मास्टर और मार्गारीटा – 30.3
“ओह,
समझ रहा हूँ,” मास्टर ने आँखें फाड़ते हुए कहा, “तुमने हमें मार डाला है, हम मृत
हैं. आह, कितना अकलमन्दी का काम किया! कितने सही समय पर किया! अब मैं आपको समझ
गया.”
अज़ाज़ेलो ने जवाब दिया,
“कृपया...कृपया...क्या मैं आपको ही सुन रहा हूँ? आपकी प्रियतमा आपको मास्टर कहती
है, आप सोचिए, आप कैसे मर सकते हैं? क्या अपने आपको ज़िन्दा समझने के लिए तहखाने
में बैठना पड़ता है, कमीज़ और अस्पताल के अंतर्वस्त्र पहनकर? यह अच्छा मज़ाक है!”
“जो
कुछ आपने कहा, मैं सब समझ गया,” मास्टर चिल्लाया, “आगे मत बोलिए! आप हज़ार बार सही
हैं!”
मार्गारीटा पुष्टि करते हुए बोली, “महान वोलान्द!
महान वोलान्द! उसने मेरी अपेक्षा कई गुना अच्छी बात सोची. मगर सिर्फ उपन्यास,
उपन्यास...” वह मास्टर से चिल्लाकर बोली, “उपन्यास अपने साथ ले लो, चाहे कहीं भी
उड़ो!”
“कोई ज़रूरत नहीं,” मास्टर ने जवाब दिया, “मुझे
वह ज़ुबानी याद है.”
“मगर, तुम एक भी शब्द...क्या उसका एक भी शब्द
नहीं भूलोगे?” मार्गारीटा ने प्रियतम से लिपटकर उसकी कनपटी पर बहते खून को पोंछते
हुए पूछा.
“घबराओ
मत! अब मैं कभी भी, कुछ भी नहीं भूलूँगा.” वह बोला.
“तब
आग !....” अज़ाज़ेलो चिल्लाया, “आग जिससे सब शुरू हुआ और जिससे हम सब कुछ खत्म
करेंगे.”
“आग
!” मार्गारीटा भयानक आवाज़ में गरजी. तहखाने की खिड़की फट् से खुल गई, हवा ने परदा
एक ओर को हटा दिया. आकाश में थोड़ी-सी, प्यारी-सी कड़कड़ाहट हुई. अज़ाज़ेलो ने अँगीठी
में हाथ डालकर जलती हुई लकड़ी उठा ली और टेबुल पर पड़ा मेज़पोश जला दिया. फिर दीवान
पर पड़े पुराने अख़बारों को जला दिया. उसके बाद पाण्डुलिपि और खिड़की का परदा. भविष्य
की सुखद घुड़सवारी के नशे में मास्टर ने शेल्फ से एक किताब मेज़ पर फेंकी और उसके
पन्ने फाड़-फाड़कर जलते हुए मेज़पोश पर फेंकने लगा; किताब उस खुशगवार आग में भड़क उठी.
“जलो, जल जाओ, पुरानी ज़िन्दगी!”
“जल
जाओ, दुःखों और पीड़ाओं!” मार्गारीटा चिल्लाई.
कमरा लाल-लाल लपटों से भर गया और धुएँ के साथ-साथ
तीनों दरवाज़े से बाहर भागे, पत्थर की सीढ़ी पर चढ़कर वे आँगन में आए. सबसे पहली चीज़
जो उन्होंने देखी, वह थी कॉंट्रेक्टर की बावर्चिन., जो ज़मीन पर बैठी थी. उसके निकट
पड़ा था आलुओं और प्याज़ का ढेर. बावर्चिन की हालत देखने लायक थी. तीन काले घोड़े
मकान के निकट हिनहिना रहे थे, अपने खुरों से मिट्टी उछाल रहे थे, थरथरा रहे थे.
सबसे पहले मार्गारीटा उछलकर बैठी, उसके बाद अज़ाज़ेलो, अंत में मास्टर.
