मास्टर
और मार्गारीटा – 30.1
बिदाई की बेला
“जानते
हो,” मार्गारीटा कह रही थी, “कल रात तुम्हारे सोने के बाद मैं उस अँधेरे के बारे
में पढ़ रही थी, जो भूमध्यसागर से उठा था...और वे मूर्तियाँ, आह, वे सुनहरी मूर्तियाँ...न
जाने क्यों वे मुझे चैन नहीं लेने देतीं. मुझे महसूस हो रहा है, कि अभी भी बारिश
आने वाली है. क्या तुम मौसम के सुहानेपन को महसूस कर रहे हो?”
“यह
सब कितना अच्छा और प्यारा है,” मास्टर ने सिगरेट का कश लेकर हाथ से धुआँ हटाते हुए
कहा, “ये मूर्तियाँ भी...भगवान उनकी रक्षा करे. मगर आगे क्या होने वाला है, मुझे
कुछ समझ में नहीं आ रहा !”
यह बातचीत सूर्यास्त के समय हो रही थी, तभी,
जब छत पर वोलान्द के पास लेवी मैथ्यू आया था. तहख़ाने वाले घर की खिड़की खुली थी, और
अगर कोई उसमें से झाँककर देखता, तो यह देखकर उसे आश्चर्य होता कि ये बातचीत करने
वाले कितने विचित्र दिखाई दे रहे हैं. मार्गारीटा के नंगे बदन पर सिर्फ काली लम्बी
बरसाती थी, और मास्टर अपने अस्पताल वाले अंतर्वस्त्रों में ही था. ऐसा इसलिए था कि
मार्गारीटा के पास पहनने के लिए कुछ और था ही नहीं, क्योंकि उसकी सभी चीज़ें उस
आलीशान महल में थीं, और, हालाँकि वह आलीशान महल बिल्कुल दूर नहीं था, मगर, बेशक,
वहाँ जाकर अपनी चीज़ें लेने का सवाल हे नहीं था. मास्टर की भी सारी पोशाकें वहीं
अलमारी में थीं, मानो वह कहीं गया ही नहीं था; उसने भी बस, कपड़े पहनना ज़रूरी नहीं समझा.
वह मार्गारीटा के सामने यह विचार रख रहा था, कि बस जदी ही कोई अद्भुत चमत्कार होने
वाला है. सर्दियों की उस रात के बाद उसने पहली बार अपने हाथ से दाढ़ी बनाई थी.
अस्पताल में उसकी दाढ़ी मशीन से बनाई जाती थी.
कमरा काफी अजीब नज़र आ रहा था. उसकी
अस्त-व्यस्तता के बीच किसी भी चीज़ को ढ्ँढ़ पाना काफी मुश्किल था. कालीन पर पांडुलिपियाँ
पड़ी थीं. कुर्सी पर कोई मुड़ी-तुड़ी किताब पड़ी थी. गोल मेज़ पर खाना लगा था और खाने की
चीज़ों के साथ-साथ कुछ बोतलें भी थीं. यह सब सामग्री कहाँ से आई और कैसे आई, इसका
पता न तो मास्टर को था, न ही मार्गारीटा को. जब वे जागे, तो ये सब टेबुल पर मौजूद था.
शनिवार की शाम तक अच्छी नींद लेने के बाद
मास्टर और मार्गारीटा काफी तरोताज़ा महसूस कर रहे थे, और कल की अद्भुत घटनाओं की याद
बस एक ही चीज़ दिला रही थी – दोनों की ही बाईं पलक कुछ सूजी हुई थी. दोनों की मानसिकता
में काफी परिवर्तन हुए थे, यह उस तहखाने वाले मकान में हो रही बातचीत को सुनकर कोई
भी कह सकता था. मगर सुनने वाला कोई था ही नहीं. यह आँगन इसलिए भी अच्छा था,
क्योंकि यह हमेशा खाली रहता था. प्रतिदिन हरे-हरे लिण्डन के वृक्ष और खिड़की के
बाहर सिरपेचे की बेल बसंती खुशबू देती, और बहती हवा उसे तहखाने तक ले आती.
