मास्टर और मार्गारीटा – 24.3
“नहीं,” मार्गारीटा ने ज़ोर देकर कहा, “मुझे मालूम है कि आपसे बातें स्पष्ट रूप से ही कहनी चाहिए, और मैं आपसे साफ-साफ कहती हूँ: मैं एक उथले विचारों वाली, भटकी हुए स्त्री हूँ. मैंने आपसे फ्रीड़ा के बारे में सिर्फ इसीलिए प्रार्थना की थी क्योंकि मैं असावधानीवश उसे गहरी उम्मीद दे बैठी. वह इंतज़ार कर रही है, महाशय; उसे मेरी सामर्थ्य में विश्वास है. अगर उसे धोखा दिया गया, तो मैं बड़ी भयंकर परिस्थिति में पड़ जाऊँगी. मुझे पूरी ज़िन्दगी चैन नहीं मिलेगा. कुछ नहीं किया जा सकता! जो होना था, सो हो गया!”
“आह!” वोलान्द ने कहा, “यह बात समझ में आ रही है.”
“तो आप यह करेंगे?” मार्गारीटा ने हौले से पूछा.
“किसी हालत में नहीं,” वोलान्द ने जवाब दिया, “बात यह है, प्रिय महारानी, कि यहाँ एक छोटी-सी गड़बड़ हो गई है. हर भूत या चुडैल को अपना-अपना काम करना पड़ता है. यह बात और है कि हमारी सामर्थ्य बहुत ज़्यादा है; कुछ जागरूक लोग जितना समझते हैं, उससे कई गुना अधिक...”
“हाँ, बहुत-बहुत ज़्यादा,” बिल्ला अपने आप को रोक नहीं सका. उसे इस सामर्थ्य पर, ज़ाहिर है, गर्व था.
“चुप, शैतान तुझे ले जाए!” वोलान्द ने उससे कहा और मार्गारीटा की ओर देखते हुए आगे बोला, “मगर वह करने से क्या फायदा जिसे किसी दूसरी ताकत को करना होता है? तो, मैं यह नहीं करूँगा, मगर आप खुद ही इसे करेंगी.”
“और, क्या मुझसे यह हो सकेगा?”
अज़ाज़ेलो ने व्यंग्यपूर्वक अपनी टेढ़ी आँख मार्गारीटा पर गड़ा दी और चुपके से अपना लाल सिर झटक कर मुस्कुराया.
“हाँ, कीजिए न, क्या मुसीबत है!” वोलान्द बड़बड़ाया और, ग्लोब को घुमाकर उसमें कुछ देखने लगा. ज़ाहिर है, वह मार्गारीटा से बातें करते वक़्त कुछ और भी कर रहा था.
“तो, फ्रीडा,” कोरोव्येव कान में फुसफुसाया.
“फ्रीडा!” पैनी आवाज़ में मार्गारीटा चीखी.
दरवाज़ा खुल गया और बदहवास, नग्न फ्रीडा फूली-फूली आँखों से कमरे में दौड़ती आई, उसका नशा अब उतर चुका था, उसने आते ही मार्गारीटा की ओर हाथ बढ़ाए. मार्गारीटा शाही अन्दाज़ में बोली, “तुम्हें माफ किया जाता है. अब तुम्हें वह रूमाल नहीं दिया जाएगा.”
फ्रीडा की हिचकी सुनाई दी, वह ज़मीन पर गिर पड़ी और सलीब जैसी अवस्था में मार्गारीटा के सामने बिछ गई. वोलान्द ने अपना हाथ झटका, और फ्रीडा आँखों से ओझल हो गई.
“धन्यवाद, अलबिदा,” मार्गारीटा ने कहा और वह उठने लगी.
“तो, बेगेमोत,” वोलान्द ने बोलना शुरू किया, “उत्सव की रात को एक नासमझ व्यक्ति के बर्ताव पर ध्यान नहीं देंगे,” वह मार्गारीटा की ओर मुड़ा, “तो इसकी गिनती नहीं होगी, क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया है. आप अपने लिए क्या चाहती हैं?”
खामोशी छा गई जिसे मार्गारीटा के कान में फुसफुसाते हुए कोरोव्येव ने तोड़ा, “बहुमूल्य सम्राज्ञी, इस बार मैं सलाह दूँगा, कि आप अकल से काम लें! कहीं ऐसा न हो कि सुअवसर हाथ से निकल जाए!”
“मैं चाहती हूँ कि इसी समय, इसी क्षण मेरा प्रियतम, मास्टर मुझे लौटा दिया जाए,” मर्गारीटा ने कहा और उसके चेहरे की रेखाएँ थरथराने लगीं.