बावर्चिन ने कराहते हुए सलीब का निशान बनाने
के लिए हाथ उठाया, मगर घोड़े पर बैठा हुआ अज़ाज़ेलो दहाड़ा, “हाथ काट दूँगा!” उसने
सीटी बजाई और घोड़े लिण्डन की टहनियों को तोड़ते, आवाज़ करते हुए ऊपर उड़े और काले
बादल में समा गए. तभी तहखाने की खिड़की से धुआँ बाहर निकला. नीचे से बावर्चिन की
पतली, कमज़ोर चीख सुनाई दी,” जल रहे हैं!”....
घोड़े मॉस्को के घरों की छतों पर जा चुके थे.
“मैं शहर से बिदा लेना चाहता हूँ,” मास्टर ने
अज़ाज़ेलो से चिल्लाकर कहा, जो सबसे आगे छलाँगें भरता जा रहा था. बिजली की कड़क
मास्टर के वाक्य के अंतिम हिस्से को निगल गई. अज़ाज़ेलो ने सिर हिलाया और अपने घोड़े
को चौकड़ी भरने दी. उड़ने वालों के स्वागत के लिए एक बादल तैरता हुआ आया, मगर उसने
अभी पानी का छिड़काव नहीं किया.
वे दुतर्फा पेड़ों वाले रास्ते पर उड़ने लगे,
देखा कि कैसे लोगों की नन्ही-नन्ही आकृतियाँ बारिश से बचने के लिए इधर-उधर भाग रही
हैं. पानी की बूँदें गिरना शुरू हो गई थीं. वे धुएँ के बादल के ऊपर होकर उड़ रहे थे
– यही थे ग्रिबोयेदोव के अवशेष. वे शहर के ऊपर उड़े, जिसे अब अँधेरा निगल चुका था.
उनके ऊपर बिजलियाँ चमक रही थीं. फिर मकानों की छतों का स्थान हरियाली ने ले लिया.
तब बारिश ने उन्हें दबोच लिया; वे तीनों उड़ती हुई आकृतियाँ पानी से लबालब गुब्बारे
जैसी लगने लगीं.
मार्गारीटा को पहले भी उड़ने का अनुभव था,
मगर मास्टर को – नहीं. उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह अपने लक्ष्य के निकट कितनी जल्दी
पहुँच गया – यानी उसके पास, जिससे वह बिदा लेना चाहता था. बारिश की चादर में उसने
स्त्राविन्स्की के अस्पताल की बिल्डिंग को पहचान लिया; नदी और उसके दूसरे किनारे
पर स्थित लिण्डेन के वन को भी उसने पहचान लिया, जिसे वह भली-भाँति जानता था. वे अस्पताल
से कुछ दूर झाड़ी में उतरे.
“मैं तुम्हारा यहाँ इंतज़ार करूँगा,” अज़ाज़ेलो हाथ
मोड़े बिजली की रोशनी में कभी प्रकट होते और कभी लुप्त होते चिल्लाया, “अलबिदा कहकर
आओ, मगर जल्दी.”
मास्टर और मार्गारीटा घोड़ों से उतरे और पानी
के बुलबुलों की तरह उड़ते-उड़ते अस्पताल के बगीचे के ऊपर से आगे बढ़ गए. एक क्षण के
बाद मास्टर ने सधे हुए हाथों से 117 नं. कमरे की बालकनी में खुलने वाली जाली के
दरवाज़े को खोला, मार्गारीटा उसके पीछे-पीछे गई. वे इवानूश्का के कमरे में घुसे.
बिना दिखे. बिजली कड़क रही थी. मास्टर पलंग के पास रुका.
