मास्टर और मार्गारीटा – 26.2
उस महल से आने के बाद, जिसमें झाड़फानूस, आकाशदीप जल रहे थे, और त्यौहार की गहमागहमी चल रही थी, यह नौजवान और भी बेधड़क, निडर और खुशी-खुशी वापस निचले शहर को लौट रहा था. उस कोने पर जहाँ यह सड़क बाज़ार के चौक से मिलती थी, बुर्का पहनी, फुदकती चाल से चलती एक औरत ने, उस रेलपेल के बीच उसे पीछे छोड़ दिया. इस खूबसूरत नौजवान के निकट से गुज़रते हुए उसने अपने बुर्के का नकाब क्षण भर के लिए ऊपर उठाकर इस नौजवान को आँखों से इशारा किया, मगर अपनी चाल धीमी नहीं की, बल्कि और तेज़ कर दी, मानो उससे भागकर छिप जाना चाहती हो, जिसे उसने पीछे छोड़ दिया था.
नौजवान ने इस औरत को न सिर्फ देखा, बल्कि पहचान भी लिया, और पहचान कर वह काँपते हुए रुक गया और बदहवास होकर उसे जाते देखता रहा. मगर तभी वह सँभलकर उसे पकड़ने दौड़ा. हाथों में सुराही लेकर जाते हुए एक राही से वह टकराया लेकिन फौरन ही लपककर वह उस महिला के निकट पहुँच गया और हाँफते हुए गहरी साँसें लेते परेशान स्वर में उसने पुकारा, “नीज़ा!”
औरत मुड़ी, उसने माथे पर बल डालते हुए उसे देखा, मगर उसके चेहरे पर था एक ठण्डा हताश भाव. उसने ग्रीक में रूखे स्वर में जवाब दिया, “आह, यह तुम हो, जूडा! मैंने तुम्हें पहली नज़र में पहचाना ही नहीं. मगर यह अच्छी बात है. हम लोग ऐसा मानते हैं कि यदि तुम किसी को पहचान न पाओ तो समझो वह अमीर बनने वाला है...”
जूडा का दिल इतनी ज़ोर से धड़कने लगा, मानो काले कपड़े में बँधा कोई पक्षी फड़फड़ा रहा हो. इस डर से कि आने जाने वाले सुन न लें, उसने रुक-रुक कर फुसफुसाते हुए पूछा, “तुम जा कहाँ रही हो, नीज़ा?”
“तुम्हें इससे क्या?” नीज़ा ने अपनी चाल धीमी करते हुए और जूडा की ओर उलाहना भरी नज़रों से देखते हुए जवाब दिया.
तब जूडा की आवाज़ में कुछ बचपना-सा आ गया, वह बदहवासी से फुसफुसाया, “क्यों नहीं?...हमने तो वादा किया था. मैं तो तुम्हारे पास आने वाला था. तुमने कहा था कि सारी शाम घर पर ही रहोगी...”
“आह, नहीं, नहीं,” नीज़ा ने जवाब दिया और ज़िद्दी बच्चे के समान अपना निचला होठ आगे को निकाल लिया, जिससे जूडा को ऐसा लगा मानो उसका सबसे खूबसूरत चेहरा, और भी सुन्दर लगने लगा है. नीज़ा बोली, “मैं उकता गई था. तुम्हारा तो त्यौहार है, मगर मैं क्या करूँ? बैठे-बैठे सुनती रहूँ कि तुम छत पर कैसी आहें भरते हो? और डरती भी रहूँ कि नौकरानी मेरे ख़ाविन्द से कह देगी? नहीं, नहीं, इसीलिए मैंने तय कर लिया है कि शहर से बाहर जाकर चिड़ियों की चहचहाहट को सुनूँगी.”
“ऐसे कैसे, शहर से बाहर?” जूडा ने परेशानी से पूछा, “अकेली?”
“बेशक, अकेली,” नीज़ा ने जवाब दिया.
“मुझे अपने साथ आने दो,” जूडा ने गहरी साँस लेते हुए विनती की. उसके विचार धुँधले हो गए, वह दुनिया की हर चीज़ के बारे में भूल गया और प्रार्थना भरी नज़रों से नीज़ा की नीली, मगर अब काली दिख रही आँखों में देखता रहा.
