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बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

Master aur Margarita-25.1


मास्टर और मार्गारीटा 25.1

न्यायाधीश ने किरियाफ के जूडा की रक्षा की कैसी कोशिश की

भूमध्य सागर से मँडराते अँधेरे ने न्यायाधीश की घृणा के पात्र उस शहर को दबोच लिया. मन्दिर को भयानक अन्तोनियो बुर्ज से जोड़ने वाले लटकते पुल ओझल हो गए, आकाश से एक अनंत चीर ने आकर घुड़सवारी के मैदान के ऊपर स्थित पंखों वाले देवताओं को, तोपों के लिए बने छेदों सहित हसमन के प्रासाद को, बाज़ारों, कारवाँ, सरायों, गलियों और तालाबों को ढाँक दिया. महान शहर येरूशलम खो गया, मानो उसका कभी अस्तित्व ही न रहा हो. सब कुछ निगल गया अँधेरा, जो येरूशलम और उसकी सीमाओं पर स्थित सभी जीवित प्राणियों को भयभीत कर रहा था. बसंत ऋतु के इस निशान माह के चौदहवें दिन के अंतिम प्रहर में सागर की ओर से एक विचित्र बादल उठा और सब कुछ जलमग्न कर गया.
वह अपने निर्मम प्रहार से गंजे पहाड़ को पस्त कर चुका था, जहाँ जल्लाद फाँसी चढ़ाए गए कैदियों के शरीर में शीघ्रता से भाले की नोक घुसेड़ रहे थे; वह येरूशलम के मन्दिर को सराबोर कर चुका था; धुआँधार बरस कर निचले शहर को लबालब भर चुका था. वह खिड़कियों से अन्दर घुस रहा था, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से लोगों को घरों में धकेल रहा था. वह अपनी नमी देने में कृपणता दिखाकर केवल प्रकाश ही दे रहा था. जैसे ही यह काला धुआँधार राक्षस आग बरसाता, उस घनघोर अँधेरे में मन्दिर का शिखर चमचमा उठता. मगर वह एक पल में ही फिर बुझ जाता, और मन्दिर अन्तहीन अँधेरे में खो जाता. कई बार वह उससे उबरता और फिर बार-बार डूब जाता. हर बार यह डूबना एक विनाशकारी कड़कड़ाहट साथ लाता.
कुछ अन्य प्रकाश शलाकाएँ, मन्दिर की सामने वाली पश्चिमी पहाड़ी पर स्थित हिरोद के प्रासाद को इस अनन्त अँधेरे से बुलातीं, और उसकी भयानक, नेत्रहीन स्वर्णिम प्रतिमाएँ, आकाश की ओर हाथ पसारे उड़ने लगतीं. मगर आकाश-ज्योति तुरंत लुप्त हो जाती, और सौदामिनी अपने चाबुक से उन प्रतिमाओं को वापस अन्धकार में खदेड़ देती. मूसलाधार बारिश की अकस्मात् झड़ी लग गई थी, और तब यह तूफ़ान बवण्डर में परिवर्तित हो गया. उस जगह, जहाँ दोपहर को, उद्यान में संगमरमरी बेंच के निकट न्यायाधीश और धर्म-गुरू ने वार्तालाप किया था, तोप से छूटे गोले जैसी भीषण आवाज़ के साथ सरू की शाख गिरी. पनीली धूल और ओलों के साथ स्तम्भों के नीचे बाल्कनी में टूटे हुए गुलाब, मैग्नोलिया के पत्ते, नन्ही-नन्ही टहनियाँ और बालू के कण उड़ने लगे. बवण्डर उद्यान को ज़मींदोज़ कर रहा था.
इस समय स्तम्भों के नीचे था सिर्फ एक व्यक्ति, और वह था न्यायाधीश.
अब वह कुर्सी पर बैठा नहीं था, अपितु एक नीची मेज़ के निकट पड़ी शय्या पर लेटा था. मेज़ पर खाने की चीज़ें और सुराहियों में शराब थी. दूसरी, खाली शय्या, मेज़ के दूसरी ओर पड़ी थी. न्यायाधीश के पैरों के पास रक्तवर्णी द्रव बिखरा था और पड़े थे टूटी हुई सुराही के टुकड़े. वह सेवक, जिसने तूफान से पहले मेज़ सजाकर उस पर पेय आदि रखा था, न जाने क्यों न्यायाधीश की नज़रों से घबरा गया; वह सोचने लगा कि कहीं कुछ कमी रह गई है और न्यायाधीश ने उस पर क्रोधित होकर सुराही फर्श पर पटककर तोड़ दी और बोला, चेहरे की ओर क्यों नहीं देखते, जब मुझे जाम देते हो? क्या तुमने कुछ चुराया है?
