मास्टर और मार्गारीटा -07.3
यह सब क्या है? अभागे स्त्योपा ने सोचा और उसका सिर चकराने लगा. कहीं कम्बख़्त स्मृतिभ्रंश तो नहीं हो रहा है? मगर, ज़ाहिर है, कि अनुबन्ध दिखाए जाने के बाद उसके बारे में अचरज भरा, क्रोध भरा कोई भी विचार कोई माने नहीं रखता था, बल्कि भोंडा ही प्रतीत होता. स्त्योपा ने मेहमान से एक मिनट के लिए बाहर जाने की अनुमति माँगी और वैसे ही, जुराबें पहने हुए बाहर के प्रवेश-कक्ष में रखे टेलिफोन की ओर भागा. जाते-जाते वह रसोईघर की ओर मुँह करके चिल्लाया, “ग्रून्या!”
मगर किसी ने जवाब नहीं दिया. अब उसने बेर्लिओज़ के कमरे के दरवाज़े में झाँका, जो कि प्रवेश-कक्ष में ही खुलता था, और वहीं, जैसी कि कहावत है, बुत बन गया. दरवाज़े के हत्थे पर उसने रस्सी से लटकती मोम की बड़ी-सी सील देखी. आदाब अर्ज़ है! – स्त्योपा के सिर पर मानो किसी ने हथौड़ा मारा. बस, यही होना बाकी था! और स्त्योपा के विचार मानो रेल की पटरियों पर दौड़ने लगे, जैसा कि दुर्घटना के समय आम तौर पर होता है, एक ही दिशा में, और शैतान जाने, कहाँ. स्त्योपा के दिमाग में हो रही गड्डमड्ड का वर्णन करना कठिन है. एक ओर वह काली टोपी वाला शैतान, ठंडी वोद्का और अविश्वसनीय अनुबन्ध के साथ; और दूसरी ओर दरवाज़े पर टँगी सील! जैसे कि यह कहना चाह रही हो कि बेर्लिओज़ ने कुछ गड़बड़ की है; कोई विश्वास भी नहीं करेगा; ओय,ओय, नहीं करेगा विश्वास! मगर फिर भी सील तो है! हूँ...
तभी स्त्योपा के दिमाग में उस लेख के बारे में उल्टे-सीधे विचार आने लगे जो उसने मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच के हाथ में यह कहकर ठूँस दिया था कि उसे अपनी पत्रिका में छाप दे. वैसे, यह हमारी आपस की बात है कि लेख एकदम बकवास था! किसी काम का नहीं, और पारिश्रमिक भी कम ही था...
लेख की याद आते ही स्त्योपा के दिमाग में उस सन्देहास्पद वार्तालाप की याद भी झाँक गई, जो उसके और मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच के बीच चौबीस अप्रैल की शाम को रात्रि भोजन के समय हुआ था. उस वार्तालाप को सन्देहास्पद कहना सही नहीं होगा (क्योंकि स्त्योपा ऐसी बातचीत में कभी भी भाग नहीं लेता). मगर यह बहस किसी अनावश्यक विषय पर थी. खुलकर सार्वजनिक स्थान पर, निश्चय ही, उस बारे में बात नहीं की जा सकती थी. सील लगने से पहले, इस बातचीत को कोई भी बकवास कहकर अनदेखा कर सकता था, मगर सील के बाद...
“ओह, बेर्लिओज़, बेर्लिओज़!” स्त्योपा का सिर मानो उबलने लगा – “मेरे दिमाग में यह बात कैसे नहीं आई!”
मगर वह अधिक देर तक शोकमग्न न रह सका और स्त्योपा ने वेराइटी थियेटर के वित्तीय संचालक रीम्स्की का नम्बर घुमाया. स्त्योपा की स्थिति बड़ी विचित्र थी : एक तरफ यह भय था कि विदेशी उससे इस बात पर नाराज़ हो जाएगा कि अनुबन्ध दिखाए जाने के बाद भी स्त्योपा उसकी सत्यता की जाँच कर रहा है; और वित्त संचालक से बात कर सकना भी टेढ़ी खीर थी. आख़िर उससे सीधे-सीधे यह तो नहीं पूछा जा सकता था कि ‘क्या मैंने कल काले जादू के प्रोफेसर के साथ 35,000 रुबल के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किए हैं?’ ऐसा पूछना उचित नहीं है!
“हैलो!” टेलिफोन के चोंगे में रीम्स्की की तीखी, अप्रिय आवाज़ सुनाई दी.
