मास्टर और मार्गारीटा - 1.4
“शौक से!” अजनबी बोला. वह बेर्लिओज़ को नज़रों से तौलता रहा, मानो उसके लिए सूट सीने जा रहा हो, और होठों ही होठों में बुदबुदाता रहा: ‘एक, दो...बुध दूसरे घर में...चन्द्रमा अस्त हो गया...छह – दुर्भाग्य...शाम – सात’ – और फिर खुशी में आकर ज़ोर से बोला, “आपका सिर काटा जाएगा!”
बेज़्दोम्नी खूँखार नज़रों से इस हाथ-पैर फैलाने वाले अजनबी को देखता रहा और बेर्लिओज़ ने मख़ौल उड़ाने के अंदाज़ में पूछा, “कौन काटेगा? दुश्मन? आततायी?”
“नहीं,” विदेशी बोला, “रूसी महिला, कम्सोमोल्का.”
“ह!” अजनबी के मज़ाक से थोड़ा परेशान होते हुए बेर्लिओज़ बोला, “माफ़ कीजिए, इस पर विश्वास नहीं होता!”
“मुझे भी, क्षमा करें!” विदेशी ने जवाब दिया, “मगर बात यही है, हाँ, मैं आपसे पूछना चाहता था कि आज शाम को आप क्या करने वाले हैं, अगर कोई राज़ की बात न हो तो बताइए.”
“कोई राज़ नहीं है. अभी मैं सादोवाया पर अपने घर जाऊँगा और फिर रात को दस बजे – मासोलित. वहाँ एक मीटिंग है जिसकी मैं अध्यक्षता करूँगा.”
:नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता...” ज़ोर देकर विदेशी ने प्रतिवाद किया.
“क्यों?”
विदेशी ने अपनी आँखें सिकोड़ लीं और आकाश की ओर देखते हुए बोला, जहाँ शाम की ठंडक को महसूस कर पक्षियों के झुंड उड़ते जा रहे थे, “क्योंकि अन्नूश्का ने सूरजमुखी का तेल ख़रीद लिया है, और न केवल ख़रीदा, बल्कि कुछ ढलका भी दिया है. इसका मतलब यह हुआ कि मीटिंग नहीं होगी.”
इसके साथ लिंडन वृक्षों के नीचे चुप्पी छा गई.
“माफ़ कीजिए,” बेर्लिओज़ ने इस आश्चर्य के पिटारे जैसे विदेशी को देखकर फिर शुरुआत की, “यहाँ सूरजमुखी के तेल का क्या काम है...और यह अन्नूश्का कौन है?”
“सूरजमुखी का तेल इसलिए कि,” बेज़्दोम्नी ज़ाहिरी तौर पर अजनबी के साथ युद्ध का ऐलान करते हुए बीच में बोल पड़ा, “महाशय, आप कभी पागलखाने गए हैं?”
“इवान!” मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच ने हौले से उसे डाँटा.
मगर विदेशी ने इस बात का ज़रा भी बुरा नहीं माना और ठहाका मारकर हँस पड़ा.
“गया था, गया था और एक बार नहीं!” – वह हँसते-हँसते चिल्लाया, मगर उसकी आँखें कवि पर जमी रहीं, “मैं कहाँ-कहाँ नहीं गया! अफ़सोस सिर्फ इस बात का है कि मैं प्रोफेसर से पूछ नहीं पाया कि ‘शिज़ोफ्रेनिया’ क्या होता है? आप ख़ुद ही प्रोफेसर से इस बारे में पूछेंगे, इवान निकोलायेविच!”
“आपको मेरा नाम कैसे मालूम हुआ?”
“सुनो! इवान निकोलायेविच, आपको कौन नहीं जानता?” अजनबी ने अपनी जेब से एक दिन पहले का ‘लितेरातूर्नाया गज़ेता’ का अंक निकाला जिसमें इवान निकोलायेविच को पहले ही पृष्ठ पर अपनी फोटो दिखाई दी, जिसके नीचे उसकी अपनी कविता भी छपी थी. मगर इस लोकप्रियता और प्रसिद्धि का आनन्द जितना उसे कल हुआ था, आज उतना ही वह निर्विकार रहा.
“और मैं माफ़ी चाहता हूँ,” उसने कहा और उसका चेहरा स्याह पड़ गया, “क्या आप एक मिनट इंतज़ार करेंगे? मैं अपने साथी से कुछ बात करना चाहता हूँ.”
“ओह, शौक से!” विदेशी चहका, “यहाँ, लिंडन के नीचे इतना अच्छा लग रहा है, और फिर, मुझे कहीं जाने की जल्दी भी नहीं है.”
“देखो, मीशा,” कवि बेर्लिओज़ को एक ओर घसीटते हुए धीरे से बोला, “यह कोई प्रवासी नहीं है, बल्कि जासूस है. यह भगोड़ा रूसी है, जो वापस यहाँ आ गया है. उसके काग़ज़ात के बारे में पूछो, नहीं तो वह भाग जाएगा...”
“क्या तुम ऐसा सोचते हो?” उत्तेजित होकर बेर्लिओज़ भी फुसफुसाया, मगर मन में सोचता रहा, ‘यह ठीक कह रहा है!’