अफ्रीकी सेवक का काला मुख भूरा हो गया. उसकी आँखों में मौत जैसे भय की लहर तैर गई, वह काँप गया और दूसरी सुराही भी उसके हाथों से छूटते-छूटते बची, मगर न्यायाधीश का गुस्सा जितनी जल्दी आया था, उतनी ही जल्दी चला भी गया. अफ्रीकी सेवक झुककर सुराही के टुकड़े उठाने ही वाला था, कि न्यायाधीश ने हाथ के इशारे से उसे जाने के लिए कहा और सेवक भाग गया. इसीलिए द्रव वहीं बिखरा रह गया.
अब, बवण्डर उठने के बाद अफ्रीकी सेवक एक आले के निकट, जिसमें एक नतमस्तक नग्न स्त्री की श्वेत पाषाण प्रतिमा थी, छिपकर खड़ा हो गया ताकि बेमौके न्यायाधीश के सामने न पड़े और बुलाए जाने पर फौरन स्वामी की सेवा में उपस्थित हो सके.
इस तूफानी शाम को शय्या पर अधलेटा न्यायाधीश स्वयँ ही जाम में शराब डालकर लम्बे-लम्बे घूँट भर रहा था, बीच-बीच में वह डबल रोटी के टुकड़े मुँह में डाल लेता, मछली खाता, नींबू चूसता और फिर से शराब पीने लगता. न्यायाधीश मानो किसी की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था.
अगर पानी का गरजता शोर न होता, प्रासाद की छत को धमकाती बिजली की कड़क न होती, बाल्कनी की सीढ़ियों पर गिरते ओलों की खड़खड़ाहट न होती तो सुना जा सकता था कि न्यायाधीश अपने आपसे बातें करते हुए बड़बड़ा रहा है. और अगर आसमानी रोशनी की अस्थायी चमक किसी स्थिर प्रकाश में परिवर्तित हो जाती तो यह भी देखा जा सकता था कि शराब एवम् अनिद्रा के कारण सूजे हुए न्यायाधीश के चेहरे पर बेसब्री है और वह लाल डबरे में पड़े हुए दो सफ़ेद गुलाबों को नहीं देख रहा है, बल्कि निरंतर अपना चेहरा उद्यान की ओर मोड़ रहा है, वह किसी की इंतज़ार कर रहा है, बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है.
कुछ समय बीता और न्यायाधीश की आँखों के सामने की बारिश की झड़ी कुछ मद्धिम हुई. यह बवण्डर कितना ही भीषण क्यों न था, वह कमज़ोर पड़ ही गया. ओले अब नहीं गिर रहे थे. बिजली की चमक और कड़क अब रुक-रुक कर आ रही थी. येरूशलम पर अब चाँदी की किनार वाली गहरी बैंगनी चादर नहीं तनी थी, अपितु साधारण भूरे काले रंग का बादल तैर रहा था. तूफान मृत सागर की ओर बढ़ गया था.
अब बारिश की आवाज़ और बहते पानी की आवाज़ अलग-अलग सुनी जा सकती थी, जो उन सीढ़ियों पर बह रहा था, जहाँ से दिन में न्यायाधीश मृत्युदण्ड सुनाने के लिए चौक पर गया था. आख़िरकार, मौन हो गए फव्वारे की आवाज़ भी सुनाई दी. उजाला हो गया. पूर्व की ओर भागी जा रही भूरी चादर में अब नीली-नीली खिड़कियाँ बन गई थीं.
धीमी पड़ गई बारिश के शोर को चीरते हुए, दूर से न्यायाधीश तक तुरहियों की और सैकड़ों घोड़ों के दौड़ने की आवाज़ पहुँची. इसे सुनकर न्यायाधीश के शरीर में हलचल हुई. उसका चेहरा खिल उठा. फौजी टुकड़ी गंजे पहाड़ से लौट रही थी. आवाज़ से प्रतीत होता था कि वह उसी चौक से गुज़र रही है, जहाँ से मृत्युदण्ड सुनाया गया था.
आख़िर में न्यायाधीश को सीढ़ियों से होकर ऊपर की बाल्कनी तक आती उन कदमों की आहट सुनाई दी, जिसकी उसे प्रतीक्षा थी. न्यायाधीश ने गर्दन घुमाई, और उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं.
दो संगमरमरी सिंहों की आकृतियों के बीच पहले प्रकट हुआ टोपी वाला सिर, फिर एक पूरी तरह भीगा हुआ आदमी, जिसकी बरसाती भी उसके शरीर से चिपक गई थी. यह वही आदमी था, जिसने प्रासाद के अँधेरे कमरे में मृत्युदण्ड का ऐलान किए जाने से पहले न्यायाधीश से वार्तालाप किया था, और जो फाँसी के समय तिपाई पर बैठा एक टहनी से खेल रहा था.
