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सोमवार, 17 मार्च 2025

Theatrical Novel - 14

 

अध्याय 14

रहस्यमय चमत्कारकर्ता

 

 मनुष्य की स्मरणशक्ति आश्चर्यजनक रूप से बनी है. जैसे, शायद, लगता है कि ये सब अभी हाल में हुआ है, मगर, फिर भी घटनाओं को सुसंगत और क्रमबद्ध तरीके से पुनर्स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है. शृंखला से कड़ियां बिखर गईं! कुछेक घटनाएं याद आती हैं, जैसे सीधे आंखों के सामने प्रकाशित हो रही हैं, और शेष बिखर गई हैं, टूट गई हैं, और सिर्फ एक धूल का कण और कोई बारिश ही स्मृति में बची है. हाँ, वैसे, धूल का कण तो है. बारिश? बारिश?      

तो, शायद उस नशे वाली रात के बाद शायद एक महीना बीता था, नवम्बर का महीना था. तो, बर्फ के साथ-साथ चिपचिपी बर्फ भी गिर रही थी. खैर, मैं समझता हूँ, कि आप मॉस्को को जानते हैं. शायद, उसका वर्णन करने के लिए कुछ भी नहीं है. नवम्बर में उसके रास्तों पर हालत बेहद खराब होती है. और बिल्डिंगों में भी अच्छा नहीं होता. मगर ये तो आधी ही मुसीबत होती, ज़्यादा बुरी हालत तब होती है, जब घर पर हालात ठीक न हों. आप मुझे बताइये, की कपड़ों से दाग कैसे हटाएँ? मैंने हर तरह से कोशिश कर ली, हर चीज़ का प्रयोग करके देख लिया. और आश्चर्यजनक बात : उदाहरण के लिए, कपड़े को बेंज़ीन में भिगोते हो, और आश्चर्यजनक परिणाम – धब्बा पिघल जाता है, पिघल जाता है और गायब हो जाता है. आदमी खुश है, क्योंकि कपड़े पर दाग़ जितनी पीड़ा कोई और चीज़ नहीं देती. गंदी चीज़ है, बुरी चीज़ है, दिमाग़ खराब कर देती है. कोट खूंटी पर लटकाते हो, सुबह उठते हो - धब्बा अपनी पहले वाली जगह पर ही है, और उसमें से थोड़ी-थोड़ी बेंज़ीन की गंध आ रही है. ठीक यही बात चाय पीने के बाद बचे डिकाक्शन के साथ भी है, यूडीकलोन के साथ भी. क्या शैतानियत है! गुस्सा करना शुरू करते हो, अपने आप को चिकोटी काटते हो, मगर कुछ नहीं कर सकते. नहीँ, जिसने कपड़े पर दाग लगाया है, वह उसके साथ ही तब तक घूमता रहेगा, जब तक कि कपड़ा ख़ुद ही सड़ न जाए और उसे हमेशा के लिए फेंक न दिया जाए. मुझे तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता – मगर औरों के लिए दुआ करता हूँ, कि उनके साथ ऐसा कम से कम हो.   

तो, मैं धब्बा हटा रहा था और उसे नहीं हटाया, फिर, याद आता है, कि मेरे जूतों के फीते टूटते रहे, मैं खांसता रहा और हर रोज़ ‘बुलेटिन के दफ़्तर में जाता रहा, नमी और अनिद्रा से परेशान था, और भगवान जाने, जो भी मिलता, पढ़ता रहता. परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं, कि मेरे निकट कोई लोग ही नहीं बचे. लिकास्पास्तव किसी कारण से कॉकेशस चला गया, मेरे दोस्त का, जिसका रिवॉल्वर मैंने चुरा लिया था, तबादला लेनिनग्राद कर दिया गया, और बम्बार्दव गुर्दों की सूजन से बीमार हो गया और उसे अस्पताल में दाख़िल कर दिया गया. कभी कभी मैं उससे मिलने चला जाता, मगर उसे थियेटर के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं थी. और वह समझ रहा था, कि ‘ब्लैक स्नो वाली घटना के बाद इस विषय को छूना ठीक नहीं है, मगर गुर्दों के बारे में बात की जा सकती है, क्योंकि यहाँ हर तरह की सांत्वना की गुंजाइश है. इसीलिये हम गुर्दों के ही बारे में बात करते, यहाँ तक कि क्ली को भी मज़ाक में याद करते, मगर फिर भी यह अप्रिय था.

