिक  उदास खडा था, सिर लटकाए और उस जगह की और देखते हुए, जहाँ कभी अलमारी में बारह प्लेटों की गड्डी होती थी. धुंधली-नीली आंखें पूरी उदासी को प्रकट कर रही थीं. निकोल्का लरिओसिक  के सामने मुँह खोले खडा था, और कोई किस्सा सुन रहा था. निकोल्का की आंखों में तनावपूर्ण उत्सुकता झाँक रही थी.

“झितोमिर में चमड़ा ही नहीं है,” लरिओसिक  परेशानी से कह रहा था, “समझ रहे हैं, बिलकुल नहीं है. वैसा चमड़ा जैसा पहनने का मैं आदी हूँ, नहीं है. मैंने सभी मोचियों से कहा, कि जो मांगो, वो कीमत दूँगा, मगर नहीं मिला. और इसलिए...”

एलेना को देखकर लरिओसिक  का मुख विवर्ण हो गया, उसने अपनी ही जगह पर पैर बदले, और, न जाने क्यों नीचे, उसके ड्रेसिंग गाऊन की पन्ने जैसी झालर देखते हुए बोला:

“एलेना वसील्येव्ना, मैं फ़ौरन दुकानों में जाऊंगा, उनसे पूछूंगा, और आज ही आपके पास प्लेटों का सेट आ जाएगा. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि मुझे क्या कहना चाहिए. आपसे माफ़ी कैसे माँगू? प्लेटों के सेट के लिए तो मेरी जान ही लेना चाहिए. मैं खतरनाक रूप से नाकामयाब इन्सान हूँ,” उसने निकोल्का से मुखातिब होकर कहा, “मैं इसी समय दुकानों में जाऊंगा,” उसने एलेना से आगे कहा.   

“मैं वाकई में आपसे विनती करती हूँ, कि किसी भी दुकान में न जाएँ, ऊपर से, वे सब, बेशक, बंद हैं. माफ़ कीजिये, क्या आपको मालूम नहीं है, कि हमारे यहाँ शहर में क्या हो रहा है? 

“कैसे नहीं जानूंगा!” लरिओसिक चहका. “मैं तो एम्बुलेन्स ट्रेन से आया हूँ, जैसा आपको टेलीग्राम से पता चल गया होगा.”

“कौन से टेलीग्राम से?” एलेना ने पूछा. “हमें कोई टेलीग्राम नहीं मिला.”

“क्या?” लरिओसिक  का मुँह पूरा खुल गया. “नहीं मिला? आ-हा. तभी, मैं देख रहा हूँ,” वह निकोल्का की ओर मुड़ा, “ कि आप मेरी तरफ़ इतने अचरज से... मगर इजाज़त दीजिये...मम्मा ने आपको त्रेसठ शब्दों का टेलीग्राम भेजा था.”

“त्स...त्स....त्रेसठ शब्द!” निकोल्का चौंक गया. “कितने अफ़सोस की बात है. आजकल टेलीग्राम ठीक से नहीं पहुँचते हैं. बल्कि, असल में तो वे पहुँचते ही नहीं हैं.”

“तो, अब क्या किया जाए?” लरिओसिक दुखी हो गया. “क्या आप मुझे अपने यहाँ रहने की इजाज़त देंगे?” उसने असहायता से चारों ओर देखा, और उसकी आंखों से फ़ौरन स्पष्ट हो गया कि उसे तुर्बीनों के यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है, और वह कहीं और नहीं जाना चाहता.”

“सब इंतज़ाम हो गया है,” एलेना ने जवाब दिया और उदारता से सिर हिलाया, “हम तैयार हैं. रुक जाओ, और आराम से रहो. देख रहे हो ना, कि हमारे यहाँ कैसी दुर्भाग्यपूर्ण...”

लरिओसिक  और भी ज़्यादा दुखी हो गया. उसकी आंखें आंसुओं के कारण धुंधली हो गई,.

“एलेना वसील्येव्ना,” उसने भावविह्वल होकर कहा, “आप मुझसे जिस तरह की चाहें, मदद ले सकती हैं. पता है, मैं लगातार तीन-चार दिनों तक बिना सोये रह सकता हूँ.”

“शुक्रिया, बहुत-बहुत शुक्रिया.”

“और अब,” लरिओसिक  निकोल्का से मुखातिब हुआ, “क्या मुझे कैंची मिल सकती है?

अचरज और दिलचस्पी से भौंचक्का निकोल्का, कहीं भागा और कैची के साथ लौटा. लरिओसिक  ने जैकेट के बटन को हाथ लगाया, आंखें झपकाईं और फिर से निकोल्का से बोला;

“वैसे, माफी चाहता हूँ, एक मिनट के लिए आपके कमरे में...”

निकोल्का के कमरे में लरिओसिक ने जैकेट उतार दिया, बेहद गंदी कमीज़ निकालकर, उसने कैची हाथ में ली, जैकेट का काला चमकदार अस्तर फाड़ा, और उसके नीचे से हरा-पीला पैसों का पैकेट निकाला. ये पैकेट वह शालीनता से डाइनिंग रूम में लाया और उसे एलेना के सामने मेज़ पर यह कहते हुए रख दिया:

“एलेना वसील्येव्ना, अपने खर्चे के लिए मुझे अभ्भी आपको ये धनराशि देने की इजाज़त दें.”

“इतनी जल्दी क्या है,” लाल होते हुए एलेना ने पूछा, “ये बाद में भी हो सकता था...”

लरिओसिक  ने जोरदार विरोध किया:

“नहीं, नहीं, एलेना वसील्येव्ना, आप, मेहेरबानी करके अभी ले लीजिये. खुदा के लिए, ऐसी कठिन परिस्थिति में पैसों की सख्त ज़रुरत पड़ती है, यह मैं अच्छी तरह समझता हूं!” उसने पैकेट खोला, उसमें से किसी औरत का फोटो भी बाहर गिरा. लरिओसिक  ने चुपके से उसे उठाया और गहरी सांस लेकर जेब में छुपा दिया. “ आपके लिए ये अच्छा रहेगा. मुझे क्या ज़रुरत है? मुझे सिगरेट और कैनरी के लिए दाना खरीदना होगा...”

लरिओसिक  के कार्यकलाप इतने समझदारी से पूर्ण और समयानुकूल थे, कि एलेना एक मिनट के लिए अलेक्सेई के ज़ख्म को भूल गई, और उसकी आंखों में प्यारी चमक दिखाई दी . 

“वैसे, वह इतना भी बेवकूफ़ नहीं है, जितना मैंने शुरू में सोचा था,” उसने सोचा, नम्र और ईमानदार है, सिर्फ कुछ सनकी है. प्लेटों का बेहद अफ़सोस है.”

“ये है नमूना,” निकोल्का ने सोचा, लरिओसिक  के आश्चर्यजनक आगमन ने उसके उदास विचारों को कम कर दिया.

“ये आठ हज़ार हैं,” प्याज़ के साथ तले हुए अंडे जैसा नोटों का बण्डल मेज़ पर सरकाते हुए लरिओसिक  ने कहा, “अगर कम हो, तो हम हिसाब कर लेंगे और मैं फ़ौरन और दूँगा.”

“नहीं, नहीं, बाद में, ये बढ़िया है,” एलेना ने जवाब दिया. “आप अब ऐसा कीजिये: मैं अभी अन्यूता से कहती हूँ, कि वह आपके लिए नहाने का पानी गरम कर दे, और आप फ़ौरन नहा लीजिये. मगर कहिये, आप आये कैसे, आप यहाँ तक पहुंचे कैसे, समझ नहीं पा रही?” एलेना                   

पैसे समेट कर उन्हें अपने गाऊन की बड़ी जेब में रखने लगी.  

उस याद से लरिओसिक  की आँखों से डर झांकने लगा.

ये खतरनाक था!” प्रार्थना करते हुए प्रीस्ट की भाँति हाथ रखकर उसने कहा. “मैं नौ दिनों से...नहीं, माफी चाहता हूँ, दस?...माफ़ कीजिये...इतवार, हाँ, सोमवार...ग्यारह दिनों से झितोमिर से ट्रेन में सफ़र कर रहा हूँ...”

“ग्यारह दिन!” निकोल्का चीखा. “देखा!” न जाने क्यों वह उलाहने से एलेना से मुखातिब हुआ.

“हाँ-आ, ग्यारह...मैं चला, तो ट्रेन गेटमन की थी, मगर रास्ते में पित्ल्यूरा की बन गई. और हम एक स्टेशन पर पहुंचे, क्या नाम था, अरे, वो...खुदा, भूल गया...कोई बात नहीं...और सोचो, वहाँ वे मुझ पर गोली चलाने वाले थ. ये पित्ल्यूरा वाले आये, टोपियों पर पूँछों वाले...”

“नीली?” निकोल्का ने उत्सुकता से पूछा.

“लाल...हाँ लाल पूँछों वाले...और चीखे:

“उतर! हम अभी तुझे मार डालेंगे! उन्होंने फैसला कर लिया कि मैं ऑफिसर हूँ और एम्बुलेन्स ट्रेन में छुपा हूँ. मगर मेरे पास बचने का एक ही रास्ता था...मम्मा डॉक्टर कुरीत्स्की को जानती है.”  

“कुरीत्स्की को? निकोल्का गहरे अर्थ से चहका.

“तेक-स...बिल्ली...और व्हेल. जानते हैं.”

“किति, कोत, किति, कोत,” दरवाज़े के पीछे पंछी ने दबी आवाज़ में जवाब दिया.

“हाँ, उसीको...वही हमारे यहाँ झितोमिर में ट्रेन लाया था...माय गॉड! मैं भगवान की प्रार्थना करने लगा. सोचा, सब ख़त्म हो गया! और, पता है? पंछी ने मुझे बचाया. मैंने कहा कि मैं ऑफिसर नहीं, पंछी पालने वाला हूँ, मैंने उन्हें अपना पंछी दिखाया...तब, पता है, एक ने मेरे सिर पर हाथ जमाया और बेशर्मी से बोला – “अपने रास्ते जाओ, रट्टू पंछी वाले. ऐसा बेशर्म था! मैं उसे मार ही डालता, जेंटलमैन की तरह, मगर आप खुद ही समझते हैं...”

“एले...” तुर्बीन के शयनकक्ष से हल्की आवाज़ सुनाई दी. एलेना फ़ौरन मुडी और, पूरी बात सुने बिना, उस तरफ भागी.

 

****  

 

 

कैलेण्डर के हिसाब से पंद्रह दिसंबर को सूरज दिन के साढ़े तीन बजे अस्त हो जाता है. इसलिए क्वार्टर में तीन बजे से ही अन्धेरा होना शुरू हो गया था. मगर एलेना के चेहरे पर दिन के तीन बजे सुईयां सबसे निचला और निराशाजनक समय – साढ़े पाँच दिखा रही थीं. दोनों सुईयां मुँह के कोनों पर दयनीय झुर्रियां पार कर चुकी थीं, और नीचे ठोढी की ओर खिंच रही थीं. उसकी आंखों में पीड़ा और दुर्भाग्य से जूझने का निश्चय तैर रहा था.      

निकोल्का के चेहरे पर नुकीले और फूहड़ एक बजने में बीस मिनट दिखाई दे रहे थे, इस कारण से कि निकोल्का के दिमाग में गडबडी और परेशानी थी, जो महत्वपूर्ण और रहस्यमय शब्दों – “माला-प्रवाल्नाया...” के कारण उत्पन्न हुई थी, उन शब्दों के कारण जिन्हें कल युद्ध के चौराहे पर मरने वाले ने कहा था, उन शब्दों के कारण, जिन्हें ज़्यादा दूर नहीं, बल्कि अगले कुछ दिनों में ही समझाना ज़रूरी था. तुर्बीनों के जीवन में आसमान से टपके रहस्यमय और दिलचस्प लरिओसिक  के महत्वपूर्ण आगमन से गड़बड़ी और कठिनाइयां उत्पन्न हो गई थीं, और उस परिस्थिति के कारण भी कि शैतानी और महान घटना हुई थी:

पित्ल्यूरा ने शहर पर कब्ज़ा कर लिया था. पित्ल्यूरा और, सोचिये! – वही शहर. और अब वहाँ क्या होगा, इन्सानी दिमाग की समझ से बाहर है, सबसे विकसित दिमाग के लिए भी अगम्य और अनाकलनीय है. पूरी तरह स्पष्ट है कि कल एक घृणित विनाशकारी घटना घटित हुई – हमारे सभी लोगों को मार डाला गया – अप्रत्याशित रूप से. उनका खून, निःसंदेह पीड़ा से आसमान में चीख रहा है – ये है पहली बात. अपराधी – जनरल्स और स्टाफ हेडक्वार्टर के कमीनों को मौत की सज़ा मिलनी चाहिए – ये हुई दूसरी बात. मगर, खौफ के अलावा, ज्वलंत दिलचस्पी भी बढ़ रही है, - असल में, होने क्या वाला है? सात लाख लोग यहाँ, शहर में, रहेंगे कैसे - उस रहस्यमय व्यक्तित्व के नियंत्रण में, जिसका इतना डरावना और बदसूरत नाम है – पित्ल्यूरा? वह है कौन? किसलिए?...आह, वैसे, ये सब उस सबसे महत्वपूर्ण, खूनी...एह...एह...सबसे भयानक चीज़, के मुकाबले में, मैं आपको बताऊँगा, धुंधला हो जाएगा, असल में, सही-सही कुछ भी पता नहीं है, मगर, काफी संभव है कि मिश्लायेव्स्की और करास को मरा हुआ समझ लेना चाहिए.   

चिकनी और चिपचिपी मेज़ पर एक चौड़े चिमटे से निकोल्का बर्फ के टुकड़े काट रहा था. बर्फ के टुकड़े या तो आवाज़ के साथ टूट जाते या चिमटे के नीचे से फिसल जाते और पूरे किचन में उछलते, निकोल्का की उंगलियाँ सुन्न हो गईं थीं. चांदी के ढक्कन वाला एक जार पास ही में रखा था.

“माला...प्रवाल्नाया...” निकोल्का के होंठ हिल रहे थे, और उसके दिमाग में नाय-तुर्स की, लाल बालों वाले नीरो की और मिश्लायेव्स्की की आकृतियाँ झाँक जातीं. और सिर्फ अंतिम आकृति, कटे हुए ओवरकोट में, निकोल्का के विचारों में कौंधी, गर्म स्टोव के पास व्यस्त दुखी और परेशान अन्यूता का चेहरा स्पष्ट रूप से पाँच बजने में बीस मिनट दिखा रहा था – उत्पीडन की और दर्दभरी घड़ी. क्या विभिन्न रंगों वाली आंखें सलामत हैं? क्या खनखनाती एडों वाले दनदनाते कदम फिर से सुनाई देंगे – द्रेन्...द्रेन्...

“बर्फ लाओ,” किचन का दरवाज़ा खोलते हुए एलेना ने कहा.

“अभ्भी, अभ्भी,” निकोल्का ने जल्दी से जवाब दिया, ढक्कन बंद किया और भागा.

“अन्यूता, प्यारी,” एलेना कहने लगी, “देख, किसी से भी एक भी लब्ज़ न कहना कि अलेक्सेई वसील्येविच ज़ख़्मी हुआ है. अगर उन्हें पता चलेगा, खुदा सलामत रखे, कि उनके खिलाफ लड़ रहा था तो मुसीबत आ जायेगी.”

“मैं, एलेना वसील्येव्ना, समझती हूँ. आप भी ना!” अन्यूता ने परेशान, चौड़ी खुली आंखों से एलेना की और देखा. “शहर में क्या हो रहा है, होली मदर! अभी, बरीचोव तोक पर, मैं आ रही थी, दो लोग पड़े थे बिना जूतों के...खून. खून!...चारों ओर लोग खड़े हैं, देख रहे थे...कोई कह रहा था, कि दो अफसरों को मार डाला है...वैसे ही पड़े हैं, सिरों पर टोपियाँ नहीं हैं...मेरे कदम लड़खड़ा गए, भागी वहाँ से, हाथ से टोकरी छूटते- छूटते बची...”

अन्यूता ने सिहरते हुए कंधे उचकाये, और उसके हाथों से फ्रायिंग पैन्स फिसल कर फर्श पर गिर गये...”धीरे, धीरे, खुदा के लिए,” एलेना ने हाथ फैलाते हुए कहा.

लरिओसिक  के चेहरे पर दिन के तीन बजे सुईयाँ सबसे उन्नत और सशक्त स्थिति दिखा रही थीं – ठीक बारह. दोनों सुईयां दोपहर में एक दूसरे से मिल गई थीं, और एक हो गईं थीं, तलवारों की नोक की तरह. ऐसा इसलिए हुआ था, उस भयानक आपदा के बाद, जिसने झितोमिर में लरिओसिक  की कोमल आत्मा को झकझोर दिया था, एम्बुलेन्स ट्रेन में ग्यारह दिनों की भयानक यात्रा, और खतरनाक अनुभवों के पश्चात् लरिओसिक को तुर्बीनों के घर में बहुत अच्छा लगा. किसलिए – ये तो लरिओसिक फिलहाल नहीं समझा सकता था, क्योंकि उसे खुद को भी ठीक-ठाक पता नहीं था.

ख़ूबसूरत एलेना असाधारण रूप से ध्यान आकर्षित करती थी और आदर की पात्र थी. और निकोल्का भी बहुत अच्छा लगा. इसे दिखाने के लिए, लरिओसिक  ने उस पल का लाभ उठाया, जब निकोल्का ने अलेक्सेई के कमरे में आना-जाना रोक दिया, और वह स्प्रिंग वाले संकरे पलंग को किताबों के कमरे में रखने और सरकाने में मदद करने लगा.

“आपका चेहरा बिल्कुल खुली किताब की तरह है, जो अपनी ओर आकर्षित करता है,” उसने नम्रता से कहा और इस किताबी चहरे में इतना खो गया कि उसका ध्यान ही नहीं गया कि कैसे उसने जटिल, खड़खड़ाते पलंग को रखते समय निकोल्का के हाथ को दो पल्लों के बीच में दबा दिया. दर्द इतना तेज़ उठा कि निकोल्का चीखने लगा, बेशक, दबी आवाज़ में, मगर इतना तेज़ कि एलेना सरसराहट से भागती हुई आई. निकोल्का की आंखों से, जो पूरी ताकत से कोशिश कर रहा था कि चीख न निकले, अपने आप बड़े-बड़े आंसू टपकने लगे. एलेना और लरिओसिक स्वचालित पलंग से जूझते रहे और नीले पड़ गए हाथ को आज़ाद करने के लिए  बड़ी देर तक उसे विभिन्न दिशाओं में उसे खोलने की कोशिश करते रहे. जब लाल धब्बों वाला आहत हाथ बाहर निकला, तो लरिओसिक रोने-रोने को हो गया.

“माय गॉड!” उसने अपने दयनीय चेहरे को और भी विकृत करते हुए कहा. “ये मेरे साथ हो क्या रहा है?! मैं कितना अभागा हूँ!...आपको बहुत दर्द हो रहा है? खुदा के लिए मुझे माफ़ कर दीजिये.”

निकोल्का चुपचाप किचन की ओर लपका, और वहाँ अन्यूता ने उसके आदेशानुसार, उसके हाथ पर नल से पानी की ठंडी धार छोडी.

चालाक पलंग के खटके के साथ खुलकर बिछ जाने के बाद, यह स्पष्ट हो गया कि निकोल्का के हाथ को कोई ख़ास चोट नहीं पहुँची है, तब लरिओसिक को किताबों के प्रति एक सुखद और शांत आनंद ने घेर लिया. पंछियों के शौक और उनके प्रति प्यार के अलावा उसे किताबों का भी शौक था. यहाँ तो अनेक खानों वाली खुली अलमारियों में एक दूसरे से सटे हुए खजाने रखे थे. काले फोल्डर्स पर हरे, लाल, सुनहरे उभरे हुए शीर्षकों वाली, पीले आवरणों और काले फोल्डरों वाली किताबें चारों दीवारों से लरिओसिक को देख रही थीं. पलंग कब का खुल चुका था और बिस्तर बिछ चुका था और उसके पास एक कुर्सी, उसकी पीठ पर तौलिया टंगा था, और सीट पर एक पुरुष के लिए आवश्यक वस्तुओं – साबुनदानी, सिगरेट, माचिस, घड़ी, के बीच किसी महिला का रहस्यमय फोटो तिरछा रखा था, मगर लरिओसिक  किताबों वाले कमरे में ही था, कभी किताबें जडी दीवारों का सफ़र करते हुए, कभी निचली कतारों के पास उकडूं बैठ जाता, हसरत भरी निगाहों से जिल्द पर नज़र डालता, ये न समझ पाते हुए कि किस किताब को फ़ौरन शुरू करे – “पिक्विक क्लब के मरणोपरांत नोट्स” या “रूसी बुलेटिन, 1871”. घड़ी की सुईयां बारह पर खड़ी थीं. मगर घर में शाम के साथ-साथ उदासी भी बढ़ती गई. इसलिए घड़ी बारह बार नहीं बजी, सुईयां खामोश खड़ी थीं और मातमी झंडे में लिपटी चमकती तलवार जैसी लग रही थीं.

मातम की वजह, सभी चेहरों की जीवन-घड़ियों में, जो तुर्बीनों की पुरानी और धूल भरी आरामदेह ज़िंदगी से घनिष्ठता से जुड़े थे, विसंगति का दोषी था एक पतला, पारे का स्तम्भ. तीन बजे तुर्बीन के शयनकक्ष में वह दिखा रहा था 39.60. एलेना पीली पड़ गई और उसे झटकने की कोशिश करने लगी, मगर तुर्बीन ने सिर घुमाकर, आंखों से इशारा किया और कमजोरी से कहा: “दिखाओ”. एलेना ने चुपचाप और अनिच्छा से उसे थर्मामीटर दिया. तुर्बीन ने नज़र डाली और भारी और गहरी सांस ली.

पाँच बजे वह सिर पर ठंडी, भूरी थैली रखे लेटा था और थैली में बारीक बर्फ पिघल रही थी और बह रही थी. उसका चेहरा गुलाबी हो गया, और आंखें चमकने लगीं और बहुत सुन्दर हो गईं.

“उनचालीस पॉइंट छ... अच्छा है,” बीच-बीच में अपने सूखे, फटे हुए होठों पर जीभ फेरते हुए  उसने कहा. “- तो - ऐसा है...कुछ भी हो सकता है...मगर, हर हाल में, प्रैक्टिस तो ख़त्म ही हो गई...हमेशा के लिए. कम से कम हाथ तो बच जाए...वर्ना तो, मैं बिना हाथ के...”

“अल्योशा, चुप रहो, प्लीज़,” एलेना ने उसके कन्धों पर कम्बल ठीक करते हुए विनती की...आंखें बंद करते हुए तुर्बीन चुप हो गया. बाईं कांख में ऊपर हुए ज़ख्म से शरीर में सूखी, चुभती हुई जलन फ़ैल रही थी. कभी कभी वह पूरे सीने में भर जाती और सिर को धुंधला कर देती, मगर पैर अप्रिय रूप से बर्फ जैसे हो गए थे. शाम तक, जब हर तरफ लैम्प जल गए और काफी पहले खामोशी और चिंता में तीनों – एलेना, निकोल्का और लरिओसिक का डिनर हो चुका था, - पारे का स्तम्भ जादू के समान फूलते हुए और घने चांदी के गोल से पैदा होते हुए बाहर रेंगते हुए 40.20 के निशान तक पहुंच गया. तब गुलाबी शयनकक्ष में चिंता और उदासी अचानक पिघलने लगी और बाहर बहने लगी. उदासी, कम्बल पर जमी एक भूरी गाँठ की तरह आई, और अब वह पीले धागों में परिवर्तित हो गई, जो पानी में समुद्री शैवाल की तरह फ़ैल गई. प्रैक्टिस और भय के ख़याल, कि क्या होगा, गुम हो गए, क्योंकि इस शैवाल ने सब कुछ धुंधला कर दिया था. सीने के बाएँ हिस्से में ऊपर की ओर चीरता हुआ दर्द कुंद हो गया और सुस्त पड गया. बुखार का स्थान ठण्ड ने ले लिया. सीने में जलती हुई मोमबत्ती कभी कभी बर्फीले चाकू में बदल जाती जो कहीं फेफड़े में छेद कर रहा था. तब तुर्बीन सिर हिलाता और बर्फ की थैली फेंक कर कम्बल के भीतर गहरे घुस जाता. ज़ख्म का दर्द नरम आवरण से बाहर आता और ऐसी पीड़ा देने लगता कि ज़ख़्मी अनिच्छापूर्वक क्षीण और शुष्क शब्दों में शिकायत करता. जब चाकू गायब हो जाता और उसका स्थान सुलगती जलन ले लेती, तब गर्मी शरीर को, चादरों को, कम्बल के नीचे सिकुड़ी हुई गुफा को नहला देती, और ज़ख़्मी कहता – “पानी” – तो निकोल्का का, एलेना का, लरिओसिक  का चेहरा धुंधलके में दिखाई देते, झुकते और सुनते. सबकी आंखें खतरनाक रूप से एक जैसी हो गई थीं, व्यग्र और क्रोधित. निकोल्का की सुईयां अचानक खिंच गईं और, एलेना की भाँति – ठीक साढ़े पाँच दिखाने लगीं. निकोल्का हर मिनट डाइनिंग रूम में जाता – इस शाम रोशनी न जाने क्यों धुंधली और व्यग्रता से जल रही थी – और घड़ी पर नज़र डालता. टोंक्र... टोंक्र...गुस्से से और चेतावनी-सी देते हुए घड़ी भर्राते हुए चल रही थी, और उसकी सुईयां कभी नौ, कभी सवा नौ, तो कभी साढ़े नौ दिखा रही थीं...  “एख, एख,” निकोल्का ने आह भरी और उनींदी मक्खी की तरह डाइनिंग रूम से, तुर्बीन के शयनकक्ष की बगल से, लॉबी से होते हुए अतिथि कक्ष में और वहाँ से अध्ययन कक्ष में और सफ़ेद परदे हटाकर, बाल्कनी के दरवाज़े से रास्ते पर देख लेता... “कहीं डॉक्टर डर न गया हो...आये ही नहीं...” उसने सोचा. सड़क, खड़ी और टेढ़ी-मेढ़ी, अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक सुनसान थी, मगर फिर भी उतनी डरावनी नहीं थी. और कभी-कभार कुछ चरमराते हुए स्लेज-गाड़ियाँ गुज़रतीं. मगर कभी-कभार...निकोल्का समझ रहा था, कि शायद जाना पडेगा...और सोच रहा था कि एलेना को कैसे मनाये.

“अगर साढ़े दस बजे तक वह नहीं आया, तो मैं खुद लरियोन लरिओनविच के साथ जाऊंगी, और तुम अल्योशा के पास रहोगे...चुप रहो, प्लीज़...समझने की कोशिश करो, तुम्हारा डील डौल कैडेट्स जैसा है...और लरिओसिक  को अल्योशा की सिविल ड्रेस दे देंगे...और महिला के साथ उसे कोई नहीं छुएगा....”

लरिओसिक  गड़बड़ करने लगा, उसने खतरा मोल लेने और अकेले ही जाने की तैयारी दर्शाई और वह सिविलियन ड्रेस पहनने चला गया.

चाकू पूरी तरह ग़ायब हो गया, मगर बुखार तेज़ हो गया – टाइफ़ाइड भट्टी को भी मात दे रहा था, और बुखार में कई बार एक अस्पष्ट और तुर्बीन के लिए पूरी तरह अपरिचित व्यक्ति की आकृति आई. वह भूरी पोशाक में थी.    

तुम्हें पता है, उसने, शायद, कुलांटी मारी थी? भूरा?” तुर्बीन ने अचानक स्पष्ट और कठोरता से कहा और उसने एलेना को गौर से देखा.

“यह अप्रिय है...वैसे, असल में, सभी पंछी. गर्म कमरे में ले जाकर, गर्माहट में रखना चाहिए और  गर्मी में उनके होश ठिकाने आ जाते.”

“तुम क्या कह रहे हो, अल्योशा?” एलेना ने डरते हुए पूछा, झुकते हुए उसे महसूस हो रहा था कि उसके चेहरे पर तुर्बीन के चेहरे से गर्म लपटें आ रही हैं. “पंछी? कौनसा पंछी?

काली सिविलियन ड्रेस में लरिओसिक कुबड़ा, चौड़ा नज़र आने लगा, पीले जूते पतलून के नीचे छुप गए थे. वह डर गया था, उसकी आंखें दयनीयता से घूम रही थीं. पंजों के बल, संतुलन बनाते हुए, वह शयनकक्ष से, प्रवेश कक्ष से होते हुए डाइनिंग रूम में, किताबों वाले कमरे से निकोल्का के कमरे में मुड़ा और वहाँ, कठोरता से हाथ हिलाते हुए, लिखने की मेज़ पर रखे पिंजरे की तरफ़ लपका और उस पर काला कपड़ा डाल दिया...मगर यह अनावश्यक था – पंछी कब का कोने में सो चुका था, पंखों का गोल बनाकर, किसी भी तरह की परेशानी से बेखबर. लरिओसिक ने किताबों के कमरे का दरवाज़ा और किताबों के कमरे से डाइनिंग रूम वाला पक्का बंद कर दिया.  

अप्रिय...ओह, अप्रिय,” तुर्बिन ने कोने की ओर देखते हुए बेचैनी से कहा, “बेकार ही में मैंने उसे गोली मार दी...तुम सुनो...” वह कम्बल के नीचे से अपना तंदुरुस्त हाथ बाहर निकालने लगा... “सबसे अच्छा तरीका है बुलाने और समझाने का, क्यों, बेकार ही में, इधर-उधर भाग रहे हो?... मैं , बेशक, इसकी ज़िम्मेदारी लेता हूँ...सब ख़त्म हो गया और बेवकूफी से...”

“हाँ, हाँ,” निकोल्का ने बोझिलपन से कहा, और एलेना ने सिर झुका लिया. तुर्बीन उत्तेजित हो गया, उठने की कोशिश करने लगा, मगर चुभता हुआ दर्द उठा, वह कराहा, फिर कड़वाहट से बोला:

“तो फिर भाग जाओ!...”

“शायद, उसे किचन में ले जाना बेहतर होगा? वैसे, मैंने उसे ढांक दिया है, वह खामोश है,” लरिओसिक ने परेशानी से पूछा.

एलेना ने हाथ हिला दिया: “नहीं, नहीं, ये बात नहीं है...” निकोल्का निर्णायक कदमों से डाइनिंग रूम में आया. उसके बाल बिखरे हुए थे, उसने डायल की और देखा: घड़ी क़रीब दस दिखा रही थी. चिंतित अन्यूता डाइनिंग रूम के दरवाज़े से बाहर आई.

“क्या, कैसे हैं अलेक्सेई वसील्येविच?” उसने पूछा.

“बड़बड़ा रहा है,” गहरी सांस लेते हुए निकोल्का ने जवाब दिया.

“आह, मेरे खुदा,” अन्यूता फुसफुसाई, “ये डॉक्टर क्यों नहीं आ रहा है?

निकोल्का ने उसकी तरफ़ देखा और शयनकक्ष में वापस आया. वह एलेना के कान के पास झुका और उसे मनाने लगा:

“मर्ज़ी तुम्हारी, मगर मैं डॉक्टर को बुलाने जा रहा हूँ. अगर वह नहीं है, तो दूसरे को बुलाना होगा. दस बजे हैं. रास्ते पर पूरी खामोशी है.”

“साढ़े दस तक इंतज़ार करेंगे,” सिर हिलाते हुए और रूमाल में हाथ घुसाते हुए एलेना ने फुसफुसाहट से जवाब दिया, “किसी और को बुलाना अच्छा नहीं होगा. मुझे मालूम है, ये वाला आयेगा.”

दस बजते ही एक भारी, बौड़म और मोटी तोप छोटे से शयन कक्ष में घुस गई. शैतान जाने क्यों! बिल्कुल बेमतलब रहेगी. उसने दोनों दीवारों के बीच सारी जगह घेर ली, इस तरह कि बायाँ पहिया बिस्तर से टिक रहा था. असंभव है रहना. भारी-भारी छड़ों के बीच से गुज़रना होगा, फिर कमान की तरह झुकना होगा और दूसरे, दायें पहिये से सिकुड़कर, और चीज़ों के साथ, और चीज़ें तो खुदा जाने कितनी लटकी हैं बाएं हाथ पर. ज़मीन की ओर हाथ खींचती हैं, रस्सी से बगल को काटती हैं. तोप को हटाना असंभव है, पूरा क्वार्टर तोप बन गया है, आदेश के अनुसार, और बेवकूफ़ कर्नल मालिशेव, और पगला गई एलेना, पहियों के बीच से झांकती हुई, कुछ भी नहीं कर सकते, ताकि या तो तोप को बाहर निकाल दें, या कम से कम, बीमार इंसान को ही दूसरी, जीने लायक परिस्थितियों में ले जाएँ, वहाँ, जहाँ कोई तोपें न हों. इस नासपीटी, भारी-भरकम और ठंडी चीज़ के कारण पूरा क्वार्टर ही सराय जैसा बन गया है. दरवाज़े की घंटी बार-बार बजती है...ब्रिन्...और लोग आने लगे. कर्नल मालिशेव दिखाई दिया,बौड़म, बंजारे जैसा,कानदार टोपी और सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स में, और अपने साथ कागज़ात का ढेर खींचता हुए. तुर्बीन उसके ऊपर चिल्लाया, और मालिशेव तोप की नाली में घुस गया और निकोल्का में बदल गया, परेशान,नासमझ, बेवकूफ और जिद्दी. निकोल्का ने पीने के लिए पानी दिया, मगर ठंडा, झरने से निकल रहे पानी जैसा नहीं, बल्कि गरम, घिनौना पानी, जिसमें सॉस पैन की बू आ रही थी.

“फू...ये घिनौनी...रोको,” तुर्बीन बड़बड़ाया.

निकोल्का घबरा भी गया और उसने भौंहे भी चढ़ा लीं, मगर वह जिद्दी और फूहड़ था. एलेना कई बार काले और अनावश्यक लरिओसिक, सिर्योझा के भतीजे में बदलती रही, और फिर से लाल बालों वाली एलेना के रूप में वापस आती रही, माथे के पास उँगलियाँ घुमाती रही, और इससे बहुत कम आराम मिल रहा था. एलेना के हाथ, जो आम तौर से गर्माहट भरे और फुर्तीले हैं, इस समय पांचे की तरह लम्बे-लम्बे और बेवकूफी से घूम रहे थे और सब कुछ अनावश्यक, चिड़चिड़ाहटभरा कर रहे थे, जो शापित वर्कशॉप के आँगन में किसी शांतिप्रिय आदमी के जीवन में ज़हर घोल देता है. यह संभव नहीं लगता कि एलेना ही उस डंडे का कारण थी, जिस पर गोली से ज़ख़्मी हुए तुर्बीन का जिस्म रखा गया था. और ऊपर से बैठी रही...हुआ क्या था उसे?...इस डंडे के अंतिम सिरे पर, और वह वज़न से धीरे-धीरे गोल घूमने लगा, जी मिचलाने तक...ज़रा ज़िंदा रहने की कोशिश तो करो, यदि गोल डंडा शरीर में घुस रहा हो! नहीं, नहीं, नहीं, बर्दाश्त से बाहर है! और जितनी ज़ोर से हो सके, मगर आवाज़ धीमी ही निकली, तुर्बीन ने आवाज़ दी:

“यूलिया!”

यूलिया, हाँलाकि,चालीस के दशक के सुनहरे स्ट्रैप्स की तस्वीर वाले प्राचीन कमरे से बाहर नहीं निकली, उसने बीमार व्यक्ति की पुकार का जवाब नहीं दिया. और बेचारे बीमार व्यक्ति को भूरी आकृतियाँ पूरी तरह बेज़ार कर देतीं, जो क्वार्टर और शयनकक्ष में तुर्बीनों के साथ-साथ घूमने लगी थीं, यदि मोटा, सुनहरे चश्मे वाला - जिद्दी और काबिल व्यक्ति न आया होता. उसके सम्मान में छोटे से शयनकक्ष में प्राचीन, भारी, काले मोमबत्तीदान में एक और रोशनी आ गई – स्टीअरिन की फड़फड़ाती हुई रोशनी. मोमबत्ती कभी मेज़ पर टिमटिमाती, तो कभी तुर्बीन के चारों ओर घूमती, और उसके ऊपर दीवार पर चलता डरावना लरिओसिक, पंख कटे चमगादड़ की तरह. मोमबत्ती झुक रही थी, सफ़ेद स्टीअरीन के साथ पिघलती हुई. छोटा सा शयनकक्ष आयोडीन और ईथर की असहनीय गंध से भरा था. निकलप्लेटेड आईनों में मेज़ पर पड़े चमकीले डिब्बों, लैम्पों और थियेटर की रूई – क्रिसमस की बर्फ के प्रतिबिम्बों का हंगामा हो रहा था. मोटे, सुनहरे आदमी ने गर्माहट भरे हाथों से तुर्बीन को उसके तंदुरुस्त हाथ में आश्चर्यजनक इंजेक्शन दिया, और कुछ मिनट बाद भूरी आकृतियों ने बदतमीजी करना बंद कर दिया. तोप को बाहर बरामदे में सरका दिया गया, जिससे परदे लगी खिड़कियों से उसकी काली नली बिल्कुल भी भयानक नहीं प्रतीत हो रही थी. आराम से सांस लेना संभव हो गया था, क्योंकि भारी-भरकम पहिया चला गया था और छड़ों के बीच से रेंगने की ज़रुरत नहीं थी. मोमबत्ती बुझ गई, और नुकीला, कोयले जैसा काला,झितोमिर से आया हुआ लरिओसिक सुर्झान्स्की लुप्त हो गया, और निकोल्का का चेहरा ज़्यादा संजीदा हो गया, वैसा चिड़चिड़ा, जिद्दी नहीं रहा, हो सकता है, इसलिए कि सुनहरे, मोटे के कौशल पर उम्मीद की बदौलत, घड़ी की सुईयां अलग हो गईं और अब वे इतने जिद्दीपन और परेशानी से नुकीली ठोढ़ी पर नहीं टंगी थी. पीछे की ओर साढ़े पाँच से बीस मिनट कम पाँच बजे के बीच काफी समय बीत गया था और डाइनिंग रूम की घड़ी इससे सहमत नहीं थी, जिद्दीपन से अपनी सुईयों को आगे, और आगे भेजती जा रही थी, मगर अब वह बूढ़ी भर्राहट और भिनभिनाहट के बगैर और पहले की तरह – साफ़, दमदार आवाज़ से बजा रही थीं – टोंक! और टॉवर जैसे घंटे से, जैसे खिलौने वाले ल्युद्विक XIV के किले के टॉवर में बजा रही थीं -  बोम्!...आधी रात..सुनो...आधी रात...सुनो...चेतावनी-सी देते हुए बज रही थी, और किसी के फरसे चांदी जैसी और प्यारी खनखनाहट पैदा कर रहे थे. संतरी आगे-पीछे घूम रहे थे और सुरक्षा कर रहे थे, क्योंकि टॉवर्स, अलार्म्स और हथियारों का निर्माण मनुष्य ने, खुद ही जाने बिना – सिर्फ एक ही उद्देश्य के लिए किया है – मानव की शान्ति और भट्टी की सुरक्षा के लिए. इसी की रक्षा करने के लिए वह युद्ध करता है, और, सच कहें तो, किसी और उद्देश्य के लिए किसी भी हालत में युद्ध करने की ज़रुरत नहीं है.

सिर्फ शान्ति की परिस्थिति में ही यूलिया, वह स्वाभिमानी, पापी, मगर लुभावनी औरत प्रकट होने के लिए राजी होती है. और वह प्रकट भी हुई, ईंटों की सीढ़ियों पर काली स्टॉकिंग में उसके पैर, काली मखमल जड़े जूते के कोने की झलक दिखाई दी,और उसके कदमों की जल्दबाज़ खटखटाहट और पोषाक की सरसराहट का जवाब नन्ही घंटियों के संगीत ने वहाँ से दिया, जहाँ, अपनी शोहरत और रंग-बिरंगी आकर्षक महिलाओं की उपस्थिति में मदमस्त ल्युद्विक XIV  झील के किनारे आसमानी-नीले बाग़ में दमक रहा था.

 

 

**** 

 

आधी रात को निकोल्का ने सबसे महत्वपूर्ण और, बेशक, बिल्कुल सही वक्त पर काम शुरू किया. सबसे पहले वह किचन से एक गंदा गीला कपड़ा लाया, और डच भट्टी के सीने से ये शब्द लुप्त हो गए:  

“रूस अमर रहे...

सम्राट अमर रहे!

पित्ल्यूरा को मारो!”

 

इसके बाद लरिओसिक के सक्रिय सहयोग से अन्य महत्वपूर्ण काम भी किये गए. तुर्बीन की लिखने की मेज़ से हौले से और चुपचाप अल्योशा की ब्राउनिंग, दो मैग्ज़ीन्स, और कारतूसों का डिब्बा बाहर निकाले गए. निकोल्का ने उसका निरीक्षण किया और देखा कि बड़े भाई ने सात में से छः गोलियां कहीं चला दी थीं.

“शाबाश...” निकोल्का बुदबुदाया.

बेशक, लरिओसिक के विश्वासघात करने का सवाल ही नहीं उठता. एक बुद्धिजीवी व्यक्ति, और एक जेन्टलमैन जिसने पचहत्तर हज़ार के प्रोमिसरी नोट पर हस्ताक्षर किये हों, और त्रेसठ शब्दों के टेलीग्राम भेजा हो, किसी भी हालत में पित्ल्यूरा के पक्ष में नहीं हो सकता. ऑटोमोबाइल ऑइल और केरोसिन से नाय तुर्स के ऑटोमेटिक पिस्तौल और अल्योशा की ब्राउनिंग को साफ़ किया गया. और लरिओसिक ने भी, निकोल्का की ही तरह आस्तीनें चढ़ाकर ग्रीज़ लगाने और उन्हें केक के एक लम्बे और ऊंचे टीन के डिब्बे में रखने में मदद की. काम शीघ्रता से हो रहा था, क्योंकि हर शरीफ़ आदमी, जिसने क्रान्ति में भाग लिया हो, अच्छी तरह जानता है कि हर शासन में तलाशी सर्दियों में रात के ढाई बजे से सुबह छः बजे तक और गर्मियों में रात के बारह बजे से सुबह चार बजे तक होती है. फिर भी काम में देर हो ही गई, लरिओसिक की वजह से, जिसने दस राउंड सिस्टम कोल्ट का निरीक्षण करते हुए मैगज़ीन को गलत सिरे से रख दिया, और, उसे बाहर खींचने में काफ़ी कोशिश और काफ़ी तेल की ज़रुरत पडी. इसके अलावा, एक और भी अप्रत्याशित बाधा आई: डिब्बा उसमें रखे हुए रिवाल्वरों, अलेक्सेई और  निकोल्का के शोल्डर स्ट्रैप्स, रैंक्स वाले बैज और त्सारेविच की तस्वीर के कारण, जिसमें अन्दर पैरेफिन पेपर की तह बिछाई गई थी और बाहर से सभी सिलाइयों पर विद्युत् रोधी चिपचिपी पट्टियां लगी हुई थीं, खिड़की में घुस ही नहीं रहा था.

