अध्याय 8
सुनहरा घोड़ा
“हाँ,” धूर्तता से रहस्यमय ढंग से आंखें सिकोड़ते
हुए ईल्चिन ने दुहराया, “मैंने आपका उपन्यास पढ़ लिया है.”
मैंने आंखें
फाड़कर वार्तालाप कर रहे व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रकाशित हो जाता, तो कभी बुझ जाता.
खिड़कियों के पीछे पानी के थपेड़े बह रहे थे. ज़िंदगी में पहली बार मैंने अपने सामने
पाठक को देखा था.
“मगर आपने उसे
हासिल कैसे किया? देखिये....किताब...” मेरा इशारा उपन्यास की ओर था...
“आप ग्रीशा
ऐवाज़ोव्स्की को जानते हैं?”
“नहीं.”
ईल्चिन ने भंवे ऊपर उठाईं, उसे अचरज हुआ.
“ग्रीशा
फ्रेंड्स ग्रुप कगोर्ता में साहित्यिक विभाग का प्रभारी है.”
“और ये
कगोर्ता क्या है?”
ईल्चिन को इतना अचरज हुआ, कि वह बिजली का इंतज़ार करने लगा, ताकि मुझे अच्छी
तरह देख सके.
बिजली चमकी और
लुप्त हो गयी, और ईल्चिन ने आगे
कहा:
“कगोर्ता – एक
थियेटर है. क्या आप वहाँ कभी नहीं गए?”
“मैं किसी भी
थियेटर में नहीं गया हूँ. देखिये, आप तो जानते हैं कि मैं हाल ही में मॉस्को आया हूँ.”
तूफ़ान का ज़ोर कम
हो गया, और दिन वापस लौटने
लगा. मैं देख रहा था, कि मैं ईल्चिन में एक खुशनुमा अचरज जगा
रहा हूँ.
“ग्रीशा बेहद
खुश था,” ना जाने क्यों और भी
रहस्यमय ढंग से ईल्चिन ने कहा, और मुझे किताब दी. बढ़िया
उपन्यास है.”
ये नहीं समझते
हुए कि ऐसे हालात में क्या करना है, मैंने झुककर ईल्चिन का अभिवादन किया.
“और जानते हैं, कि मेरे दिमाग़ में क्या ख़याल आया,” रहस्यमय ढंग से अपनी बाईं आंख को सिकोड़ते हुए ईल्चिन फुसफुसाया, “ इस
उपन्यास से आपको एक नाटक लिखना चाहिए!”
‘किस्मत की
मेहेरबानी!’ मैंने सोचा और कहा:
“आप जानते हैं, मैंने उसे लिखना शुरू कर दिया है.”
ईल्चिन को
इतना आश्चर्य हुआ की वह दाएं हाथ से बायां कान खुजाने लगा और उसने और ज़्यादा ताकत
से आंखें सिकोड़ लीं. उसने, शायद, पहले तो इस
संयोग पर विश्वास ही नहीं किया, मगर फ़ौरन अपने आप पर काबू पा
लिया.
“अद्भुत, अद्भुत! आप निरंतर लिखते रहिये, पल भर के लिए भी न रुकिए. क्या आप मीशा पानिन को जानते हैं?”
“नहीं.”
“हमारे
साहित्य विभाग का प्रमुख.”
“ओहो.”
ईल्चिन ने आगे
कहा, कि चूंकि पत्रिका में उपन्यास का सिर्फ एक तिहाई भाग प्रकाशित हुआ है, और आगे क्या हुआ, यह जानना नितांत आवश्यक है, इसलिए मुझे इस आगे के भाग को
पांडुलिपि से उसे और मीशा को पढ़कर सुनाना है, और साथ ही एव्लाम्पिया पित्रोव्ना
को भी, और, अपने अनुभव से सीखकर, उसने यह भी नहीं पूछा कि क्या मैं
उसे जानता हूँ, बल्कि खुद
ही समझाया की यह महिला-डाइरेक्टर है.
ईल्चिन की सभी योजनाओं से मैं बेहद उत्तेजित हो गया.
और वह फुसफुसाता रहा:
“आप नाटक लिखिए, और हम उसका मंचन करेंगे। ये होगी बढ़िया बात! आँ ?”
मेरा सीना उत्तेजना से धड़धड़ा रहा था, मैं दोपहर के तूफ़ान के नशे में था, किन्हीं पूर्वानुमानों से परेशान
था. और ईल्चिन ने कहा:
“और, पता है, शैतान न जाने क्या-क्या गुल
खिलाये, हो सकता है, बूढ़ा अचानक राज़ी हो जाए...आँ?”
