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गुरुवार, 19 जनवरी 2012

Master aur Margarita-13.3


मास्टर और मार्गारीटा -13.3
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वह हाथों में घिनौने, उत्तेजित करने वाले पीले फूल लिए जा रही थी. शैतान जाने उन फूलों का क्या नाम है मगर न जाने क्यों वे मॉस्को में ही पहले-पहल दिखाई देते हैं. ये फूल उसकी काली रंग की हल्की पोशाक पर बिल्कुल अलग-थलग नज़र आ रहे थे. वह पीले फूल लिए चल रही थी! बुरा रंग है. त्वेर्स्काया रास्ते से वह गली में मुड़ी और उसने एकदम पलटकर मुझे देखा. त्वेर्स्काया रास्ता मालूम है न? त्वेर्स्काया रास्ते पर सैंकड़ों लोग चल रहे थे, मगर मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि उसने सिर्फ मुझे देखा. और देखा, उत्तेजना से नहीं, कुछ पीड़ा से. मुझे उसके सौन्दर्य ने उतना घायल नहीं किया जितना उसकी आँखों में छिपे असाधारण, अनचीन्हे अकेलेपन ने.

 उस पीले रंग के कारण मैं भी गली में मुड़ गया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा. हम उस आड़ी-टेढ़ी उकताहट भरी गली में चुपचाप चले जा रहे थे; मैं एक किनारे पर और वह दूसरे किनारे पर. और सोचिए, गली में एक पंछी तक नहीं था. मैं बेचैन था, क्योंकि मुझे महसूस हो रहा था कि मेरा उसके साथ बात करना ज़रूरी था. और मैं परेशान था कि मैं एक भी शब्द कह नहीं पाऊँगा और वह चली जाएगी, मैं उसे फिर कभी नहीं देख सकूँगा.
 और मुलाहिज़ा फ़रमाइए, वह एकदम बोली:
आपको मेरे फूल अच्छे लगे?
 मुझे अच्छी तरह याद है कि उसकी आवाज़ कैसे गूँजी थी; थोड़ी भारी, रुक-रुककर, उसकी गूँज गली में फैल गई और गन्दी पीली दीवार से टकराकर वापस लौट आई. मैं जल्दी से उसके पास जाते-जाते बोला, नहीं!
 उसने अचरज से मेरी ओर देखा, और मैं फ़ौरन अप्रत्याशित रूप से साफ-साफ समझ गया कि यही वह औरत है जिसे मैं पूरी ज़िन्दगी प्यार करता रहा हूँ! यह हुई न बात, हाँ? शायद तुम कहोगे, पागल है?
 मैं कुछ नहीं कह रहा, इवान ने उत्तर दिया और आगे बोला, आगे बोलो न प्लीज़!
मेहमान बताता रहा.
 हाँ, उसने अचरज से मेरी ओर देखा और फिर पूछा, क्या आपको फूल पसन्द नहीं हैं?
उसकी आवाज़ में, मेरे ख़याल से, आक्रामकता थी. मैं उसके साथ-साथ चलता रहा, उसके कदम से कदम मिलाकर और मुझे ज़रा भी झिझक नहीं लग रही थी.
 नहीं, फूल तो पसन्द हैं, मगर ऐसे वाले नहीं, मैंने कहा.
 तो फिर कैसे?
 मुझे गुलाब पसन्द हैं.
 मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने ऐसा क्यों कहा, क्योंकि वह झेंपती हुई मुस्कुराई और उसने फूल नाली में फेंक दिए. मैं हैरान हो गया. मैं फूल चुनकर उसके हाथ में देने लगा मगर उसने हँसकर उन्हें दूर कर दिया. फूल लिए मैं ही चलता रहा.
 इस तरह ख़ामोश हम तब तक चलते रहे, जब तक उसने वे फूल मेरे हाथ से खींचकर फुटपाथ पर न फेंक दिए. इसके बाद उसने अपने काले खूबसूरत दस्ताने वाले हाथ में मेरा हाथ ले लिया और हम साथ-साथ चलने लगे.
 फिर? इवान ने पूछा, कृपया सब कुछ बताओ, कुछ भी मत छोड़ना.