बात ये थी : छुपाना है, मतलब छुपाना है !...सभी ऐसे बेवकूफ़ नहीं होते जैसा वसिलीसा है. कैसे छुपाना है, इस बारे में निकोल्का ने दिन में ही सोच लिया था. मकान नं. 13 की दीवार पड़ोस वाले नं.11 की दीवार को लगभग छूती थी – उनके बीच दो फीट से अधिक दूरी नहीं थी. इस दीवार में मकान नं. 13 की सिर्फ तीन खिड़कियाँ थीं – एक निकोल्का के कोने वाले कमरे की, दो पड़ोस वाले किताबों के कमरे की, जो बिल्कुल अनावश्यक थी (हमेशा अन्धेरा ही रहता था), और नीचे की तरफ छोटी-सी जाली लगी धुंधली खिड़की थी, जो वसिलीसा के तहखाने में थी, और पड़ोस वाले नं.11 की दीवार पूरी तरह बंद है. एक दो फुट गहरी शानदार घाटी की कल्पना कीजिये, अंधेरी, जो रास्ते से भी दिखाई न दे और जहाँ तक कम्पाउंड से कोई भी नहीं पहुँच सकता, सिवाय कभी कभार आये छोटे बच्चों के. वैसे, बचपन में ‘चोर-सिपाही’ का खेल खेलते हुए, निकोल्का ईंटों के ढेरों से टकराते हुए उस पर चढ़ जाया करता था, और उसे अच्छी तरह याद है, कि तेरह नंबर वाली दीवार पर खूंटियों की कतार छत तक पहुँचती है. शायद, पहले, जब ग्यारह नंबर का अस्तित्व नहीं था, इन खूंटियों पर अग्नि शामक दल की सीढ़ी टिकी रहती थी, मगर बाद में उसे हटा दिया गया. खूंटियाँ रह गईं.

आज शाम को वेंटिलेटर से हाथ बाहर निकालने पर, निकोल्का ने दो सेकण्ड भी नहीं टटोला होगा, कि उसे खूंटी का अनुभव हुआ. सीधा और साफ़ है. मगर ये डिब्बा, जिसे तिहरी मज़बूत डोरी से बांधा गया था, और जिस पर फंदा भी बनाया गया था, वेंटिलेटर में घुस ही नहीं रहा था.                            
“बिलकुल साफ़ बात है
, खिड़की को खोलना पडेगा,” निकोल्का ने वेंटिलेटर से नीचे उतरते हुए कहा. 

लरिओसिक ने निकोल्का की बुद्धि और चतुराई को सलाम किया, इसके बाद खिड़की को खोलने के काम में जुट गया. यह कठिन काम कम से कम आधा घंटा चला, फूली हुई चौखट खुलने को तैयार नहीं थी. मगर आखिरकार, पहले एक और फिर दूसरे पल्ले को खोलना संभव हो गया, इसमें लरिओसिक की तरफ के कांच पर लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी दरार पड़ गई.

“बत्ती बुझा दो!” निकोल्का ने हुक्म दिया.

बत्ती बुझ गई, और बेहद भयानक बर्फीली हवा कमरे में घुस आई. निकोल्का ने काले, बर्फ बन चुके अंतराल में अपना आधा शरीर बाहर निकाला और ऊपरी फंदे को खूंटी में फंसा दिया. डिब्बा आराम से दो फुट लम्बी डोरी से लटक रहा था. रास्ते से उसे देखना संभव नहीं था, क्योंकि 13 नंबर की अग्निरोधक दीवार सड़क की ओर तिरछी जाती है, न की समकोण बनाते हुए, और इसलिए, कि सिलाई वाले वर्कशॉप का बोर्ड ऊंचाई पर टंगा है. इसे तभी देखा जा सकता है, जब कोई दरार में घुसे. मगर बसंत से पहले कोई नहीं चढ़ेगा, क्योंकि कंपाऊंड से यहाँ तक बर्फ के ऊंचे-ऊँचे ढेर थे, और सड़क की तरफ़ से बेहद ख़ूबसूरत बागड़ थी, और, सबसे महत्वपूर्ण, बढ़िया बात ये थी कि डिब्बे को बिना खिड़की खोले नियंत्रित किया जा सकता था; बस, वेंटिलेटर से हाथ बाहर निकालो, और बस, तैयार : डोरी को छुआ जा सकता था, तार की तरह. बढ़िया.

बत्ती फिर से जलने लगी, और, खिड़की की सिल पर पुट्टी सानने के बाद, जो अन्यूता के पास पतझड़ से पड़ी थी, निकोल्का ने फिर से खिड़की पर पुट्टी फेर दी. अगर खुदा-ना-खास्ता देख भी लिया, तो फ़ौरन जवाब तैयार है : “माफ़ कीजिये? ये किसका डिब्बा है? आह, रिवॉल्वर्स...त्सारेविच?

“ऐसी कोई बात नहीं! हमने तो कुछ देखा नहीं, और हम कुछ जानते नहीं. शैतान जाने कौन लटका गया! छत से चढ़े और टांग दिया. आसपास क्या कम लोग हैं? तो...हम तो शांतिप्रिय लोग हैं, किसी त्सारेविच से हमें मतलब नहीं...”

“बड़ी होशियारी से किया गया है, खुदा कसम,” लरिओसिक ने कहा.

बढ़िया कैसे न होता! चीज़ हाथ में है और साथ ही क्वार्टर के बाहर भी.

 

****  

 

रात के तीन बजे थे. ज़ाहिर है, इस रात कोई नहीं आयेगा. एलेना भारी, थकी हुई पलकों से पंजों के बल डाइनिंग रूम में आई. निकोल्का को उसके बदले बैठना था. निकोल्का, तीन से छः बजे तक, और छः बजे से नौ बजे तक लरिओसिक.

फुसफुसाहट में बात करते रहे.

“मतलब : टायफाइड”, एलेना फुसफुसाई, “इस बात का ध्यान रखना कि आज वान्दा आकर गई है, पूछ रही थी कि अलेक्सेई वसिल्येविच को क्या हुआ है. मैंने कहा, हो सकता है, टायफाइड हो...शायद उसने यकीन नहीं किया, उसकी आंखें इधर-उधर भाग रही थीं...सब कुछ पूछती रही, - हम कैसे हैं, हमारे लोग कहाँ थे, कोई ज़ख़्मी तो नहीं हुआ. घाव के बारे में एक भी लब्ज़ नहीं.

“ना, ना, ना ,” निकोल्का ने हाथ हिलाते हुए कहा. वसिलीसा इतना डरपोक है, जैसा दुनिया में अब तक कोई नहीं हुआ! अगर कुछ हो जाता है, तो वह हर किसी से कहता फिरेगा, कि अलेक्सेई ज़ख़्मी हुआ है, सिर्फ अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए.”

“कमीना,” लरिओसिक ने कहा, “ये नीचता है!”

तुर्बीन पूरी धुंध में लेटा था. इंजेक्शन के बाद उसका चेहरा एकदम शांत था, चेहरे के नाक नक्ष नुकीले और पैने हो गए थे. एक शामक ज़हर खून में बह रहा था और मानो पहरा दे रहा था. भूरी आकृतियों ने मनमाने ढंग से हुक्म चलाना बंद कर दिया था, और वे अपने अपने काम पर चली गई थीं, आखिरकार तोप को हटा दिया गया. अगर कोई एकदम अनजान व्यक्ति भी आता, तो शराफ़त से बर्ताव करता, उन लोगों से और चीज़ों से जुड़ने की कोशिश करता, जो कानूनन तुर्बीनों के क्वार्टर में मौजूद रहती हैं. एक बार कर्नल मालिशेव आया,  कुर्सी में बैठा, मगर इस तरह से मुस्कुरा रहा था, कि सब ठीक है और बेहतर ही होगा, और वह धमकाते हुए और कड़वाहट से नहीं बुदबुदाया, और न ही उसने कमरे को कागज़ात से भर दिया. ये सही है, कि उसने कागज़ात जला दिए, मगर उसने तुर्बीन के डिप्लोमा-सर्टिफिकेट, और माँ की फ़ोटो को छूने की हिम्मत नहीं की, और स्प्रिट की प्यारी और पूरी नीली लौ पर जलाता रहा, और ये लौ सुकून देने वाली है, क्योंकि उसके बाद, अक्सर, इंजेक्शन लगाया जाता है. मैडम अंजू की घंटी अक्सर बजती रही.

“ब्रिन्....” तुर्बीन घंटी की आवाज़ के बारे में उससे मुखातिब हुआ जो कुर्सी पर बैठा था, और वे बारी बारी से बैठते थे, कभी निकोल्का, कभी अनजाना आदमी, किसी मंगोल जैसी आंखों वाला (इंजेक्शन के प्रभाव के कारण हाथापाई करने का साहस नहीं था), या उदास मक्सिम, सफ़ेद बालों वाला, थरथराता हुआ. “ब्रिन्...” ज़ख़्मी प्यार से बोल रहा था और लचीली परछाइयों से चलती-फिरती तस्वीर बनाने की कोशिश कर रहा था, दर्दभरी और कठिन, मगर जो असाधारण और प्रसन्न और बीमार अंत की ओर बढ़ रही थी.   

घड़ी भाग रही थी, डाइनिंग होल में सुई घूम रही थी और, जब सफ़ेद डायल पर छोटी और बड़ी सुई पाँच की तरफ चली तो अर्धमूर्छा की स्थिति आ गई. तुर्बीन कभी-कभी हिलता, सिकोड़ी हुई आंखें खोलता और अस्पष्ट रूप से बड़बड़ाता :

“सीढ़ी पर, सीढ़ी पर, सीढ़ी पर नहीं भाग पाऊँगा, कमज़ोरी महसूस कर रहा हूँ, गिर जाऊंगा...और उसकी पाँव तेज़ हैं...जूते...बर्फ पर...निशान छोड़ेंगे ...भेडिये...ब्रिन्...ब्रिन्...”

 

 

13

 

 

“ब्रिन्...”  न जाने कहाँ स्थित, मैडम अंजू के इत्रों की खुशबू से महकती दुकान के चोर दरवाज़े से भागते हुए तुर्बीन ने अंतिम बार सुना. घंटी बजी. कोई अभी दुकान में आया था. हो सकता है, वैसा ही, जैसा तुर्बीन स्वयँ था, भटका हुआ, पिछड़ गया, अपना, और हो सकता है – अनजान लोग भी हों – पीछा करने वाले. किसी भी हाल में, दुकान में वापस लौटना संभव नहीं था. एकदम फ़िज़ूल की हीरोगिरी.

फिसलन भरी सीढ़ियाँ तुर्बीन को बाहर आँगन में ले आईं. यहाँ उसने पूरी स्पष्टता से सुना कि गोलीबारी की गड़गड़ाहट बिल्कुल पास ही से आ रही है, कहीं रास्ते पर, जो चौड़ी ढलान से नीचे क्रिश्चातिक को जाता है, और मुश्किल से ही म्यूजियम के पास. वह फ़ौरन समझ गया कि धुंधली दुकान में उदासी भरे विचारों पर उसने काफ़ी ज़्यादा समय गँवा दिया था और ये कि मालिशेव बिल्कुल सही कह रहा था, कि उसे शीघ्रता करनी चाहिए. दिल बेचैनी से धड़कने लगा.

अच्छी तरह निरीक्षण करने के बाद, तुर्बीन ने सुनिश्चित कर लिया कि घर का यह लंबा और अंतहीन ऊंचा पीला डिब्बा, जिसने मैडम अंजू को आश्रय दिया है, एक विशाल आँगन तक गया है, और यह आँगन निचली दीवार तक फैला है, जो पड़ोस वाली रेलवे प्रशासन की संपत्ति को अलग करता है . तुर्बीन ने आंखें सिकोड़ कर चारों तरफ देखा और खाली जगह को पार करते हुए सीधे इस दीवार की ओर चल पडा. उसमें एक फ़ाटक था, तुर्बीन को आश्चर्य हुआ कि वह बंद नहीं था. इससे होकर वह सामने वाले प्रशासन के गंदे आँगन में आ गया. प्रशासन के बेवकूफ छेद अप्रियता से देख रहे थे, और साफ़ महसूस हो रहा था कि पूरा प्रशासन मृतप्राय हो चुका है. एक गूंजते हुए आर्क के नीचे से होकर बिल्डिंग पार करके डॉक्टर सीमेंट के रास्ते पर आया. बिल्डिंग के सामने वाले टॉवर की प्राचीन घड़ी में ठीक चार बजे थे. अन्धेरा होने लगा था. सड़क पूरी तरह खाली थी. किसी आशंका से ग्रस्त होकर तुर्बीन ने उदासी से चारों ओर देखा, और ऊपर की तरफ़ नहीं, बल्कि नीचे की ओर चला, जहाँ पानी से भरे स्क्वेअर में खडा था बर्फ से ढंका सुनहरा गेट. सिर्फ एक पैदल चल रहा आदमी काला ओवरकोट पहने, चेहरे पर डर का भाव लिए तुर्बीन की तरफ़ भागता हुआ आया और गायब हो गया. वैसे भी खाली सड़क भयानक प्रतीत होती है, और ऊपर से पेट के गड्ढे में एक पीडादायक पूर्वाभास उसे परेशान किये जा रहा था. गुस्से से त्यौरियां चढ़ाये, ताकि अनिर्णय की स्थिति को दूर कर सके – हर हाल में चलना तो होगा ही, हवा में उड़कर तो घर नहीं पहुँच सकते, - तुर्बीन ने ओवरकोट का कॉलर ऊपर उठाया और आगे बढ़ा.

अब वह समझ गया कि उसे अंशतः कौन सी चीज़ परेशान कर रही थी – बंदूकों की अचानक खामोशी. पिछले दो हफ़्तों से वे चारों तरफ़ गूँज रही थीं, मगर अब, आसमान में खामोशी छा गई थी. मगर शहर में, ठीक वहाँ, नीचे, क्रेश्चातिक पर, रुक रुक कर गोलीबारी हो रही थी. तुर्बीन को अब सुनहरे गेट से बाईं ओर गली में मुड़ना था, और वहाँ, सेंट सोफिया कैथेड्रल के पिछवाड़े से चिपके-चिपके, गलियों से होते हुए, चुपचाप अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर अपने घर पहुँच जाता. अगर तुर्बीन ऐसा करता, तो उसकी ज़िंदगी कुछ और ही होती, मगर तुर्बीन ने ऐसा नहीं किया. एक ऐसी शक्ति है, जो कभी-कभी पहाड़ों पर चट्टान से नीचे देखने पर मजबूर करती है...ठण्ड की ओर खींचती है...चट्टान की ओर खींचती है. और वह म्यूज़ियम की तरफ़ खिंचा जा रहा था. हर हाल में ये देखना ज़रूरी था, दूर से ही सही, कि उसके आसपास क्या हो रहा है. और, गली में मुड़ने के बदले, तुर्बीन दस कदम और चल गया और व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट पर निकला. यहाँ फ़ौरन उसके भीतर खतरे की घंटी बजने लगी और मिश्लायेव्स्की की आवाज़ बड़ी स्पष्टता से फुसफुसाई: “भाग!” तुर्बीन ने दाईं ओर सिर घुमाया और दूर, म्यूज़ियम तक नज़र दौडाई. सफ़ेद किनारे का एक हिस्सा देख पाया, गुस्सैल गुम्बद, दूर से झलकती कुछ काली  आकृतियाँ...इसके अलावा कुछ और नहीं देख पाया.

उसके ठीक सामने, प्ररेज़्नाया ढलवां सड़क पर, बर्फीली धुंध से ढंके क्रेश्चातिक की तरफ़ से, सैनिकों के ओवरकोट पहने भूरे आदमी चढ़ रहे थे, सड़क की पूरी चौडाई में बिखर रहे थे. वे – मुश्किल से तीस कदम दूर थे. फ़ौरन समझ में आ गया कि वे बड़ी देर से भाग रहे हैं, और दौड़ ने उन्हें थका दिया है. आंखों से नहीं, बल्कि दिल की किसी अस्पष्ट हरकत से तुर्बीन समझ गया कि ये पित्ल्यूरा के लोग हैं.

“ग-या- काम से”, पेट के गड्ढे से मालिशेव की आवाज़ स्पष्ट रूप से बोली.

इसके बाद तुर्बीन की ज़िंदगी से कुछ पल फिसल गए, और उन पलों के दौरान क्या हुआ, वह नहीं जानता था. उसने स्वयँ को कोने में खड़ा महसूस किया, व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट पर, कन्धों में सिर छुपाए, अपने पैरों पर, जो उसे जल्दी-जल्दी प्ररेज़्नाया के नुक्कड़ पर ले जा रहे थे, जहाँ कन्फेक्शनरी की दुकान “मार्केज़” है.

“च-लो, च-लो, च-लो, और...और...” कनपटियों में खून हथौड़े मार रहा था.

‘पीछे कुछ देर और सन्नाटा होता. काश, चाकू के फलक में बदल जाता या दीवार में घुस जाता. च-लो... मगर खामोशी भंग हो गई – उसे तोड़ा पूरी तरह अपरिहार्य घटना ने.

“रुको!” तुर्बीन की ठंडी पीठ पर एक भर्राई आवाज़ चीखी.

“हो गया,” पेट के गड्ढे में कुछ टूटा.

“रुक जाओ!” आवाज़ ने गंभीरता से दुहराया.

तुर्बीन ने इधर-उधर देखा और फ़ौरन रुक भी गया, क्योंकि एक छोटा सा शरारत भरा ख़याल आया कि खुद को शांतिप्रिय नागरिक के रूप में प्रस्तुत करे. जैसे, जा रहा हूँ, अपने काम से...मुझे अकेला छोड़ दीजिये...पीछा करने वाला कोई पंद्रह कदम दूर था और उसने फ़ौरन अपनी बन्दूक उठाई. जैसे ही डॉक्टर मुड़ा, पीछा करने वाले की आंखों में आश्चर्य फ़ैल गया, और डॉक्टर को ऐसा लगा कि ये तिरछी, मंगोल आँखें हैं. दूसरा कोने के पीछे से निकला और उसने शटर खींच लिया. पहले वाले के चेहरे पर स्तब्धता का स्थान एक अबूझ, अशुभ आनंद ने ले लिया.      

“फ्यू!” – वह चिल्लाया, “देख, पेट्रो: ऑफिसर.” उसके चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे शिकारी ने अचानक रास्ते में खरगोश देख लिया हो.

‘क्या बा-त है? कैसे पता चला?’ तुर्बीन के दिमाग में जैसे हथौड़े बजने लगे.

दूसरे वाले की बन्दूक एक छोटे से काले छेद में बदल गई, जो छोटे सिक्के से बड़ा नहीं था. तब तुर्बीन को महसूस हुआ कि वह स्वयँ व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट पर किसी तीर में बदल गया है और उसके फेल्ट बूट उसे परेशान कर रहे हैं. ऊपर से और पीछे, सनसनाते हुए, हवा में गोलियां चल रही थीं – च-चाख...

“ठहरो! ठ...पकड़ो!” खटखटाहट हुई. “पकड़ो ऑफिसर को!!” पूरी व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट गरज उठी और हू-हू करने लगी. दो बार और हवा को चीरते हुए गरज हुई.

गोलियों की बौछार के बीच किसी आदमी का पीछा करना काफी होता है उसे होशियार भेड़िये में परिवर्तित करने के लिए; बेहद कमजोर और सचमुच कठिन परिस्थितियों में अनावश्यक बुद्धि के स्थान पर होशियार जानवर की प्रवृत्ति विकसित होती है. पीछा किये जाने के दौरान माला-प्रवाल्नाया के नुक्कड़ पर अचानक भेड़िये की तरह मुड़कर तुर्बीन ने देखा कि पीछे वाला काला छेद आग का गोला बन गया है, और, इन पाँच मिनटों में दूसरी बार अपनी ज़िंदगी को तेज़ी से मोड़ते हुए, अपनी रफ़्तार बढ़ाकर वह माला-प्रवाल्नाया में घुस गया.

सहज प्रवृत्ति: लगातार और ज़िद से पीछा कर रहे हैं, पीछे नहीं रहेंगे, पकड़ लेंगे, और पकड़ने के बाद, निश्चित है - मार डालेंगे. मार डालेंगे, क्योंकि मैं भाग रहा था, जेब में एक भी डॉक्यूमेंट नहीं, रिवॉल्वर है, भूरा ओवरकोट है; मार डालेंगे, क्योंकि इस भागम-भाग में एक बार बच जाऊंगा, दूसरी बार बच जाऊंगा, मगर तीसरी बार – टूट पड़ेंगे. ठीक तीसरी बार. यह तो प्राचीन काल से ज्ञात है...मतलब, ख़त्म; आधा मिनट और – और फेल्ट के जूते मार डालेंगे. सब कुछ तय है, और अगर ऐसा है – भय सीधे पूरे शरीर से और पैरों से उछलकर धरती में समा गया. मगर पैरों से होते हुए, बर्फीले पानी के रूप में क्रोध वापस लौटा और भागते हुए उबलते पानी के रूप में मुँह से बाहर निकला. तुर्बीन ने भागते हुए, बिल्कुल भेडिये की तरह तिरछी आंखों से देखा. दो भूरे, उनके पीछे तीसरा, व्लादीमिर्स्काया के नुक्कड़ से उछलकर बाहर आये, और तीनों के रिवॉल्वर एक साथ चमक उठे. तुर्बीन ने अपनी गति धीमी करके,दांत भींचते हुए, बिना निशाना साधे, तीन बार उन पर गोलियां चला दीं. फिर से अपनी गति बढ़ा दी, अपने सामने ड्रेनपाईप के पास वाली दीवारों के नीचे एक दुबली-पतली काली परछाई की धुंधली-सी झलक देखी, उसे अनुभव हुआ कि किसी ने बाईं बगल के नीचे लकड़ी के चिमटे से उसे नोंच लिया हो, जिससे उसका शरीर अजीब तरह से भागने लगा, तिरछे, एक किनारे से, असमान. एक और बार मुड़ने के बाद,उसने, बिना जल्दबाजी किये, तीन गोलियां चलाईं और छठी गोली पर खुद को रोक लिया:

“सातवीं – अपने लिए. लाल बालों वाली एलेन्का,और निकोल्का. बेशक. यातनाएँ देंगे. शोल्डर स्ट्रैप्स काट कर निकाल देंगे. सातवीं अपने लिए.”

तिरछे-तिरछे चलते हुए, उसने एक अजीब बात महसूस की: रिवॉल्वर दायें हाथ को खींच रही थी, मगर बायाँ हाथ मानो भारी हो गया था. वैसे अब रुक जाना चाहिए. वैसे भी हवा नहीं है, आगे कुछ और नहीं हो सकता. दुनिया की सबसे शानदार सड़क के मोड़ पर तुर्बीन किसी तरह लपका, मोड़ पर गायब हो गया, और उसने कुछ देर के लिए राहत महसूस की. आगे कोई उम्मीद नहीं है : जाली पक्की बंद कर दी गई है, ये, सोसाइटी का भारी भरकम गेट बंद है, ये, बंद है...उसे एक बेवकूफ मज़ाकिया कहावत याद आ गई: “न हारो, भाई, हौसला, जब तक न उतरो तल तक.

और तभी, चमत्कार के एक पल में उसने देखा, काली काई से ढंकी दीवार में, जो बाग़ में वृक्षों की कतार को कस कर घेरे हुए थी. वह इस दीवार में आधी गिरी हुई थी और, जैसे किसी नाटक में होता है, दोनों हाथ फैलाए, बड़ी-बड़ी, दमकती, भयभीत आंखों से चिल्लाई:

ऑफिसर! इधर! इधर....

तुर्बीन कुछ फिसलते हुए फेल्ट बूटों में, फटी-फटी और मुँह में भर गई गर्म हवा से सांस लेते हुए,धीरे धीरे बचाने वाले हाथों की ओर भागा और उनके साथ लकड़ी की काली दीवार में बने गेट की पतली दरार में गिर गया. और फ़ौरन सब कुछ बदल गया. काली पोषाक वाली महिला के हाथों के नीचे वाला गेट दीवार से चिपक गया, और ताला खट्ट से बंद हो गया. महिला की आंखें तुर्बीन की आंखों के बिलकुल पास थीं. उसने इन आंखों में दृढ़ संकल्प की, ऊर्जा और कालेपन की धुंधली सी झलक देखी.     

“इधर भागिए. मेरे पीछे भागिए,” महिला फुसफुसाई, मुडी और ईंटों की संकरी पगडंडी पर भागने लगी. तुर्बीन बहुत धीरे-धीरे उसके पीछे भागा. बाईं ओर सराय की दीवारें दिख जातीं, और महिला मुड़ गई. दाईं ओर एक सफ़ेद, परीकथाओं जैसा बहु-स्तरीय उद्यान था. निचली बागड़ ठीक नाक के सामने थी, महिला दूसरे गेट में घुस गई. तुर्बीन, हांफते हुए, उसके पीछे भागा. उसने धडाम से गेट बंद किया, उसके पैर की झलक दिखाई दी, बहुत सुडौल, काली स्टॉकिंग में, स्कर्ट का घेर सरसरा रहा था, और महिला के पैर आसानी से उसे ईंटों की सीढ़ी पर ले चले. अपने तीक्ष्ण कानों से तुर्बीन ने सुना कि वहाँ, उनकी दौड़ के पीछे, सड़क और पीछा करने वाले रह गये थे. ये...वो...अभी अभी मोड़ से कूदे हैं और उसे ढूंढ रहे हैं. “काश, बचा लेती...बचा लेती...” तुर्बीन ने सोचा, “मगर, लगता है, भाग नहीं पाऊंगा...मेरा दिल.” वह सीढ़ी के बिल्कुल अंत में अचानक बाएं घुटने और बाएं हाथ पर गिर पडा. चारों ओर सब कुछ गोल-गोल घूम रहा था. महिला झुकी और उसने दाईं बांह के नीचे तुर्बीन को पकड़ लिया...

“और...और थोड़ा सा!” वह चिल्लाई; बाएं थरथराते हाथ से उसने तीसरा निचला गेट खोला, लड़खड़ाते तुर्बीन को हाथ से खींचा और तरुमंडित रास्ते पर भागी. “ कैसी भूलभुलैया है...जैसे जानबूझ कर बनाई गई हो,” अस्पष्टता से तुर्बीन ने सोचा और उसने स्वयँ को सफ़ेद बाग़ में, मगर खतरनाक प्रवाल्नाया स्ट्रीट से काफी दूर और ऊंचाई पर पाया. उसने महसूस किया कि महिला उसे खींच रही है, कि उसकी बाईं बाजू और हाथ बहुत गरम हैं, मगर पूरा शरीर ठंडा है, और बर्फ जैसा ठंडा दिल मुश्किल से धड़क रहा है. “काश, बचा लेती, मगर, ये अंत आ गया है – थोड़ा सा और...टांगें कमज़ोर पड़ रही हैं...” बर्फ के नीचे कुँआरी और अछूती बकाईन के धुंधले झुरमुट दिखाई दिए, दरवाज़ा, प्राचीन प्रवेश हॉल की कांच की लालटेन, बर्फ से ढंकी हुई. चाभी की आवाज़ भी सुनाई दी. महिला पूरे समय वहीं थी, दायें बाज़ू के पास, और अपनी बची-खुची शक्ति से उसके पीछे घिसटता हुआ तुर्बीन लालटेन की रोशनी में आया. फिर अँधेरे में चाभी की दूसरी आवाज़ के बाद अँधेरे में पहुँचा, जिसमें घर की, पुरानी खुशबू थी. अँधेरे में,सिर के ऊपर, बहुत मद्धिम रोशनी थी, पैरों के नीचे फर्श बाईं ओर जा रहा था...

और आंखों के सामने अप्रत्याशित, ज़हरीले-हरे, रोशनी से घिरे रेशे दाईं ओर उड़ गए, और पूरे अँधेरे में फ़ौरन दिल को राहत मिली...

 

 

****  

 

 

मद्धिम और बेचैन रोशनी में रंग उडी सुनहरी टोपियों की कतार थी. एक ठंडक सीने पर बह रही है, जिसके कारण ज़्यादा हवा है, और बाएं बाज़ू में विनाशकारी, नम और बेजान गर्मी थी. “यही तो ख़ास बात है. मैं ज़ख़्मी हो गया हूँ.” तुर्बीन समझ गया कि वह फर्श पर लेटा है, पीड़ा से अपना सिर किसी कठोर और असुविधाजनक चीज़ पर टिकाए. आंखों के सामने वाली सुनहरी टोपियाँ संदूक को प्रदर्शित कर रही हैं. ठण्ड इतनी, कि सांस लेना मुश्किल है – ये वह उसके ऊपर पानी छिड़क रही है.

“खुदा के लिए,” सिर के ऊपर एक भारी और क्षीण आवाज़ ने कहा, “पी लीजिये, पी लीजिये. आप सांस ले रहे हैं? अब क्या करना चाहिए?

गिलास दांतों से टकराया, और तुर्बीन ने गड़गड़ाहट के साथ बेहद ठंडे पानी का एक घूंट पी लिया. अब उसने अपने करीब भूरे, घुंघराले बाल और बहुत काली आंखें देखीं.                

उकडूं बैठी महिला ने ग्लास को फर्श पर रखा और, हौले से सिर को पीछे से पकड़कर तुर्बीन को उठाने लगी.

“दिल तो धड़क रहा है?” उसने सोचा. “लगता है, जीवित हो रहा हूँ...हो सकता है, और इतना ज़्यादा खून भी नहीं....संघर्ष करना पडेगा.” दिल धड़क रहा था, मगर थरथराते हुए, तेज़ी से, अंतहीन गांठों के धागे में बंध गया था, और तुर्बीन ने कमज़ोरी से कहा:

“नहीं. सब कुछ निकाल दीजिये, जो आप चाहें, मगर फ़ौरन टूर्निकेट बांधिए...”

समझने की कोशिश करते हुए, उसने आंखें चौड़ी कीं, समझ गई, उछली और अलमारी की ओर लपकी, वहाँ से बहुत सारे कपड़े बाहर निकाले.

तुर्बीन ने होंठ काटते हुए सोचा: “ओह, फर्श पर एक भी धब्बा नहीं है, शुक्र है कि कम खून बहा है”, दर्द से छटपटाते हुए, उसकी सहायता से अपने ओवरकोट से बाहर आया, सिर के चकराने पर ध्यान न देते हुए बैठा. वह जैकेट उतारने लगी.

“कैंची,” तुर्बीन ने कहा.

बोलने में तकलीफ़ हो रही थी, सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. रेशमी काले स्कर्ट को सरसराते हुए वह गायब हो गई, और दरवाज़े में अपनी टोपी और फ़र कोट उतार फेंका. वापस आकर, वह उकडूं बैठ गई और बेवकूफी से और दर्द से कैंची आस्तीन में घुसाने लगी, जो खून से नरम और चिकनी हो गई थी, उसे फाड़ दिया और तुर्बीन को मुक्त कर दिया. कमीज़ का काम जल्दी हो गया. पूरी बाईं आस्तीन बुरी तरह खून में लथपथ थी, और बाजू भी खून से गहरा लाल हो गया था. खून फर्श पर टपकने लगा.

“हिम्मत से काटिए...”

कमीज़ टुकड़े-टुकड़े होकर गिर गई, और, सफ़ेद फ़क चेहरा लिए, कमर तक नंगे और पीले बदन, खून से लथपथ, जीने की इच्छा करते हुए, तुर्बीन ने अपने आप को दूसरी बार गिरने नहीं दिया, दांत भींच कर दायें हाथ से बाएं कंधे को हिलाया, भिंचे हुए दांतों से कहा:

“शुक्र है खु...हड्डी सलामत है...कोई पट्टी फाड़िये या बैंडेज लाइये.

“बैंडेज है...” वह खुशी से और हौले से चिल्लाई. ग़ायब हो गई, वापस लौटी, पैकेट फाडते हुए कहने लगी. – “और कोई नहीं, कोई नहीं ...मैं अकेली...”

वह फिर से बैठ गई. तुर्बीन ने ज़ख्म देखा. यह एक छोटा सा छेद था, हाथ के ऊपरी हिस्से में, भीतरी सतह पर, जहाँ हाथ शरीर से जुड़ता है. उसमें से खून की पतली धार बह रही थी.

“पीछे है?” उसने अचानक, संक्षेप में, सहज भाव से साँसों की डोर को सुरक्षित रखते हुए पूछा.

“है,” उसने घबराहट से जवाब दिया.

“कुछ और ऊपर बांधिए..यहाँ...आप बचा लेंगी.”

ऐसा दर्द उठा, जैसा पहले कभी अनुभव नहीं किया था, आंखों के सामने गोल-गोल हरे घेरे एक दूसरे में मिलते हुए या एक दूसरे को काटते हुए नाचने लगे. तुर्बीन ने निचला होंठ काटा.

वह बैंडेज खींच रही थी, वह दांतों से और दायें हाथ से मदद कर रहा था, और इस तरह, ज़ख्म के ऊपर, हाथ पर जलन पैदा करती हुई गाँठ बाँध दी गई. फ़ौरन खून बहना बंद हो गया...

      

**** 

 

महिला उसे इस तरह दूसरे कमरे में लाई: वह घुटनों पर खडा हो गया और दायाँ हाथ उसके कंधे पर रख दिया, तब उसने उसे कमजोर, थरथराते हुए पैरों पर खडा होने में मदद की और पूरे शरीर से सहारा देते हुए ले चली. शाम के अँधेरे में बेहद नीचे, प्राचीन कमरे में उसे चारों ओर काली छायाएं दिखाई दीं. जब उसने उसे किसी नरम और धूल भरी चीज़ पर बिठाया, उसके हाथ के पास चेरी की डिजाइन वाले रूमाल के नीचे एक लैम्प जल उठा. उसने दीवार पर फ्रेम में मखमल के पैटर्न, दुहरे पल्ले वाले फ्रॉक-कोट का किनारा देखा और पीले-सुनहरे एपोलेट्स देखे. तुर्बीन की ओर हाथ फैलाए और परेशानी तथा श्रम के कारण भारी-भारी सांस लेते हुए उसने कहा:  

“मेरे पास कन्याक है...शायद, ज़रुरत हो?...कन्याक...?”

उसने जवाब दिया:

“फ़ौरन...”

और वह दाईं कुहनी पर गिर गया.

कन्याक से जैसे कुछ लाभ हुआ, कम से कम, तुर्बीन को ऐसा लगा कि वह मरेगा नहीं, और कंधे को कुतर रहे और काट रहे दर्द को बर्दाश्त कर लेगा. महिला ने घुटनों के बल खड़े होकर ज़ख़्मी हाथ पर बैंडेज बांधा, नीचे, उसके पैरों की तरफ आई और उसके फेल्ट-बूट्स उतार दिए. फिर तकिया और एक लंबा, पुरानी, मीठी खुशबू से महकता, अजीब से फूलों वाला जापानी गाऊन ले आई.

“लेट जाइए,” उसने कहा.

वह चुपचाप लेट गया, उसने उसके बदन पर गाऊन डाला, ऊपर से कम्बल डाला और एक छोटी-सी चौकी के पास उसके मुख की ओर देखते हुए खड़ी हो गई.

उसने कहा:

“आप...गज़ब की महिला हैं.” कुछ देर चुप रहकर आगे बोला:

“मैं कुछ देर लेटूंगा, जब तक कुछ ताकत आ जायेगी, फिर उठकर घर चला जाऊंगा...कुछ देर और परेशानी बर्दाश्त कर लीजिये.”

उसके दिल में भय और व्याकुलता छा गई: “एलेना का क्या हुआ? आह, खुदा...निकोल्का. निकोल्का क्यों मर गया? शायद, मर गया...”

उसने चुपचाप एक नीची खिड़की की ओर इशारा किया, जिस पर फुन्दों वाला परदा लटका था. तब उसने दूर पर गोली-बारी की स्पष्ट आवाज़ सुनी.

“आपको फ़ौरन मार डालेंगे, यकीन कीजिये,” उसने कहा.  

“तब...डरता हूँ, आपको...मुसीबत में...अचानक आ जायेंगे...रिवॉल्वर...खून...वहाँ ओवरकोट में,” उसने सूखे होठों पर जीभ फेरी. खून बह जाने और कन्याक के कारण उसका सिर हल्का-हल्का चकरा रहा था. महिला के चेहरे पर डर का भाव छा गया. उसने कुछ देर सोचा.

“नहीं,” उसने निर्धारपूर्वक कहा, “नहीं अगर ढूँढते, तो अब तक यहाँ होते. ये ऐसी भूलभुलैया है, कि किसी को निशान तक नहीं मिलेगा. हम तीन बगीचे पार करके आये हैं. मगर, अब सब कुछ फ़ौरन साफ़ करना होगा...”

उसने पानी बहने की आवाज़ सुनी, कपड़ों की सरसराहट, अलमारियों में खट-खट...

वह वापस आई. हाथों में, दो उँगलियों के बीच ब्राऊनिंग का हैंडल इस तरह पकडे, मानो वह गर्म था, और पूछा;

“क्या इसमें गोलियां हैं?

अपना तन्दुरुस्त हाथ कम्बल के नीचे से बाहर निकाल कर, तुर्बीन ने सेफ्टी-कैच की जाँच की और  जवाब दिया:

“सावधानी से ले जाइए, सिर्फ हैंडल पकडिये.”

वह फिर से वापस आई और कुछ संकोच से बोली:

“मान लीजिये, अगर वे आ भी जाते हैं...आपको अपनी लेगिंग्स भी उतारनी होंगी...आप लेटे रहेंगे, और मैं कहूंगी, कि आप मेरे बीमार पति हैं...”

उसने हिचकिचाकर मुँह बनाया और बटन खोलने लगा. वह दृढ़ता से निकट आई, घुटनों के बल खड़े होकर कम्बल के नीचे से स्ट्रैप्स पकड़कर लेगिंग्स को बाहर खींचा और ले गई. वह काफी समय तक नहीं आई. इस दौरान उसने आर्क को देखा. असल में, ये दो कमरे थे. छतें इतनी नीची कि अगर कोई ऊंचा आदमी पंजों पर खड़ा हो जाए तो हाथ से उन्हें छू सकता था. वहाँ, आर्क के पीछे, गहराई में, अन्धेरा था, मगर पुराने पियानो का वार्निश किया हुआ किनारा चमक रहा था, कुछ और भी चमक रहा था, और , शायद ये गूलर के फूल थे. और यहाँ भी फ्रेम में ये एपोलेट्स का किनारा.  

माय गॉड, कितनी पुरानी चीज़ें!...एपोलेट्स उसे आकर्षित कर रहे थे. मोमबत्तीदान में चर्बी की मोमबत्ती का शांत प्रकाश था. शान्ति थी, और अब शान्ति ख़त्म हो गई है. साल वापस नहीं आयेंगे. और पीछे थीं नीची, छोटी खिड़कियाँ, और किनारे पर एक खिड़की. कैसा अजीब घर है? वह अकेली है. कौन है वह? जान बचाई...शान्ति नहीं है...वहाँ गोलियां चल रही हैं...

 

 

****   

 

वह भीतर आई, जलाऊ लकड़ियों से लदी-फंदी, और उन्हें दन् से भट्टी वाले कोने में पटक दिया.

“ये आप क्या कर रही हैं? किसलिए?” उसने चिडचिडाहट से पूछा.

“वैसे भी मुझे भट्टी गरमाना ही थी,” उसने जवाब दिया और उसकी आंखों में मुस्कराहट की झलक दिखाई दी. “मैं खुद ही भट्टी गरमाती हूँ...”

“यहाँ आईये,” तुर्बीन ने हौले से विनती की. “देखिये, आपने... इतना सब कुछ...किया, उसका मैंने शुक्रिया भी अदा नहीं किया... और कैसे...” उसने हाथ बढ़ाया, उसकी उँगलियों को हाथ में लिया, वह चुपचाप उसके करीब आई, तब उसने उसकी पतली कलाई दो बार चूमी. उसका चेहरा सौम्य हो गया, मानो उस पर से चिंता की छाया भाग गई हो, और इस पल उसकी आंखें असाधारण रूप से सुन्दर दिखाई दे रही थीं.  

अगर आप न होतीं,” तुर्बीन ने आगे कहा, “तो, शायद, मुझे मार ही डालते.”

“बेशक,” उसने जवाब दिया, “बेशक...और वैसे भी आपने एक को मार डाला ...”

तुर्बीन ने सिर थोड़ा सा ऊपर उठाया.

“मैंने मार डाला?” फिर से कमजोरी महसूस करते हुए उसने पूछा, उसका सिर चकरा रहा था. 

“हूँ...” उसने सहानुभूति से सिर हिलाया और तुर्बीन की ओर भय और उत्सुकता से देखा. “ओह, ये सब कितना भयानक है...उन्होंने मुझे भी लगभग गोली मार ही दी थी.” – वह कांप गई...

“कैसे मारा?

“ओह, हाँ...वे उछल कर बाहर आये, और आप गोलियां चलाने लगे, और पहला ढेर हो गया...

चलो, हो सकता है, आपने उसे ज़ख़्मी किया हो...खैर, आप बहादुर हैं...मैं सोच रही थी, कि मैं बेहोश हो जाऊंगी...आप उनसे दूर भाग रहे हैं, उन पर गोलियां चला रहे हैं...और फिर से भागते हैं...आप, शायद कैप्टेन हैं?

“आपने ऐसा क्यों सोचा कि मैं ऑफिसर हूँ? मुझसे क्यों चिल्लाकर कहा – ‘ऑफिसर’ ?

उसकी आंखें चमकने लगीं.

“मैंने सोचा, कि अगर आपकी कैप पर बैज है, तो आप निश्चित ही ऑफिसर होंगे. इतनी बहादुरी दिखाने की ज़रुरत क्या थी?

“बैज? आह, गॉड ...ये मैंने ...मैं...” उसे घंटी की याद आई...धूल भरा आईना...” सब कुछ उतार दिया...मगर बैज उतारना भूल गया!...मैं ऑफिसर नहीं हूँ,” उसने कहा, “मैं मिलिट्री डॉक्टर हूँ. मेरा नाम है अलेक्सेइ वसिल्येविच तुर्बीन...माफ़ कीजिये, आप कौन हैं?

“मैं – यूलिया अलेक्सान्द्रव्ना रोईस.”

“आप अकेली क्यों हैं?

उसने कुछ तनाव से, आँखों को एक किनारे फेरते हुए कहा:  

“मेरे पति अभी नहीं हैं. वो चले गए. और उनकी माँ भी. मैं अकेली...” कुछ देर चुप रहकर उसने आगे कहा: “यहाँ ठंडा है...ऊऊ ...मैं अभी भट्टी गरमाती हूँ.”

 

 

****   

 

भट्टी में लकडियाँ दहक रही थीं, और साथ ही उनके साथ भीषण दर्द से सिर भी दहक रहा था. ज़ख्म खामोश था, सब कुछ सिर में केन्द्रित हो गया था. शुरुआत हुई बाईं कनपटी से, फिर शीर्ष तक और सिर के पीछे तक चला गया. बाईं भौंह के ऊपर कोई नस दब गई थी और वह सभी दिशाओं में तीव्र, गहन पीड़ा के छल्ले भेज रही थी. रोईस भट्टी के पास घुटनों के बल खड़ी थी और सीकचे से आग कुरेद रही थी. तड़पते हुए, कभी आंखें बंद करते हुए, कभी खोलते हुए, तुर्बीन ने पीछे की ओर किये हुए, आग से बचने के लिए सफ़ेद ब्रश से ढांके हुए सिर को, और पूरी तरह अजीब से बालों को देखा, शायद राख के रंग जैसे, आग से घिरे हुए, या सुनहरे, और भंवें कोयले जैसी और काली आंखें. समझ में नहीं आता – क्या इस बेढंगी आकृति और मुडी हुई नाक को सुन्दर कह सकते हैं? समझ नहीं सकते कि आंखों में क्या भाव है. शायद, भय, चिंता, या हो सकता है, पाप भी हो...हाँ, पाप.

जब वह इस तरह बैठी है और गर्मी की लहर उसके ऊपर से गुज़रती है, तो वह अद्भुत, आकर्षक प्रतीत होती है. रक्षक.

