मास्टर और मार्गारीटा – 26.1
अन्तिम संस्कार
शायद इस धुँधलके के ही कारण न्यायाधीश का बाह्य रूप परिवर्तित हो गया. मानो वह देखते ही देखते बूढ़ा हो गया, उसकी कमर झुक गई. इसके साथ ही वह चिड़चिड़ा और उद्विग्न हो गया. एक बार उसने नज़र इधर-उधर दौड़ाई और न जाने क्यों उस खाली कुर्सी पर नज़र डालकर, जिसकी पीठ पर उसका कोट पड़ा था, वह सिहर उठा. त्यौहार की रात निकट आ रही थी, संध्या-छायाएँ अपना खेल खेल रही थीं, और शायद थके हुए न्यायाधीश को यह आभास हुआ कि कोई उस खाली कुर्सी पर बैठा है. डरते-डरते कोट को झटककर न्यायाधीश ने उसे वापस वहीं डाल दिया और बाल्कनी पर दौड़ने लगा; कभी वह हाथ मलता, कभी जाम हाथ में लेता, कभी वह रुक जाता और बेमतलब फर्श के संगमरमर को देखने लगता, मानो उसमें कोई लिखावट पढ़ना चाहता हो.
आज दिन में दूसरी बार उसे निराशा का दौरा पड़ा था. अपनी कनपटी को सहलाते हुए, जिसमें सुबह की यमयातना की भोंथरी-सी, दर्द भरी याद थी, न्यायाधीश यह समझने की कोशिश कर रहा था कि इस निराशा का कारण क्या है. वह शीघ्र ही समझ गया, मगर अपने आपको धोखा देता रहा. उसे समझ में आ गया था कि आज दिन में वह कुछ ऐसी चीज़ खो चुका है, जिसे वापस नहीं पाया जा सकता और अब वह इस गलती को कुछ ओछी, छोटी, विलम्बित हरकतों से कुछ हद तक सुधारना चाहता था. न्यायाधीश अपने आपको यह समझाते हुए धोखे में रख रहा था कि शाम की उसकी ये हरकतें उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितनी कि सुबह के मृत्युदण्ड की घोषणा. मगर वह इसमें सफल नहीं हो रहा था.
एक मोड़ पर आकर वह झटके से रुका और सीटी बजाने लगा. इस सीटी के जवाब में कुत्ते के भौंकने की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी और उद्यान से बाल्कनी में एक विशालकाय, तेज़ कानों और भूरे बालों वाला कुत्ता उछलकर आ गया. उसके गले में सुनहरी जंज़ीर पड़ी थी.
“बांगा, बांगा,” न्यायाधीश ने कमज़ोर आवाज़ में कहा.
कुत्ता पिछले पंजों पर खड़ा हो गया और अगले पंजे उसने अपने मालिक के कन्धों पर रख दिए, जिससे वह फर्श पर गिरते-गिरते बचा. न्यायाधीश कुर्सी पर बैठ गया. बांगा जीभ बाहर निकाले, गहरी साँसे भरते अपने मालिक के पैरों के पास लेट गया. कुत्ते की आँखों की चमक यह बता रही थी कि तूफ़ान, दुनिया में सिर्फ जिससे उस निडर कुत्ते को डर लगता था, ख़त्म हो चुका है; साथ ही यह भी यह भी कि वह उस व्यक्ति के पास है जिससे उसे बेहद प्यार है. वह न केवल उसे प्यार करता था, बल्कि उसकी इज़्ज़त करता था, उसे दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति, सबका शासक समझता था, जिसकी बदौलत वह अपने आपको भी विशिष्ट महत्त्व देता था. मगर मालिक के पैरों के पास पड़े, बगैर उसकी ओर देखे भी कुत्ता फौरन समझ गया कि उसके मालिक को किसी दुःख ने घेर रखा है. इसलिए वह उठकर खड़ा हो गया और मुड़कर न्यायाधीश के चोगे की निचली किनार पर गीली रेत लगाते हुए, अपने सामने के पंजे और सिर को उसके घुटनों पर रख दिया. बांगा की हरकतों से साफ था कि वह अपने मालिक को सांत्वना और विश्वास दिलाना चाहता है कि मुसीबत में वह उसके साथ है. यह उसने तिरछी नज़रों से मालिक की ओर देखते हुए दिखाने का प्रयत्न किया, कान खड़े करके मालिक से चिपककर भी वह यह ज़ाहिर करता रहा. इस तरह वे दोनों, कुत्ता और आदमी, जो एक दूसरे को प्यार करते थे, त्यौहार की रात का बाल्कनी में स्वागत कर रहे थे.