तभी कमरे में हवा घुस आई, जिससे मोमबत्तियों की लौ लेट गई, खिड़की का भारी परदा हट गया, खिड़की फट् से खुल गई और दूर ऊँचाई पर पूरा; प्रातःकालीन नहीं, बल्कि अर्धरात्रीय चन्द्रमा दिखाई दिया. खिड़की की सिल से होकर फर्श पर रात के प्रकाश का हरा-सा रूमाल अन्दर आया, उस प्रकाश में प्रकट हुआ इवानूश्का का रात का मेहमान, जो अपने आपको मास्टर कहता था. वह अस्पताल के मरीज़ों के कपड़े पहने था – गाउन, जूते और काली टोपी, जिसे वह अपने से दूर नहीं करता था. उसका दाढ़ी बढ़ा चेहरा विकृत हावभावों से काँप रहा था. उसने पागलों जैसी घबराहट से मोमबत्तियों की रोशनी को देखा. चाँद का प्रकाश उसके चारों ओर उबल रहा था.
मार्गारेटा ने उसे फौरन पहचान लिया, वह कराही और हाथ नचाती उसके पास भागी चली आई. उसने उसके माथे को चूमा, होठों को चूमा, उसके खुरदुरे गाल से अपना चेहरा सटाया, और इतनी देर तक रोके गए आँसुओं का बाँध टूटकर अगणित धाराओं से उसके चेहरे को भिगोने लगा. वह सिर्फ एक ही शब्द दुहराती जा रही थी: “तुम...तुम...तुम...”
मास्टर ने उसे दूर धकेलते हुए कहा, “मत रोओ, मार्गो, मुझे दुःखी न करो, मैं बहुत बीमार हूँ.” उसने खिड़की की चौखट को हाथों से पकड़ लिया, मानो अभी उसमें से कूदकर भाग जाना चाहता हो. बैठे हुए लोगों को देखकर उसने दाँत पीसे और चीखा, “मुझे डर लग रहा है, मार्गो! मुझे फिर भ्रम हो गया है!”
इन हिचकियों से मार्गारीटा का दम घुटने लगा, वह अपने शब्दों पर ज़ोर दे-देकर फुसफुसाई, “नहीं, नहीं, नहीं, किसी भी चीज़ से मत डरो! मैं तुम्हारे साथ हूँ न!”
कोरोव्येव ने हौले से, चुपके से मास्टर के निकट कुर्सी खिसका दी और वह उस पर बैठ गया, और मार्गारीटा घुटने टेककर मरीज़ से लिपटी रही और शांत हो गई. अपनी इस उत्तेजना में उसे पता ही नहीं चला कि कब उसके नग्न शरीर को काले रेशमी गाउन ने ढाँक लिया था. मरीज़ ने सिर झुकाया और बीमार, निराश आँखों से धरती की ओर देखने लगा.
“हाँ,” कुछ खामोशी के बाद वोलान्द ने कहा, “इसकी हालत बुरी कर दी है.” उसने कोरोव्येव को आज्ञा दी, “मेरे सिपहसालार, इस आदमी को कुछ पीने के लिए दो.”
मार्गारीटा ने थरथराती आवाज़ में मास्टर को मनाया, “पी जाओ, पी जाओ! तुम डर रहे हो? नहीं, नहीं, मेरा विश्वास करो, ये तुम्हारी मदद करेंगे.”
मरीज़ ने ग्लास लिया और उसमें रखी चीज़ पी गया, मगर उसका हाथ काँप रहा था और खाली ग्लास उसके पैरों के पास गिरकर टूट गया.
“अच्छा शगुन है! अच्छा शगुन है!” कोरोव्येव मार्गारीटा के कान में फुसफुसाया, “देखिए, इसके होश वापस आ रहे हैं!”
सचमुच, मरीज़ की नज़रों में अब उतना वहशीपन और भय नहीं था.
“मार्गो, क्या यह तुम हो?” चाँद के मेहमान ने पूछा.
“शक मत करो, यह मैं ही हूँ,” मार्गारीटा ने जवाब दिया.
“और!” वोलान्द ने आज्ञा दी.
दूसरा गिलास पीने के बाद मास्टर की आँखों की चमक और बुद्धिमत्ता लौट आई.
“अब, यह बात ही और है,” वोलान्द ने आँखें सिकोड़ते हुए कहा, “चलिए, अब बात करें. आप कौन हैं?”
“अब मैं कोई नहीं हूँ,” मास्टर ने जवाब दिया और एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान उसके चेहरे पर छा गई.
“आप अभी कहाँ से आए?”
“पागलखाने से. मैं...दिमागी मरीज़ हूँ,” आगंतुक ने जवाब दिया.
