लोकप्रिय पोस्ट

सोमवार, 26 मार्च 2012

Master aur Margarita -31


मास्टर और मार्गारीटा – 31
अध्याय 31

वोरोब्योव पहाड़ों पर

तूफान कोई भी निशान छोड़े बिना गुज़र गया और पूरे मॉस्को को समेटता इन्द्रधनुष आकाश में निकल आया, जिसका एक सिरा मॉस्को नदी का जल पी रहा था. ऊपर पहाड़ी पर दो झुरमुटों के बीच तीन काले साए दिखाई दिए. वोलान्द बेगेमोत और कोरोव्येव काले घोड़ों पर बैठे थे और नदी के उस ओर फैले हुए शहर को देख रहे थे, जिस पर टूटा सूरज पश्चिम की ओर खुलती हज़ारों खिड़कियों में झिलमिला रहा था.दूर खिलौने की तरह देविची मॉनेस्ट्री दिखाई दे रही थी.

हवा में सरसराहट हुई और अज़ाज़ेलो, जिसके कोट के पिछले पल्ले के साए में मास्टर और मार्गारीटा उड़ रहे थे, उनके साथ घोड़े से उतरकर इंतज़ार करते हुए इन तीनों के पास आया.
 “आपको परेशान करना पड़ा, मार्गारीटा निकोलायेव्ना और मास्टर,” वोलान्द ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा, “मगर आप मेरे बारे में कोई गलत धारणा न बनाइए. मैं नहीं सोचता कि बाद में आपको अफसोस होगा. तो...” वह सिर्फ मास्टर से मुखातिब हुआ, “शहर से बिदा लीजिए. चलने का वक़्त हो गया है.”
वोलान्द ने काले फौलादी दस्ताने वाले हाथ से उधर इशारा किया, जहाँ नदी के उस ओर काँच को पिघलाते हुए हज़ारों सूरज चमक रहे थे; जहाँ इन सूरजों के ऊपर छाया था कोहरा, धुआँ, दिन भर में थक चुके शहर का पसीना.
मास्टर घोड़े से उतरा, बाकी लोगों को छोड़कर पहाड़ी की कगार की तरफ भागा. उसके पीछे काला कोट ज़मीन पर घिसटता चला जा रहा था.मास्टर शहर को देखने लगा. पहले कुछ क्षण दिल में निराशा के भाव उठे मगर शीघ्र ही उनका स्थान ले लिया एक मीठी उत्तेजना ने, घूमते हुए बंजारे की घबराहट ने.
 “हमेशा के लिए! यह समझना चाहिए...” मास्टर बुदबुदाया और उसने अपने सूखे, कटे-फटॆ होठों पर जीभ फेरी. वह अपने दिल में उठ रहे हर भाव का गौर से अध्ययन करता रहा. उसकी घबराहट गुज़र गई; गहरे, ज़ख़्मी अपमान की भावना ने उसे भगा दिया. मगर यह भी कुछ ही देर रुकी; अब वहाँ प्रकट हुई एक दर्पयुक्त उदासीनता, उसके बाद एक चिर शांति की अनुभूति हुई.
वे सब खामोशी से मास्टर का इंतज़ार कर रहे थे. यह समूह देख रहा था कि लम्बी, काली आकृति पहाड़ की कगार पर खड़ी कैसे भाव प्रकट कर रही है – कभी सिर उठा रही है, मानो पूरे शहर को अपनी निगाहों के घेरे में लेना चाहती हो; कभी सिर झुका रही है, मानो पैरों के नीचे कुचली घास का अवलोकन कर रही है.
खामोशी को तोड़ा उकताए हुए बेगेमोत ने. बोला, “मालिक, मुझे चलने से पहले सीटी बजाने की इजाज़त दीजिए.”
 “तुम महिला को डरा दोगे,” वोलान्द ने उत्तर दिया, “और याद रखो कि तुम्हारी आज की शरारतें खत्म हो चुकी हैं.”
 “आह, नहीं, नहीं, महाशय,” मार्गारीटा बोल पड़ी, जो कमर पर हाथ रखे घुड़सवारी की लम्बी पोषाक में घोड़े पर सवार थी, “उसे इजाज़त दे दीजिए. सीटी बजाने दीजिए. मुझे लम्बे रास्ते पर जाने से पहले उदास लग रहा है.महाशय, क्या यह स्वाभाविक है, तब भी जब इंसान को मालूम होता है कि इस सफर के बाद उसे सुख मिलने वाला है? वह हमें हँसाएगा, वर्ना मुझे डर है कि मैं रो पडूँगी और सफर से पहले सब किया-कराया मिट्टी में मिल जाएगा.”
वोलान्द ने बेगेमोत की ओर देखकर सिर हिलाया, वह चहक उठा, ज़मीन पर कूद गया; मुँह में उँगलियाँ रखकर गाल फुलाते हुए उसने सीटी बजाई. मार्गारीटा के कानों में घण्टियाँ बज उठीं. उसका घोड़ा पिछली टाँगों पर खड़ा हो गया, झुरमुट में पेड़ों से सूखी टहनियाँ गिरने की सरसराहट सुनाई दी; कौओं और चिड़ियों का एक पूरा झुण्ड फड़फड़ाकर उड़ गया. धूल का बवण्डर उठकर नदी के निकट गया और किनारे-किनारे जा रही जल-ट्रामगाड़ी में बैठे कुछ मुसाफिरों की टोपियाँ उड़कर पानी में जा गिरीं. मास्टर इस सीटी से काँप गया, मगर वह मुड़ा नहीं, बल्कि अधिक बेचैनी से आसमान की ओर हाथ उठाकर हावभाव प्रदर्शित करने लगा – मानो शहर को धमका रहा हो. बेगेमोत ने गर्व से इधर-उधर देखा.
 “सीटी तो बजी, बहस की कोई बात नहीं है,” शिष्टाचार से कोरोव्येव ने कहा, “सचमुच सीटी बजी, मगर यदि साफ-साफ कहा जाए तो बड़ी मध्यम दर्जे की सीटी थी!”
 “मैं कोई कॉयर-मास्टर थोड़े ही हूँ,” बेगेमोत ने कुछ घमण्ड से हँसी उड़ाते हुए कहा, उसने गाल फुला लिए और अचानक मार्गारीटा की ओर देखकर आँख मारी.
 “चलो, मैं अपनी पुरानी याद से कोशिश करता हूँ,” कोरोव्येव ने कहा, उसने हाथ पोंछे और उँगलियों पर फूँक मारी.   
 “तुम देखो, देखो,” अपने घोड़े से वोलान्द की गम्भीर आवाज़ सुनाई दी, “किसी को नुक्सान न पहुँचे!”
 “मालिक, विश्वास रखिए,” कोरोव्येव ने दिल पर हाथ रखकर कहा, “मज़ाक, सिर्फ मज़ाक की खातिर...” अब वह एकदम ऊँचा होने लगा, मानो इलास्टिक का बना हो; सीधे हाथ की उँगलियों से एक अजीब-सी आकृति बनाई, एक स्क्रू की तरह गोल-गोल घूम गया और फिर उल्टी दिशा में घूमते हुए अचानक सीटी बजा दी.
इस सीटी की आवाज़ को मार्गारीटा ने सुना नहीं, मगर देखा, जब वह अपने फुफकारते घोड़े समेत दस हाथ दूर फेंकी गई. उसकी बगल में चीड़ का पेड़ जड़ों समेत उखड़कर गिरा था और धरती नदी तक दरारों से पट गई थी. नदी किनारे का पूरा आँचल, घाट और रेस्तराँ समेत, नदी में धँस गया. नदी का पानी उफनने-उछलने लगा और उसने जल-ट्रामगाड़ी को निर्दोष मुसाफिरों समेत सामने के निचले, हरे किनारे पर फेंक दिया. मार्गारीटा के पैरों के पास कोरोव्येव की सीटी से मर गया पंछी पड़ा था. इस सीटी ने मास्टर को भयभीत कर दिया. उसने सिर पकड़ लिया और तुरंत इंतज़ार करने वालों के पास भागा.

