मास्टर और मार्गारीटा – 24.6
माजरा यह था कि मास्टर और मार्गारीटा के अपने साथियों समेत निकलने के कुछ देर पहले फ्लैट नं. 48 से, जो कि जवाहिरे की बीवी के फ्लैट के ठीक नीचे था, एक सूखी-सी औरत हाथ में एक बर्तन और पर्स लिए बाहर सीढ़ियों पर आई. यह वही अन्नूश्का थी, जिसने बुधवार को, बेर्लिओज़ के दुर्भाग्य से, सूरजमुखी का तेल घुमौने दरवाज़े के पास बिखेर दिया था.
कोई नहीं जानता था, और न ही शायद कभी जान पाएगा कि मॉस्को में यह औरत करती क्या थी, और कैसे ज़िन्दा रहती थी. उसके बारे में सिर्फ इतना पता था कि उसे प्रतिदिन या तो बर्तन लिये, या पर्स लिये, या फिर दोनों साथ में लिये या तो तेल की दुकान पर, या बाज़ार में, या उस घर के प्रवेश द्वार के पास, जिसमें वह रहती थी, या सीढ़ियों पर देखा जा सकता था; मगर अक्सर वह दिखाई देती थी फ्लैट नं. 48 के रसोईघर में, जहाँ वह रहती थी. इसके अलावा यह भी सर्वविदित था, कि जहाँ भी वह मौजूद रहती या प्रकट होती थी – वहाँ फौरन हंगामा खड़ा हो जाता था और यह भी कि लोगों ने उसका नाम ‘प्लेग’ रख दिया था.
‘प्लेग’ – अन्नूश्का न जाने क्यों सुबह बड़ी जल्दी उठ जाया करती, और आज न जाने क्यों, मानो किसी अज्ञात शक्ति ने उसे अँधेरे-उजाले के झुरमुटे के पहले ही बारह बजे के कुछ बाद जगा दिया था. दरवाज़े में चाबी घूमी, अन्नूश्का की पहले नाक और बाद में वह समूची बाहर निकली और अपने पीछे दरवाज़ा खींचकर कहीं बाहर जाने की तैयारी करने ही लगी थी, कि ऊपरी मंज़िल का दरवाज़ा बजा, कोई लुढ़कता हुआ नीचे आया और अन्नूश्का से टकराते हुए उसे इतनी ज़ोर से एक किनारे पर धकेला कि उसका सिर दीवार से जा टकराया.
“यह सिर्फ एक कच्छे में तुम्हें शैतान कहाँ लिये जा रहा है?” अपना सिर पकड़ते हुए अन्नूश्का गरजी. कच्छा पहना आदमी हाथ में सूटकेस लिए और टोपी सिर पर डाले, बन्द आँखों से खराश भरी उनींदी आवाज़ में बोला:
“बॉयलर! गंधक का तेज़ाब! सिर्फ पुताई ही कितनी महँगी पड़ी!” और रोते हुए भिनभिनाया, “चली जाओ!” अब वह फिर ज़ोर से फेंका गया, मगर आगे नहीं, सीढ़ियों पर नीचे नहीं, अपितु पीछे – ऊपर, वहाँ जहाँ अर्थशास्त्री के पैर से टूटा खिड़की वाला शीशा था, और इस खिड़की से उल्टा लटकते हुए वह तीर की तरह बाहर फेंक दिया गया. अन्नूश्का अपने सिर की चोट के बारे में बिल्कुल भूल गई, “आह” करते हुए वह खिड़की की तरफ लपकी. वह पेट के बल लेट गई और खिड़की से बाहर सिर निकालकर आँगन में देखने लगी, इसी अपेक्षा से कि उसे रोशनी में सड़क पर सूटकेस वाले आदमी का क्षत-विक्षत शरीर देखने को मिलेगा. मगर आँगन में और सड़क पर कुछ भी नहीं था.