यह जानकर की मैं बूढ़े को भी नहीं जानता, उसने सिर हिलाया, और उसकी आंखों में भाव था: “ये है
मासूम बच्चा!”
“इवान वसील्येविच!” वह फुसफुसाया. “इवान वसील्येविच! क्या? आप उसे नहीं
जानते? क्या आपने नहीं सुना की वह
‘इन्डिपेंडेंट’ का प्रमुख है?” और आगे
बोला: अच्छा, अच्छा.”
मेरे दिमाग में सब कुछ घूम रहा था, और ख़ासकर इस वजह से कि आसपास की
दुनिया मुझे न जाने क्यों परेशान कर रही थी. जैसे हाल ही के सपनों में मैं उसे
पहले ही देख चुका हूँ, और अब उसमें पहुँच गया हूँ.
मैं और ईल्चिन कमरे से बाहर निकले, भट्टी वाले हॉल को पार किया, और ये हॉल मुझे इतना पसंद आया, मानो मैं खुशी के नशे में झूम रहा
हूँ. आसमान साफ़ हो गया था, और अचानक लकड़ी के फर्श पर प्रकाश की किरण रेंग गयी. और फिर हम कुछ
अजीब से दरवाजों के पास से गुज़ारे, और, मेरी दिलचस्पी देखकर,
ईल्चिन ने लुभाने वाले अंदाज़ में उंगली से भीतर की ओर इशारा किया. कदमों की आहट
गायब हो गयी, सन्नाटा और भूमिगत अन्धेरा छा गया. मेरे साथी
के संरक्षक हाथ ने मुझे बाहर खींचा, लंबे, आयताकार हिस्से
में कृत्रिम रूप से रोशनी हो रही थी – ये मेरे साथी ने भारी परदे हटाये, और हम करीब तीन सौ सीटों वाले दर्शक हॉल में पहुंचे. छत के नीचे झूमर में
दो लैम्प मंद-मंद जल रहे थे, परदा खुला था, और स्टेज खुला-खुला था. वह गंभीर, रहस्यमय और खाली
था. उसके कोनों में अन्धेरा था, और बीच में कुछ-कुछ चमकते
हुए, पिछली टांगों पर खड़ा था, सुनहरा
घोड़ा.
“आज हमारा
छुट्टी का दिन है,” ईल्चिन गंभीरता से फुसफुसाया, जैसे मंदिर में हो, फिर वह दूसरे कान के पास आया और
कहता रहा, “ नौजवानों में नाटक लोकप्रिय होगा, इससे बढ़िया चीज़ की तो उम्मीद ही नहीं कर सकते. आप इस बात पर ध्यान न
दीजिये कि हॉल छोटा नज़र आ रहा है, असल में वह बड़ा ही है, और
यहाँ आवक, वैसे, पूरी-पूरी होती है. और अगर बूढ़ा ज़िद पर अड़
जाए, तो क्या पता, वह बड़े स्टेज पर भी
पहुँच जाए! आ?”
‘वह मुझे ललचा
रहा है,’ मैंने सोचा, और मेरा दिल पूर्वाभास से धड़धड़ा रहा था, और काँप
रहा था, - ‘मगर वह सीधे मतलब की बात क्यों नहीं करता है? ये सही है, कि यह बड़ी आवक महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण है यह सुनहरा
घोड़ा, और बेहद दिलचस्प है यह रहस्यमय बूढा, जिसे मनाया जा सकता है, और सीधा किया जा सकता है, ताकि नाटक चल पड़े...’
“ये दुनिया
मेरी है...” मैं फुसफुसाया, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि मैं ज़ोर से बोल रहा हूँ.
“आ?”
“नहीं, मैं वैसे ही.”
मैंने ईल्चिन
से बिदा ली, जाते-जाते मैंने
उससे एक सिफ़ारिशी पत्र लिया:
“आदरणीय
प्योत्र पित्रोविच!
कृपया “काली
बर्फ” के लेखक के लिए “पसंदीदा” में जगह सुनिश्चित करें”.
भवदीय,
ईल्चिन.”
“इसे ‘काउंटर
मार्क’ (फ्री टिकट – अनु.) कहते
हैं,” ईल्चिन ने मुझे समझाया, और मैं ज़िंदगी का पहला ‘काउंटर मार्क’ लिए, बिल्डिंग से बाहर निकला.
उस दिन से
मेरा जीवन नाटकीय रूप से बदल गया. दिन में मैं पूरे जोश से नाटक पर काम करता, और दिन की रोशनी में पन्नों से चित्र नहीं
प्रकट होते, डिब्बा प्रशिक्षण-मंच के आकार तक विस्तारित हो
गया.