 फिर? मेहमान ने उलटकर सवाल किया, फिर क्या हुआ, आप ख़ुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं. उसने आँखों मे अचानक आए आँसुओं को दाहिने हाथ से पोंछा और कहने लगा हमारे सामने जैसे मूर्तिमन्त प्यार उछलकर प्रकट हो गया; जैसे किसी सुनसान गली में ज़मीन से कोई खूनी उछलकर आ जाता है, उसने हम दोनों को चौंका दिया!
 जैसे बिजली चौंकाती है, जैसे फिनिश चाकू चौंकाता है!
 बाद में उसने मुझे बताया कि ऐसी अचानक वाली बात नहीं थी, वास्तव में हम दोनों सदियों से एक-दूसरे से प्यार करते रहे हैं, एक-दूसरे को जाने बगैर, देखे बगैर. वह किसी और आदमी के साथ रहती रही और मैं भी...उस...क्या नाम...
 किसके साथ? बेज़्दोम्नी ने पूछा.
 उसी...ओह, वही...अं... मेहमान उँगलियाँ चटख़ाते हुए बोला.
 क्या तुम्हारी शादी हो गई थी?
 हाँ, हाँ, तभी तो मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ...शादी हुई...वारेन्का से, या मानेच्का से, नहीं, वारेन्का से...धारियों वाली पोशाक पहने...म्युज़ियम...मगर मुझे याद नहीं आ रहा.
 फिर वह बोली कि हाथों में पीले फूल लिए उस दिन वह इसलिए निकली थी, जिससे मैं उसे पहचान जाऊँ, और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो वह ज़हर खाकर मर जाती, क्योंकि उसका जीवन एकदम खोखला है.
 हाँ, प्यार ने एक पल में हमें चौंका दिया. मैं यह बात उसी दिन एक घण्टॆ बाद, समझ गया, जब हम बिना किसी ओर ध्यान दिए क्रेमलिन की नदी किनारे वाली दीवार के पास पहुँच गए.
 हम इस तरह बातें कर रहे थे, मानो कल ही बिछड़े हों, जैसे कि एक दूसरे को बरसों से जानते हों. दूसरे दिन फिर वहीं, मॉस्को नदी के किनारे, मिलने का वादा करके हम बिदा हुए और वादे के मुताबिक मिले. मई का सूरज हमें आलोकित करता. और शीघ्र ही वह औरत मेरी बीवी बन गई, खुले आम नहीं, गुप्त रूप से.
 वह मेरे पास रोज़ आती, मैं सुबह से उसका इंतज़ार करता रहता. अपनी बेचैनी छिपाने के लिए मैं टेबुल पर पड़ी चीज़ें इधर-उधर करता रहता. दस मिनट पहले ही मैं खिड़की पर बैठ जाता और दरवाज़े की आहट लेता रहता. और देखिए तो: मेरी उससे मुलाक़ात होने से पहले हमारे आँगन में शायद ही कभी कोई आता, साफ़-साफ़ कहूँ तो कोई भी नहीं अता था; और अब, मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो पूरा शहर ही हमारे आँगन की ओर दौड़ा चला आ रहा है. दरवाज़ा बजता, दिल धड़कता, मगर हाय, मेरी खिड़की से लगे गलियारे में नज़र आते एक जोड़ी गन्दे जूते. चाकू तेज़ करने वाला. किसे चाहिए चाकू तेज़ करने वाला? क्या तेज़ करना है? कहाँ के चाकू? कैसे चाकू?
 वह दरवाज़े से एक ही बार प्रविष्ट होती, मगर दिल इससे पहले दसियों बार धड़क चुका होता. मैं झूठ नहीं बोल रहा. फिर जब उसके आने का समय होता और घड़ी बारह बजाती, दिल तब तक धड़कता रहता, जब बिना कोई आहट किए, ख़ामोश, एक जोड़ी काले, ख़ूबसूरत स्टील के बकल जड़े जूते मेरी खिड़की के सामने से गुज़रते.
