मास्टर और मार्गारीटा- 08.1
प्रोफेसर और कवि के बीच द्वन्द्व
ठीक उसी समय जब याल्टा में होश स्त्योपा का साथ छोड़े जा रहा था, यानी लगभग साढ़े ग्यारह बजे, वो इवान निकोलायेविच बेज़्दोम्नी के पास वापस लौटा, जो कि एक लम्बी और गहरी निद्रा से तभी जागा था. कुछ देर तक तो वह सोचता रहा कि वह इस अनजान सफेद दीवारों वाले, चमकदार खूबसूरत टेबुल वाले, सफेद कमरों वाले कमरे में कैसे आ गया, जिसके बाहर उसे सूरज की रोशनी का अनुभव हो रहा था.
इवान ने सिर को झटका देकर यह इत्मीनान कर लिया कि दर्द नहीं है और तभी उसे याद आया कि वह चिकित्सालय में है. इस ख़्याल ने बेर्लिओज़ की मृत्यु की याद हरी कर दी:लेकिन आज इस विचार ने उसे उतनी बुरी तरह नहीं झकझोरा. गहरी नींद के बाद इवान कुछ शान्त हो गया था. अब वह ठण्डे दिमाग से बहुत कुछ स्पष्टतापूर्वक सोच सकता था. साफ, नर्म, गुदगुदे बिस्तर पर कुछ देर निश्चल पड़े रहने के बाद इवान ने अपने निकट ही घण्टी का बटन देखा. बिना ज़रूरत चीज़ों को छूने की आदत से मजबूर इवान ने बटन दबा दिया. वह किसी आवाज़ की या किसी के आने की उम्मीद कर रहा था, मगर हुआ बिल्कुल उल्टा. इवान के पलंग की टाँग पर लगे हुए एक मटमैले-से बेलन में लगी रोशनी जल उठी और उस पर चमकते हुए अक्षर प्रकट हो गए, “पेय”. कुछ देर स्थिर रहने के बाद इस बेलन ने अपनी धुरी पर ज़ोर-ज़ोर से घूमना शुरू कर दिया, और तब तक घूमता रहा, जब तक कि उस पर “नर्स” अक्षर नहीं दिखाई दिए. ज़ाहिर है कि इस चालाक बेलन ने इवान को हैरान कर दिया. “नर्स” शब्द के बाद अब बेलन पर “डॉक्टर को बुलाइए” यह लिखावट आ चुकी थी.
“हूँ”...इवान मनन करने लगा कि इस शैतान बेलन के साथ आगे क्या सलूक किया जाए. आख़िर तीर में तुक्का लग ही गया. जैसे ही इवान ने “सहायक डॉक्टर” शब्द आते ही दूसरी बार बटन दबाया, बेलन से एक हल्की-सी आवाज़ आई, वह रुक गया. रोशनी बुझ गई और कमरे में सफ़ेद कोट पहने एक सहृदय महिला ने प्रवेश किया. उसने इवान से कहा, “नमस्ते!”
इवान ने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उसे इन परिस्थितियों में यह “नमस्ते” बेतुकी जान पड़ी. बात सही थी – एक तन्दुरुस्त आदमी को अस्पताल में डाल दिया गया था और ऐसा दिखा रहे हैं मानो यही ठीक था.
उस महिला ने चेहरे पर से सहानुभूति का भाव ढलने नहीं दिया और एक बटन दबाकर खिड़की के परदे ऊपर उठा दिए. कमरे के फर्श को छूती चौड़ी और हल्की जाली से सूरज ने कमरे में झाँका. जाली के पीछे एक बाल्कनी दिखाई दी, उसके पीछे बल खाती नदी का किनारा और नदी के दूसरे किनारे पर चीड़ के पेड़ों का प्रसन्न-सा वन.
“कृपया नहा लीजिए,” महिला ने कहा और उसके हाथों के नीचे की दीवार खिसकी, जिसके पीछे सभी सामग्री से सुसज्जित स्नानगृह एवं शौचालय दिखाई दिए.
हाँलाकि इवान ने निश्चय कर लिया था कि वह इस महिला से बात नहीं करेगा, मगर फिर भी स्नानगृह के नल से तेज़ धार से बहते हुए पानी को देखकर वह अपने आपको रोक नहीं पाया और वह व्यंग्यात्मक सुर में बोला, “क्या बात है! मानो ‘मेट्रोपोल’ में हों!”
“ओह, नहीं,” महिला ने गर्व से कहा, “उससे भी कहीं ज़्यादा अच्छा है. इस तरह की सामग्री तो विदेशों में भी कहीं नहीं मिलेगी; वैज्ञानिक और डॉक्टर ख़ास तौर से हमारा अस्पताल देखने आते हैं. हर रोज़ पर्यटक, विदेशी आते रहते हैं.”