“नमस्ते, ग्रिगोरी दानिलोवोच,” स्त्योपा ने हौले से कहा, “मैं लिखोदेयेव हूँ. बात यह है कि...अं...अं...मेरे पास बैठा है वह...अं...कलाकार वोलान्द...तो...मैं यह पूछना चाहता था कि, आज की शाम का प्रोग्राम क्या पक्का है?”
“आह, काला जादू?” चोंगे में रीम्स्की बोला, “अभी इश्तहार तैयार हो जाएँगे.”
“अहा,” मरी-सी आवाज़ में स्त्योपा ने कहा, “मिलते हैं...”
“क्या आप शीघ्र आ रहे हैं?” रीम्स्की ने पूछा.
“आधे घण्टॆ में,” स्त्योपा ने कहा और टेलिफोन के चोंगे को लटकाकर, अपने गर्म सिर को दोनों हाथों से भींच लिया. आह, यह क्या गड़बड़ घोटाला हो गया! मेरी बुद्धि को क्या हो गया है, लोगों? आँ?
और अधिक देर तक बाहरी कमरे में रुकना उचित नहीं था. स्त्योपा ने तत्क्षण अपने दिमाग में एक योजना बना ली : हर कोशिश से अपने भुलक्कड़पन को छिपाना होगा, और अब सबसे पहले विदेशी से बड़ी चालाकी से पूछना होगा कि वह वेराइटी में शाम को क्या दिखाने जा रहा है?
स्त्योपा टेलिफोन के पास से मुड़ा और तभी, कमरे में शीशे में जिसे आलसी ग्रून्या ने बहुत दिनों से साफ नहीं किया था, उसने एक विचित्र व्यक्ति को साफ-साफ देखा : लम्बा, डण्डी की तरह पतला, चश्मा पहने (आह, काश इवान निकोलायेविच वहाँ होता! वह इस आकृति को तुरंत पहचान जाता). यह आकृति एक बार दिखकर फौरन लुप्त हो गई. स्त्योपा ने उत्तेजना से आँखें फाड़-फाड़कर कमरे में देखा, और दूसरी बार धक्का लगा, क्योंकि अब आईने में एक तन्दुरुस्त बिल्ला प्रकट होकर लुप्त हो गया.
स्त्योपा के दिल को मानो किसी ने चीर दिया. वह लड़खड़ाया.
‘यह सब क्या है?’ उसने सोचा, ‘कहीं मैं पागल तो नहीं हो रहा हूँ? ये प्रतिबिम्ब कैसे?’ उसने बाहरी कमरे में देखा और चिल्ला पड़ा.
“ग्रून्या! यह बिल्ला क्यों घूम रहा है? कहाँ से आ गया और उसके साथ और कौन है?”
“घबराइए मत, स्तेपान बोगदानोविच,” आवाज़ सुनाई दी, मगर ग्रून्या की नहीं, बल्कि शयनगृह में बैठे मेहमान की, “यह बिल्ला मेरा है. परेशान मत होइए. और ग्रून्या भी नहीं है, मैंने उसे वरोनेझ भेजा है, उसकी मातृभूमि में, क्योंकि वह शिकायत कर रही थी कि आपने उसे लम्बे अर्से से छुट्टी नहीं दी है.”
ये शब्द इतने आकस्मिक और निरर्थक थे कि स्त्योपा ने सोचा कि उसने कुछ गलत सुन लिया है. हड़बड़ाहट में वह शयनगृह की ओर दुलकी चाल से दौड़ा और दहलीज़ पर ही मानो जम गया. उसके बाल खड़े हो गए. माथे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें जम गईं.
शयनगृह में अब मेहमान अकेला नहीं था, बल्कि अपने पूरे गुट के साथ था. दूसरी कुर्सी में वही व्यक्ति था जो अभी-अभी आइने से प्रकट हुआ था. अब वह अच्छी तरह दिखाई दे रहा था : परों जैसी मूँछें, चश्मे की एक काँच चमकती हुई और दूसरी काँच गायब. शयनगृह में और भी बदतर चीज़ें दिखाई दे रही थीं : गद्देदार स्टूल पर पालथी मारे जो तीसरा प्राणी बैठा था वह कोई और नहीं बल्कि वही अकराल-विकराल बिल्ला था जिसने एक पंजे में वोद्का का पैग और दूसरे में नमकीन कुकुरमुत्ता टँका काँटा पकड़ रखा था.
क्रमश:
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