मास्टर और मार्गारीटा -13.5
“मेरी प्रियतमा भी बहुत बदल गई हालाँकि मैंने उसे सम्भावित हत्यारे के बारे में नहीं बताया था. मगर वह समझ रही थी कि मेरे साथ कुछ अजीब सी बात हो रही है; वह दुबली हो गई, पीली पड़ गई, उसकी हँसी कहीं खो गई. वह मुझसे बस यही कहती कि उसी के कारण मुझे यह दुःख उठाना पड़ रहा है. न वह मुझसे उपन्यास पूरा करने की ज़िद करती, न यह सब होता. न वह उपन्यास का एक अंश छपवाने की ज़िद करती न सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ जाती. उसने कहा कि मैं सब कुछ छोड़कर एक लाख रूबल में से बचे हुए पैसों में दक्षिण में कालासागर तट पर जाकर रहने लगूँ.
“वह बहुत ही ज़िद करने लगी और मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था. (मुझे पूर्वाभास हो गया था कि मैं कालासागर न जा सकूँगा) मैंने वादा किया कि मैं जल्दी ही चला जाऊँगा; मगर उसने कहा कि मेरा टिकट वही खरीदेगी. तब मैंने बचे हुए सारे पैसे, जो करीब दस हज़ार रूबल थे, उसके हाथ में दे दिए.
“इतने सारे क्यों?” उसे आश्चर्य हुआ. मैंने कहा कि मुझे चोरों से डर लगता है, और उससे विनती की कि वह मेरे जाने तक मेरे इस धन को सुरक्षित रखे. उसने पैसे पर्स में रख लिए और मुझे चूमकर कहने लगी कि मुझे ऐसी स्थिति में छोड़कर जाने के बदले मरना ज़्यादा आसान होगा, मगर घर पर उसका इंतज़ार हो रहा होगा, वह मजबूर है और वह कल फिर आएगी. उसने मुझे मनाते हुए कहा कि मैं किसी चीज़ से न डरूँ.
“यह हुआ शाम के धुँधलके में, अक्टूबर के मध्य में. वह चली गई. उसके जाने के बाद मैं बिना लाइट जलाए सोफे पर लेट गया और मेरी आँख लग गई. अचानक मुझे आभास हुआ कि कमरे में ऑक्टोपस है. अँधेरे में टटोलते हुए मैंने बड़ी मुश्किल से लैम्प जलाया. मेरी जेब घड़ी में रात के दो बजे थे. मैं स्वयँ को बीमार अनुभव करता सोया था, जब जागा तो सचमुच में बीमार हो गया था. मुझे लगा कि शिशिर का अँधेरा शीशों में से अन्दर घुस रहा है और मैं उसमें डूबता जा रहा हूँ. मैं अपना संतुलन खो चुका था. मैं चीखकर किसी के पास भागने के लिए हाथ-पैर मारने लगा, चाहे वह ऊपर की मंज़िल पर रहने वाला मेरा मकान-मालिक ही क्यों न हो. मैं पागल की भाँति हाथ-पैर चलाता रहा. रही-सही शक्ति बटोरकर मैं अँगीठी के पास गया और उसमें रखी लकड़ियाँ जला दीं. जब वे चटचट की आवाज़ के साथ जलने लगीं और अँगीठी के नन्हे दरवाज़े पर दस्तक हुई तो मुझे कुछ हल्का महसूस हुआ. मैं सामने के कमरे में गया, वहाँ बत्ती जलाई, सफ़ेद वाइन की बोतल निकाली और उसका ढक्कन खोलकर बोतल से ही गटगट पीने लगा. इससे मेरा डर काफ़ी कम हुआ – मैं बजाय मकान-मालिक के पास भागने के अँगीठी की ओर आया. मैंने अँगीठी का दरवाज़ा खोल दिया, जिससे गर्म हवा मेरे चेहरे और हाथों से लिपटने लगी और फुसफुसाया: समझ जाओ, मेरे साथ कोई दुर्घटना हो गई है...आओ, आओ, आओ!
“मगर कोई नहीं आया. अँगीठी में आग गरज रही थी, खिड़की पर बारिश टकरा रही थी. और तब मानो इस सबका अंतिम चरण आ पहुँचा. मैंने मेज़ की दराज़ में से मोटा-सा उपन्यास एवम् पांडुलिपि निकाली और उन्हें जलाने लगा. यह बड़ा मुश्किल काम है, क्योंकि लिखा हुआ कागज़ आसानी से नहीं जलता. अपने नाखूनों को ज़ख़्मी करते हुए मैं पन्ने फाड़ता गया. उन्हें लकड़ियों के बीचे में खड़ा रखता रहा और चिमटे से अन्दर घुसाता रहा. उनकी राख मुझे बीच-बीच में जल्दी-जल्दी जलाने में बाधा डाल रही थी, राख लौ का गला घोंट रही थी, मगर मैं उससे संघर्ष करता रहा और मेरा उपन्यास भी ज़बर्दस्त प्रतिरोध करता रहा, फिर भी वह नष्ट होता रहा. मेरी आँखों के सामने चिर-परिचित शब्द नाचते रहे. पीलापन नीचे से ऊपर की ओर बढ़कर पन्नों को समेटता जा रहा था. मगर शब्द लौ के बीच भी चमकते रहे. वे सिर्फ तभी लुप्त हुए जब कागज़ काला हो गया और मैं उन्हें चिमटे से मसलता रहा.