मगर, हर बार, जब मैं बम्बार्दव से मिलता, मैं थियेटर को याद करता, मगर उससे इस बारे में कुछ भी न पूछने की पर्याप्त इच्छाशक्ति मुझमें थी. मैंने अपने आप से कसम खाई थी कि थियेटर के बारे में कुछ भी नहीं सोचूंगा, मगर यह कसम हास्यास्पद थी. सोचने पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता. मगर थियेटर के बारे में जानकारी प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध लगाना संभव है. और इसी पर मैंने प्रतिबन्ध लगाया था.                 

और थियेटर तो जैसे मर गया था और अपने बारे में कोई भी जानकारी नहीं दे रहा था. मैं, फ़िर से दुहराता हूँ, कि मैं लोगों से अलग-थलग पड़ गया था. मैं पुरानी किताबों की दुकानों में जाता और कभी-कभी उकडूं बैठ जाता, आधे अँधेरे में, धूल भरी पत्रिकाएँ छानता रहता और, मुझे याद है, कि मैंने एक अद्भुत तस्वीर देखी...आर्क डी ट्रायम्फ...

इस बीच बारिश रुक गई, और एकदम अप्रत्याशित रूप से पाला गिरने लगा. मेरी अटारी में खिड़की पर एक डिजाईन बन गया, और, खिड़की के पास बैठे-बैठे और दो कोपेक के सिक्के पर सांस छोड़ते हुए, और उसकी बर्फ बन चुकी सतह पर अंकित करते हुए, मैं समझ गया, कि नाटक लिखना और उसका मंचन न करना – असंभव है.

मगर शामों को फर्श के नीचे से वाल्ट्ज़ सुनाई देता, एक ही और वो ही (कोई उसे याद कर रहा था), और यह वाल्ट्ज़ डिब्बे में तस्वीरें पैदा कर रहा था, काफ़ी अजीब और दुर्लभ. जैसे, मिसाल के तौर पर, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की नीचे अफ़ीमचियों का अड्डा था, और कुछ और भी हो रहा था, जिसे मैंने खयालों में नाम दिया – ‘तीसरा अंक”. ठीक वही भूरा धुँआ, असममित चेहरे वाली महिला, कोई एक फ्रॉक-कोट वाला आदमी, धुँए के ज़हर से प्रभावित, और उसकी तरफ़ चोरी-छुपे बढ़ता हुआ, तेज़ धार वाला फिनिश चाकू हाथ में लिए, नींबू जैसे चेहरे और तिरछी आँखों वाला आदमी.    

चाकू का वार, खून की धार. बकवास, जैसा कि आप देख रहे हैं! बकवास! और ऐसे नाटक को कहाँ ले जाऊं, जिसमें तीसरा अंक इसी तरह का है?

हाँ, मैंने सोची हुई बात नहीं लिखी. सवाल ये उठता है, बेशक, और सबसे पहले वह मेरे दिमाग़ में ही उठता है – किसी आदमी ने, जिसने खुद को अटारी में दफ़न कर दिया हो, जिसने एक बड़ी विफ़लता का सामना किया हो, और जो उदास प्रवृत्ति का भी हो (ये तो मैं समझता हूँ, परेशान न हों), आत्महत्या करने का दूसरा प्रयत्न न किया हो?

सीधे-सीधे स्वीकार करता हूँ: पहले अनुभव ने इस हिंसक कृत्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी. ये, अगर मेरे बारे में कहा जाए तो. मगर वास्तविक कारण, बेशक, ये नहीं है. हर चीज़ का अपना समय होता है. खैर इस विषय पर विस्तार से विचार नहीं करेंगे.

जहाँ तक बाहरी दुनिया का सवाल है, तो उससे स्वयँ को पूरी तरह अलग-थलग करना असंभव था, और वह अपने होने का एहसास दे रही थी, क्योंकि उस काल-खंड में, जब मैं गवरीला स्तिपानविच से कभी पचास, तो कभी सौ रुबल्स प्राप्त कर रहा था, मैंने तीन थियेटर की पत्रिकाओं और ‘ईवनिंग मॉस्को’ की सदस्यता ली थी.

और इन पत्रिकाओं के अंक काफ़ी नियमित रूप से आते थे. “थियेटर न्यूज़” विभाग देखते हुए मैं अपने परिचितों के बारे में समाचारों से रूबरू हो जाता था.