“छिः
छिः!” अचानक मास्टर चहका, “सोचने से ही कितना अजीब लगता है,” उसने बची हुई सिगरेट
राखदानी में बुझाई और दोनों हाथों से सिर पकड़कर बोला, “नहीं, सुनो, तुम तो बुद्धिमान
हो, और पागल भी नहीं थीं. तुम्हें क्या इस बात का पूरा यकीन है कि कल हम शैतान के
यहाँ थे?”
“पूरा
यकीन है,” मार्गारीटा ने जवाब दिया.
मास्टर ने व्यंग्य से कहा, “बेशक! बेशक! अब
एक के बदले दो-दो पागल हो गए! पति भी और पत्नी भी!” उसने आसमान की ओर हाथ उठाकर
चिल्लाते हुए कहा, “नहीं, शैतान जाने यह क्या है! शैतान, शैतान, शैतान!”
जवाब में मार्गारीटा दीवान पर लुढ़क गई, वह
ज़ोर-ज़ोर से नंगे पैर हिलाते हुए हँसने लगी और फिर चीख पड़ी, “ ओह, नहीं! बस करो! बर्दाश्त
नहीं होता! देखो तो तुम कैसे दिख रहे हो?”
काफी देर हँसने के बाद शर्म से जब मास्टर
अस्पताल के कच्छे को सम्भाल रहा था मार्गारीटा संजीदगी से बोली, “तुमने अनजाने में
ही सच कह दिया; शैतान ही जानते हैं कि वह क्या था, और शैतान...मुझ पर विश्वास करो,
सब ठीक कर देगा!” उसकी आँखें अचानक चमकने लगीं. वह उछलकर अपनी ही जगह पर नाचने और चिल्लाने
लगी, “मैं कितनी खुशनसीब हूँ, मैं कितनी खुशनसीब हूँ...मैं कितनी खुशनसीब हूँ कि उसके
साथ समझौता किया! ओह, शैतान, शैतान! मेरे प्यारे, तुम्हें चुडैल के साथ रहना पड़ेगा.”इसके
बाद वह मास्टर के सीने से लगकर चिपट गई और उसके होठों को, नाक, और गालों को बेतहाशा
चूमने लगी. काले बिखरे बालों की लटें मास्टर पर खेलती रहीं और उसके होठ एवँ माथा
इन चुम्बनों से जलने लगे.
“तुम
तो सचमुच चुडैल के समान हो गई हो.”
“मैं
इससे इनकार भी नहीं करती! मैं चुडैल हूँ और इससे बहुत खुश हूँ.” मार्गारीटा ने
जवाब दिया.
मास्टर बोला, “अच्छा, ठीक है. चुडैल हो तो
चुडैल ही सही. बहुत सुन्दर और शानदार हो! मुझे शायद अस्पताल से चुराकर लाया गया
है! यह भी बहुत प्यारी बात है! यहाँ लाकर छोड़ गए, चलो यह भी मान लेते हैं...यह भी
सोच लो कि हमें दुबारा पकड़ नहीं लेंगे, मगर भगवान के लिए मुझे इतना बताओ, कि हम
जिएँगे कैसे? यह मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि मुझे तुम्हारी चिंता है, विश्वास करो.”
इसी समय खिड़की में जूतों की एक जोड़ी और
धारियों वाली पैण्ट का निचला हिस्सा दिखाई दिया. फिर ये पैण्ट घुटनों के बल मुड़ी,
और दिन के प्रकाश को किसी की मोटी पिछाड़ी ने ढाँक दिया.
“अलोइज़ी,
क्या तुम घर पर हो?” एक आवाज़ सुनाई दी.
“देखो,
शुरू हो गया,” मास्टर ने कहा.
मार्गारीटा ने खिड़की के करीब आते हुए कहा, “अलोइज़ी?...कल
शाम को उसे पकड़कर ले गए. कौन पूछ रहा है? आपका नाम क्या है?”
घुटने और पिछाड़ी फौरन गायब हो गए, और फाटक
के बन्द होने की आवाज़ आई, इसके बाद सब कुछ सामान्य हो गया. मार्गारीटा दीवान पर गिर
पड़ी और इस तरह हँसने लगी कि उसकी आँखों से आँसू निकल आए. मगर जब वह शांत हुई तो
उसके चेहरे का भाव एकदम बदल गया. वह बड़ी संजीदगी से बातें करते हुए दीवान से उतरकर
घुटनों के बल चलती हुई मास्टर के निकट आई और उसकी आँखों में देखते हुए वह उसका सिर
सहलाने लगी.
