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शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

Master aur Margarita-16.2


मास्टर और मार्गारीटा 16.2
हम कह चुके हैं कि पैदल सैनिकों के घेरे के बाहर एक भी व्यक्ति नहीं था मगर यह पूरी तरह सच नहीं है. एक व्यक्ति तो था वहाँ, लेकिन वह सबको दिखाई नहीं दे रहा था. वह उस तरफ़ नहीं था जहाँ से पहाड़ पर जाने के लिए खुला रास्ता था, और जहाँ से वध करने का दृश्य स्पष्ट दिखाई दे सकता था. बल्कि वह था उत्तरी छोर पर, वहाँ, जहाँ से पहाड़ पर चढ़ना कठिन था; धरती ऊबड़-खाबड़ थी; जहाँ कगारें और कपारें थीं; जहाँ एक कपार में, आकाश द्वारा शापित सूखी धरती से किसी तरह चिपककर जीने की कोशिश करता हुआ एक अंजीर का बीमार-सा पेड़ खड़ा था.   
इसी बेसाया पेड़ के नीचे यह अकेला दर्शक जमकर बैठा था. मृत्युदण्ड से उसे कोई लेना देना नहीं था. मगर वह मृत्युदण्ड के आरम्भ से ही, यानी चार घण्टों से वहीं था. सच है कि वध का दृश्य देखने के लिए उसने सबसे बुरी जगह चुनी थी. यहाँ से भी वध-स्तम्भ दिखाई दे रहे थे; सैनिकों के घेरे से परे अंगरक्षक के सीने पर दो चमकते बिन्दु दिखाई दे रहे थे. यह काफी था उस आदमी के लिए जो सबसे बचने की कोशिश कर रहा था.
मगर चार घण्टे पहले, मृत्युदण्ड के आरम्भ में, यह आदमी कुछ ऐसी हरकतें कर रहा था, कि उसकी तरफ किसी का भी ध्यान जा सकता था, शायद इसीलिए अब उसने अपना व्यवहार बदल दिया था और अब वह अकेला था.
तब, जैसे ही जुलूस पहाड़ की चोटी पर पहुँचा, वह वहाँ बौखलाता दाखिल हुआ, जैसे देर से आने वाला आदमी करता है. वह गहरी-गहरी साँसें ले रहा था और चल नहीं रहा था अपितु भाग रहा था. वह पहाड़ की चोटी पर जाना चाहता था, लोगों को धक्के मार रहा था, मगर जब उसने देखा कि सैनिकों का घेरा उसका मार्ग रोक रहा है, तो उसने बिना उन चेतावनीपूर्ण चीखों पर ध्यान दिए, घेरा तोड़कर ऊपर, वध-स्तम्भ के बिल्कुल निकट पहुँचने की बचकाना कोशिश की, जहाँ कैदियों को गाड़ी से उतारा जा चुका था. उसे भाले के दूसरे सिरे की मार पड़ी और वह चिल्लाते हुए उछलकर सिपाहियों से दूर छिटक गया.वह दर्द से नहीं, निराशा से चीखा था. मारने वाले सैनिक को उसने उदासीनता से देखा, जैसे उसे शारीरिक पीड़ा का अहसास भी न हुआ हो.
खाँसते हुए, हाँफ़ते हुए, सीने को पकड़कर वह पहाड़ की पिछली ओर भागा, इस आशा में कि उत्तरी भाग में उसे कोई अन्दर जाने का रास्ता मिल जाए. मगर तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी. घेरा बन्द हो चुका था. और दर्द से विद्रूप चेहरा लिए उस व्यक्ति को गाड़ियों के निकट पहुँचने का अपना इरादा बदल देना पड़ा, जहाँ से अब वध-स्तम्भ उतारे जा रहे थे. इन कोशिशों से इसके सिवा कुछ और हासिल होने वाला नहीं था कि उसे पकड़ लिया जाता. आज के दिन जेलखाने में बन्द रहने का उसका कोई इरादा नहीं था.
अतः वह पिछले भाग की ओर चला गया जहाँ काफ़ी ख़ामोशी थी. वहाँ कोई उसे तंग नहीं कर सकता था.
अब यह काली दाढ़ी वाला, धूप और अनिद्रा से लाल और जलती हुई आँखों से देखता हुआ आदमी पत्थर पर बैठकर दुःखी हो रहा था. वह आहें भरते हुए कभी भटकने के कारण जीर्ण और नीले से मटमैला हो चुका अपना कोट खोल लेता तो कभी पसीने से भरी, भाले से ज़ख़्मी छाती खोल देता था; कभी वह असहनीय वेदना से आसपास की ओर नज़र दौड़ाता, उन तीन चीलों को देखते हुए जो शीघ्र ही प्राप्त होने वाले भोजन की आशा में चक्कर लगा रही थीं; या फिर पीली पड़ चुकी धरती को देखता जिस पर कुत्ते का आधा सड़ा शरीर पड़ा था, जिसके चारों ओर छिपकलियाँ भाग रही थीं.
