मास्टर और मार्गारीटा – 18.5
“यह मेरी नहीं है,” वह तलवार दूर करते हुए, और फ़ौरन हैट पहनते हुए बुदबुदाया.
“क्या आप बिना तलवार के आए थे?” हैला को आश्चर्य हुआ.
रेस्तराँ वाला कुछ बुदबुदाते हुए तुरंत नीचे की ओर भागा. न जाने क्यों उसके सिर को कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा था और हैट में काफ़ी गर्मी लग रही थी; उसने उसे उतारा और डर के मारे उछलकर हौले से चीखा. उसके हाथ में मखमली टोप था, मैले कुचले मुर्गी के परों से सजा. रेस्तराँ वाले ने सलीब का निशान बनाया. तभी वह मखमल म्याऊँ-म्याऊँ कर उठा, वह काले नन्हे-से बिल्ले के रूप में बदल गया और फिर से अन्द्रेइ फोकिच के सिर पर उछलकर उसके गंजे सिर को अपने नाखूनों से खुरचने लगा. एक बदहवास चीख के साथ रेस्तराँ वाला नीचे की ओर भागने लगा और बिल्ली का बच्चा उसके सिर से गिरकर ऊपर की ओर लपका.
खुली हवा में पहुँचने के बाद, रेस्तराँ वाला तीर की तरह मुख्यद्वार की ओर लपका और उसने हमेशा के लिए उस शैतानी फ्लैट नं. 302 को राम-राम कहा.
सबको मालूम है कि आगे उसके साथ क्या हुआ. मोड़ पर पहुँचकर उसने वहशियों की भाँति इधर-उधर देखा, मानो कुछ ढूँढ़ रहा हो. एक मिनट बाद वह सड़क की दूसरी ओर स्थित दवाई की दुकान में था. जैसे ही उसने कहा, “कृपया मुझे बताइए...”
काउण्टर के दूसरी ओर खड़ी महिला चिल्ला पड़ी, “नागरिक! आपका तो पूरा सिर खुरच गया है!”
पाँच मिनट बाद रेस्तराँ वाले का सिर बैण्डेज में बँध गया. उसने पता लगाया कि यकृत रोगों के सबसे अधिक जाने-माने विशेषज्ञ हैं प्रोफेसर बर्नार्ड्स्की और कुज़्मिन. कौन नज़दीक है पूछने पर पता चला कि कुज़्मिन बस एक घर छोड़कर ही छोटे-से सफ़ेद बँगले में रहता है. वह खुशी से पागल हो गया और दो मिनट बाद वह उस छोटे-से सफ़ेद बँगले में था. यह घर बहुत पुराना था, मगर बहुत, बहुत आरामदेह था. रेस्तराँ वाले को याद आया कि पहले उससे टकराई एक बूढ़ी नर्स जिसने उसका हैट लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, मगर चूँकि हैट था ही नहीं, अतः नर्स खाली मुँह चलाती हुई न जाने कहाँ चली गई.
उसके स्थान पर कमान के नीचे, शीशे के पास एक मध्यम आयु की महिला दिखाई दी, जिसने छूटते ही कहा कि डॉक्टर के पास उन्नीस तारीख से पहले समय नहीं है. रेस्तराँ वाला सोच में पड़ गया कि क्या उपाय किया जाए. टटोलती हुई नज़र से कमान की ओर देखते हुए उसने ताड़ लिया कि डॉक्टर के कमरे के बाहर तीन आदमी इंतज़ार कर रहे हैं और वह फुसफुसाया, “मैं बस मरने ही वाला हूँ...”
उस औरत ने अविश्वास से रेस्तराँ वाले के पट्टियों वाले सिर को देखा और थोड़ा हिचकिचाकर बोली, “ओह, ऐसी बात है...” और उसने रेस्तराँ वाले को कमान से आगे जाने दिया.
इसी समय सामने का दरवाज़ा खुला और उसमें से सुनहरी फ्रेम का चश्मा दिखाई दिया, एप्रन पहनी महिला बोली, “नागरिकों, यह मरीज़ लाइन तोड़कर जाएगा.” रेस्तराँ वाला इधर-उधर देख भी नहीं पाया था, कि उसने अपने आपको प्रोफेसर कुज़्मिन के सामने पाया. इस लम्बे-से कमरे में कोई भी भयानक, अजीब, और दवाखाने जैसी बात नहीं थी.