नीज़ा ने कुछ कहे बगैर अपनी चाल तेज़ कर दी.
“तुम चुप क्यों हो, नीज़ा?” जूडा ने उसके कदम से कदम मिलाते हुए शिकायत के स्वर में पूछा.
वह रुक गई.
“और क्या मैं तुम्हारे साथ उकता न जाऊँगी?”
अब तो जूडा के विचारों की कड़ी पूरी तरह बिखर गई. वह मिन्नत करने लगा.
“अच्छा ठीक है...” नीज़ा ने कुछ नरम पड़ते हुए कहा, “चलो.”
“कहाँ, आखिर कहाँ जाएँगे?”
“सब्र करो...इस घर के आँगन में चलकर सलाह करते हैं, नहीं तो मुझे डर है, कि अगर किसी जान-पहचान वाले ने देख लिया तो कहते फिरेंगे कि मैं अपने प्रेमी के साथ सड़कों पर घूम रही थी.
तब बाज़ार में न नीज़ा बची और न ही जूडा. वे किसी मकान के आँगन के कोने में खड़े होकर फुसफुसाने लगे.
“तेलियों वाले मोहल्ले में चलो,” नीज़ा ने नकाब चेहरे पर डालते हुए और किसी आदमी से बचने के लिए मुड़ते हुए कहा, जो बाल्टी लेकर वहाँ आया था, “केद्रोन के पीछे, गेफसिमान में. समझ गए?”
“हाँ, हाँ, हाँ.”
“मैं आगे चलती हूँ,” नीज़ा आगे बोली, “मगर तुम मेरे पीछे-पीछे मत आओ, मुझसे दूर रहो. मैं आगे जाऊँगी... जब झरना पार करोगे...तुम्हें मालूम है गुफा कहाँ है?”
“मालूम है, मालूम है...”
“तेलियों के कोल्हू की बगल से ऊपर की ओर जाकर गुफा की ओर मुड़ जाना. मैं वहीं रहूँगी. मगर इस समय मेरे पीछे मत आना, थोड़ा धीरज रखो, यहाँ कुछ देर रुको.” इतना कहकर नीज़ा उस गली से निकलकर यूँ चली गई जैसे उसने जूडा से बात ही न की हो.
जूडा कुछ देर अकेला खड़ा रहा, अपने भागते हुए विचारों को तरतीब में लाने की कोशिश करने लगा. इन विचारों में एक यह भी था कि उत्सव की दावत के समय अपनी अनुपस्थिति के बारे में वह अपने रिश्तेदारों को क्या कैफ़ियत देगा. जूडा खड़े-खड़े कोई बहाना सोचने लगा. मगर जैसा कि हमेशा होता है, परेशानी में वह कुछ सोच न पाया और उसके पैर उसे अपने आप गली से दूर ले चले.
अब उसने अपना रास्ता बदल दिया. वह निचले शहर में जाने के बजाय वापस कैफ के महल की ओर चल पड़ा. जूडा को अब आसपास की चीज़ें देखने में कठिनाई हो रही थी. उत्सव शहर के अन्दर आ गया था. जूडा के चारों ओर हर घर में अब न केवल रोशनी जल चुकी थी, बल्कि प्रार्थना भी सुनाई देने लगी थी.