“विदेशी पर्यटक” शब्द सुनते ही इवान को कल वाला सलाहकार याद आ गया. उसकी आँखों के आगे धुंध छा गई. कनखियों से देखते हुए उसने कहा, “विदेशी पर्यटक...कितना सिर पर चढ़ा लेते हैं आप लोग विदेशी पर्यटकों को! उनके बीच कई किस्म के लोग होते हैं. मैं कल ऐसे ही एक पर्यटक से मिला था, और लेने के देने पड़ गए.”
और वह पोंती पिलात के बारे में कहने ही वाला था, मगर उसने अपने आपको रोक लिया, यह समझकर कि इस औरत को इन सब बातों से क्या लेना-देना; किसी भी परिस्थिति में वह उसकी कोई मदद तो कर ही नहीं पाएगी.
नहाए-धोए इवान निकोलायेविच को वह सब कुछ दिया गया, जिसकी स्नानोपरांत एक पुरुष को आवश्यकता होती है:इस्तरी की हुई शर्ट, तंग पैजामा, जुराबें...मगर यह तो कुछ भी नहीं, अलमारी का दरवाज़ा खोलकर डॉक्टर ने दिखाया और पूछा, “क्या पहनेंगे, गाऊन या पैजामा?”
ज़बर्दस्ती इस नए आवास में कैद इवान ने महिला की इस बेतकल्लुफी से घबराकर उसे हाथों से लगभग धकेल दिया और चुपचाप पैजामे की तह की हुई गड्डी में उँगली गड़ा दी.
इसके बाद इवान निकोलायेविच को खाली और निःशब्द गलियारे से होते हुए एक बहुत बड़े कक्ष में ले जाया गया. इवान ने, जिसने सभी घटनाओं का उपहासपूर्वक मुकाबला करने की ठान ली थी, फ़ौरन ही अलौकिक उपकरणों से सुसज्जित इस कक्ष को “फैक्टरी-रसोईघर” का नाम दे दिया.
ऐसा करने का भी एक कारण था. इस कक्ष में अनेक बड़ी और छोटी अलमारियाँ रखी थीं, जो चमचमाते हुए, निकल के विभिन्न उपकरणों से अटी पड़ी थीं. कुछ जटिल-से आकार की कुर्सियाँ थीं, चमकदार शेड वाले फूले-फूले से लैम्प, अनगिनत बोतलें, गैस के बर्नर, बिजली के तार, और अन्य अनेक ऐसे उपकरण जिनके बारे में किसी को जानकारी नहीं थी.
कक्ष में इवान की ओर तीन लोग बढ़े – दो महिलाएँ और एक पुरुष – सभी सफेद कपड़े पहने थे. सबसे पहले उसे कोने में रखे एक टेबुल की ओर ले जाया गया. स्पष्ट था कि उससे कुछ पूछा जाने वाला था. इवान ने अपनी स्थिति का मनन किया. उसके सामने तीन रास्ते थे. पहला रास्ता बहुत लुभावना जान पड़ा : इन लैम्पों और चमचमाती वस्तुओं पर झपटकर उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाए और इस तरह उसे यहाँ ज़बर्दस्ती रोके रखे जाने पर विरोध प्रकट किया जाए. मगर आज का इवान कल के इवान से बहुत भिन्न था, इसलिए पहला रास्ता उसे सन्देहास्पद जान पड़ा : वे लोग ये निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि वह एक ख़तरनाक मानसिक रोगी है. इसलिए इवान ने इस ख़्याल को दिमाग से निकाल दिया. दूसरा : तुरंत ही उस सलाहकार और पोंती पिलात की कहानी शुरू कर दी जाए. मगर कल के अनुभव ने सिद्ध कर दिया था कि इस कहानी पर या तो कोई विश्वास ही नहीं करेगा या उसके अर्थ का अनर्थ निकाला जाएगा. इसलिए इवान ने इस मार्ग को भी छोड़ दिया और तीसरी राह के बारे में सोचने लगा : ख़ामोशी के आलम में खो जाया जाए.
पूरी तरह ऐसा करना संभव न हो सका और चाहे-अनचाहे किन्हीं प्रश्नों के उत्तर देने ही पड़े, चाहे संक्षेप में या तेवर चढ़ाकर.
इवान से उसकी पिछली ज़िन्दगी का पूरा ब्यौरा पूछा गया, यह भी कि उसे लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व लाल बुखार कब और कैसे हुआ था. इवान के जवाबों से एक पूरा पृष्ठ भर जाने के बाद उसे उलटा गया और सफ़ेद वस्त्र पहनी महिला ने इवान के रिश्तेदारों के बारे में पूछताछ आरंभ कर दी. सवालों का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो गया : कौन मर गया, कब, कैसे; क्या शराबी था? गुप्त रोगों से पीड़ित था?...और भी इसी तरह का बहुत कुछ. अंत में पत्रियार्शी के किनारे घटी कल की घटना के बारे में बताने को कहा गया, मगर सब कुछ सुनकर भी कोई नहीं चौंका, और न ही किसी को पिलात की कहानी सुनकर आश्चर्य हुआ.
क्रमश:
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