द्वितीय भाग
मास्टर और मार्गारीटा
अध्याय 19
मार्गारीटा
मेरे साथ, पाठकगण! आपसे किसने कह दिया कि दुनिया में असली, सच्चा, सच्चा प्यार नहीं है? झूठ बोलने वाले की गन्दी ज़बान कट जाएगी!
मेरे साथ आओ, मेरे पाठक, सिर्फ मेरे साथ और मैं आपको ऐसे प्यार के दर्शन करवाऊँगा!
नहीं! मास्टर गलत था, जब वह तैश में इवानूश्का से आधी रात के बाद अस्पताल में कह रहा था कि वह उसे भूल चुकी है. ऐसा हो ही नहीं सकता था. वह उसे बिल्कुल नहीं भूली थी.
पहले तो हम वह भेद खोल दें जो मास्टर इवानूश्का पर खोलना नहीं चाहता था. उसकी प्रियतमा का नाम था मार्गारीटा निकोलायेव्ना. मास्टर ने गरीब बिचारे कवि को उसके बारे में जो भी बताया, वह सब सच था. उसने अपनी प्रिया की बिल्कुल सही तस्वीर खींची थी. वह ख़ूबसूरत थी और बुद्धिमान भी थी.इसके साथ ही एक बात और बता दें – मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि बहुत-सी औरतें अपनी ज़िन्दगी मार्गारीटा निकोलायेव्ना की ज़िन्दगी से बदलने के लिए सब कुछ देने को तैयार हो जातीं. तीस वर्षीय मार्गारीटा की कोई संतान नहीं थी; वह एक बहुत बड़े विशेषज्ञ की पत्नी थी, जिसने सरकार के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अन्वेषण किया था. उसका पति जवान, सुन्दर, सहृदय, ईमानदार था और अपनी पत्नी की पूजा करता था. मार्गारीटा निकोलायेव्ना अपने पति के साथ अर्बात के निकट एक बड़े ख़ूबसूरत मकान की ऊपरी मंज़िल पर रहती थी, जिसके चारों ओर एक बाग था. जादू भरी जगह! जो भी यहाँ आएगा, वह यही कहेगा. जिसे जाना हो मेरे पास आए, मैं उसे पता बताऊँगा, रास्ता दिखाऊँगा – वह घर अभी भी सही-सलामत है.
मार्गारीटा निकोलायेव्ना को पैसों की ज़रूरत नहीं थी. मार्गारीटा निकोलायेव्ना जो चाहे ख़रीद सकती थी. उसके पति के परिचितों में काफी दिलचस्प लोग थे. मार्गारीटा निकोलायेव्ना ने स्टोव को कभी हाथ भी नहीं लगाया था. मार्गारीटा निकोलायेव्ना साझे के फ्लैट में रहने की झंझट से नावाक़िफ़ थी. संक्षेप में...वह सुखी थी? एक मिनट के लिए भी नहीं! तब से, जब उन्नीस साल की उम्र में उसकी शादी हुई और वह इस घर में आई, उसे सुख क्या है, मालूम ही नहीं हुआ. हे भगवान! इस औरत को आख़िर किस चीज़ की ज़रूरत थी! किस चीज़ की तलाश थी इस सुन्दरी को जिसकी आँखों में सदा एक अनबूझी चमक दिखाई देती थी? इस भुवनमोहिनी की क्या चाह थी, जो तिरछे नेत्र कटाक्ष से घायल कर देती थी और बसंत ऋतु में छुई-मुई के फूलों से अपने आपको सजाती थी? नहीं जानता. मुझे पता नहीं. ज़ाहिर था, उसने सच बोला था. उसे चाहिए था वह – मास्टर, न कि भव्य प्राचीन महल, न बाग और न ही धन. वह उससे प्रेम करती थी, उसने सच कहा था.
मुझे, सच्चे कहानीकार को, पराए आदमी को भी, बहुत दुःख हुआ इस विचार से कि मार्गारीटा ने क्या भोगा होगा, जब वह दूसरे दिन मास्टर के घर आई (सौभाग्य से, वह अपने पति से बात न कर पाई, क्योंकि वह निश्चित समय पर घर नहीं लौटा था), क्या-क्या सहा होगा उसने यह जानकर कि मास्टर गायब हो गया है.
उसने उसके बारे में जानने के लिए सब कुछ किया, मगर कुछ भी न जान पाई. तब वह वापस अपने महल में लौट आई और वहीं पहले की भाँति रहने लगी.
“हाँ, हाँ, हाँ, वही गलती!” मार्गारीटा ने शीत ऋतु में अँगीठी के पास बैठकर आग की लपटों की ओर देखते हुए कहा, “मैं उस रात उसके पास से वापस ही क्यों आई? क्यों? यह तो बेवकूफ़ी है! मैं वादे के मुताबिक दूसरे दिन गई थी, मगर तब तक देर हो चुकी थी. मैं अभागे लेवी मैथ्यू के ही समान लौटी, बहुत देर से!
इन सब शब्दों का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि वह वास्तव में, उस रात मास्टर के पास रुक भी जाती, तो क्या बदल जाता! क्या उसे बचा सकती थी? हम कहते, बेवकूफ़ी है! मगर हम उस बदहवास औरत के सामने ऐसा नहीं कहेंगे.