 

 

**** 

 

देर रात में, जब भट्टी में आग कब की बुझ चुकी थी और हाथ और सिर में जलन शुरू हुई, जैसे कोई सिर में गरम कील चुभा रहा हो और मस्तिष्क को नष्ट कर रहा हो.

“मुझे बुखार है,” तुर्बीन सूखेपन से और चुपचाप दुहरा रहा था और अपने आप को आगाह कर रहा था: “सुबह उठकर घर जाना है...” कील दिमाग को नष्ट कर रही थी और, अंत में एलेना के बारे में, और निकोल्का के बारे में, घर के बारे में और पेत्ल्यूरा के बारे में विचारों को भी नष्ट कर रही थी. हर चीज़ – सब ठीक है बन गई. पेतुर्रा...पेतुर्रा...बची सिर्फ एक बात, कि दर्द ख़त्म हो जाए.

देर रात को रोईस नरम, फ़र की किनार वाले जूते पहने यहाँ आई और उसके पास बैठ गई, और फिर से उसकी गर्दन में हाथ डालकर और कमज़ोरी महसूस करते हुए, वह छोटे कमरों से गुज़रा. इससे पहले, उसने हिम्मत करके उससे कहा:

“आप उठिए, अगर उठ सकते हैं तो. मेरी तरफ बिलकुल ध्यान न दीजिये. मैं आपकी सहायता करूंगी. इसके बाद पूरी तरह सो जाइए...मगर, यदि नहीं उठ सकते...”

उसने जवाब दिया:

“नहीं, मैं चलूँगा...आप सिर्फ मेरी सहायता कीजिये...”

वह उसे इस रहस्यमय छोटे से घर के छोटे से दरवाज़े तक लाई और उसी तरह वापस लेकर आई. लेटते हुए, बुखार से दांत किटकिटाते हुए और ये महसूस करते हुए कि सिर शांत हो रहा है, उसने कहा:

“कसम से, मैं आपकी ये बात नहीं भूलूंगा...आप जाकर सो जाईये.”

“चुप रहिये, मैं आपक सिर सहलाऊंगी,” उसने जवाब दिया.

इसके बाद सारा भोंथरा और दुष्ट दर्द सिर से बाहर बहने लगा, कनपटियों से बहकर उसके नरम हाथों में, और वहाँ से उसके शरीर से -  धूल भरे, मोटे कालीन से ढंके फर्श में, और वहां मर गया. दर्द के स्थान पर पूरे शरीर में एक मीठी, एक समान गर्माहट फ़ैल गई. हाथ सुन्न हो गया और भारी हो गया, मानो फ़ौलाद का हो, इसलिए वह उसे हिला नहीं रहा था, बल्कि उसने सिर्फ आंखें बंद कर लीं और खुद को बुखार के हाथो सौंप दिया. वह कितनी देर इस तरह लेटा रहा, कहना मुश्किल था : हो सकता है, पाँच मिनट, और हो सकता है, कि कई घंटे. मगर हर हाल में, उसे ऐसा लगा कि ज़िंदगी भर इस तरह सोया जा सकता था, बुखार में तपते हुए. जब उसने हौले से आंखें खोलीं, ताकि समीप बैठी हुई महिला को डरा न दे, तो उसने पहले वाली ही तस्वीर देखी: लाल शेड के नीचे शान्ति से, हौले हौले, शांत प्रकाश बिखेरते हुए लैम्प जल रहा था, और उसके नज़दीक थी निद्राहीन महिला की आकृति. बच्चो की तरह, दयनीयता से होंठ बाहर निकालकर वह खिड़की से बाहर देख रही थी. बुखार में तैरते हुए, तुर्बीन हिला, उसकी तरफ झुका...

“मेरी तरफ़ झुको,” उसने कहा. उसका स्वर सूखा, कमजोर, ऊंचा था. वह उसकी ओर मुडी, उसकी आंखें भय से चौंकन्नी हो गईं और परछाईयों में धंस गईं. तुर्बीन ने दायाँ हाथ गर्दन में डालकर उसे अपनी तरफ खींचा और होठों को चूम लिया. उसे ऐसा लगा, जैसे उसने किसी मीठी और ठंडी चीज़ को स्पर्श कर लिया हो. महिला को तुर्बीन के आचरण पर आश्चर्य नहीं हुआ. उसने सिर्फ गौर से चेहरे को देखा. फिर कहा:

“ओह, कितना बुखार है आपको. हम अब करेंगे क्या? डॉक्टर को बुलाना चाहिए, मगर ये कैसे किया जाए?...”

“ज़रुरत नहीं है,” तुर्बीन ने हौले से जवाब दिया, “डॉक्टर की ज़रुरत नहीं है. कल मैं उठूंगा और घर चला जाऊंगा.”

“मुझे इतना डर लग रहा है,” वह फुसफुसाई , “कि आपकी तबियत और बिगड़ जायेगी. तब मैं आपकी मदद कैसे करूंगी. अब खून तो नहीं बह रहा है? उसने चुपचाप बैंडेज वाले हाथ को छुआ.

“नहीं, आप घबराईये नहीं, मुझे कुछ नहीं होगा. जाकर सो जाईये.”

“नहीं जाऊंगी,” उसने जवाब दिया और उसका हाथ थपथपाया. “बुखार,” उसने दुहराया.

उससे रहा नहीं गया और फिर से उसे बांह में लेकर अपने निकट खींच लिया. वह उसे तब तक खींचता रहा, जब तक वह पूरी तरह झुककर उसके पास नहीं लेट गई. अब उसने अपनी बीमार अगन के बीच उसके शरीर की सजीव और स्पष्ट गर्माहट को महसूस किया.

“लेट जाईये और बिलकुल न हिलिए,” वह फुसफुसाई, “और मैं आपका सिर सहलाऊंगी.”

वह उसकी बगल में लेट गई, और वह उसके घुटनों का स्पर्श महसूस करने लगा. वह कनपटी से बालों तक हाथ फ़ेरती रही. उसे इतना अच्छा लग रहा था, कि वह एक ही चीज़ के बारे में सोच रहा था, कि कहीं सो न जाए.

और वह सो गया. देर तक सोता रहा, सहज और मीठी नींद. जब जागा, तो देखा, कि गरम नदी में नाव पर तैर रहा है, कि सारा दर्द गायब हो गया है, और खिड़की के बाहर रात धीरे-धीरे फ़ीकी फ़ीकी पड़ती जा रही है. न सिर्फ छोटे से घर में, बल्कि पूरी दुनिया में और शहर में गहरा सन्नाटा था. परदों की दरारों से कांच जैसा विरल-नीला प्रकाश बह रहा था. महिला, गर्माहट भरी और दयनीय, तुर्बीन की बगल में सोई थी. और वह भी सो गया.

 

****  

 

सुबह, करीब नौ बजे, किसी गाडीवान ने मृतप्राय माला-प्रवाल्नाया पर दो सवारियों को बिठाया – काले सिविल ड्रेस में एक मर्द, जो एकदम पीला था, और महिला को. महिला, सावधानी से आदमी को सहारा देते हुए, जो उसकी बांह से चिपका हुआ था, उसे अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर लाई. ढलान पर यातायात नहीं था.

सिर्फ 13 नंबर के प्रवेश द्वार पर एक गाड़ीवान खड़ा था, जिसने अभी-अभी सूटकेस, थैली और पिंजरा लिए एक विचित्र मेहमान को उतारा था.

 

 

 

14

 

वे मिल गए. किसी को भी कोई नुक्सान नहीं हुआ था, और अगली ही शाम को वे मिल गए. 

“वो है,” अन्यूता के सीने में आवाज़ आई, और उसका दिल लरिओसिक के पंछी की तरह उछलने लगा. तुर्बीन के किचन की बर्फ से ढंकी छोटी-सी खिड़की पर आँगन से सावधान खटखटाहट हुई. अन्यूता खिड़की से चिपक गई और गौर से चेहरे को देखने लगी. वही है, मगर बिना मूंछों के...वो...अन्यूता ने दोनों हाथों से काले बालों को ठीक किया, पोर्च का दरवाज़ा खोला, और पोर्च से बर्फीले आँगन का, और मिश्लायेव्स्की असाधारण रूप से उसके निकट था. स्टूडेंट वाला कोट, ऊदबिलाव के कॉलर वाला और टोपी...मूंछें गायब हो गई थीं....मगर आंखें, पोर्च के आधे-अँधेरे में भी अच्छी तरह पहचानी जा सकती थीं. दाईं हरी किरण से आलोकित. यूराल के रत्न की भाँति, और बाईं काली...और उसकी ऊंचाई भी कम हो गई है...

अन्यूता ने थरथराते हाथ से कुंडी खोली, और आँगन गायब हो गया, और किचन से आती रोशनी इसलिए गायब हो गई कि मिश्लायेव्स्की के ओवरकोट ने अन्यूता को घेर लिया और बेहद जानी-पहचानी आवाज़ फुसफुसाई:

“नमस्ते, अन्यूतच्का...आपको ठण्ड लग जायेगी...और, क्या किचन में कोई नहीं है, अन्यूता?

“कोई नहीं है,” बिना सोचे-समझे कि क्या कह रही है, और न जाने क्यों फुसफुसाते हुए अन्यूता ने जवाब दिया. “चूम रहा है, होंठ मीठे हो गए”, मीठी पीड़ा से उसने सोचा और फुसफुसाई: “विक्तर विक्तरविच...छोडिये... एलेना...”

“यहाँ एलेना किसलिए...यूडीकलोन और तम्बाकू से गंधाती आवाज़ उलाहने से फुसफुसाई, “क्या बात है, अन्यूतच्का...”

“ विक्तर विक्तरविच, छोडिये, मैं चिल्लाऊँगी, खुदा कसम,” अन्यूता ने भावावेश से कहा और मिश्लायेव्स्की की गर्दन से लिपट गई, “हमारे यहाँ दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई है -  अलेक्सेइ वसील्येविच ज़ख़्मी हो गए हैं...”

अजगर की पकड़ फ़ौरन छूट गई.

“कैसे ज़ख़्मी हो गए? और निकोल?!”  

“निकोल सही-सलामत है, और अलेक्सेइ वसील्येविच ज़ख़्मी हो गए हैं.”

प्रकाश पुंज किचन से, दरवाज़े से.

डाइनिंग रूम में एलेना मिश्लायेव्स्की को देखकर रोने लगी और बोली:

“वीत्का, तू ज़िंदा है...खुदा का शुक्र है...और हमारे यहाँ...” वह सिसकियाँ लेने लगी और तुर्बीन वाले दरवाज़े की ओर इशारा किया, “चालीस है उसका बुखार...अजीब सी ज़ख्म है...” 

“होली मदर,” मिश्लायेव्स्की ने अपनी कैप सिर के पीछे सरकाकर पूछा, “ये यहाँ कैसे आ गया?

वह मेज़ के पास बोतल और किन्हीं चमचमाते डिब्बों के ऊपर झुकी आकृति की तरफ़ मुडा.

“माफ़ कीजिये, क्या आप डॉक्टर हैं?

“नहीं, अफसोस है,” दयनीय और मरियल आवाज़ ने जवाब दिया, “डॉक्टर नहीं हूँ. मुझे अपना परिचय देने की इजाज़त दें: लरिओन सुर्झान्स्की.”

 

****  

 

ड्राइंगरूम. प्रवेश कक्ष का दरवाज़ा बंद है और परदा भी खिंचा हुआ है, ताकि शोर और आवाजें तुर्बीन तक न पहुंचें. उसके शयन कक्ष से सुनहरे पिंस-नेज़ (नाक पकड़ चश्मा - अनु.) में नुकीली दाढी वाला, दूसरा सफ़ाचट दाढ़ी वाला – जवान, और अंत में सफ़ेद बालों वाला बूढा और विद्वान, भारी-भरकम ओवरकोट और बोयारों वाली टोपी पहने, प्रोफ़ेसर, जो तुर्बीन का शिक्षक था, बाहर निकल कर अभी अभी गए थे. एलेना उन्हें बिदा कर रही थी, और उसका चेहरा मानो पत्थर हो गया था. कह रहे थे – टाइफ़स, टाइफ़स...और हो ही गया.

“ज़ख्म के अलावा, टाइफ़स ज्वर...”

और पारे का स्तंभ चालीस पर था और...”यूलिया”...छोटे से शयन कक्ष में लाल-लाल बुखार है. खामोशी, और खामोशी में बड़बड़ाहट किसी सीढ़ी के बारे में और टेलीफोन की घंटी के बारे में ‘ब्रिन्’....

****  

 

“हैलो, यारों, कैसे हो आप लोग,” मिश्लायेव्स्की ने ज़हरीली फुसफुसाहट से कहा और टांगें फैला लीं. गहरे-लाल, शिर्वीन्स्की ने अचकचा कर आंखें फेर लीं. उसके बदन पर काला सूट बिल्कुल फिट बैठा था; भीतरी वस्त्र गज़ब के थे और उसने बो-टाई पहनी थी; पैरों में पेटेंट चमड़े के जूते थे. “क्राम्स्की ऑपेरा स्टूडियो के आर्टिस्ट”. पहचान पत्र जेब में है. “आप बिना एपोलेट्स के क्यों हो?...” मिश्लायेव्स्की कहता रहा. “व्लादिमीर्स्काया पर रूसी झंडे फ़हरा रहे हैं...सिनेगालों की दो डिवीजन्स ओडेसा पोर्ट में और सर्बियन क्वार्टरमास्टर्स भी...जाईये, अफ़सर महाशयों, युक्रेन जाईये और टुकड़ियाँ बनाइये”...तेरी तो माँ को!...”

“ये तूने क्या लगा रखा है?..” शिर्वीन्स्की ने जवाब दिया. “क्या, मैं कुसूरवार हूँ?....ये मैं इसमें कहाँ से आ गया?...मुझे खुद को ही बस मार ही डाला था. मैं स्टाफ- हेडक्वार्टर से सबसे अंत में निकला था, ठीक दोपहर को, जब पिचेर्स्क से दुश्मनों की कतारें दिखाई दीं.”

“तुम – हीरो हो,” मिश्लायेव्स्की ने जवाब दिया, “मगर उम्मीद है कि महामहिम चीफ कमांडर, पहले ही निकलने में कामयाब हो गए...

बिल्कुल उसी तरह, जैसे हिज़ हाइनेस गेटमन...उसकी माँ...मैं इस उम्मीद से खुश हो जाता हूँ कि वे सुरक्षित स्थान पर हैं...मातृभूमि को उनकी ज़िंदगी की ज़रुरत है. वैसे, क्या तुम मुझे बता सकते हो, कि वे कहाँ पर हैं?

“तुम्हें किसलिए?

“ये, इसलिए.” - मिश्लायेव्स्की ने दायें हाथ की मुट्ठी बांधी और उससे बाईं हथेली को ठोंका. “अगर मुझे ये महामहिम और हिज़ हाईनेस मिल गए, तो मैं एक की बाईं टांग पकड़ता, और दूसरे की दाईं, गोल गोल घुमाता और ज़मीन पर उनके सर तब तक पटकता, जब तक मैं उकता न जाता. और तुम्हारे स्टाफ़ के कमीनों को तो शौचालय में डुबो देना चाहिए...”

शिर्वीन्स्की लाल हो गया.

“खैर, फिर भी, तुम, प्लीज़, सावधानी से बोलना,” उसने कहना शुरू किया, “आराम से...इस बात पर ध्यान दो, कि राजकुमार ने स्टाफ को भी छोड़ दिया. उसके दो एड्जुटेंट्स उसके साथ चले गए, और बाकी के किस्मत के भरोसे.

“तुझे पता है, कि इस समय म्यूज़ियम में हमारे क़रीब एक हज़ार आदमी बैठे हैं, भूखे, मशीनगनों के साथ...उन्हें तो पित्ल्यूरा के आदमी, खटमलों की तरह मसल देंगे...क्या तू जानता है, कि कर्नल नाय को कैसे मारा था?...वह अकेला ही था...”

“मुझे अकेला छोड़ दो, प्लीज़!...” सचमुच में गुस्सा होते हुए शिर्वीन्स्की  चीखा. “ये कैसा लहजा है?...मैं भी वैसा ही ऑफिसर हूँ, जैसे तुम हो!”

“ओह, महाशयों, छोडिये,” करास मिश्लायेव्स्की और शिर्वीन्स्की  के बीच पड़ते हुए बोला, “बिल्कुल बेहूदा बहस है. तुम असल में उससे क्यों उलझ रहे हो...छोडो, इससे कुछ हासिल नहीं होगा...”

“धीरे, धीरे,” निकोल्का अफ़सोस से फुसफुसाया, “उसके कमरे में सुनाई दे रहा है...”

मिश्लायेव्स्की परेशान हो गया, शर्मिन्दा हो गया.

“खैर, परेशान न हो, नीची आवाज़ है. ये तो मैं यूँ ही...अरे, तुम खुद ही समझते हो...”

“काफी अजीब बात है...”

“माफ़ कीजिये, महाशय, थोड़ा धीरे...” निकोल्का सतर्क हो गया और उसने फर्श पर पैर से खटखट किया. सब गौर से सुनने लगे. नीचे से, वसिलीसा के क्वार्टर से आवाजें आ रही थीं. धीमे से सुनाई दिया, कि वसिलीसा खुशी से और जैसे कुछ उन्माद से हँस पडा. जैसे इसके जवाब में, वान्दा ने भी खुशी से और खनखनाते हुए कुछ कहा. इसके बाद सब कुछ शांत हो गया. कुछ देर और धीमे-धीमे आवाजें भिनभिनाती रहीं.

“बात तो चौंकाने वाली है,” निकोल्का ने गहरी सोच में पड़कर कहा, “वसिलीसा के पास मेहमान...मेहमान. और वो भी ऐसे समय पर. वाक़ई में दुनिया का अंत होने वाला है.”

“हाँ, नमूना है आपका वसिलीसा,” मिश्लायेव्स्की ने पुष्टि की.

 

 

****  

 

करीब आधी रात का समय था, जब तुर्बीन मॉर्फीन के इंजेक्शन के बाद सो गया था, और एलेना उसके पलंग के पास कुर्सी पर बैठी थी. ड्राइंग रूम में मिलिट्री काउन्सिल की बैठक होने लगी.

यह तय किया गया कि सभी लोग रात को यहीं रुक जायेंगे, विश्वसनीय डॉक्यूमेंट्स होने पर भी, रात को, कहीं नहीं जायेंगे. दूसरी बात, एलेना के लिए भी अच्छा रहेगा, यदि उसकी थोड़ी बहुत मदद कर दें. और सबसे महत्वपूर्ण, ऐसे समय में अपने घर में न रहें, बल्कि किसी से मिलने चले जाएं. और एक बात, करने के लिए कुछ नहीं है, तो विन्त (ताश के पत्तो का खेल जो ब्रिज के समान होता है – अनु.) खेला जाए.  

“क्या आप खेलते हैं?” मिश्लायेव्स्की ने लरिओसिक से पूछा.

लरिओसिक लाल हो गया, घबरा गया और उसने सब कुछ उगल दिया, कि वह विन्त खेलता तो है, मगर बहुत, बहुत बुरा...बस, उसे कोई डांटे नहीं, जैसा टैक्स इंस्पेक्टर्स झितोमिर में डांटते थे...कि उसकी ज़िंदगी के साथ ड्रामा हुआ है, मगर यहाँ, एलेना वसील्येव्ना के यहाँ, उसकी रूह ज़िंदा हो उठती है, क्योंकि, बिल्कुल असाधारण व्यक्ति है, एलेना वसील्येव्ना, और उनके घर में गर्माहट और आराम है, ख़ास तौर से सभी खिड़कियों पर लगे दूधिया रंग के परदे  गज़ब के हैं, जिनकी बदौलत आप खुद को बाहरी दुनिया से कटा हुआ महसूस करते हो...और वो, मतलब, ये बाहरी दुनिया...आप खुद भी सहमत होने, गंदी, खूनी और बेमतलब की है.

“माफ़ कीजिये, क्या आप कवितायेँ लिखते हैं?” गौर से लरिओसिक की ओर देखते हुए मिश्लायेव्स्की ने पूछा.

“लिखता हूँ,” सकुचाते हुए, लाल होते हुए लरिओसिक ने कहा.

“अच्छा...माफ़ कीजिये कि मैंने आपको बीच में ही टोक दिया...तो बेमतलब की, आप कहते हैं...अपनी बात जारी रखिये, प्लीज़...”

“हाँ, बेमतलब की, और हमारी ज़ख़्मी रूहें खासकर ऐसे ही दूधिया रंग के परदों के पीछे सुकून की तलाश करती हैं...

“मगर, जानते हैं, जहाँ तक सुकून का सवाल है, पता नहीं, आपके झितोमिर में क्या हाल है, मगर यहाँ शहर में तो आपको, शायद, नहीं मिलेगा...तू गला गीला कर, वर्ना तो खूब धूल उड़ रही है. मोमबत्तियां हैं? बढ़िया. उस हालत में हम आपको ‘डमी’ दर्ज करेंगे...पाँच लोगों के बीच खेल मरियल हो जाता है...”

“और निकोल्का, ‘डमी की तरह खेलता है,” करास ने फ़ब्ती कसी.

“चलो भी, फेद्या. पिछली बार भट्टी के पास कौन हार गया था? तुमने खुद ही तो पत्ते दबाये थे. दूसरों पर कीचड़ क्यों उछालते हो?

“पित्ल्यूरा के नीले धब्बे...”

“बिल्कुल दूधिया रंग के परदों के पीछे ही रहना चाहिए. न जाने क्यों सब लोग कवियों पर हँसते हैं...”

“ख़ुदा बचाए...आप मेरे सवाल को गलत क्यों समझ बैठे. मुझे कवियों से कोई शिकायत नहीं है. मैं, असल में, कवितायेँ नहीं पढ़ता...”

“और दूसरी कोई किताबें भी नहीं पढ़ता, सिवाय ‘आर्टिलरी मैन्यूअल’ और ‘रोमन लॉ’ के ... सोलहवें पृष्ठ पर लड़ाई आरंभ हो गई, उसने किताब फेंक दी...’
“झूठ बोलता है
, इसकी बात न सुनिए...आपका नाम और कुलनाम – लरिओन  इवानविच?

लरिओसिक  ने समझाया कि वह लरिओन लरिओनविच है, मगर उसे यह सारा समूह, इतना अच्छा लग रहा है, जो समूह नहीं, बल्कि एक मिलनसार परिवार है, कि वह चाहेगा, कि उसे सिर्फ अपने नाम – ‘लरिओन से बुलाया जाए, बिना कुलनाम के...बेशक, अगर किसी को कोई आपत्ति न हो तो.

“अच्छा लड़का लग रहा है...” संयमित करास ने फुसफुसाकर शिर्वीन्स्की से कहा.

“ठीक है...दोस्ती करते हैं...क्यों...झूठ बोल रहा है: अगर जानना चाहते हो, तो “युद्ध और समाज” पढ़ रहा था...ये है, वाकई में किताब. अंत तक पढ़ गया – और प्रसन्नता से. मगर क्यों? क्योंकि उसे किसी बेवकूफ़ ने नहीं लिखा, बल्कि आर्टिलरी ऑफिसर ने लिखा है. आपके पास दस्सी है? आप मेरे साथ...करास शिर्वीन्स्की  के साथ...निकोल्का, तू निकल.”

“सिर्फ, खुदा के लिए, आप मुझे डांटना नहीं,” लरिओसिक ने कुछ घबराहट से कहा.            

“आप, असल में, कहना क्या चाहते हैं? क्या हम कोई आदिवासी, नरभक्षक हैं? ये आपके यहाँ झितोमिर में कोई बदहवास टैक्स इन्स्पेक्टर होंगे, उन्होंनें आपको डरा दिया होगा...हमारे यहाँ संजीदगी से खेलते हैं.”

“मेहेरबानी से, आप निश्चिन्त रहें,” शिर्वीन्स्की ने बैठते हुए कहा.

“दो हुकुम...हाँ-आ...तो लेखक थे काउन्ट ल्येव निकलायेविच टॉलस्टॉय, आर्टिलरी के लेफ्टिनेंट...अफसोस, कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी...जनरल के ओहदे तक पहुँच जाते...हाँलाकि, ठीक है, कि उनके पास जायदाद थी. बोरियत के कारण भी उपन्यास लिखा जा सकता है...सर्दियों में करने के लिए कुछ नहीं होता...अपनी इस्टेट में ये बहुत आसान है. बिना ट्रम्प के...

“तीन ईंट,” लरिओसिक ने डरते हुए कहा.

“पास,” करास ने कहा.

“आप कर क्या रहे हैं? आप तो बहुत अच्छा खेलते हैं. आपको डांटना नहीं, बल्कि आपकी तारीफ़ करना चाहिए. खैर, अगर तीन ईंट हैं, तो हम कहेंगे – चार हुकुम. मैं खुद भी इस समय अपनी इस्टेट में चला जाता...”

“चार ईंट,” निकोल्का ने पत्तों में देखते हुए लरिओसिक को सुझाव दिया.

“चार? पास.”

“पास.”

स्टीअरिन की मोमबत्तियों की थरथराती रोशनी में, सिगरेटों के धुएँ में, परेशान लरिओसिक  ने पत्ते खरीदे. मिश्लायेव्स्की राइफलों के खोलों की तरह पार्टनर्स के सामने एक एक ताश का पत्ता फेंक रहा था.

“म्- हुकुम का शहंशाह,” उसने हुक्म दिया और लरिओसिक  को प्रोत्साहित किया, “शाबाश.”

मिश्लायेव्स्की के हाथों से पत्ते खामोशी से उड़ रहे थे, मैपल के पत्तों की तरह. शिर्वीन्स्की  सावधानी से फेंक रहा था, करास – बदनसीब – बेहूदगी से. लरिओसिक  ने, गहरी सांस लेते हुए, हौले से पत्ते रखे, मानो कोई परिचय पत्र हो.

“पापा-मामा”, हम देख चुके हैं,” करास ने कहा.

मिश्लायेव्स्की अचानक लाल हो गया, उसने ताश मेज़ पर उछाल दिए और जानवरों की तरह आंखें बाहर निकालकर लरिओसिक को देखते हुए गरजा:

“तुमने मेरी रानी को क्यों ढांक दिया? लरिओन ?!”

“बढ़िया. हा-हा-हा,” करास बेहद खुश हो गया, “एक और डाऊन!”

हरी मेज़ पर भयानक हंगामा होने लगा, और मोमबत्तियों की लौ झूलने लगी. निकोल्का, फुफकारते हुए और हाथ हिलाते हुए दरवाज़ा और परदे बंद करने भागा.

“मैं समझा कि फ्योदर निकलायेविच के पास राजा है,” लरिओसिक  मरियल आवाज़ में बोला/

“ऐसा कैसे सोच सकते हो...” मिश्लायेव्स्की ने कोशिश की कि चीखे नहीं, इसलिए उसके गले से सीटी जैसी आवाज़ निकली जिसने उसे और भयानक बना दिया, “अगर तुमने अपने हाथो ने उसे खरीदकर मुझे भेजा? आँ? ये तो, शैतान जाने,” मिश्लायेव्स्की सबकी तरफ़ मुड़ा, “ये तो...वह सुकून ढूँढता है. आँ? और बिना एक के बैठा है – क्या ये सुकून है? ये तो सोच-समझ कर खेला जाने वाला गेम है! दिमाग़ तो चलाना ही पड़ता है, ये कोई कविता थोड़े ही है!”

“रुको. हो सकता है, करास...”

“क्या हो सकता है? कुछ भी नहीं हो सकता, सिवाय बेवकूफ़ी के. आप मुझे माफ़ करो, बाप, हो सकता है, झितोमिर में ऐसे ही खेलते हों, मगर ये तो शैतान जाने क्या है!....आप नाराज़ मत होइए...मगर पूश्किन या लमानोसव हाँलाकि कवितायेँ लिखते थे, मगर वे ऐसा कभी न करते...या नाद्सन, मिसाल के लिए.”

“धीरे, तू. अरे, क्यों बरस रहा है? हरेक के साथ होता है.”

“मुझे तो मालूम ही था,” लरिओसिक बुदबुदाया...”मैं बदनसीब हूँ...”

“श्श, स्टॉप....”

और फ़ौरन निपट खामोशी छा गई. दूर, कई दरवाजों के पीछे से किचन में घंटी बजने लगी. सब चुप हो गए. एडियों की खटखट सुनाई दी, दरवाज़े खुले, अन्यूता प्रकट हुई. प्रवेश कक्ष में एलेना के सिर की झलक दिखाई दी. मिश्लायेव्स्की ने मेज़ के कपड़े पर ऊँगलियाँ बजाईं और बोला:

“शायद काफ़ी जल्दी आ गए हैं? आँ?

“हाँ, जल्दी आ गए,” निकोल्का ने जवाब दिया, जो अपने आप को तलाशी के मामलों का विशेषज्ञ समझता था.   

“क्या दरवाज़ा खोलने के लिए जाऊँ?” अन्यूता ने परेशानी से पूछा.

“नहीं, आन्ना तिमफ़ेयेव्ना,” मिश्लायेव्स्की ने जवाब दिया, “थोड़ा रुको,” वह, बुड़बुड़ाते हुए, कुर्सी से उठा, “ वैसे, अब मैं खोलूंगा, आप तकलीफ़ न करें...”             

“साथ में जायेंगे,” करास ने कहा.

“तो,” मिश्लायेव्स्की ने कहना शुरू किया और फ़ौरन इस तरह देखा, मानो अपनी प्लेटून के सामने खड़ा हो. “तो – शायद, वहाँ सब कुछ ठीक है... डॉक्टर को टायफ़ाइड हुआ है वगैरह. तुम, ल्येना, - बहन हो...करास, तुम मेडिकल स्टूडेंट लगोगे...बेडरूम में खिसक जाओ...वहाँ कोई सिरींज ले लेना...हम लोग काफी सारे हैं. मगर, कोई बात नहीं...”

घंटी बेसब्री से दुबारा बजी, अन्यूता थरथरा गई और सभी लोग और ज़्यादा संजीदा हो गए.

“कोई जल्दी नहीं है,” मिश्लायेव्स्की ने कहा और पतलून की पीछे वाली जेब से छोटी सी काली रिवॉल्वर निकाली, जो खिलौने की पिस्तौल जैसी लग रही थी.

“ये तो खतरनाक है,” शिर्वीन्स्की ने कहा, उसका चेहरा काला पड़ गया था, “मुझे तो तुम पर आश्चर्य होता है. तुम्हें तो ज़्यादा सावधान रहना चाहिए था. तुम रास्ते पर चलकर आये कैसे?

“परेशान न हो,” गंभीरता और नम्रता से मिश्लायेव्स्की ने जवाब दिया, “सब ठीक कर लेंगे. पकड़, निकोल्का, और चोर दरवाज़े या खिड़की के पास चले जाओ. अगर पित्ल्यूरा के फ़रिश्ते हुए, तो मैं खाँसूंगा, इसे फेंक देना, इस तरह कि बाद में मिल जाए. महंगी चीज़ है, वारसा तक मेरे साथ जा चुकी है...सब ठीक है?

“इत्मीनान रखो,” हाथ में रिवॉल्वर लेते हुए विशेषज्ञ निकोल्का ने संजीदगी और स्वाभिमान से जवाब दिया.

“तो,” मिश्लायेव्स्की ने शिर्वीन्स्की  के सीने में उंगली गड़ाई और कहा:

“गायक, मिलने आये हो,” करास के, “मेडिकल स्टूडेंट,” निकोल्का के, “भाई,” लरिओसिक के – “पेईंग गेस्ट – स्टूडेंट. आइडेंटिटी-कार्ड है?”

“मेरे पास त्सार वाला पासपोर्ट है,” पीला पड़ते हुए लरिओसिक  ने कहा, “और स्टूडेंट-कार्ड खार्कव यूनिवर्सिटी का.”

“त्सार वाला छुपा दे, और स्टूडेंट-कार्ड दिखा देना.

लरिओसिक  ने परदा पकड़ लिया, और फिर भाग गया.

“बाकी के,” छोटे-मोटे, महिलाएं...” मिश्लायेव्स्की कहता रहा. “तो, आइडेंटिटी-कार्ड सबके पास है? जेब में कोई फ़ालतू चीज़ तो नहीं है?...ऐ, लरिओन !...उससे पूछो, कि उसके पास कोई हथियार तो नहीं है?

“ऐ, लरिओन !” डाइनिंग रूम में निकोल्का ने आवाज़ दी, “हथियार?

“नहीं है, नहीं है, ख़ुदा बचाए,” कहीं से लरिओसिक  ने जवाब दिया.  

घंटी फिर से बजी – बेतहाशा, लम्बी, बेसब्री से.

“तो, खुदा खैर करे,” मिश्लायेव्स्की ने कहा और आगे बढ़ा. करास तुर्बीन के शयनकक्ष में ग़ायब हो गया.

“पेशन्स खेल रहे थे,” शिर्वीन्स्की ने कहा और मोमबत्तियां बुझा दीं.

तुर्बीनों के क्वार्टर को तीन दरवाज़े जाते थे. पहला – प्रवेशकक्ष से सीढ़ी को, दूसरा – कांच का, जो तुर्बीनों के घर को अलग करता था. कांच वाले दरवाज़े के नीचे अन्धेरा ठंडा दर्शनीय प्रवेश द्वार, जिसमें बगल से लिसोविच का दरवाज़ा खुलता था; और कॉरीडोर के रास्ते पर खुलता हुआ अंतिम द्वार बंद करता था.

दरवाज़े भड़भड़ाये, और नीचे मिश्लायेव्स्की चिल्लाया:

“कौन है?

ऊपर, अपने पीछे, सीढ़ियों पर कुछ साये महसूस हुए.

दरवाज़े के पीछे दबी-दबी आवाज़ विनती कर रही थी:

“घंटी बजा रहे हो, बजा रहे हो...क्या ताल्बेर्ग-तुर्बीना हैं?... उनके लिए टेलीग्राम है...खोलिए...”

“च्”, मिश्लायेव्स्की के दिमाग में बिजली कौंध गई और वह बीमारों जैसा खांसा. पीछे सीढ़ी पर एक साया ग़ायब हो गया. मिश्लायेव्स्की ने सावधानी से बोल्ट खोला, चाभी घुमाई और दरवाज़ा खोला, उसे कुंडी पर ही रखे हुए.

“टेलीग्राम दीजिये,” उसने दरवाज़े के पास तिरछे खड़े होकर कहा, ताकि दरवाज़ा उसे छुपा ले. भूरी आस्तीन में एक हाथ भीतर घुसा और उसे छोटा सा लिफ़ाफ़ा थमा दिया. विस्मित मिश्लायेव्स्की ने देखा कि ये सचमुच में टेलीग्राम ही था.

“हस्ताक्षर कीजिये,” दरवाज़े के पीछे आवाज़ ने गुस्से से कहा.

मिश्लायेव्स्की ने नज़र घुमाई और देखा कि दरवाज़े के पीछे सिर्फ एक ही आदमी है.

“अन्यूता, अन्यूता,” ब्रोंकाइटीस से उबरने के बाद, मिश्लायेव्स्की खुशी से चिल्लाया.

“पेन्सिल दो.”

अन्यूता के बदले उसके पास करास भाग कर आया, पेन्सिल थमा दी. लिफ़ाफ़े से एक टुकड़ा फाड़कर मिश्लायेव्स्की ने घसीटा : “टूर”, फुसफुसाकर करास से बोला:

“मुझे पच्चीस दो...”

दरवाज़ा भड़भड़ाया...बंद हो गया...

विस्मित मिश्लायेव्स्की करास के साथ ऊपर आया. सभी लोग आ गए. एलेना ने लिफ़ाफ़ा खोला और यंत्रवत पढ़ने लगी:

“लरिओसिक को भयानक दुर्भाग्य ने दबोच लिया है. ऑपेरा एक्टर लीप्स्की...’

“माय गॉड,” लाल हो गया लरिओसिक चीखा, “ये वही है!”

“त्रेसठ शब्द,” निकोल्का ने उत्तेजना से कहा, “देखो, चारों तरफ़ लिखा हुआ है.”

“खुदा!” एलेना चहकी. “ये क्या है? आह, माफ़ करना लरिओन...कि मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. मैं इसके बारे में पूरी तरह भूल गई थी...”

“ये क्या माजरा है?” मिश्लायेव्स्की ने पूछा.      

“बीबी ने उसे छोड़ा दिया है,” निकोल्का उसके कानों में फुसफुसाया, “ऐसा काण्ड...”

कांच वाले दरवाज़े पर हो रही भयानक गरज, जैसे चट्टान गिर रही हो, क्वार्टर में घुस आई. अन्यूता जोर से चीखी. एलेना का चेहरा पीली पड़ गया और वह दीवार की ओर झुकने लगी. गरज इतनी भयानक, खतरनाक, बेतुकी थी, कि मिश्लायेव्स्की का चेहरा भी बदल गया. शिर्वीन्स्की ने एलेना को सहारा दिया, उसके चहरे का रंग भी उड़ गया था...तुर्बीन के शयनकक्ष से कराहने की आवाज़ आई.

“दरवाज़े...” एलेना चीखी.

अपनी रणनीतिक योजना को भूलकर मिश्लायेव्स्की सीढ़ियों से नीचे दौड़ा, उसके पीछे भागे करास, शिर्वीन्स्की और अत्यंत भयभीत लरिओसिक.

“ये तो और भी बदतर है,” मिश्लायेव्स्की बड़बड़ाया.

कांच के दरवाज़े के पीछे एक अकेली आकृति उभरी, गड़गड़ाहट रुक गई.

“कौन है वहाँ?” मिश्लायेव्स्की गरजा मानो वर्कशॉप में हो.

“खुदा के लिए...खुदा के लिए...खोलिए, लीसविच – मैं...लीसविच!!” आकृति चिल्लाई. “लीसविच हूँ – मैं...लीसविच...”

वसिलीसा भयानक हालत में था...प्रकाशित गुलाबी गंजे सिर के बाल तिरछे खड़े हो गए थे. टाई एक किनारे को लटक रही थी और जैकेट के पल्ले टूटी हुई अलमारी के दरवाजों की तरह झूल रहे थे. वसिलीसा की आंखें बदहवास और धुंधली थीं, जैसे किसी विषबाधित आदमी की हों. वह अंतिम सीढ़ी पर दिखाई दिया, अचानक हिला और मिश्लायेव्स्की के हाथों में ढह गया. मिश्लायेव्स्की ने उसे थाम लिया, खुद सीढ़ी पर बैठ गया और भर्राई आवाज़ में बदहवासी से चिल्लाया:

“करास! पानी...”

 

15

 

शाम का समय था. ग्यारह बजने वाले थे. शहर में हो रही घटनाओं के कारण सड़क, जो वैसे भी व्यस्त नहीं होती, हमेशा से काफ़ी पहले खाली हो गई थी.

हल्की बर्फ गिर रही थी, उसके फ़ाहे लयबद्ध रूप से खिड़की के बाहर उड़ रहे थे, और फुटपाथ के पास अकासिया की शाखाएं, जो गर्मियों में तुर्बीनों की खिड़कियों को ढांक देती हैं, अपनी बर्फ की कंघियों के कारण अधिकाधिक झुकी जा रही थीं.

ये दोपहर के खाने से शुरू हुआ था और अब बुरी, दिल को चूसती हुई अप्रिय घटनाओं के साथ धुंधली शाम हो गई. बिजली, न जाने क्यों आधी ही रोशनी बिखेर रही थी, और वान्दा ने दोपहर के खाने में भेजा परोसा था. वैसे, भेजा, खतरनाक किस्म का खाना है, और वान्दा के पकवान में तो – बर्दाश्त से बाहर हो जाता है. भेजे से पहले सूप था, जिसमें वान्दा ने वनस्पति तेल डाला था, और उदास वसिलीसा मेज़ से इस दर्दभरे ख़याल के साथ उठ गया, जैसे उसने खाना ही न खाया हो. शाम को काफ़ी सारे झंझट थे, और सभी अप्रिय, कठिन थे. डाइनिंग रूम में खाने की मेज़ ऊपर टांगें किये पड़ी थी और ल्येबिद-यूर्चिक नोटों का बण्डल फर्श पर पडा था.

“तू बेवकूफ़ है,” वसिलीसा ने बीबी से कहा.

वान्दा का चेहरा बदल गया और उसने जवाब दिया:

“मुझे पता था कि तू गंवार है, काफ़ी पहले से ही पता था. पिछले कुछ समय से तो तेरी हरकतें सारी हदें पार कर गई हैं. 

वसिलीसा का दिल पूरी शिद्दत से चाह रहा था कि उसके मुँह पे पूरी ताकत से एक तिरछा झापड़ लगाए, जिससे वह उड़ कर अलमारी के कोने से टकरा जाए. और फिर एक और, बार-बार उसे इस तरह मारे कि ये हडीला,घिनौना प्राणी, खामोश न हो जाए, अपनी हार न मान  ले. वह – वसिलीसा, आख़िर पस्त हो चुका है, आख़िर, वो, बैल की तरह काम करता है, और वह मांग करता है, मांग करता है, कि घर में उसकी बात सुनी जाए. वसिलीसा ने अपने दांत किटकिटाए और खुद पर काबू किया, वान्दा पर टूट पड़ना खतरे से खाली नहीं था, जैसा वह समझ रहा था.

“वैसा करो, जैसा मैं कहता हूँ,” दांतों को भींचते हुए वसिलीसा ने कहा, “समझने की कोशिश करो कि अलमारी सरका सकते हैं, तब क्या होगा? और ये तो किसी के भी दिमाग में नहीं आयेगा. शहर में सभी लोग ऐसा ही करते हैं.”

वान्दा ने उससे माफी मांग ली, और वे दोनों मिलकर काम पर लग गए – मेज़ की भीतरी सतह पर पिनों से नोट टांकने लगे.

जल्दी ही मेज़ की भीतरी सतह चमक उठी और जटिल नक्काशीदार रेशमी कालीन जैसी लगने लगी.

वसिलीसा, खून जैसा लाल चेहरा लिये, कराहते हुए उठा और उसने नोटों वाले क्षेत्र पर नज़र डाली.          

“ ये सुविधाजनक नहीं है,’ वान्दा ने कहा, “ जब भी नोट की ज़रुरत हो, तब मेज़ को पलटना पडेगा.”   

“तो पलट देना, हाथ तो नहीं टूट जायेंगे,” भर्राई हुई आवाज़ में वसिलीसा ने जवाब दिया, “सब कुछ खो देने के मुकाबले मेज़ पलटना ज़्यादा बेहतर है. सुना तुमने कि शहर में क्या चल रहा है? बोल्शेविकों से भी बदतर. कहते हैं, कि बड़े पैमाने पर तलाशी चल रही है, ऑफिसर्स को ढूंढ रहे हैं.”  

शाम के ग्यारह बजे वान्दा किचन से समोवार लाई और क्वार्टर की सारी बत्तियां बुझा दीं. अलमारी से बासी ब्रेड की थैली और हरे पनीर का एक टुकड़ा निकाला. मेज़ के ऊपर लटकते तीन सितारों वाले झुम्बर के एक सितारे में जल रहा बल्ब, धुंधली लाल रोशनी बिखेर रहा था.  

वसिलीसा फ्रांसीसी ब्रेड का टुकड़ा चबा रहा था, और हरे पनीर से उसकी आंखों में आँसू आ गए, जैसे उसके दांत में भयानक दर्द हो रहा हो. उबकाई लाने वाला पाउडर हर निवाले के साथ मुँह के बदले जैकेट पर और टाई के पीछे बिखर रहा था. यह न समझ पाते हुए कि उसे किस चीज़ से तकलीफ हो रही है, वसिलीसा कनखियों से ब्रेड चबाती हुई बीबी को देख लेता था.

