अध्याय 9
शुरू हो गया
सिर को ऊपर उठाकर मैंने अपने ऊपर देखा, एक धुंधला प्रकाश से भरा गोला, बगल में
कांच की अलमारी में विशाल चांदी की माला, जिस पर रिबन लिपटे
हुए थे और लिखा था:
“प्रिय स्वतन्त्र थियेटर को मॉस्को जूरी की तरफ़ से...”
(एक शब्द झुका हुआ था), अपने सामने मैंने
कलाकारों के मुस्कुराते हुए चेहरे देखे, जिनमें से अधिकांश बदल रहे थे.
सन्नाटा दूर से ही सुनाई दे रहा था, और कभी-कभी मैत्रीपूर्ण उदास गीत के सुर, फिर कोई शोर, जैसा स्नानागार में होता है. जब मैं
अपना नाटक पढ़ रहा था, तो वहाँ कोई ‘शो’
चल रहा था.
मैं निरंतर अपना माथा रूमाल से पोंछ रहा था और अपने सामने
एक गठीले, हट्टे-कट्टे आदमी
को देख रहा था, सफ़ाचट दाढ़ी और सिर पर घने बालों वाला. वह
दरवाज़े में खड़ा था, और मुझसे नज़र नहीं हटा रहा था, जैसे वह कुछ सोच रहा हो.
सिर्फ वही याद रहा, बाकी सब कुछ उछल रहा था, चमक रहा था और बदल रहा था; अपरिवर्तित थी, इसके अलावा माला. वह सबसे अधिक स्मृति में अंकित है. ऐसा था पठन, मगर प्रशिक्षण स्टेज पर नहीं, बल्कि मुख्य स्टेज
पर.
रात को निकलते हुए, मैंने मुड़ कर देखा, कि मैं कहाँ हूँ. शहर के केंद्र में, जहां थियेटर की बगल में डिपार्टमेंटल स्टोर है, और
सामने “बैंडेज और कोर्सेट” है, एक बिल्डिंग थी, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था, कछुए के समान
और धुंधले, घनाकार लालटेनों वाली.
अगले दिन यह इमारत मुझे भीतर से शरद ऋतू के शाम के धुंधलके
में दिखाई दी. याद आता है, कि मैं,
सैनिकों के कपड़े के मुलायम कालीन पर किसी चीज़ के चारों ओर चल रहा था, जो, जैसा मुझे प्रतीत हुआ कि दर्शक-हॉल की भीतरी
दीवार थी, और बहुत सारे लोग मेरे निकट से भाग रहे थे. ‘सीज़न’ शुरू हो रहा था. और मैं बेआवाज़ कालीन पर चलते हुए एक बेहद शानदार ढंग से
सुसज्जित ऑफिस में पहुंचा, जहाँ मैने एक बुज़ुर्ग, सफाचट दाढी और प्रसन्न आंखों वाले, प्यारे व्यक्ति को देखा. यह अन्तोन
अन्तोनविच क्निझेविच, नाटको को स्वीकार करने वाली कमेटी का
प्रमुख था.
क्निझेविच की लिखने की मेज़ के ऊपर एक चमकदार, प्रसन्न तस्वीर थी... याद आता है, कि उस पर लटकनों वाला गहरे लाल रंग का परदा था, और
परदे के पीछे हल्का-हरा खुशनुमा बगीचा...
“आह, कोम्रेड मक्सूदव,” सिर को एक तरफ झुकाते हुए क्निझेविच स्नेहपूर्वक चिल्लाया, “हम आप ही का इंतज़ार कर रहे हैं, इंतज़ार कर रहे हैं! विनम्रता से निवेदन
करता हूँ, कि कृपया बैठ जाइए, बैठ
जाईये!”
और मैं चमड़े की बेहद आरामदेह कुर्सी में बैठ गया.
“सुना, सुना, सुना आपका नाटक,”
क्निझेविच मुस्कुराते हुए कह रहा था, और न जाने क्यों हाथों
को हिला रहा था, “ख़ूबसूरत नाटक है! ये सच है, कि हमने इस तरह के नाटक पहले कभी प्रस्तुत नहीं किये, मगर इसे फ़ौरन स्वीकार करेंगे और प्रस्तुत करेंगे...”
जैसे-जैसे क्निझेविच बोल रहा था, उसकी आंखें अधिकाधिक प्रसन्न होती जा रही
थीं.
“...और आप खतरनाक रूप से अमीर हो जायेंगे,” क्निझेविच कहता रहा,
“गाड़ियों में घूमेंगे! हाँ-, गाड़ियों में!”
‘फिर भी,’ मेरे मन में विचार आया, ‘वह उलझा हुआ आदमी है, ये क्निझेविच...बहुत जटिल...’
और जैसे-जैसे क्निझेविच अधिकाधिक खुश होता गया, मैं, आश्चर्यजनक रूप
से, अधिकाधिक तनावग्रस्त होता गया.
मुझ से कुछ देर और बात करने के बाद क्निझेविच ने घंटी बजाई.
“हम अभी आपको गव्रील स्तिपानविच के पास भेजते हैं, सीधे उसीके पास, मतलब, उसके हाथों में सौंप देंगे, हाथों में! गज़ब का आदमी
है हमारा गव्रील स्तिपानविच...मक्खी का भी अपमान नहीं करता! मक्खी का भी!”
मगर घंटी की आवाज़ पर आये हुए हरे फीतों वाले आदमी ने कहा:
“गव्रील स्तिपानविच अभी थियेटर में नहीं आये हैं.”
“आह, नहीं आये, तो आ जायेंगे,”
पहले ही की तरह प्रसन्नता से क्निझेविच ने जवाब दिया, “आधा घंटा भी नहीं बीतेगा, कि आ जाएगा! और आप, जब तक ट्रायल चल रही है, थियेटर में घूमिए-फिरिए, अच्छी तरह देखिये, मज़ा
उठाइये, हमारे कैंटीन में चाय पीजिये, और सैंडविच भी, सैंडविच पर कंजूसी न करें, हमारे कैंटीन वाले,
एर्मलायेव इवानविच को नाराज़ न कीजिये!”
और मैं थियेटर में टहलने के लिए निकल पडा. कार्पेट पर चलते
हुए मेरे जिस्म को आराम मिल रहा था, और चारों तरफ फैला हुआ रहस्यमय धुंधलका और खामोशी भी प्रसन्नता दे रहे
थे.
उस धुंधलके में मेरी एक और व्यक्ति से पहचान हुई. क़रीब मेरी
ही उम्र का आदमी, दुबला-पतला, ऊँचा, मेरे पास आया और उसने अपना परिचय दिया:
“प्योत्र बम्बार्दव.”