इवानूश्का चुपचाप लेटा हुआ था. उसी तरह जैसे
तब लेटा था, जब उसने पहली बार अपने इस विश्राम गृह में तूफान देखा था. लेकिन वह उस
बार जैसे रो नहीं रहा था. जब उसने देखा कि कैसे एक काला साया बालकनी से उसकी ओर
बढ़ा आ रहा है, तो वह उठ पड़ा और खुशी से हाथ फैलाकर बोला, “ओह, यह आप हैं! मैंने
आपका कितना इंतज़ार किया. आख़िर आ ही गए, मेरे पड़ोसी.”
इस पर मास्टर ने जवाब दिया, “मैं यहाँ हूँ! मगर अफ़सोस कि अब मैं तुम्हारा पड़ोसी नहीं बना रह सकता. मैं हमेशा के लिए उड़कर जा रहा
हूँ और सिर्फ तुमसे बिदा लेने आया हूँ.”
“मैं जानता था, मुझे अन्दाज़ था...” इवान ने हौले
से कहा और उसने पूछा, “क्या आप उससे मिले?”
“हाँ,” मास्टर ने कहा, “मैं तुमसे बिदा लेने
इसलिए आया हूँ क्योंकि तुम्हीं एक आदमी हो जिससे मैंने पिछले दिनों बातें की हैं.”
इवानूश्का का चेहरा खिल उठा और वह बोला, “यह
ठीक किया कि आप यहाँ उड़ते हुए आए. मैं अपने वचन का पालन करूँगा, अब कभी कविता नहीं
लिखूँगा. अब मुझे एक दूसरी चीज़ में दिलचस्पी हो गई है,” इवानूश्का मुस्कुराया और
वहशियत भरी आँखों से मास्टर के परे देखने लगा, “मैं कुछ और लिखना चाहता हूँ. जानते
हैं, यहाँ लेटे-लेटॆ मैं काफी कुछ समझ गया हूँ.”
मास्टर इन शब्दों को सुनकर परेशान हो गया और
इवानूश्का के पलंग के किनारे पर बैठकर बोला, “यह ठीक है, अच्छा है. तुम उसके बारे
में आगे लिखोगे!”
इवानूश्का की आँखें फटी रह गईं, “क्या तुम खुद
नहीं लिखोगे?” उसने सिर झुकाया और सोच में डूबकर बोला, “ओह, हाँ...मैं यह क्या पूछ
रहा हूँ!”
“हाँ,” मास्टर ने कहा और इवानूश्का को उसकी आवाज़
खोखली और अपरिचित लगी, “मैं अब उसके बारे में नहीं लिखूँगा. मुझे और काम करना है.”
दूर
से एक सीटी तूफान के शोर को चीरती हुई आई.
“तुम
सुन रहे हो?” मास्टर ने पूछा.
“तूफ़ान
का शोर...”
“नहीं, यह मुझे बुला रहे हैं, मेरा समय हो गया,”
मास्टर ने समझाया और वह पलंग से उठ पड़ा.
“थोड़ा रुकिए! एक और बात...” इवान ने विनती की,
“क्या आपको वह मिली? वह आपके प्रति वफादार रही?”
“यह
रही वो...” मास्टर ने जवाब देते हुए दीवार की ओर इशारा किया. सफेद दीवार से अलग
होती हुई काली मार्गारीटा पलंग के निकट आई. उसने लेटॆ हुए नौजवान की ओर देखा और
उसकी आँखों में करुणा झलक आई.
“ओह, बेचारा, गरीब!” मार्गारीटा अपने आप से
फुसफुसाई और पलंग की ओर झुकी.
“कितनी
सुन्दर है!” बिना ईर्ष्या के, मगर दुःख और कुछ कोमलता से इवान ने कहा, “देखते हो,
तुम्हारा सब कुछ कैसे अच्छा हो गया. मगर मेरे साथ तो ऐसा नहीं है,” वह कुछ देर
सोचकर आगे बोला, “और शायद, हो सकता है, कि ऐसा...”