“क्या शिकायत है?” मीठी आवाज़ में कुज़्मिन ने पूछा और उत्सुकता से पट्टियाँ बंधे सिर की ओर देखने लगा.
“अभी-अभी विश्वसनीय लोगों से सुनकर आया हूँ,” रेस्तराँ वाले ने वहशीपन से दीवार पर जड़े एक ग्रुप फोटो की ओर देखते हुए कहा, “कि अगली फरवरी में मैं यकृत के कैंसर से मरने वाला हूँ. विनती करता हूँ कि इसे रोकिए!”
प्रोफेसर कुज़्मिन जैसे बैठा था वैसे ही कुर्सी की आरामदेह पीठ से टिक गया.
“माफ कीजिए, मैं आपको समझ नहीं पा रहा...आप...डॉक्टर के पास गए थे? आपके सिर पर पट्टियाँ क्यों बँधी हैं?”
“कैसा डॉक्टर? कहाँ का डॉक्टर?...अगर आप उस डॉक्टर को देखते!” उसने दाँत किटकिटाए, “सिर की तरफ ध्यान मत दीजिए, उसका यहाँ कोई सम्बन्ध नहीं है,” रेस्तराँ वाले ने जवाब दिया, “सिर पर थूकिए, उसकी यहाँ ज़रूरत नहीं है. यकृत का कैंसर, रोकिए, प्लीज़!”
“मगर, यह आपसे किसने कहा?”
“उस पर विश्वास कीजिए,” रेस्तराँ वाले ने तैश में आकर कहा, “उसे मालूम है!”
“मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा,” कन्धे उचकाते हुए डॉक्टर ने अपनी कुर्सी टेबुल से दूर सरकाई और बोला, “उसे कैसे मालूम कि आप कब मरने वाले हैं? ख़ासकर तब, जबकि वह डॉक्टर नहीं है?”
“चार नम्बर के वार्ड में,” रेस्तराँ वाला बोला.
अब प्रोफेसर ने अपने मरीज़ की ओर देखा, उसके सिर की ओर देखा और उसकी गीली पैंट की ओर देखते हुए सोचने लगा, “इन्हीं की कमी थी! पागल!” उसने पूछा, “आप वोद्का पीते हैं न?”
“मैंने उसे कभी छुआ भी नहीं,” रेस्तराँ वाले ने जवाब दिया.
एक मिनट बाद वह कपड़ों के बिना, ठण्डी रेक्सिन जड़ी लम्बी मेज़ पर लेटा था, और डॉक्टर उसका पेट दबा रहा था. कहना पड़ेगा कि रेस्तराँ वाला खुश हो गया. प्रोफेसर ने दृढ़ता से कहा कि अभी, कम से कम इस क्षण, रेस्तराँ वाले के शरीर में कैंसर का कोई लक्षण नहीं है, मगर अगर ऐसी बात है...यानी अगर उसे डर है और किसी नीम हकीम ने उसे भयभीत कर दिया है, तो बेहतर है कि सारी जाँचें कर ली जाएँ...प्रोफेसर ने पर्ची पर कुछ लिखा, यह समझाने के लिए कि कहाँ जाना होगा, क्या ले जाना होगा. साथ ही एक और चिट्ठी भी लिखी प्रोफेसर बूरे को जो न्यूरोपैथोलोजिस्ट था. रेस्तराँ वाले को यह बताया गया कि उसकी दिमागी हालत बहुत बिगड़ी हुई है.
“कितनी है आपकी फीस, प्रोफेसर?” प्यार से मगर कम्पित आवाज़ में रेस्तराँ वाले ने अपनी जेब से नोटों वाला पैकेट निकालते हुए पूछा.
“जितना आप चाहें,” प्रोफेसर ने रूखा-सा जवाब दिया.
रेस्तराँ वाले ने तीस रूबल निकालकर मेज़ पर रख दिए, तत्पश्चात् अप्रत्याशित रूप से, मानो बिल्ली जैसे हाथों से हरकत करते हुए, उनके ऊपर खनखनाते हुए सिक्कों का अख़बार में लिपटा ढेर रख दिया.
“यह क्या है?” कुज़्मिन ने मूँछों पर ताव देते हुए पूछा.
“संकोच मत कीजिए, नागरिक प्रोफेसर,” रेस्तराँ वाला फुसफुसाया, “आपसे विनती करता हूँ – कैंसर को रोक दीजिए!”