तो, पंद्रह दिसंबर को मैंने पढ़ा:

“सुप्रसिद्ध लेखक इस्माईल अलेक्सान्द्रविच बोन्दरेवस्की उत्प्रवासन के जीवन पर आधारित नाटक “मोन्मार्त्र के चाकू” समाप्त कर रहे हैं. सूत्रों के अनुसार, ये नाटक लेखक द्वारा ‘पुराने थियेटर को दिया जाएगा.”

सत्रह तारीख को मैंने अखबार खोला और इस खबर से टकराया:

“प्रसिद्ध लेखक ई. अगाप्योनव ‘मित्र-समूह थियेटर’ के आदेश से कॉमेडी ‘देवर’ पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं.”

बाईस तारीख को छपा था: “नाटककार क्लिन्केर ने हमारे सहयोगी के साथ बातचीत में नाटक के बारे में समाचार दिया, जिसे वह “स्वतन्त्र थियेटर” को देना चाहते हैं. अल्बेर्त अल्बेर्तोविच ने सूचित किया, कि उनका नाटक कसीमव के नेतृत्व में गृह युद्ध का व्यापक चित्रण है. नाटक का शीर्षक मोटे तौर पर होगा “हमला”. 

और फिर आगे तो जैसे सैलाब ही आ गया: इक्कीस को, और चौबीस को, और छब्बीस को. अखबार – और उसमें तीसरे पृष्ठ पर एक जवान आदमी की धुंधली तस्वीर, असाधारण उदास सिर वाला और जैसे किसी को टक्कर मार रहा हो, और सूचना कि यह ई. एस. प्रोक का नाटक है जो तीसरा अंक समाप्त कर रहा है.

झ्वेन्का अनीसिम, अन्बाकोमव. चौथा, पांचवां अंक. दो जनवरी को और मैं नाराज़ हो गया. वहां यह छपा था: “सलाहकार एम. पानिन ने ‘स्वतन्त्र थियेटर में नाटककारों के समूह की मीटिंग आयोजित की है. विषय है – ‘स्वतन्त्र थियेटर के लिए आधुनिक नाटक की रचना.” इस ‘नोट का शीर्षक था: ‘वक्त आ गया है, कब से वक्त आ गया है!”, और उसमें ‘स्वतन्त्र थियेटर के प्रति इस बात पर खेद और तिरस्कार व्यक्त किया था, कि वह सभी थियेटरों में अकेला ऐसा थियेटर है जिसने अभी तक एक भी आधुनिक नाटक का मंचन नहीं किया है, जो हमारे युग पर प्रकाश डाल सके. “मगर फिर भी,” अखबार ने आगे लिखा था, - “सिर्फ वही और प्रमुख रूप से वही, कोई और नहीं, समुचित रूप से आधुनिक नाटककार की रचना को प्रस्तुत कर सकता है, अगर इस प्रस्तुति की ज़िम्मेदारी ऐसे महारथी लेते हैं, जैसे इवान वसिल्येविच और अरिस्तार्ख प्लतोनविच.”

आगे नाटककारों की निष्पक्ष रूप से निंदा की गयी थी, जिन्होंने अब तक ‘स्वतन्त्र थियेटर के लिए योग्य नाटक की रचना नहीं की थी.    

मैंने अपने आप से बोलने की आदत डाल ली थी.

“माफ़ कीजिये,” अपमान से होंठ फुलाते हुए मैं बड़बड़ाया, - “ऐसा कैसे किसी ने नाटक नहीं लिखा? और पुल? और हारमोनियम? कुचली हुई बर्फ पर खून?

खिड़की से बाहर बवंडर चिंघाड़ रहा था, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ,कि खिड़की के पीछे वही नासपीटा पुल है, कि हार्मिनियम गा रहा है और सूखी गोलीबारी सुनाई दे रही थी.

गिलास में चाय ठंडी हो रही थी, अखबार के पृष्ठ से मेरी ओर गलमुच्छों वाला चेहरा देख रहा था. नीचे अरिस्तार्ख प्लतोनविच द्वारा मीटिंग के लिए भेजा गया टेलीग्राम था:

“शरीर से कलकत्ते में, मन से आपके साथ.”    

देख रहे हो, वहां ज़िंदगी जीवन कैसे उबल रही है, खदखदा रही है, जैसे किसी बांध में,” मैं उबासी लेते हुए फुसफुसाया, “और मुझे जैसे दफ़न कर दिया गया है.”

रात फिसलते हुए दूर जा रही है, कल का दिन भी फिसल जाएगा, जितने दिन छोड़े जायेंगे, वे सब फिसलते हुए चले जायेंगे, और कुछ भी नहीं बचेगा, सिवाय असफ़लता के.