बम्बार्दव ‘स्वतन्त्र थियेटर’ का एक्टर था. उसने कहा कि वह
मेरा नाटक सुन चुका है, और उसकी राय में यह
एक अच्छा नाटक है.
न जाने क्यों, पहले ही क्षण से बम्बार्दव से मेरी दोस्ती हो गयी. वह मुझे अत्यंत
बुद्धिमान, चौकस व्यक्ति प्रतीत हुआ.
“क्या आप लॉबी में हमारी पोर्ट्रेट-गैलरी देखना चाहेंगे?” बम्बार्दव ने विनम्रता से पूछा.
मैंने इस प्रस्ताव के लिए उसे धन्यवाद दिया, और हम विशाल लॉबी में आये, जहां भूरा कालीन बिछा हुआ था. लॉबी की दीवारों पर कई पंक्तियों में
पोर्ट्रेट्स और सुनहरी अंडाकार फ्रेमों में बड़े-बड़े चित्र टंगे हुए थे.
पहली फ्रेम से हमारी तरफ़ करीब तीस वर्षीय महिला की ऑइल
पेंटिंग झाँक रही थी, प्रसन्न आँखें, सामने माथे पर बालों की सीधी लटें, गहरी काट वाली
ड्रेस में.
“सारा बिर्नार,”- बम्बार्दव ने स्पष्ट किया.
प्रसिद्ध एक्ट्रेस की बगल में फ्रेम में मूंछों वाले आदमी
की फ़ोटो थी.
“सिवस्त्यानव अंद्रेई पखोमविच, थियेटर की प्रकाश व्यवस्था के प्रमुख,” बम्बार्दव ने नम्रता से कहा.
सिवस्त्यानव के पड़ोसी को मैं खुद ही पहचान गया, ये मोल्येर था. मोल्येर के बाद एक महिला थी, एक तरफ़ को झुकी हुई, छोटी-सी तश्तरीनुमा टोपी में,
सीने पर तीर की तरह रूमाल बंधा था, और लेस का रूमाल, जिसे महिला ने अपनी छोटी ऊंगली बाहर निकालते हुए हाथ में पकड़ा था.
“ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना प्र्याखिना, हमारे थियेटर की कलाकार,” बम्बार्दव ने कहा, उसकी आंखों में एक चमक उठी.
मगर, मेरी तरफ देखकर बम्बार्दव ने आगे कुछ भी नहीं जोड़ा.
“माफ़ी चाहता हूँ, और ये कौन है?” घुंघराले सिर पर लॉरेल वृक्ष की
पत्तियाँ बांधे कठोर चेहरे के आदमी को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ. आदमी प्राचीन रोमन
ड्रेस में था और उसके हाथों में पांच तारों का वाद्य था.
“सम्राट नीरो,” बम्बार्दव ने कहा, और फिर से उसकी आंख चमक कर बुझ
गई.
“मगर क्यों?...”
“इवान वसील्येविच के आदेश पर,” चेहरे की भावहीनता को बनाए
रखते हुए बम्बार्दव ने कहा, “नीरो गायक और कलाकार था.”
“अच्छा, अच्छा, अच्छा.”
नीरो के बाद था ग्रिबायेदव, ग्रिबायेदव के बाद – शेक्सपियर, स्टार्च लगी, लेटी हुई
कॉलर में, उसके बाद – अनजान व्यक्ति,
जो प्लीसव निकला, जो चालीस वर्षों तक थियेटर के
टर्निंग-स्टेज का प्रमुख रह चुका था.
आगे थे झिवकीनि, गल्दोनी, बमार्शे, स्तासव, श्चेप्किन. और इसके बाद अपनी फ्रेम से मेरी ओर देख रहा था, शानदार, तिरछा शिरस्त्राण, उसके नीचे शाही चेहरा,
सधी हुई मूंछें, सामान्य घुड़सवारों के एपोलेट्स, लाल लैपल,
पेटी.
“स्वर्गीय मेजर-जनरल क्लाउडियस अलेक्सान्द्रविच कमारोवस्की-एशापार
द’ बिआन्कूर, महामहिम की उलान-रेजिमेंट की लाईफ-गार्ड्स के कमांडर.” और मेरी
दिलचस्पी को देखते हुए, बम्बार्दव ने
बताया: “उनकी कहानी एकदम असाधारण है. एक बार वह पीटर से दो दिनों के लिए मॉस्को
आये. तेस्तोव के यहाँ भोजन किया, और शाम को हमारे थियेटर में
आये. तो, स्वाभाविक है, पहली पंक्ति
में बैठे, देख रहे थे...याद नहीं, कि
कौन-सा नाटक प्रदर्शित हो रहा था, मगर प्रत्यक्षदर्शियों ने
बताया, कि उस दृश्य के दौरान, जिसमें
जंगल दिखाया जा रहा था, जनरल के साथ कुछ हो गया. सूर्यास्त
का जंगल, सोने से पहले पंछियों की चहचहाहट, स्टेज के पीछे
दूर के गाँव के गिरजाघर में प्रार्थना...देखते हैं, जनरल
बैठे हैं, और कैम्ब्रिक के रूमाल से अपनी आंखें पोंछ रहे हैं.
नाटक पूरा होने के बाद अरिस्तार्ख प्लतोनविच के कार्यालय में गए. थियेटर के
प्रवेशक ने बाद में बताया कि कार्यालय में प्रवेश करते हुए जनरल ने खोखली और भयानक
आवाज़ में कहा, “सिखाइए, क्या करना है?!”
तो, वे अरिस्तार्ख प्लतोनविच के साथ बंद हो गए...
“माफ़ी चाहता हूँ, मगर ये अरिस्तार्ख प्लतोनविच कौन है?” मैंने पूछा.
बम्बार्दव ने अचरज से मेरी ओर देखा, मगर फ़ौरन ही चेहरे से विस्मय के भाव छुपाकर
फ़ौरन समझाने लगा:
“हमारे थियेटर के शीर्ष में दो डाइरेक्टर्स हैं – इवान
वसील्येविच और अरिस्तार्ख प्लतोनविच. माफ़ कीजिये, क्या आप मॉस्कोवासी नहीं हैं?”
“नहीं, मैं – नहीं...आप, कृपया, अपनी बात जारी रखिये.”
“... बंद हो गए, और उन्होंनें किस बारे में बातें कीं, पता नहीं, मगर ये पता है, कि उसी रात को जनरल ने ऐसा टेलीग्राम पीटर्सबुर्ग भेजा:
“पीटर्सबुर्ग. महामहिम की सेवा में. महामहिम के स्वतन्त्र थियेटर में कलाकार बनने
की आत्मा की पुकार पर, अत्यंत विनम्रतापूर्वक मुझे सेवामुक्त करने की प्रार्थना
करता हूँ.
कमारोव्स्की-बियोन्कूर”
मैंने आह भरी और पूछा:
“फिर क्या हुआ?”
