लोकप्रिय पोस्ट

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

Master aur Margarita-13.4



मास्टर और मार्गारीटा -13.4  
उपन्यास पूरा हुआ अगस्त के महीने में, किसी टाइपिस्ट ने उसकी पाँच कापी टाइप कीं. अंत में वह घड़ी भी आ पहुँची, जब गुप्त आरामगाह छोड़कर कठोर ज़िन्दगी में जाना था.
 और मैं ज़िन्दगी में निकल पड़ा, उपन्यास हाथ में लेकर और तब मेरा जीवन समाप्त हो गया, मास्टर बुदबुदाया और उसने सिर झुका लिया. पीले रेशमी एम वाली काली बेचारी टोपी बड़ी देर तक इधर-उधर हिलती रही. फिर उसने बची हुई कहानी भी सुनाई मगर उसका सिलसिला टूट चुका था. सिर्फ एक ही बात समझ में आ रही थी कि इवान के मेहमान के साथ कोई भयानक हादसा हुआ था.
 मैं साहित्य जगत में पहली बार आया था, मगर अब, जबकि सब कुछ ख़त्म हो चुका है और मेरा अंत निकट है, मैं उसके बारे में सोचकर काँप जाता हूँ! मास्टर उत्तेजना में बुदबुदाया और उसने अपना हाथ ऊपर उठा लिया हाँ, उसने मुझे बहुत चौंका दिया, आह, कितना चौंका दिया!
 किसने? इवान ने भी हौले से पूछा.
 उसी सम्पादक ने, मैं कह तो रहा हूँ, सम्पादक ने! कैसे पढ़ा उसने मेरा उपन्यास, वह मेरी ओर इस तरह देख रहा था मानो मेरा गाल फूल गया हो. बार-बार कनखियों से एक कोने की ओर देखता और बिना बात खिखियाता. बेकार में ही पांडुलिपि को मरोड़ता और घुरघुराता. जो सवाल उसने मुझसे पूछे वे भी मूर्खतापूर्ण थे. उपन्यास के बारे में कुछ भी नहीं पूछा, मगर वह यह जानना चाहता था कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्या मैं काफी समय से लिख रहा हूँ, मेरे बारे में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं है और उसने, मेरी राय में, उसने बेसिर-पैर का सवाल भी पूछा: किसने मुझे ऐसे विचित्र विषय पर उपन्यास लिखने के लिए उकसाया है?
 उसने मुझे सवाल पूछ-पूछकर हैरान कर दिया. मैंने उससे सीधे-सीधे पूछ लिया कि वह मेरा उपन्यास छापेगा या नहीं.
 तब वह गड़बड़ा गया और बोला कि वह अकेला इसके बारे में निर्णय नहीं ले सकता, इस उपन्यास का सम्पादक मण्डल के अन्य सदस्यों द्वारा पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी है; ख़ासकर आलोचक लातून्स्की एवम् अरीमान तथा साहित्यकार म्स्तिस्लाव लाव्रोविच तो इसे पढ़ेंगे ही. उसने मुझे दो सप्ताह बाद आने के लिए कहा.
मैं ठीक दो सप्ताह बाद वापस गया. मेरा स्वागत किया एक लड़की ने जिसकी आँखें लगातार झूठ बोलते रहने के कारण अपनी नाक की तरफ ही देखती थीं.
 वह लापशोन्निकोवा है, सम्पादक की सेक्रेटरी, इवान ने मुस्कुराते हुए कहा. वह उस दुनिया को भली-भाँति जानता था, जिसका विद्रूप वर्णन अभी-अभी उसके मेहमान ने किया था.
 हो सकता है, उसे बीच ही में टोकते हुए मेहमान बोला, तो उसने मुझे अपना चीकट, मुड़ा-तुड़ा उपन्यास वापस कर दिया. मुझसे आँखें चुराते हुए लापशोन्निकोवा ने बताया कि इस समय प्रकाशन गृह में अगले दो वर्षों तक के लिए काफ़ी साहित्य है इसलिए मेरे उपन्यास को छापने का प्रश्न ही नहीं उठता.
 उसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं है, मास्टर आँसू पोंछते हुए बड़बड़ाया, याद है तो सिर्फ उपन्यास की जिल्द पर बिखरी लाल पंखुड़ियाँ और मेरी प्रियतमा की आँखें. हाँ, वे आँखें मुझे अभी भी याद हैं.