देरी से घर जाने वाले अपने-अपने गधों को चाबुक मारकर चिल्लाते हुए आगे धकेल रहे थे. जूडा के पैर उसे लिये जा रहे थे, उसे पता ही नहीं चला कि कैसे उसके सामने से अन्तोनियो की काई लगी, ख़ौफ़नाक मीनारें तैरती चली गईं. उसने किले में तुरही की आवाज़ नहीं सुनी. रोम की मशाल वाली घुड़सवार टुकड़ी पर उसका ध्यान नहीं गया, जिसकी उत्तेजक रोशनी में रास्ता नहा गया था. मीनार के पास से गुज़रते हुए जूडा ने मुड़कर देखा कि मन्दिर की डरावनी ऊँचाई पर दो पंचकोणीय दीप जल उठे हैं. मगर जूडा को वे भी धुँधले ही नज़र आए. उसे यूँ लगा जैसे येरूशलम के ऊपर दस अतिविशाल दीप जल उठे थे, जो येरूशलम पर सबसे ऊपर चमकते दीप – चाँद से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. अब जूडा को किसी से कोई मतलब नहीं था. वह गेफसिमान की ओर बढ़ा जा रहा था. शहर को जल्द से जल्द पीछे छोड़ना चाहता था. कभी-कभी उसे ऐसा महसूस होता, जैसे उसके आगे जाने वालों की पीठों और चेहरों के बीच फुदकती आकृति चली जा रही है, जो उसे अपनी ओर खींच रही है. मगर यह सिर्फ धोखा था. जूडा समझ रहा था, नीज़ा ने जानबूझकर उसे पीछे छोड़ा है. जूडा सूद वाली दुकानों के सामने से होकर भाग रहा था. आख़िर में वह गेफसिमान तक पहुँच ही गया. बेचैन होते हुए भी प्रवेश-द्वार पर उसे इंतज़ार करना ही पड़ा. शहर में ऊँटों का काफिला प्रवेश कर रहा था जिसके पीछे-पीछे था सीरियाई फौजी गश्ती-दल जिसे मन ही मन जूडा ने गाली दी...
मगर हर चीज़ का अन्त होता ही है. अशांत और बेचैन जूडा अब शहर की दीवार के बाहर था. दाईं ओर उसने एक छोटा-सा कब्रिस्तान देखा, उसके निकट कुछ भक्तजनों के धारियों वाले तम्बू थे. चाँद की रोशनी से नहाए धूल भरे रास्ते को पार करके जूडा केद्रोन झरने की ओर बढ़ा, ताकि उसे पार कर सके. जूडा के पैरों के नीचे पानी कलकल करता धीमे से बह रहा था. एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर उछलते वह आखिर में गेफसिमान के दूसरे किनारे पर पहुँच गया. उसे यह देखकर खुशी हुई कि यहाँ बगीचों के ऊपर वाला रास्ता एकदम सुनसान है. दूर तेलियों के मुहल्ले के ध्वस्त द्वार दिखाई दे रहे थे.
शहर के दमघोंटू वातावरण के बाद बसंती रात की महक जूडा को पागल बना दे रही थी. बगीचे से अकासिया और अन्य फूलों की महक आ रही थी.
प्रवेश-द्वार पर कोई पहरेदार नहीं था, वहाँ कोई था ही नहीं; कुछ क्षणों बाद ज़ैतून के वृक्षों की विशाल रहस्यमय छाया के नीचे जूडा दौड़ने लगा. रास्ता पहाड़ तक जाता था. तेज़-तेज़ साँस लेते हुए जूडा अँधेरे से उजाले में चाँद की रोशनी से बने कालीनों पर चलता ऊपर चढ़ने लगा, जो उसे नीज़ा के ईर्ष्यालु पति की दुकान में देखे कालीनों की याद दिला रहे थे. कुछ देर बाद जूडा के बाईं ओर मैदान में तेलियों का कोल्हू दिखाई दिया. वहाँ था पत्थर का अजस्त्र पहिया. कुछ बोरे भी रखे थे. सूर्यास्त तक सारे काम समाप्त हो चुके थे. उद्यान में कोई भी प्राणी नहीं था और जूडा के सिर के ऊपर पंछियों की चहचहाहट गूँज रही थी.
जूडा का लक्ष्य निकट ही था. उसे मालूम था कि दाईं ओर अँधेरे में अभी उसे गुफा में बहते पानी की फुसफुसाहट सुनाई देगी. वैसा ही हुआ, उसने वह आवाज़ सुनी. ठण्डक महसूस हो रही थी.
तब उसने अपनी चाल धीमी करते हुए हौले से आवाज़ दी, “नीज़ा!”
मगर नीज़ा के स्थान पर ज़ैतून के वृक्ष के मोटे तने से अलग होते हुए एक शक्तिशाली आदमी की आकृति प्रकट हुई. उसके हाथों में कुछ चमका और तत्क्षण बुझ गया.
क्रमशः