“ऐसा मुरब्बा बना, कि बस, मज़ा आ गया,” बम्बार्दव
ने जवाब दिया. “अलेक्सान्द्र तृतीय को टेलीग्राम रात के दो बजे दिया गया. उन्हें
ख़ास तौर पे जगाया गया. वह एक अंतर्वस्त्र में, दाढी, क्रॉस ...बोले: ‘इधर दो! मेरे एशापार को क्या हुआ है?’ टेलीग्राम पढ़ा और दो मिनट तक कुछ भी न कह सके,
सिर्फ लाल हो गए और सिर्फ नाक से ‘सूं-सूं’ करते रहे और फिर बोले: “कलम लाओ!” – और
वहीं, फ़ौरन, टेलीग्राम पर ही अपना निर्णय
लिख दिया: “पीटर्सबुर्ग में उसका नामोनिशान भी न रहे,
अलेक्सान्द्र.” और सो गए.
और जनरल अगले दिन बिज़नेस सूट पहनकर सीधे रिहर्सल पर पहुंचा.
निर्णय पर वार्निश फेर दिया गया, और क्रान्ति के बाद टेलीग्राम थियेटर को
सौंप दिया गया. आप उसे हमारे दुर्लभ वस्तुओं के संग्रहालय में देख सकते हैं.”
“वे किस प्रकार की भूमिकाएं करते थे?” मैंने पूछा.
“त्सारों की, जनरलों की और अमीर घरों के सेवकों की,” बम्बार्दव
ने जवाब दिया, “हमारे यहाँ, पता है, ज़्यादातर अस्त्रोव्स्की के, उसमें व्यापारी होते
हैं...और फिर लम्बे समय तक ‘अँधेरे का साम्राज्य’ प्रदर्शित
करते रहे...तो, स्वाभाविक है, हमारे
अपने शिष्टाचार हैं, आप खुद ही समझते हैं...और वह सब कुछ
अच्छी तरह जानता था, चाहे महिला को रूमाल देना हो, ग्लास में वाईन डालना हो, फ्रेंच बढ़िया तरीके से
बोलता था, फ्रांसीसियों से भी बढ़िया...और उसका एक और शौक था:
स्टेज के पीछे पंछियों की नक़ल करता था. जब ऐसे नाटक प्रदर्शित होते थे, जिनमें कथानक वसंत ऋतु में घटित हो रहा होता, तो
हमेशा पार्श्व में सीढ़ी पर बैठता और कोयल की आवाज़ निकालता. ऐसी अजीब कहानी है!”
“नहीं! मैं आपसे सहमत नहीं हूँ!” मैं तैश में चीखा, “आपके यहाँ थियेटर में इतना अच्छा है, कि, अगर मैं जनरल की जगह पर होता, तो मैं भी ठीक ऐसा ही करता...”
“करातीगिन, तग्लिओनी,” मुझे एक पोर्ट्रेट से दूसरे पोर्ट्रेट
की ओर ले जाते हुए बम्बार्दव गिनाता जा रहा था, “कैथरीन
द्वितीय, करूज़ो, फिआफान प्रकपोविच, ईगर सिविर्यानिन, बतिस्तीनी, एव्रिपीद, महिलाओं की
सिलाई-कार्यशाला की प्रमुख बबिल्योवा.”
मगर तभी उनमें से एक, जो हरे बटनहोल वाले थे, बेआवाज़ भागता हुआ फ़ॉयर में
आया, और उसने सूचित किया कि गव्रील स्तिपानविच थियेटर में आ
चुके हैं.
बम्बार्दव ने अपनी बात बीच ही में रोक दी, मुझसे दृढ़ता से हाथ मिलाया, और हौले से रहस्यमय शब्द कहे:
“दृढ़ रहिये...: और वह आधे अँधेरे में कहीं खो गया.
मैं फ़ीतों वाले आदमी के पीछे चल पडा, जो मेरे आगे-आगे दुलकी चाल से चल रहा था, कभी-कभी मुझे उंगली से इशारा करते हुए और बीमार मुस्कराहट बिखेर देता.
चौड़े कॉरीडोर की दीवारों पर, जहां से हम जा रहे थे, हर दसवें कदम पर चमचमाते इलेक्ट्रिक निर्देश
थे:
“खामोश! बगल में रिहर्सल चल रही है!”
सुनहरे नाक-पकड़ चश्मे और हरे ही फीतों में, इस गोल कॉरीडोर
के अंत में बैठा हुआ एक व्यक्ति, यह देखकर कि मुझे ले जाया जा रहा है, उछला,
फुसफुसाहट से चिल्लाया: “नमस्ते!” और उसने थियेटर के एम्ब्रॉयडरी किये हुए सुनहरे मोनोग्राम “NT” वाला भारी परदा हटाया.
अब मैंने अपने आप को एक तम्बू में पाया. छत हरे रंग के रेशम
से ढंकी थी, जो केंद्र से किरणों
की तरह विकिरित हो रही थी, जहां एक क्रिस्टल का लैम्प जल रहा
था. वहां नरम सिल्क का फर्नीचर था. एक और परदा, और उसके पीछे
धुंधले कांच का दरवाज़ा.
नाकपकड़ चश्मे वाला मेरा नया मार्गदर्शक उसके पास नहीं गया, बल्कि उसने इशारे से कहा, ‘खटखटाइए!’, और फ़ौरन गायब हो गया.
मैंने हौले से दरवाज़ा खटखटाया, चमचमाते बाज़ के सिर के आकार
के हैंडल पर हाथ रखा, न्यूमेटिक स्प्रिंग
की सरसराहट हुई, और दरवाज़े मुझे भीतर ले गया. मेरा चेहरा परदे से टकरा गया, उलझ गया, उसे छोड़ दिया...
मैं नहीं रहूँगा, बहुत जल्द मैं नहीं रहूँगा, मैं मर जाऊंगा! मैंने फैसला कर लिया, मगर फिर भी यह डरावना है...मगर, मरते हुए मैं इस
कार्यालय को याद करूंगा, जिसमें थियेटर के सामग्री-कोष के
प्रबंधक गव्रील स्तिपानविच ने मेरा स्वागत किया था.
जैसे ही मैंने प्रवेश किया, बाएँ कोने में लगी विशाल घड़ी ने हौले से मिनुएट (मिनुएट – हलके नृत्य
की धुन – अनु.) बजाना शुरू कर दिया. मेरी आंखों में रंगबिरंगी रोशनियाँ तैर
गईं. लिखने की मेज़ से हरी, मतलब, मेज़
से नहीं, बल्कि अलमारी से, मतलब, अलमारी नहीं, बल्कि दसियों दराजों वाली जटिल संरचना
से, जिसमें चिट्ठियों के लिए खड़े खाने थे, चांदी की झुकी हुई टांग पर खड़े एक अन्य लैम्प से, सिगार वाले इलेक्ट्रिक
लाइटर से.