इवान के मेहमान की कहानी बेतुकी होती गई, वह इधर-उधर की बातें भी उसमें घुसेड़ता रहा. कभी वह बारिश की बात करता और उसके कारण उसकी आरामगाह में हो रही असुविधा की, कभी यह कहता कि वह कहीं चला गया. हल्के से चीखता और कहता कि वह उसे दोष नहीं देता जिसने उसे इस संघर्ष में धकेल दिया था ओह, नहीं, ज़रा भी नहीं.
 याद है, याद है, अख़बार में रखा वह नासपीटा परिशिष्ट, मेहमान बुदबुदाया और उसने दोनों हाथों से हवा में अख़बार का चित्र खींचा. इवान को आगे कहे गए बेतुके वाक्यों से पता चला कि किसी और सम्पादक ने अख़बार में उपन्यास का बड़ा अंश छाप दिया था, उसके उपन्यास का जो स्वयँ को मास्टर कहता था.
मेहमान के अनुसार इस बात को दो दिन भी नहीं बीते थे कि किसी और अख़बार में आलोचक अरीमान का लेख छपा. लेख का शीर्षक था, सम्पादक के परों में छिपा दुश्मन, लेख में कहा गया था कि इवान के मेहमान ने सम्पादक की अनुभवहीनता और नासमझी का लाभ उठाकर ईसा मसीह के औचित्य को छापने का प्रयत्न किया है.
 हाँ, याद आया, याद आया! इवान चिल्लाया, मगर मैं भूल गया कि आपका नाम क्या छपा था!
 मेरे नाम को भूल जाएँ, मैं फिर कहता हूँ, अब मेरा कोई नाम नहीं है, मेहमान ने जवाब दिया, बात नाम की नहीं है. एक दिन बाद एक और अख़बार में म्स्तिस्लाव लाव्रोविच का लेख छपा, जिसमें लेखक ने पिलातवाद और भगवान का विद्रूप वर्णन करने वाले उस व्यक्ति पर गहरी चोट करने को कहा था, जिसने इस पिलातवाद को अख़बारों में घसीटा था.
 पिलातवाद शब्द से भौंचक्का होकर मैंने तीसरा अखबार खोला. इसमें दो लेख थे : पहला लातून्स्की का और दूसरे के नीचे हस्ताक्षर थे न.ए.. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि लातून्स्की के लेख के सामने अरीमान और लाव्रोविच के लेख मज़ाक कहलाने लायक थे. बस इतना ही कहना काफी है कि लातून्स्की के लेख का शीर्षक था लड़ाकू रूढ़िवादी. मैं अपने बारे में लिखे लेख को पढ़ने में इतना खो गया कि यह भी न जान पाया कि वह कब (दरवाज़ा बन्द करना मैं भूल गया था) गीली छतरी और गीले अख़बार हाथों में लिए मेरे सामने खड़ी हो गई. उसकी आँखों से आग बरस रही थी, हाथ काँप रहे थे और सर्द थे. पहले तो वह मुझसे लिपटकर मुझे चूमती रही, फिर भर्राई आवाज़ में टेबुल पर हाथ मारकर बोली कि वह लातून्स्की को ज़हर दे देगी.
इवान परेशानी में कुछ कसमसाया, मगर बोला कुछ नहीं.
 दिन बेजान, उदास थे. उपन्यास लिखा जा चुका था, करने को कुछ और था नहीं, सो हम दोनों यही करते कि अंगीठी के सामने कालीन पर बैठ जाते और उसमें जलती आग देखते रहते.अब हम पहले के मुक़ाबले ज़्यादा देर एक-दूसरे से दूर रहते थे. वह घूमने निकल जाती. और मैं अपने आप में, अपने असली रूप में आ जाता जैसा कि मेरे जीवन में बहुत कम हुआ है...अचानक अप्रत्याशित रूप से मुझे एक दोस्त मिल गया. ज़रा सोचिए, मैं वैसे लोगों से कतराता हूँ, अजनबी-सा बना रहता हूँ. लोगों से यदि मिलता भी हूँ तो अविश्वास से, शक से; और देखो, अब मेरे दिल में एक अनजान, अप्रत्याशित, न जाने किस रूप-रंग का आदमी सबसे ज़्यादा आता था और वह मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा भी लगता.