शाम को मैं
बेताबी से सुनहरे घोड़े से मुलाक़ात का इंतज़ार करता.
मैं कह नहीं
सकता कि नाटक “पसंदीदा” अच्छा था या बकवास. इस बात में मुझे दिलचस्पी भी नहीं थी.
मगर इस प्रस्तुतीकरण में कोई अनिर्वचनीय आकर्षण तो था. जैसे ही छोटे से हॉल में
रोशनी बुझ जाती, स्टेज के पीछे कहीं
संगीत शुरू हो जाता और अठाहरवीं शताब्दी की पोशाकें पहने लोग डिब्बे में बाहर
निकलते. सुनहरा घोड़ा स्टेज के किनारे पर खडा था, पात्र
कभी-कभी बाहर निकलते और घोड़े के खुरों के पास बैठ जाते या उसकी थूथन के पास भावुक
बातचीत करते, और मैं इसका आनंद लेता.
जब
प्रस्तुतीकरण समाप्त हो जाता और बाहर आना पड़ता, तो कटु विचार मुझ पर हावी हो जाते. बहुत दिल चाहता था मेरा बिल्कुल वैसा
ही कफ्तान पहनने को, जैसा कलाकार पहने थे, और अभिनय में भाग लेने को. उदाहरण के लिए, ऐसा लगता
कि कितना अच्छा होता, अगर मैं चेहरे पर बड़ी भारी चपटी नाक
चिपकाए, तम्बाकू वाला कफ्तान पहने, छड़ी लिए, हाथ में नसवार लिए अचानक किनारे से बाहर निकलता और कोई बेहद मज़ाकिया बात
कहता, और इस मज़ाकिया बात को दर्शकों की सटी हुई पंक्ति में
बैठे-बैठे मैंने सोच भी लिया था. मगर मज़ाकिया बात दूसरे कलाकार कह रहे थे, गैरों के द्वारा लिखी गयी, और हॉल कभी-कभार हंस
देता. न इससे पहले, न इसके बाद मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ, जिसने मुझे इससे बड़ी खुशी दी हो. मैं “पसंदीदा” तीन बार गया, उदास और अंतर्मुख प्योत्र पित्रोविच को विस्मित करते हुए, जो ‘प्रशिक्षण-स्टेज का संचालक’ लिखी छोटी खिड़की
में बैठा रहता, जिसमें पहली बार दूसरी पंक्ति में, दूसरी बार – छठी पंक्ति में, और तीसरी बार –
ग्यारहवीं पंक्ति में बैठा था. और ईल्चिन नियमित रूप से मुझे नोट्स देता, और मैंने
एक और नाटक देखा, जिसमें कलाकार स्पैनिश पोशाकों में बाहर
निकलते और जिसमें एक कलाकार ने नौकर की भूमिका इतने शानदार और मज़ाकिया ढंग से
निभाई, कि खुशी के कारण मेरे माथे पर पसीने की छोटी-छोटी
बूँदें छलक आईं.
फिर मई का
महीना आया, और आखिरकार, एक शाम को, एव्लाम्पिया पित्रोव्ना, और मीशा, और ईल्चिन, और मैं एक साथ बैठे. हम इसी प्रशिक्षण-स्टेज की बिल्डिंग के एक संकरे
कमरे में आये. खिड़की खुली हुई थी, और शहर ‘बीप-बीप’ की आवाजों से अपने बारे में अनुभव करवा रहा था.
एव्लाम्पिया
पित्रोव्ना शाही चेहरे वाली, शाही महिला थी, जिसने कानों में हीरे की बालियाँ पहनी थीं, जबकि
मीशा ने अपनी हंसी से मुझे हैरान कर दिया. वह अचानक हंसना शुरू कर देता, - “आह, आह, आह”, तब सब लोग
बातचीत बंद कर देते और इंतज़ार करते. जब वह अपनी हंसी बंद करता, तो अचानक बूढा हो जाता, खामोश हो जाता.
‘कैसी मातमी
आंखें हैं उसकी,’ मैं अपनी दर्दनाक
आदत से कल्पना करने लगता. ‘इसने कभी द्वंद्व-युद्ध में पितीगोर्स्क में अपने दोस्त
को मार डाला था,’ – मैं सोच रहा था,
‘और अब वह दोस्त रातों को इसके पास आता है, चाँद की रोशनी
में खिड़की के पास सिर हिलाता है.’
मुझे मीशा
बहुत अच्छा लगा.