“मुझे ताज्जुब होता है, कि कितनी आसानी से वे हर चीज़ से निकल जाते हैं,” वान्दा छत की ओर नज़र डालते हुए कह रही थी, “मुझे यकीन था, कि उनमें से किसी एक को तो मार ही डालेंगे. मगर नहीं, सबके सब वापस आ गए, और अभी भी क्वार्टर ऑफिसर्स से भरा है...”

कोई और समय होता तो वान्दा के शब्दों का वसिलीसा पर कोई परिणाम नहीं होता. मगर अभी, जब उसकी पूरी रूह पीड़ा से जल रही थी, वे उसे असहनीय रूप से ओछे प्रतीत हुए.

“मुझे तुम पर अचरज होता है,” उसने एक ओर को नज़र फ़ेरते हुए जवाब दिया, ताकि चिड़चिड़ाहट न हो, “ तुम अच्छी तरह जानती हो, कि असल में, उन्होंने ठीक ही किया था. किसी को तो शहर की रक्षा करनी थी इन (वसिलीसा ने आवाज़ नीची कर ली) कमीनों से... और तुम बेकार ही में सोच रही हो कि सब कुछ आसानी से ख़त्म हो गया...मेरा ख़याल है कि वह..”.

वान्दा ने एकटक उसकी ओर देखा और सिर हिला दिया.

“मैं खुद, खुद ही सब समझ गई थी...बेशक, वह ज़ख़्मी हो गया है...”

“तो, देखो, मतलब, खुश होने की कोई वजह ही नहीं है – ‘गुज़र गया, गुज़र गया...”

वान्दा ने अपने होंठ चाटे.

“मैं खुश नहीं हो रही हूँ, मैं सिर्फ कह रही हूँ ‘गुज़र गया, मगर मुझे यह जानने में दिलचस्पी है कि, अगर, खुदा न करे, हमारे यहाँ आ धमकें और, हाउसिंग कमिटी के प्रेसिडेंट की हैसियत से तुमसे पूछने लगे, कि आपके ऊपर कौन रहता है? क्या वे गेटमन के पास गए थे? तो तुम क्या कहोगे?

वसिलीसा ने नाक-भौंह सिकोड़ ली और तिरछी निगाह से देखते हुए बोला:

“कहना होगा, कि वह डॉक्टर है...आखिर, मैं कैसे जानता हूँ? कहाँ से?

“वही तो, वही तो, कहाँ से...”

इस शब्द के साथ ही प्रवेश कक्ष में घंटी बजी. वसिलीसा पीला पड़ गया, और वान्दा ने अपनी हडीली गर्दन घुमाई.

नाक से सूं-सूं करते हुए वसिलीसा कुर्सी से उठा और बोला:

“पता है? हो सकता है, अभी तुर्बीनों के पास भागकर उन्हें बुलाऊँ ?

वान्दा जवाब भी नहीं देने पाई, क्योंकि उसी समय घंटी दुबारा बजी.

आह, खुदा,” वसिलीसा ने घबराहट से कहा, “नहीं, जाना होगा.”

वान्दा ने भय से चारों तरफ़ देखा और उसके पीछे चली. साझे में खुलने वाला अपने क्वार्टर का दरवाजा खोला. वासिलीसा कॉरीड़ोर में निकला, ठण्ड की महक आ रही थी, वान्दा का नुकीला चेहरा, उत्तेजित, चौड़ी आंखों से बाहर की ओर देख रहा था. उसके सिर के ऊपर चमकदार प्याले में तीसरी बार गुस्से से घंटी चटचटाई.

पल भर को वसिलीसा के मन में यह विचार दौड़ गया कि तुर्बीनों वाले कांच के दरवाज़े पर खटखटाए – हो सकता है, अभी-अभी कोई बाहर गया हो, और डरने जैसी कोई बात न हो. और वह ऐसा करने से डर गया. और अचानक: “तुमने दरवाज़ा क्यों खटखटाया ? आँ? क्या किसी चीज़ से डर रहे हो?” – और, इसके अलावा, सचमुच में एक कमजोर, आशा जाग उठी कि हो सकता है, ये ‘वो न हों, बल्कि कोई...

“कौन है?” वसिलीसा ने दरवाज़े के पास जाकर कमज़ोर आवाज़ में पूछा. फ़ौरन चाभी वाले छेद ने वसिलीसा के पेट में भर्राई आवाज़ में जवाब दिया, और वान्दा के सिर के ऊपर बार-बार घंटी चटचटाने लगी.

“खोल,” चाभी का छेद भर्राया, “स्टाफ़ हेडक्वार्टर्स से हैं. तू दूर न हटना, नहीं तो दरवाज़े से गोलियां चला देंगे...”

“आह, खुदा...” वान्दा ने आह भरी.

वसिलीसा ने मरियल हाथों से  बोल्ट और भारी हुक हटा दिया. उसे पता भी नहीं चला कि कब उसने कुंडी खोल दी.

“जल्दी...”  चाभी के छेद ने कठोरता से कहा.

सड़क से भूरे आसमान के टुकडे, अकासिया की किनार, और बर्फ के फ़ाहों से अन्धेरा वसिलीसा को ताक रहा था. कुल तीन आदमी अन्दर आये, मगर वसिलीसा को लगा कि वे बहुत सारे थे.                   

“माफ़ कीजिये... कैसे आना हुआ?

“तलाशी के लिए,” पहले भीतर आये हुए आदमी ने भेड़िये जैसी आवाज़ में जवाब दिया और फ़ौरन वसिलीसा पर लपक पड़ा. कॉरीडोर मुड़ गया और प्रकाशित दरवाज़े में वान्दा का चेहरा पावडर से बेहद पुता हुआ प्रतीत हुआ.

“तब, माफ़ कीजिये, प्लीज़,” वसिलीसा की आवाज़ बेहद मरियल, एकसार लग रही थी, “हो सकता है, आपके पास हुक्मनामा हो? वैसे, मैं, एक शांतिप्रिय नागरिक हूँ...पता नहीं, मेरे पास क्यों आये हैं? मेरे पास – कुछ नहीं है,” वसिलीसा ने बड़ी कोशिश से उक्रेनी में जवाब देने की कोशिश की और कहा - नई.”

“खैर, हम देख लेंगे,” पहले वाले ने जवाब दिया.   

दरवाज़े में घुस आये लोगों के दबाव में, मानो सपने में आगे बढ़ते हुए, वसिलीसा ने मानो सपने में उन्हें देखा. वसिलीसा को न जाने क्यों ऐसा लगा कि पहले आदमी की हर चीज़ भेड़िये जैसी थी. उसका चेहरा संकुचित था, आंखें बारीक-बारीक, गहरी धंसी हुई, त्वचा भूरी-सी, मूंछे गुच्छों में बाहर निकल रही थीं, और बिना हजामत किये गाल सूखी खाइयों जैसे धंसे हुए थे, वह कुछ अजीब भेंगेपन से देख रहा था, कनखियों से देख रहा था और यहाँ, संकरी जगह में भी, यह दिखाने में कामयाब हो गया था कि, वह अमानवीय, डुबकी-सी लगाती हुई चाल से चलता है, जो ऐसे प्राणी की होती है जिसे बर्फ और घास में चलने की आदत होती है. वह भयानक और गलत भाषा में बोल रहा था – रूसी और उक्रेनी के शब्दों की खिचड़ी -  ऐसी भाषा में जिससे शहर में रहने वाले लोग, पदोल में रहने वाले, द्नेप्र के किनारे, जहाँ गर्मियों में घाट चर्खियों से गूंजता है, और गोल-गोल घूमता है. जहाँ गर्मियों में फटेहाल लोग बेड़ों से तरबूज़ उतारते हैं... भेड़िये के सिर पर टोपी थी, और नीली चिंधी, जिसपर सुनहरी चोटी टंकी हुई थी, बगल में लटक रही थी.

दूसरा – भीमकाय, वसिलीसा के प्रवेश कक्ष की लगभग छत तक पहुँच रहा था. उसके चहरे पर औरतों जैसा खुशनुमा गुलाबी रंग था, जवान, गालों पर कोई बाल नहीं थे. उसके सिर पर टोपी थी, जिसके कान दीमक खा गई थी, कन्धों पर भूरा ओवरकोट, और असामान्य रूप से छोटे पैरों पर भयानक खराब एडियों वाले जूते थे.

तीसरा धंसी हुई नाक वाला था, जिसके किनारे पर पीप भरी हुई पपड़ी थी, होंठ सिला हुआ और ज़ख़्मी था. उसके सिर पर पुरानी अफसरों वाली टोपी थी लाल बैंड और बैज के निशान वाली, बदन पर दो पल्ले का सैनिकों वाला पुराना कोट था, ताँबे की, हरी पड़ गई बटनों वाला, टांगों पर काली पतलून, पैरों में फूस के जूते, फूले-फूले, भूरे, सरकारी मोजों के ऊपर पहने हुए.  लैम्प के प्रकाश में उसके चेहरे पर दो रंग नज़र आ रहे थे – मोम जैसा पीला और बैंगनी, आंखें दयनीय पीड़ा से देख रही थीं.

“देखेंगे, देखेंगे,” भेड़िये ने फिर कहा, “हुक्मनामा भी है.’

इतना कहकर उसने पतलून की जेब में हाथ डाला, एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ बाहर निकाला और झटके से वसिलीसा के सामने कर दिया. उसकी एक आंख ने वसिलीसा के दिल को दहला दिया, और दूसरी, बाईं, भेंगी, तेज़ी से प्रवेश कक्ष में रखे संदूकों में घुस गई.

मुड़े-तुड़े,  हेडक्वार्टर, प्रथम कज़ाक कंपनी’ के स्टाम्प वाले, कागज़ के चौकोर टुकड़े पर बड़े-बड़े, एक तरफ को झुके हुए अक्षरों में कलम से लिखा था:

“अलेक्सेव्स्की ढलान पर मकान नं. 13 में रहने वाले वसीली लीसविच के घर की तलाशी लेने का आदेश दिया जाता है. विरोध करने पर गोली मार दी जाए.

स्टाफ हेडक्वार्टर प्रमुख प्रस्तेन्का.

एड्ज्युटेंट  मिक्लून”     

नीचे बाएं कोने में अस्पष्ट नीली मोहर थी.

वासिलीसा की आंखों में वॉलपेपर के हरे गुलदस्ते कुछ उछले, और जब भेड़िया कागज़ वापस ले रहा था तो उसने कहा:

“माफ़ कीजिए, प्लीज़, मगर मेरे पास कुछ भी नहीं है...”

भेड़िये ने जेब से काली, अच्छी तरह तेल लगी हुई ब्राउनिंग निकाली और उसे वसिलीसा की ओर मोड़ दिया. वान्दा हौले से चीखी: “आय”. विकृत आदमी के हाथ में मशीन के तेल से चमचमाती, लम्बी और तेज़ ब्राउनिंग प्रकट हो गई. वसिलीसा ने अपने घुटने मोड़े और अपनी ऊंचाई से कुछ छोटा हो गया. बिजली की रोशनी न जाने क्यों चमकदार-सफ़ेद होकर खुशी से भभक उठी.

“क्वार्टर में कौन है?” भेड़िये ने कुछ भर्राई आवाज़ में पूछा.

“कोई नहीं है,” वसिलीसा ने सफ़ेद पड़ गए होठों से जवाब दिया, “बस मैं और बीबी.”

“चलो, दोस्तों, - देखो, मगर फुर्ती से,” अपने साथियों की ओर मुड़ते हुए भेड़िया भर्राया, “टाईम नहीं है.”

भीमकाय व्यक्ति ने फ़ौरन एक संदूक झकझोरा, डिब्बे की तरह, और विकृत आदमी भट्टी की तरफ़ लपका. रिवॉल्वर्स छुप गए. विकृत आदमी दीवार पर मुट्ठियों से खटखट कर रहा था, उसने एक झटके में भट्टी का ढक्कन खोला और काले ढक्कन से हल्की गर्माहट की लहर बाहर आई.

“कोई हथियार?” भेड़िये ने पूछा.

“कसम से...माफ़ कीजिये, हथियार कैसे...”

“नहीं हैं हमारे पास,” एक ही सांस में वान्दा की परछाई ने पुष्टि की.

“सच सच बता दो, वरना कभी देखा है, किसी आदमी को गोली मारते हुए?” भेड़िये ने ज़ोर देकर कहा...

“ऐ ख़ुदा ...कहाँ से आये हथियार?

अध्ययन कक्ष में हरा लैम्प जल उठा, और अलेक्सांद्र-II ने अपनी फौलादी आत्मा की गहराई तक तैश में आकर तीनों देखा. अध्ययन कक्ष की हरियाली में वसिलीसा ने ज़िंदगी में पहली बार महसूस किया कि तेज़ी से चकराते दिमाग से साथ मूर्च्छा का पूर्वानुमान कैसे होता है. वे तीनों सबसे पहले वॉलपेपर्स की ओर लपके. भीमकाय ने बुकशेल्फ से आसानी से, खिलौनों की तरह एक के बाद एक किताबों के गट्ठे फेंकना शुरू कर दिया, और छहों हाथ दीवारों पर खटखट करते हुए उन्हें टटोलने लगे...टुप्...टुप्... दीवार से खोखली आवाज़ आती रही. टुक्, अचानक गुप्त स्थान से प्लेट ने जवाब दिया. भेड़िये की आंखों में खुशी चमक उठी.

“मैंने क्या कहा था?” वह बिना आवाज़ के फुसफुसाया. भीमकाय ने अपने भारी पैरों से कुर्सी का चमड़ा फाड़ दिया, वह लगभग छत तक ऊंचा हो गया, भीमकाय की उँगलियों के नीचे कुछ बजा, कुछ टूटा, और उसने दीवार से प्लेट बाहर खींच ली. डोरी से बंधा हुआ पैकेट भेड़िये के हाथों में आ गया. वसिलीसा लड़खड़ाया और दीवार से टिक गया. भेड़िया सिर हिलाने लगा और अधमरे वसिलीसा की तरफ देखते हुए बड़ी देर तक हिलाता रहा.

“क्या रे तू, छूत के कीड़े,” वह कड़वाहट से कहने लगा, “ कैसा है तू? नहीं है, नहीं है, आह तू, कुत्ते की दुम. कहा कि नहीं है, और खुद ही दीवार में सिक्के गाड़ दिए? तुझे तो मार ही डालना चाहिए!”

“क्या कर रहे हैं?” वान्दा चीखी.

वसिलीसा के साथ कोई अजीब बात हुई, जिसकी वजह से उस पर अचानक भयानक हंसी का दौरा पडा, और यह हंसी भयानक थी, क्योंकि वसिलीसा की नीली आंखों में भय उछल रहा था, और सिर्फ होंठ, नाक और गाल हँस रहे थे.             

“गौर फरमाइए, महानुभावों, कोई गलत काम तो किया नहीं था. यहाँ सिर्फ कुछ बैंक के कुछ कागजात हैं और कुछ छोटी-मोटी चीज़ें हैं...पैसे तो कम हैं...कमाए हुए. वैसे भी, अब तो त्सार के ज़माने की मुद्राएँ बेकार हो चुकी हैं...

वसिलीसा बोल रहा था और भेड़िये की ओर इस तरह देख रहा था, जैसे वह उसे भयानक खुशी प्रदान कर रहा हो.

“तुझे तो गिरफ़्तार करना चाहिए था,” भेड़िये ने निष्कर्षात्मक ढंग से कहा, पैकेट हिलाया और उसे फटे हुए ओवरकोट की अंतहीन जेब में डाल लिया. “चलो, साथियों, दराजों के पास आओ.”

मेज़ की दराजों से, जिन्हें वसिलीसा ने खुद ही खोल दिया था, कागजों के ढेर, कुछ मुहरें, मुद्रित अंगूठियाँ, कार्ड्स, पेन, पोर्टसिगार बाहर गिरे.  कागज हरे कारपेट और मेज़ के लाल कपडे पर बिखर गए, कागज़, सरसराते हुए फर्श पर गिर रहे थे. विकृत व्यक्ति ने  कचरे की बास्केट को उलट दिया. ड्राइंग रूम में जैसे अनमनेपन से दीवारों पर ऊपर-ऊपर टकटक करते रहे. भीमकाय व्यक्ति ने कार्पेट खीँच लिया और फर्श पर पैर पटकने लगा, जिससे लकड़ी के फर्श पर मानो जलने के निशान पड़ गए. बिजली, जो रात में तेज़ हो गई थी, खुशनुमा प्रकाश बिखेर रही थी, और ग्रामोफोन का भोंपू चमक रहा था. वसिलीसा तीनों के पीछे पैरों को घसीटते हुए, एक पैर से दूसरे पर होते हुए चल रहा था. वसिलीसा को एक नीरस शान्ति ने घेर लिया था, और उसके विचार जैसे व्यवस्थित हो रहे थे. शयनकक्ष में अचानक – भगदड़ मच गई: शीशे वाली अलमारी से कम्बलों, चादरों का ढेर बाहर आ गया, गददा सिर के बल खडा हो गया. भीमकाय व्यक्ति अचानक रुक गया, शर्मीली मुस्कराहट बिखेरते हुए नीचे झांकने लगा. अस्तव्यस्त पलंग के नीचे से वसिलीसा के नए, पेटेंट चमड़े की नोक वाले, नर्म चमड़े के जूते झाँक रहे थे. भीमकाय व्यक्ति हँस पडा, शर्माते हुए वसिलीसा की ओर देखने लगा.

“बहुत प्यारे जूते हैं,” उसने बारीक आवाज़ में कहा, “और वे मुझ पर खूब जचेंगे ना?

वसिलीसा सोच भी नहीं पाया था, कि उसे क्या जवाब दे, कि भीमकाय व्यक्ति झुका और उसने प्यार से जूते उठा लिए. वसिलीसा सिहर गया.

“वे शेवरॉन है, महाशय,” उसने कहा, खुद ही न समझ पाते हुए कि क्या कह रहा है.

भेड़िया उसकी तरफ़ मुड़ा, तिरछी आंखों में कटुतापूर्ण क्रोध तैर गया.

“खामोश, जूं के अंडे,” उसने उदासी से कहा. “खामोश रहो!” अचानक चिड़चिड़ाते हुए उसने दुहराया, “तू तो हमारा शुक्रिया अदा कर, कि खज़ाना छुपाने के जुर्म में हमने तुझे चोर या डाकू की तरह गोली नहीं मार दी. तू चुप रह,” एकदम पीले पड़ गए वसिलीसा की तरफ़ बढ़ते हुए और आंखों से भयानक चिंगारियां बरसाते हुए वह कहता रहा. “चीज़ें जमा कर लीं, खा-खा के थोबड़ा सूअर की तरह लाल बना लिया, और तू क्या नहीं देख रहा है कि भले आदमी पैरों में क्या पहनते हैं? देख रहा है? उसके पैर जम गए हैं, फटे हुए हैं, वह खाईयों में तेरे लिए सड़ता रहा है, और तू अपने क्वार्टर में बैठा था, ग्रामोफोन सुनता रहा. ऊ-ऊ, तेरी तो माँ को,” उसकी आंखों में वसिलीसा के कान पे झापड़ मारने की ख्वाहिश झलक उठी, उसने हाथ हिलाया. वान्दा चीखी: “आप क्या...” भेड़िया सम्माननीय वसिलीसा को मारने की हिम्मत न कर सका और सिर्फ उसके सीने पर मुट्ठी गड़ा दी. नुकीली मुट्ठी के प्रहार से तेज़ दर्द और बेचैनी महसूस करते हुए विवर्ण वसिलीसा लड़खड़ा गया. 

“तो ये है क्रान्ति,” वसिलीसा ने अपने गुलाबी और सधे हुए दिमाग से सोचा, “अच्छी है क्रान्ति. उन सबको तो लटका देना चाहिए था, मगर अब देर हो चुकी है...”

“वसिल्को, पहन ले,” भेड़िया प्यार से भीमकाय व्यक्ति से मुखातिब हुआ. वह स्प्रिंग वाले गद्दे पर बैठ गया और उसने अपने गंदे जूते उतार दिए. वसिलीसा के जूते उसकी भूरी, मोटी जुराबों पर नहीं आ रहे थे. “कजाक को मोज़े दो,” भेड़िये ने कठोरता से वान्दा से कहा. वह फ़ौरन पीली अलमारी की निचली दराज़ के पास बैठ गई और मोज़े बाहर निकाले. भीमकाय व्यक्ति ने अपनी लाल उँगलियों और काले फोड़ों वाले पैर दिखाते हुए भूरी जुराबें निकाल फेंकी, और मोज़े चढ़ा लिए. मुश्किल से जूते पैरों में चढ़े, बाएं जूते की लेस चर्र से टूट गई. भाव विभोर, बच्चों की तरह मुस्कुराते हुए, उसने बची खुची लेस खींच कर बांधी और खडा हो गया. और, जैसे, क्वार्टर में एक-एक कदम चलते हुए इन पाँचों विचित्र व्यक्तियों के बीच तनावपूर्ण संबधों में कुछ टूट गया. सहजता आ गई. विकृत आदमी ने भीमकाय व्यक्ति के जूतों की ओर  देखकर अचानक चुपके से वसिलीसा की पतलून निकाल ली, जो बेसिन की बगल में कील पर लटक रही थी. भेड़िये ने सिर्फ एक बार वसिलीसा पर संदिग्ध नज़र डाली, - कहीं वह कुछ कहेगा तो नहीं, - मगर वसिलीसा और वान्दा ने कुछ भी नहीं कहा, और उनके चेहरे एक जैसे सफ़ेद थे, बड़ी-बड़ी आंखों वाले. शयन कक्ष रेडीमेड कपड़ों की दुकान के किसी कोने की तरह लग रहा था. विकृत व्यक्ति सिर्फ धारियों वाले फटे कच्छे में खड़े-खड़े रोशनी में पतलून को देख रहा था.

“महंगी चीज़ है, मोटे ऊन की है...” उसने नकीली आवाज़ में कहा, नीली कुर्सी पर बैठ गया, और पहनने लगा. भेड़िये ने अपने गंदे कोट को वसिलीसा के भूरे जैकेट से बदल लिया और यह कहते हुए वसिलीसा को कुछ कागज़ लौटाए: “ये कागज़ लीजिये, महाशय, हो सकता है, ज़रुरत पड़े”. – मेज़ से ग्लोब के आकार की कांच की घड़ी उठाई, जिसमें मोटे-मोटे, काले रोमन अंक चमक रहे थे.                    

भेड़िये ने ओवरकोट खींच लिया, और ओवरकोट के नीचे से घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही  थी.

घड़ी ज़रुरत की चीज़ है. बिना घड़ी के – जैसे बिना हाथ के,” वसिलीसा के प्रति अधिकाधिक नर्म पड़ते हुए भेड़िया विकृत व्यक्ति से कह रहा था, “रात को देख लो, कि कितने बजे हैं -  इसके बिना तो काम चल ही नहीं सकता.”

इसके बाद सब चल पड़े और ड्राइंग रूम से होकर वापस अध्ययन कक्ष में आये. वसिलीसा और वान्दा साथ-साथ, खामोशी से उनके पीछे-पीछे चल रहे थे. अध्ययन कक्ष में भेड़िया कनखियों से देखते हुए कुछ सोचने लगा, फिर उसने वसिलीसा से कहा:

“आप, महाशय, हमें एक रसीद दीजिये...(कोई ख़याल उसे परेशान कर रहा था, उसने एकॉर्डियन की तरह माथा सिकोड़ लिया.)

“क्या?” वसिलीसा फुसफुसाया.

“रसीद, कि आपने हमें ये चीज़ें दी हैं,” भेडिये ने ज़मीन की तरफ़ देखते हुए समझाया.

वसिलीसा के चेहरे का रंग बदल गया, उसके गाल लाल हो गए.

“ऐसे कैसे...मैं तो...(वह चिल्लाना चाहता था : “क्या, मैं रसीद भी दूं?! - मगर उसके मुँह से ये शब्द ही नहीं निकले, बल्कि दूसरे ही शब्द निकले.) आप... मतलब, आपको हस्ताक्षर करने चाहिए, ऐसा कहें...”

“ओय, तुझे तो कुत्ते की तरह मारना चाहिए. ऊ-ऊ, खून चूसने वाले...मैं जानता हूँ कि तू क्या सोच रहा है. जानता हूँ. अगर तेरी हुकूमत होती, तो तू हमें ख़त्म कर देता, कीड़ों के समान. ऊ-ऊ, देख रहा हूँ, कि तुझसे तो प्यार से बात ही नहीं की जा सकती. छोकरों, उसे दीवार के पास खड़ा करो. ऊ. ऐसे मारूंगा...”

वह क्रोधित हो गया और घबराकर अपने हाथ से वसिलीसा की गर्दन पकड़कर उसे दीवार से दबा दिया, जिससे वसिलीसा फ़ौरन लाल हो गया.

“आय!” वान्दा खौफ से चीखी और उसने भेड़िये का हाथ पकड़ लिया, “आप क्या कर रहे हैं. मेहेरबानी कीजिये...वास्या, लिख दे, लिख दे...”

भेड़िये ने इंजीनियर का गला छोड़ दिया, और चरचराहट के साथ, जैसे स्प्रिंग पर हो, कॉलर एक ओर को उछल गई. वसिलीसा को खुद भी पता नहीं चला कि वह कैसे कुर्सी पर बैठ गया. उसके हाथ कांप रहे थे. उसने नोटबुक से एक पन्ना फाड़ा, पेन को स्याही में डुबोया. खामोशी छा गई, और खामोशी में भेड़िये के ओवरकोट में कांच के ग्लोब की टिकटिक सुनाई दे रही थी.

“कैसे लिखना है?” वसिलीसा ने कमजोर, भर्राई हुई आवाज़ में पूछा.

भेड़िया सोच में पड़ गया, आंखें झपकाने लगा.

लिखो...कजाक डिविजन के स्टाफ हेडक्वार्टर के आदेशानुसार...चीज़ें...चीज़ें...इस प्रकार से...हस्तांतरित कीं...”

“इस प्रका...” किसी तरह वसिलीसा ने घसीटा और फ़ौरन चुप हो गया.

“तलाशी के दौरान दीं. मुझे कोई शिकायत नहीं है. और हस्ताक्षर करो...”

अब वसिलीसा ने बची-खुची हिम्मत बटोरी और आंखें चुराते हुए पूछा:

“मगर किसे?

भेड़िये ने संदेह से वसिलीसा को देखा, मगर अपने गुस्से को दबाया और सिर्फ एक आह भरी:

“लिखो: प्राप्त कीं ...अच्छी हालत में प्राप्त कीं निमालिका (उसने कुछ सोचा और विकृत व्यक्ति की ओर देखा)...किरपाती और हेटमन उरागान.”

धुंधली आंखों से कागज़ को देखते हुए, उसके आदेशानुसार लिख दिया. लिखने के बाद, हस्ताक्षर के स्थान पर थरथराते हाथ से ‘वसिलीस लिख दिया, कागज़ भेड़िये की ओर बढ़ा दिया. उसने कागज़ लिया और गौर से उसे देखने लगा.

इसी समय दूर, ऊपर वाली सीढ़ियों पर कांच के दरवाज़े खड़खड़ाने लगे, पैरों की आहट सुनाई दी और मिश्लायेव्स्की की आवाज़ गूँजी.

भेड़िये का चेहरा फ़ौरन बदल गया, काला पड़ गया. उसके साथी भी हिल गए. भेड़िया फिर लाल हो गया और धीरे से चिल्लाया : “श्श” उसने जेब से ब्राउनिंग निकाली और वसिलीसा की ओर तान दी, और वह पीड़ा से मुस्कुराया. दरवाजों के पीछे, कॉरीडोर में कदमों की आवाज, चिल्लाने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं.  फिर बोल्ट, हुक, कुंडी बजी – दरवाज़ा बंद हो गया. भागते कदमों की आवाज़, मर्दों के हंसने की आवाज़ आई. इसके बाद कांच का दरवाज़ा खट्ट से बंद हुआ, धीमे होते हुए कदम ऊपर चले गए, और सब कुछ शांत हो गया. विकृत आदमी प्रवेश कक्ष में गया, दरवाज़े की तरफ़ झुका और ध्यान से सुनने लगा. जब वापस आया, तो उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से भेड़िये की ओर देखा, और सब, सिकुड़ते हुए प्रवेश कक्ष में निकलने लगे. वहाँ, प्रवेश कक्ष में, भीमकाय व्यक्ति ने तंग जूतों में अपनी उंगलियाँ हिलाईं और बोला;

“ठण्ड लगेगी.”

उसने वसिलीसा के गलोश पहन लिए.

भेड़िया वसिलीसा की तरफ़ मुड़ा और आंखें घुमाते हुए नर्म आवाज़ में बोला:

“आप, ना, महाशय...आप चुप ही रहना कि हम आपके पास आये थे. अगर हमारे बारे में किसीसे भी कुछ कहा, तो हमारे छोकरे आपको मारेंगे. सुबह तक क्वार्टर से बाहर मत निकलना, नहीं तो ख़तरे में पड़ जाओगे...”

“माफी चाहते हैं,” लटकती हुई नाक वाला सड़ी हुई आवाज़ में बोला.

गुलाबी भीमकाय ने कुछ नहीं कहा, उसने सिर्फ सकुचाते हुए वसिलीसा की ओर देखा, और कनखियों से, खुशी से – चमचमाते हुए गलोशों की ओर. वे वासिलीसा के दरवाजे से कॉरीडोर से होकर रास्ते वाले दरवाज़े की ओर गए न जाने क्यों पंजों के बल, शीघ्रता से, एक दूसरे को धकियाते हुए. कुण्डियाँ खड़खड़ाईं, काला आसमान झाँकने लगा, और वासिलीसा ने ठन्डे हाथों से बोल्ट बंद कर दिए, उसका सिर घूम रहा था, और पल भर के लिए उसे लगा, जैसे वह सपना देख रहा हो. उसका दिल डूबने लगा, फिर जल्दी, जल्दी धड़कने लगा. प्रवेश कक्ष में वान्दा सिसक रही थी. वह संदूक पर गिरी थी, दीवार पर सिर पटक रही थी, मोटे-मोटे आंसू उसके चेहरे पर बह रहे थे.

“खुदा! ये सब क्या है?...खुदा. खुदा. वास्या...दिन दहाड़े. ये क्या हो रहा है?...”

वास्या उसके सामने पत्ते की तरह काँप रहा था, उसका चेहरा विकृत हो गया था.

“वास्या,” वान्दा चीखी, “पता है...ये कोइ स्टाफ़-वाफ़ नहीं था, फ़ौज नहीं थी. वास्या! ये डाकू थे!”

“मैं खुद, ख़ुद भी समझ गया था,  हताशा से हाथ हिलाते हुए वसिलीसा बड़बड़ाया.  

“माय गॉड!” वान्दा चीखी. “फ़ौरन भागो, इसी पल, इसी पल रिपोर्ट करना होगा, उन्हें पकड़ना होगा. पकड़ना होगा! खुदाई माँ! सारी चीज़ें. सब! सब! और कम से कम कोई तो, कोई तो... आँ?” वह थरथराने लगी, संदूक से फर्श पर गिर गई, हाथों से चेहरा ढांक लिया. उसके बाल बिखर गए, कुर्ते के बटन पीछे से खुल गए.

“आखिर कहाँ जाऊँ, कहाँ?” वसिलीसा ने पूछा.

“माय गॉड, स्टाफ हेडक्वार्टर, ऑफिसर्स के पास! रिपोर्ट देना होगा. फ़ौरन. ये क्या हो रहा है?!”

वसिलीसा ने अपनी ही जगह पर पैर पटके, अचानक दरवाज़े की ओर लपका. वह कांच के दरवाज़े से टकराया और शोर मचाने लगा.

 

**** 

 

शिर्विन्स्की और एलेना को छोड़कर बाकी सभी वसिलीसा के क्वार्टर में घुसे थे. वसिलीसा, विवर्ण चेहरे से दरवाज़े में खड़ा था. मिश्लायेव्स्की ने, टांगें फैलाकर अनजान मेहमानों द्वारा फेंके गए जूतों और चीथड़ों की ओर  नज़र डाली, वसिलीसा की तरफ़ मुड़ा.

“लिख लो. सामान तो गया. ये डाकू थे. खुदा का शुक्र करो कि ज़िंदा बच गए. मुझे, सच कहूं तो, अचरज होता है, कि आप इतने सस्ते में छूट गए.”    

“खुदा....उन्होंने हमारे साथ क्या किया!” वान्दा ने कहा.

“उन्होंने मुझे मौत की धमकी दी.”

“शुक्र है, कि धमकी पर अमल नहीं किया. पहली बार ऐसी हरकत देख रहा हूं.”

“बड़ी सफ़ाई से किया है,” करास ने हौले से पुष्टि की.

“अब किया क्या जाए?...” वसिलीसा ने बुझते हुए पूछा. “क्या रिपोर्ट करने भागूँ?..कहाँ?...खुदा के लिए, विक्तर विक्तरविच, सलाह दीजिये.”

मिश्लायेव्स्की गुरगुराया, इसके बारे में सोचा.

“मैं आपको सलाह दूँगा, कि कहीं भी शिकायत न करें,” उसने कहा, “पहली बात, उन्हें पकड़ नहीं पायेंगे – एक.” उसने लम्बी उंगली मोड़ी, - “दूसरी बात...”

“वास्या, तुम्हें याद है, उन्होंने कहा था, कि अगर रिपोर्ट करोगे, तो मार डालेंगे?

“ओह, ये बकवास है,” मिश्लायेव्स्की ने नाक-भौंह चढ़ा ली, “कोई नहीं मारेगा, मगर, कह रहा हूँ, कि उन्हें नहीं पकड़ेंगे, और कोई पकड़ने भी नहीं जाएगा, और दूसरी बात,” उसने दूसरी उंगली मोड़ी, “आखिर, आपको बताना होगा कि आपके यहाँ से क्या लेकर गए हैं, आप कहेंगे, शाही मुद्राएँ... तो, आप वहाँ, उनके स्टाफ़ हेडक्वार्टर में या कहीं और, और, मुमकिन है, कि वे दूसरी तलाशी का हुक्म दे दें.”

“हो सकता है, बहुत मुमकिन है,” उच्च श्रेणी के विशेषज्ञ निकोल्का ने पुष्टि की.

अस्त व्यस्त, मूर्च्छा के बाद पानी से भीगे वसिलीसा ने सिर झुका लिया, वान्दा चौखट का सहारा लिए चुपचाप रोने लगी, सभी को उन पर दया आई.

दरवाज़े के पास खड़े लरिओसिक ने गहरी सांस ली और धुंधली आंखें घुमाईं.

“तो, हरेक का अपना-अपना दुःख होता है,” वह फुसफुसाया.

“उनके पास क्या हथियार थे?” निकोल्का ने पूछा.

“माय गॉड. दोनों के पास रिवॉल्वर थे, और तीसरा... वास्या, तीसरे के पास कुछ नहीं था?

“दो के पास रिवॉल्वर थे,” वसिलीसा ने क्षीणता से पुष्टि की.

“कौन से, गौर नहीं किया?” निकोल्का ने कामकाजी भाव से पूछा.

“मैं तो नहीं जानता,” आह लेकर वसिलीसा ने जवाब दिया, “मैं सिस्टम के बारे में कुछ नहीं जानता. एक बड़ी, काली, दूसरी छोटी, चेन वाली.”

“चेन,” वान्दा ने आह भरी.

निकोल्का ने भौंहे सिकोड़ लीं और कनखियों से, पंछी की तरह, वसिलीसा की ओर देखा. उसने इधर-उधर पैर पटके, फिर बेचैनी से सरका और चुपचाप दरवाज़े की ओर बढ़ा. लरिओसिक उसके पीछे हो लिया. लरिओसिक डाइनिंग रूम तक पहुँचा भी नहीं था, जब निकोल्का के कमरे से कांच के टूटने की आवाज़ और निकोल्का की चीख सुनाई दी. लरिओसिक उसी तरफ़ लपका. निकोल्का के कमरे में तेज़ प्रकाश हो रहा था, खुले हुए रोशनदान से ठंडी हवा का झोंका आ रहा था और एक बड़ा छेद बन गया था, जिसे बदहवासी में खिड़की की सिल से गिरते हुए निकोल्का ने घुटनों से बनाया था, निकोल्का की आंखें बदहवासी से इधर-उधर घूम रही थीं.   

“क्या सचमुच?” हाथ उठाकर लरिओसिक चीखा, “ये तो सचमुच का जादू टोना है!”

निकोल्का फ़ौरन कमरे से बाहर भागा, अध्ययन कक्ष से, किचन से स्तब्ध अन्यूता के सामने से, जो चिल्ला रही थी: “निकोल, निकोल, कहाँ जा रहा है बिना टोपी के? गॉड, अब और क्या हो गया है?...” और पोर्च से होकर आँगन में उछला. अन्यूता, ने सलीब का निशान बनाते हुए पोर्च का दरवाज़ा बंद कर दिया, किचन में भागी और खिड़की के कांच से सट गई, मगर निकोल्का फ़ौरन आंखों से ओझल हो गया.

वह तेज़ी से बाईं ओर मुड़ा, नीचे की तरफ भागा और बर्फ़ के ढेर के सामने रुक गया जो दीवारों के बीच के प्रवेश मार्ग को अवरुद्ध कर रहा था. बर्फ़ का ढेर एकदम अनछुआ था. “कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ”, निकोल्का घबराहट से बड़बड़ाया और बड़ी हिम्मत से बर्फ के ढेर में घुस गया. उसे लगा, कि उसका दम घुट जाएगा. वह बड़ी देर तक बर्फ को मसलता रहा, थूकता रहा और सूघता रहा, आखिरकार, बर्फ़ की बाधा को तोड़ दिया और पूरा सफ़ेद, अनछुए तंग प्रवेश मार्ग पर रेंग गया, ऊपर की ओर देखा : ऊपर, जहाँ उसके कमरे की खतरनाक खिड़की से रोशनी गिर रही थी, छड़ों के काले सिरे और उनकी नुकीली, घनी परछाइयाँ दिखाई दे रही थी, मगर डिब्बा नहीं था. इस आख़िरी उम्मीद से कि शायद फंदा टूट गया हो, निकोल्का, हर मिनट घुटनों के बल गिरते हुए, टूटी हुई ईंटों पर टटोलता रहा. डिब्बा नहीं था.

अब निकोल्का के दिमाग़ में तीव्र प्रकाश कौंधा: “आ-आ”, - वह चिल्लाया और आगे फेंसिंग की ओर रेंग गया, जो इस तंग मार्ग को रास्ते की तरफ से बंद करती थी. वह वहाँ तक रेंगा और हाथों से धक्के देता रहा, बोर्ड दूर हट गया, और एक चौड़ा छेद काली सड़क पर झांकता नज़र आया. सब समझ में आ गया...उन्होंने तंग मार्ग को जाने वाले बोर्ड उखाड़ दिए, यहाँ पहुँच गए और , स-म-झ रहा हूँ, स्टोर रूम से वसिलीसा के घर में घुसना चाह रहे थे, मगर वहाँ खिड़की पर जाली लगी है. 

निकोल्का, पूरा सफ़ेद, चुपचाप किचन में आया.

“या खुदा, आओ, कम से कम तुम्हें साफ़ कर दूं...” अन्यूता चीखी.

“मुझसे दूर हट जाओ, खुदा के लिए,” निकोल्का ने जवाब दिया और अपने सुन्न पड़ गए हाथों को पतलून से पोंछते हुए, कमरों में गया. “लरिओन, मेरे चेहरे पर झापड़ मारो,” वह लरिओसिक से मुखातिब हुआ. – उसने आंखें झपकाईं, फिर उन्हें बाहर निकाला और कहा:

“क्या कह रहे हो, निकलाशा? इतनी निराशा क्यों?” वह हौले-हौले निकोल्का की पीठ पर हाथ फेरने लगा और आस्तीन से बर्फ झाड़ने लगा.

“ये बताने की तो ज़रुरत ही नहीं है, कि अल्योशा मेरा सिर काट देगा, अगर, खुदा करे, वह अच्छा हो जाए तो,” निकोल्का कहता रहा, “- मगर सबसे महत्वपूर्ण...नाय-तुर्स की पिस्तौल!...

इससे तो अच्छा होता कि मुझे ही मार डालते, कसम से!...ये खुदा ने मुझे सज़ा दी है, इसलिए कि मैंने वसिलीसा का मज़ाक उड़ाया था. और वसिलीसा के लिए भी अफ़सोस है, मगर तुम समझ रहे हो ना, कि उन्होंने इसी रिवॉल्वर से उस पर काबू कर लिया. हालांकि, वैसे, उसे तो बिना किसी रिवॉल्वर के लूटा जा सकता है, किसी चिपचिपे कागज़ की तरह...ऐसा आदमी है वो. – एख...तो, ऐसा है किस्सा. कागज़ लाओ, लरिओन, खिड़की सील करेंगे.”

 

 

****   

 

रात को कीलों, कुल्हाड़ी और हथौड़े के साथ निकोल्का, मिश्लायेव्स्की और लरिओसिक तंग रास्ते से बाहर निकले. तंग रास्ते को छोटे-छोटे तख्तों से अच्छी तरह बंद कर दिया गया था. खुद निकोल्का तैश में आकर लम्बी, मोटी कीलें इस तरह से ठोंक रहा था कि उनके नुकीले सिरे बाहर की ओर निकलें. इसके बाद बरामदे में मोमबत्तियां लेकर निकले, और फिर निकोल्का, मिश्लायेव्स्की और लरिओसिक ठन्डे स्टोर रूम से अटारी पर चढ़ गए. क्वार्टर के ऊपर, अटारी में, खतरनाक रूप से धम्-धम् करते हुए वे हर जगह चढ़ गए, गरम पाईपों के बीच से झुकते हुए, कपड़ों के बीच से, और छत वाली खिड़की को बंद कर दिया.   

अटारी पर हो रहे अभियान के बारे में जानकर, बेहद दिलचस्पी दिखाते हुए वसिलीसा भी उनके साथ शामिल हो गया और मिश्लायेव्स्की के कामों की सराहना करते हुए शहतीरों के बीच चढ़ गया.   

“कितने अफ़सोस की बात है कि आपने हमें किसी तरह कुछ बताया ही नहीं. वान्दा मिखाइलव्ना को चोर दरवाज़े से हमारे पास भेजना चाहिए था,” मोमबत्ती से मोम गिराते हुए निकोल्का ने कहा.   

“खैर, भाई, ये इतना आसान नहीं था,” मिश्लायेव्स्की ने जवाब दिया, “जब वे क्वार्टर के भीतर आ चुके थे, तो, भाई, बात हाथ से निकल चुकी थी. तुम क्या सोचते हो, इन्होने अपने आप को बचाने की कोशिश नहीं की होगी? बेशक. तुम क्वार्टर में घुसते, उससे पहले ही पेट में गोली मार देते. लो, बन गए मुर्दा. तो. और उन्हें घुसने ही न देना, ये एक अलग ही बात होती.”

“दरवाज़े से ही उन्होंने गोली मारने की धमकी दी, विक्तर विक्तरविच,” वसिलीसा ने ईमानदारी से कहा.

“गोली तो कभी नहीं चलाते,” मिश्लायेव्स्की ने हथौड़ा बजाते हुए कहा, “किसी हालत में नहीं. पूरी सड़क का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेते.”

देर रात में, करास लिसोविचों के क्वार्टर में ल्युद्विक XIV की तरह आराम फरमा रहा था. इससे पहले इस तरह की बातचीत हुई थी:

“नहीं आयेंगे आज, आप भी ना!” मिश्लायेव्स्की कह रहा था.