 कभी-कभी वह दूसरी खिड़की के पास अपने जूते की नोक से ठक-ठक करती. मैं उसी क्षण खिड़की के पास लपककर आ जाता. जूता गायब हो जाता; काली, उजाले को रोकती मखमल लुप्त हो जाती और मैं उसके लिए दरवाज़ा खोलने लगता.
 हमारे प्यार की किसी को भनक तक न मिली, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, हालाँकि ऐसा कभी होता नहीं है. मगर इस बारे में न तो उसके पति को पता चला, न ही परिचितों को. उस पुराने मकान में जिसके तहख़ाने में मैं रहता था, लोगों को सिर्फ इतना पता था कि मेरे पास कोई महिला आती है, मगर उसका नाम कोई नहीं जानता था.
 मगर वह है कौन?
मेहमान ने इशारे से बताया कि वह कभी भी किसी को भी इस बारे में नहीं बताएगा. उसने आप बीती सुनाना जारी रखा.
इवान समझ गया कि मास्टर और वह अनजान महिला एक-दूसरे को इतना प्यार करते थे कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना असम्भव था. इवान अपनी आँखों के सामने मानो तहख़ाने वाले दो कमरे देख रहा था जिनमें लिली के पेड़ और अहाते की दीवारों के कारण हमेशा धुँधलका छाया रहता था; महोगनी का पुराना फर्नीचर, अलमारी, उस पर घड़ी, जो हर तीस मिनट बाद घण्टे बजाती थी, और किताबें फर्श से लेकर अर्श तक और छोटी-सी अँगीठी.
इवान को यह भी पता चला कि उसका मेहमान एवम् उसकी रहस्यमय पत्नी अपने सम्बन्धों के आरम्भ में ही समझ गए थे कि उस दिन त्वेर्स्काया रास्ते पर और बाद में गली में खींचती उन्हें किस्मत ही ले गई थी और यह भी कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने हैं.
मेहमान की कहानी से इवान को मालूम हुआ कि वे प्रेमी अपना दिन किस तरह बिताते थे. जैसे ही वह आती, एप्रन पहन लेती और उस नन्हे से कमरे में जहाँ उस बेचारे मरीज़ का प्रिय वाश-बेसिन था, लकड़ी की मेज़ पर केरोसीन का स्टोव जलाकर नाश्ता बना लेती. फिर सामने वाले कमरे में टॆबुल पर नाश्ता सजा देती. जब मई के महीने में बिजली कड़कती, मूसलाधार बारिश होती और उनकी धुँधली पड़ गई खिड़कियों की बगल से होकर पानी झर-झर बहता हुआ इस आरामदेह नीड़ में घुसने की कोशिश करता तो प्रेमी अँगीठी जलाते और उसमें आलू भूनते. आलुओं से भाप निकलती, उनके काले पड़ गए छिलके उँगलियों को भी काला करते. तहख़ाने में हँसी खनकती; बारिश के बाद बाग में पेड़ अपनी गीली टहनियों को उतार फेंकते. बारिश के बाद उमस भरी गर्मी आई और फूलदान में काफ़ी इंतज़ार के बाद दोनों के पसन्दीदा गुलाब सजने लगे.
वह, जिसने अपना नाम मास्टर बताया था, लिखता रहता और वह, बालों में अपनी पतली-पतली उँगलियाँ डाले लिखे हुए पन्ने पढ़ती रहती और पढ़ने के बाद वह यह टोपी बनाने लगती. कभी-कभी वह अलमारी के निचले खाने के सामने उकडूँ बैठ जाती या फिर ऊपरी खाने के सामने टेबुल पर चढ़कर खड़ी हो जाती और कपड़े से सैकड़ों किताबों की धूल भरी जिल्दें पोंछती. वह उसकी प्रसिद्धि की कामना करती, उसे काम करने की प्रेरणा देती और तभी उसने उसे मास्टर कहना शुरू किया. वह जूडिया के पाँचवें न्यायाधीश के बारे में लिखे जाने वाले शब्दों का इंतज़ार करती रहती, ज़ोर-ज़ोर से उपन्यास के अनेक वाक्य दुहराती जो उसे बेहद पसन्द थे और कहती कि यह उपन्यास उसकी जान है.
                                                    क्रमशः

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