“फ़ौरन अपना सोना उठाओ,” प्रोफेसर ने स्वाभिमानपूर्वक कहा, “बेहतर है, आप अपने दिमाग की ओर ध्यान दें. कल ही पेशाब की जाँच करवाइए, ज़्यादा चाय न पीजिए और नमक बिल्कुल मत खाइए.”
“सूप में भी नहीं?” रेस्तराँ वाले ने पूछ लिया.
“किसी में भी नहीं,” कुज़्मिन ने हुक्म दिया.
“ए...ख...” रेस्तराँ वाला निराशा से चहका, प्यार से प्रोफेसर की ओर देखते हुए उसने सोने के सिक्के उठा लिए और बिना मुड़े पीछे दरवाज़े की ओर सरकने लगा.
उस दिन प्रोफेसर के पास ज़्यादा मरीज़ नहीं थे और शाम ढलते-ढलते अंतिम मरीज़ भी चला गया. एप्रन उतारते हुए प्रोफेसर ने उधर देखा जहाँ रेस्तराँ वाला नोट रखकर गया था, और देखता क्या है, कि वहाँ एक भी नोट नहीं है, बल्कि ‘अब्राऊ दूर्सो’ वाईन की बोतलों के तीन लेबल पड़े हैं.
“शैतान जाने क्या है यह सब!” एप्रन ज़मीन से छूते हुए कागज़ के टुकड़ों को हाथ में लेते हुए कुज़्मिन बड़बड़ाया – “वह न केवल पागल था अपितु बदमाश भी था! मगर मैं समझ नहीं रहा कि उसे मुझसे क्या चाहिए था? क्या पेशाब की जाँच के लिए सिफारिशी पर्चा? ओह! वह मेरा ओवर कोट ले गया!” वैसे ही एक हाथ में एप्रन पहने वह बाहर से प्रवेश-कक्ष की ओर गया और चिल्लाया, “क्सेनिया निकितीश्ना! देखिए, सारे ओवरकोट सही सलामत हैं?”
पता चला कि सभी ओवरकोट सही-सलामत हैं. मगर जब प्रोफेसर एप्रन उतारकर टेबुल की ओर वापस आया तो उसकी नज़र ठिठककर रह गई और वह बुत बन गया. उस जगह, जहाँ बोतल के लेबल पड़े थे, एक नन्हा-सा काला, बदशक्ल बिल्ली का बच्चा सामने पड़ी तश्तरी से दूध पी रहा था.
“यह क्या है पता तो चले? यह तो...” उसने महसूस किया कि उसका सिर ठण्डा पड़ता जा रहा है.
प्रोफेसर की हल्की और असहाय चीख सुनकर क्सेनिया निकितीश्ना भाग कर आई और उसे सांत्वना देने लगी, यह कहकर कि शायद कोई मरीज़ बिल्ली का बच्चा छोड़ गया है, प्रोफेसरों के यहाँ अक्सर ऐसा होता रहता है.
“शायद गरीब होगा,” क्सेनिया निकितीश्ना ने समझाया, और हमारे यहाँ, बेशक...”
वे सोचने लगे कि कौन इसे फेंककर जा सकता है. पेट में अल्सर वाली बुढ़िया पर दोनों का शक गया.
“वही, बेशक,” क्सेनिया निकितीश्ना ने कहा, “उसने सोचा होगा, मुझे तो मरना ही है, और बिल्ली के बच्चे पर उसे तरस आ गया होगा.”
“मगर सोचिए,” कुज़्मिन चिल्लाया, “फिर दूध! वह भी साथ लाई? तश्तरी भी!”
“उसने पैकेट में दूध लाया होगा, यहाँ आकर तश्तरी में डाल दिया,” क्सेनिया निकितीश्ना ने समझाया.
“कुछ भी कारण रहा हो, इस बिल्ली के बच्चे को और तश्तरी को यहाँ से हटाइए,” कुज़्मिन ने कहा और वह क्सेनिया निकितीश्ना के साथ दरवाज़े तक आया. जब वह वापस लौटा तो तस्वीर बदल चुकी थी.
खूँटी पर एप्रन टाँगते हुए, प्रोफेसर ने आँगन में खिलखिलाने की आवाज़ सुनी; उसने बाहर देखा, ज़ाहिर है, बुत बन गया. आँगन में केवल एक कुर्ता पहने एक औरत सामने वाले बरामदे की तरफ़ भागी जा रही थी. प्रोफेसर को मालूम था कि वह मारिया अलेक्सान्द्रोव्ना थी. साथ में एक नौजवान भी खिलखिला रहा था.
