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गुरुवार, 26 जनवरी 2012

Master aur Margarita-16.1


मास्टर और मार्गारीटा 16.1
मृत्युदण्ड

गंजे पहाड़ के पीछे सूरज ढलने लगा था और इस पहाड़ को दुहरी सुरक्षा पंक्तियों ने घेर रखा था.
वह घुड़सवार दस्ता, जिसने दोपहर को न्यायाधीश का मार्ग रोक दिया था, तेज़ी से शहर के खेव्रोव्स्की द्वार की ओर बढ़ा जा रहा था. उसके लिए रास्ता साफ़ था. पैदल सैनिक सड़क के दोनों किनारों पर लोगों को, टट्टुओं को और ऊँटों को धकेलते जा रहे थे और यह दस्ता आसमान तक धूल उड़ाता उस जगह पहुँचा जहाँ दो रास्ते मिलते थे: दक्षिणी मार्ग जो बेथलेहेम शहर की ओर जाता था, और उत्तरी-पश्चिमी मार्ग, जो याफ़ा को जाता था. घुड़सवार दस्ता उत्तर-पश्चिमी मार्ग की ओर लपका. इस रास्ते से भी उत्सव के लिए येरूशलम जाने वाली सभी गाड़ियों एवम् यात्रियों को हटाया जा चुका था. भक्तों की भीड़ रास्ते के दोनों ओर पैदल सैनिकों के पीछे खड़ी थी; वे घास में गड़े अपनी धारियों वाले तम्बुओं से बाहर आ गए थे. एक किलोमीटर जाने के बाद इस दस्ते ने विद्युत गति से चलने वाली टुकड़ी को भी पीछे छोड़ दिया. एक और किलोमीटर पार करने के बाद वह गंजे पहाड़ तक पहुँच गया. यहाँ पहुँचकर उसने फुर्ती से पहाड़ को चारों ओर से घेर लिया. केवल याफ़ा से आने के लिए एक छोटा-सा स्थान छोड़ दिया.
कुछ देर बाद इस दस्ते के पीछे-पीछे एक और दस्ता वहाँ आया. पहाड़ पर क़रीब एक फर्लांग चढ़कर वह भी मुकुट के आकार में पहाड़ पर बिखर गया.
अंत में एक टुकड़ी मार्क क्रिसोबोय के नेतृत्व में वहाँ पहुँची. सड़क के किनारे-किनारे दो पंक्तियों में सैनिक चल रहे थे. उनके बीच ख़ुफ़िया दस्ते के साथ गाड़ी पर तीनों कैदी थे, जिनके गले में सफ़ेद तख़्तियाँ थीं. हर तख़्ती पर अरबी और ग्रीक भाषाओं में लिखा था डाकू और क्रांतिकारी. कैदियों की गाड़ी के पीछे थीं दूसरी गाड़ियाँ जिन पर रखे थे वध-स्तम्भ, रस्सियाँ, फावड़े, बाल्टियाँ और कुल्हाड़ियाँ. इन गाड़ियों में सवार थे छह जल्लाद. उनके पीछे घोड़ों पर सवार चले जा रहे थे अश्वारोही दस्ते का प्रमुख मार्क, येरूशलम के मन्दिर सुरक्षा दस्ते का नायक और टोप पहने वह आदमी, जिसके साथ पिलात ने महल के अँधेरे कमरे में कुछ क्षण बातें की थीं.
सबसे पीछे थी सैनिकों की श्रुंखला और उसके पीछे-पीछे लगभग दो हज़ार उत्सुक लोगों की भीड़ चल रही थी. भीषन नारकीय ऊष्मा से बिना घबराए ये लोग वह दिलचस्प नज़ारा देखने जा रहे थे.
शहर के मनचलों की भीड़ में अब उत्सुक भक्तों की भीड़ भी शामिल हो गई. उद्घोषकों की पतली आवाज़ बार-बार वही शब्द दुहरा रही थी, जो दोपहर को पिलात ने कहे थे. इस आवाज़ के साथ-साथ सब बढ़ रहे थे गंजे पहाड़ की ओर.
अश्वारिहियों के दूसरे घेरे तक सबको जाने दिया, मगर ऊपरी दस्ते ने सिर्फ उन्हीं को आगे बढ़ने दिया जिनका मृत्युदण्ड से कोई सम्बन्ध था, और फिर विद्युत गति से भीड़ को पहाड़ के चारों ओर इधर-उधर बिखेर दिया. अब भीड़ से ऊपर से पैदल सैनिकों और नीचे से घुड़सवार दस्ते के बीच फँस गई थी.वह मृत्युदण्ड की प्रक्रिया को पैदल सैनिकों के बीचे से देख सकती थी.
जुलूस को पहाड़ पर चढ़े तीन घण्टॆ से ऊपर हो गए थे. सूरज गंजे पहाड़ के नीचे ढलने लगा था. मगर गर्मी अभी भी असहनीय थी. दोनों पंक्तियों के सैनिक इस गर्मी से तड़प रहे थे, उकता रहे थे और मन ही मन तीनों डाकुओं को गालियाँ देते हुए उनके शीघ्र अंत की कामना कर रहे थे.