“इसी समय खिड़की पर हौले से खरोंचने की आवाज़ आई. मेरा दिल उछला और मैंने आख़िरी पन्ने अँगीठी में फेंके और दरवाज़ा खोलने के लिए लपका. सीढ़ियाँ तहख़ाने से आँगन की ओर के दरवाज़े तक जाती थीं. मैं दरवाज़े के पास गिरता-पड़ता पहुँचा और बोला :
“कौन है?”
“और उस आवाज़ ने, उसकी आवाज़ ने जवाब दिया, “मैं हूँ...”
“पता नहीं कैसे मैंने दरवाज़ा खोला. जैसे ही वह अन्दर आई, मुझसे लिपट गई. वह पूरी गीली थी. गीले गाल, बिखरे बाल, काँपता तन. मैं सिर्फ इतना ही कह सका :
“तुम...तुम?” – और मेरी आवाज़ टूट गई. हम नीचे की ओर भागे. उसने जल्दी से कोट उतार फेंका और हम फ़ौरन पहले कमरे में आए. हल्की-सी चीख़ मारकर उसने नंगे हाथों से अँगीठी में से वे अंतिम पन्ने निकाले जो जलने से बच गए थे. कमरे में धुआँ भर गया था. मैंने पैरों से आग बुझाई. वह सोफे पर लुढ़क गई और हिचकियाँ ले-लेकर रोती रही.
जब वह कुछ शांत हुई तो मैंने कहा, “मुझे इस उपन्यास से नफ़रत हो गई है और मुझे डर लगता है. मैं बीमार हूँ. मुझे बहुत डर लग रहा है.”
वह उठी और बोली, “हे भगवान, तुम कितने बीमार हो! क्यों? किसलिए? मगर मैं तुम्हें बचाऊँगी, बचाऊँगी मैं तुम्हें यह क्या बात हुई?”
“मैंने उसकी आँखों की ओर देखा जो धुँए से और रोने के कारण फूल गई थीं. मैंने महसूस किया कि उसकी ठण्डी हथेलियाँ मेरे माथे को सहला रही हैं.
“मैं तुम्हारा इलाज करूँगी, तुम्हें ठीक करूँगी,” वह बड़बड़ाई, मेरे कन्धों को पकड़कर बोली, “तुम उसे पुनर्जीवित करोगे. ओह, मैंने इसकी एक प्रति अपने पास क्यों न रखी!”
वह गुस्से से दाँत पीसती रही, कुछ बेतरतीब-सा बड़बड़ाती रही. फिर होंठ भींचकर वह जले हुए पन्ने इकट्ठे करने लगी. उपन्यास के मध्य का कोई अध्याय था, याद नहीं कौन-सा. उसने जले हुए पन्ने तरतीब से लगाए, उन्हें एक कागज़ में लपेटा. उस पर एक रिबन बाँधी. उसकी हरकतों से लग रहा था कि उसने कोई फैसला कर लिया है और अपने आप पर काबू पा लिया है. उसने थोड़ी सी वाइन माँगी और पीकर शांति से बोली :
“देखो, ऐसी देनी पड़ती है झूठ की कीमत...,” वह बोली, “मैं और झूठ नहीं बोलना चाहती. मैं अभी भी तुम्हारे पास ठहर सकती हूँ, मगर मैं ऐसा इस तरह नहीं करना चाहती. मैं नहीं चाहती कि वह हमेशा यही सोचता रहे कि मैं उसके घर से रात को भाग गई. उसने मुझे कभी कोई दुःख नहीं दिया. उसे अचानक बुला लिया गया. उसकी फैक्ट्री में आग लग गई है. मगर वह जल्दी से लौट आएगा. मैं कल सुबह उसे सब कुछ बता दूँगी, कह दूँगी कि मैं किसी और से प्यार करती हूँ और तब मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास आ जाऊँगी. बोलो, तुम्हें इससे इनकार तो नहीं?”
“मेरी प्यारी, मासूम साथी,” मैंने उससे कहा, “मैं तुम्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं दूँगा. मेरा भविष्य तो अँधेरे में है और मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ तुम भी तिल-तिल कर मरो.”
“सिर्फ यही कारण है?”
“सिर्फ यही!”
उसमें मानो जान पड़ गई हो. वह मुझसे लिपट गई. मेरे कन्धे को सहलाते हुए बोली, “तो मैं भी तुम्हारे साथ मरूँगी. सुबह मैं तुम्हारे पास आ रही हूँ.”
बस, यही आख़िरी बात है मेरी ज़िन्दगी की जो मुझे याद है. वह बाहरी कमरे से आती प्रकाश की किरण..., उस रोशनी में बिखरी हुई लट..., उसकी हैट और निश्चय से भरी उसकी आँखें. बाहरी दहलीज़ पर छाया अँधेरा और सफ़ेद पैकेट भी याद है.
“मैंने तुम्हें छोड़ने आ सकता था मगर मुझमें अकेले वापस आने की शक्ति नहीं है, मुझे डर लग रहा है.”
“डरो मत. बस कुछ घण्टे इंतज़ार कर लो. कल सुबह मैं तुम्हारे साथ रहूँगी,” - यही उसके आख़िरी शब्द थे.
“श्...श्...श्...!” तभी रोगी ने अपने आपको रोकते हुए कहा और ऊँगली ऊपर उठाई, “आज की चाँद की रात बड़ी बेचैन है!”
वह बालकनी में छिप गया. इवान ने गलियारे में पहियों की गाड़ी के चलने की आवाज़ सुनी, कोई धीरे-से कराहा या शायद चिल्लाया.
क्रमशः
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.