“हो
सकता है, हो सकता है,” मार्गारीटा फुसफुसाई और लेटे हुए नौजवान पर झुककर बोली,
“मैं तुम्हारा माथा चूमूँगी और तब सब कुछ वैसा ही होगा, जैसे होना चाहिए...तुम इस
पर विश्वास रखो, मैंने सब देखा है, सब जानती हूँ.”
लेटे
हुए नौजवान ने अपने हाथों से उसके कन्धों को पकड़ा और उसने उसे चूमा.
“अलबिदा, मेरे विद्यार्थी,” मास्टर ने धीरे से
कहा और वह हवा में पिघलने लगा. वह गायब हो गया, उसके साथ ही मार्गारीटा भी आँखों
से ओझल हो गई. बालकनी की जाली बन्द हो गई.
इवानूश्का परेशान हो गया. वह पलंग पर बैठ
गया, उत्तेजना से इधर-उधर देखने लगा, कराहने लगा, अपने-आप से बातें करने लगा, उठकर
खड़ा हो गया. तूफान का ज़ोर बढ़ता जा रहा था. शायद वही इवान को भयभीत कर रहा था. उसे
इस बात से भी घबराहट हो रही थी कि उसके दरवाज़े के पीछे जहाँ हमेशा खामोशी रहती थी,
उसे घबराहट भरे कदमों की आहट सुनाई दे रही थी; धीमी-धीमी आवाज़ें भी आ रही थीं.
उसने काँपते हुए पुकारा, “प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना!”
प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना कमरे में आ गई और
चिंता से, प्रश्नार्थ नज़रों से इवानूश्का को देखने लगी.
“क्या
है? क्या हुआ?” उसने पूछा, “तूफान से डर लग रहा है? कोई बात नहीं, कोई बात
नहीं...अभी आपकी मदद करते हैं. अभी मैं डॉक्टर को बुलाती हूँ.”
“नहीं,
प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना, डॉक्टर को बुलाने की कोई ज़रूरत नहीं है,” इवानूश्का ने
परेशानी से प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना के बदले दीवार की ओर देखते हुए कहा, “मुझे कोई
खास तकलीफ नहीं है; आप घबराइए मत, मैं सब समझ रहा हूँ. आप कृपया मुझे बताइए...” इवान
ने तहेदिल से कहा, “वहाँ, बगल में, एक सौ अठाहर नम्बर के कमरे में अभी क्या हुआ?”
“एक
सौ अठारह में?” प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना ने सवाल ही पूछ लिया और वह इधर-उधर
आँखें दौड़ाने लगी, “वहाँ कुछ भी तो नहीं हुआ!”
मगर उसकी आवाज़ साफ झूठी मालूम हो रही थी,
इवानूश्का ने इसे फौरन ताड़ लिया और बोला, “ए...प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना! आप इतनी
सच्ची इंसान हैं...आप समझ रही हैं, मैं कोई हंगामा करूँगा? बदहवास हो जाऊँगा? नहीं,
प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना, ऐसा नहीं होगा. आप सच-सच बताइए. मैं दीवार के इस पार
से सब महसूस कर रहा हूँ.”
“अभी
आपका पड़ोसी खत्म हो गया!” प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना फुसफुसाई, अपनी भलमनसाहत और सच्चाई
को वह रोक नहीं पाई, और बिजली की रोशनी में नहाई, डरी-डरी आँखों से इवानूश्का की
ओर देखने लगी.
मगर इवानूश्का के साथ कोई भी भयानक बात नहीं
हुई. उसने आसमान की ओर अर्थपूर्ण ढंग से उँगली उठाई और बोला, “मुझे मालूम था कि
यही होगा! मैं विश्वासपूर्वक आपसे कहता हूँ, प्रास्कोव्या फ्योदोरोव्ना, कि अभी-अभी
शहर में भी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है. मुझे यह भी मालूम है, किसकी...” इवानूश्का
ने रहस्यपूर्ण ढंग से मुस्कुराते हुए कहा, “यह एक औरत है!”
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