रोज़वुड की मेज़ के नीचे से, जिस पर
तीन टेलीफोन रखे थे, आ रही थी
लाल नारकीय-रोशनी. चपटे विदेशी टाइप राइटर रखी छोटी से मेज़ से आती हुई सफ़ेद रोशनी,जिस पर चौथा टेलीफोन, और “NT” के मोनोग्राम्स वाला सुनहरी किनारी वाले कागज़ों का गट्ठा था. छत से रोशनी
परावर्तित हो रही थी.
कार्यालय का फर्श कपड़े से ढंका था, मगर फ़ौजी कपड़े से नहीं, बल्कि बिलियार्ड के कपड़े से, और उसके ऊपर लाल, एक इंच मोटा कालीन बिछा था. एक विशाल सोफा, जिस पर
तकिये थे और उसकी बगल में तुर्की हुक्का था. बाहर आँगन में मॉस्को का दिन था, मगर खिड़की से होकर कोई भी आवाज़, एक भी किरण
कार्यालय में प्रवेश नहीं कर रही थी, जिसे परदे की तिहरी
पर्तों से कस कर बंद किया गया था. यहाँ चिरंतन बुद्धिमान रात थी, यहाँ चमड़े की, सिगार की, सेंट
की गंध थी. गर्म हवा चेहरे और हाथों को सहला रही थी.
सोना जड़ी मुलायम खाल से ढंकी हुई दीवार पर कलाकारों जैसे
बाल, सिकोड़ी हुई आंखें, मरोड़ी हुई मूंछें, और हाथों में लॉर्नेट लिये एक
व्यक्ति का बड़ा-सा चित्र लटका हुआ था. मैंने अनुमान लगाया की ये या तो इवान
वसील्येविच है अथवा अरिस्तार्ख प्लतोनविच, मगर दोनों में से
कौन है, यह मुझे पता नहीं था.
स्टूल के स्क्रू पर तेज़ी से मुड़कर काली फ्रेंच-कट दाढ़ी,
आंखों की तरफ जाती हुई तीर जैसी मूंछों वाला, एक मझोले कद का आदमी मुझसे मुखातिब
हुआ.
“मक्सूदव,” मैंने कहा.
“माफ़ कीजिय,” मेरे नए परिचित ने ऊंचे सुर में कहा और दिखाया, कि
अभी कागज़ पढेगा और...
...उसने कागज़ पूरा पढ़ा, नाक-पकड़ चश्मा काली डोरी पर फ़ेक दिया, थकी हुई
आंखें मलीं और आखिरकार अलमारी की तरफ पीठ करके, गौर से मुझे देखता रहा, जैसे किसी नई मशीन का अध्ययन कर रहा हो. उसने यह नहीं छुपाया की वह मुझे
पढ़ रहा है, उसने आंखें भी बारीक कीं. मैंने आंखें फेर लीं, कोई फ़ायदा नहीं हुआ, मैं सोफे पर कसमसाने लगा...अंत में मैंने सोचा:
‘एहे-हे...’ और खुद ही प्रयत्नपूर्वक जवाब में उस आदमी पर अपनी आंखें गड़ा दीं. ऐसा
करते हुए न जाने क्यों क्निझेविच के प्रति मुझे एक अस्पष्ट अप्रसन्नता का अनुभव
हुआ.
“कैसी अजीब बात है,” मैंने सोचा, “या तो वह अंधा है, यह क्निझेविच...मक्खियाँ...मक्खियाँ...पता नहीं...पता नहीं...फौलादी, गहरी धंसी हुई छोटी-छोटी आंखें...उनमें फ़ौलादी इच्छा शक्ति, शैतानी साहस, अडिग साहस...फ्रेंच-कट दाढी...वह
मक्खियों का भी अपमान क्यों नहीं करता?...वह ड्यूमा के मस्केटीयर्स
के नेता की तरह है...उसका क्या नाम था...भूल गया, शैतान ले
जाए!”
और ज़्यादा
चुप्पी असहनीय हो गयी, और उसे गव्रील स्तिपानविच ने तोड़ा. वह न जाने क्यों शोखी से
मुस्कुराया और अचानक मेरा घुटना हिलाया.
“अच्छा, तो, कॉन्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर करने होंगे?” उसने
कहा.
वह स्टूल
पर घूमा, विपरीत दिशा में घूमा, और गव्रीला स्तिपानविच के हाथों
में कॉन्ट्रेक्ट दिखाई दिया.
“मगर, मुझे सिर्फ ये नहीं मालूम है कि इवान
वसिलीविच की सहमति के बिना इस पर हस्ताक्षर कैसे करें?” और उसने अनिच्छापूर्वक फोटो पर
संक्षिप्त नज़र डाली.
‘आहा! तो, खुदा का, - शुक्र है...अब मैं जान
गया,’ – मैंने सोचा, - ‘ये
इवान वसिलीविच है.’
“कहीं कोई
गड़बड़ तो नहीं होगी?” गव्रीला
स्तिपानविच कहता रहा. “चलिए, आपकी
खातिर!” वह दोस्ताना अंदाज़ में मुस्कुराया.
तभी बिना
खटखटाहट के दरवाज़ा खुला, परदा हटा, और दक्षिणी प्रकार के घमंडी चेहरे
वाली महिला अन्दर आई, उसने मेरी
तरफ़ देखा. मैंने उसका अभिवादन किया, कहा:
“मक्सूदव...”
महिला ने
मुझसे कसकर, मर्दों के समान, हाथ मिलाया, जवाब दिया:
“अव्गुस्ता
मिनाझ्राकी,” स्टूल पर बैठ गयी, हरे रंग के जम्पर की जेब से
सुनहरा सिगरेट धारक निकाला, सिगरेट
जलाई और हौले से टाइपराइटर खटखटाने लगी.
मैंने
कॉन्ट्रेक्ट पढ़ा, साफ़-साफ़ कहूं, तो कुछ भी
समझ नहीं पाया और न ही समझने की कोशिश की.
मैं कहना
चाहता था: “मेरा नाटक खेलो, मुझे और
किसी चीज़ की ज़रुरत नहीं है, सिवाय
इसके कि मुझे यहाँ हर रोज़ आने का अधिकार मिले, दो घंटे इस सोफे पर लेटे रहने, और तम्बाकू की शहद जैसी गंध
सूंघने दी जाए, घड़ियों के
घंटे सुनने और सपने देखने का मौक़ा मिले!”
खुशकिस्मती
से मैंने यह नहीं कहा. याद आ गया, कि अक्सर
कॉन्ट्रेक्ट में ‘यदि’, और ‘जहां
तक’ इन शब्दों की भरमार होती है और हर बिंदु इन शब्दों से आरम्भ होता है:
“लेखक को
अधिकार नहीं है.”
