मास्टर और मार्गारीटा – 05.1
पाँच
सारा मामला ग्रिबोयेदव में ही था
बीमार से बगीचे के एक कोने में दोतरफा वृक्षों वाले अँगूठीनुमा रास्ते पर दूधिया रंग का एक प्राचीन दुमंज़िला भवन खड़ा था. अँगूठीनुमा रास्ते के फुटपाथ को इस मकान से लोहे की एक जाली अलग करती थी. मकान के सामने छोटा-सा सिमेंट का चौक बना था. शीत ऋतु में इस चौक पर बर्फ का ढेर जमा हो जाता, जिस पर एक फावड़ा देखा जा सकता था और ग्रीष्म ऋतु में यही चौक कैनवास के तम्बू के नीचे शानदार रेस्टारेंट में परिवर्तित हो जाता था.
भवन का नाम था ‘ग्रिबोयेदव भवन’. यह माना जाता था कि कभी यह घर अलेक्सान्द्र ग्रिबोयेदव की बुआ का था. लेकिन यह सचमुच उसी का था – हमें ठीक से नहीं मालूम. मुझे यह भी याद आता है, कि शायद ग्रिबोयेदव की ऐसी कोई बुआ नहीं थी, जो किसी घर की मालकिन रही हो...मगर घर इसी नाम से पुकारा जाता था. मॉस्को के एक शेखीबाज़ ने तो यहाँ तक कहा कि दूसरी मंज़िल के खम्भों वाले गोल हॉल में विख्यात लेखक ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘बुद्धि से दुर्भाग्य’ के कुछ अंश इसी बुआ को पढ़कर सुनाए थे. वह सोफ़े पर पसरकर उन्हें सुनती रहती थी. पढ़े हों, न पढ़े हों, हमारी बला से! महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है.
महत्त्व की बात यह है कि आजकल इस भवन पर उसी ‘मॉसोलित’ का अधिकार है , जिसका अध्यक्ष पत्रियार्शी तालाब पर आने तक, अभागा मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच था.
मॉसोलित के सदस्यों में से कोई भी इसे ‘ग्रिबोयेदव भवन’ नहीं कहता था. वे सब इसे सिर्फ़ ‘ग्रिबोयेदव’ कहते थे : “मैं कल दो घण्टे ग्रिबोयेदव के आसपास घूमता रहा”, “फिर क्या हुआ?”
“एक महीने के लिए याल्टा जाने को मिल गया”, “शाबाश!” या फिर “बेर्लिओज़ के पास जाओ, आज वह चार से पाँच बजे तक ग्रिबोयेदव में लोगों से मिल रहा है...” और ऐसा ही बहुत कुछ.
मॉसोलित ग्रिबोयेदव में इस तरह स्थित था कि उससे अच्छा और आरामदेह विकल्प कोई और हो ही नहीं सकता था.ग्रिबोयेदव में आने वाले हर व्यक्ति को, इच्छा न होते हुए भी, विभिन्न खेल मण्डलियों के विज्ञापनों को और मॉसोलित के सदस्यों के सामूहिक तथा व्यक्तिगत फोटो को देखना ही पड़ता था, जिनसे इस भवन की दूसरी मंज़िल को जाने वाली सीढ़ियों की दीवारें सुसज्जित थीं.
दूसरी मंज़िल के पहले ही कमरे के दरवाज़े पर लिखा हुआ था, ‘मछली-अवकाश विभाग’ वहीं जाल में फँसी लाल पंखों वाली बड़ी-सी मछली का चित्र भी लगा था.
दूसरे नम्बर के कमरे के दरवाज़े पर कुछ-कुछ समझ में न आने वाली बात लिखी थी : ‘एक दिवसीय सृजनात्मक यात्रा पास. एम.वी. पद्लोझ्नाया से मिलें’
अगले दरवाज़े पर एक छोटी-सी किन्तु बिल्कुल ही समझ में न आने वाली इबारत थी. फिर ग्रिबोयेदव में आए व्यक्ति की नज़रें बुआजी के घर के अखरोट के मज़बूत दरवाज़े पर लटकी तख़्तियों पर घूमने लगतीं. ‘पकलोव्किना से मिलने के लिए यहाँ नाम लिखाइए’, ‘टिकट-घर’, ‘चित्रकारों का व्यक्तिगत हिसाब’...