“नहीं, नहीं, नहीं,” वान्दा और वसिलीसा ने सीढ़ियों से एक साथ कहा, “हम विनती करते हैं, प्रार्थना करते हैं कि आपसे या फ़्योदर निकलायेविच से, प्रार्थना करते हैं!...आपको करना क्या है? वान्दा मिखाइलव्ना आपको चाय पिलाएगी. आरामदेह बिस्तर लगा देगी. बहुत बहुत प्रार्थना करते हैं कि कल भी आयें. मेहेरबानी कीजिये, बिना मर्द के क्वार्टर में!”

“मैं तो किसी भी हालत में सो ही नहीं पाऊँगी,” वान्दा ने अंगोरा शॉल में अपने आप को लपेटते हुए कहा.

“मेरे पास कन्याक है – गरमाएंगे,” अप्रत्याशित रूप से, कुछ मस्ती भरे अंदाज़ में वसिलीसा ने कहा.

“जाओ, करास,” मिश्लायेव्स्की ने कहा.

परिणामस्वरूप, करास आराम फरमा रहा था. भेजा और वनस्पति तेल वाला सूप, जैसी कि अपेक्षा थी, सिर्फ लक्षण थे कंजूसी की उस घृणित बीमारी के, जिससे वसिलीसा ने अपनी पत्नी को संक्रमित किया था. असल में, क्वार्टर के गहरे कोनों में ख़ज़ाने छुपे हुए थे, जिनके बारे में सिर्फ वान्दा जानती थी. डाइनिंग रूम में मेज़ पर नमकीन मशरूम का डिब्बा, बीफ़, चैरी का जैम, और शुस्तोव की असली, घंटी वाली, बढ़िया कन्याक थी. करास ने वान्दा मिखाइलव्ना के लिए एक ग्लास की मांग की और उसमें कन्याक डाली.

“पूरा नहीं, पूरा नहीं,” वान्दा चिल्लाई.

वसिलीसा बदहवासी से हाथ हिलाकर, करास की बात मानते हुए, एक गिलास पी गया.

“तुम भूलो मत, वास्या, कि तुम्हारे लिए हानिकारक है,” वान्दा ने नर्मी से कहा.

करास के अधिकारपूर्वक समझाने के बाद, कि कन्याक किसी को भी कोई नुक्सान नहीं पहुंचाती, और उसे खून की कमी वाले लोगों को भी दूध के साथ दिया जाता है, वसिलीसा ने दूसरा गिलास पी लिया, और उसके गाल गुलाबी हो गए, और माथे पर पसीना आ गया. करास पाँच गिलास पी गया और बहुत अच्छे ‘मूड में आ गया. ‘अगर उसे अच्छी तरह खिलाया जाए, तो वह देखने में इतनी भी बुरी नहीं है,” उसने वान्दा की ओर देखते हुए सोचा.

इसके बाद करास ने लीसविचों के क्वार्टर की व्यवस्था की प्रशंसा की और तुर्बीनों के क्वार्टर में ‘सिग्नल’ भेजने की व्यवस्था पर चर्चा की: एक घंटी किचन से, दूसरी प्रवेश कक्ष से. ज़रा सी भी बात हो – ऊपर घंटी बजेगी. और, गौर फ़रमाइए, दरवाज़ा खोलेगा मिश्लायेव्स्की, ये बिल्कुल ही अलग बात होगी.

करास क्वार्टर की खूब तारीफ़ कर रहा था: आरामदेह है, और फर्नीचर से अच्छी तरह सजाया गया है, मगर एक कमी है – ठंड है.

रात को खुद वसिलीसा लकडियाँ खींच कर लाया और अपने हाथों से ड्राइंग रूम में भट्टी जलाई. करास कपड़े उतार कर सोफ़े पर दो शानदार चादरों के बीच लेट गया. वह बहुत अच्छा और आरामदेह महसूस कर रहा था. कमीज़ और गैलिस वाली पतलून पहने वसिलीसा उसके पास आया और यह कहते हुए कुर्सी पर बैठ गया:

“पता है, नींद नहीं आ रही है, क्या आपके साथ थोड़ी सी बातचीत करने की इजाज़त देंगे?   

भट्टी पूरी जल गई, गोलमटोल वसिलीसा ने, जो अब शांत होकर कुर्सी में बैठा था, आह भरी और कहा:

“तो, ऐसी है बात, फ़्योदर निकलायेविच. जो कुछ भी कड़ी मेहनत से जमा किया था, एक शाम को किन्हीं बदमाशों की जेबों में चला गया...बल प्रयोग से. ऐसा न सोचिये कि मैं क्रान्ति को नकार रहा हूँ, ओह नहीं, मैं उन ऐतिहासिक कारणों को अच्छी तरह समझता हूँ, जिनके कारण ये सब हो रहा है.”   

वसिलीसा के चेहरे और उसकी गैलिस के बकल्स पर लाल चमक खेल रही थी. चेहरे पर विनम्र एकाग्रता का भाव बनाए हुए, कन्याक की मीठी अलसाहट में करास ऊंघने लगा...

“मगर, आप खुद भी इस बात से राज़ी होंगे. हमारे यहाँ रूस में, बेशक, बेहद पिछड़े हुए देश में, क्रान्ति पुगाचेविज़्म में बदल गई है...आखिर, ये हो क्या रहा है...कुछ दो वर्षों के भीतर हमने मानव के और नागरिक के न्यूनतम अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून का सहारा खो दिया है. अँगरेज़ कहते हैं...”   

“म्-म्, अँगरेज़...वे, बेशक,” करास बुदबुदाया, ये महसूस करते हुए कि एक मुलायम दीवार उसे वसिलीसा से अलग कर रही है. 

“...और यहाँ, कैसा ‘तुम्हारा घर – तुम्हारा किला, जब आपके अपने क्वार्टर में सात तालों के पीछे, इस बात की गारंटी नहीं है कि बदमाशों का गिरोह, वैसा, जैसा आज मेरे यहाँ आया था, आपको न सिर्फ संपत्ति से, बल्कि, आपकी ज़िंदगी से भी वंचित कर देगा?!”

“सिग्नल-सिस्टम और शटर्स के भरोसे रहेंगे,” मरियल, उनींदी आवाज़ में करास ने जवाब दिया.

“मगर, फ़्योदर निकलायेविच! यहाँ, प्यारे, बात सिर्फ सिग्नल-सिस्टम की नहीं है! किसी भी सिग्नल-सिस्टम से आप उस पतन और विघटन को नहीं रोक पायेंगे, जिन्होंने अब मानव की आत्मा में घोंसला बना लिया है. माफ़ कीजिये, सिग्नल-सिस्टम – एक विशेष मामला है, और मान लीजिये, यदि वह बिगड़ जाए तो?

“दुरुस्त कर देंगे,” खुश मिजाज़ करास ने जवाब दिया.

“मगर पूरी ज़िंदगी सिग्नल-सिस्टम बनाते रहने और किन्हीं रिवॉल्वर्स के सहारे तो नहीं रहा जा सकता. बात ये नहीं है. मैं एक विशेष घटना को लेकर एक आम बात कह रहा हूँ. बात ये है कि सबसे महत्वपूर्ण बात, व्यक्तिगत संपत्ति के प्रति आदर की भावना समाप्त हो गई है. और जब ऐसा है, तो समझ लो, किस्सा ख़तम. अगर ऐसा है, तो समझ लो, हम मर गए. मैं स्वभाव से पक्का डेमोक्रेट हूँ और खुद भी जनता का हिस्सा हूँ. मेरे पिता रेलवे में मामूली फोरमैन थे. सब कुछ, जो आप यहाँ देख रहे हैं, और वह सब, जो आज वे बदमाश मुझसे छीन कर ले गए, ये सब मेरे अपने हाथों से कमाया और बनाया गया है. और, यकीन कीजिये, मैं कभी भी पुरानी व्यवस्था के पक्ष में नहीं रहा, बल्कि, मानता हूँ, कि मैं कैडेट हूँ, मगर अब, जब मैंने अपनी आंखों से देख लिया है कि इस सब का अंजाम क्या हो रहा है, तो कसम खाकर कहता हूँ, मेरे दिल में एक कटु विश्वास पनप रहा है, कि हमें सिर्फ एक ही चीज़ बचा सकती है...” करास को लपेटती हुई मुलायम चादर से, एक फुसफुसाहट सुनाई दी...”एकतंत्र. हाँ-आ... सबसे बेरहम डिक्टेटरशिप, जिसकी आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हो... एकतंत्र...”

‘एख, बहक गया ये,’ प्रफुल्लित करास ने सोचा,. “म्- हाँ एकतंत्र – बड़ी चालाक चीज़ है. “ऐहे, -म्” रूई की चादर में लिपटे करास ने कहा.

“आह, दू-दू-दू-दू – हैबियस कोर्पुस, आह, दू-दू-दू-दू . आय, दू-दू ... – रूई के पीछे आवाज़ बुदबुदाई, - “आय, दू-दू-दू-दू, बेकार ही में वे सोचते हैं कि ऐसी स्थिति लम्बे समय तक बनी रह सकती है, आय, दू-दू-दू, और चीखते हैं ‘सलामत रहे’. नहीं-ई! हमेशा ये नहीं चलेगा, और ये सोचना हास्यास्पद होगा, कि...”

“किला इवान-गोरद,” अप्रत्याशित रूप से कैप पहने कमांडर ने वसिलीसा की बात काटी, “सलामत रहे!” 

“और अर्दगान और कारे,” करास ने कोहरे में पुष्टि की, “सलामत रहें!”

वसिलीसा की हल्की हंसी की आवाज़ दूर से आ रही थी.

“सलामत रहें!!”- करास के दिमाग़ में कई आवाजें प्रसन्नता से गा रही थीं.

 

 

16

 

सलामत र-हो. सलामत रहो.

सला-आ-आ-आ-म-त  र-हो ...

तमाशेव्स्की के प्रसिद्ध कोरस की नौ मन्द्र सप्तक आवाजें उठीं.

 

सला-आ-आ-आ-म-त  र-हो ...

 

खनखनाते अवरोही स्वर गूंजे.

“सलामत...सलामत...सलामत...”

तार सप्तक के स्वर कैथेड्रल के गुम्बद तक पंहुच गए.

“देख! देख! खुद पित्ल्यूरा...”

“देख, इवान...”

“ऊ, बेवकूफ़...पित्ल्यूरा तो कब का चौक पर पहुँच चुका है...”

कोरस में सैंकड़ों सिर एक के ऊपर एक चढ़े हुए थे, एक दूसरे को दबा रहे थे, काले भित्ती चित्रों से सजे प्राचीन स्तंभों के बीच कटघरों से लटक रहे थे. गोल-गोल घूमते, परेशान होते, एक दूसरे को धकेलते, कुचलते, कटघरे की ओर लपकते, कैथेड्रल की गहराई में देखने की कोशिश करते, मगर सैंकड़ों सिर, पीले सेबों की तरह, तिहरी, घनी कतारों में लटके हुए थे. गहराई में झूम रही थी हज़ारों सिरों की दमघोटू लहर, और उसके ऊपर तैर रहे थे, झुलसते हुए, पसीना और भाप, लोभान का धुँआ, सैंकड़ों मोमबत्तियों की कालिख, कतारों में लटके हुए भारी भारी लैम्पों की कालिख. भूरे-नीले रंग के भारी परदे ने छल्लों पर चरमराते हुए नक्काशीदार, मुडे हुए, पुरानी धातु के बने, पूरे सोफ़िया कैथेड्रल की ही तरह काले और उदास, शाही दरवाजों को ढांक दिया. झुम्बरों में मोमबत्तियों की अग्निमय पूँछें चटाचटा रही थीं, झूल रही थीं, धुएँ के धागे जैसी ऊपर को उठ रही थीं. उन्हें पर्याप्त हवा नहीं मिल रही थी. अल्टार के पास अविश्वसनीय अव्यवस्था थी. अल्टार के बगल वाले दरवाजों से, ग्रेनाईट के, घिसे हुए तख्तों पर सुनहरे वस्त्र बिखरे, स्टोल्स (ऊपरी दुपट्टा- अनु.) लहराए. गोल डिब्बों से बैंगनी गोल टोप बाहर निकल रहे थे, दीवारों से, हिलते हुए, पवित्र बैनर्स हटाये जा रहे थे. कहीं भीड़ में प्रोटोडीकन की भयानक, गहरी आवाज़ गूँज रही थी. पादरी का लबादा, बिना सिर का, बिना हाथ का, कूबड़ की तरह भीड़ पर मंडराया, फिर भीड़ में डूब गया, फिर सूती लबादे की एक बांह ऊपर आई, दूसरी भी आई. चौखानों वाले रूमाल लहराए और चोटियों में गुंथ गए.

“फ़ादर अर्कादी, गालों को कस के बांधिए, खतरनाक बर्फ गिर रही है, इजाज़त दीजिये, मैं आपकी मदद करता हूँ.”  

दरवाजों से गुज़रते हुए पवित्र बैनर्स झुके हुए थे, पराजित झंडों की तरह, भूरे चेहरे और रहस्यमय सुनहरे शब्द तैर रहे थे, पूँछें फर्श पर घिसट रही थीं.

“रास्ता दीजिये...”

“प्यारों, कहाँ जा रहे हो?

“मान्का! दब जायेगी...”

“किसके बारे में ?” (नीची आवाज़, फुसफुसाहट). उक्रेनियन पीपल्स रिपब्लिक के बारे में? 

“शैतान ही जाने (फुसफुसाहट).

“जो पोप नहीं, वह बिशप है...”

“सावधानी से...”    

सलामत रहो!!!-

 

खनखनाते हुए, कोरस पूरे कैथेड्रल में गूँज गया...मोटे, लाल तल्माशेव्स्की ने तरल, मोमबत्ती बुझा दी और ट्यूनिंग फोर्क को जेब में डाल दिया. कोरस, सुनहरी चेन वाले, पैरों की उँगलियों तक भूरे सूटों में, अपने भूरे, मानो गंजे हों, सिर हिलाते हुए तार सप्तक के प्रमुख; टेंटुए हिलाते हुए, और घोड़ों जैसे सिर वाले निचले सुरों के गायकों का, अँधेरा, उदास समूहगीत बह चला. सभी दरवाजों से, घने होते हुए, एक दूसरे को दबाते हुए, मानो पानी के भंवर में उबलते हुए, लोग शोर मचा रहे थे.        

चर्च से सफ़ेद चोगे तैरते हुए बाहर आये, यूँ बंधे हुए सिरों से, जैसे दांतों में दर्द हो, हैरान-परेशान आँखें, बैंगनी, खिलौनों जैसी, कार्डबोर्ड की टोपियाँ. फ़ादर अर्कादी, कैथेड्रल का डीन, छोटा-सा, कमजोर आदमी, जिसने भूरे चौखानेदार स्कार्फ़ के ऊपर रत्नजडित टोप पहना था, छोटे-छोटे कदमों से प्रवाह में जा रहा था. फ़ादर की आंखें परेशान थीं, उसकी दाढ़ी थरथरा रही थी.

“कैथेड्रल के चारों ओर जुलूस निकाला जाएगा. मीत्का, दूर हट.”

धीरे! कहाँ जा रहे हो? पादरियों को दबा रहे हो...”

“है उनके लिए काफी जगह.”

“ओर्थोडोक्स वालों!! बच्चे को दबा दिया.”

“कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है....”

“अगर समझ में नहीं आता, तो घर चले जाओ, यहाँ तुम्हारे चुराने के लिए कुछ नहीं है...”

मेरा पर्स मार दिया!!!”

“माफ़ कीजिये, वे तो सोशलिस्ट हैं. मैं ठीक कह रहा हूँ, ना? तो फिर यहाँ पादरी लोग किसलिए?

“देखते रहो.”

“पादरियों को नीला नोट दो तो वे शैतान के लिए भी प्रार्थना करेंगे.”

“अब तो फ़ौरन बाज़ार जाना चाहिए, यहूदियों की दुकानों में तोड़-फोड़ करनी चाहिए. सही मौक़ा है...”

“मैं आपकी जुबान में बात नहीं करता.”  

“महिला को दबा रहे हैं, दबा रहे हैं महिला को...”

“हा-आ-आ-आ...हा-आ-आ-आ...”

बगल वाले गलियारों से, कोरस से, सीढ़ी दर सीढ़ी, कंधे से कंधा सटाए, मुड़ने की गुंजाइश नहीं, हिलने की गुंजाइश नहीं, भीड़ दरवाजों की ओर घिसटती जा रही थी, गोल-गोल घूम रही थी.  दीवारों पर भित्तिचित्रों में प्रदर्शित अज्ञात शताब्दी के मोटी टांगों वाले भूरे विदूषक नाचते हुए और पाईप बजाते हुए जा रहे थे. सभी दरवाजों से, सरसराहट से, शोर-गुल के साथ, अधमरी, कार्बन डाई ऑक्साइड, धुएँ और लोभान से बेहाल भीड़ निकल रही थी. भीड़ में बार-बार औरतों की संक्षिप्त, दर्द भरी चीखें सुनाई दे जातीं. काले मफलरों वाले जेबकतरे अपने कुशल, वैज्ञानिक हाथों को मानव मांस की चिपचिपी, दबी हुई गांठों के बीच घुसाकर एकाग्रता से, कड़ी मेहनत से अपना काम कर रहे थे. हज़ारों टांगें चरमरा रही थीं, भीड़ फुसफुसा रही थी, सरसरा रही थी.

“लार्ड, माय गॉड ...”

“जीज़स क्राइस्ट...जन्नत की महारानी, मदर मैरी...”

“यहाँ आकर खुशी नहीं हो रही है. ये सब क्या हो रहा है?

“खुदा करे, कमीने, तू कुचल जाए...”

“घड़ी, प्यारों, चांदी की घड़ी, मेरे भाईयों. कल ही खरीदी थी...”

“शायद, यह उनकी आख़िरी प्रार्थना थी...”

“चचा, ये किस जुबान में गा रहे थे, मैं समझ नहीं पा रही हूँ?”

“खुदाई जुबान में, आंटी.”

“सख्त आदेश है, कि चर्च में मॉस्को की भाषा का प्रयोग न हो.”

“ये क्या है, माफ़ कीजिये, ऐसा कैसे? क्या ऑर्थोडॉक्स की भाषा में, मातृ भाषा में बात करने की भी इजाजत नहीं है?”

“जड़ से बालियाँ खीच लीं. आधे कान उखाड़ दिए.”

“बोल्शेविक को पकड़ो, कजाकों! जासूस! बोल्शेविकों का जासूस!”

“ये अब रूस नहीं है, भले आदमी.”

“ओह, माय गॉड, पूँछों वाला...देख, मारूस्या, चोटी वाली टोपियाँ.”

“जी...घबरा रहा है...”

“महिला का जी घबरा रहा है.”

“सबकी हालत खराब है, माँ. पूरी जनता का हाल बुरा है. आंख, आंख दबा रही हो, धक्का मत दो. तुम क्यों गुस्से में हो, अभिशप्त लोगों?!”

“भाग जाओ! रूस भाग जाओ! उक्रेन से भाग जाओ!”

“इवान इवानविच, यहाँ पुलिस की टुकड़ियां होनी चाहिए, याद है, ऐसा हुआ था, सन् 1912 के त्यौहार मेंऐह, हो, हो.”

“क्या तुम्हें फिर से खूनी निकलाय चाहिए? हम जानते हैं, हमें सब पता है, कि आपके दिमाग में कैसे-कैसे ख़याल मौजूद हैं.” 

“मुझसे दूर रहें, जीज़स की खातिर. मैं आपको छू नहीं रहा हूं.”

“खुदा, काश, जल्दी से बाहर निकल पाते...ताज़ा हवा में सांस लेते.”

“नहीं जा पाऊंगा. मर जाऊंगा.”

प्रमुख निर्गम द्वार से बड़ी ताकत से भीड़ गोल-गोल घूमते हुए, धकेली जा रही थी, बाहर फेंकी जा रही थी. टोपियाँ गिर रही थीं, भीड़ भिनभिना रही थी, सलीब के निशान बना रही थी. किनारे वाले दूसरे दरवाज़े से, जहाँ धक्का बुक्की में दो कांच टूट गए थे, चांदी सोने जड़ा, कुचला गया और बदहवास गॉडफ़ादर, कोरस के साथ बाहर उड़ा. काली पोशाकों के बीच सुनहरे धब्बे तैर रहे थे, सफ़ेद और बैंगनी टोपियाँ झाँक रही थीं, झुके हुए बैनर्स कांच से बाहर रेंग रहे थे, फिर सीधे होकर गुज़र रहे थे.

भयानक बर्फ़बारी हो रही थी. शहर धुआँ उगल रहा था. कैथेड्रल का आँगन, जो हज़ारों पैरों से कुचला गया था, लगातार झनझना रहा था. बर्फ का धुआँ जम गई हवा में तैर रहा था, घंटाघर की तरफ़ उठ रहा था. प्रमुख घंटाघर में सेंट सोफ़िया का भारी घंटा गूँज रहा था, इस भयानक, चीखती हुई अराजकता को दबाने की कोशिश कर रहा था. छोटी-छोटी घंटियाँ टिनटिना रही थीं, बिना किसी तरतीब के, बिना किसी सामंजस्य के, एक दूसरे से होड़ लगाते हुए गा रही थीं, मानो खुद शैतान ही चोगा पहने घंटाघर पर चढ़ गया हो, और मस्ती में, हंगामा मचा रहा हो. अनेक मंजिलों वाले घंटाघर के काले खांचों में, जो कभी खतरनाक घंटियों से तिरछी आंखों वाले तातारों से मिलता था, अनेक छोटी-छोटी घंटियों को जंज़ीर से बंधे पागल कुत्तों की तरह हिलते और चीखते हुए देखा जा सकता था. बर्फ करकरा रही थी, धुआँ छोड़ रही थी. पिघलते हुए, आत्मा को ‘पश्चात्ताप के लिए तैयार करते हुए, काले द्रव की तरह लोगों का समूह कैथेड्रल के आँगन की तरफ बह रहा था.

भयानक ठण्ड के बावजूद, खुदा के याचक, खुले सिरों से, जो कभी पके हुए कद्दू की तरह गंजे थे, कभी घने नारंगी बालों से ढंके हुए थे, पत्थर के रास्ते पर, पुराने सोफ़िया-घंटाघर के विशाल प्रांगण में पालथी मारे कतार में बैठ गए थे, और नकीली आवाजों में गा रहे थे.

अंधे गायक ‘खौफनाक इन्साफ’ के बारे में आत्मा को झकझोरने वाला बदहवास गीत गा रहे थे, और फटी हुई टोपियाँ पेंदे के सहारे पड़ी थीं, और चीकट नोट पत्तों की तरह उनमें गिर रहे थे, और टोपियों से बिखरे हुए सिक्के झाँक रहे थे.

 

ओह, जब समाप्त होगा सदी का अंत,

आ पहुंचेगा अंतिम न्याय...

 

टेढ़े-मेढे हैंडल के, पीले दांतों वाले वाद्य-बान्डुरा से फूटती हुई भयानक, दिल को दहलाने वाली, नकीली आवाज़ें, कुरकुरी धरती से तैर रही थीं.   

भाईयों, बहनों, मेरी बदहाली पर ध्यान दीजिये. दया करके, क्राईस्ट की खातिर कुछ दीजिये.”

 फ़िदसेइ पित्रोविच, चलें, स्क्वेअर पर भागें, वर्ना देर हो जायेगी.”

“प्रार्थना सभा होगी.”

“जुलूस.”

“क्रांतिकारी उक्रेनियन पीपल्स आर्मी की विजय के लिए प्रार्थना सभा हो रही है.”

“माफ़ कीजिये, कहाँ की विजय? जीत तो पहले ही हो चुकी है.”

“और भी विजय प्राप्त करेंगे!”

“अभियान होगा.”

“अभियान कहाँ?”

“मॉस्को पर.”

“कौनसे मॉस्को पर?

“खुद सामान्य मॉस्को पर.”

“नामुमकिन है.”

“क्या कहा आपने? ज़रा फिर से तो कहिये, जो आपने अभी कहा? नौजवानों, सुनो, ये क्या कह रहा है!”

“मैंने कुछ नहीं कहा!”

“पकड़ो, पकड़ो उसे, चोर को, पकड़ो!!”

“चल भाग, मारूस्या, उस गेट से, यहाँ से नहीं जा पायेंगे. पित्ल्यूरा, कहते हैं, चौक पर है. पित्ल्यूरा को देखना है.”
“बेवकूफ़
, पित्ल्यूरा कैथेड्रल में है.”

“तू खुद ही बेवकूफ़ है. कह रहे हैं कि वह सफ़ेद घोड़े पर जा रहा है.”

उक्रेनियन पीपल्स रिपब्लिक जिंदाबाद!!!”

“डॉन... डॉन...डॉन... डॉन- डॉन- डॉन...तिर्ली-बॉमबॉम. डॉन-बॉम-बॉम,” – घंटे बेतहाशा चीख रहे थे.  

“ अनाथों पर भी नज़र डालो, ओर्थोडोक्स नागरिकों, भले आदमियों...अंधे को...लाचार को...”

काला, जिसके पार्श्व भाग पर चमड़ा सिला था, काले भंवरे की तरह, हाथो से कुचली हुई बर्फ से चिपकते हुए, पैरों के बीच बिना पैरों का आदमी रेंग रहा था. अपंग, अभागे लोग अपनी नीली पिंडलियों के फोड़े दिखा रहे थे, सिर हिला रहे थे, जैसे खिंचाव या लकवे के कारण हो, सफ़ेद आंखें गोल-गोल घूम रही थीं, अंधेपन का ढोंग करते हुए. आत्मा की गहराई से, दिलों को चीरते हुए, गरीबी, धोखे, निराशा, स्तेपी के अंतहीन जंगलीपन की याद दिलाते हुए, उनके शापित वाद्य पहियों की तरह चरमरा रहे थे, आहें भर रहे थे, विलाप कर रहे थे. 

“वापस आ जा, यतीम बच्चे, भटक जाएगा...”

अस्तव्यस्त, थरथराती, बैसाखियों वाली बूढ़ी औरतें, अपने सूखे, चर्मपत्र जैसे हाथ बाहर फैलाए, विलाप कर रही थीं:

“ख़ूबसूरत नौजवान! खुदा तुझे अच्छी सेहत दे!”

“मालकिन, अनाथ, अभागी बुढ़िया पर तरस खाओ.”

“प्यारों, दुलारों, खुदा तुम्हारी हिफाज़त करेगा...”

चपटे पैरों वाली भिखारिनें, कफ्तान और लंबे कानों वाली टोपियाँ पहने लोग, भेड़ की खाल की हैट पहने मर्द, गुलाबी गालों वाली लड़कियां, रिटायर्ड अफसर - बैजेस के धूलभरे निशानों के साथ, बड़े पेट वाली अधेड़ उम्र की महिलायें, फुर्तीले पैरों वाले लडके, ओवरकोट, और रंगबिरंगी पूँछों वाली टोपियाँ पहने कज़ाक, नीली, लाल हरी, चटख लाल, सोने,चांदी की लटकनों के साथ, काले सागर के समान कैथेड्रल के आँगन में फैले थे, और कैथेड्रल के दरवाज़े निरंतर नई-नई लहरें उछाल रहे थे. खुली हवा में ताजेतवाने होकर, कुछ शक्ति बटोरकर, जुलूस सुव्यवस्थित हो गया, तन गया और व्यवस्थित क्रम में चौखानों वाले स्कार्फ़, पादरियों के शिरोवस्त्र और लम्बी गोल टोपियाँ, नंगे सिरों वाले छोटे पादरियों के घने बाल, भिक्षुओं की चिपकी हुई गोल टोपियाँ, सुनहरे डंडों पर नुकीले ‘क्रॉस’, क्राइस्ट-उद्धारकर्ता और नन्हें शिशु के साथ गॉडमदर के बैनर्स, तैर रहे थे और उत्कीर्ण, मढ़े हुए, सुनहरे, लाल, स्लाविक लिपि में लिखे हुए पूँछों वाले बैनर्स लहरा रहे थे.

जैसे सांप के पेट जैसा भूरा बादल शहर पर बरस रहा हो, या उफ़नती, मटमैली नदियाँ पुरानी सडकों पर बह रही हों – पित्ल्यूरा की अनगिनत फौजें सोफिया कैथेड्रल के चौक पर परेड कर रही हैं.  

सबसे पहले, तुरहियों की गरज से बर्फ को उड़ाते हुए, चमकदार तश्तरियों की झंकार करते हुए, लोगों की काली नदी को काटते हुए, घनी कतारों में नीली डिविजन गुज़री.

नीले ग्रेट कोटों में, नीले टॉप वाली तिरछी अस्त्राखानी टोपियों में गैलिशियन्स जा रहे थे. दो दुरंगे ध्वज, नंगी तलवारों के बीच झुके हुए, तुरहियों वाले ओर्केस्ट्रा के पीछे-पीछे तैर रहे थे, और ध्वजों के पीछे, कुरकुरी बर्फ को एक लय में रौंदते हुए, शान से पंक्तियाँ गरज रही थीं, महंगे, जर्मन कपड़े पहने. पहली बटालियन के पीछे पीछे परेड में कूदी लम्बे काले लबादों वाली टुकड़ी,  कमर पर रस्सियाँ बांधे, सिरों पर हेलमेट, संगीनों के घने, भूरे झुरमुट के साथ.                 

अपरिमित संख्या में, ‘सिच’ राइफलमनों की भूरी, भद्दी बटालियनें मार्च कर रही थीं. गयदामाक कज़ाकों की पैदल टुकड़ियां एक के बाद एक आती रहीं, और, ऊपर, बटालियनों के बीच की जगह में, मस्ती से नाचते हुए अपनी-अपनी काठी में सवार बहादुर कमांडर्स, टुकड़ियों के और कंपनियों के , जा रहे थे. साहसी, विजयी, गरजती हुई मार्च की धुनें, ऐसी दहाड़ रही थीं, मानो रंगबिरंगी नदी से सोना उगल रही हों.           

पैदल टुकड़ियों के पीछे, हल्की चाल से, अपनी काठी में हौले से उछलते हुए घुड़सवार रेजिमेंट्स आईं. उत्तेजित भीड़ की आंखें उनके कुचले हुए, मुड़े हुए नीले, हरे और लाल टोपों से लटकती सुनहरी लटकनों से चकाचौंध हो गईं.

दाईं भुजाओं से बंधे हुए भाले सुईयों की तरह उछल रहे थे. घुड़सवार दस्ते में पूँछों से बंधी हुई घंटियाँ प्रसन्नता से बज रही थीं, और कमांडरों तथा बिगुलधारकों के घोड़े तुरही की आवाज़ से दूर भाग रहे थे. मोटा, प्रसन्न, गेंद जैसा बलबतून रेजिमेंट के आगे-आगे जा रहा था, बर्फीली हवा में अपना चर्बी से चमकता, नीचा माथा और भरे-भरे प्रसन्न गाल दिखाते हुए. लाल घोडी अपनी लाल आंख से तिरछे देखते हुए, मुख के ‘बिट (धातु का टुकड़ा – अनु.) को चबाते हुए, फ़ेन गिराते हुए, पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती, बार-बार सौ किलोग्राम वज़न के बलबतून को झकझोर देती, और टेढ़ी तलवार अपनी म्यान में गरजती, और कर्नल अपनी एड से उसके बेचैन पार्श्व भागों को हौले से छू देता.

 

क्योंकि हमारे ऑफिसर हैं हमारे साथ,

हमारे साथ, जैसे भाइयों के साथ! –

उमड़ते-घुमड़ते तेज़ तर्रार गयदामाक उछलते हुए गा रहे थे और उनकी चोटियाँ उछल रही थीं.  

गोलियां लगा पीला-नीला झंडा फहराते, एकॉर्डियन बजाते, काले, नुकीली मूँछों वाले, भारी भरकम घोड़े पर सवार कर्नल कोज़िर-लिश्को की रेजिमेंट जा रही थी. कर्नल उदास था और तिरछी आंख से घोड़े को देखते हुए उसके पुट्ठे पर चाबुक बरसा रहा था. कर्नल के गुस्सा होने की एक वजह थी – ब्रेस्त-लितोव्स्काया राजमार्ग पर धुंध भरी सुबह को नाय-तुर्स की प्लेटून की गोलियों ने कोज़िर की बढ़िया रेजिमेंट को भून दिया था, और अब चौक पर सिकुड़ गई, विरल संरचना गुज़र रही थी.        

कोज़िर के पीछे आई, शानदार, अपराजित, ब्लैक-सी ‘गेटमन माज़ेपा’ घुड़सवार रेजिमेंट. बहादुर गेटमन का नाम, जिसने पल्तावा के पास सम्राट प्योत्र को लगभग मार ही डाला था, सुनहरे अक्षरों में नीले रेशम पर चमक रहा था.

लोगों की भीड़ बादल की तरह घरों की भूरी और पीली दीवारों से तैर रही थी, लोग एक दूसरे को धकेलते और रास्ते की मुंडेर पर चढ़ जाते, बच्चे उछलकर लैम्प-पोस्टों पर चढ़ जाते और डंडों पर बैठ जाते, छतों पर खड़े हो जाते, सीटियाँ बजाते, चिल्लाते: “हुर्रे...हुर्रे...”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!” फुटपाथों से चिल्लाते.

बाल्कनियों और खिड़कियों के कांचों पर चपटे चहरों की भीड़ चिपकी थी.

गाडीवान, संतुलन बनाते हुए, स्लेज के बक्से पर चाबुक घुमाते हुए चढ़ जाते.

कहते थे, कि सिर्फ भीड़ है...ले, तेरे लिए भीड़. हुर्रे!”

“जिंदाबाद! पित्ल्यूरा जिंदाबाद! हमारा मालिक, जिंदाबाद!”

“हुर्रे...’     

“मान्या, देख, देख ख़ुद पित्ल्यूरा, देख, भूरे वाले पर. कितना ख़ूबसूरत है...”

“क्या कह रही हैं, मैडम, ये कर्नल है.”

“आह, क्या सचमुच? मगर पित्ल्यूरा कहाँ है?

“पित्ल्यूरा महल में है, ओडेसा से आये फ्रांसीसी दूतों का स्वागत कर रहा है.”

“भले आदमी, आप क्या, पगला गए हैं, कैसे राजदूत?

“पित्ल्यूरा, प्योत्र वसील्येविच, कहते हैं (फुसफुसाते हुए), पैरिस में है, आँ, देखा?

“ये रहे आपके गिरोह...दस लाख तो होंगे.”

“मगर, पित्ल्यूरा कहाँ है? प्यारों, पित्ल्यूरा कहाँ है? कम से कम एक नज़र तो देखने दो.”

“पित्ल्यूरा, मैडम, अभी चौक पर परेड का स्वागत कर रहा है.”

“ऐसी कोई बात नहीं है. पित्ल्यूरा बर्लिन में प्रेसिडेंट से मिल रहा है, समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए.”

“कौनसे प्रेसिडेंट से?! भले आदमी, आप अफवाहें क्यों फैला रहे हैं.”

“बर्लिन के प्रेसिडेंट से...रिपब्लिक के मौके पर...”

“देखा? देखा? कैसा शानदार है...वो, रील्स्की गली से होकर गया है, गाड़ी में. छह घोड़ों वाली...”    

“माफ़ी चाहता हूँ, क्या वे ऑर्थोडोक्स चर्च में विश्वास करते हैं?

“मैं ये नहीं कह रहा हूँ, कि विश्वास करते हैं – नहीं करते...सिर्फ ये कह रहा हूँ कि – यहाँ से गुज़रा, और इसके अलावा कुछ नहीं. आप खुद ही तथ्य पर सोच लीजिये...”

“तथ्य ये है कि पादरी अभी प्रेयर कर रहे हैं...”

“पादरियों के साथ रहना ज़्यादा अच्छा है...”

“पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा...”

भयानक, भारी-भारी पहिये गड़गड़ा रहे थे, बक्से चरमरा रहे थे. दस घुड़सवार रेजिमेंट्स के बाद तोपखाने की अंतहीन कतार गुज़रने लगी. चपटी नली वाली, मोटी तोपें, पतली होवित्ज़र तोपें जा रही थीं; सेवक बक्सों पर बैठे थे, प्रसन्न, अच्छी तरह खाये-पिये, विजयी, घुड़सवार शालीनता से और शान्ति से जा रहे थे. खिंचते हुए, तनते हुए घोड़े छः इंची तोपें ले जा रहे थे, खाये-पिये, मज़बूत, चौड़े पुट्ठों वाले, और किसानों वाले, काम करने के आदी, गर्भवती पिस्सुओं जैसे, छोटे घोड़े. हल्की, पहाडी-तोपें शीघ्रता से जा रही थीं, और बहादुर घुड़सवारों से घिरी तोपें उछल रही थीं.      

“एह...एह...तो, ये हैं पंद्रह हज़ार...हमसे झूठ क्यों कहा गया. पंद्रह...डाकू...विनाश... खुदा, गिन भी नहीं पाओगे. एक और यूनिट...और, और...”

भीड़ निकोल्का को दबाये जा रही थी, दबाये जा रही थी, और वह अपनी पंछी जैसी नाक स्टूडेंट्स वाले ओवरकोट में घुसाए, आखिरकार, दीवार में बने एक आले में घुस गया और वहीं मज़बूती से बैठ गया.

फेल्ट बूट पहनी कोई हंसमुख महिला पहले से ही उस आले में मौजूद थी और उसने प्रसन्नतापूर्वक निकोल्का से कहा: “मुझे पकड़े रहो, बच्चे, और मैं ईंट पकड़े रहूँगी, वरना हम गिर जायेंगे.”

“थैन्क्यू,” निकोल्का ने अपनी बर्फ बन चुकी कॉलर में उनींदे सुर में कहा, “मैं हुक पकड़े रहूँगा.”

“पित्ल्यूरा खुद कहां है?” बातूनी महिला ने कहा, “ओय, पित्ल्यूरा को देखना चाहती हूँ. कहते हैं, कि वह बेहद ख़ूबसूरत है.”

“हाँ,” निकोल्का अस्पष्ट रूप से अपने मेमने की खाल में बुदबुदाया, “अवर्णनीय है.” ‘और एक यूनिट... ये, जहन्नुम में जाए...ओह, ओह, अब मैं समझ रहा हूँ...”

“वो, लगता है, कार में अभी-अभी गुज़रा है, - यहाँ से...आपने नहीं देखा?

“वो वीनित्सा में है,” जूतों के भीतर अपनी जमी हुई उँगलियों को हिलाते हुए निकोल्का ने गंभीर और सूखी आवाज़ में जवाब दिया. ‘मैंने अपने फेल्ट बूट क्यों नहीं पहने. यहाँ तो जमे जा रहा हूँ.”   

देख, देख, पित्ल्यूरा.”

“ये कहाँ का पित्ल्यूरा, ये तो अंगरक्षकों का कमांडर है.”

“पित्ल्यूरा का ‘बेलाया चर्च में एक महल है. अब ‘बेलाया चर्च राजधानी बनेगा.”

“और क्या वो शहर में आयेगा ही नहीं, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ?

“आयेगा, अपने समय से आयेगा.”

“अच्छा, अच्छा, अच्छा...”

ढम्, ढम्, ढम्. सोफ़िया चौक से तुर्की ढोलों की सुस्त आवाजें आ रही थीं, और सड़क पर रेंगने लगीं, गन-पोर्ट के छेदों से निकलतीं अपनी मशीनगनों से धमकाती, भारी मीनारें हिलातीं चार भयानक बख्तरबंद गाड़ियां. मगर अब जोशीला,गुलाबी गालों वाला स्त्राश्केविच भीतर नहीं था. वह अभी तक गंदा पड़ा था, और अब ज़रा भी गुलाबी नहीं प्रतीत हो रहा था, बल्कि गंदे-मोम जैसा, निश्चल स्त्राश्केविच पिचोर्स्का पर पडा था, मारिन्स्की पार्क में, गेट के एकदम बाहर. स्त्राश्केविच के माथे पर एक छेद था, दूसरा, जिस पर खून जम गया था,कान के पीछे था. जोशीले आदमी के पैर बर्फ से बाहर निकल रहे थे, और वह कांच जैसी आंखों से, मैपल की टहनियों के पार सीधे आसमान को देख रहा था. चारों तरफ़ बेहद खामोशी थी, पार्क में एक भी ज़िंदा रूह नहीं थी, और रास्ते पर भी इक्का-दुक्का ही कोई दिखाई दे जाता, प्राचीन सोफ़िया चर्च से संगीत यहाँ तक नहीं पहुँच रहा था, इसलिए जोशीले आदमी का चेहरा पूरी तरह शांत था.

बख्तरबंद गाड़ियां भिनभिनाते हुए, भीड़ को हटाते हुए, एक प्रवाह में वहाँ जा रही थीं, जहाँ बग्दान ख्मील्नित्स्की बैठा था और राजदंड से, आसमान की पार्श्वभूमी में काला नज़र आते हुए, उत्तर-पूर्व की ओर इशारा कर रहा था. बड़े घंटे की आवाज़ अभी भी तेल की मोटी लहर की तरह बर्फीले टीलों पर और शहर की छतों पर तैर रही थी, और घनी भीड़ में ढोल थपथपा रहे थे, थपथपा रहे थे, और खुशी से बेकाबू होकर बच्चे काले बग्दान के खुरों के चारों ओर चढ़े जा रहे थे. और रास्तों पर ट्रक गड़गड़ा रहे थे, जंजीरें खनखनाते हुए, और तख्तों पर उक्रेनी पोषाकों में गाते हुए युवाओं को ले जा रहे थे, भेड़ की खाल के कोट के नीचे से लड़कियों के लम्बे स्कर्ट झाँक रहे थे, उन्होंने सिरों पर पुआल के मुकुट पहने थे और लड़कों ने कोट के नीचे नीली, फूली-फूली पतलूनें पहनी थीं. वे एक सुर में और धीमी आवाज़ में गा रहे थे...   

इसी समय रील्स्की स्ट्रीट से गोलियां चलने की आवाज़ आई. इसके ठीक पहले, भीड़ में तूफ़ान की तरह औरतों की चीखें गूँज उठीं. कोई चीखते हुए भागा:

“ओय, खतरनाक!”

किसी की टूटती हुई, बेताब, भर्राई आवाज़ चीखी:

“मैं जानता हूँ. पकड़ो उन्हें! ये ऑफिसर्स हैं. ऑफिसर्स. ऑफिसर्स...मैंने उन्हें शोल्डर-स्ट्रैप्स में देखा है!”

दसवीं कंपनी ‘रादा की प्लेटून में, जो चौक में निकलने का इंतज़ार कर रही थी, फ़ौरन कुछ लड़के भीड़ में घुस गए, और किसी को पकड़ लिया. औरतें चीख रही थीं. हाथों से पकड़ा गया कैप्टेन प्लेश्का उन्माद्पूर्वक कमज़ोर आवाज़ में चिल्ला रहा था:

“मैं ऑफिसर नहीं हूँ. ऐसी कोई बात नहीं है. ऐसी कोई बात नहीं है. आप क्या कर रहे हैं? मैं बैंक का कर्मचारी हूँ.” 

उसकी बगल में ही किसी और को भी पकड़ लिया, वह, भय से सफेद खामोश था और हाथों से छूटने के लिए छटपटा रहा था...

फिर तो गली में भगदड़ मच गई, जैसे फटी हुई थैली से लोग भाग रहे थे, एक दूसरे को दबाते हुए. भय से पगला गए लोग भाग रहे थे. सारी जगह बिल्कुल सफ़ेद झक् हो गई, सिर्फ एक धब्बे को छोड़कर – ये किसी की फेंकी हुई हैट थी. गली में चमक के साथ गोलियों की आवाज़ होने लगी, और कैप्टेन प्लेश्का ने, जिसने तीन बार ख़ुद को नकार दिया था, परेडों के प्रति अपनी उत्सुकता की कीमत चुकाई थी. वह सेंट सोफिया चर्च के आवास गृह के सामने वाले पार्क में पीठ के बल पडा था, हाथ फैलाए, और दूसरा, खामोश तबियत वाला, उसके पैरों पर पडा था, फुटपाथ पर चेहरा झुकाए. और चौक के कोने से फ़ौरन तश्तरियां झनझना उठीं, फिर से लोग जमा हो गए,शोर मचाने लगे, ओर्केस्ट्रा गरज उठा. एक जोशीली आवाज़ गरजी: “क्विक मार्च!” और कतार के बाद कतार, अपनी पूँछों वाली सुनहरी टोपियाँ चमकाते, ‘रादा की घुड़सवार रेजिमेंट चल पडी.