लेखक को
अपना नाटक मॉस्को के किसी अन्य थियेटर को देने का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना
नाटक लेनिनग्राद शहर के किसी थियेटर को देने का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना
नाटक रशियन सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के किसी भी शहर में देने का अधिकार नहीं है.
लेखक को अपना
नाटक युक्रेनी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के किसी भी शहर नें देने का अधिकार नहीं
है.
लेखक को
अपना नाटक प्रकाशित करने का अधिकार नहीं है.
लेखक को
थियेटर से फलाँ चीज़ की मांग करने का अधिकार नहीं है, और वह चीज़ क्या थी – मैं भूल गया
(बिंदु नं 21).
लेखक को
फलाँ चीज़ का विरोध करने का अधिकार नहीं है, और किस चीज़ के विरुद्ध – ये भी
याद नहीं है.
मगर, एक बिंदु इस डॉक्यूमेंट की
एकरूपता का उल्लंघन कर रहा था – ये था 57 वां बिंदु . वह इन शब्दों से शुरू हो रहा
था : “लेखक बाध्य है”.
इस बिंदु
के अनुसार, लेखक बाध्य है “अपने नाटक में बिना शर्त और तुरंत वे सुधार, परिवर्तन, परिवर्धन या संक्षिप्तीकरण करने
के लिए, यदि कोई निर्देशालय, या कोई कमिटी, या संस्था, या संगठन, या निगम, या ऐसा करने के लिए उचित अधिकार
संपन्न व्यक्ति इनकी मांग करते हैं – इसके लिए किसी अतिरिक्त पारिश्रमिक की मांग न
करते हुए, सिवाय उसके जिसका 15वें बिन्दु
में उल्लेख है.”
इस बिंदु
पर ध्यान देने के बाद, मैंने
देखा कि उसमें “पारिश्रमिक” शब्द के बाद खाली जगह थी.
इस जगह पर
मैंने अपने नाखून से सवालिया निशान बनाया.
“और आप
अपने लिए किस प्रकार के पारिश्रमिक की अपेक्षा करते हैं?” गव्रील स्तिपानविच ने मुझसे नज़र
हटाए बिना पूछा.
“अन्तोन
अन्तोनविच क्निझेविच ने,” मैं बोला, “ कहा था, कि मुझे दो हज़ार रूबल्स
देंगे...”
मेरे
वार्ताकार ने सम्मानपूर्वक अपना सिर झुका लिया.
“तो,” उसने कहा, कुछ देर चुप रहा और आगे बोला, “ऐह, पैसे, पैसे! उनके कारण दुनिया में कितनी
बुराई है! हम सभी सिर्फ पैसे के बारे में ही सोचते हैं, मगर क्या किसीने आत्मा के बारे
में सोचा है?”
अपने कठिन
जीवन के दौरान मैं ऐसे वाक्यों से इतना अनभ्यस्त हो चुका था, कि, स्वीकार करता हूँ, परेशान हो गया...मैंने सोचा:
‘क्या पता, हो सकता है, कि क्निझेविच सही हो...
मैं बस, संवेदनहीन और शक्की हो गया था...’
और शालीनता बनाए रखने के लिए मैंने सांस छोड़ीं और वार्ताकार ने भी मुझे वैसे ही
सांस छोड़कर जवाब दिया, फिर उसने
शोख़ी से मुझे आंख मारी, जो उसकी
आह से ज़रा भी मेल नहीं खा रही थी, और
घनिष्ठता से फुसफुसाकर कहा:
“ चार सौ
रूबल्स? आ? सिर्फ आपके लिए? आ?”
स्वीकार
करना पडेगा, कि मैं निराश हो गया. बात ये थी,
कि मेरे पास एक भी कोपेक नहीं था और मुझे इन दो हज़ार पर बहुत भरोसा था.
“हो सकता
है, एक हज़ार आठ सौ संभव हो,- क्निझेविच कह रहा था...”
“लोकप्रियता
ढूंढ रहा है,” गव्रील स्तिपानविच ने कड़वाहट से
जवाब दिया.
तभी दरवाज़े
पर दस्तक हुई, और हरे
बटनों वाला आदमी सफ़ेद रूमाल से ढंकी हुई ट्रे भीतर लाया. ट्रे में चांदी का कॉफ़ी-पॉट
था, दूध का जग, दो चीनी मिट्टी के कप – बाहर से
संतरे के रंग के और भीतर से सुनहरे, दानेदार
कैवियर के साथ दो सैंडविच, दो नारंगी, पारदर्शी
बलीक के साथ, दो चीज़ के साथ, दो ठन्डे रोस्ट-बीफ़ के साथ.
“क्या आप
इवान वसील्येविच के पास पैकेट ले गए?”
अव्गुस्ता मिनाझ्राकी ने भीतर आए हुए व्यक्ति से पूछा.
उसका चेहरा
बदल गया और उसने कनखियों से ट्रे की तरफ़ देखा.
“मैं, अव्गुस्ता अव्देयेव्ना, बुफे भाग रहा था, और इग्नूतव पैकेट के साथ भागा,” उसने कहा.
“ मैंने
इग्नूतव को तो आदेश नहीं दिया था, बल्कि
आपको दिया था,”
मिनाझ्राकी ने कहा, “इवान
वसिल्येविच के पास पैकेट्स ले जाने का काम इग्नूतव का नहीं, इग्नूतव बेवकूफ है, कुछ न कुछ गड़बड़ कर देता है, बात
को वैसे नहीं कहेगा...क्या आप यह चाहते हैं की इवान वसील्येविच का पारा गरम हो जाए?”
“मार डालना
चाहता है,” गव्रील स्तिपानविच ने ठंडेपन से
कहा.
ट्रे वाला
आदमी हौले से कराहा और उसने चम्मच नीचे गिरा दी.
“जब आप
बुफ़े में थे, तो पाकिन कहाँ था?” अव्गुस्ता
अव्देयेव्ना ने पूछा.
“पाकिन कार
के लिए भागा,” सवाल पूछे जा रहे व्यक्ति ने
स्पष्ट किया, “मैं बुफ़े भाग रहा था, मैंने इग्नूतव से कहा, “इवान वसिल्येविच के पास भाग.”
“और बब्कोव?”
“बब्कोव
टिकिट्स के लिए भाग रहा था.”
“यहाँ
रखो!” अव्गुस्ता अव्देयेव्ना ने कहा, घंटी का
बटन दबाया, और दीवार से डाइनिंग बोर्ड उछल कर
बाहर आया.
बटन्स वाला
आदमी खुश हो गया, उसने ट्रे
रख दी, पीठ से परदा हटाया, पैर से दरवाज़ा खोला और उसमें
स्वयम् को घुसा लिया.