इसी पीड़ा में मार्गारीटा निकोलायेव्ना ने पूरी सर्दियाँ गुज़ारीं और बसंत ऋतु आ गई. उसी दिन, शुक्रवार को, जब हर तरह की बेहूदा घटनाएँ हो रही थीं, जिनके पीछे मॉस्को में आए काले जादू के जादूगर का हाथ था; जब बेर्लिओज़ के मामा को वापस कीएव भगा दिया गया था, जब रोकड़िए को गिरफ़्तार कर लिया गया था और अन्य अनेक ऊलजुलूल, समझ में न आने वाली घटनाएँ हुई थीं, मार्गारीटा क़रीब दोपहर को अपने शयन-कक्ष में उठी, जो महल जैसे घर के बुर्ज वाले हिस्से में स्थित था.
जागने के बाद मार्गारीटा रोई नहीं, जैसा कि अक्सर होता था; क्योंकि वह इस पूर्वाभास के साथ जागी थी कि आज कुछ न कुछ ज़रूर होगा. इस आभास को दिल में सँजोए वह उसे सहलाती रही, बढ़ाती रही, ताकि वह खो न जाए.
“मुझे विश्वास है,” मार्गारीटा विश्वासपूर्वक बुदबुदाई, “मुझे पूरा विश्वास है! कुछ न कुछ होगा! ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुछ न घटे, नहीं तो मुझे इतनी यातना क्यों सहनी पड़ती? मैं स्वीकार करती हूँ कि मैं झूठ बोलती रही, धोखा देती रही और लोगों से छिपकर एक गुमनाम ज़िन्दगी जीती रही, मगर मुझे इतनी कठोर शिक्षा तो नहीं मिलनी चाहिए...कुछ न कुछ तो ज़रूर होगा क्योंकि ऐसा नहीं होता कि कोई चीज़ निरंतर होती ही रहे. इसके अलावा, मेरा सपना सच्चा था, मैं दावे के साथ कह सकती हूँ...
लाल, धूप में चमकते परदों की ओर देखते, उतावलेपन से कपड़े बदलते हुए और तीन आईनों वाले ड्रेसिंग टेबुल के सामने अपने छोटे, घुंघराले बाल सँवारते हुए मार्गारीटा अपने आप से बातें करती रही.
इस रात मार्गारीटा ने जो सपना देखा था, वह अद्भुत था. बात यह थी कि अपनी पीड़ा भरे सर्दी के दिनों में उसने मास्टर को कभी भी सपने में नहीं देखा. रात में वह उसे छोड़ देता और वह सिर्फ दिन में ही घुलती रहती. और अब सपने में भी आ गया.
मार्गारीटा ने सपने में एक अनजान जगह देखी – उजाड़, निराश, आरम्भिक बसंत के धुँधले आकाश तले. देखा वह टुकड़ों वाला, उड़ता आकाश और उसके नीचे चिड़ियों का ख़ामोश झुण्ड. एक ऊबड़-खाबड़ पुल, जिसके नीचे छोटी-सी मटमैली बसंती नदी; उदास, दयनीय, अधनंगे पेड़; इकलौता मैपल का वृक्ष – वृक्षों के बीच, किसी बाड़ के पीछे, लकड़ी का मकान, शायद – रसोईघर था, या शायद स्नानगृह, शैतान ही जाने क्या था वह! आसपास सब उनींदा-सा, बेजान-सा, इतना उदास कि पुल के पास वाले उस मैपल के वृक्ष से लटक जाने को जी चाहे. न हवा की हलचल, न बादल की सरसराहट, न ही जीवन का कोई निशान. यह तो नरक जैसी जगह है ज़िन्दा आदमी के लिए!
और सोचिए, उस लकड़ी वाले घर का दरवाज़ा खुलता है और उसमें से निकला, वह. काफ़ी दूर है, मगर वही था. साफ़ दिख रहा था. कपड़े इतने फटे हैं कि पहचाना नहीं जा सकता कि उसने क्या पहन रखा है. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई. आँखें बीमार, उत्तेजित. हाथ के इशारे से उसे बुला रहा था. उस ठहरी हुई हवा में छटपटाती मार्गारीटा ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर उसकी ओर भागी, और तभी उसकी आँख खुल गई.
“इस सपने का दो में से एक ही मतलब हो सकता है,” मार्गारीटा निकोलायेव्ना अपने आपसे तर्क करती रही, “अगर वह मर चुका है, और मुझे बुला रहा है, तो इसका मतलब यह हुआ कि वह मेरे लिए आया है, और मैं शीघ्र ही मर जाऊँगी. यह बहुत अच्छा होगा, क्योंकि तब मेरी पीड़ा का अंत हो जाएगा. यदि वह जीवित है, तो इस सपने का केवल एक ही मतलब है, वह मुझे अपने बारे में याद दिला रहा है. वह कहना चाहता है कि हम फिर मिलेंगे. हाँ, हम मिलेंगे, बहुत जल्दी.”
क्रमशः
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