 

 

****

 

 

एकदम अचानक गुम्बदों के बीच की भूरी पार्श्वभूमी फट गई और मटमैली धुंध में अप्रत्याशित सूरज दिखाई दिया. वह इतना विशाल था, जैसा उक्रेन में कभी किसीने नहीं देखा था,और वह पूरी तरह लाल था, बिल्कुल शुद्ध खून की तरह. बादलों के परदे से मुश्किल से चमकते हुए गोले से लगातार और दूर तक सूखे हुए खून के धब्बे और धारियां फ़ैली थीं. सूरज ने सोफ़िया के मुख्य गुम्बद को खून के रंग में रंग दिया, और चौक पर उसकी विचित्र परछाईं पड़ रही थी, जिसमें बग्दान बैंगनी नज़र आ रहा था, और बेचैन लोगों की भीड़ और भी काली, और भी घनी, और भी परेशान नज़र आ रही थी. और दिखाई दे रहा था कि कैसे भूरे कोट पर शानदार बेल्ट बांधे, संगीनों से लैस लोग चट्टान पर सीढियां चढ़ रहे थे, काले ग्रेनाईट से झाँक रही इबारत को मिटाने की कोशिश कर रहे थे. मगर संगीनें चट्टान से फिसल जातीं और छिटक जातीं. सरपट भागते बग्दान ने तैश में घोड़े को चट्टान से दूर निकाल लिया,उन लोगों से दूर भागने की कोशिश में, जो उसके खुरों पर मज़बूती से लटक गए थे. उसका चेहरा, जो सीधे लाल गोले की तरफ था, क्रोधित था, और पहले ही की तरह वह अपनी गदा से कहीं दूर इशारा कर रहा था.             

और इस समय गूंजती हुई, बढ़ती हुई भीड़ के ऊपर, बग्दान के सामने, फव्वारे के जम गए, फिसलन भरे जल कुंड में, एक आदमी के हाथ ऊपर उठे. वह फ़र के कॉलर वाले काले कोट में था,और बर्फीली ठण्ड के बावजूद टोपी उतार कर हाथों में रखे हुए था. चौक पहले ही की तरह भिनभिना रहा था, और चींटियों की बाम्बी की तरह उफ़न रहा था, मगर सेंट सोफ़िया का घंटा खामोश हो गया था, और संगीत बर्फ़ीले रास्तों पर विभिन्न दिशाओं में जा चुका था. फ़व्वारे के पास बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी.

“पेत्का, पेत्का. ये किसे ऊपर उठाया है?

“लगता है, पित्ल्यूरा है.”

“पिल्यूरा भाषण दे रहा है...”

“क्या बकवास कर रहे हो...ये कोई साधारण वक्ता है...”

“मारूस्या, भाषण दे रहा है. देख...देख...”

“घोषणा-पत्र पढ़ने वाला है...”

“नहीं, युनिवर्सल (क्रांतिकारी पार्लियामेंट द्वारा की गई आज़ादी की घोषणा – अनु.) पढ़ने वाले हैं.”

“आज़ाद उक्रेन अमर रहे!”

ऊपर उठाये हुए आदमी ने उत्साह से हज़ारो सिरों के ऊपर कहीं देखा, जहाँ सूर्यमंडल स्पष्ट रूप से बाहर निकल रहा था और सलीबों को घने,लाल रंग में रंग रहा था, हाथ हिलाया और कमजोर आवाज़ में चिल्लाया:

“जनता की जय!”        

“पित्ल्यूरा...पित्ल्यूरा.”

“ये कहाँ का पित्ल्यूरा. आपने क्या कहा?

“ये पित्ल्यूरा फ़व्वारे पे क्यों चढ़ेगा?

“पित्ल्यूरा खार्कव में है.”

“पित्ल्यूरा अभी अभी महल में दावत पर गया है...”

“बकवास मत करो, कोई दावत-वावत नहीं होगी.”

“जनता जिंदाबाद!” – उस आदमी ने दुहराया, और फ़ौरन सुनहरे बालों की एक लट उछली, उछलकर उसके माथे पर आ गई.

“धीरे!”

उजले बालों वाले आदमी की आवाज़ मज़बूत हो गई और गड़गड़ाहट और पैरों की करकराहट, दूर जाती हुई परेड़ की भिनभिनाहट और गूँज, दूर जाते हुए ड्रमों की आवाज़ के बीच भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी.

“पित्ल्यूरा को देखा?”

“क्या कह रहे हैं, अभी अभी देखा.”

“आह, किस्मत वाली हो. कैसा है वो? कैसा है?

“काली मूंछें ऊपर उठी हुई, विलियम के समान, और हेल्मेट में है. ये रहा, ये रहा वो, देखो, देखो, मारिया फ़्योदरव्ना, देखो, देखो – जा रहा है...”

“ये आप क्या अफवाह फैला रही हैं! ये तो शहर के अग्निशामक दल का प्रमुख है.”

“मैडम, पित्ल्यूरा बेल्जियम में है.”

“वह बेल्जियम क्यों गया है?

“सहयोगियों के साथ गठबंधन करने...”

“ नहीं, नहीं, वो अभी अंगरक्षक के साथ ड्यूमा गया है.”

“किसलिए?

“शपथ...”

“वो शपथ लेगा?”

“वो क्यों लेने लगा? उसके सामने वे शपथ लेंगे.”

“ओह, मैं तो मर जाऊंगी (फुसफुसाहट), मैं शपथ नहीं लूँगी...”

“आपको तो लेना भी नहीं है...औरतों को तो छूते भी नहीं हैं.”

“यहूदियों को छुएंगे, ये तो पक्की बात है...”

“और ऑफिसर्स को. सबकी आंतें बाहर निकाल देंगे.”

“और ज़मींदारों को भी. लानत है!!”

“धीरे!”  

उजले बालों आदमी ने किसी भयानक दुःख और साथ ही आंखों में कोई निश्चय लिए सूरज की तरफ इशारा किया.

“आपने सुना, नागरिकों, भाईयों और कॉमरेड्स,” वह कहने लगा, “ कज़ाक कैसे गा रहे थे: ‘हमारे नेता, हैं साथ हमारे, साथ हमारे, भाईयों जैसे. हमारे साथ. हाँ, हमारे साथ!” वह अपने सीने पर टोपी मारने लगा, जिस पर लहर की भाँति एक बड़ा लाल धनुष दिखाई दे रहा था, - “हमारे साथ. ये नेता हैं लोगों के साथ, उन्हीं के लिए पैदा हुए, उनके ही लिए मरेंगे. शहर की घेराबंदी के समय वे हमारी खातिर बर्फ में ठिठुरते रहे और बहादुरी से उस पर कब्ज़ा कर लिया, और अब हमारी सभी इमारतों पर लाल झंडा फहरा रहा है...” 

“हुर्रे!”

“लाल झंडा कहाँ से? ये क्या कह रहा है? पीला-नीला.”

“बोल्शेविकों का झंडा लाल है.”

“धीरे! जिंदाबाद!”

“और, इसकी उक्रेनी बोली तो बहुत बुरी है...”

“कॉमरेड्स, अब हमारे सामने नई चुनौती है – इस नई स्वतन्त्र रिपब्लिक की उन्नति करना और उसे मज़बूत बनाना, मेहनतकशों की भलाई के लिए – मज़दूरों और किसानों के लिए, क्योंकि जिन्होंने अपना खून और पसीना बहाकर हमारी जन्मभूमि को सींचा है, उन्हींका इस पर अधिकार है!” 

“सही है! जिंदाबाद!”

“तुमने सुना, ‘कॉमरेड्स’ कह रहा है? अचरज की बात है...”

“धी-रे.”

“इसलिए, प्यारे नागरिकों, जनता की विजय के इस खुशी के मौके पर शपथ लेते हैं,” – वक्ता की आंखें चमकने लगीं, उसने अधिकाधिक उत्साह से घने आकाश की ओर हाथ बढाए, और उसकी भाषा में उक्रेनी शब्द कम होने लगे, “और हम शपथ लेते हैं कि तब तक हथियार नहीं रखेंगे, जब तक ये लाल झंडा – आज़ादी का प्रतीक – मज़दूरों की पूरी दुनिया पर न फहराने लगे.”

“हुर्रे! हुर्रे! हुर्रे!...इंटर ...”

“वास्का, मुँह बंद कर. क्या बेवकूफ़ हो गया है? 

“श्शूर, क्या कर रहे हो, धीरे!”

“ऐ, खुदा, मिखाइल सिम्योनविच, बर्दाश्त नहीं कर सकता – उठ...नास...”

काले ‘अनेगिनी’ कल्ले ऊदबिलाव के घने कॉलर में छुप गए, और सिर्फ इतना दिखाई दे रहा था कि कैसी उत्तेजना से उसकी आंखें, जो चौदह दिसंबर की रात को शहीद हो चुके, स्वर्गीय एनसाइन श्पल्यान्स्की की आंखों जैसी थीं, भीड़ में दब गए उत्साही साइकिल सवार की तरफ़ देख रही थीं. पीले दस्ताने वाला हाथ बढ़ा और उसने श्शूर के हाथ को दबाया...

“अच्छा. अच्छा, नहीं बोलूंगा,” भूरे आदमी को खा जाने वाली नज़रों से देखते हुए श्शूर बुदबुदाया.                                           

और वह, अपने आप पर और निकट वाली कतारों के लोगों पर काबू पाकर, चिल्ला रहा था:

“जिंदाबाद, मज़दूरों, किसानों और कज़ाक प्रतिनिधियों की ‘सोवियत’ (यहाँ कौंसिल से तात्पर्य है – अनु.) जिंदाबाद!”

सूरज अचानक बुझ गया, और सेंट सोफ़िया कैथेड्रल और गुम्बदों पर परछाईं छा गई; बग्दान का चेहरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था, आदमी का चेहरा भी. दिखाई दे रहा था कि कैसे उसके चहरे पर सुनहरी लट उछल रही है...

“आ-आ. आ-आ-आ,” भीड़ शोर मचाने लगी...

“...मज़दूरों, किसानों और रेड-आर्मी के सैनिकों के प्रतिनिधियों की ‘सोवियतें’.

दुनिया के मज़दूरों, एक हो जाओ...”

“क्या? क्या है? क्या है? ज़िन्दाबाद!!”

पिछली कतारों में कुछ मर्दानी और एक आवाज़ पतली और खनखनाती हुई गाने लगीं:

“गर मर जाऊँ, तो...”

“हुर्-र्रे!” विजयी सुर में किसी दूसरी जगह से लोग चिल्लाए. अचानक तीसरी जगह मानों कोई भंवर फूट पडा.

“पकड़ो उसे! पकड़ो!”एक फटी हुई, गुस्सैल और शिकायत करती मर्दानी आवाज़ चीखी. “पकड़ो! ये उकसा रहा है. बोल्शेविक! मॉस्को वाला! पकड़ो! आपने सुना, वो क्या कह रहा था...”

हवा में किसी के हाथ उठे. वक्ता एक ओर को झुका, इसके बाद उसके पैर गायब हो गए, फिर पेट, फिर टोपी से ढंका हुआ उसका सिर भी अदृश्य हो गया.

“पकड़ो!” पहली आवाज़ के जवाब में ऊंचे सुर में दूसरी आवाज़ आई. “ये झूठा वक्ता है. उसे पकड़ो, लोगों, पकड़ो, बड़े लोगों.”           

“आ-आ-आ. ठहरो! कौन? किसे पकड़ा है? किसे? ये वो नहीं है!!!”

पतली आवाज़ वाला आगे फव्वारे की तरफ़ लपका, हाथों से ऐसे हाव-भाव दर्शाते हुए जैसे किसी  चिकनी बड़ी मछली को पकड़ रहा हो. मगर भेड़ की खाल का कोट और लम्बे कानों वाली टोपी पहना बेवकूफ श्श्यूर उसके आगे चिल्लाते हुए गोल-गोल घूमने लगा:

“पकड़ो!” – और अचानक दहाड़ा:

“ठहरो, भाईयों, घड़ी निकाल ली!”

किसी औरत का पैर दब गया, और वह भयानक आवाज़ में विलाप करने लगी.

“किसकी घड़ी? कहाँ? झूठ बोलते हो – भाग नहीं पाओगे!” 

पतली आवाज़ वाले को किसी ने पीछे से उसकी बेल्ट से पकड़ कर थाम लिया और तभी उसकी  नाक और होठों पर करीब डेढ़ पाऊंड का बड़ा, ठंडा झापड़ पडा. 

“ऊ!” पतली आवाज़ वाला चिल्लाया और फ़ौरन मौत जैसा बेरंग हो गया, और उसने महसूस किया कि उसका सिर नंगा है, कि उस पर टोपी नहीं है. उसी पल दूसरा झनझनाता झापड़ पडा, और आसमान में कोई चिल्लाया:

“ये रहा वो, चोर, जेबकतरा, कुत्ते का पिल्ला. मारो उसे!!

“आप क्या कर रहे हैं?!” पतली आवाज़ चिल्लाई. “आप मुझे क्यों मार रहे हैं?! वो मैं नहीं हूँ! मैं नहीं हूँ! उस बोल्शेविक को पकड़ना होगा! ओ-ओ!” वह चिल्लाया...

“ओय, माय गॉड, माय गॉड, मारूस्या, जल्दी से भागें, ये क्या हो रहा है?

भीड़ में, फव्वारे के बिल्कुल पास, भीड़ अनियंत्रित हो रही थी, गोल-गोल घूम रही थी, और किसी को मार रहे थे, और कोई चिल्ला रहा था, और लोग बिखर रहे थे, और, सबसे ख़ास बात, वक्ता गायब हो गया था. इतने आश्चर्यजनक तरीके से, जादुई ढंग से गायब हो गया, जैसे धरती में समा गया हो. किसी को उस भगदड़ में से खींच कर ले गए, मगर कोई लाभ न हुआ, झूठा वक्ता काली टोपी में था, और यह हैट पहने बाहर उछला. और तीन मिनट बाद, बवंडर खुद-ब-खुद शांत हो गया, मानो वह था ही नहीं, क्योंकि नए वक्ता को फव्वारे के किनारे पर उठाया गया, और उसे सुनने के लिए चारों ओर से करीब दो हज़ार लोगों की भीड़ फव्वारे के चारों ओर इकट्ठी होने लगी.

 

****   

 

बगीचे के पास, बर्फ से ढंकी सफ़ेद गली में, जहाँ से उत्सुक लोग बिखरती हुई फौजों के पीछे-पीछे भाग चुके थे, हँसता हुआ श्श्यूर बर्दाश्त न कर पाया और झटके से सीधे फुटपाथ पर बैठ गया.

“ओय, नहीं बर्दाश्त कर सकता,” पेट पकड़ते हुए वह गरजा. उसके भीतर से हंसी के फव्वारे फूट रहे थे, मुँह के भीतर सफ़ेद दांत चमक रहे थे, “हंसी के मारे मर जाऊंगा, कुत्ते जैसा. कैसे वे उसे मार रहे थे, माय गॉड!”

“बहुत देर मत बैठो, श्श्यूर,” बीवर की कॉलर के कोट में उसके अनजान साथी ने, जो ‘मैग्नेटिक ट्रॉयलेट’ के चेयरमैन, स्वर्गीय एन्साइन श्पल्यान्स्की की प्रतिकृति था, कहा.

 “अभ्भी, अभ्भी,” श्श्यूर उठते हुए कराहा.

“सिगरेट दीजिये, मिखाइल सिम्योनविच,” लम्बे, काला ओवरकोट पहने, श्श्यूर के दूसरे साथी ने कहा. उसने अपनी फ़र की टोपी सिर के पीछे खींच ली, और भूरे बालों की लट उसकी भौंह पर झूलने लगी. वह भारी -भारी सांस ले रहा था, और हांफ रहा था, जैसे उसे बर्फ में गर्मी लग रही हो.   

“तो? बर्दाश्त से बाहर हो गया?” अनजान व्यक्ति ने प्यार से पूछा, उसने ओवरकोट का पल्ला हटाया और, छोटा-सा, सुनहरा सिगरेट केस निकालकर गोरे आदमी को बिना सिगरेट होल्डर के जर्मन सिगरेट पेश की; वह पीने लगा, दियासलाई की आग के चारों ओर हाथों की ढाल बनाए, और सिर्फ धुँआ छोड़ने के बाद ही बोला:

“उह! उह!”

इसके बाद तीनों फ़ौरन चल पड़े, कोने पर मुड़े और ग़ायब हो गए.            

चौक से छोटी-सी गली में तेज़ी से स्टूडेंट्स की दो आकृतियाँ बाहर निकलीं. एक छोटा, गठीले बदन का, साफ़-सुथरा, चमचमाते रबर के गलोश पहने था. दूसरा ऊंचा, चौड़े कन्धों वाला, टांगें लम्बी, कम्पास जैसी और एक-एक कदम दो मीटर का था.

दोनों के ही कॉलर उनकी टोपियों के किनारों तक खींचे हुए थे, और ऊंचे वाले ने तो अपने हजामत किये हुए चहरे पर मफ़लर लपेट रखा था; ज़ाहिर है – बर्फ जो पड़ रही थी. दोनों ही आकृतियों ने जैसे किसी कमाण्ड के अनुसार अपने सिर घुमाए, कैप्टन प्लेश्का की लाश को देखा और दूसरी लाश भी देखी – जो मुंह नीचा किये, घुटनों को बगल की तरफ़ बिखेरे पडी थी, और, बगैर कोई आवाज़ किये, वे आगे बढ़ गए.     

बाद में, जब वे रील्स्की गली से झितामीर्स्काया स्ट्रीट की तरफ़ मुड़े, तो ऊंचा वाला छोटे की ओर मुड़ा और उसने कर्कश स्वर बोला:

“देखा-देखा? मैं तुझसे पूछ रहा हूँ, देखा क्या?”

छोटे वाले ने कोई जवाब नहीं दिया, जैसे अचानक उसके दांत में दर्द हो रहा हो.

“जब तक ज़िंदा रहूँगा, भूल नहीं पाऊँगा,’ ऊंचा वाला लम्बे डग भरते हुए बोला, “याद रखूंगा.”

छोटा वाला खामोशी से उसके पीछे चलता रहा.

“शुक्रिया, जो सबक सिखाया. खैर, अगर मुझे कहीं ये सुअर का पिल्ला...गेटमन... मिल जाए...” मफलर के नीचे से फ़ुफ़कार सुनाई दी, “तो मैं उसे,” ऊंचे वाले ने भयानक लंबी गाली निकाली और उसे पूरा नहीं किया. बल्शाया झितामिर्स्काया स्ट्रीट पर निकले, और दोनों का रास्ता रोका जुलूस ने, जो पुराने-शहर के टॉवर-हाउस वाले भाग की तरफ़ जा रहा था. असल में तो उसका रास्ता चौक से था, सीधा और आसान, मगर व्लादिमीर्स्काया को अभी तक परेड से नहीं निकल सके घुड़सवार दल ने रोक रखा था और जुलूस को, औरों की तरह, अपना रास्ता बदलना पडा था.

उसके आरम्भ में लड़कों का एक झुण्ड था. वे भाग रहे थे, मेंढकों की तरह उछल रहे थे और कर्कश सीटियाँ बजा रहे थे. इसके बाद कुचले गए बर्फीले रास्ते पर भय और दुःख से बदहवास आंखों से  देखता हुआ एक आदमी चल रहा था, बिना टोपी के, उसके फटे हुए फ़र-कोट के बटन खुले थे. उसका चेहरा खून से लथपथ था, और आखों से आंसू बह रहे थे. खुले कोट वाले ने अपना मुंह खोला और पतली, मगर पूरी तरह भर्राई हुई आवाज़ में, रूसी और उक्रेनी शब्दों को मिलाते हुए चीखा:

“आपको इसका अधिकार नहीं है! मैं प्रसिद्ध उक्रेनी कवि हूँ. मेरा नाम गर्बालाज़ है. मैंने उक्रेनी कविताओं का संकलन प्रकाशित किया है. मैं ‘रादा (क्रांतिकारी पार्लियामेंट – अनु.) के प्रेसिडेंट और मिनिस्टर से शिकायत करूंगा. ये सब भयानक है!” 

“मारो उसे, कमीने, जेबकतरे को,” फुटपाथों से लोग चिल्लाए.

“मैंने,” बदहवासी से गला फाड़कर, सभी दिशाओं में मुड़ते हुए, खून से लथपथ आदमी चिल्लाया, “ कोशिश की पकड़ने की बोल्शेविक – उकसाने वाले को...”

“क्या, क्या क्या,” फुटपाथों आवाजें गूंजीं.

“ये किसकी बात कर रहा है?!”

पित्ल्यूरा को मारने की कोशिश की गयी...”

“तो?!”

“गोली चलाई, कुत्ते के पिल्ले ने, हमारे मालिक पर.”

“मगर ये तो उक्रेनी है.”

“कमीना है ये, उक्रेनी नहीं,” किसी की गहरी आवाज़ भिनभिनाई, “ बटुओं पर हाथ साफ़ कर रहा था.”

“फ़्यू-ऊ,” लड़कों ने हिकारत से सीटी बजाई.

“ये क्या हो रहा है? किस अधिकार से?

“बोल्शेविक-उकसाने वाले को पकड़ लिया है. उसे, सड़े हुए आदमी को तो वहीं पर मार डालना चाहिए.”

खून से लथपथ आदमी के पीछे उत्तेजित भीड़ रेंग रही थी, कहीं फ़र की टोपी पर सुनहरी पूंछ और दो राईफलों के सिरों की झलक दिखाई दी. कस कर रंगीन बेल्ट बांधे कोई आदमी खून से लथपथ आदमी की बगल में लड़खड़ाती चाल से चल रहा था, और कभी-कभार, जब वह खास तौर से जोर से चिल्लाता, तो यंत्रवत् उसकी गर्दन पर मुक्का मार देता; तब वह अभागा कैदी, कुछ भी न समझ पाते हुए, खामोश हो जाता और तीव्र आवेग से, मगर निःशब्द सिसकियाँ लेने लगता.

दोनों स्टूडेंट्स ने जुलूस छोड़ दिया, जब वह गुज़र गया, तो लम्बे वाले ने छोटे का हाथ पकड़ा और दुर्भावनापूर्ण उल्लास से फुसफुसाया:

“ऐसा ही होना चाहिए. ऐसा ही होना चाहिए. दिल से बोझ उतर गया. मगर, एक बात तुझसे कहता हूँ, करास, कि बोल्शेविक कमाल के हैं! अपने सम्मान की कसम – होशियार हैं. ये है काम, ऐसा होता है काम! देखा कि वक्ता को कैसे लपेट लिया? और बहादुर हैं. इसलिए मैं उन्हें पसंद करता हूँ – बहादुरी के लिए, उनकी तो...”

छोटे वाले ने हौले से कहा:

“अब अगर न पी जाए, तो इन्सान फांसी लगा ले.”
“ये हुई न बात. अच्छा ख़याल है
,” लम्बे वाले ने जिंदादिली से समर्थन किया.

“तेरे पास कितने हैं?

“दो सौ.”

“मेरे पास डेढ़ सौ. तमार्का के यहाँ जायेंगे, डेढ़ लेंगे...”

“बंद है.”

“खोलेगी.”

दोनों व्लादीमिर्स्काया की तरफ़ मुड़े, बैनर लगे दोमंजिला मकान तक पहुंचे:

“किराना स्टोअर”, और बगल में “गोदाम – तमारा कैसल”. सीढ़ियों से नीचे उतरने के बाद, दोनों सावधानी से कांच का, दुहरा दरवाज़ा खटखटाने लगे.

 

 

*****   

 

 

17   

वह इच्छित लक्ष्य, जिसके बारे में निकोल्का इन तीन दिनों के दौरान सोच रहा था, जब घटनाएं परिवार पर पत्थरों की तरह टूट पड़ी थीं, वह लक्ष्य, जो बर्फ पर गिरे हुए आदमी के रहस्यमय, अंतिम शब्दों से संबंधित था, उस लक्ष्य को निकोल्का ने प्राप्त कर लिया. मगर इसके लिए, उसे पूरे दिन परेड़ से पहले, शहर में भागना पडा और कम से कम नौ पतों पर जाना पडा. और इस भागदौड़ में कई बार निकोल्का अपनी मानसिक शक्ति खोता रहा, और गिरता रहा, और फिर से उठता रहा, और आखिर में उसने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लिया.

शहर के बिल्कुल बाहरी भाग में, लितोव्स्काया स्ट्रीट पर, एक छोटे से घर में उसने डिविजन के दूसरे स्क्वैड के एक व्यक्ति को ढूंढ निकाला, और उससे कर्नल नाय का पता, नाम और कुलनाम प्राप्त किया.

सेंट सोफ़िया वाले चौक को पार करने की कोशिश में निकोल्का क़रीब दो घंटे लोगों की तूफ़ानी लहरों से संघर्ष करता रहा. मगर चौक को पार करना असंभव था, बल्कि इस बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था!

तब इन तंग गलियों से निकलकर आरंभिक बिंदु  - मिखाइलोव्स्की मॉनेस्ट्री पर पहुँचने में ठण्ड से ठिठुर चुके निकोल्का का आधा घंटा बर्बाद हो गया. वहां से निकोल्का ने कस्त्योल्नाया से होते हुए, एक बड़ा चक्कर लगाकर, नीचे क्रिश्चातिक पर पहुँचने की कोशिश की, और वहां से गोल-गोल, निचले रास्तों का चक्कर लगाते हुए,  माला-प्रवाल्नाया पर पंहुचने की कोशिश की. यह भी असंभव ही प्रतीत हुआ! कस्त्योल्नाया से ऊपर की ओर फ़ौजें एक मोटे सांप की भाँति, जैसा की हर तरफ हो रहा था, परेड पर जा रही थीं. तब निकोल्का एक और बड़ा और उत्तल मोड़ लेकर व्लादिमीर्स्काया पहाडी पर पहुंचा और उसने स्वयं को नितांत अकेला पाया. सफ़ेद बर्फ की दीवारों के बीच निकोल्का छतों पर और गलियों में भागते हुए आगे बढ़ता रहा.        

वह ऐसी जगहों पर भी पहुंचा, जहां बर्फ इतनी ज़्यादा नहीं थी. छतों से बर्फ के समुद्र में सामने वाली पहाड़ियों पर स्थित शाही-गार्डन दिखाई दे रहा था, और आगे, बाईं तरफ़, शीत ऋतु के किनारों में, सफ़ेद और शानदार द्नेप्र के पार – अंतहीन सर्दियों की सम्पूर्ण शान्ति में, फैले हुए अंतहीन चिर्निगोफ़ के मैदान.

शांति थी, और पूरा सुकून था, मगर निकोल्का को सुकून से कोई मतलब नहीं था. बर्फ से संघर्ष करते हुए वह एक के बाद दूसरी छत पार करता रहा, और सिर्फ कभी-कभी इस बात पर अचरज करता रहा की, कहीं-कहीं बर्फ़ कुचली गयी है, पैरों के निशान हैं, मतलब कोई न कोई तो सर्दियों में भी बर्फ पर घूमता है.

गली में नीचे उतरा, आखिरकार, निकोल्का ने यह देखकर राहत की सांस ली कि क्रेश्चातिक में फौजें नहीं हैं, और वह इच्छित स्थान की ओर बढ़ा, जिसे वह खोज रहा था. “मावा-प्रवाल्नाया, 21”. यही तो था पता,जो निकोल्का को प्राप्त हुआ था, और यह अलिखित पता निकोल्का के दिमाग में अंकित हो गया था.

 

 

****  

 

 

निकोल्का परेशान हो रहा था और सकुचा रहा था...”किससे और कैसे पूछना बेहतर होगा? कुछ भी पता नहीं है...उसने गार्डन की पहली मंजिल पर स्थित बाहरी फ़्लैट की घंटी बजाई. बड़ी देर तक कोई जवाब नहीं आया, मगर, आखिरकार, कदमों की आहट सुनाई दी, और कुंडी के नीचे दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला. नाक-पकड़ चश्मे में एक महिला के चेहरे ने बाहर झांककर प्रवेश कक्ष के अँधेरे से गंभीरता से पूछा:

“आपको क्या चाहिए?

“माफ़ कीजिये... क्या यहाँ नाय-तुर्स रहते हैं?

महिला का चेहरा एकदम अप्रिय और गंभीर हो गया, चश्मे के कांच चमक उठे.

“कोई नाय तुर्स यहाँ नहीं है,” महिला ने नीची आवाज़ में कहा.

निकोल्का लाल हो गया, परेशान हो गया और दुखी हो गया.

“ये फ़्लैट नंबर पांच...”

“हाँ, तो,” बेमन से और संदेह से महिला ने जवाब दिया, “आप बताइये भी, की आपको क्या चाहिए.”

“मुझे सूचित किया गया है, की तुर्स परिवार यहाँ रहता है...”

महिला के कुछ और चेहरा बाहर निकाला और ताड़ती हुई नज़रों से गार्डन की तरफ़ देखा, यह जानने की कोशिश करते हुए कि क्या निकोल्का के पीछे कोई और भी है... अब निकोल्का ने महिला की पूरी, दोहरी ठोढी देखी.

“हाँ, आपको क्या चाहिए?...आप मुझे बताइये.”

निकोल्का ने गहरी सांस ली और, चारों ओर नज़र घुमाकर कहा:

“मैं फ़ेलिक्स फ़ेलिक्सविच के बारे में...मेरे पास जानकारी है.”

चेहरा फ़ौरन बदल गया. महिला ने पलकें झपकाईं और पूछा:

“आप कौन हैं?

“स्टूडेंट.”

“यहीं इंतज़ार कीजिये,” दरवाज़ा धडाम से बंद हो गया और कदमों की आहट थम गई

आधे मिनट बाद दरवाज़े के पीछे एड़ियाँ खटखटाईं, दरवाजा पूरी तरह खुल गया निकोल्का भीतर गया. मेहमानखाने से प्रवेश कक्ष में रोशनी आ रही थी, और निकोल्का ने फूली-फूली नरम कुर्सी की किनार देखी, और फिर नाक-पकड़ चश्मे वाली महिला को देखा. निकोल्का ने टोपी उतारी, और तभी उसके सामने एक दूसरी, सूखी-सी, मझोले कद की महिला प्रकट हुई, चेहरे पर मुरझाती खूबसूरती के निशान लिए. कुछ अस्पष्ट और महत्वहीन लक्षणों से – या तो कनपटियों पर, या फिर बालों के रंग से, निकोल्का ने अंदाज़ लगाया की यह नाय की माँ है, और वह घबरा गया – वह कैसे सूचित करेगा...महिला ने उस पर सीधी, स्पष्ट नज़र गड़ा दी, और निकोल्का पूरी तरह गड़बड़ा गया. किनारे से कोई और आया, शायद, जवान और बेहद मिलता-जुलता.       

“अच्छा, बताओ भी, हुम्...” माँ ने जिद्दीपन से कहा.
निकोल्का ने हाथों में अपनी टोपी मसल दी
, महिला की ओर अपनी आंखें उठाईं और बोला:

“मैं...मैं...”

सूखी-सट् माँ ने निकोल्का पर अपनी काली और, जैसा कि उसे प्रतीत हुआ, नफ़रतभरी नज़र डाली और अचानक इतनी ज़ोर से चीख़ी, की निकोल्का के पीछे दरवाज़े के शीशे झनझना गए:

“फ़ेलिक्स मारा गया!”

उसने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं, उन्हें निकोल्का के चेहरे के सामने नचाया और चीखी:

“मार डाला...इरीना, सुन रही हो? फ़ेलिक्स को मार डाला!”

भय से निकोल्का की आंखों के आगे धुंध छा गयी, और उसने बदहवासी से सोचा: “मैंने तो कुछ भी नहीं कहा...माय गॉड!” नाक-पकड़ चश्मा पहनी मोटी महिला ने फ़ौरन निकोल्का के पीछे वाला दरवाज़ा धड़ाम् से बंद कर दिया. फिर जल्दी, जल्दी सूखी वाली महिला के पास भागी, उसे कन्धों से पकड़ा और जल्दी-जल्दी फुसफुसाई:

“ओह, मारिया फ्रान्त्सेव्ना, चुप, प्यारी, शांत हो जाईये...” निकोल्का की ओर झुकी, पूछा: “हाँ, हो सकता है, कि ये सच न हो?...खुदा...आप बताईये भी...क्या सचमुच?...”

निकोल्का इस पर कुछ न कह सका... उसने सिर्फ बदहवासी से सामने की ओर देखा और फिर से कुर्सी की किनार देखी.

“धीरे, मारिया फ्रान्त्सेव्ना, धीरे, प्यारी...खुदा के लिए...लोग सुन लेंगे...खुदा की मर्जी...” मोटी महिला बुदबुदाई.

नाय-तुर्स की माँ पीठ के बल गिर पड़ीं और बिसूरने लगी:

“चार साल! चार साल! मैं इंतज़ार कर रही हूँ, बस, इंतज़ार ही कर रही हूँ...इंतज़ार कर रही हूँ!”

अब जवान महिला निकोल्का के कंधे के पीछे से माँ की तरफ़ लपकी और उसे पकड़ लिया. निकोल्का को उसकी सहायता करनी चाहिए थी, मगर वह अप्रत्याशित, भयानक रूप से बेकाबू होकर सिसकियाँ लेने लगा और अपने आप को रोक न सका.

 

****   

 

 

खिड़कियों पर परदे खिंचे हुए हैं, मेहमानखाने में आधा अन्धेरा और पूरी खामोशी है, जिसमें दवा की गंध आ रही है...

खामोशी को आखिर जवान महिला ने तोड़ा – उसी बहन ने. वह खिड़की से मुडी और निकोल्का के पास आई. निकोल्का कुर्सी से उठा, हाथों में अभी तक टोपी पकड़े हुए, जिसे इन भयानक परिस्थितियों में वह छोड़ नहीं पा रहा था. बहन ने यंत्रवत् ढंग से काले बालों की लट को ठीक किया, मुंह खींचा और पूछा:

“वह कैसे मरा?

“वह मरा,” निकोल्का ने अपनी सबसे बेहतरीन आवाज़ में जवाब दिया, “वह, पता है, एक ‘हीरो की मौत मरा. वास्तविक ‘हीरो’...सभी कैडेट्स को समय रहते भगा दिया, और खुद,” सुनाते हुए निकोल्का रो रहा था, “और खुद फायरिंग से उनकी रक्षा की. उसके साथ-साथ मुझे भी उन्होंने करीब-करीब मार ही डाला था. हम मशीनगनों की फायरिंग की चपेट में आ गए थे,” निकोल्का रोते-रोते सुना रहा था, “हम...सिर्फ दो ही बचे थे, और वह मुझे भगा रहा था, और डांट रहा था, और मशीनगन से फायर किये जा रहा था. चारों ओर से घुड़सवार दल हम पर टूट पड़े, क्योंकि हम जाल में फंस गए थे. सही में, सभी दिशाओं से.”

“और, हो सकता है, उसे सिर्फ घायल किया हो?

“नहीं,” निकोल्का ने दृढ़ता से उत्तर दिया और गंदे रूमाल से आंखें, और नाक और मुंह पोंछने लगा, “ नहीं उसे मार डाला. मैंने खुद उसे छूकर देखा था. सिर में गोली लगी थी और सीने पर.”

 

**** 

 

अन्धेरा और गहरा हो गया, बगल वाले कमरे से कोई भी आवाज़ नहीं आ रही थी, क्योंकि मारिया फ्रान्त्सेव्ना खामोश हो गयी थी, और मेहमानखाने में, पास-पास बैठकर तीनों फुसफुसा रहे थे: नाय की बहन – इरीना, वह नाकपकड़ चश्मे वाली मोटी, जैसा की निकोल्का को बताया गया – क्वार्टर की मालकिन -  लीदिया पाव्लव्ना, और खुद निकोल्का.

“मेरे पास पैसे नहीं हैं,” निकोल्का फुसफुसाया, “ अगर ज़रूरी हो, तो मैं अभी भागकर पैसों का इंतज़ाम करूँगा, और उसके बाद जायेंगे.”

“मैं अभी पैसे देती हूँ,” लीदिया पाव्लव्ना की आवाज़ गूंजी, “पैसे तो छोटी चीज़ है, सिर्फ आप, खुदा की खातिर, काम पूरा कर लेना. इरीना, उससे एक भी लब्ज़ न कहना, की कहाँ और क्या...मैं खुद भी नहीं समझ पा रही हूँ, कि क्या करना चाहिए...”

“मैं इसके साथ जाऊंगी,” इरीना फुसफुसाई, “और हम काम पूरा कर लेंगे. आप उससे कहेंगी की वह बैरेक्स में पडा है, और उसे देखने के लिए इजाज़त लेनी होगी.”

अच्छा, अच्छा.... ये अच्छी बात है....अच्छा है....”

मोटी महिला – फ़ौरन बगल वाले कमरे में लपकी, और वहां से उसकी आवाज़ सुनाई देने लगी, फुसफुसाती, यकीन दिलाती:

“मारिया फ्रान्त्सेव्ना, ओह, लेट जाईये, क्राईस्ट की खातिर...वो लोग अभी जायेंगे और सब कुछ पता करेंगे. इस कैडेट ने बताया है की वह बैरेक्स में पडा है.”

चारपाई पर? ...” खनखनाती और, जैसा निकोल्का को फिर से आभास हुआ, घृणित आवाज़ ने पूछा.

“क्या कह रही हैं, मरीया फ्रान्त्सेव्ना, वह चैपल में है, चैपल में...”

“हो सकता है, चौराहे पर पड़ा हो, कुत्ते उसे नोच रहे होंगे.”

“आह, मारिया फ्रान्त्सेव्ना, ओह, आप कह क्या रही हैं...शान्ति से लेटी रहिये, आपकी मिन्नत करती हूँ...”  

“इन तीन दिनों से मम्मा बिल्कुल अस्वाभाविक हो गयी हैं...” नाय की बहन फुसफुसाई और उसने फिर से बालों की ज़िद्दी लट को पीछे हटाया और निकोल्का के पीछे दूर कहीं देखती रही, - “खैर, इस सबका अब कोई मतलब नहीं है.”

बहन फ़ौरन उछली और भागी.

“मम्मा, मम्मा, तुम नहीं जाओगी. अगर तुम जाओगी, तो कैडेट मदद करने से इनकार कर रहा है. उसे गिरफ़्तार कर सकते हैं. लेटी रहो, लेटी रहो, मैं मिन्नत करती हूँ...”
“ओह
, इरीना, इरीना, इरीना, इरीना,” बगल वाले कमरे से सुनाई दिया, “ मार डाला, मार डाला उसे, और तू क्या कह रही है? क्या ?,,,तू, इरीना...अब मैं करूंगी क्या, जब फेलिक्स को मार डाला है? मार डाला... और वह बर्फ में पड़ा है...क्या तुम सोचती हो...” फिर से सिसकियाँ शुरू हो गईं, चारपाई चरमराई और फ़्लैट की मालकिन की आवाज़ सुनाई दी:

“ओह, मारिया फ्रान्त्सेव्ना, ओह, बेचारी, ओह, सब्र करो, सब्र करो...”

“आह, खुदा, ख़ुदा,” जवान महिला ने कहा और तेज़ी से मेहमानखाने से होकर भागी. निकोल्का ने, भय और निराशा का अनुभव करते हुए, बदहवासी से सोचा: “और अगर न ढूंढ पाए तो, फिर क्या?

 

 

**** 

 

सबसे खौफनाक दरवाजों के पास, जहाँ, बर्फबारी के बावजूद, भयानक दुर्गन्ध महसूस हो रही थी, निकोल्का रुका और बोला:

“आपके लिए, शायद यहाँ कुछ देर बैठना अच्छा रहेगा...वर्ना... वर्ना तो वहां ऐसी बदबू है, कि हो सकता है, आपकी तबियत खराब हो जाए.”

इरीना ने हरे दरवाज़े की तरफ़ देखा, फिर निकोल्का की तरफ़ और कहा:

“नहीं, मैं आपके साथ चलूंगी.”

निकोल्का ने भारी दरवाज़े का हैंडिल खींचा और वे भीतर गए. शुरू में अन्धेरा था. फिर खाली हैंगरों की अंतहीन कतारें टिमटिमाईं. ऊपर मद्धिम रोशनी वाला बल्ब जल रहा था.   

निकोल्का ने आशंका से अपनी हमसफ़र की ओर देखा, मगर वह – जैसे कोई ख़ास बात न हो – उसकी बगल में चल रही थी, और सिर्फ उसका चेहरा पीला था, और उसकी भौंहे चढ़ी थीं. इस तरह से चढ़ी थीं,कि निकोल्का को नाय-तुर्स की याद दिला गईं, मगर, समानता हल्की-सी ही थी – नाय का चेहरा फौलादी था, सीधा-सादा और मर्दाना, मगर ये – सुन्दर थी, और वैसी नहीं, जैसी रूसी महिला होती है, बल्कि, विदेशी. आश्चर्यजनक, असाधारण युवती थी.     

ये बदबू, जिससे निकोल्का इतना घबरा रहा था, चारों तरफ़ थी. फर्श गंधा रहे थे, दीवारें गंधा रही थीं, लकड़ी के हैंगर्स भी. ये बदबू इस हद तक खतरनाक थी, कि उसे देखा भी जा सकता था. ऐसा प्रतीत हो रहा था, की दीवारें मोटी-मोटी और चिपचिपी हैं, और हैंगर्स, चमकदार, फर्श मोटे, और वहाँ की हवा घनी और सड़े हुए मांस की दुर्गन्ध से संतृप्त थी. वैसे दुर्गन्ध की तो जल्दी ही आदत हो जाती है, मगर बेहतर है कि न कहीं गौर से देखो, और न ही कुछ सोचो. सबसे ख़ास बात, कुछ न सोचो, वर्ना फ़ौरन जान जाओगे की ‘मतली क्या होती है. कोट पहने एक स्टूडेंट की झलक दिखाई दी और वह गायब हो गया. हैंगर्स के पीछे बाईं और चरमराते हुए दरवाज़ा खुला, और वहाँ से जूते पहने एक आदमी बाहर आया. निकोल्का ने उसकी तरफ़ देखा और फ़ौरन आंखें फेर लीं, ताकि उसका कोट न देखे. कोट चमक रहा था, हैंगर की तरह, और आदमी के हाथ भी चमक रहे थे.

“आपको क्या चाहिए?” उस आदमी ने कठोरता से पूछा.

“हम,” निकोल्का ने कहा, “काम से आये हैं, हमें मैनेजर से मिलना है...हमें मारे गए व्यक्ति को ढूँढना है. शायद, वह यहाँ है?

“कौनसे मारे गए आदमी को?” आदमी ने पूछा और कनखियों से देखा...

“वहां, रास्ते पर, तीन दिन पहले उसे मार डाला गया...”

“अहा, शायद, कैडेट या ऑफिसर...और कज़ाकों ने हमला कर दिया. वह – कौन है?

निकोल्का यह बताने से डर रहा था की नाय-तुर्स ऑफिसर ही था, और उसने कहा:

“ओह, हाँ, और उसे भी मार डाला...”

“वह  गेटमन का ऑफिसर था,” इरीना ने कहा, “नाय-तुर्स,” और वह उस आदमी की ओर बढ़ी.