मार्गारीटा इन शब्दों को न सह सकी और फिर से रो पड़ी. फिर आँसू पोंछकर वह चीखी, “कितने भयानक शब्द हैं! भयानक! वह मास्टर है, महाशय, मैं आपको बता देती हूँ. उसे ठीक कीजिए, वह इसके लिए लायक है.”
“क्या आप जानते हैं, कि किससे बात कर रहे हैं?” वोलान्द ने आगंतुक से पूछा, “किसके पास आए हैं?”
“जानता हूँ,” मास्टर ने जवाब दिया, “पागलखाने में मेरा पड़ोसी था वह बच्चा, इवान बेज़्दोम्नी. उसने मुझे आपके बारे में बताया था.”
“क्या बात है, क्या बात है!” वोलान्द बोला, “मुझे इस युवक से पत्रियार्शी तालाब पर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. उसने मेरी मति ही फेर दी थी, यह कहकर कि मैं हूँ ही नहीं! मगर आपको तो विश्वास है न, कि यह वास्तव में मैं ही हूँ?”
“विश्वास करना ही पड़ेगा,” आगंतुक ने कहा, “मगर ज़्यादा अच्छा यही होगा कि आपको दिवास्वप्न का, कल्पना का चमत्कार मान लिया जाए. मैं माफी चाहता हूँ,” मास्टर ने कुछ ठहरकर आगे कहा.
“फिर क्या, अगर यह अच्छा है, तो ऐसा ही कीजिए,” वोलान्द ने सहृदयता से जवाब दिया.
“नहीं, नहीं,” मार्गारीटा ने डरकर कहा और उसने मास्टर का कन्धा पकड़कर उसे झकझोर दिया, “होश में आओ! तुम्हारे सामने सचमुच वही है!”
बिल्ला यहाँ भी बीच में टपक पड़ा, “और, मैं तो सचमुच भ्रम जैसा ही हूँ. चाँदनी रात में मेरे आकार-प्रकार पर गौर कीजिए,” बिल्ला चाँद की रोशनी में सरक गया और वह कुछ बोलने ही वाला था, कि उसे चुप रहने को कह दिया गया और तब वह इतना कहकर कि, “अच्छा, अच्छा चुप रहूँगा! मैं खामोश भ्रम बन जाऊँगा!” चुप हो गया.
“अच्छा, यह तो बताइए कि मार्गारीटा आपको मास्टर क्यों कहती है?” वोलान्द ने पूछ लिया.
वह हँस पड़ा और बोला, “इस कमज़ोरी को माफ़ किया जा सकता है. इसके उस उपन्यास के बारे में ऊँचे ख़याल हैं, जिसे मैंने लिखा था.
“किस बारे में है उपन्यास?”
“पोंती पिलात के बारे में.”
तभी मोमबत्तियों की लौ फिर से उछल कर, फड़फड़ाकर, प्रखर हो गई, मेज़ पर रखे बर्तन हिलने लगे, वोलान्द गड़गड़ाते हुए हँसा, मगर उसने इस हँसी से न तो किसी को डराया, और न ही आश्चर्यचकित किया. बेगेमोत ने न जाने क्यों तालियाँ बजा दीं.
“किस बारे में, किस बारे में? किसके बारे में?” वोलान्द ने हँसी रोककर पूछा, “तो अब? यह चौंकाने वाली बात है! आपको कोई और विषय नहीं मिला? लाइए, देखें,” वोलान्द ने अपने हाथ की हथेली ऊपर की ओर उठा दी.
“मुझे अफ़सोस है, कि मैं ऐसा नहीं कर सकता,” मास्टर ने जवाब दिया, “क्योंकि मैंने उसे अँगीठी में जला दिया है.”
“माफ़ कीजिए, मैं इस पर विश्वास नहीं करता,” वोलान्द बोला, “ऐसा हो ही नहीं सकता. पांडुलिपियाँ कभी जलती नहीं.” वह बेगेमोत की ओर मुड़ा और बोला, “अरे, बेगेमोत, उपन्यास इधर दो.”
बिल्ला फौरन कुर्सी से उछला, और सबने देखा कि वह पांडुलिपियों के एक ऊँचे ढेर पर बैठा है. सबसे ऊपर की पांडुलिपि उसने झुककर अभिवादन करते हुए वोलान्द की ओर बढ़ा दी. मार्गारीटा काँप गई और चीख पड़ी, घबराहट से उसकी आँखों में फिर से आँसू भर आए.
“यही है, पांडुलिपि! यही है!”
वह वोलान्द के सामने झुकी और प्रसन्नता से बोली, “सर्व शक्तिमान! सर्व शक्तिमान!”
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