बस यही मानकर सन्तोष कर लेना पड़ा कि वह विचित्र, उनींदा प्राणी पंछी की तरह, बिना कोई निशान छोड़े घर से उड़ गया. अन्नूश्का ने सलीब का चिह्न बनाते हुए सोचा, “हाँ, सचमुच ही फ्लैट का नंबर पचास है! लोग फालतू में ही नहीं कहते! अजीब है यह फ्लैट! फ्लैट है या बला!”
वह इतना सोच ही पाई थी कि ऊपरी मंज़िल का दरवाज़ा फिर से खुला और दूसरी बार कोई दौड़ता हुआ नीचे आया. अन्नूश्का दीवार से चिपक गई. उसने देखा कि कोई काफी इज़्ज़तदार, दाढ़ीवाला मगर कुछ-कुछ सुअर जैसे चेहरे वाला आदमी अन्नूश्का की बगल से तीर की तरह गुज़रा, और पहले वाले ही की तरह वह खिड़की के रास्ते घर से बाहर गया, वैसे ही फर्श पर चूर-चूर हुअ बिना. अन्नूश्का भूल गई कि वह किसलिए बाहर निकली थी, और वह वैसे ही सलीब का निशान बनाते सीढ़ियों पर खड़ी “ओह...ओह” करती अपने आप से बातें करती रही.
तीसरी बार निकला, बिना दाढ़ी के गोल, चिकने चेहरे वाला, कोट पहने आदमी; वह भागता हुआ आया और ठीक वैसे ही खिड़की फाँद गया.
अन्नूश्का की तारीफ़ में इतना कहना होगा, कि वह काफी जिज्ञासु थी. यह देखने के लिए कि आगे कौन से नये चमत्कार होने वाले हैं, उसने कुछ देर वहीं ठहरने का फैसला कर लिया. ऊपर का दरवाज़ा फिर खुला और इस बार एक पूरा झुण्ड सीढ़ियाँ उतरने लगा, भागकर नहीं, अपितु आम आदमियों की तरह. अन्नूश्का दौड़कर खिड़की से दूर हट गई, वह नीचे अपने फ्लैट तक उतरी, दरवाज़ा फट् से खोलकर उसके पीछे छिप गई, और दरवाज़े की दरार से उसकी उत्सुकता भरी आँख सट गई.
कोई एक बीमार-सा, अनबीमार-सा मगर अजीब, पीतवर्ण, बढ़ी हुई दाढ़ी वाला, काली टोपी और कोई गाऊन-सा पहने डगमगाते कदमों से नीचे उतर रहा था. आधे अँधेरे में अन्नूश्का ने देखा कि उसे सँभालती हुई ले जा रही थी कोई महिला, जिसने काला-सा चोगा पहना था, शायद उस महिला के पैर या तो नंगे थे, या फिर उसने पारदर्शी, विदेशी, फटे हुए जूते पहन रखे थे. छिः छिः! जूतों में क्या है! मगर औरत तो नंगी है! हाँ उस चोगे से उसने अपने तन को केवल ढाँककर ही रखा था! ‘फ्लैट है या बला!’ अन्नूश्का का दिल इस खयाल से हिलोरें ले रहा था कि कल पड़ोसियों को सुनाने के लिए उसके पास काफी मसाला है.
इस विचित्र लिबास वाली औरत के पीछे थी एक पूरी निर्वस्त्र महिला, उसने हाथ में सूटकेस पकड़ रखा था, उस सूटकेस के साथ-साथ चल रहा था एक विशालकाय काला बिल्ला. अन्नूश्का आँखें फाड़े देख रही थी, उसके मुँह से सिसकारी निकलते-निकलते बची.
