मास्टर और मार्गारीटा -15.4
जब तालियाँ कुछ थमीं, तो सूत्रधार ने कनाव्किन को मुबारकबाद दी, उससे हाथ मिलाया, उसे कार में घर पहुँचाने का प्रस्ताव रखा और एक अन्य व्यक्ति को आज्ञा दी कि उसी कार में बुआजी को कार्यक्रम के लिए महिला थियेटर ले आए.
“हाँ, मैं पूछने वाला था, क्या बुआजी ने यह नहीं बताया कि अपने डॉलर्स कहाँ छिपा रखे हैं?” सूत्रधार ने कनाव्किन को सिगरेट और उसे जलाने के लिए माचिस की जलती हुई तीली पेश करते हुए कहा. वह कश खींचते हुए मायूसी से मुस्कुराया.
“मानता हूँ, मानता हूँ,” गहरी साँस लेकर कलाकार बोला, “वह बुढ़िया भतीजे तो क्या शैतान को भी नहीं बताएगी! चलो, उसके दिल में मानवीय भावनाओं को जगाने की कोशिश करें. शायद उसके दिल के सभी तारों में ज़ंग न लगी हो. अच्छा, कनाव्किन, भगवान आपको ख़ुश रखे!”
कनाव्किन ख़ुश होकर चला गया. सूत्रधार ने फिर पूछा कि क्या कोई और डॉलर्स देना चाहता है? मगर इस बार हॉल में ख़ामोशी छाई रही.
“हे भगवान, अजीब बात है!” सूत्रधार ने कन्धे उचकाकर कहा और परदे ने उसे छुपा दिया.
रोशनी बुझ गई, कुछ देर तक अँधेरा छाया रहा और दूर अँधेरे में कहीं से मायूस स्वर सुनाई दिया:
सोने के ढेर पड़े हैं वहाँ, और वे सब हैं मेरे यहाँ
फिर कहीं से दो बार तालियाँ सुनाई दीं.
“महिला थियेटर में कोई महिला डॉलर्स दे रही है,” अचानक निकानोर इवानोविच की बगल में बैठा लाल दाढ़ी वाला बोल पड़ा और गहरी साँस लेकर आगे बोला, “ओह, अगर मेरे पास हंस न होते! भले आदमी, मेरे पास लिआनोज़व के लड़ाकू हंस हैं. मेरे बगैर वे मर जाएँगे. पंछी नाज़ुक है, लड़ाकू है, उड़ना चाहता है...ओह, काश हंस न होते! पूश्किन की बात से मुझे कोई बहला नहीं सकता,” उसने फिर गहरी साँस ली.
तभी हॉल रोशनी में नहा उठा.निकानोर इवानोविच को सपना आया मानो हॉल के सभी दरवाज़ों से सफ़ेद कपड़े पहने, हाथों में कड़छियाँ लिए रसोइए अन्दर आ रहे हैं. उन्होंने सूप का बर्तन और काली ब्रेड की बड़ी-सी ट्रे अन्दर घसीटी. दर्शकों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. रसोइए बड़ी फुर्ती से थियेटर में घूम-घूमकर ब्रेड के साथ डोंगों में सूप डालकर दर्शकों को दे रहे थे.
“खाओ, भाइयों!” वे चिल्ला रहे थे, “और छिपाए हुए डॉलर्स दे दो. बेकार में यहाँ क्यों बैठे हो? इस फालतू खाने को कौन खाना चाहेगा. घर जाओ और पियो-खाओ!”
“तुम, चाचा यहाँ क्यों बैठे हो?” निकानोर इवानोविच से मुखातिब होकर लाल गर्दन वाला एक मोटा रसोइया उसे सूप का डोंगा थमाते हुए पूछ बैठा, जिसमें इकलौता गोभी का पत्ता तैर रहा था.
“नहीं! नहीं! मेरे पास नहीं हैं!” बड़ी भयानक आवाज़ में निकानोर इवानोविच ने जवाब दिया, “बात को समझो, सच में नहीं हैं!”
“नहीं हैं?” रसोइया भी दहाड़ा, “नहीं हैं?” औरतों जैसी महीन, पुचकारती आवाज़ में उसने पूछा.
“नहीं, नहीं,” वह हौले से बड़बड़ाता रहा और धीरे-धीरे परिचारिका प्रास्कोव्या फ़्योदोरोव्ना के रूप में परिवर्तित हो गया.
वह कराहते हुए निकानोर इवानोविच का कन्धा सहला रही थी. तब रसोइए धुआँ बनकर उड़ गए और परदे वाला थियेटर भी गायब हो गया. निकानोर इवानोविच ने डबडबाई आँखों से अस्पताल के अपने कमरे को देखा. देखा सफ़ेद पहने दो व्यक्तियों को. ये रसोइए नहीं थे जो यहाँ-वहाँ अपनी नाक घुसेड़ रहे थे, बल्कि डॉक्टर थे. साथ में थी प्रास्कोव्या फ़्योदोरोव्ना, हाथ में सूप का डोंगा नहीं, बल्कि जाली से ढँकी इंजेक्शन की सिरिंज वाली प्लेट लिये.
“यह क्या मज़ाक है!” निकानोर इवानोविच ने बड़ी कड़वाहट से कहा, जब उसे इंजेक्शन दिया जा रहा था, “मेरे पास नहीं हैं, नहीं है! पूश्किन को उन्हें डॉलर्स देने दो...नहीं हैं!”
“नहीं हैं, नहीं हैं,” उसे पुचकारते हुए सहृदय प्रास्कोव्या फ़्योदोरोव्ना बोली, “नहीं तो नहीं, कोई बात नहीं!”
इंजेक्शन के बाद निकानोर इवानोविच को कुछ हल्का महसूस हुआ. वह शीघ्र ही गहरी नींद सो गया.
मगर उसकी चीख़ों से 120 नं. के कमरे में उत्तेजना फैल गई, जहाँ मरीज़ उठ बैठा और अपना सिर ढूँढ़ने लगा. 118नं. के कमरे में मास्टर उत्तेजित होकर निराशा से चाँद की ओर देखकर हाथ मलने लगा. उसे याद आ गई थी जीवन की अंतिम शरद की रात, दरवाज़े के नीचे से कमरे में प्रवेश करती रोशनी की किरण और बिखरे बाल.
118नं. के कमरे की बालकनी से होकर यह उत्तेजना इवान के पास पहुँची. वह जाग गया और रोने लगा.
मगर डॉक्टर ने जल्दी ही इन उत्तेजित, दुःखी व्यक्तियों को शांत कर दिया. वे फिर सो गए. सबसे अंत में सोया इवान, जब नदी के जल पर पौ फटने लगी थी. दवा पीने के बाद उसे शांति की लहर ने ढँक लिया. उसका शरीर शिथिल पड़ गया. उसे झपकी आने लगी. वह सो गया. अंतिम आवाज़ जो उसने सुनी, वह थी जंगल में चिड़ियों की चहचहाहट. मगर शीघ्र ही सब कुछ शांत हो गया. वह सपना देखने लगा कि गंजे पहाड़ के पीछे सूरज ढलने लगा है और पहाड़ को दुहरी सुरक्षा पंक्तियों ने घेर रखा है...
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