टोपी वाला आदमी उद्यान का चौक पार करकेबाल्कनी के संगमरमरी फर्श पर आया और हाथ ऊपर उठाकर , मधुर आवाज़ में उसने लैटिन में कहा, न्यायाधीश की सेवा में स्वास्थ्य और खुशी की कामना!
 हे भगवान! पिलात चहका, तुम्हारे शरीर पर तो एक भी सूखा तार नहीं है! क्या बवण्डर था! हाँ? कृपा करके फौरन मेरे निकट आ जाओ. कपड़े बदलकर मुझे विस्तार से सब बताओ.
आगंतुक ने टोप उतारा. पूरे गीले सिर और माथे से चिपके बालों को मुक्त करते हुए उसके चिकने चेहरे पर शिष्ट मुस्कान दौड़ गई. वस्त्र बदलने से वह यह कहते हुए इनकार करने लगा कि बारिश उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.
 मैं कुछ सुनना नहीं चाहता, पिलात ने कहा और ताली बजाकर छिपे हुए सेवक को बुलाया. उसे आगंतुक की सेवा करने और तत्पश्चात् फौरन गर्म-गर्म कुछ खाने के लिए देने को कहा. बालों को सुखाने, कपड़े बदलने  और दूसरे, सूखे जूते पहनकर स्वयँ को ठीकठाक करने के लिए न्यायाधीश के मेहमान ने काफी कम समय लिया और बाल सँवारे, सूखी चप्पलें डाले और सूखे लाल फौजी कोट में वह शीघ्र ही बाल्कनी पर उपस्थित हो गया.
इस समय तक सूरज येरूशलम में वापस लौट चुका था और भूमध्य सागर में डूबने से पहले न्यायाधीश की घृणा के पात्र इस शहर पर अपनी अंतिम किरणें बिखेरते हुए बाल्कनी की सीढ़ियों पर सोना लुटा रहा था. फव्वारा पुनर्जीवित हो गया था और अपनी पूरी सामर्थ्य से गाने लगा था. कबूतर गुटर गूँ करते हुए रेत पर फुदक रहे थे; गीली रेत पर चोंच मारते हुए कुछ ढूँढ़ रहे थे. लाल द्रव का नन्हा तालाब सुखा दिया गया था, टूटी सुराही के टुकड़े उठा लिये गए थे और मेज़ पर गर्मागर्म माँस रख दिया गया था, जिसमें से भाप निकल रही थी.
 न्यायाधीश हुकुम कीजिए, मैं तैयार हूँ, आगंतुक ने मेज़ के निकट आते हुए कहा.
 मगर आप कुछ नहीं सुनेंगे, जब तक आप बैठ नहीं जाते और शराब नहीं पी लेते, बड़े प्यार से न्यायाधीश ने जवाब दिया और दूसरी शय्या की ओर इशारा किया.
आगंतुक लेट गया, सेवक ने उसके जाम में गाढ़ी लाल शराब डाली. दूसरे सेवक ने सावधानी से पिलात के कन्धे पर झुकते हुए न्यायाधीश का जाम भर दिया. इसके पश्चात् उसने इशारे से दोनों सेवकों को वहाँ से जाने के लिए कहा. जब तक आगंतुक खाता-पीता रहा, पिलात आँखें सिकोड़े शराब की चुस्कियाँ लेते अपने मेहमान को देखता रहा. पिलात के सामने उपस्थित व्यक्ति अधेड़ उम्र का था, प्यारा-सा गोल चेहरा, खूबसूरत नाक-नक्श, और मोटी फूली नाक वाला. बालों का रंग कुछ अजीब-सा था. अब सूखते हुए वे भूरे मालूम पड़ रहे थे. आगंतुक की नागरिकता के बारे में बताना भी कठिन था. उसके चेहरे की विशेष बात थी उस पर मौजूद सहृदयता की झलक, जिसे मिटाए जा रही थीं आँखें, या यूँ कहिए कि उससे वार्तालाप कर रहे व्यक्ति की ओर देखने का तरीका. अपनी छोटी-छोटी आँख़ों को वह अक्सर विचित्र, अधखुली, फूली-फूली पलकों के नीचे छिपाए रखता था. तब इन आँखों में निष्पाप चालाकी तैर जाती थी. शायद पिलात का अतिथि मज़ाकपसन्द था. मगर कभी-कभी वह इस हँसी की चमकती लकीर को बाहर खदेड़ देता और अपनी पलकें पूरी खोलकर अपने साथी पर अचानक उलाहना भरी दृष्टि डालता, मानो उसकी नाक पर उपस्थित कोई छिपा हुआ धब्बा ढूँढ़ रहा हो. यह सिर्फ एक ही क्षण चलता. दूसरे ही क्षण पलकें फिर झुक जातीं, आधी मुँद जातीं और उनमें फिर तरने लगती सहृदयता और चालाक बुद्धिमत्ता.
                                                 क्रमशः

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