इस जुलूस के पीछे-पीछे था नाटे कद का विदेशी, वह लँगड़ाकर चल रहा था, उसकी एक आँख टेढ़ी थी, वह सफेद जैकेट पहने, टाई लगाए था, मगर कोट नहीं पहने था. यह पूरा झुण्ड अन्नूश्का के करीब से होकर नीचे जाने लगा. तभी खट् से कोई चीज़ फर्श पर गिर पड़ी. यह अन्दाज़ करके कि कदमों की आहट दूर होती जा रही है, अन्नूश्का साँप की तरह रेंगकर बाहर आई. बर्तन दीवार के निकट रखकर वह पेट के बल फर्श पर लेट गई और हाथों से चारों ओर टटोलने लगी. उसके हाथों में आया एक रूमाल, जिसमें कोई भारी चीज़ बँधी हुई थी. अन्नूश्का की आँखें विस्फारित होकर माथे पर चढ़ गईं, जब उसने रूमाल में बँधी हुए चीज़ को देखा! अन्नूश्का अपनी आँखों तक उस बहुमूल्य वस्तु को ले आई; अब उसकी आँखें भेड़िए की आँखों जैसी दहकने लगीं. उसके मस्तिष्क में एक तूफान साँय-साँय करने लगा, ‘मैं कुछ नहीं जानती! मैंने कुछ नहीं देखा!... भतीजे के पास? या इसके टुकड़े कर दिए जाएँ...हीरों को तो उखाड़ कर निकाला जा सकता है...और एक-एक करके...एक पेत्रोव्का को, दूसरा स्मोलेन्स्क को...और – मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहीं देखा!’
अन्नूश्का ने उस चीज़ को शमीज़ के अन्दर सीने के पास छिपा लिया. बर्तन उठाकर रेंगते हुए वह वापस अपने फ्लैट में जाने ही वाली थी कि उसके सामने प्रकट हुआ, शैतान ही जाने वह कहाँ से आया था, वही सफेद जैकेट , बगैर कोट वाला और हौले से फुसफुसाकर बोला, “रूमाल और नाल निकालो.”
“कैसा रूमाल, कैसी नाल?” अन्नूश्का ने बड़े बनावटी ढंग से पूछा, “मैं कोई रूमाल-वुमाल नहीं जानती. नागरिक, क्या तुमने पी रखी है?”
सफेद जैकेट वाले ने अपनी बस के ब्रेक जैसी मज़बूत और वैसी ही सर्द उँगलियों से बिना कुछ बोले अन्नूश्का का गला इस तरह दबाया, कि उसके सीने में हवा का जाना एकदम रुक गया. अन्नूश्का के हाथों से बर्तन छिटककर फर्श पर जा गिरा. कुछ देर तक अन्नूश्का को बिना हवा दिए जकड़कर, सफेद जैकेट वाले विदेशी ने उसकी गर्दन से उँगलियाँ हटा लीं. हवा में साँस लेकर अन्नूश्का मुस्कुराई.
“ओह, नाल,” वह बोली, “अभी लो! तो यह आपकी नाल है? मैंने देखा, कि रूमाल में कुछ बँधा पड़ा है...मैंने जान-बूझकर उठाया, जिससे कोई दूसरा न उठा ले, और फिर ढूँढ़ते फिरो!”
रूमाल और नाल लेकर विदेशी उसका झुक-झुककर अभिवादन करने लगा. वह उसका हाथ अपने हाथों में लेकर विदेशी लहजे में बार-बार उसे धन्यवाद देने लगा.
“मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ! मुझे यह नाल किसी की यादगार होने के कारण बहुत प्रिय है. इसे सँभालकर रखने के लिए मुझे आपको दो सौ रूबल देने की आज्ञा दें.” और उसने फौरन अपनी जेब से पैसे निकालकर अन्नूश्का को थमा दिए.
वह बेसुध होकर मुस्कुराने लगी और चिल्लाकर कहने लगी, “ओह, मैं दिल से आपका शुक्रिया अदा करती हूँ! धन्यवाद! धन्यवाद!”
वह निडर विदेशी एक ही छलाँग में पूरी सीढ़ी फाँद गया, मगर ओझल होने से पहले वह नीचे से साफ-साफ चिल्लाया, “तुम, बूढ़ी चुडैल, अगर आइन्दा पराई चीज़ को हाथ भी लगाओ तो उसे पुलिस में दे देना! अपने सीने से छिपाकर मत रखना!”