नीचे की मंज़िल पर लगी बहुत लम्बी क़तार के ऊपर से, जिसमें हर मिनट लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी, वह तख़्ती देखी जा सकती थी, जिस पर लिखा था : ‘क्वार्टर-सम्बन्धी प्रश्न’.
‘क्वार्टर-सम्बन्धी प्रश्न’ के पीछे एक शानदार पोस्टर देखा जा सकता था. उसमें एक बहुत बड़ी चट्टान दिखाई गई थी. चट्टान के किनारे-किनीरे नमदे के जूते पहने, कन्धों पर बर्छा लिए एक नौजवान चला जा रहा था. नीचे लिण्डन के वृक्ष और एक बालकनी. बालकनी पर एक नौजवान परों का टोप पहने, कहीं दूर साहसी आँखों से देखता हुआ, हाथ में फाउंटेन पेन पकड़े हुए. इस पोस्टर के नीचे लिखा था : ‘सृजनात्मक कार्यों के लिए पूरी सुविधाओं सहित छुट्टियाँ – दो सप्ताह से (कथा – दीर्घकथा) एक वर्ष (उपन्यास – तीन खण्डों वाला उपन्यास) तक, याल्टा, सूकसू, बोरावोये, त्सिखिजिरी महिंजौरी, लेनिनग्राद (शीतमहल)’. इस दरवाज़े के सामने भी लाइन लगी थी, मगर बहुत लम्बी नहीं, क़रीब डेढ़ सौ व्यक्ति होंगे.
आगे, ग्रिबोयेदव भवन के हर मोड़ पर, सीढ़ी पर, कोने पर कोई न कोई तख़्ती देखी जा सकती थी :
मॉसोलित निदेशक : टिकट घर नं. 2,3,4,5.; सम्पादक मण्डल, मॉसोलित अध्यक्ष, बिलियर्ड कक्ष, विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक कार्यालय. और अंत में वही स्तम्भों वाला हॉल जहाँ बुआ जी अपने बुद्धिमान भतीजे की हास्यपूर्ण रचना का आस्वाद लिया करती थीं.
ग्रिबोयेदव में आने वाला हर व्यक्ति, यदि वह बिल्कुल ही मूर्ख न हो, सहजता से अनुमान लगा सकता था कि मॉसोलित के भाग्यशाली सदस्य कितना शानदार जीवन बिता रहे हैं, और तत्क्षण ईर्ष्या की एक काली छाया उस पर हावी होने लगती थी. फ़ौरन ही वह आकाश की ओर दुःखभरी नज़र डालकर उस परमपिता परमात्मा को कोसने लगता था कि उसने उसे कोई भी साहित्यिक योग्यता क्यों नहीं प्रदान की, जिसके बिना मॉसोलित के भूरे, महँगे चमड़े से मढ़े, सुनहरी किनारी वाले पहचान-पत्र का स्वामी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, जिससे मॉस्को के लगभग सभी लोग परिचित थे.
ईर्ष्या के बारे में कोई क्या कह सकता है? यह एक बुरा गुण है, मगर फिर भी अतिथि की दृष्टि से देखना होगा. जो कुछ भी उसने ऊपर की मंज़िल पर देखा है, वही और केवल वही सब कुछ नहीं था. बुआ जी के मकान की पूरी निचली मंज़िल एक रेस्तराँ ने घेर रखी थी, वह भी कैसा रेस्तराँ! सच कहा जाए तो यह मॉस्को का सबसे बढ़िया रेस्तराँ था. न केवल इसलिए कि वह लम्बी अयालों वाले घोड़ों के चित्रों से सुसज्जित कमानीदार छत वाले दो हॉलों में स्थित था, न केवल इसलिए कि उसकी हर टेबल पर सुन्दर ढक्कन वाला लैम्प था, न केवल इसलिए कि सड़क से गुज़रने वाला हर आदमी वहाँ प्रवेश नहीं पा सकता था, बल्कि इसलिए कि उसमें प्राप्त होने वाली हर वस्तु बहुत बढ़िया किस्म की होती थी और इस बढ़िया वस्तु के लिए कीमत भी एकदम वाजिब थी.
इसलिए उस बात में कोई आश्चर्य नहीं, जो इन सत्य पंक्तियों के लेखक ने एक बार ग्रिबोयेदव के बाहर के जंगले के पास सुनी थी : “अम्रोसी, तुम आज रात्रि का भोजन कहाँ ले रहे हो?”