इस समय न्यायाधीश का मेहमान काफी व्यस्त था. बाल्कनी के सामने वाले उद्यान की ऊपरी मंज़िल से नीचे उतरकर वह एक और छत पर आया, दाईं ओर मुड़कर उन छावनियों की ओर मुड़ गया जो महल की सीमा के अन्दर थीं. इन्हीं छावनियों में वे दो टुकड़ियाँ थीं, जो न्यायाधीश के साथ त्यौहार के अवसर पर येरूशलम आई थीं; और थी न्यायाधीश की वह गुप्त टुकड़ी जिसका प्रमुख यह अतिथि था. अतिथि ने छावनी में दस मिनट से कुछ कम समय बिताया. इन दस मिनटों के पश्चात् महल की छावनियों से तीन गाड़ियाँ निकलीं, जिन पर खाइयाँ खोदने के औज़ार और पानी की मशकें रखी हुई थीं. इन गाड़ियों के साथ भूरे रंग के ओवरकोट पहने पन्द्रह व्यक्ति घोड़ों पर चल रहे थे. उनकी निगरानी में ये गाड़ियाँ महल के पिछले द्वार से निकलीं और पश्चिम की ओर चल पड़ीं. शहर के परकोटे की दीवार में बने द्वार से बाहर निकलकर पगडंडी पर होती हुई पहले बेथलेहेम जाने वाले रास्ते पर कुछ देर चलीं और फिर उत्तर की ओर मुड़ गईं. फिर खेव्रोन्स्की चौराहे तक आकर याफा वाले रास्ते पर मुड़ गईं, जिस पर दिन में अभियुक्तों के साथ जुलूस जा रहा था. इस समय तक अँधेरा हो चुका था और आसमान में चाँद निकल आया था.
गाड़ियों के प्रस्थान करने के कुछ देर बाद ही महल की सीमा से घोड़े पर सवार होकर न्यायाधीश का मेहमान भी निकला. उसने अब काला पुराना चोगा पहन रखा था. मेहमान शहर से बाहर न जाकर शहर के अन्दर गया. कुछ देर बाद उसे अन्तोनियो की मीनार के निकट देखा गया, जो उत्तर की ओर, मन्दिर के काफी निकट थी. इस मीनार में भी मेहमान कुछ ही देर रुका, फिर उसके पदचिह्न शहर के निचले भाग की तंग, टेढ़ी-मेढ़ी, भूलभुलैया गलियों में दिखाई दिए. यहाँ तक मेहमान टट्टू पर सवार होकर आया.
शहर से भली-भाँति परिचित मेहमान ने उस गली को ढूँढ़ निकाला जिसकी उसे ज़रूरत थी. उसका नाम ‘ग्रीक गली’ था, क्योंकि यहाँ कुछ ग्रीक लोगों की दुकानें थीं, जिनमें एक दुकान वह भी थी, जहाँ कालीन बेचे जाते थे. इसी दुकान के सामने उसने टट्टू रोका, उतरकर उसे सामने के दरवाज़े की एक गोल कड़ी से बाँध दिया. दुकान बन्द हो चुकी थी. मेहमान उस दरवाज़े में आ गया, जो दुकान के प्रवेश द्वार की बगल में था और एक छोटे-से चौरस आँगन में आ गया, जिसमें एक सराय थी. आँगन के कोने में मुड़कर, मेहमान एक मकान की पत्थर से बनी छत पर आ गया, जिस पर सदाबहार की बेल चढ़ी थी. उसने इधर-उधर देखा. घर और सराय में अँधेरा था. अभी तक रोशनी नहीं की गई थी. मेहमान ने हौले से पुकारा, “नीज़ा!”