इस सब शोरगुल और गड़बड़ से सुन्न होकर अन्नूश्का कुछ देर तक यंत्रवत् चिल्लाती ही रही, “धन्यवाद! धन्यवाद! धन्यवाद!” मगर विदेशी कब का गायब हो चुका था.
आँगन में अब कार तैयार थी. मार्गारीटा को वोलान्द की भेंट वापस देकर अज़ाज़ेलो उससे बिदा लेने लगा. उसने पूछा कि उसे बैठने में कोई तकलीफ तो नहीं हो रही. हैला ने मार्गारीटा का प्रदीर्घ चुम्बन लिया. बिल्ला उसके हाथ के निकट लोट गया. बिदा देने वालों ने हाथ हिलाकर कोने में बेजान-से, निश्चल-से लुढ़के मास्टर से विदा ली, चालक कौए की ओर देखकर हाथ हिलाया और फौरन हवा में पिघल गए. उन्होंने सीढ़ियों पर चढ़कर जाने का कष्ट उठाना मुनासिब नहीं समझा. कौए ने बत्तियाँ जलाईं और मुर्दे की तरह सोए पड़े आदमी की बगल से होकर गाड़ी प्रवेश द्वार से बाहर निकाली. और बड़ी काली कार की बत्तियाँ चहल-पहल और शोरगुल वाले सादोवाया की बत्तियों में मिल गईं.
एक घण्टे बाद अर्बात की एक गली के तहखाने में स्थित उस छोटे-से मकान के अगले कमरे में, जहाँ सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा पिछले साल की जाड़े की उस भयानक रात के पहले हुआ करता था, मखमली टेबुल क्लॉथ से ढँकी मेज़ पर शेड वाला लैम्प जल रहा था, पास में ही फूलदानी लिली के फूलों से सजी हुई थी, मार्गारीटा खामोशी से बैठी खुशी और झेली गई तकलीफों के दुःख के मारे रो रही थी. आग में झुलसी पाँडुलिपि उसके सामने पड़ी थी, साथ ही साबुत पांडुलिपियों एक ऊँचा गट्ठा भी पास में पड़ा था. बाजू वाले सोफे पर अस्पताल के गाउन में ही लिपटा मास्टर गहरी नींद में सो रहा था. उसकी साँसें भी बेआवाज़ थीं.
जी भरकर रो लेने के बाद मार्गारीटा ने साबुत पांडुलिपि उठाई. उसने वह जगह ढूँढ़ ली जिसे वह क्रेमलिन की दीवार के पास, अज़ाज़ेलो से मुलाक़ात होने के पहले पढ़ रही थी. मार्गारीटा को नींद नहीं आ रही थी. उसने पांडुलिपि को इतने प्यार से सहलाया मानो अपनी प्रिय बिल्ली को सहला रही हो. उसे हाथों में लेकर उलट-पुलटकर देखने लगी, कभी वह प्रथम पृष्ट को देखती, तो कभी अंतिम पृष्ट को. अचानक उसे एक ख़ौफ़नाक खयाल ने दबोच लिया, कि यह सब केवल जादू है, कि अभी पांडुलिपियाँ गायब हो जाएँगी, कि वह आँख खुलते ही अपने आपको अपने शयनकक्ष में पाएगी और उसे अँगीठी सुलगाने के लिए उठना पड़ेगा. मगर यह उसके कष्टों की, लम्बी यातनामय परेशानियों की प्रतिध्वनि मात्र थी. कुछ भी गायब नहीं हुआ, महाशक्तिमान वोलान्द सचमुच सर्वशक्तिमान था, और मार्गारीटा कितनी ही देर, शायद सुबह होने तक, पांडुलिपि के पन्नों को सहलाती रही, जी भरकर देखती रही, चूमती रही, और बार-बार पढ़ती रही:
”भूमध्य सागर से मँडराते अँधेरे ने न्यायाधीश की घृणा के पात्र उस शहर को दबोच लिया...हाँ, अँधेरा...
*******
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.