 तो उन दुर्दिनों में हमारे बगीचे का दरवाज़ा खुला; दिन खुशगवार, हेमंत ऋतु का था. वह घर पर नहीं थी. वह मेरे मकान मालिक के पास किसी काम से आया था, फिर वापस बगीचे में आया और फ़ौरन मुझसे दोस्ती कर ली. उसने बताया कि वह पत्रकार है. वह मुझे इतना अच्छा लगा कि आज भी मुझे उसकी बहुत याद आती है. फिर वह मेरे पास बार-बार आने लगा. मुझे पता चला कि वह अकेला है, मेरे बगल के ही फ्लैट में रहता है, इसी तरह के फ्लैट में, मगर वहाँ जगह बहुत कम है, वगैरह-वगैरह. उसने मुझे अपने घर कभी नहीं बुलाया. मेरी पत्नी को वह ज़रा भी नहीं भाता था, मगर मैं उसकी पैरवी करता. तब वह बोली, जो तुम्हारा दिल चाहे करो, मगर मैं कहे देती हूँ कि यह आदमी मुझे बहुत घृणित प्रतीत होता है.
 मैं हँस पड़ा. मगर बात यह थी कि आख़िर उसने मुझे आकर्षित क्यों किया था? बात असल में यह है कि एक सीधा. सरल आदमी बिना अपने पेट में कोई रहस्य छिपाए, दिलचस्प नहीं हो सकता. अलोइज़ी...हाँ, मैं बताना भूल गया कि मेरे नए मित्र का नाम अलोइज़ी मगारिच था...वह रहस्यमय व्यक्ति था. इतने बुद्धिमान आदमी से न मैं अपने जीवन में कभी मिला और न ही मिलूँगा. अगर अख़बार में छपी किसी टिप्पणी का मतलब मुझे समझ में नहीं आता तो अलोइज़ी चुटकियों में मुझे समझा देता, जैसे यह उसके बाएँ हाथ का खेल हो. यही बात रोज़मर्रा की ज़िन्दगी और उससे जुड़ी समस्याओं के बारे में थी. मगर यह तो कुछ भी नहीं है. मुझे आकर्षित किया उसके साहित्य-प्रेम ने. उसने तब तक चैन नहीं लिया, जब तक मेरा पूरा उपन्यास मुझसे पढ़वा नहीं लिया; उपन्यास के बारे में उसने बहुत अच्छी राय दी, मगर सम्पादक की इस बारे में क्या प्रतिक्रिया थी यह भी अचूक बतला दिया, मानो उस समय वह वहाँ मौजूद था. वह शत-प्रतिशत सही उतरता. इसके अलावा उसने यह भी बता दिया कि मेरा उपन्यास क्यों नहीं छप सका. उसने सीधे-सीधे बता दिया कि फलाना-फलाना अध्याय हटाना पड़ेगा...
 अख़बारों में तीव्र आलोचनात्मक लेख छपते ही रहे. पहले तो मैं उन पर हँस देता था. मगर जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती गई, मेरे रवैये में फर्क आने लगा. दूसरी तरह की प्रतिक्रिया थी आश्चर्य. इन लेखों की हर पंक्ति में कुछ न कुछ झूठ और अविश्वसनीय ज़रूर होता; हालाँकि वह सब कुछ बड़ी दमदार, धमकाती शैली में लिखा जाता था. मुझे ऐसा महसूस होता मानो इन लेखों के लेखक वह नहीं कह रहे, जो वास्तव में कहना चाहते हैं, इसीलिए उनकी आलोचना इतनी तीखी होती जा रही है. और फिर आई तीसरी अवस्था डर की. डर उन लेखों का नहीं, बल्कि ऐसी चीज़ों का जिनका उपन्यास से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं था. जैसे कि मुझे अँधेरे से डर लगने लगा. दूसरे शब्दों में यह अवस्था मानसिक रोगी की, पागलपन की थी. मुझे रात भर लाइट जलाकर सोना पड़ता, क्योंकि हमेशा यह डर लगा रहता कि बन्द खिड़कियों में से लम्बे-लम्बे, तीखे तंतुओं वाला कोई ऑक्टोपस कमरे में कूद पड़ेगा.
                                                             क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.