“आत्मा के
बारे में, अपनी आत्मा के बारे में थोड़ा
सोचिये, क्लूक्विन!” गव्रील स्तिपानविच ने
पीछे से चिल्लाकर उससे कहा, और मेरी ओर मुड़कर आत्मीयता से कहा:
“चार सौ
पच्चीस. आ?”
अव्गुस्ता
अव्देयेव्ना ने सैंडविच का एक टुकड़ा खाया और एक ऊंगली से हौले से खटखट करती रही.
“शायद, एक हज़ार तेरह? मुझे, सचमुच में बड़ा अटपटा लग रहा है, मगर अभी मेरे पास बिल्कुल पैसे
नहीं हैं, और मुझे टेलर को पैसे देना है...”
“क्या ये
सूट सिलवाया है?” गव्रील
स्तिपानविच ने मेरी पतलून की ओर इशारा करते हुए पूछा.
“हाँ”.
“उस बदमाश
ने सिया तो बहुत बुरा है,” गव्रील
स्तिपानविच ने टिप्पणी की, - “आप
गर्दन पकड़ कर उसे बाहर निकाल दीजिये!”
“मगर, देखिये...”
“हमारे
यहाँ,” गव्रील स्तिपानविच ने परेशानी से
कहा, “ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि लेखकों
को कॉन्ट्रेक्ट के साथ ही पैसे दिए गए, मगर सिर्फ
आपके लिए...चार सौ पच्चीस!”
“एक हज़ार
दो सौ,” मैंने कुछ अधिक प्रसन्नता से कहा, “बगैर इसके तो मैं परिस्थिति से
बाहर नहीं निकल सकता....
हालात
मुश्किल हैं...”
“और, क्या आपने रेस खेलने की कोशिश
नहीं की? – गव्रील स्तिपानविच ने सहानुभूति
से पूछा.
“नहीं,” मैंने अफसोस से जवाब दिया.
“हमारे
यहाँ एक एक्टर कुछ उलझन में पड़ गया, रेस खेलने
गया और, ज़रा सोचिये, डेढ़ हज़ार जीत गया. और आपको हमसे
लेने में कोई तुक नहीं है. दोस्त की तरह सलाह दे रहा हूँ, अगर आप इसके पीछे
भागेंगे – खो जायेंगे! एह, पैसे! किसलिए
चाहिए? जैसे, मेरे पास नहीं है, और दिल पर कोई बोझ नहीं है, कितना सुकून है...” और गव्रील
स्तिपानविच ने जेब उलट कर दिखा दी, उसमें
पैसे नहीं थे, बल्कि चेन
से बंधा चाभियों का गुच्छा था.
“एक हज़ार,” मैंने कहा.
“एह, भाड़ में जाए ये सब!” – गव्रील
स्तिपानविच ने साहसपूर्वक कहा. “चाहे मुझे बाद में मार डालें, मगर आपको पाँच सौ रूबल्स दूंगा.
हस्ताक्षर कीजिये!”
मैंने
कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत कर दिए, गव्रील स्तिपानविच मुझे समझा रहा था कि पैसा जो
मुझे दिया जाएगा, वह अग्रिम
राशि के रूप में होगा, जिसकी
किश्त पहले ही प्रदर्शन से आरंभ हो जायेगी. इस बात पर सहमति हुई कि आज मुझे
पचहत्तर रूबल्स प्राप्त होंगे, दो दिन
बाद – सौ रूबल्स, फिर
शनिवार को – और सौ, और बाकी
के – चौदह तारीख को.
खुदा!
कार्यालय के बाद सड़क मुझे कितनी उबाऊ लग रही थी. बूंदा बांदी हो रही थी, जलाऊ लकड़ी की गाडी गेट में फंस
गयी थी, और गाड़ीवान भयानक आवाज़ में घोड़े
पर चिल्ला रहा था, बुरे मौसम
के कारण नागरिक अप्रसन्न चेहरों से चल रहे थे.
मैं तेज़ी
से घर की तरफ़ भागा जा रहा था, रास्ते के
दयनीय दृश्यों की न देखने की कोशिश करते हुए. बहुमूल्य कॉन्ट्रेक्ट मेरे दिल के
पास रखा था.
अपने कमरे में मैंने अपने दोस्त को
देखा (रिवॉल्वर वाला किस्सा देखिए).
मैंने गीले हाथों से कॉन्ट्रेक्ट बगल से बाहर निकाला और
चिल्लाया:
“पढ़िए!”
मेरे मित्र
ने कॉन्ट्रेक्ट पढ़ा और, मुझे आश्चर्य में डालते हुए, वह मुझ पर गुस्सा हो गया.
“ये कैसा
मूर्खतापूर्ण दस्तावेज़ है? आप, ठस दिमाग़, किस पर दस्तख़त कर रहे हैं?” उसने पूछा.
“आप थियेटर
के मामलों में कुछ नहीं समझते, इसलिए
बेहतर होगा की आप चुप ही रहें!” मैं गुस्सा हो गया.
“ये क्या
है, ‘बाध्य होगा, बाध्य होगा’, और क्या वे किसी भी बात के लिए
बाध्य हैं?” मेरा दोस्त बुदबुदाया.
मैं उसे
जोश से बताने लगा, की आर्ट
गैलरी क्या होती है, गव्रील
स्तिपानविच कितना ईमानदार व्यक्ति है, सारा
बर्नहार्ट और जनरल कमारोव्स्की का उल्लेख किया. मैं बताना चाहता था की घड़ी में
कैसे ‘मिनुएट’ बजता है, कॉफ़ी से कैसे भाप उठती है, कालीन पर कदमों की आहट कितनी शांत, कितनी जादुई प्रतीत होती है, मगर घड़ी के घंटे मेरे दिमाग में
बज रहे थे, मैंने खुद ही देखा सुनहरा
सिगरेट-होल्डर, और
इलेक्ट्रिक भट्टी में नारकीय लपटें, और सम्राट
नीरो को भी देखा, मगर यह सब
बता नहीं पाया.
“उनके यहाँ
क्या यह नीरो कॉन्ट्रेक्ट्स बनाता है?” मेरे
दोस्त ने भयानक मज़ाक किया.
“ओह, जाने भी दो!” मैं चीखा और उसके
हाथ से कॉन्ट्रेक्ट छीन लिया. नाश्ता करने का फैसला किया और दूस्या के भाई को
‘स्टोअर’ में भेजा.
शरद ऋतु की
बारिश हो रही थी. कैसा ‘हैम’ था, कैसा
मक्खन! सुख के पल.
मॉस्को का
मौसम अपनी मनमानी के लिए मशहूर है.