“तुम मुझ पर विश्वास करो,” कवि उसके कान में बोला, “वह बेवकूफ़ होने का ढोंग कर रहा है, ताकि हमसे कुछ उगलवा सके. तुम सुन रहे हो न, कैसी अच्छी रूसी बोलता है वह?” कवि ने आगे कहा और सावधानी से पीछे देख लिया कि कहीं विदेशी सुन तो नहीं रहा, “चलें, उसे पकड़ें, नहीं तो भाग जाएगा.”
और कवि हाथ पकड़कर बेर्लिओज़ को बेंच तक घसीट लाया.
अजनबी बेंच पर बैठा नहीं था, पास ही खड़ा था, हाथों में एक काली-सी पुस्तिका, बढ़िया कागज़ का लिफ़ाफ़ा और विज़िटिंग कार्ड लिए.
“माफ़ कीजिए, बातों की धुन में मैं अपना परिचय देना ही भूल गया. यह है मेरा कार्ड, पासपोर्ट और मॉस्को आने का निमंत्रण...सलाह-मशविरे के लिए.” स्पष्ट आवाज़ में अजनबी बोला और दोनों साहित्यकारों को पैनी नज़र से देखता रहा.
वे गड़बड़ा गए, “शैतान ने सब सुन लिया...” बेर्लिओज़ ने सोचा मगर बड़े ही सौजन्यपूर्ण हावभाव से प्रदर्शित किया कि कागज़ात दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं. जब तक विदेशी ने अपने काग़ज़ात सम्पादक के हाथों में थमाए, कवि ने चुपके से देख लिया कि कार्ड पर विदेशी अक्षरों में छपा था ‘प्रोफेसर’ और उसके नाम का पहला अक्षर था दोहरा ‘व’.... “बड़ी ख़ुशी हुई...” अपनी बौखलाहट छिपाते हुए सम्पादक बड़बड़ाया और विदेशी ने सभी काग़ज़ात अपनी जेब में छिपा लिए.
अब फिर से सूत्र जुड़ गए थे. तीनों फिर से बेंच पर बैठ गए.
“तो आप एक सलाहकार के रूप में यहाँ बुलाए गए हैं, प्रोफेसर?” बेर्लिओज़ ने पूछा.
“हाँ, सलाहकार.”
“क्या आप जर्मन हैं?” बेज़्दोम्नी ने जानना चाहा.
“मैं...?” उल्टे प्रोफ़ेसर ने ही मानो उससे सवाल किया और एकदम सोच में पड़ गया, “हाँ, जर्मन ही सही...” उसने उत्तर दिया.
“मगर आप बहुत अच्छी रूसी बोलते हैं...”बेज़्दोम्नी ने फिकरा कसा.
“ओह, वैसे मैं बहुभाषी हूँ और बहुत सारी भाषाएँ जानता हूँ,” प्रोफेसर ने जवाब दिया.
“आपका पेशा वैसे क्या है?” अब बेर्लिओज़ ने पूछा.
“मैं काले जादू का विशेषज्ञ हूँ.”
‘तेरी तो!...’ मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच के सिर में जैसे हथौड़े बजने लगे. “और...और आपको इस विषय में सलाह देने के लिए हमारे यहाँ बुलाया है?” बड़ी मुश्किल से उसके मुँह से निकला.
“हाँ, इसी बारे में बुलाया है,” प्रोफेसर ने ज़ोर देकर कहा और समझाया, “यहाँ सरकारी लायब्रेरी में काले जादू पर लिखी गई नौंवी शताब्दी के विद्वान हर्बर्ट अवरीलाक्ती की पांडुलिपियाँ मिली हैं. मुझे उन्हीं को समझाने के लिए बुलाया गया है. पूरे विश्व में मैं ही एक विशेषज्ञ हूँ.”
“आ...तो आप इतिहासकार हैं?” राहत की साँस लेकर कुछ आदर के साथ बेर्लिओज़ ने पूछा.
“मैं इतिहासकार ही हूँ.” विशेषज्ञ ने कहा और फिर जैसे अनजान बनते हुए कहा, “आज शाम को पत्रियार्शी पार्क के पास एक रोचक घटना घटने वाली है!”
कवि और सम्पादक फिर दिग्मूढ हो गए. प्रोफेसर ने दोनों को अपने बिल्कुल पास बुलाया और जब वे दोनों उसकी ओर झुके तो वह बुदबुदाया, “ध्यान रहे, ईसा अवतरित हुए थे.”
“देखिए प्रोफेसर,” ज़बर्दस्ती मुस्कुराते हुए बेर्लिओज़ ने कहा, “हम आपकी विद्वत्ता की कदर करते हैं, मगर इस प्रश्न के बारे में हमारी अपनी अलग राय है.”
“आपकी अलग राय की कोई ज़रूरत नहीं है!” विचित्र प्रोफेसर बोला, “वह थे माने थे, और बस आगे कुछ नहीं.”
“मगर किसी प्रमाण की तो आवश्यकता होगी ही...” बेर्लिओज़ ने फिर शुरू किया.
“और कोई प्रमाण भी ज़रूरी नहीं है...” प्रोफेसर हौले से बोला, और उसका विदेशी लहजा भी एकदम बदल गया – “सब कुछ साफ है : सफेद अंगरखे में...”
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