“तुम्हें
कितनी तकलीफ झेलनी पड़ी, कितना दुःख उठाना पड़ा, मेरे प्यारे! इसे सिर्फ मैं ही
जानती हूँ. देखो, तुम्हारे बालों में चाँदी झलकने लगी है और होठों के पास झुर्रियाँ
पड़ गई हैं. मेरे प्यारे, मेरे अपने, अब किसी बात की चिंता मत करो. तुम्हें बहुत
कुछ सोचना पड़ा और अब तुम्हारे लिए सोचूँगी मैं! मैं वादा करती हूँ, वचन देती हूँ
कि सब ठीक होगा, जितनी उम्मीद है, उससे अधिक...”
“मुझे
किसी भी बात का डर नहीं है, मार्गो,” मास्टर ने फौरन जवाब दिया और उसने सिर ऊपर
उठाया तो मार्गारीटा को लगा, कि वह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा तब था, जब वह रचना कर
रहा था उसकी जिसे कभी देखा नहीं था, मगर जिसके बारे में, शायद, जानता था, कि वह
हुआ था, “मैं डरता भी नहीं, क्योंकि मैं सब कुछ सह चुका हूँ. वे मुझे बहुत डरा
चुके, अब किसी और बात से डरा नहीं सकते. लेकिन मुझे तुम्हारे लिए अफ़सोस है,
मार्गो! यही महत्वपूर्ण है, इसीलिए मैं बार-बार ज़ोर देकर कहता हूँ. सम्भल जाओ! एक
बीमार और गरीब आदमी के लिए तुम अपनी ज़िन्दगी क्यों खराब करती हो? वापस अपने घर चली
जाओ! मुझे तुम पर तरस आता है...इसीलिए ऐसा कह रहा हूँ.”
“आह!
तुम...तुम...,” बिखरे बालों वाला अपना सिर हिलाते हुए मार्गारीटा फुसफुसाई, “तुम विश्वास
नहीं करते, अभागे इंसान! तुम्हारे लिए कल पूरी रात मैं नग्नावस्था में काँपती रही!
मैंने अपने स्वरूप को बदल दिया, कितने ही महीने मैं अँधेरी कोठरी में बैठकर एक ही
बात – येरूशलम के ऊपर छाए तूफान के बारे में सोचती रही, रोते-रोते मेरी आँखें चली
गईं, और अब...जब सुख के दिन आने वाले हैं, तो तुम मुझे भगा रहे हो? मैं चली
जाऊँगी, चली जाऊँगी मैं, मगर याद रखना, तुम निष्ठुर हो! उन्होंने तुम्हारी आत्मा
को मार डाला है!”
मास्टर के हृदय में कटु-कोमल भाव जागे और न
जाने क्यों वह मार्गारीटा के बालों में अपना चेहरा छिपाकर रो पड़ा. वह, रोते हुए
फुसफुसाती रही, उसकी उँगलियाँ मास्टर की कनपटियाँ सहलाती रहीं.
“हाँ,
चाँदी की लकीरें, चाँदी की, मेरी आँख़ों के सामने देखते-देखते इस सिर पर बर्फ छा
रही है. आह! दुःख का मारा मेरा यह सिर. देखो, कैसी हो गई हैं तुम्हारी आँखें! उनमें
रेगिस्तान है...और कन्धे, कन्धों पर कितना बोझ है...तोड़ दिया, तोड़ दिया है, उन्होंने
तुम्हें,” मार्गारीटा असम्बद्ध शब्द बड़बड़ाती रही, रोते-रोते वह काँपने लगी.
तब मास्टर ने अपनी आँखें पोंछी, मार्गारीटा
को उठाया, खुद भी खड़ा हो गया और निश्चयपूर्वक बोला, “बस! बहुत हुआ! तुमने मुझे
लज्जित कर दिया. अब मैं कभी साहस नहीं खोऊँगा और न इस बहस को कभी छेडूँगा; तुम भी
शांत हो जाओ. मैं जानता हूँ, हम दोनों अपनी मानसिक बीमारी के सताए हुए हैं! शायद
मैंने अपनी मानसिकता तुम्हें दे दी है...तो, हम सब कुछ साथ-साथ झेलेंगे...”
क्रमशः
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