ज़ाहिर है, उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि नाय-तुर्स कौन है, उसने इरीना पर तिरछी नज़र डाली और खांसते हुए और फर्श पर थूकते हुए जवाब दिया:

“मैं नहीं जानता की क्या कर सकता हूँ. क्लासेस ख़त्म हो गयी हैं, और हॉल्स में कोई नहीं है। दूसरे चौकीदार जा चुके हैं. ढूँढना मुश्किल है. बहुत मुश्किल. मुर्दों को नीचे वाले तहखानों में ले गए हैं. मुश्किल है, बेहद मुश्किल...”

इरीना नाय ने अपना पर्स खोला, कागज़ का एक ‘नोट’ बाहर निकाला और चौकीदार की ओर बढ़ा दिया. निकोल्का मुड़ गया, यह सोचकर डरते हुए कि ईमानदार चौकीदार इसका विरोध करेगा. मगर चौकीदार ने विरोध नहीं किया...

“शुक्रिया, मालकिन,” उसने जिंदादिली से कहा, “ढूँढा जा सकता है. सिर्फ इजाज़त की ज़रुरत है. अगर प्रोफ़ेसर इजाज़त देंगे, तो लाश को ले जा सकते हैं.”

“और, प्रोफ़ेसर कहाँ है?”..” निकोल्का ने पूछा.

“वो यहीं हैं, सिर्फ मसरूफ़ हैं. पता नहीं...क्या उनसे कहूं?..”

“प्लीज़, प्लीज़, उन्हें फ़ौरन सूचित कीजिए”, निकोल्का ने विनती की, “मैं उसे फ़ौरन पहचान लूंगा, मृत व्यक्ति को...”.

“सूचित कर सकता हूँ,” चौकीदार ने कहा और उन्हें ले चला. वे सीढ़ियाँ चढ़कर कॉरीडोर में आए, जहां बदबू और तेज़ हो गयी. फिर कॉरीडोर में चलते रहे, फिर बाएँ, और बदबू कम  हो गयी,  और उजाला हो गया, क्योंकि कॉरीडोर कांच की छत के नीचे था. यहाँ दाएँ और बाएँ, दरवाज़े सफ़ेद थे. उनमें से एक के पास चौकीदार रुका, उसने दरवाज़े पर दस्तक दी, फिर टोपी उतारी और भीतर गया. कॉरीडोर में खामोशी थी, और छत से रोशनी छन कर आ रही थी. दूर के कोने में अन्धेरा होने लगा था. चौकीदार बाहर आया और बोला:

“यहाँ आइये.”

निकोल्का भीतर गया, उसके पीछे इरीना नाय...निकोल्का ने कैप उतारी और सबसे पहले उसकी नज़र उस विशाल कमरे में लगे चमकीले परदों पर पड़े काले धब्बों और भयानक तेज़ प्रकाश-पुंज की ओर गई, जो मेज़ पर पड़ रहा था, प्रकाश पुंज में काली दाढी और झुर्रियां पडा थका हुआ चेहरा, और मुडी हुई नाक नज़र आ रही थी. फिर, उदास हो गए निकोल्का ने दीवारों पर नज़र दौडाई. आधे अँधेरे में अंतहीन अलमारियां चमक रही थीं, और उनमें कुछ राक्षसों की, काली और पीली, भयानक चीनी आकृतियों की झलक दिखाई दी.       

कुछ दूरी पर उसने पादरियों जैसा चमड़े का एप्रन और काले दस्ताने पहने एक ऊंचे आदमी को देखा. वह लम्बी मेज़ पर झुका हुआ था, जिसके ऊपर, हरे ट्यूलिप के नीचे लटकते हुए बल्ब की रोशनी में, शीशों के सफ़ेद और सुनहरे रंग में चमकते, तोपों के समान, माइक्रोस्कोप्स रखे थे.   

“आपको क्या चाहिए?” प्रोफ़ेसर ने पूछा.

निकोल्का ने थके हुए चेहरे और इस दाढ़ी को देखकर ही पहचान लिया , कि वही प्रोफ़ेसर है, और वह दूसरा – पादरी जैसे एप्रन वाला – उससे नीचे – कोई सहायक है.

तेज़ प्रकाश पुंज की ओर देखते हुए, जो अजीब तरह से मुड़े हुए – चमकदार लैम्प से निकल रहा था, और अन्य चीज़ों की तरफ़ – तम्बाकू से पीली हो गईं उँगलियों, भयानक घृणित वस्तु, जो प्रोफ़ेसर के सामने पड़ी थी – मानवीय गर्दन और ठोढी, जो नसों और धागों से बनी थी, दर्जनों चमकदार हुक और कैंचियाँ जडी, जिनसे वह लटक रही थी, निकोल्का खांसा...

“क्या आप रिश्तेदार हैं?” प्रोफ़ेसर ने पूछा. उसकी आवाज़ खोखली थी, थके हुए चहरे और इस दाढ़ी के अनुरूप. उसने सिर उठाया और आंखें सिकोड़ कर इरीना नाय, उसके फ़र-कोट और जूतों की तरफ़ देखा.

“मैं उसकी बहन हूँ,” उस वस्तु की ओर न देखने की कोशिश करते हुए, जो प्रोफ़ेसर के सामने पड़ी थी, नाय ने कहा.

“देखिये, सिर्गेइ निकलायेविच, यह कितना मुश्किल है. ये पहला मौक़ा नहीं है...हाँ, हो सकता है, की वह अभी तक हमारे यहाँ न हो. मुर्दाखाने में कुछ मुर्दे ले गए हैं ना?

“हो सकता है,” उस लम्बे आदमी ने जवाब दिया और कोई उपकरण एक तरफ फेंक दिया...

“फ्योदर...” प्रोफ़ेसर चिल्लाया...

****   

 

“नहीं, आप वहां...आपको वहाँ जाने की इजाज़त नहीं है...मैं खुद...” निकोल्का ने नम्रता से कहा...

“आप बेहोश हो जायेंगी, मैडम,” चौकीदार ने पुष्टि की. “यहाँ,” उसने आगे कहा, “इंतज़ार कर सकती हैं.”

निकोल्का उसे एक तरफ़ ले गया, उसे और दो नोट दिए और उसे महिला को साफ़ स्टूल  पर बिठाने के लिए कहा. घरेलू पाईप के कश लगाते हुए चौकीदार कहीं से एक स्टूल लाया, जहां एक हरा लैम्प और कुछ कंकाल खड़े थे.

“आप डॉक्टर तो नहीं हैं ना, मालिक? डॉक्टरों को फ़ौरन आदत हो जाती है,” और बड़ा दरवाज़ा खोलकर एक स्विच दबाया, ऊपर, कांच की छत के नीचे बल्ब जल उठा.  

कमरे से तीखी बदबू आ रही थी. जस्ते की मेजें कतारों में चमक रही थीं. वे खाली थीं, और कहीं खड़खड़ाते हुए पानी सिंक में गिर रहा था. पैरों के नीचे पत्थरों का फर्श आवाज़ कर रहा था. दुर्गन्ध से परेशान निकोल्का, जो, शायद, यहाँ सदियों से बस गई थी, कुछ भी न सोचने की कोशिश करते हुए चल रहा था. वे चौकीदार के साथ सामने वाले दरवाजों से होकर एकदम अँधेरे कॉरीडोर में निकले, जहां चौकीदार ने छोटा सा बल्ब जलाया, फिर कुछ दूर और गए. चौकीदार ने  भारी-भरकम बोल्ट सरकाया, लोहे का दरवाज़ा खोला और फिर से एक बल्ब जलाया. निकोल्का को ठंडक ने दबोच लिया.             

अँधेरे कमरे के कोनों में सिलिंडर रखे थे, इस तरह, की उनमें से मानव मांस के टुकड़े, और कतरनें, त्वचा के चीथड़े, उंगलियाँ, टूटी हुई हड्डियां बाहर निकल रहे थे. थूक निगलते हुए निकोल्का मुड़ गया, और चौकीदार ने उससे कहा:

“ये सूंघिए, मालिक.” 

निकोल्का ने आंखें बंद कर लीं, नाक से असहनीय गंध सूंघी – बोतल से अमोनिया की गंध. मानो आधी नींद में, निकोल्का ने आंखें सिकोड़ कर फ्योदर के पाइप में जलती हुई तम्बाकू की मीठी गंध महसूस की. फ्योदर बड़ी देर तक लिफ्ट के ताले से जूझता रहा, उसे खोला, और वे लिफ्ट के प्लेटफार्म पर खड़े हो गए. फ्योदर ने हैंडल खींचा, और चरमराते हुए प्लेटफार्म नीचे की ओर चल पडा. नीचे से बर्फीली ठंडक महसूस हो रही थी. प्लेटफोर्म रुक गया. वे एक विशाल गोदाम में घुसे. निकोल्का ने अस्पष्ट रूप से वह देखा जो उसने पहले कभी नहीं देखा था. रैक में जलाऊ लकड़ियों की तरह, एक के ऊपर एक, नग्न मानवीय शरीर पड़े थे, असहनीय, दमघोटू बदबू छोड़ते हुए,  अमोनिया के बावजूद, मानवीय शरीरों की दुर्गन्ध तीव्रता से महसूस हो रही थी. सख्त पड़ चुकीं, या बेहद पिलपिली टांगों की एड़ियां बाहर निकल रही थीं. औरतों के चहरे फूले-फूले और उलझे हुए बालों समेत पड़े थे, और उनके स्तन कुचले हुए, मसले गए, नील पड़े हुए थे.

“तो, अब उन्हें पलटेंगे, और आप देखिये,” चौकीदार ने झुकते हुए कहा. उसने पैर से महिला का मृत शरीर पकड़ा, और वह, चिपचिपा, खट् से फर्श पर फिसल गया, जैसे मक्खन पर फिसल रहा हो. निकोल्का को वह खतरनाक रूप से ख़ूबसूरत और चिपचिपी प्रतीत हुई, किसी चुड़ैल की तरह. उसकी आंखें खुली थीं और सीधे फ्योदर की ओर देख रही थीं. निकोल्का ने प्रयत्नपूर्वक उस घाव से नज़रें हटाईं, जो लाल रिबन की तरह उसे घेरे हुए था, और दूसरी तरफ देखने लगा. उसकी आंखों के आगे धुंध छा गयी, और इस ख़याल से सिर चकराने लगा, कि इन चिपचिपे जिस्मों के पूरे ढेर को पलटना पडेगा.

“ज़रुरत नहीं है. ठहरिये,” उसने कमजोर आवाज़ में फ्योदर से कहा और बोतल को जेब में घुसा दिया, “ये रहा वो. मिल गया. वह सबसे ऊपर है. ये है, यही है.”

फ्योदर फ़ौरन सरक गया, संतुलन बनाते हुए, ताकि फर्श पर न फिसल जाए, नाय-तुर्स को सिर से पकड़ कर जोर से झकझोर दिया. नाय के पेट पर औंधे मुंह, चिपचिपी, चौड़े नितम्बों वाली महिला लेटी थी, और उसके बालों में कांच के टुकड़े की तरह, एक सस्ती कंघी चमक रही थी. फ्योदर ने रास्ते में, हौले से उसे निकाल लिया, अपने एप्रन की जेब में डाल लिया और नाय को बगल के नीचे पकड़ लिया. उसका सिर, रैक से निकलते हुए, हिल रहा था,  लटक गया था, और नुकीली, बिना हजामत की हुई ठोढी ऊपर को उठ गयी, एक हाथ फिसल गया.

फ्योदर ने नाय को ऐसे नहीं फेंका, जैसे महिला को फेंका था, बल्कि सावधानी से, बगलों के नीचे, लुंज-पुंज हुए शरीर को झुकाते हुए, निकोल्का के चेहरे के सामने, उसे इस तरह से मोड़ा, की नाय के पैर फर्श को छूने लगे, और कहा:

“आप देखिये – वही है? जिससे गलती न हो जाए.”

निकोल्का ने सीधे नाय की आंखों में देखा, खुली हुई, कांच जैसी नाय की आंखें कुछ निरर्थक सा कह रही थीं. उसके बाएं गाल पर हल्की सी हरियाली थी, और सीने पर, पेट पर चौड़े काले धब्बे थे, शायद खून के धब्बे थे.

“वही है,” निकोल्का ने कहा.

फ्योदर ने वैसे ही बगलों के नीचे से नाय को लिफ्ट के प्लेटफॉर्म पर घसीटा और उसे निकोल्का के पैरों के पास छोड़ दिया. मुर्दे के हाथ खुल गए और ठोढी फिर से ऊपर उठ गई. फ्योदर खुद भी चढ़ गया, उसने हैंडिल घुमाया, और लिफ्ट ऊपर की ओर चली गयी.

 

 

****   

 

 

 

उसी रात ‘चैपल’ में सब कुछ वैसे ही किया गया, जैसा निकोल्का चाहता था, और उसकी अंतरात्मा पूरी तरह शांत थी. मगर दुखी और कठोर थी. एनाटॉमी थियेटर से लगे चैपल में, जो बिल्कुल नंगा और उदास था, रोशनी हो गयी. कोने में किसी अज्ञात व्यक्ति के ताबूत को ढक्कन से बंद कर दिया गया था, और भयानक, अज्ञात, मृत पड़ोसी नाय की शान्ति में खलल नहीं डाल रहा था. खुद नाय भी ताबूत में ज़्यादा प्रसन्न नज़र आ रहा था और खुश हो रहा था.

नाय – बातूनी और प्रसन्न चौकीदारों द्वारा नहलाया गया, बिना स्ट्रैप्स के फ्रेंच कोट में, माथे पर पुष्पगुच्छ, तीन मोमबत्तियों के नीचे, और, महत्वपूर्ण बात, नाय गजभर लम्बे शोख रंग के जोर्जियन रिबन में, जिसे खुद निकोल्का ने अपने हाथों से उसके ठन्डे, चिपचिपे सीने पर कमीज़ के नीचे रख दिया था. बूढ़ी माँ तीन मोमबत्तियों से निकोल्का की ओर मुडी, और उससे बोली:

“मेरा बेटा. खैर, तुम्हारा शुक्रिया.”

और यह सुनकर निकोल्का फिर से रो पड़ा और चैपल से निकल कर बर्फ पर आ गया. एनाटॉमी थियेटर के आँगन के ऊपर थी रात, बर्फ और सफ़ेद आकाश-गंगा.

 

 

 

 

 

18

 

           

         

      22 दिसंबर को दोपहर में तुर्बीन मरने लगा. यह दिन धुंधला था, बर्फीला था और दो दिनों बाद आने वाले क्रिसमस की चमक से सराबोर था. यह चमक ख़ास तौर से मेहमानखाने के लकड़ी के फर्श की चमक से महसूस हो रही थी, जिस पर अन्यूता, निकोल्का और लारिओसिक के संयुक्त प्रयासों द्वारा एक दिन पहले, बिना शोर मचाए, पॉलिश की गयी थी. अन्यूता के हाथों से साफ़ किये गए लैम्प-स्टैंड से भी ऐसा ही पूर्वानुमान हो रहा था. और आखिरकार पाईन वृक्षों की नुकीली पत्तियों की महक फ़ैल गयी और हरियाली ने उस कोने को आलोकित कर दिया, जहां पियानो की खुली कुंजियों पर मानो न जाने कबसे भूला बिसरा फ़ाऊस्ट पडा था...

 

मैं बहन के साथ....

 

करीब दोपहर को एलेना तुर्बीन के कमरे के दरवाज़े निकली, उसके कदम बिलकुल मज़बूत नहीं थे, वह खामोशी से डाइनिंग रूम से गुज़री जहां पूरी तरह खामोश करास, मिश्लायेव्स्की और लरिओसिक बैठे थे. जब वह जा रही थी, तो उसके चेहरे की ओर देखने से डरते हुए कोई भी हिला तक नहीं. एलेना ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया, और भारी-भरकम परदा फ़ौरन निश्चल हो गया.  

मिश्लायेव्स्की कसमसाया.

“देखो,” भर्राई हुई फुसफुसाहट से उसने कहा, “कमांडर ने सब कुछ अच्छी तरह किया, मगर अल्योश्का को तो मुसीबत में डाल दिया...

करास और लरिओसिक ने इस पर कुछ नहीं कहा. लारिओसिक ने आंखें झपकाईं, और उसके गालों पर बैंगनी परछाईयां तैर गईं.

“आह...शैतान,”  मिश्लायेव्स्की ने आगे कहा, वह उठा और, अस्थिर कदमों से, दरवाज़े की ओर बढ़ा, फिर असमंजस से रुक गया, मुड़ा, एलेना के दरवाज़े पर आंख मारी. “सुनो, साथियों, आप लोग ध्यान रखना... वर्ना...”

वह अनिश्चय की स्थिति में कुछ देर खड़ा रहा और किताबों वाले कमरे में चला गया, वहां उसके कदमों की आहट रुक गयी. कुछ समय बाद उसकी आवाज़, और कुछ और अजीब बिसूरती आवाजें निकोल्का के कमरे से सुनाई दीं.

निकोल रो रहा है,” हताश स्वर में लरिओसिक फुसफुसाया, उसने गहरी सांस ली, दबे पाँव एलेना के दरवाज़े के पास गया, चाभी वाले सुराख की ओर झुका, मगर कुछ भी नहीं देख सका. उसने असहायता से करास की ओर देखा, उसे इशारे करने लगा, निःशब्द कुछ पूछने लगा. करास दरवाज़े के पास आया, कुछ झिझका, मगर फिर हौले से, कई बार, उंगली के नाखून से दरवाज़ा खटखटाया और धीरे से बोला:

“एलेना वसील्येव्ना, एलेना वसील्येव्ना...”  

“आह, आप घबराईये नहीं,” दरवाज़े के पीछे से एलेना की दबी-दबी आवाज़ आई, “भीतर मत आईये.”

करास पीछे हट गया, और लरिओसिक भी. वे दोनों अपनी-अपनी जगह पर वापस लौट आये – सार्दाम वाली भट्टी के निकट कुर्सियों पर और खामोश हो गए.

तुर्बीनों के लिए, और उनके घनिष्ठ मित्रों तथा रिश्तेदारों के लिए, अलेक्सेई के कमरे में करने के लिए कुछ भी नहीं था. वहाँ वैसे भी तीन मर्दों के कारण जगह की कमी महसूस हो रही थी. उनमें एक था सुनहरी आंखों वाले भालू जैसा, दूसरा – नौजवान, सफाचट दाढी और सुडौल शरीर वाला, जो डॉक्टर की अपेक्षा गार्ड्स-ऑफिसर जैसा लग रहा था, और, तीसरा, बेशक, सफ़ेद बालों वाला प्रोफ़ेसर. जब वह सोलह दिसंबर को वह प्रकट हुआ था, तभी उसके अनुभव ने उसे और तुर्बीन परिवार को अप्रिय जानकारी दी थी. वह सब समझ गया, और उसने तभी कह दिया कि तुर्बीन को टाइफ़स है. और बाएं हाथ की बगल के पास वाला घाव कम महत्वपूर्ण हो गया. वही प्रोफ़ेसर, एलेना के साथ, अभी घंटा भर पहले मेहमानखाने में निकला और उसके जिद्दी सवाल के जवाब में, जो न सिर्फ ज़ुबान से, बल्कि सूखी आंखों और फटे हुए होठों, और बढ़ी हुई लटों द्वारा भी पूछा गया था, बोला कि उम्मीद कम है, और आगे, एलेना की आंखों में, अत्यंत अनुभवी और इसलिए सब से सहानुभूति रखने वाली आँखों से झांकते हुए बोला, “बेहद कम”. सब को अच्छी तरह मालूम है और एलेना को भी, की इसका क्या मतलब है, की उम्मीद ज़रा-सी भी नहीं है और, मतलब, तुर्बीन मर रहा है. इसके बाद एलेना भाई के पास शयनकक्ष में गयी और उसके चेहरे की ओर देखते हुए बड़ी देर तक खड़ी रही, और तभी वह अच्छी तरह समझ गई, की “उम्मीद नहीं है” का मतलब क्या होता है. सफ़ेद बालों वाले और भले बूढ़े के हुनर का ज्ञान न होने पर भी, यह समझा जा सकता था, की डॉक्टर अलेक्सेई तुर्बीन मर रहा है. 

वह लेटा था, शरीर से अभी तक बुखार की गर्मी निकल रही थी, मगर यह गर्मी अस्थिर और नरम थी, जो बस, गिरने ही वाली है. और उसके चहरे पर कुछ अजीब, मोम जैसे लक्षण प्रकट होने लगे, और उसकी नाक बदल गई, पतली हो गयी, और नाक के ऊपर जैसे कोई निराशा विशेष रूप से मंडरा रही थी. एलेना के पैर ठन्डे हो गए, और शयनकक्ष की कपूर से सराबोर हवा में उसे धुंध उदासी महसूस होने लगी. मगर यह सब जल्दी ही समाप्त हो गया.

तुर्बीन के सीने पर कुछ पड़ा था, पत्थर जैसा, और वह सीटी जैसी आवाज़ से सांस ले रहा था, भिंचे हुए दांतों से चिपचिपी हवा खींच रहा था, जो उसके सीने में नहीं पहुँच रही थी. उसे काफी देर से होश नहीं था, और अपने चारों ओर हो रही किसी भी घटना को देख और समझ नहीं पा रहा था. एलेना कुछ देर खड़ी रही, देखती रही. प्रोफ़ेसर ने उसके हाथ को छुआ और फुसफुसाकर कहा:

“आप जाईये, एलेना वसील्येव्ना, हम खुद ही सब कुछ कर लेंगे.”

उसकी बात मानकर एलेना फ़ौरन बाहर निकल आई. मगर प्रोफ़ेसर ने कुछ और नहीं किया.

उसने अपना एप्रन उतारा, रुई के गीले गोलों से अपने हाथ पोंछे और एक बार फिर तुर्बीन के चेहरे की तरफ़ देखा. होठों की सिलवटों और नाक के पास नीली छाया गहराती जा रही थी.

“कोई उम्मीद नहीं,” प्रोफ़ेसर ने सफ़ाचट दाढी वाले के कान में बेहद धीमी आवाज़ में कहा, “आप, डॉक्टर ब्रदोविच, उसके पास रहिये.”

“कपूर?” ब्रदोविच ने फुसफुसाहट से पूछा.

“हाँ, हाँ, हाँ.”

“पूरी सिरिंज?”

“नहीं,” उसने खिड़की से बाहर देखा, कुछ देर सोचा, “एकदम तीन-तीन ग्राम्स. और जल्दी-जल्दी दीजिये”. उसने कुछ सोचा, और आगे कहा, “दुर्भाग्यपूर्ण अंत होने पर आप मुझे फ़ोन कीजिये,” ये शब्द प्रोफ़ेसर ने अत्यंत सावधानी से फुसफुसाते हुए कहे, ताकि अपने बुखार और धुंध की स्थिति में भी तुर्बीन उन्हें सुन न ले, “ क्लिनिक में. अगर ऐसा नहीं होता है, तो मैं अपने लेक्चर के बाद फ़ौरन आ जाऊंगा.”

 

**** 

 

 

 

   

    

साल दर साल, जहां तक तुर्बीनों को याद है, उनके घर में चौबीस दिसंबर की शाम को शाम के धुंधलके में प्रतिमा के पास दीप जलाए जाते, और शाम को मेहमानखाने में थरथराती, गर्माहट भरी रोशनी से फ़र-ट्री की टहनियां दमकने लगतीं. मगर अभी, गोली के घाव और घरघराते हुए टाइफ़स ने सब कुछ अस्त व्यस्त कर दिया था, ज़िंदगी को तेज़ पटरी पर डाल दिया था, और दीपों की रोशनी को भी जल्दी ही प्रज्वलित कर दिया. डाइनिंग रूम का दरवाज़ा थोड़ा सा बंद करके एलेना छोटी सी मेज़ के पास गई, वहां से माचिस की डिब्बी उठाई, कुर्सी पर चढ़ गयी, और चेन से लटका हुआ भारी लैम्प प्रज्वलित कर दिया, जो भारी फ्रेम में जडी हुई पुरानी प्रतिमा के सामने टंगा हुआ था. जब लौ स्थिर हो गयी, तो वह गर्म हो गयी, गॉड मदर के सांवले चेहरे पर उसका प्रभामंडल सुनहरा हो गया, उसकी आंखें सौहार्द्रपूर्ण हो गईं. एक ओर को झुका हुआ सिर एलेना की तरफ़ देख रहा था. खिड़की की दो चौखटों में दिसंबर का श्वेत, खामोश दिन था, कोने में फड़फड़ाती हुई लौ त्यौहार पूर्व का वातावरण निर्माण कर रही थी. एलेना कुर्सी से उतरी, उसने कन्धों से रूमाल फेंक दिया और घुटनों पर झुक गयी. उसने कालीन की किनार दूर हटाई, अपने लिए चमकदार फर्श पर थोड़ी सी जगह बनाई और, चुपचाप, फर्श पर माथा टेका.

मिश्लायेव्स्की डाइनिंग रूम में आया, उसके पीछे पीछे फूली पलकों के साथ निकोल्का. वे तुर्बीन के कमरे में जाकर आये थे. डाइनिंग रूम में लौटने पर निकोल्का ने अपने साथियों से कहा:

“मर रहा है...” उसने गहरी सांस ली.

“तो,” मिश्लायेव्स्की ने कहा, “क्या पादरी को बुलाना चाहिए? आं, निकोल?...जिससे उसे किसी तरह, वर्ना तो, बिना ‘कन्फेशन’ के...”

“ल्येना से कहना होगा,” निकोल्का ने भय से उत्तर दिया, “उसके बगैर कैसे. और उसे कुछ हो जाएगा...”

“मगर डॉक्टर क्या कहता है?” करास ने पूछा.

“इसमें कहने की क्या बात है. कहने के लिए अब कुछ है ही नहीं,” मिश्लायेव्स्की ने भर्राई आवाज़ में कहा.

वे बड़ी देर तक व्यग्रता से फुसफुसाते रहे, और सुनाई दे रहा था, कि कैसे बेचारा बदहवास लारिओसिक आहें भर रहा है. एक बार फिर डॉक्टर ब्रदोविच के पास गए. उसने बाहर प्रवेश कक्ष की ओर नज़र डाली, सिगरेट का कश लिया और फुसफुसाकर कहा, कि वह बड़ी पीड़ा में है, कि, पादरी को बुला सकते हैं, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मरीज़ तो बेहोश है और इससे किसी को नुक्सान नहीं पंहुचता.   

“खामोश ‘कन्फेशन...”

   फुसफुसाते रहे, फुसफुसाते रहे, मगर फिलहाल पादरी को बुलाने का फैसला न कर पाए, और एलेना के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया, उसने दबी हुई आवाज़ में दरवाज़े के भीतर से जवाब दिया: “अभी आप लोग जाइए...मैं थोड़ी देर में बाहर आऊँगी...”

और वे चले गए.

घुटनों के बल झुके हुए एलेना ने भंवों के नीचे से स्पष्ट आंखों वाले काले पड़ गए मुख के ऊपर दांतेदार मुकुट की ओर देखा और, हाथ फैलाते हुए फुसफुसाहट से बोली:

“अचानक बहुत सारा दुःख भेज रही हो, ‘मदर – अन्तर्यामी. साल भर के अन्दर ही परिवार ख़त्म कर रही हो. किसलिए?...माँ को, हमारी माँ को छीन लिया, पति मेरे पास नहीं है और होगा भी नहीं, ये मैं समझती हूँ. अब तो बहुत स्पष्ट रूप से समझ रही हूँ. मगर अब बड़े वाले को भी छीन रही हो. किसलिए?...मैं और निकोल्का कैसे रहेंगे?...ज़रा देखो, चारों ओर क्या हो रहा है, तुम देखो...’मदर-अन्तर्यामी, क्या तुम्हें दया नहीं आती?...हो सकता है, कि हम बुरे इंसान हों, मगर हमें इतनी सज़ा क्यों दे रही हो?

वह फिर से झुकी और आतुरता से माथे से फर्श को छुआ, सलीब का निशान बनाया और, फिर से हाथ फैलाकर, प्रार्थना करने लगी:

“बस, तुम्हारा ही सहारा है, परम पवित्र कुँआरी. सिर्फ तुम्हारा. अपने पुत्र से प्रार्थना करो, ईश्वर से प्रार्थना करो, कि कोई चमत्कार करे...”

एलेना की प्रार्थना अधिकाधिक भावुक होती गयी, उसके शब्द लड़खड़ाते हुए निकल रहे थे, मगर उसकी प्रार्थना निरंतर चल रही थी, धारा-प्रवाह थी. वह अक्सर फर्श पर झुकती, सिर को हिलाती, जिससे कंघी से निकल कर आंखों पर उतर आई लट को पीछे हटाए. खिड़कियों की चौखटों से दिन लुप्त हो गया, सफ़ेद बाज़ भी अदृश्य हो गया, घड़ी के बजाये तीन घंटे भी अनसुने रह गए, और पूरी तरह खामोशी में आया वह, जिसे सांवली कन्या के माध्यम से एलेना ने पुकारा था. वह खुली हुई कब्र के निकट प्रकट हुआ, पुनर्जीवित, और दयालु, और नंगे पैर.

एलेना का सीना बेहद चौड़ा हो गया, गालों पर धब्बे उभर आये, आंखें रोशनी से लबालब भर गईं, सूखे, अश्रु रहित रुदन से भर गईं. उसने माथा और गाल फर्श पर टेक दिया, फिर पूरी आत्मा से सीधी होकर लौ की तरफ बढ़ी, घुटनों के नीचे कड़े फर्श का अनुभव न करते हुए.

लौ फड़फड़ाई, मुकुट जड़ा सांवला चेहरा प्रत्यक्ष रूप से सजीव हो उठा, और आंखें एलेना को निरंतर प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करती रही.  

खिड़कियों और दरवाजों के बाहर निपट खामोशी थी, दिन खतरनाक रूप से जल्दी अंधियारे में बदल रहा था, और फिर से एक दृश्य उभरा – आसमानी गुम्बद का कांच जैसा रंग, कुछ अनदेखे, लाल-पीले रेत के ढेर, जैतून के वृक्ष, दिल में सदियों पुरानी खामोशी और ठंडक सुगंध से चर्च महक रहा था.

‘मदर’- दयालु, - लौ में एलेना बुदबुदा रही थी, - उससे कहो. ये रहा वो. तुम्हारे लिए तो कुछ मुश्किल नहीं है. हम पर दया करो. दया करो. तुम्हारे दिन, तुम्हारा त्यौहार आ रहा है. हो सकता है, वह कुछ अच्छा कर दे, और अपने पापों के लिए तुमसे क्षमा मांगती हूँ. सिर्गेइ चाहे तो वापस न लौटे ...उसे हटाना चाहती हो, हटाओ, मगर इसे मौत की सज़ा न दो...हम सब खून के दोषी हैं, मगर तुम सज़ा न दो. सज़ा न दो. ये रहा वो, ये रहा वो...”

लौ फड़फड़ाने लगी, और प्रकाश की एक किरण लम्बी होती गयी, लम्बी होते होते एलेना की आंखों तक पहुँच गई. अब उसकी उन्मत्त आँखों ने देखा कि सुनहरे रूमाल से घिरे हुए मुख पर होंठ विलग हो गए, और आंखें ऐसी अभूतपूर्व हो गईं, कि भय और मदहोश खुशी

उसके दिल को चीरती चली गयी, वह फर्श पर गिर गई और फिर नहीं उठी. 

 

          

****

 

पूरे घर में सूखी हवा की भांति उत्तेजना फ़ैल गयी, डाइनिंग रूम से होकर कोई पंजों के बल भागा. कोई और दरवाज़े को खुरचने लगा, फुसफुसाहट फ़ैल गई:

“एलेना...एलेना...एलेना...” एलेना हथेलियों के पिछले भाग से ठंडा, चिपचिपा माथा पोंछते हुए, बालों की लट को पीछे फेंकते हुए, उठी, अपने सामने अंधों की तरह, किसी जंगली के समान, उठी, प्रकाशित कोने पर नज़र न डालते हुए वह,  फौलाद जैसे ठंडे दिल से दरवाज़े की तरफ़ गई. अनुमति की प्रतीक्षा किये बिना, वह अपने आप खुल गया, और परदे से बनी चौखट में निकोल्का प्रकट हुआ. निकोल्का की आंखें एलेना की ओर दहशत से देख रही थीं, उसकी सांस जैसे रुक रही थी.

“जानती हो, एलेना...तुम घबराओ नहीं...घबराओ नहीं...वहाँ जाओ...लगता है...”

 

 

**** 

 

डॉक्टर अलेक्सेई तुर्बीन, मोम जैसा, पसीने भरे हाथों में टूटी हुई, झुर्रियां पडी मोमबत्ती जैसा. कम्बल के नीचे से बढे हुए नाखूनों वाले हडीले हाथ बाहर निकाले, नुकीली ठोढ़ी ऊपर किए लेटा था. उसका शरीर चिपचिपे पसीने में नहाया हुआ था, और सूखी, फिसलन भरी छाती कमीज़ के खुले हुए भागों से झाँक रही थी. उसने नीचे की ओर सिर घुमाया, ठोढ़ी सीने पर टिका दी, पीले दांत खोले, आंखें थोड़ी सी खोलीं. उनमें अभी भी कोहरे और प्रलाप का फटा हुआ परदा झूल रहा था, मगर काले धब्बों के बीच रोशनी झाँक रही थी. बेहद कमजोर, भर्राई और पतली आवाज़ में उसने कहा:

“ संकट, ब्रदोविच. क्या...मैं जिऊंगा?...आ-हा.”

थरथराते हाथों में करास लैम्प पकड़े खड़ा था, और वह दबे हुए बिस्तर और भूरी परछईयों तथा सिलवटों वाली चादर को आलोकित कर रहा था. 

सफाचट दाढी वाले डॉक्टर से अनाश्वस्त हाथ से तुर्बीन के हाथ में इंजेक्शन की छोटी सी सुई घुसाते हुए मांस का बचा हुआ टुकड़ा दबाया. डॉक्टर के माथे पर पसीने की छोटी छोटी बूंदे छलक आईं. वह परेशान और हैरान था.

 

 

 

                        

 

 

19

 

पेतुर्रा. उसका वास्तव्य शहर में सैंतालीस दिन था. तुर्बीनों के ऊपर से हिम और बर्फ की पाउडर में जड़ा सन् 1919 का जनवरी गुज़र गया, और बर्फीले तूफानों में गरगराता हुआ फरवरी आया.

दो फरवरी को तुर्बीनों के क्वार्टर में एक काली आकृति घूम रही थी, मुंडे हुए सिर को ढांकती काली रेशमी टोपी पहने. ये खुद पुनर्जीवित तुर्बीन था. वह बेहद बदल गया था. चेहरे पर, मुंह के कोनों के पास, ज़ाहिर है, हमेशा के लिए, दो गहरी झुर्रियां पड़ गईं थीं, त्वचा का रंग मोम  जैसा, आंखें परछाइयों में डूबी थीं और हमेशा के लिए उदास और मुस्कान रहित हो गयी थीं.

मेहमानखाने में तुर्बीन वैसे ही, जैसे सैंतालीस दिन पहले, कांच से सटा हुआ था, और सुन रहा था, जैसे तब, जब खिड़कियों में दिखाई दे रही थीं गर्माहट भरी रोशनियाँ, बर्फ, ऑपेरा, दूर से हौले से सुनाई देतीं तोपों की आवाजें. गंभीरता से माथे पर बल डाले, तुर्बीन ने अपने शरीर का पूरा भार छड़ी पर डाल दिया और रास्ते पर देखने लगा. उसने देखा, कि दिन जादुई तरह से लम्बे हो गए हैं, रोशनी और ज़्यादा हो गयी थी, बावजूद इसके कि कांच के बाहर लाखों बर्फीले कण बिखेरते हुए तूफ़ान टूट पडा है.

रेशमी टोपी के नीचे विचार प्रवाहित हो रहे थे, गंभीर, स्पष्ट, उदास. सिर हल्का, खाली प्रतीत हो रहा था, जैसे पराया हो, किसी डिब्बे के कन्धों पर रखा हो, और ये विचार मानो बाहर से आ रहे थे, और उस क्रम में आ रहे थे, जैसा वे स्वयं चाहते थे. खिड़की के पास अकेलापन तुर्बीन को अच्छा लग रहा था और वह बाहर देख रहा था.

“ पेतुर्रा...आज रात को, उससे ज़्यादा नहीं, सब हो जाएगा, पेतुर्रा का नामोनिशान नहीं रहेगा ...मगर, क्या वह था?...या, यह सब मुझे सपने में दिखाई दिया था? पता नहीं, जांचने की कोई संभावना नहीं. लारिओसिक बहुत अच्छा है. वह परिवार में दखल नहीं देता, नहीं, बल्कि उसकी आवश्यकता है. देखभाल के लिए उसे धन्यवाद कहना चाहिए...और शिर्वीन्स्की? आह, शैतान जाने... औरतों के साथ मुसीबत ही होती है. बेशक, एलेना उसके साथ बंध जायेगी, ये अपरिहार्य है...मगर उसमें अच्छा क्या है? क्या आवाज़? आवाज़ शानदार है,मगर आवाज़ तो, फिर भी, वैसे भी सुनी जा सकती है, बिना शादी किये, सही है ना...वैसे, ये महत्वपूर्ण नहीं है. मगर महत्वपूर्ण क्या है? हाँ, वही शिर्वीन्स्की कह रहा था, कि उनकी टोपियों पर लाल स्टार्स हैं...शायद, शहर में फिर से गड़बडी हो? ओह, हाँ...तो, आज रात को...रास्तों पर वैगन्स जाने लगी हैं...मगर, फिर भी, मैं जाऊंगा, दिन में जाऊंगा...मैं ले जाऊंगा... छि:. मारो उसे! मैं खूनी हूँ. नहीं, मैंने युद्ध में गोली चलाई थी. या उसे मार डाला...वह किसके साथ रहती है? उसका पति कहाँ है? छि:. मलीशेव. अभी वह कहाँ है? धरती में समा गया. और मक्सिम...अलेक्सान्द्र प्रथम?

विचार प्रवाहित हो रहे थे, मगर घंटी ने उनमें व्यवधान डाल दिया. अन्यूता के सिवाय क्वार्टर में कोई नहीं था, सब शहर चले गए थे, उजाले के रहते सारे काम निपटाने की जल्दी में.

“अगर कोई मरीज़ है, तो उसे आने दो, अन्यूता.”

“अच्छा, अलेक्सेई वसिल्येविच.”

अन्यूता के पीछे-पीछे कोई सीढ़ियों से आया, प्रवेश कक्ष में बकरी की खाल का कोट उतारा और मेहमानखाने में आया.

“फरमाईये,” तुर्बीन ने कहा. 

कुर्सी से एक दुबला-पतला और पीलापन लिए, भूरे जैकेट में एक नौजवान उठा. उसकी आंखें धुंधली और केन्द्रित थीं. सफ़ेद गाऊन पहने तुर्बीन ने एक ओर हटकर उसे अपने अध्ययनकक्ष में आने दिया.

“बैठिये, प्लीज़. आपके लिए क्या कर सकता हूँ?

“मुझे सिफ्लिस है,” भर्राई हुई आवाज़ में आगंतुक ने कहा और तुर्बीन की ओर सीधे और उदासी से देखा.

“पहले इलाज करवा चुके हैं?
“इलाज करवाया था
, मगर बुरी तरह और लापरवाही से. इलाज का बहुत कम फ़ायदा हुआ.”

“आपको मेरे पास किसने भेजा?

“सेंट निकोलस चर्च के रेक्टर, फ़ादर अलेक्सान्द्र ने.”

“क्या?

“फ़ादर अलेक्सान्द्र.”

“आप, क्या उन्हें जानते हैं?...”

“मैंने उनके सामने ‘कन्फेशन किया था, और पवित्र बूढ़े की बातों से मेरी आत्मा को कुछ राहत मिली,” आसमान की तरफ़ देखते हुए आगंतुक ने स्पष्ट किया. “मेरा इलाज नहीं होना चाहिए था...मैं ऐसा सोचता था. सब्र से उस सज़ा को झेलना चाहिए था, जो खुदा ने मेरे भयानक पाप के लिए मुझे दी है, मगर रेक्टर ने मुझे प्रेरणा दी कि मैं गलत सोचता हूँ. और मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया.”

तुर्बीन ने बेहद ध्यान से मरीज़ की पुतलियों को देखा और सबसे पहले उनकी प्रतिक्रया का अध्ययन करने लगा. मगर बकरी की खाल के कोट वाले की आंखें सामान्य थीं, सिर्फ उनमें एक आशाहीन उदासी थी.

“ तो,” तुर्बीन ने छोटा सा हथौड़ा नीचे रखते हुए कहा, “आप, शायद, धार्मिक व्यक्ति हैं.”

“हाँ, मैं दिन-रात खुदा के बारे में सोचता हूँ और उसकी प्रार्थना करता हूँ. वही मेरा इकलौता सहारा और सुकून देने वाला है.”

ये, बेशक, बहुत अच्छा है,” उसकी आंखों से आँखें हटाये बिना तुर्बीन ने कहा, “और मैं इसकी इज्ज़त करता हूँ, मगर मैं आपको एक सलाह दूंगा: इलाज के दौरान आप खुदा के बारे में अपने जिद्दी विचारों को दूर रखें. बात ये है की वह आपके दिमाग में एक ठोस विचार की शक्ल लेने लगा है. और आपकी परिस्थिति में ये हानिकारक है. आपको हवा, गति और नींद की ज़रुरत है.”

“मैं रात में प्रार्थना करता हूँ.”

“नहीं, इसे बदलना पडेगा. प्रार्थना के समय को कम करना पडेगा. वह आपको थका देगा, और आपको ज़रुरत है सुकून की.”

मरीज़ ने नम्रता से आंखें झुका लीं.

वह तुर्बीन के सामने निर्वस्त्र खड़ा हो गया और जांच के लिए स्वयं को उसके हवाले कर दिया.

“कोकीन लेते रहे हैं?

“जिन नीच और पाप कर्मों को मैं करता रहा हूँ, उनमें यह भी थी. अब नहीं लेता.”

‘शैतान जाने...और अगर गुंडा, बदमाश निकला...नाटक कर रहा है; ध्यान रखना होगा, कि प्रवेश कक्ष से फ़र कोट न गायब हो जाएँ.’

तुर्बीन ने हथौड़े के डंडे से मरीज़ के सीने पर प्रश्न वाचक चिह्न बनाया. सफ़ेद चिह्न लाल रंग में परिवर्तित हो गया.

“आप धार्मिक प्रश्नों पर ध्यान देना बंद कर दीजिये. वैसे, सभी तरह के जटिल विचारों पर कम ध्यान दें. अब कपड़े पहन लीजिये. कल से आपको ‘मरक्युरी का इंजेक्शन दूंगा, और एक सप्ताह बाद पहला ‘ब्लड ट्रांसफ्यूजन.”

“अच्छी बात है, डॉक्टर.”

“कोकीन सख्त मना है. पीना मना है. औरत भी...”

“मैं औरतों से और हर तरह के ज़हर से दूर हो चुका हूँ. बुरे लोगों से भी दूर हट चुका हूँ,” मरीज़ ने कमीज़ के बटन बंद करते हुए कहा, “मेरी ज़िंदगी का दुष्ट जिन्न, ईसा-मसीह विरोधी अग्रदूत, शैतान के शहर में चला गया है.”

“प्यारे भाई, ऐसा नहीं कहते,” तुर्बीन कराहा, “वर्ना तो आप मानसिक रुग्णालय पहुँच जायेंगे. आप किस मसीहा-विरोधी के बारे में कह रहे हैं?