दो दिन बाद
ख़ूबसूरत, गर्मियों जैसा, गर्माहट भरा दिन था. और मैं
‘स्वतन्त्र-थियेटर’ की ओर भागा जा रहा था. सौ रूबल्स पाने के मीठे एहसास के साथ, मैं थियेटर के निकट पहुंचा और
मैंने देखा, कि बीच वाले दरवाज़े पर एक मामूली-सा पोस्टर है.
मैंने पढ़ा:
प्रदर्शनों
की सूची,
चालू सीज़न
के लिए:
एस्खिलस –
“एगामेम्नन”
सोफ़ोकल्स –
“फिलोक्तेत”
लोपे द’ वेगा – “फेनिज़ा नेटवर्क”
शेक्सपियर –
“किंग लिअर”
शिलेर – “दि
मेड ऑफ़ ऑर्लियन्स”
अस्त्रोव्स्की
– “नॉट ऑफ़ धिस वर्ल्ड”
मक्सूदव –
“ब्लैक स्नो”
मैं फुटपाथ
पर मुँह खोले खड़ा था, - और मुझे
अचरज होता है, कि इस समय
किसी ने मेरा बटुआ क्यों नहीं निकाला था. लोग मुझे धक्का दे रहे थे, कुछ भला-बुरा कह रहे थे, मगर मैं पोस्टर देखते हुए खड़ा ही
रहा. इसके बाद मैं एक किनारे हो गया, इस
उद्देश्य से कि पोस्टर आने-जाने नागरिकों पर क्या प्रभाव डालता है.
पता चला, कि कुछ भी प्रभाव नहीं हो रहा है.
अगर उन तीन-चार लोगों को छोड़ दिया जाए, जिन्होंने
पोस्टर पर नज़र डाली थी, ये कह
सकते हैं, कि किसीने भी उसे नहीं पढ़ा था.
मगर पाँच
मिनट भी नहीं बीते थे, कि मुझे
अपने इंतज़ार का सौ गुना इनाम मिल गया. थियेटर की तरफ़ जाने वालों के प्रवाह में मैंने
स्पष्ट रूप से इगोर अगाप्योनव का बड़ा सिर देखा. वह अपने पूरे झुण्ड के साथ थियेटर की ओर जा रहा था, जिसमें दांतों
में पाईप दबाये लिकास्पास्तव की और प्यारे-से मोटे चेहरे वाले अनजान व्यक्ति की
झलक दिखाई दी. अंत में घूम रहा था गर्मियों वाले, असाधारण पीले ओवरकोट में और न जाने क्यों बिना टोपी के एक काफ़िर. मैं
नीचे की ओर गहराई में गया, जहां दृष्टिहीन मूर्ति थी, और देखने लगा.
ये गुट पोस्टर के पास पहुंचा और रुक
गया. पता नहीं, कैसे वर्णन करूं कि
लिकास्पास्तव को क्या हुआ. वहाँ रुककर पढ़ने वालों में वह पहला था. अभी तक उसके
चेहरे पर मुस्कराहट थी, उसके होठों पर अभी तक किसी चुटकुले
के आख़िरी शब्द थे. तो, वह “फेनिज़ा नेटवर्क” तक पहुंचा. अचानक
लिकास्पास्तव पीला पड़ गया और जैसे फ़ौरन बूढ़ा हो गया. उसके चहरे पर वास्तविक भय
व्यक्त हो रहा था.
अगाप्योनव ने पढ़ा, कहा:
“हुम्...”
अनजान मोटे ने आंखें झपकाईं... “वह
याद कर रहा है, कि उसने मेरा नाम
कहाँ सुना है...”
काफ़िर ने अंग्रेज़ी में पूछा कि उसके
साथियों ने क्या देखा...अगाप्योनव ने कहा:
“पोस्टर, पोस्टर,” और हवा में
चौकोन बनाने लगा. कुछ भी न समझते हुए काफ़िर ने सिर हिला दिया.
लोग लहर की तरह जा रहे थे और कभी इस गुट को ढांक
देते, कभी उनके सिर दिखा देते. उनके
शब्द कभी मुझ तक पहुंचते, कभी सड़क के शोर में डूब जाते.
लिकास्पास्तव अगाप्योनव की ओर मुड़ा और
बोला:
“नहीं, आपने देखा इगोर निलीच? ये क्या बात है?”
उसने उदासी से चारों ओर देखा.
“वे पागल हो गए हैं!...”
हवा इस वाक्य के अंतिम शब्द उड़ा ले
गयी.
कभी अगाप्योनव के मन्द्र सप्तक के, तो कभी लिकास्पास्तव के तार सप्तक के सुरों
के गुच्छे मुझ तक पहुंचे.
“...अरे, ये कहाँ से आ गया?...हाँ, मैंने ही तो उसे खोजा था...वही...हुम्...हुम्...हुम्...खतरनाक आदमी...”
मैं गहरी जगह से निकला और सीधा पढ़ने
वालों के पास पहुंचा.
लिकास्पास्तव ने पहले मुझे देखा,
और, उसकी आंखों में हुए परिवर्तन ने मुझे चौंका दिया. ये लिकास्पास्तव की ही आंखें
थीं, मगर उनमें कोई नई, परायेपन की
बात दिखाई दी, हमारे बीच जैसे कोई खाई थी...
“बहुत अच्छे, भाई,” लिकास्पास्तव
चीखा, “बहुत अच्छे, भाई! धन्यवाद, इसकी उम्मीद नहीं थी! एस्खिलस, सोफोकल्स और तुम! तुमने ये कैसे कर लिया, समझ नहीं पा रहा हूँ, मगर ये है बहुत शानदार! तो, अब तुम, बेशक, अपने दोस्तों
को नहीं पहचानोगे! अब हम कहाँ शेक्सपियरों से दोस्ती बनाए रखेंगे!”
“तू ये अपना नाटक बंद कर!” मैंने
सकुचाते हुए कहा.
“तो, लब्जों में कहना मुश्किल है! कैसा है तू, या खुदा!
अरे, मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ. चल, बात करते हैं, बुढ़ऊ!” और मैंने लिकास्पास्तव के गाल का स्पर्श महसूस किया, जिसमें एक छोटा तार जड़ा हुआ था.
“मिलिए!” और मैं मोटे से मिला, जो मुझसे आंख नहीं हटा रहा था. उसने कहा:
“क्रूप्प.”
मैं काफ़िर से भी मिला, जिसने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बहुत लंबा
वाक्य कहा. चूंकि मैं यह वाक्य समझ नहीं पाया, इसलिए मैंने
काफ़िर से कुछ नहीं कहा.
“बेशक, ट्रेनिंग स्टेज पर प्रदर्शित करेंगे, है ना?” लिकास्पास्तव ने उत्सुकता से पूछा.