लंगडाते हुए, दुखते हुए घुटने को सहलाते हुए, मैं घिसटते हुए दीवान तक गया, ठण्ड से कंपकंपाते हुए, घड़ी को चाभी दी.

इस तरह कई रातें गुज़र गईं, उनकी मुझे याद है, मगर सामूहिक रूप से – सोने में ठण्ड लग रही थी. दिन तो जैसे स्मृति से धुल गए थे – कुछ भी याद नहीं है.

इस तरह मामला जनवरी के अंत तक खीच गया, और मुझे एक सपना स्पष्ट रूप से याद है, जो मुझे बीस जनवरी से इक्कीस जनवरी वाली रात को आया था.

महल में एक विशाल हॉल है, और जैसे मैं इस हॉल में चल रहा हूँ. शमादानों में धुआँ छोड़ते हुए मोमबत्तियां जल रही थीं, भारी, चिकनी, सुनहरी. मैंने अजीब तरह के कपड़े पहने हैं, पैर कसी हुई पतलून से ढंके हैं, संक्षेप में, मैं अपनी शताब्दी में नहीं हूँ, बल्कि पंद्रहवीं शताब्दी में हूँ. मैं हॉल में चल रहा हूँ, और मेरी बेल्ट पर एक खंजर है. सपने की सुन्दरता इस बात में नहीं थी, कि मैं स्पष्ट रूप से शासक था, बल्कि वह थी इस खंजर में, जिससे दरवाजों पर खड़े दरबारी डर रहे थे. शराब भी इतना नशा नहीं दे सकती, जैसे यह खंजर दे रहा था, और, मुस्कुराते हुए, नहीं, सपने में हंसते हुए, मैं चुपचाप दरवाज़े की तरफ़ जा रहा था.   

सपना इतना आकर्षक था, कि जागने के बाद भी मैं कुछ देर तक हंसता रहा.

तभी दरवाज़े पर टकटक हुई, और मैं फ़टे हुए जूते घसीटते हुए कंबल की तरफ़ बढ़ा, और पड़ोसन के हाथ ने झिरी के भीतर घुसकर मुझे एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया. उसके ऊपर “स्वतन्त्र थियेटर” के  सुनहरे अक्षर चमक रहे थे.

मैंने उसे फाड़ा, वह अभी भी, मेरे सामने तिरछा पड़ा है (और मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा!). लिफ़ाफ़े में एक कागज़ था, फिर से सुनहरे गोथिक अक्षरों वाला, जिस पर फ़ोमा स्त्रिझ के बड़े-बड़े, दमदार अक्षरों में लिखा हुआ था:

“प्रिय सिर्गेई लिओन्तेविच!

फ़ौरन थियेटर में आ जाईये! कल दोपहर को बारह बजे “काली बर्फ” की रिहर्सल आरंभ कर रहा हूँ.

आपका

फ़ोमा स्त्रिझ”

कुटिलता से मुस्कुराते हुए मैं सोफ़े पर बैठ गया, बेतहाशा कागज़ को देखते हुए और खंजर के बारे में सोचते हुए, फिर न जाने क्यों, अपने नंगे घुटनों को देखते हुए ल्युद्मिला सिल्वेस्त्रव्ना के बारे में.

इस बीच दरवाज़े पर दमदार और प्रसन्न दस्तक होने लगी.

“आ जाओ,” मैंने कहा. कमरे में बम्बार्दव ने प्रवेश किया. पीला और फ़ीका, बीमारी के बाद अपनी ऊंचाई से लंबा दिखाई दे रहा, और उसी के कारण बदल गई आवाज़ में उसने कहा:

“पता चल गया? मैं जानबूझ कर आपके पास आया था.

और अपनी समूची नग्नता और दरिद्रता में, पुराने कंबल को फ़र्श पर घसीटते हुए, मैंने कागज़ गिराकर उसे चूम लिया.

“ये कैसे संभव हुआ?” मैंने फर्श पर झुकते हुए पूछा.
“ये मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ,” मेरे प्यारे मेहमान ने जवाब दिया
, “कोई भी समझ नहीं पायेगा और कभी भी नहीं जान पायेगा. मेरा ख़याल है की ये पानिन और स्त्रिझ ने मिलकर किया है. मगर उन्होंने ये कैसे किया – पता नहीं है, क्योंकि यह मानवीय शक्ति से परे है. संक्षेप में : यह चमत्कार है.”

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