“मैं उसके पूर्ववर्ती मिखाइल सिम्योनविच श्पल्यान्स्की के बारे में, कह रहा हूँ, जिसकी आंखें  सांप जैसी, और काले कल्ले हैं. वह ईसा-विरोधी राज्य मॉस्को गया है, भ्रष्ट फरिश्तों को संकेत देने कि इस शहर पर हमला करें, उसके निवासियों के पापों की सज़ा के रूप में. जैसा कि कभी सदोम और गमोरा....”

“ये आप बोल्शेविकों को भ्रष्ट फ़रिश्ते कह रहे हैं? सहमत हूँ. मगर फिर भी, ऐसा नहीं चलेगा...आप ब्रोमीन लेंगे. एक-एक टेबल स्पून दिन में तीन बार...”

“वह जवान है. मगर नीचता उसमें इतनी है, जितनी एक हज़ार साल बूढ़े शैतान में. औरतों को वह व्यभिचार की ओर, नौजवानों को पापकर्मों की ओर, और पापी झुण्ड युद्ध के बिगुल बजा रहे हैं और खेतों के ऊपर उनके पीछे आते हुए शैतान का चेहरा दिखाई दे रहा है.

“त्रोत्स्की का?

“हाँ यह नाम है, जो उसने धारण किया है. मगर उसका वास्तविक नाम हिब्रू में है – अबादोन, और ग्रीक में – अपल्योन, जिसका मतलब है – हत्यारा.”

“मैं पूरी गंभीरता से आपसे कह रहा हूँ, कि अगर आपने यह सब कुछ बंद नहीं किया, तो आप, देखिये... पागलपन बढ़ता जाएगा...”

“नहीं डॉक्टर, मैं सामान्य हूँ. डॉक्टर, आप अपने पवित्र कार्य के लिए कितनी फीस लेते हैं?

“मेहेरबानी करके बताइये, ये हर कदम पर आप “पवित्र” शब्द क्यों इस्तेमाल करते हैं? मैं तो अपने काम में कोई पवित्र बात नहीं देखता. मैं इलाज के लिए उतना ही लेता हूँ, जितना सब लेते हैं. अगर मेरे पास इलाज करवाना है, तो कुछ अग्रिम राशि जमा कर दीजिये.”

“जी, बहुत अच्छा.”

उसने अपना जैकेट खोला.

“आपके पास, शायद, पैसे कम हैं.” उसकी पतलून के घिसे हुए घुटनों की ओर देखते हुए तुर्बीन बुदबुदाया. – “नहीं, यह बदमाश नहीं है...नहीं...मगर पागल हो जाएगा.”

“नहीं, डॉक्टर, पैसे मिल जायेंगे. आप अपने तरीके से मानव जीवन को काफी राहत दे रहे हैं.”

“और कभी-कभी बहुत सफलतापूर्वक. कृपया, ब्रोमीन नियम से लीजिये.”

“पूरा आराम तो, आदरणीय डॉक्टर, हमें सिर्फ वहीं मिलेगा,” मरीज़ ने उत्स्फूर्तता से सफ़ेद छत की तरफ़ इशारा किया. “मगर फिलहाल हम सबको कड़ी परिक्षा से गुज़रना है, जैसी हमने अब तक देखी नहीं है...और यह बहुत जल्दी होने वाली है.”

“ओह, नम्रतापूर्वक धन्यवाद देता हूँ. मैंने काफ़ी कुछ बर्दाश्त किया है.”

“आप कोई वादा नहीं कर सकते, डॉक्टर, ओह, नहीं कर सकते,” प्रवेश कक्ष में अपना बकरी की खाल का ओवरकोट पहनते हुए कहा, “क्योंकि कहा गया है: तीसरे फ़रिश्ते ने पानी के स्त्रोतों में प्याला खाली कर दिया है, और उनका खून बन गया है.”

‘ये, मैं पहले भी कहीं सुन चुका हूँ...आह, वो, पादरी के साथ जी भर के बातें कर रहा था. एक दूसरे के अनुरूप ही हैं – शानदार.’ 

“मैं ज़ोर देकर कहता हूँ, ‘क़यामत कम पढ़ें...फिर से दुहराता हूँ, ये आपके लिए हानिकारक है. चलिए. कल शाम को छः बजे. अन्यूता, छोड़ कर आ, प्लीज़...”

 

*****

 

“आप इसे लेने से इनकार नहीं करेंगी...मैं चाहता हूँ कि मेरी ज़िंदगी बचाने वाली के पास मेरी यादगार के तौर पर कुछ...ये ब्रेसलेट मेरी स्वर्गवासी माँ का है...”

“ज़रुरत नहीं है...ये किसलिए...मैं नहीं चाहती,” रोय्स ने जवाब दिया और अपने आप को तुर्बीन से बचाने लगी, मगर वह अपनी बात पर अड़ा रहा और उसने पीली कलाई पर भारी, जालीदार, और गहरे रंग का ब्रेसलेट पहना दिया. इससे हाथ और सुन्दर हो गया और उसे पूरी रोय्स और ज़्यादा ख़ूबसूरत प्रतीत हुई...सांझ के झुटपुटे में भी दिखाई दे रहा था कि उसका चेहरा कैसे गुलाबी हो रहा है.

तुर्बीन अपने आप को रोक न पाया, दायाँ हाथ रोय्स की गर्दन में डालकर उसने उसे अपनी ओर खींचा और गाल को कई बार चूमा...ऐसा करते हुए उसके कमजोर हाथों से छड़ी छूट गई, और वह खट् से मेज़ की टांग के पास गिर पडी.

“आप जाईये...” रोय्स फुसफुसाई, “समय हो गया है...समय हो गया है. रास्ते पर बख्तरबंद गाड़ियां जा रही हैं. होशियार रहिये, ताकि आपको न छुएँ.”

“आप मुझे अच्छी लगती हैं,” तुर्बीन बुदबुदाया, “मुझे फिर से आपके पास आने की इजाज़त दीजिये.”

“आईये...”

“बताइये तो, कि आप अकेली क्यों हैं, और मेज़ पर ये फोटो किसकी है? काला, कल्लों वाला...”

“ये मेरा चचेरा भाई है...रोय्स ने जवाब दिया और अपनी आंखें झुका लीं.

“उसका कुलनाम क्या है?

“आपको क्या ज़रुरत पड़ गई?

“आपने मेरी जान बचाई है...मैं जानना चाहता हूँ.”

“जान बचाई और आपको जानने का अधिकार मिल गया? उसका नाम है श्पल्यान्स्की.”

“क्या वह यहाँ है?

“नहीं, वह चला गया...मॉस्को. कितने उत्सुक हैं आप.”

तुर्बीन के भीतर कोई चीज़ थरथरा गई, और वह बड़ी देर तक काली आंखों और काले कल्लों की तरफ़ देखता रहा...जब तक ‘मैग्नेटिक ट्रॉयलेट’ के प्रेसिडेण्ट के माथे और होंठों का अध्ययन करता रहा,  एक अप्रिय, चुभता हुआ विचार अन्य विचारों से ज़्यादा देर तक रहा. मगर वह अस्पष्ट था...पूर्ववर्ती. ये बकरी की खाल के ओवरकोट वाला अभागा आदमी...कौन सी चीज़ परेशान कर रही है? क्या चुभ रहा है? मुझे क्या लेना-देना है. भ्रष्ठ फ़रिश्ते...आह, एक ही बात है...बस, मैं सिर्फ इस विचित्र और खामोश घर में और एक बार आ सकूं, सुनहरे शोल्डर-स्ट्रैप्स वाली तस्वीर है.

“चलिए. समय हो गया.”

                                      ***** 

 

“निकोल? तुम?

दूसरे घर के पास रहस्यमय बाग़ के सबसे निचले तल पर दोनों भाई एक दूसरे से टकराए. निकोल्का न जाने क्यों शर्मिन्दा हो गया, मानो वह रंगे हाथ पकड़ा गया हो.

“हाँ, मैं, अल्योश्का, नाय-तुर्स के यहाँ जा रहा था,” उसने स्पष्ट किया और उसके चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे उसे बागड़ के पास सेब चुराते हुए पकड़ा लिया हो.

“ठीक है, अच्छा काम है. वह अपने पीछे माँ को छोड़ गया है?

“और बहन भी है, देखो, अल्योशा...वैसे.”

तुर्बीन ने तिरछी नज़र से निकोल्का की तरफ़ देखा और उससे कोई और सवाल नहीं पूछे.

आधा रास्ता भाईयों ने खामोशी से पार किया फिर तुर्बीन ने खामोशी को तोड़ा.

“लगता है, भाई, पेतुर्रा ने तुझे और मुझे माला-प्रवाल्नाया स्ट्रीट पर फेंक दिया है. आँ? तो, ठीक है, आते रहेंगे. और इसका क्या नतीजा निकलेगा – पता नहीं. आँ?

निकोल्का ने बड़ी दिलचस्पी से इस पहेली जैसे वाक्य को सुना, और पूछ लिया:

“क्या तुम भी किसी से मिलने गए थे, अल्योशा? माला-प्रवाल्नाया पर?

“हूँ,” तुर्बीन ने जवाब दिया, अपने ओवरकोट का कॉलर उठाकर उसमें छुप गया और घर पहुँचने तक उसने एक भी शब्द नहीं कहा.

 

 

*****  

 

 

   इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दिन सभी तुर्बीनों के यहाँ भोजन कर रहे थे – मिश्लायेव्स्की भी था करास के साथ, और शिर्वीन्स्की भी. ये पहली दावत थी, जबसे तुर्बीन घायल होकर पड़ा था. सब कुछ पहले जैसा था, सिवाय एक चीज़ के – मेज़ पर उदास, उमस भरे गुलाब नहीं थे, क्योंकि कन्फेक्शनर मार्किज़ा की बर्बाद हो गयी दुकान अब नहीं थी, जो न जाने किस अज्ञात स्थल को चली गयी थी, ज़ाहिर है, वहीं, जहां मैडम अंजू चिर विश्राम कर रही है. मेज़ पर बैठे लोगों में से किसी ने भी शोल्डर-स्ट्रैप्स नहीं लगाए थे, शोल्डर स्ट्रैप्स भी कहीं बह गए थे और खिड़कियों के पार बर्फीले तूफ़ान में पिघल गए थे.      

सभी मुँह खोले शिर्विन्स्की को सुन रहे थे, अन्यूता भी किचन से आकर दरवाजों पर झुक गयी थी.

“कैसे सितारे?” मिश्लायेव्स्की ने गंभीरता से पूछा.

“छोटे-छोटे, बैज की तरह, पांच कोनों वाले,” – शिर्विन्स्की कह रहा था, “ उनकी हैट्स पर. कहते हैं, की बादलों की तरह आ रहे हैं...एक लब्ज़ में, आधी रात को वे यहाँ होंगे...”

“ऐसी सटीकता क्यों : आधी रात को...”

मगर शिर्विन्स्की जवाब नहीं दे पाया – इसलिए, कि घंटी की आवाज़ के बाद क्वार्टर में वसिलीसा प्रकट हुआ.

वसिलीसा दाएँ और बाएँ झुकते हुए और गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए, ख़ास कर करास से, जूते चरमराते हुए सीधा पियानो की ओर बढ़ा. एलेना ने गर्मजोशी से मुस्कुराते हुए उसकी तरफ़ हाथ बढाया, और वसिलीसा, जैसे उछल कर उसके पास गया.

‘शैतान जाने, जब से उसके घर से पैसे चुराए गए थे, तब से वसिलीसा न जाने क्यों, ज़्यादा भला हो गया है,’ निकोल्का ने सोचा और खयालों में फलसफा बघारने लगा, ‘ हो सकता है, की पैसे भलमनसाहत से दूर रखते हों. जैसे यहाँ, मिसाल के तौर पर, किसी के भी पास पैसे नहीं हैं, और सभी भले हैं.’

वसिलीसा चाय पीने से इनकार करता है. नहीं, बहुत नम्रता से धन्यवाद देता है. बहुत, बहुत अच्छा है.

ही, ही. आपके यहाँ सब कुछ कितना आरामदेह है, ऐसे खौफ़नाक वक्त के बावजूद. ए...हे...नहीं, बेहद नम्रता से धन्यवाद देता है. वान्दा मिखाइलव्ना के पास उसकी बहन आई है, गाँव से, और उसे फ़ौरन घर लौटना होगा. वह इसलिए आया है, की एलेना वसिल्येव्ना को ख़त दे सके. अभी दरवाज़े के पास लेटर बॉक्स खोला, और ये ख़त देखा.

“आपको देना अपना फ़र्ज़ समझा. अभिवादन करता हूँ.”

वसिलीसा ने उछलते हुए बिदा ली है.

एलेना ख़त लेकर शयनकक्ष में चली गयी...

ख़त विदेश से आया है? क्या सचमुच? ऐसे भी खत होते हैं. हाथ में लिफाफा लेते ही फ़ौरन समझ जाते हो, कि ये क्या है. और यह कैसे आया? किसी भी तरह के ख़त नहीं आते हैं. यहाँ तक कि झितोमिर से शहर तक भी किसी व्यक्ति के साथ ही भेजना पड़ता है. और हमारे यहाँ, इस देश में, हर चीज़ कितनी बेवकूफ़ीभरी, जंगली  है. आखिर, ये व्यक्ति भी तो ट्रेन में ही जाता है. फिर, बताइये तो, खत क्यों नहीं जाते हैं, क्यों गुम हो जाते हैं? मगर ये आ गया. परेशान न हों, ऐसा ख़त पंहुच जाएगा, पता ढूंढ लेगा. वार...वारसॉ. वारसॉ. मगर लिखाई तो तालबेर्ग की नहीं है. दिल कैसे अप्रिय ढंग से धड़क रहा है.”

हाँलाकि लैम्प पर शेड़ था, मगर एलेना के शयनकक्ष में इतना बुरा लग रहा था, जैसे किसी ने फूलदार सिल्क का शेड़ खींच कर हटा दिया हो, और तेज़ रोशनी आंखों में चुभ रही हो और अराजकता का वातावरण पैदा कर दिया हो. एलेना का चेहरा बदल गया, नक्काशी वाली फ्रेम से देखते हुए मदर-मैरी के प्राचीन चेहरे जैसा हो गया. होंठ थरथराए, मगर उन पर संदेहास्पद लकीरें पड़ गईं. उसने मुंह खींचा. फटे हुए लिफ़ाफ़े से निकला भूरा झुर्रियोंदार कागज़ प्रकाश पुंज में पडा था.     

अभी-अभी पता चला, कि तुम्हारा पति से तलाक हो गया है. अस्त्रऊमावों ने सिर्गेइ इवानविच को दूतावास में देखा था – वह पैरिस जा रहा था, गेर्त्स के परिवार के साथ; कहते हैं कि वह लीदच्का गेर्त्स से शादी करने वाला है; इस गड़बड़ी और अराजकता में कैसी विचित्र घटनाएं हो रही हैं. मुझे अफसोस है कि तुम वहां से गईं नहीं. किसानों के चंगुल में फंसे हुए आप सभी के लिए अफ़सोस है. यहाँ अखबारों में लिखते हैं कि जैसे पित्ल्यूरा शहर की तरफ बढ़ रहा है. हम उम्मीद करते हैं की जर्मन उसे नहीं घुसने देंगे...”

एलेना के दिमाग़ में दीवार के उस पार से, और ल्युद्विक XIV की तस्वीर से कस कर बंद किये गए दरवाज़े के पार से निकोल्का की मार्च यंत्रवत् उछल रही थी, खटखट कर रही थी. रिबन्स लिपटी छड़ी वाला हाथ पीछे किये ल्युद्विक मुस्कुरा रहा था. दरवाज़े पर छड़ी की मूठ खटखटाई और तुर्बीन भीतर आया. उसने बहन के चेहरे पर नज़र डाली, मुंह उसी तरह टेढ़ा किया, जैसे उसने किया था, और पूछा:

“तालबेर्ग का ख़त है?

एलेना खामोश रही, उसे शर्म आ रही थी, मन बोझिल हो रहा था. मगर फिर उसने तुरंत स्वयं पर काबू पा लोया और चिट्ठी तुर्बीन की ओर बढ़ा दी: “ओल्या का है ... वारसॉ से...”

तुर्बीन ने गौर से पंक्तियों पर आंखें गड़ा दीं, और अंत तक पढ़ता रहा, फिर एक बार और आरंभिक पंक्ति को पढ़ा:

प्रिय लेनच्का, मालूम नहीं कि यह तुम तक पहुंचता है या नहीं...”

उसके चेहरें पर अनेक रंग तैर गए. मतलब -  प्रमुख रंग था नारंगी, गालों की हड्डियां गुलाबी, और आंखें नीली से काली में परिवर्तित हो गईं.

“ कितनी खुशी से...” वह दांत भींचे कहता रहा, “मैं थोबड़े पर मुक्का जमाता...”

“किसके?” एलेना ने पूछा और नाक सुड़की, जिसमें आंसू जमा हो गए थे.

“अपने आप के,” शर्म से पानी-पानी होते हुए डॉक्टर तुर्बीन ने जवाब दिया, “इसलिए, कि तब उसे चूमा था.”

एलेना फ़ौरन रो पड़ी.

“तुम मुझ पर एक मेहेरबानी करो,” तुर्बीन कहता रहा, “तुम ये चीज़ शैतान की खाला के पास फेंक दो,” उसने छड़ी की मूठ मेज़ पर रखी तस्वीर में गड़ा दी.

एलेना ने सिसकियाँ लेते हुए तस्वीर तुर्बीन को दे दी. तुर्बीन ने फ़ौरन फ्रेम से सिर्गेइ इवानविच की तस्वीर खींच ली और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए. एलेना औरतों की तरह बिसूरने लगी, उसके कंधे थरथरा रहे थे, और उसने तुर्बीन की कलफ़ लगी कमीज़ में सिर छुपा लिया. उसने तिरछी नज़र से, अंधविश्वास से, खौफ़ से कत्थई प्रतिमा की ओर देखा, जिसके सामने सुनहरी जाली में अभी भी लैम्प जल रहा था.

“खूब प्रार्थना कर ली...शर्त भी रखी... खैर, क्या...गुस्स्सा न करो...गुस्सा न हो, मदर मैरी”, अन्धविश्वासी एलेना ने सोचा. तुर्बीन घबरा गया:

“धीरे, ओह, धीरे...वे लोग सुन लेंगे, क्या फ़ायदा?”

मगर ड्राइंग रूम में किसीने भी नहीं सूना, निकोल्का की उँगलियों की के नीचे से बदहवास ‘मार्च’ निकल रहा था: ‘दो-मुंह का उकाब’, और ठहाके सुनाई दे रहे थे.

 

 

 

 

 

20

 

ईसा मसीह के जन्म के बाद का वर्ष 1918 महान था और भयानक भी था, मगर 1919 तो उससे भी भयानक था.

दो और तीन फ़रवरी की रात को द्नेप्र पर बने ‘चेन ब्रिज के प्रवेश पर दो लड़के फटे हुए काले ओवरकोट में नीले-लाल, लहूलुहान चेहरे वाले, एक आदमी को बर्फ पर घसीट रहे थे, और उनकी बगल में दौड़ता हुआ कज़ाक सार्जेंट उसके सिर पर छड से प्रहार किये जा रहा था. हर प्रहार के साथ सिर उछलता, मगर घायल आदमी अब चिल्ला नहीं रहा था, बल्कि सिर्फ कराह रहा था. छड़ पूरे जोर से और तैश से तार-तार हुए ओवरकोट पर मार कर रही थी, और हर वार का जवाब भर्राए हुए “ऊख...आ...” से मिलता.

“आ, यहूदी थोबड़े!: कज़ाक सार्जेंट तैश में चीखे जा रहा था, “इसे गोली मार देनी चाहिए! मैं तुझे दिखाऊंगा, अँधेरे कोनों में कैसे छुपते हैं. मैं तु-तुझे दिखाऊंगा! तू लकड़ियों के पीछे क्या कर रहा था? जासूस!” 

मगर लहुलुहान आदमी ने क्रोधित कज़ाक सार्जेंट को जवाब नहीं दिया. तब कज़ाक सार्जेंट सामने की ओर से भागा, और लडके उछले, ताकि चमचमाती छड से बच सकें. कज़ाक सार्जेंट ने प्रहार की तीव्रता का अंदाज़ नहीं लगाया और बिजली की तरह छड को सिर पर दे मारा. उसमें कुछ टूटा, काले आदमी ने ‘उह...भी नहीं कहा. हाथ मोड़कर और सिर लटकाकर, घुटनों से एक तरफ़ गिर गया और, दूसरा हाथ पूरा फैलाकर, उसे छोड़ दिया, जैसे अपने लिए रौंदी हुई और खाद वाली मिट्टी उठा सके. उंगलियाँ टेढ़ी मेढी होकर मुडीं और गंदी बर्फ उठा ली. फिर काले डबरे में पड़ा हुआ आदमी कई बार थरथराया और शांत हो गया.

निश्चल व्यक्ति के ऊपर, पुल के प्रवेश मार्ग के पास, इलेक्ट्रिक लैम्प सनसना रहा था, उसके चारों ओर फुन्दों वाली टोपियाँ पहने उत्तेजित कजाकों की परछाईयाँ मंडरा रही थीं, और ऊपर था काला आसमान अठखेलियाँ करते सितारों के साथ.

और इस पल, जब गिरे हुए आदमी ने प्राण छोड़े, शहर के बाहर पास वाली बस्ती के ऊपर मंगल तारे में जमी हुई ऊंचाई पर विस्फोट हुआ, उसमें से आग की लपटें निकलने लगीं और वह कानों को बहरा करने वाली आवाज़ के साथ फट पडा.     

तारे के पीछे-पीछे द्नेप्र पार के काले विस्तार में, जो मॉस्को जाता था, भयानक और दीर्घ गडगड़ाहट हुई. और तभी एक अन्य तारा फट पडा, मगर कुछ नीचे, ठीक छतों के ऊपर, जो बर्फ के नीचे दबी थीं.

और फ़ौरन नीली, सशस्त्र कज़ाक डिविजन पुल से नीचे उतरी और शहर की तरफ, शहर से होते हुए भागी, हमेशा के लिए भाग गयी. 

नीली डिविजन के पीछे भेड़ियों के झुण्ड की तरह, बर्फ से अकड़ गए घोड़ों पर कोज़िर-लिश्को की डिविजन गुज़री, साथ में रसोई का सामान था...सब कुछ ओझल हो गया, जैसे कभी उसका अस्तित्व ही नहीं था. सिर्फ पुल के प्रवेश के पास काले कोट में यहूदी का अकड़ा हुआ मृत शरीर, कुचली हुई घास, और घोड़े की लीद थी.

और सिर्फ मृत शरीर ही इस बात का प्रमाण था, कि पेतुर्रा कोई दन्त-कथा नहीं है, कि वह वास्तव में था...जिन्...त्र्त्रेन्...गिटार, तुर्क... ब्रोन्नाया पर लगा लैम्प...लड़कियों की चोटियाँ, बर्फ झाड़ती हुईं, गोलियों के ज़ख्म, रात में जानवरों का विलाप, बर्फ...मतलब, यह सब हुआ था.

ये है ग्रीशा, काम से पहले...

ग्रीशा के जूते हैं फटे हुए...

मगर, यह सब हुआ क्यों था? कोई नहीं बताएगा. क्या कोई खून की कीमत चुकाएगा?

नहीं. कोई नहीं.

सिर्फ बर्फ पिघल जायेगी, हरी-हरी उक्रेनियन घास उगेगी, धरती को लपेट लेगी...हरी-हरी, शानदार कोंपलें फूटेंगी...धरती पर गर्मी थरथरायेगी, और खून का नामोनिशान तक न बचेगा. इन लाल खेतों में खून सस्ता है, और कोई उसे वापस नहीं खरीदेगा.

कोई नहीं.

 

****

 

 

 

शाम से सार्दाम भट्टी की टाईल्स खूब गरम की गईं, और अभी तक, देर रात गए, भट्टी में गर्माहट थी. उनके ऊपर की लिखावट मिट गयी थी, सिर्फ एक बची थी:

“....ल्येन्...मैंने टिकट ले ली है ‘आय...”

अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर स्थित घर, श्वेत जनरल की हैट जैसी बर्फ से ढंका हुआ, कब का सो चुका था और गर्माहट में सो रहा था. उनींदापन परदों के पीछे घूम रहा था, परछाईयों में डोल रहा था.

खिड़कियों के पीछे बर्फीली रात अधिकाधिक खिल रही थी और खामोशी से धरती के ऊपर तैर रही थी. सितारे खिल रहे थे, सिकुड़ते हुए और फैलते हुए, और आकाश में विशेष ऊंचाई पर था लाल और पांच कोनों वाला तारा – मंगल.

गर्माहट भरे कमरों में सपने आकर बस गए थे.

तुर्बीन अपने छोटे से शयनकक्ष में सो रहा था, और सपना उसके ऊपर तैर रहा था, किसी धुंधली तस्वीर की तरह. लॉबी तैर रही थी, हिचकोले खाते हुए, और सम्राट अलेक्सान्द्र भट्टी में डिविजन की सूचियाँ जला रहा था...यूलिया गुज़री और उसने इशारा किया और मुस्कुराई, परछाईयाँ उछल रही थीं, चिल्ला रही थीं:

“मारो! मारो!”

वे बेआवाज़ गोलियां चला रहे थे, और तुर्बीन उनसे दूर भागने की कोशिश कर रहा था, मगर उसके पैर माला-प्रवाल्नाया पर फुटपाथ से चिपक गए, और सपने में तुर्बीन मर गया. वह कराहते हुए जागा, ड्राईंग रूम से मिश्लायेव्स्की के खर्राटे सुने, किताबों वाले कमरे से करास और लारिओसिक की हल्की सीटी की आवाज़ सुनी. माथे से पसीना पोंछा, होश में आ गया, हौले से मुस्कुराया, घड़ी की तरफ़ हाथ बढाया.

घड़ी तीन बजे का समय दिखा रही थी.

‘शायद, चले गए...पेतुर्रा...अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा.’

और फिर से सो गया.

 

**** 

 

रात अपने पूरे शबाब पर थी. सुबह होने को थी, और घनी, झबरी बर्फ में दबा हुआ घर सो रहा था. परेशान वसिलीसा ठंडी चादरों में सो रहा था, अपने दुबले-पतले शरीर से उन्हें गरमाते हुए. वसिलीसा ने बेतुका और गोल-गोल सपना देखा. जैसे कोई क्रान्ति-वान्ति कभी हुई ही नहीं थी, सब बेवकूफी और बकवास थी. सपने में. वसिलीसा के ऊपर संदेहास्पद, चिपचिपी खुशी तैर गयी. जैसे गर्मियों का मौसम हो, और वसिलीसा ने एक बगीचा खरीद लिया हो. देखते-देखते उसमें सब्जियां अंकुरित हो गईं. क्यारियाँ खुशनुमा बेलों से आच्छादित हो गईं, और उनमें हरे-हरे शंकुओं के समान ककड़ियां झांकने लगीं.  कैनवास की पतलून पहने वसिलीसा पेट खुजाते हुए खडा था और प्यारे, डूबते हुए सूरज को देख रहा था... 

अब वसिलीसा को गोल, ग्लोब जैसी घड़ी की याद आई, जिसे उससे छीन लिया गया था. वसिलीसा का मन हुआ की उसे घड़ी का अफ़सोस हो, मगर सूरज इतना प्यारा चमक रहा था, कि अफ़सोस प्रकट ही नहीं हुआ.

और इस हसीन पल में, कुछ गुलाबी, गोलमटोल सुअर के पिल्ले उड़ते हुए बगीचे में आये और अपने थूथन से क्यारियों को खोद डाला. फव्वारे के समान मिट्टी उड़ने लगी. वसिलीसा ने ज़मीन से छड़ी उठाई और सुअर के पिल्लों को भगाने ही वाला था कि उसे पता चला कि  सुअर के पिल्ले बहुत डरावने हैं – उनके नुकीले दांत हैं. वे वसिलीसा के ऊपर झपटने लगे, ज़मीन से एक-एक गज ऊपर कूदने लगे, क्योंकि उनके भीतर स्प्रिंग थे. वसिलीसा नींद में ही ज़ोर से चिल्लाया, तभी बगल वाले दरवाज़े की चौखट ने सुअर के पिल्लों को ढांक दिया, वे धरती के भीतर समा गए, और वसिलीसा के सामने उसका काला, नम शयनकक्ष तैरने लगा...

 

 

****   

 

रात अपने पूरे शबाब पर थी. नींद का खुमार शहर के ऊपर से धुंधले, सफ़ेद पंछी के समान गुज़रा, व्लादिमीर-क्रॉस को एक किनारे से पार करते हुए, ठीक घनी रात में द्नेप्र के पार गिरा और रेलवे लाईन के साथ-साथ तैरने लगा. दार्नित्सा स्टेशन तक तैर गया और उसके ऊपर रुक गया. तीसरे ट्रैक पर थी एक बख्तरबंद ट्रेन, पहियों तक, भूरे हथियारों से प्लेटफॉर्म तक ढंकी हुई थी. इंजिन धातु के किसी बहुआयामी ब्लॉक की तरह काला था, उसके पेट से आग्नि शलाकाएं निकल-निकल कर पटरियों पर गिर रही थीं, और एक किनारे से देखने पर ऐसा लगता था, जैसे इंजिन का पेट दहकते कोयलों से ठसाठस भरा है. वह हौले से और कड़वाहट से फुसफुसा रहा था, बगल वाली दीवारों से कुछ रिस रहा था, उसकी कुंद थूथन खामोश थी और द्नेप्र से पूर्व के जंगलों को घूर रही थी. अंतिम डिब्बे के बाहरी हिस्से से, ढंके हुए थूथन से, एक चौड़ी नली ऊपर, काली-नीली ऊंचाई की ओर, करीब आठ मील की दूरी पर और सीधे मध्य रात्रि के  सलीब की तरफ़ केन्द्रित थी.

स्टेशन खौफ़ से जम गया था. माथे पर अन्धेरा ओढ़ लिया था, और शाम की भगदड़ से थकी पीली रोशनी की आंखों से देख रहा था. सुबह से पूर्व ही उसके प्लेटफॉर्म्स पर भगदड़ निरंतर जारी थी. टेलीग्राफ ऑफिस की पीली, निचली बैरक में तीन खिड़कियों में तीव्र प्रकाश था, और शीशों से तीन उपकरणों की निरंतर खटखट सुनाई दे रही थी. कड़ाके की ठण्ड के बावजूद प्लेटफार्म पर – घुटनों तक लम्बे ओवरकोट में, ग्रेटकोट में और चौड़ी कॉलर वाले काले कोट में लोगों की आकृतियाँ आगे पीछे भाग रही थीं. बख्तरबंद ट्रेन की बगल वाले ट्रैक पर और उससे पीछे तक, फौजियों की ट्रेन के गरम डिब्बे थे जो सो नहीं रहे थे, शोर मचा रहे थे और दरवाजों की आवाज़ किये जा रहे थे.  

और बख्तरबंद ट्रेन के पास, इंजिन और पहले बख्तरबंद डिब्बे की फौलाद की फ्रेम की बगल में, लम्बे ओवरकोट में, फटे हुए जूते पहने, नुकीली टोपी पहने, एक आदमी घड़ी के पेंडुलम की तरह आगे-पीछे घूम रहा था. उसने राइफल को इतने प्यार से पकड़ा था, जैसे थकी हुई माँ अपने बच्चे को थामे रहती है, और उसकी बगल में पटरियों के बीच, स्टेशन के लैम्प की अपर्याप्त रोशनी में, बर्फ पर, काली नुकीली परछाईं और राइफल की बेआवाज़ परछाई चल रही थी. आदमी बेहद थक गया था और जानवर की तरह, न कि आदमी की तरह जम गया था. उसके हाथ ठन्डे और नीले पड़ गए थे, लकड़ी जैसी उंगलियाँ फटी हुई आस्तीनों में घुसी हुई हैं, आश्रय ढूंढ रही हैं. सफ़ेद बर्फ से ढंकी और झालरदार टोपी के असमान हिस्से से उसका झबरा, बर्फ से जमा मुंह और बर्फ से ढंकी पलकें झांक रही थीं. ये आंखें नीली, पीड़ित और उनींदी थीं.               

आदमी अपनी संगीन नीचे की ओर लटकाए व्यवस्थित ढंग से चल रहा था, और सिर्फ एक ही बात के बारे में सोच रहा था, की कब यातना की बर्फीली घड़ी समाप्त होगी और वह क्रूर धरती को छोड़कर भीतर जाएगा, जहां फौजों को गरमाने वाले पाईप स्वर्गीय गर्माहट से  फुसफुसा रहे हैं, जहां भीड़भाड़ के बीच वह तंग पलंग पर लुढ़क जाएगा, उससे चिपक जाएगा और अपने आप को सीधा करेगा. आदमी और परछाई बख्तरबंद पेट की आग की लपटों से दूर पहले फ़ौजी कम्पार्टमेंट की काली दीवार की ओर जा रहे थे, जिस पर काले अक्षरों में लिखा था:

“बख्तरबंद ट्रेन ‘प्रोलेटेरिएट.

        

कभी बढ़ते हुए, कभी भद्दे ढंग से झुकते हुए, मगर निरंतर नुकीले सिर वाली परछाई अपनी काली संगीन से बर्फ खोद रही थी. लालटेन की नीली किरणें आदमी के पीछे लटक रही थीं. दो नीले-से चाँद, बिना गर्माहट दिए और चिढ़ाते हुए, प्लेटफ़ॉर्म पर जल रहे थे. आदमी कोई अलाव ढूँढने की कोशिश कर रहा था, मगर वह उसे कहीं दिखाई नहीं दिया; दांत भींचकर, पैरों की उँगलियों को गरमाने की उम्मीद छोड़कर, उन्हें हिलाते हुए, उसने अपनी नज़र सितारों पर गड़ा दी. मंगल-तारे की ओर देखना ज़्यादा सुविधाजनक था, जो सामने आसमान में बाहरी बस्तियों के पास चमक रहा था. और वह उसे देख रहा था. उसकी आंखों से लाखों मील तक नज़र जा रही थी और वह एक मिनट के लिए भी लाल, सजीव, तारे से नज़र नहीं हटा रहा था. वह सिकुड़ रहा था और फ़ैल रहा था, स्पष्ट रूप से जीवित था और          पंचकोणीय था. कभी-कभी, थक कर, आदमी राइफल के हत्थे को बर्फ में घुसा देता, रुककर, पलभर को और पारदर्शीपन से झपकी ले लेता, और बख्तरबंद ट्रेन की काली दीवार इस नींद के कारण ओझल न होती, स्टेशन से आ रही कुछ आवाजें भी खामोश न होतीं. मगर कुछ नई आवाजें उनमें जुड़ जातीं. सपने में अभूतपूर्व आकाश विस्तृत होने लगा. पूरा लाल, चमचमाता और मंगल की सजीव चमक से पूरी तरह आच्छादित. आदमी की रूह पल भर में सुख से लबालब हो गयी. एक अनजान, अगम्य घुड़सवार जंजीरों वाले कवच में और भाईचारे से आदमी की तरफ लपका. लगता है, कि काली बख्तरबंद ट्रेन गिरने ही वाली थी, और उसके स्थान पर प्रकट हुआ बर्फ में दबा हुआ गाँव – मालिये चुग्री. वह, आदमी, चुग्रोव की सीमा पर रहता था, और उससे मिलने आ रहा है उसका पड़ोसी, उसके गाँव का.

“झीलिन?” आदमी का दिमाग बेआवाज़, बिना होठों के बोला, और तभी चौकीदार की डरावनी आवाज़ ने सीने में तीन बार टकटक किया:

“पोस्ट...संतरी...तुम जम जाओगे...”

आदमी ने पूरी तरह अमानवीय प्रयत्न से राइफल हटाई, उसे हाथ पर डाल दिया, लड़खड़ाकर, पैर खींचे और फिर से चल पडा.

आगे-पीछे. आगे–पीछे. उनींदा आसमान लुप्त हो गया, फिर से समूची बर्फीली दुनिया को नीले रेशमी आसमान ने ढांक लिया, जो हथियार की काली और विनाशकारी सूंड से क्षत-विक्षत हो गया था. आसमान में लाल सितारा आंख मिचौली खेल रहा था, और उसके जवाब में लालटेन के नीले चाँद से कभी-कभी आदमी के सीने पर प्रत्युत्तर रूपी तारा चमक जाता. वह छोटा था और वह भी पांच कोनों वाला था.

 

****   

 

 

बेचैन उनींदापन उछलता रहा. द्नेपर के किनारे-किनारे उड़ता रहा. मृतप्राय घाटों को पार करके पदोल के ऊपर गिर पडा. उसमें बहुत पहले रोशनियाँ बुझ चुकी थीं. सब सो रहे थे. सिर्फ वलीन्स्काया के कोने में तीन मंजिला पत्थर की इमारत में, लाइब्रेरियन के क्वार्टर में, किसी सस्ते होटल के सस्ते कमरे जैसे, संकरे कमरे में, नीली आँखों वाला रुसाकोव फूले-फूले कांच के शेड वाले लैम्प के पास बैठा था. रुसाकोव के सामने चमड़े की पीली जिल्द में एक मोटी किताब पडी थी. आख्नें धीरे-धीरे और उत्तेजनापूर्वक एक-एक पंक्ति से गुज़र रही थीं. 

“और मैंने मृतकों को और महान लोगों को ईश्वर के सामने खड़े हुए देखा और किताबें खुली थीं, और एक और किताब खुली थी, जो ‘जीवन की किताब है; और मृतकों का इन्साफ किया जा रहा था, किताबों में लिखे नियमों के आधार पर उनके कर्मों के अनुसार.

तब समुन्दर ने मृतकों को दे दिया, जो उसके भीतर थे, और म्रत्यु और नरक ने भी मृतकों को दे दिया, जो उनके भीतर थे, और हरेक का उसके कर्मों के अनुरूप इन्साफ किया गया.

 

 

और जिसका नाम ‘जीवन की किताब’ में दर्ज नहीं था, उसे आग के तालाब में फेंक दिया गया.

 

 

और मैंने देखा नया आसमान और नई धरती, क्योंकि पहले वाला आसमान और पहले वाली धरती तो गुज़र चुके थे और समुन्दर तो था ही नहीं.”

 

जैसे जैसे वह झकझोर देने वाली किताब पढ़ रहा था, उसका दिमाग अँधेरे को चीरती हुई चमकती तलवार जैसा हो गया.

उसे बीमारियाँ और पीडाएं महत्वहीन और अस्तिर्वहीन प्रतीत हुईं. बीमारी जंगल में किसी भूले हुए पेड़ की सूखी टहनी की पपड़ी की तरह गिर गयी. उसने सदियों का अंतहीन, नीला अन्धेरा देखा, सहस्त्राब्दियों का गलियारा. और उसे भय का अनुभव नहीं हुआ, बल्कि बुद्धिमान विनम्रता और श्रद्धा महसूस हुई, आत्मा में शान्ति छा गई, और इस शान्ति में वह इन शब्दों तक पहुँच गया:

“आंखों से आंसू नहीं बहेंगे, और मृत्यु भी नहीं होगी, न तो रुदन, न चीख-पुकार और न ही कोई बीमारी रहेगी, क्योंकि विगत गुज़र चुका है.”

 

*****  

 

अस्पष्ट अँधेरा दूर हट गयी और उसने लेफ्टिनेंट शिर्वीन्स्की को एलेना के पास आने दिया. उसकी बाहर को निकली आंखें धृष्ठता से मुस्कुरा रही थीं.

“मैं राक्षस हूँ,” एडियाँ खटखटाकर उसने कहा, “ और वह वापस नहीं आयेगा, ताल्बेर्ग, - और मैं आपके लिए गाऊंगा...”

उसने जेब से एक बहुत बड़ा चमचमाता हुआ सितारा निकाला और उसे अपने सीने पर बाईं तरफ लगा लिया. उसके चारों और नींद का कोहरा मंडरा रहा था, कोहरे के बादलों से उसका चेहरा किसी चमकदार गुड़िया की तरह बाहर निकल रहा था. वह कर्कश स्वर में गा रहा था, वैसे नहीं जैसे जागृत अवस्था में गाता है:

“जियेंगे, ज़िंदा रहेंगे!!”

“और मौत आयेगी, तो मर जायेंगे...” निकोल्का गाते हुए भीतर आया.

उसके हाथों में गिटार थी, मगर पूरी गर्दन खून से लथपथ थी, और माथे पर सलीबों वाला पीला  सेहरा था. एलेना ने तुरंत सोचा की वह मर जाएगा, और वह ज़ोर से रो पडी और रात में चीख मारते हुए उठ गयी:

“निकोल्का. ओह, निकोल्का?”

और बड़ी देर तक, सिसकियाँ लेते हुए, रात की भिनभिनाहट को सुनती रही.

और रात तैरती ही रही.

 

*****   

 

और अंत में पेत्का ने आउट हाउस में सपना देखा.

पेत्का छोटा था, इसलिए उसे न तो बोल्शेविकों में दिलचस्पी थी, न ही पित्ल्यूरा में, न राक्षस में. इसलिए उसे सपना भी सीधा-सादा और खुशनुमा आया: जैसे सूरज का गोला.

जैसे पेत्का एक बड़े, हरे घास के मैदान में चल रहा था, और इस मैदान में एक चमचमाता हुआ हीरे का गोला पड़ा था, पेत्का से बड़ा. सपने में बड़े लोग, जब उन्हें भागना होता है, ज़मीन से चिपकते हैं, कराहते हैं और दलदल से अपने पैर निकालते हुए भागते हैं. बच्चों के पैर तो चंचल और आज़ाद होते हैं. पेत्का भागते हुए हीरे के गोले तक गया और प्रसन्नता से हंसते हुए उसे हाथों में पकड़ लिया. बस, इतना ही था पेत्का का सपना. खुशी के मारे वह रात को खिलखिला रहा था. और भट्टी के पीछे एक झींगुर खुशी से चहचहा रहा था. पेत्का दूसरे, हल्के-फुल्के, खुशी से भरे सपने देखने लगा, और झींगुर भी अपना गाना गाता ही जा रहा था, कहीं दरार में, बाल्टी के पीछे वाले सफ़ेद कोने में, परिवार में उनींदी, बुदबुदाती रात को सजीव कर रहा था.

अंतिम रात शबाब पर थी. आधी रात के बाद, पूरा बोझिल नीलापन, संसार को ढांकने वाला ईश्वर का परदा, सितारों से ढँक गया. जैसे, असीमित ऊंचाई पर इस नीली छतरी के पीछे शाही दरवाजों के पीछे ‘मिडनाईट-मास गाया जा रहा हो. बेदी पर रोशनियाँ जलाई गईं, और वे इस परदे पर पूरे सलीबों के रूप में, झाड़ियों और वर्गों के रूप में दिखाई दे रही थीं. द्नेप्र के ऊपर पापी और खून से लथपथ और बर्फीली धरती से काली, उदास ऊंचाई पर व्लादीमिर का मध्यरात्री का क्रॉस प्रकट हुआ. दूर से ऐसा लग रहा था, मानो उसका क्रॉसबार गायब हो गया – ऊर्ध्वाधर बार में विलीन हो गया, और इससे क्रॉस एक खतरनाक तेज़ धार वाली तलवार में परिवर्तित हो गया हो.

मगर वह डरावना नहीं है. सब कुछ गुज़र जाएगा. पीडाएं, दुःख, खून, भूख और महामारी. तलवार लुप्त हो जायेगी, मगर सितारे रह जायेंगे, तब भी जब हमारे जिस्मों और कामों की परछाईयां धरती पर नहीं रहंगी. एक भी ऐसा आदमी नहीं है, जो यह न जानता हो. तो फिर हम अपनी नज़र उनकी और क्यों न केन्द्रित करें? क्यों?

 

मॉस्को

1923-1924.