उस आदमी का दर्द इतना अधिक था कि कभी-कभी वह अपने आप से बड़बड़ाने लगता था.
 ओह, कितना बेवकूफ हूँ मैं! वह पत्थर पर आगे-पीछे झूलते हुए और नाखूनों से अपनी काली छाती को खुजलाते हुए बड़बड़ाया, बेवकूफ़, बेवकूफ़, औरत, कायर! आदमी नहीं, मुरदार हूँ!
उसने चुप होकर सिर झुका लिया और लकड़ी की सुराही से पानी पीकर कुछ ताज़ा महसूस किया. अब वह कोट के नीचे छिपे चाकू को छू लेता था, या अपने सामने पत्थर पर कलम और दवात की बगल में पड़े ताड़पत्र को छू लेता था.
इस ताड़पत्र पर लिखा गया था:
 समय भाग रहा है, और मैं, लेवी मैथ्यू गंजे पहाड़ पर हूँ, मृत्यु अभी आई नहीं है!
आगे लिखा था:
 सूरज डूब रहा है, अंत अभी नहीं.
अब लेवी मैथ्यू ने निराश होकर लिखा:
 हे भगवान! उसे क्यों इतना तड़पा रहे हो? उसे जल्दी मुक्ति दो.
इतना लिखकर वह फिर कराहा और अपना सीना खुजाने लगा.
लेवी की बदहवासी का कारण वह दुर्भाग्य था, जिसने उसे और येशू को दबोच रखा था. वह उस गलती के लिए भी पछता रहा था जो उससे हो गई थी.परसों दोपहर को येशू और लेवी येरूशलम के पास बिफानी में एक माली के घर पर मेहमान थे, जो येशू के उपदेशों से बहुत प्रभावित था. पूरी सुबह दोनों मेहमान मेज़बान को बगीचे के काम में मदद कर रहे थे और वे शाम को येरूशलम जाने वाले थे. मगर न जाने क्यों दोपहर को येशू शीघ्र ही अकेला ही चला गया यह कहकर कि उसे शहर में ज़रूरी काम है. बस, यही पहली गल्ती थी लेवी मैथ्यू की. उसने येशू को अकेले क्यों जाने दिया!
मैथ्यू शाम को भी येरूशलम नहीं जा सका. उसके पूरे बदन में भयानक खुजली होने लगी. उसे तीव्र ज्वर हो गया, शरीर मानो आग में जल रहा था, दाँत किटकिटा रहे थे, वह हरएक क्षण बाद पानी माँग रहा था, वह हिल भी नहीं सकता था.वह माली के बरामदे में बिछे बिस्तर पर लुढ़क गया. शुक्रवार की सुबह ही उसकी आँखें खुल सकीं, जब उसकी बीमारी उसे उतने ही आश्चर्यजनक ढंग से छोड़ गई, जैसे वह आई था. हालाँकि वह कमज़ोर था, उसके पैर भी लड़खड़ा रहे थे, मगर फिर भी भावी दुर्भाग्य की आशंका से ग्रस्त वह मेज़बान से विदा लेकर येरूशलम चला गया. वहाँ उसने देखा कि उसकी आशंका सही थी. अनर्थ हो गया था. लेवी जाकर भीड़ में खड़ा हो गया. उसने न्यायाधीश को मृत्युदण्ड की घोषणा करते हुए सुना.
जब अभियुक्तों को पहाड़ पर ले जाया जा रहा था, तब लेवी मैथ्यू उत्सुक लोगों की भीड़ के साथ भागता रहा. वह कोशिश कर रहा था कि किसी तरह येशू जान जाए कि वह, यानी लेवी, यहीं है उसके पास, उसने अंतिम यात्रा पर भी उसका साथ छोड़ा नहीं है. वह प्रार्थना कर रहा है कि येशू की पीड़ा शीघ्रातिशीघ्र ख़त्म हो जाए, उसे जल्दी से मौत आ जाए. मगर येशू दूर कहीं अनन्त की ओर नज़रें गड़ाए था, वह लेवी को देख न सका.
जब यह जुलूस क़रीब आधा मील चल चुका तभी मैथ्यू के दिमाग में, जिसे सैनिक श्रृंखला के बिल्कुल निकट लोग धक्के मार रहे थे, वह सीधा-साधा मगर लाजवाब ख़याल कौंध गया. फ़ौरन उसने अपने आप को कोसा कि यह बात उसने पहले कैसे नहीं सोची. सैनिकों की श्रृंखला सघन नहीं थी. दो-दो सैनिकों के बीच में कुछ जगह थी. अगर होशियारी से काम किया जाए तो वह उनके बीच में से खिसककर कैदियों की गाड़ी तक जाकर येशू के पास जा सकता है. तब येशू की पीड़ाओं का अंत हो जाएगा.

                                              क्रमशः

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