“पता नहीं,” मैंने जवाब दिया,
“कहते हैं, कि मुख्य स्टेज पर प्रदर्शित करेंगे.
लिकास्पास्तव का चेहरा फिर से पीला पड़ गया और उसने चमकते हुए आसमान की ओर उदासी से
देखा.
“ठीक है,” उसने भर्राई हुई आवाज़ में कहा, “खुदा रहम करे. आगे बढ़ो, आगे बढ़ो. हो सकता है, यहाँ तुम्हें कामयाबी मिल जाए. उपन्यास के साथ तो कुछ नहीं हुआ, कौन कह सकता है, नाटक कामयाब हो जाए. सिर्फ तू
घमण्ड न करना. याद रख: दोस्तों को भूलने से ज़्यादा बुरा और कोई काम नहीं है!”
क्रूप्प मेरी ओर देख रहा था, और न जाने क्यों अधिकाधिक सोच में पड़ गया; मैंने यह भी देखा की सबसे ज़्यादा ध्यान वह मेरे बालों और नाक पर दे रहा
है.
बिदा लेना ज़रूरी था. दुःख हो रहा
था. इगोर ने मुझसे हाथ मिलाते हुए, पूछ लिया, कि क्या मैंने उसकी किताब पढ़ी है. मैं भय से ठंडा पड़ गया और मैंने जवाब
दिया कि नहीं पढी. अब इगोर का चेहरा फ़क हो गया.
“वह कहाँ से पढेगा?” लिकास्पास्तव बोल पड़ा, “उसके पास आधुनिक
साहित्य पढ़ने के लिए समय नहीं है...अरे, मज़ाक कर रहा हूँ, मज़ाक कर रहा हूँ...”
“आप पढ़िए,” इगोर ने गंभीरता से कहा, “अच्छी बन पड़ी है किताब.”
मैं ड्रेस सर्कल के प्रवेश द्वार में
घुसा. सड़क की तरफ़ वाली खिड़की खुली थी. हरे बटन होल्स वाला आदमी उसे कपड़े से पोंछ
रहा था. धुंधले कांच के पीछे साहित्यकारों के सिर तैर रहे थे, लिकास्पास्तव की आवाज़ सुनाई दी:
“संघर्ष कर रहे हो...बर्फ़ पर पड़ी
मछली की तरह संघर्ष कर रहे हो...शर्मनाक है!”
मेरे दिमाग़ में अभी भी पोस्टर फड़फड़ा
रहा था, और मुझे सिर्फ एक ही एहसास हो रहा था, कि मेरा नाटक, असल में, बेहद, हमारे बीच कहूँ तो, बुरा है और कुछ न कुछ करना
पड़ेगा, मगर क्या – पता नहीं.
...और मेरे सामने, ड्रेस सर्कल को जाने वाली सीढ़ी के पास
हट्टा-कट्टा गोरा, दृढ़ चेहरे और परेशान आंखों वाला व्यक्ति
प्रकट हुआ. गोरा मोटी ब्रीफकेस पकड़े हुए था.
“कॉमरेड मक्सूदव?” गोरे ने पूछा.
“हाँ, मैं...”
“पूरे थियटर में आपको ढूँढ रहा
हूँ,” नए परिचित ने कहा, “अपना परिचय देने
की इजाज़त दें – डाइरेक्टर फ़मा स्त्रिज़. तो, सब कुछ ठीक है.
परेशान न हों, और फ़िक्र न करें, आपका
नाटक अच्छे हाथों में है. कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत कर दिए?”
“हाँ.”
“अब आप हमारे हैं,” स्त्रिज़ निर्णयात्मक
सुर में कहता रहा. उसकी आंखें चमक रही थीं, “आपको बस, ये करना है, हमारे
साथ अपनी सभी आगामी रचनाओं के लिए कॉन्ट्रेक्ट पर दस्तखत करना है! ज़िंदगी भर के
लिए! ताकि वे सभी हमारे पास आयें. अगर चाहें, तो हम अभी यह
कर सकते हैं. एक बार थूक दो!” और स्त्रिज़ ने थूकदान में थूक दिया. “तो, नाटक का प्रदर्शन मैं करूँगा. हम उसे दो महीनों में कर देंगे. पंद्रह
दिसंबर को जनरल रिहर्सल दिखाएँगे. शिलेर हमें नहीं रोकेगा. शिलेर का काम आसान
है...”
“माफी चाहता हूँ,” मैंने डरते हुए कहा,
“ – मगर मुझे बताया गया है, कि एव्लाम्पिया पित्रोव्ना
प्रदर्शित करेंगी...”
स्त्रिज़ का चेहरा बदल गया.
“कौन है ये एव्लाम्पिया
पित्रोव्ना?” – उसने गंभीरतापूर्वक मुझसे पूछा. “कोई एव्लाम्पिया नहीं है.” उसकी
आवाज़ खनखनाने लगी. “एव्लाम्पिया का यहाँ कोई संबंध नहीं है, वह ईल्चिन के साथ ‘आउट हाउस के आँगन में’
प्रदर्शित करेगी. मेरे पास इवान वसील्येविच के साथ पक्का समझौता है! और अगर किसीने
खुराफ़ात करने की कोशिश की, तो मैं इंडिया को भी लिखूंगा. जिन्होंने ऑर्डर दिया है, अगर बात वहां तक पहुँची तो,” परेशान होते हुए फ़मा स्त्रिज़
धमकी भरी आवाज़ में चीखा. “लाईये, मुझे
प्रतिलिपि दीजिये,” उसने
मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए हुक्म दिया.
मैंने
समझाया की प्रतिलिपि की अभी नक़ल नहीं हुई है.
“उन्होंने
क्या सोच लिया है?” उत्तेजना
से चारों ओर देखते हुए स्त्रिज़ चिल्लाया. “क्या आप ड्रेसिंग रूम में पलिक्सेना
तरोपित्स्काया के पास गए थे?”
मैं कुछ भी नहीं समझा और जंगलीपन से
स्त्रिज़ की ओर देखता रहा.
“नहीं गए? आज उसकी छुट्टी है. कल ही प्रतिलिपि लेकर
उसके पास जाइए, मेरा नाम लेकर काम कीजिये! हिम्मत से!”
तभी एक बहुत सभ्य, हट्टा-कट्टा, ख़ूबसूरत आदमी बगल में प्रकट
हुआ और विनम्रता से, मगर ज़ोर देकर बोला:
“कृपया रिहर्सल हॉल में आइये, फ़मा स्त्रिज़!”
और फ़मा ने ब्रीफकेस बगल में दबाई और
जाते-जाते चिल्लाकर मुझसे कहते हुए छुप गया:
“कल ही ड्रेसिंग रूम में! मेरे नाम
से!”
और मैं खड़ा रह गया और बड़ी देर तक निश्चल खड़ा ही रहा.