“क्या बात है?” कुज़्मिन ने नफरत से कहा.
तभी दीवार के पीछे, प्रोफेसर की बिटिया के कमरे में पियानो पर ‘अलिलुय्या...’ गीत बज उठा, और प्रोफेसर की पीठ के पीछे चिड़िया की चहचहाहट सुनाई दी. वह मुड़ा तो देखता क्या है, मेज़ पर एक मोटी चिड़िया फुदक रही थी.
‘हुँ...चुपचाप...’ प्रोफेसर ने सोचा, ‘वह कमरे में उड़कर आ गई, जब मैं खिड़की से हटा. सब ठीक है,’ प्रोफेसर ने अपने आपको समझाया, यह महसूस करते हुए कि सब ठीक नहीं है, सब गड़बड़ है, इसी चिड़िया के कारण. उसकी ओर ध्यान से देखते हुए प्रोफेसर को लगा कि यह साधारण चिड़िया नहीं है. वह दुष्ट चिड़िया दाहिनी टाँग पर झुकते हुए गिर रही थी, पंख फड़फड़ा रही थी, गर्दन मोड़ रही थी – यानी पियानो की धुन पर यूँ नाच रही थी जैसे शराबखाने के बाहर शराबी. बदतमीज़ी कर रही थी, बेशर्मी से प्रोफेसर की ओर देखते हुए आँख मार रही थी. कुज़्मिन का हाथ टेलिफोन पर पड़ा और वह अपने सहपाठी बूरे को फोन करने लगा, यह पूछने के लिए कि साठ साल की उमर में ऐसी चिड़ियों का क्या मतलब होता है, खासकर तब, जब सिर अचानक चक्कर खाने लगे?
इस दौरान चिड़िया बड़ी-सी दवात पर बैठ गई, जो प्रोफेसर को उपहार में मिली थी, उसमें बीट कर दी (मैं मज़ाक नहीं कर रहा), फिर ऊपर उड़कर हवा में तैर गई, एक झटके के साथ सन् 1894 में युनिवर्सिटी से निकले स्नातकों की तस्वीर फोड़ दी और फिर खिड़की से बाहर उड़ गई. प्रोफेसर ने टेलिफोन का नम्बर बदल दिया और बूरे के बदले जोंक बेचने वाले ऑफिस को फोन करके कह दिया, “मैं प्रोफेसर कुज़्मिन बोल रहा हूँ. मेरे घर पर फौरन जोंके भेज दीजिए.”
रिसीवर रखकर जैसे ही वह पीछे मुड़ा, प्रोफेसर फिर सकते में आ गया. टेबुल के पीछे नर्स जैसा रूमाल सिर पर टाँके एक महिला हाथ में बैग लिए बैठी थी, जिस पर लिखा था, ‘जोंके’. उसके मुँह की ओर देखते ही प्रोफेसर चीख पड़ा. वह आदमी का चेहरा था, टेढ़ा, कान तक मुँह से निकलता एक दाँत था. उस महिला की आँखें बेजान थीं.
“ये पैसे मैं ले लूँगी,” मर्दों-सी आवाज़ में वह नर्स बोली, “इन्हें यहाँ पड़े रहने की ज़रूरत नहीं है. फिर उसने पंछियों जैसी हथेली से लेबल उठा लिए और वह हवा में विलीन होने लगी.
दो घण्टे बीत गए, प्रोफेसर अपने शयन-कक्ष में पलंग पर बैठा था. उसकी भँवों पर, कानों के पीछे, गर्दन पर जोंकें चिपकी हुई थीं. कुज़्मिन के पैरों के पास जो मोटे रेशमी कम्बल के नीचे थे बूढ़ा, सफ़ेद मूँछों वाला प्रोफेसर बूरे बैठा था. वह बड़ी सहानुभूति से कुज़्मिन की ओर देख रहा था और उसे सांत्वना दे रहा था, कि यह सब बकवास है. खिड़की से रात झाँक रही थी.
मॉस्को में उस रात और क्या-क्या अजीब, ख़ौफ़नाक घटनाएँ हुईं, हमें मालूम नहीं और न ही हम जानना चाहेंगे, क्योंकि हमें इस सत्य कथा के दूसरे भाग में जाना है. मेरे साथ, पाठकगण!
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