इस पुकार के जवाब में दरवाज़ा चरमराया और शाम के धुँधलके में एक बेपरदा तरुणी छत पर आई. वह छत की मुँडॆर पर झुककर उत्सुकतावश देखने लगी कि कौन आया है. आगंतुक को पहचानकर वह उसके स्वागत में मुस्कुराई. सिर झुकाकर और हाथ हिलाकर उसने उसका अभिवादन किया.
“तुम अकेली हो?” अफ्रानी ने धीरे से ग्रीक में पूछा.
“अकेली हूँ,” छत पर खड़ी औरत फुसफुसाई, “पति सुबह केसारिया चला गया.” तरुणी ने दरवाज़े की ओर नज़र दौड़ाते हुए, फुसफुसाहट से आगे कहा, “मगर नौकरानी है घर पर...” उसने इशारा किया, जिसका मतलब था – ‘अन्दर आओ’.
अफ्रानी इधर-उधर देखकर पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा. इसके बाद वह उस तरुणी के साथ घर के अन्दर छिप गया.
इस तरुणी के पास अफ्रानी कुछ ही देर को रुका – पाँच मिनट से भी कम. इसके बाद उसने छत से उतरकर टोपी आँखों पर और नीचे सरका ली और सड़क पर निकल आया. इस समय तक घरों में रोशनियाँ जल उठी थीं. त्यौहार के लिए आई भीड़ अभी भी थी और आने-जाने वालों और घोड़ों पर सवार लोगों की रेलमपेल में अफ्रानी अपने टट्टू पर बैठा खो गया. आगे वह कहाँ गया, किसी को पता नहीं.
वह औरत जिसे अफ्रानी ने नीज़ा कहकर सम्बोधित किया था, अकेली रह जाने पर जल्दी-जल्दी वस्त्र बदलने लगी. जान पड़ता था कि वह काफी जल्दी में थी. उस अँधेरे कमरे में अपनी ज़रूरत की चीज़ें ढूँढ़ने में काफी कठिनाई हो रही थी, मगर फिर भी उसने दीया नहीं जलाया, न ही नौकरानी को बुलाया. तैयार होकर उसने सिर पर बुर्का पहन लिया. उसने आवाज़ देकर कहा, “अगर कोई मुझे पूछता हुआ आए, तो कह देना कि मैं एनान्ता के यहाँ जा रही हूँ.”
अँधेरे में बूढ़ी नौकरानी के बुड़बुड़ाने की आवाज़ सुनाई दी, “एनान्ता के यहाँ? ओह, क्या चीज़ है यह एनान्ता! आपके पति ने आपको वहाँ जाने से मना किया है न! दलाल है, तुम्हारी एनान्ता! मैं तुम्हारे पति से कहूँगी...”
“चुप, चुप, चुप!” नीज़ा बोली, और परछाईं की तरह घर से बाहर फिसल गई. उसकी चप्पलों की खट्खट् आँगन में जड़े पत्थरों पर गूँजती रही. नौकरानी ने बड़बड़ाते हुए छत का दरवाज़ा बन्द किया. नीज़ा ने अपना घर छोड़ दिया.
इसी समय आड़ी-तिरछी होते हुए तालाब की ओर जाने वाली एक और गली के एक भद्दे-से मकान के दरावाज़े से एक नौजवान निकला. मकान का पिछवाड़ा इस गली में खुलता था और खिड़कियाँ खुलती थीं आँगन में. नौजवान की दाढ़ी करीने से कटी थी. कन्धों तक आती सफेद टोपी, नया नीला, कौड़ियाँ टँका चोगा और नए चरमराते जूते पहन रखे थे उसने. तोते जैसी नाक वाला यह खूबसूरत नौजवान त्यौहार की खुशी में तैयार हुआ था. वह आगे जाने वालों को पीछे छोड़ते हुए जल्दी-जल्दी बेधड़क जा रहा था, जो त्यौहार के लिए घर लौटने की जल्दी में थे. वह देखता हुआ चल रहा था कि कैसे एक के बाद एक खिड़कियों में रोशनी होती जा रही है. नौजवान बाज़ार से धर्मगुरु कैफ के महल को जाने वाले रास्ते पर चल रहा था जो मन्दिर वाले टीले के नीचे था.
कुछ ही देर बाद वह कैफ के महल के आँगन में प्रवेश करता देखा गया. कुछ और देर बाद उसे देखा गया इस आँगन से बाहर आते.
क्रमशः
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