 “हाँ, तो, सब हिसाब चुका दिए? बिदा ले ली?” वोलान्द ने घोड़े पर बैठे-बैठे कहा.
 “हाँ, ले ली,” मास्टर ने कहा और शांत किंतु निडर भाव से सीधे वोलान्द के चेहरे की ओर देखा.
तब पहाड़ों पर बिगुल की तरह वोलान्द की भयानक आवाज़ गूँजी, “चलो !!”
और गूँजी बेगेमोत की पैनी सीटी और हँसी.
घोड़े आगे लपके, घुड़सवारों ने उन पर च्रढ़कर ऐड़ लगा दी. मार्गारीटा महसूस कर रही थी कि कैसे उसका घोड़ा बदहवास होकर उसे ले जा रहा है. वोलान्द के कोट का पल्ला इस घुड़सवार दस्ते के ऊपर सबको समेटॆ हुए उड़ रहा था; कोट शाम के आकाश को ढाँकता गया. जब एक क्षण के लिए काला आँचल दूर हटा तो मार्गारीटा ने मुड़कर पीछे देखा, और पाया कि न केवल पीछे की रंग-बिरंगी मीनारें उन पर मँडराते हवाई जहाज़ों के साथ लुप्त हो चुकी हैं, बल्कि पूरा का पूरा शहर भी गायब हो गया था.वह कब का धरती में समा गया था और अपने पीछे छोड़ गया था सिर्फ घना कोहरा.

                                       ********


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.