मीशा और
ईल्चिन और एव्लाम्पिया पित्रोव्ना अपनी असाधारण सहनशक्ति का परिचय दे रहे थे, और एक ही बैठक में मैंने उपन्यास का वह एक
तिहाई भाग पढ़ दिया जो प्रकाशित अंश के बाद आता था. अचानक मेरी आत्मा मुझे कचोटने
लगी, और मैं ये कहकर रुक गया, कि आगे सब कुछ स्पष्ट है. देर
हो चुकी थी.
श्रोताओं के
बीच बातचीत चल रही थी, और, हाँलाकि वे रूसी में बोल रहे थे, मगर वह इतनी
रहस्यमय थी, कि मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था.
मीशा की आदत
थी कि किसी भी बात पर चर्चा करते समय वह कमरे में इधर-उधर भागा करता था, कभी कभी अचानक ठहर भी जाता.
“ओसिप इवानिच?” ईल्चिन ने आंखें सिकोड़ते हुए हौले से पूछ
लिया.
“ना-ना,” मीशा
ने जवाब दिया और अचानक हंसी से लोटपोट हो गया. हंसने के बाद, उसे फिर से गोली मारे गए व्यक्ति की याद आई
और वह गंभीर हो गया.
“आम तौर से वरिष्ठ...” ईल्चिन कहने लगा.
“मैं ऐसा नहीं
सोचता,” मीशा बुदबुदाया.
आगे सुनाई
दिया:
“मगर सिर्फ
गालिनों और सहायक पर तो ज़्यादा नहीं...(ये एव्लाम्पिया पित्रोव्ना थी).
“माफ़ कीजिये,” मीशा ने तेज़ी से कहा और हाथ हिलाने लगा, “मैं कब से इस बात पर ज़ोर दे रहा हूँ, कि इस सवाल
को थियेटर में उठाने का समय आ गया है!”
“और ‘सीव्त्सेव
व्राझेक’ के बारे में क्या ख़याल है?” (एव्लाम्पिया पित्रोव्ना).
“और ‘इंडिया’
भी, पता नहीं कि इस विषय पर क्या
प्रतिक्रिया देगा,” ईल्चिन ने आगे कहा.
“हमें सब कुछ एक ही बार में पेश करना होगा,” ईल्चिन हौले से फुसफुसाया, “वे म्यूजिक से साथ पेश करते हैं”.
“सीव्त्सेव!”
एव्लाम्पिया पित्रोव्ना ने गहरे अंदाज़ में कहा.
अब मेरे चेहरे पर, ज़ाहिर है, पूरी तरह बदहवासी छा गयी, क्योंकि, श्रोताओं ने अपनी समझ में न आने वाली बातचीत रोक दी और मुझसे मुखातिब
हुए.
“हम सब तहे दिल से प्रार्थना करते हैं, सिर्गेई लिओन्तेविच,
कि नाटक अगस्त तक पूरा हो जाए, ताकि सीज़न के आरम्भ में इसे
पढ़ा जा सके.”
मुझे याद नहीं कि मई का महीना कैसे ख़तम हुआ. जून भी दिमाग़
से निकल गया, मगर जुलाई की याद
है.
असाधारण गर्मी पड़ने लगी. मैं एक चादर लपेटे निर्वस्त्र बैठा
रहता, और नाटक लिखता रहता. जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे वह अधिकाधिक मुश्किल होता जा रहा था. मेरा डिब्बा अब आवाज़ नहीं
करता था, उपन्यास बुझ गया, और मृतप्राय
पड़ा था, जैसा अनचाहा हो. रंगीन आकृतियाँ अब मेज़ पर नहीं
हिलती थीं, कोई भी मदद के लिए नहीं आया. अब आंखों के सामने प्रशिक्षण-स्टेज का
डिब्बा खडा हो जाता. कलाकार बड़े हो गए और बड़ी आसानी से और प्रसन्नता से स्टेज पर
प्रवेश करते, मगर, ज़ाहिर है, मगर वहाँ उन्हें सुनहरे घोड़े के पास इतना अच्छा लगता, कि वे कहीं और जाने को तैयार नहीं थे, और घटनाक्रम आगे
बढ़ता जा रहा था, मगर उसका कोई अंत नज़र नहीं आ रहा था. फिर
गर्मी कम हो गयी, कांच की सुराही,
जिससे मैं उबला हुआ पानी पीता था, खाली हो गयी, उसकी तली पर मक्खी तैर रही थी.
बारिश होने लगी, अगस्त का महीना आ गया. अब मुझे मीशा पानिन का ख़त मिला. वह नाटक के बारे
में पूछ रहा था.
मैंने हिम्मत बटोरी और घटनाओं के प्रवाह को रोक दिया. नाटक में तेरह दृश्य थे.
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