“यह भी कोई पूछने वाली बात है, फोका! यहीं पर! अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दोविच ने मेरे कान में कहा है कि आज एक खास किस्म की मछली है, एक सर्वोत्तम चीज़ है.”
“तुम जीना जानते हो, अम्रोसी!” एक आह भरकर दुबले-पतले फोका ने, जिसके कन्धे पर एक फोडा था, गुलाबी होठों वाले, महाकाय, सुनहरे बालों वाले, भरे-भरे गालों वाले कवि अम्रोसी से कहा.
“मुझमें ऐसी कोई विशेष योग्यता नहीं है,” अम्रोसी ने सहमत न होते हुए कहा, “सिर्फ़ आदमियों की तरह जीने की साधारन इच्छा है. फ़ोका, तुम यह कहना चाहते हो कि यह विशेष प्रकार की मछली ‘कलीज़े’ रेस्तराँ में भी मिलती है. मगर ‘कलीज़े’ में उसकी कीमत तेरह रुबल पन्द्रह कोपेक है, और हमारे यहाँ पाँच पचास. इसके अलावा ‘कलीज़े’ की मछली तीन दिन बासी होती है; इसके अलावा इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि ‘कलीज़े’ में थियेटर के पास वाले रास्ते से घुस आने वाले नौजवानों के हाथों से अंगूर के गुच्छे की मार सिर पर न पड़े. नहीं, मैं ‘कलीज़े’ के एकदम ख़िलाफ़ हूँ. गस्त्रोनोम वाले पूरे गलियारे में गरजता हुआ अम्रोसी बोला, “फ़ोका, तुम मुझे पटाने की कोशिश मत करो!”
“मैं तुम्हें पटाने की बिल्कुल कोशिश नहीं कर रहा,” फ़ोका बड़बड़ाया, “घर पर भी तो खाना खा सकते हो.”
“मैं आपका आज्ञाकारी सेवक,” अम्रोसी ने बीन बजाई, “मैं कल्पना कर सकता हूँ तुम्हारी बीबी की, जो अपने घर के सार्वजनिक रसोईघर में एक कड़ाही में विशेष मछली के कटलेट बना रही होगी. ही...ही...ही!...फ़ोका!” और गुनगुनाते हुए अम्रोसी बरामदे में तने तम्बू की ओर चल दिया.
‘हो-हो-हो...हाँ, बहुत हो गया, बस करो! मॉस्को के पुराने निवासियों के दिल में प्रख्यात ग्रिबोयेदव की याद अभी भी बाकी है! तुम किस फ़ालतू मछली की बात कर रहे हो! यह तो बड़ी सस्ती चीज़ है, प्रिय अम्रोसी! भरपूर माँस वाली, ऊँचे दर्जे की मछली, चाँदी की तश्तरियों में उस मछली के टुकड़े, जो केकड़े के आकार वाली मछली की गर्दन से और मछली के ताज़े अण्डों से सजे हुए रहते थे? और प्यालों में सफ़ेद कुकुरमुत्ते के गूदे कोयल के अण्डों के साथ? और चिड़ियों का नरम-नरम माँस आपको पसन्द नहीं आया? खुमियों के साथ? और बटेर? साढ़े दस रुबल वाली? और संगीतमय वातावरण? और अत्युत्तम, विनयपूर्ण सेवा! और जुलाई के महीने में, जब पूरा परिवार देहात के घरों में हो, और आपके पास अत्यावश्यक साहित्यिक कार्यकलाप हों, जिनके कारण आपको शहर में ही रुकना पड़ा हो – तब बरामदे में अंगूर की बेल की छाँव में, सुनहरे डिज़ाइन वाली प्लेट में, चकचकाते हुए कालीन पर प्रेंतानेर सूप! याद कीजिए, अम्रोसी? इसमें पूछने की क्या बात है? आपके होठों को देखकर ही समझ में आ रहा है कि आपको वह सब याद है! आपकी इस मामूली मछली की उस सबसे कैसी तुलना! और बड़ा चाहा पक्षी, सारस, बगुले और मौसमी जंगली चिड़िया, गले में सीटी बजाती शराब? बस हुआ, पाठकगण, आप भटक जाएँगे! मेरे साथ साथ!...
क्रमश:
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