अश्वारोही दस्ते का छोटा-सा नायक पसीने से लथपथ था. उसकी सफ़ेद कमीज़ पीठ पर काली हो गई थी. वह पहाड़ के निचले भाग में बार-बार चहलकदमी कर रहा था. वह पहले दस्ते के निकट पानी से भरी मशक के पास जाता और उसमें से थोड़ा-थोड़ा पानी निकालकर घूँटभर पी लेता और अपनी पगड़ी को गीला कर लेता था. इससे उसे कुछ राहत मिलती. वह फिर चहलकदमी करने लगता, उस धूल भरे रास्ते पर, जो पहाड़ के ऊपर जाता था. उसकी लम्बी तलवार उसके चमड़े के जूतों से टकरा रही थी. नायक अपने सैनिकों को सहनशक्ति का उदाहरण देना चाहता था, मगर उन पर तरस खाकर उसने ज़मीन में इधर-उधर गड़ी बल्लियों पर उनके सफ़ेद कोट फैलाकर तम्बू बनाने की आज्ञा दे दी. इन्हीं तम्बुओं की छाया में निर्मम सूरज से छिप रहे थे सीरियाई. मशकें देखते-देखते खाली हो रही थीं. अनेक टुकड़ियों के सैनिक बारी-बारी से पानी पीने आ रहे थे, शहतूत के मरियल पेड़ों तले उस छोटे-से मटमैले झरने के पास जो अब इस शैतानी गर्मी में अपने अंतिम दिन गिन रहा था.
सैनिकों की थकान और उनके द्वारा डाकुओं को दी जा रही गालियाँ समझ में आ रही थीं. न्यायाधीश का भय, कि मृत्युदण्ड के समय येरूशलम शहर में, जिससे उसे घृणा थी, अव्यवस्था और बलवा जैसी घटनाएँ हो सकती हैं, निरर्थक सिद्ध हुआ. जब मृत्युदण्ड के बाद का चौथा घण्टा बीत रहा था, तब दोनों सुरक्षा पंक्तियों के बीच आशंकाओं के बावजूद एक भी आदमी नहीं बचा था. सूरज की गर्मी ने भीड़ को झुलसाकर उसे वापस येरूशलम भेज दिया था. केवल बचे थे वहाँ न जाने किसके दो कुत्ते, जो न जाने कैसे पहाड़ पर पहुँच गए थे. वे भी गर्मी से बेचैन थे और अपनी जीभे निकाले गहरी-गहरी साँसें ले रहे थे; बिना उन हरी पीठ वाली छिपकलियों की ओर ध्यान दिए, जिन पर इस भीषण गर्मी का कोई असर नहीं हो रहा था, जो पत्थरों तथा पेड़-पौधों के बीच आराम से घूम रही थीं.
किसी ने भी कैदियों को छुड़ाने की कोशिश नहीं की, न तो सैनिकों से लबालब भरे येरूशलम में और न ही घेराबन्द पहाड़ पर; और भीड़ शहर की ओर लौट चली क्योंकि मृत्युदण्ड को देखना उतना दिलचस्प नहीं था, जबकि शहर में शाम को आने वाले ईस्टर के त्यौहार की तैयारियाँ धूमधाम से चल रही थीं.
रोम के सैनिकों की ऊपरी पंक्ति घुड़सवारों की अपेक्षा अधिक परेशान थी. क्रिसोबोय ने सिर्फ इतना किया कि सैनिकों को शिरस्त्राण के स्थान पर गीली सफ़ेद पगड़ी बाँधने की इजाज़त दे दी मगर उसने सैनिकों को वहीं भाला पकड़े खड़े रहने दिया.वह स्वयँ भी अपनी सूखी सफ़ेद पगड़ी में जल्लादों से कुछ दूर चहलकदमी कर रहा था. उसने अपनी कमीज़ से शेरों के मुँह वाले तमगे भी नहीं हटाए थे, पैरों का कवच, तलवार, खंजर भी नहीं हटाए थे. सूरज सीधे क्रिसोबोय पर पड़ रहा था. उस पर तो कुछ असर नहीं हो रहा था, मगर तमगों के शेरों की ओर तो देखते नहीं बन रहा था; उनसे निकलती उबलती चाँदी की चमक आँखों को अन्धा किए जा रही थी.
क्रिसोबोय के विद्रूप चेहरे पर न तो थकान दिखाई दे रही थी, न ही अप्रसन्नता और ऐसा लगता था मानो यह भीमकाय अंगरक्षक पूरा दिन, पूरी रात, और एक और दिन, यानी जितने दिन चाहो इसी तरह चल सकता है. उसी तरह चल सकता है ताँबा जड़े भारी-भरकम पट्टे पर हाथ रखे; उसी तरह गम्भीरता से कभी वध-स्तम्भों पर लटक रहे कैदियों को या फिर श्रृंखलाबद्ध सिपाहियों को देखते हुए, उसी तरह उदासीनता से जूते की नोक से अपने पैरों के नीचे आई हुई समय के साथ सफ़ेद पड़ चुकी मानवीय हड्डियों के टुकड़ों और छोटे-छोटे कंकर-पत्थरों को हटाते हुए.
टोप पहने वह आदमी वध-स्तम्भों से कुछ दूर एक तिपाई पर बैठा था. वह प्रसन्न प्रतीत होता था, हालाँकि वह हिलडुल नहीं रहा था, मगर कभी-कभी उकताहट से रेत को खुरच देता था.
                                                   क्रमशः

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